शनिवार, 31 मार्च 2007

आवरण


इस अंक में

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इस माह 21 मार्च को विश्व वानिकी दिवस मनाया जायेगा। इस अवसर पर प्रकाशित पर्यावरण डाइजेस्ट के इस अंक में पड़त भूमि , वन और वन्य प्राणी पर विशेष सामग्री दी गयी है।

पहले लेख खनन के नाम पर संसाधनों की लूटमार में प्रसिध्द पत्रकार लेखक भारत डोगरा ने प्रस्तावित खनन नीति के मुद्दे पर अपने विचार रखे है। इसी के साथ जयश्री वैंकटेशन ने अपने लेख पड़ती भूमि पर पुनर्विचार की जरुरत में लिखा है कि हमें जमीन के उपयोग व बंदोबस्त की वर्तमान नीतियों में आधुनिक समझ को जगह देनी होगी। पाकिस्तान में पिछले दिनों संपन्न जश्ने-ए-सिंध डेल्टा पर आधारित लेख पाकिस्तान ः विलुप्त होती सिंध घाटी की सभ्यता में आप शाहिद हुसैन के विचार पढ़ेंगे। एक महत्वपूर्ण लेख क्या जंगल का राजा है शेर ? में डॉ. चंद्रशीला गुप्ता ने शेरों के जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां दी है। कर्नाटक में विज्ञान के प्रधानाध्यापक एम. उन्नीकृष्णन् ने अपने लेख विज्ञान, कांग्रेस और भारतीय वैज्ञानिक में कांग्रेस के सम्मेलन और उससे जुड़ी बातों की चर्चा की है।

वेदों के प्रकाण्ड पंडित लातुर (महाराष्ट्र) के प्राध्यापक डॉ. चन्द्रशेखर लोखण्डे ने वृक्षों की कटाई -आपदाओं को आमंत्रण में वेदो में वर्णित वृक्षों संबंधी तथ्यों की ओर ध्यान आकर्षित किया है। कविता में इस बार लखनऊ (उ.प्र.) के साहित्यकार, गीतकार, गिरधारीलाल मौर्य की कविता प्रदूषण का उपचार एक पौधा आप पढ़ेंगे।

पत्रिका के बारे में आपकी राय से अवगत करायें।

-कुमार सिध्दार्थ

बजट 2007

प्रसंगवश

बजट 2007

आम आदमी का सपना और हकीकत

केन्द्र सरकार पर 25 लाख करोड़ रुपयों का कर्ज है। इस तरह प्रत्येक भारतीय व्यक्ति पर बाईस हजार रु. कर्ज है। सोलह वर्ष पहले 1990-91 में यह कर्ज केवल 3500 रु. था। केंद्र सरकार को विदेशी ऋण के 76716 करोड़ रु. चुकाना हैं। संसद में वर्ष 2007-08 का बजट पेश करने के पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम् ने वर्ष 2006-07 की आर्थिक समीक्षा को इस तरह पेश किया कि आम आदमी को कुछ भी समझ में नहीं आ सका है।

ताजा आर्थिक समीक्षा से न तो पिछले वर्ष की उपलब्धियों और असफलताओं को जानने का मौका मिला और न यह अनुमान लगाना संभव हुआ है कि अगला वर्ष कैसा बीतेगा। केव यह भरोसा दिलाया जा रहा है कि आर्थिक विकास की 9.2 प्रतिशत दर हासिल कर ली जाएगी। इस आर्थिक विकास का लाभ कितना, कैसा और किसको मिलेगा, इसकी कल्पना करना अभी मुश्किल हो रहा है।

कृषि उत्पादन में वृध्दि की निराशाजनक तस्वीर पर ध्यान दिया जाना जरुरी है। चांवल (8 करोड़ टन), दालें (1.45 करोड़ टन) तिलहन (2.8 करोड़ टन), गेंहँ (7.2 करोड़ टन) की जानकारी बतलाती है कि चालू वर्ष में उत्पादन घटा हैं। कपास (2.1 करोड़ गाँठ) और गन्ना (31 करोड़ टन) के ऑंकड़े जरुर गत वर्ष से बेहतर हैं। मगर खाद्यान्न का उत्पादन 22 करोड़ टन के लक्ष्य से 1.1 करोड़ टन कम रहा है। अनाज, दालों और तेल की बढ़ती कीमतों की जिम्मेदारी इसी कमी पर है।

यह खुशी की बात है कि उच्च शिक्षा हासिल करने वालों की संख्या में 40 प्रतिशत की वृध्दि हुई है और प्रतिवर्ष 1.5 करोड़ विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इनमें एक तिहाई लड़कियाँ हैं। मगर सर्वशिक्षा अभियान और प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा की हालत चिंताजनक है। काफी बड़े अनुपात में बच्चे पढ़ाई अधूरी छोड़ने को मजबूर हैं। इस दिशा में सबसे खास ध्यान दिलाने वाला मुद्दा यह है कि भारत की जनसंख्या 1.6 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही हैं और 2045 में जाकर ही बढ़ना रुकेगी। आधे से अधिक जनसंख्या युवा वर्ग की होगी जिनकी शिक्षा और रोजगार की व्यवस्था करना होगी शेयर बाजार में आर्थिक समीक्षा को इसीलिए चिंता की दृष्टि से लिया गया है। समीक्षा में दिए गए संकेतों के अनुसार कार्रवाई होना जरुरी है क्योंकि शेयर बाजार और वायदा बाजारों की तेजी का जो असर आर्थिक विकास की मरीचिका में प्रकट हो रहा था, उसका गुब्बारा फूटने का डर भी लग रहा है। ***

खबरिया चैनलों के लिए कानून जरुरी

सामाजिक संगठनों ने म ुनाफा और व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा की होड़ में समाज में अंधविश्वास, अपराध एवं अन्य नकारात्मक प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने वाले निजी टेलीविजन चैनलों पर नियंत्रण रखने के लिए सरकार से तत्काल कड़े कानून बनाने की मांग की है।

सामाजिक संगठन ओपन फोरम एवं ओमेक्स फाउंडेशन की ओर से पिछले दिनों नई दिल्ली में सम्पन्न मीडिया एवं सामाजिक विकास पर राष्ट्रीय संगोष्ठी में वक्ताओं ने देश में मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के तेजी से हो रहे विस्तार एवं इनके द्वारा पेश की जा रही आपत्तिजनक सामग्रियों के मद्देनजर कारगर राष्ट्रीय मीडिया नीति भी बनाए जाने की जरुरत महसूस की जा रही है।

देश में फिल्मों के लिए केंद्रीय सेंसर बोर्ड जैसी नियामक संस्था है लेकिन लोगों की मानसिकता एवं सोच को व्यापक पैमाने पर प्रभावित करने वाले टेलीविजन चैनलों के लिए कोई नियामक संस्था अभी तक नहीं बनाई गई है।

आज ज्यादातर पत्रों एवं टेलीविजन चैनलों की सामग्रियों का चयन जनहित एवं सामाजिक सरोकार के आधार पर नहीं बल्कि व्यावसायिक मुनाफे के आधार पर होता है। यही कारण है कि आज मीडिया से जनहित एवं सामाजिक विकास से जुड़ी खबरें एवं सामग्रियां गायब हो रही है और इनकी जगह पर सस्ता मनोरंजन बेचा जा रहा है। यह तर्क दिया जा रहा है कि लोग ऐसा चाहते है जबकि लोगों की रुचियों को जानने के लिए न तो कोई अध्ययन हो रहा है और न ही कोई सर्वेक्षण।

समाज और देश के विकास में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है इसलिये मीडिया को केवल व्यावसायिक होड़ में फंस कर अपनी इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।

एक समय समाचार पत्र जनहित के मुद्दों को तरजीह देते थे क्योंकि उस समय समाचार पत्रों की आमदनी का 30 से 40 प्रतिशत हिस्सा पाठकों से प्राप्त होता था लेकिन आज समाचार पत्रों एवं टेलीविजन चैनलों की आमदनी का मुख्य स्त्रोत विज्ञापन हो गए हैं। आज खबरिया चैनलों में प्राइम टाइम पर प्रसारित होने वाली खबरों में तीन प्रतिशत से भी कम खबरें सामाजिक विकास के मुद्दों से जुड़ी होती हैं।यही कारण है कि मीडिया सामान्यजन से दूर होता जा रहा है ।

खनन के नाम पर संसाधनों की लूटमार

1 सामयिक

खनन के नाम पर संसाधनों की लूटमार

भारत डोगरा

नई राष्ट्रीय खनन नीति की घोषणा शीघ्र होने वाली है। यदि कुछ मुद्दों पर विवाद बहुत पेचीदा न होते, तो संभवतः यह नीति कब की प्रस्तुत हो चुकी होती।

किसी राष्ट्र के विकास, आजीविका व व्यापार में खनिज संपदा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भारत की खनिज संपन्नता को देखते हुए यह भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। पर साथ ही खनन के पर्यावरण पर होने वाले असर को इसलिये भी ध्यान में रखना बहुत जरुरी है जिससे खनन की प्रक्रिया से तबाही न हो। यह भी आकलन करना आवश्यक है कि खनन का आसपास के गांववासियों, खेती और पशुपालन, जल-स्त्रोतों व वनों पर क्या असर पड़ेगा। यह सभी बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न हैं।

यदि किसी स्थान से खनिज इस तरह से निकाला जाए कि वहां के जल-स्त्रोत ही तबाह हो जाएं तो निश्चय ही जीवन के आधार की यह तबाही स्वीकार नहीं की जा सकती है। अतएव इस विषय में समग्र दृष्टिकोण की बहुत आवश्यकता है। जब टिकाऊ व समग्र विकास को ध्यान में न रखकर केवल अल्पकालीन मुनाफे को आधार बनाया जाता है तो इससे खनिज सम्पदा सम्पन्न क्षेत्रों के विकास के स्थान पर उनकी तबाही होने लगती है।

भारत में इन दिनों लौह अयस्क का व्यापार संबंधी विवाद काफी तीखा हो रहा है व इसे राष्ट्रीय आर्थिक नीति की घोषणा में देरी का यह एक मुख्य कारण भी माना जा रहा है। दरअसल भारत के अयस्क भंडार पर विश्व की कई स्टील कंपनियों की नजर गढ़ी है व वे बड़े पैमाने पर लौह अयस्क खरीदने के लिए तैयार हैं। लौह अयस्क को बड़े पैमाने पर निर्यात करने के कई प्रस्ताव हाल ही में चर्चित भी हुए हैं। इस बारे में एक अन्य राय यह है कि देश के सीमित लौह अयस्क भंडार की अगर हम इतनी तेजी से निर्यात कर देंगे तो हमारे अपने स्टील उद्योग को लौह अयस्क कहां से मिलेगा। भविष्य हेतु ठीक से कार्य योजना बननी चाहिए जिससे कि अति महत्वपूर्ण स्टील उद्योग की जरुरतें पूरी हो सकें।

कुछ अध्ययनों में चिंता जाहिर करते हुए बताया गया है कि यदि वर्तमान दर से निर्यात होता रहा तो कुछ ही वर्षो में हमारे लौह अयस्क भंडार समाप्त होने लगेंगे व तब हमारे अपने स्टील उद्योग के लिए कच्चे माल के संकट की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। इसके जवाब में यह कहा जा रहा है कि समय के साथ-साथ लौह अयस्क के नए भंडार पता चलेंगे। अतः अभी विदेशी मुद्रा कमाने के अवसर को हाथ से न जाने दिया जाए,पर यह दृष्टिकोण बहुत भाग्यवादी है। साथ ही यह भी विचारणीय है कि क्या केवल नए भंडार की उम्मीद पर आप अपनी भविष्य की जरुरतों को नजरअंदाज कर दें? कई देशों के पास अपने अच्छे खासे लौह अयस्क भंडार है पर फिर भी वे एक सीमा के बाद इनका जल्दबाजी में दोहन नहीं करते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी भविष्य की जरुरतों का भी ख्याल है।

लौह अयस्क के अतिरिक्त कोयले संबंधी विवाद भी पेचीदा हैं। एक बहुत शक्तिशाली लॉबी यह चाहती है कि इस क्षेत्र में बड़ी निजी व विदेशी कम्पनियों का तेजी से आगमन हो। पर कोयले के खनन के निमित्त वर्ष 1973 में बना राष्ट्रीकरण का कानून इसकी इजाजत ही नहीं देता। जब कोयले के खनन का राष्ट्रीकरण हुआ था तो इसे कांग्रेस लोक हितकारी निर्णय के रुप में बहुत प्रचारित किया था। अब कांग्रेस की अग्रणी भूमिका वाली यूपीए सरकार के लिए यह कठिन हो रहा है कि वह अपनी ही प्रचारित एवं प्रसारित नीतियों से पीछे कैसे हटे।

इस स्थिति से निबटने का एक तरीका काफी माथापच्ची के बाद यह ढूंढा गया था कि जिन कम्पनियों या उपक्रमों को कोयले की अधिक जरुरत होती है, (जैसे ताप बिजलीघरों व स्टील उद्योग को) उन्हें कोयले के कुछ कैप्टिव ब्लाक दे दिए जाएं व तत्पश्चात् उन्हें यह इजाजत भी दे दी जाए कि वे किसी निजी या विदेशी खनन कंपनी से संयुक्त प्रयास या संयुक्त उपक्रम का समझौता कर लें। अब इसे और आगे बढ़ाया जा रहा हैव बड़ी निजी व विदेशी खनन कंपनियों को सीधे कोयले के ब्लाक खनन के लिए देने की तैयारी की जा रही है। उन्हें बस यह बताना होगा कि स्टील या सीमेंट उद्योग या ताप बिजली घरों आदि कोयले के बड़े व महत्वपूर्ण उपभोक्ताओं को आपूर्ति करने की स्वीकृति उनके पास है।

जहां ऐसे निर्णयों में भारत के बाहर की अनेक विदेशी खनन कंपनियों में बहुत उत्साह आ गया है, वहां सरकार को अभी तक यह दुविधा है कि कोयला राष्ट्रीकरण अधिनियम सन् 1973 के रहते विदेशी व निजी क्षेत्र की इतनी सारी कंपनियों को बड़े पैमाने को कोयला खनन की अनुमति देकर वह किसी कानूनी संकट में न पड़ जाए। राष्ट्रीयकरण अधिनियम में संशोधन करने का प्रस्ताव भी बहुत समय से सरकार के समक्ष विचाराधीन है, पर इससे राजनीतिक हड़कंप मचेगा, उससे सरकार दाव पेच चलाकर वह फिलहाल अपनी इसी नीति को आगे बढ़ाना चाहती हैं।

बाक्साईट के खनन की योजनाएं भी तीखे विवादों के घेरे में हैं। उड़ीसा के कालाहांडी जिले में व इसके आसपास के क्षेत्र में प्रस्तावित बाक्साईट खनन व एल्यूमिनियम के संयंत्रों को सबसे अधिक आलोचना झेलनी पड़ती है व इसके वाजिब कारण भी हैं। इस क्षेत्र में रोजी-रोटी के गंभीर सकंट व भूख से मौतों के समाचार बार-बार चर्चा में आते रहे हैं। इसलिए यहां पर आजीविका का आधार सुधारने व विशेषकर सिंचाई व पेयजल व्यवस्था पर सरकार ने विशेष ध्यान दिया है। परंतु अब बाक्साईट व एल्यूमिनियम की विशालकाय परियोजनाओं से यहां की नदियों व जल स्त्रोतों पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना उत्पन्न हो गई है।

गांववासी व पर्यावरणविद् यह सवाल उठा रहे हैं कि बाक्साईट को केवल उद्योग के कच्चे माल के रुप में क्यों देखा जाता है इसे जल-संरक्षण के एक महत्वपूर्ण स्त्रोत के रुप में क्यों नहीं देखा जाता है? विशेषकर कालाहांडी व आसपास के क्षेत्रों में उन पर्वतों में जहां से अनेक महत्वपूर्ण जल स्त्रोत निकल रहे है, वहां तो बक्साईड की इस महत्वपूर्ण जल-संरक्षण भूमिका पर ध्यान देना आवश्यक है।

इसके अतिरिक्त नियमगिरि पर्वतमालाओं में स्थित कालाहांडी के क्षेत्रों में ऐसे आदिवासी समुदाय रहते हैं जिनके लिए एक ओर तो यह पर्वतमाला आवास व आजीविका का क्षेत्र है, वहीं दूसरी ओर स्थानीय परंपरा में इनकी इतनी गहरी आस्था व श्रध्दा है कि उनके लिये यहां से उजड़कर कहीं और बसना एक बड़े आघात की तरह है। कुछ ऐसी ही गहरी श्रध्दा की भावनाएं अधिकांश बहुसंख्यक लोगों की चित्रकूट (उत्तरप्रदेश व मध्यप्रदेश) के उन क्षेत्रों के प्रति हैं जहां अनेक प्राचीन तीर्थ स्थल व उनके आसपास के क्षेत्र खनन के लिए प्रयोग आ रहे डायनामाईट के कारण तबाह हो रहे हैं। राजस्थान के ब्रज क्षेत्र (जिला भरतपुर) में होने वाले खनन के बारे में भी बार-बार कहा गया है कि इससे लाखों तीर्थ यात्रियों की श्रध्दा के स्थान उजड़ चुके हैं व अन्य खतरे में हैं।

दूसरी ओर झरिया (झारखंड) जैसे कुछ क्षेत्रों की स्थिति तो और भी गंभीर है, क्योंकि वहां हुए अनियमित खनन के कारण हजारों लोगों का जीवन ही खतरे में पड़ गया है। यहां जमीन के अंदर के कोयला भंडारों ने जगह-जगह आग पकड़ ली हैजिससे खनन के लिए बनाए गए खंबे क्षतिग्रस्त हो जाते हैं व भूमि घसान का गंभीर खतरा उत्पन्न हो जाता है।

खनन क्षेत्र के लोगों की सुरक्षा के साथ खनन मजदूरों की सुरक्षा व भलाई का मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है। अनेक खनन क्षेत्रों जैसे कोयला खनन में मजदूर काफी असुरक्षा की स्थिति में काम करते हैं। पत्थर गिट्टी जैसे तथाकथित लघु खनिज क्षेत्र में व इससे जुड़े क्रशरों में लगे लाखों मजदूरों की स्वास्थ्य की स्थिति बहुत विकट है व उन्हें सिलकोसिस तथा टीबी जैसी गंभीर बीमारियों में झोंका जा रहा है। अतः मजदूरों की भलाई व स्वास्थ्य की रक्षा को नई खनिज नीति में महत्वपूर्ण स्थान मिलना बहुत जरुरी है।

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पड़ती भूमि पर पुनर्विचार की ज़रुरत

2 हमारा आसपास

पड़ती भूमि पर पुनर्विचार की ज़रुरत

जयश्री वेंकटेशन

पिछले दिनों पड़ती भूमि कई कारणों से खबरों में रही। तमिलनाडु सरकार ने यह कदम उठाया कि राज्य के भूमिहीनों को ढाई-ढाई एकड़ जमीन दी जाएगी। इस निर्णय के चलते यह बहस छिड़ गई कि जमीन आएगीकहां से?

इसी प्रकार से चेन्नै जैसे महानगरों के आसपास सेटेलाइट टाउन निर्मित करने के प्रस्ताव के बाद भी इसी तरह की शंकाएं व्यक्त की गई। इन शंकाओं का समाधान करते हुए तमिलनाडु सरकार ने स्पष्ट किया कि इस काम के लिए भी मात्र पड़ती भूमि या सूखी भूमि का ही अधिग्रहण किया जाएगा। यह भी कहा गया था कि पानी के स्त्रोतों, रिहायशी इलाकों और जंगलों को इस कार्यक्रम के दायरें में नहीं लाया जाएगा।

तमिलनाडु में कुल 17,303.29 वर्ग कि.मी. भूमि को पड़ती भूमि के रुप में चिन्हित किया गया है। यह राज्य के भौगोलिक क्षेत्रफल का 13.3 प्रतिशत है। तर्क यह दिया जा रहा है कि यह जमीन सरकारी जरुरत को आसानी से पूरा कर सकती है। इस तरह के सुझाव भी आए हैं कि पड़ती भूमि का उपयोग प्लांटेशन, खास तौर से रतनजोत के प्लांटेशन हेतु किया जए ताकि जैव ईंधन उद्योग को बढ़ावा मिल सके। यह सही है कि जीवाश्म ईंधन (पेट्रोल, डीजल वगैरह) से हटकर जैव ईंधन की ओर कदम बढ़ाना एक अच्छा कदम होग, मगर पड़ती भूमि को जैव ईंधन प्लांटेशन में तब्दील करने के विचार की छानबीन करने की जरुरत है।

मसलन, यह सुझाया जा रहा है कि पालनी पर्वत की पड़ती भूमि पर रतनजोत उगाया जाए जबकि यह इलाका कुछ ऐसे पौधों का प्राकृत वास है जो सिर्फ यहीं पाए जाते हैं। इसके लिए प्रस्ताव यह है कि रेल्वे के साथ वापिस खरीद की व्यवस्था कर ली जाए।

इसी प्रकार से, हाल के दिनों में तटवर्ती क्षेत्रों को प्रोसोपिस जुलीफेरा उगने के लिए छोड़ दिया गया है, यहां तक कि मैन्ग्रोव वनों के पट्टों को भी। यह प्रजाति ईंधन की जरुरत की पूर्ति करती है। इन जमीनों को भी पड़ती भूमि के रुप में वर्गीकृत किया गया है।

दक्षिण चेन्नै में एक दलदल है जो इकॉलॉजी की दृष्टि के काफी महत्वपूर्ण है। इसके संरक्षण के लिए पांच वर्षो से किए जा रहे प्रयासों में अवरोध पैदा हो गया क्योंकि यह पड़ती भूमि है।

यह चिंता व्यक्त की गई है कि पड़ती भूमि कहीं एक मोहक शब्द में न बदल जाए जो दानदाता संस्थाओं को उसी तरह रिझाने लगे जैसे स्थानीय लोगों व संस्थाओं की भागीदारी और जेंडर जैसे जुमलें रिझाते हैं। मगर इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि हम भूमि बंदोबस्त व प्रशासन की औपनिवेशिक विरासत को सीने से चिपकाए बैठे हैं और अभी भी उसका पालन कर रहे हैं।

पड़ती भूमि दरअसल प्राकृतिक संसाधनों को लेकर औपनिवेशिक धारणा की अवशेष है। यह धारणा मूलतः राज्य द्वारा प्राकृतिक संसाधनों पर एकछत्र नियंत्रण स्थापित करने के उद्देश्य से निर्मित की गई थी। इन संसाधनों में भूमि प्रमुख थी। कोशिश यह थी कि दुविधा वाले क्षेत्र कम से कम रहें। नजूल बंदोबस्त प्रणाली के जरिए जंगल व कृषि भूमि के बीच काल्पनिक मगर कारगर विभेद पैदा किया गया। शुध्दतः प्रबंधन के मकसद से ब्रिटिश शासन ने इस तरह के वर्गीकरण किए और जमीनों को वन भूमि व कृषि भूमि में बांट दिया। कृषि भूमि को उत्पादक भूमि व पड़ती भूमि (वेस्टलैण्ड्स) में बांटा गया। इस तरह के वर्गीकरण के उदाहरण हमें कई और मामलों में भी देखने को मिलते हैं। जैसे प्रायद्वीपीय भारत के घाट को पश्चिमी व पूर्वी घाट में बांटना, जंगलों को नम व शुष्क जंगलों में बांटना या यह कहना कि लोग या तो जातियों में शामिल होंगे या जनजातियों में।

मद्रास प्रेसिडेंसी में अपनाई गई भूमि बंदोबस्त प्रक्रिया इसका उम्दा उदाहरण है। ब्रिटिश आगमन से पहले दक्षिण भारत के ग्रामीण समाज विकेंद्रीकृत इकाइयों में संगठित था जिन्हें नाडु कहते थे। अलबत्ता ब्रिटिश शासकों ने दावा किया कि लोगों की हालत अत्यंत शोचनीय है और पूर्ववर्ती सरकारों, और खासकर टीपू सुल्तान के राज, ने गांवों को ऐसी हालत में पहुचा दिया है कि सम्पन्न किसान ढूंढे नहीं मिलेगा। यह भी कहा गया कि किसान ईमानदारी से लगान नहीं चुकाते हैं। इन मान्यताओं के आधार पर ब्रिटिश शासन ने व्यवस्थित ढंग से नियंत्रण की स्थानीय प्रणालियों को कमजोर किया और राजस्व व्यवस्था लागू करके पूरा नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया। इन व्यवस्थाओं में रैयतवाड़ी और स्थायी बंदोबस्त प्रमुख थीं। जंगल के बंदोबस्त की प्रक्रिया को मद्रास फॉरेस्ट एक्ट, 1882 पारित करके संभव बनाया गया। इस कानून के जरिए जंगल के एक बड़े हिस्से को आरक्षित जंगल घोषित कर दिया गया था।

मद्रास प्रेसिडेंसी के राजस्व इतिहास को उजागर करते हुए बेडन पॉवेल ने दो अवधियां चिन्हित की हैं - प्रारंभिक व आधुनिक बंदोबस्त। जहां प्रारंभिक बंदोबस्त कमोबेश पूर्व के आकलन पर आधारित थे, और क्षेत्रीय स्वायत्तता को प्रोत्साहित करते थे, वहीं 1858 में बंदोबस्त महकमे की स्थापना के बाद जो दौर शुरु हुआ उसमें कठोर मापदण्ड लागू किए गए और इस काम में बंदोबस्त व सर्वेक्षण अफसरों की मदद ली गई जो जमीनों के नक्शे बनाया करते थे। इस दूसरे दौर में प्रशासन के मकसद से जमीन को आक्यूपाइड और अन-ऑक्यूपाइड भूमियों में बांट दिया गया।

इन्हें इस तरह परिभाषित किया गया कि जिस जमीन पर खेती होती है वह आक्यूपाइड है और जिस जमीन पर खेती नहीं होती वह पड़ती भूमि है। वैसे दिखता तो यह है कि इससे ज्यादा से ज्यादा जमीन को कृषि भूमि में तब्दील करके निजी स्वामित्व में देने को बढ़ावा मिलेगा जगर दरअसल सर्वे की पूरी प्रक्रिया पड़ती भूमि को चिंहित करके राज्य के नियंत्रण में लाने की प्रक्रिया थी।

आरक्षित जंगलों के अलावा जो जमीन थी उसमें निम्नलिखित बारीक वर्गीकरण किए गए ः पट्टा भूमि, आकलित सूखी व नम पड़ती भूमि, अनाकलित पड़ती भूमि और पोरोम्बोके (राजस्व और वन)। आकलित सूखी व नम पड़ती भूमि वह थी जो उस समय तक खेती विहीन रहती थी जब तक कि राजस्व विभाग उसका आवंटन न कर दे। इस श्रेणी में कई किस्म के प्राकृतवास शामिल थे, जैसे दलदल, मौसमी नम भूमियां, पथरीली ढलवां भूमि, परित्यक्त चारागाह, और झूम खेती के अंतर्गत आने वाली जमीनें। पोरोम्बोके जमीनें सामुदायिक उपयोग के लिए निर्धारित थीं।

वास्तविक परिस्थिति में पड़ती भूमि की बेवकूफी स्पष्ट नजर आती है। मसलन तमिलनाडु में अधिकांश अनाकलित नम पड़ती भूमि के रुप में वर्गीकृत नम भूमियां वास्तव में कृषि तंत्र का अभिन्न अंग हैं और यहां मौसमी तौर पर धान की खेती होती है। इसके अलावा स्थानीय लोग इन नम भूमियों से कई लाभ प्राप्त करते है। जैसे चारा, मछली तथा चटाई, टोकरियां वगैरह बनाने के लिए कच्चा माल आदि। इस तरह की नम भूमियां शहरी क्षेत्र में हों, तो उन्हें कचरा व मलबा फेंकने का स्थान बना दिया जाता है। पहाड़ी इलाकों की नमभूमियों का उपयोग मोटा अनाज और फलियां वगैरह उगाने के लिए किया जाता है और कहीं-कहीं तो इनमें व्यापारिक फलोद्यान (बाड़ियां) भी लगाए जाते हैं। ऐसे क्षेत्रों में खेती-बाड़ी के जो तौर-तरीके अपनाए जाते हैं वे जांच-परखे हैं और इनमें बाहरी इनपुट्स की जरुरत बहुत कम होती है। यह भी जानी-मानी बात है कि कई पड़ती जमीनें पशु पालक समुदायों के लिए चारागाह हैं।

इस तरह के अवलोकनों से सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह सामने आता है कि पारंपरिक रुप से जमीन को मात्र सेवा प्रदाता के रुप में नहीं देखा जाता था। काफी प्राचीन समय में ही समझ लिया गया था कि ये जमीनें कई सारी इकॉलॉजिकल भूमिकाएं अदा करती हैं।

भूमि का जो प्रारंभिक वर्गीकरण चरक, कौटिल्स और कश्यप ने किया था वह मिट्टी की गुणवत्ता और उर्वरता, स्थानीय जलवायु की परिस्थितियों, और अनोखेपन जैसी कसौटियों पर आधारित था। भूमि वर्गीकरण की एक राजस्व प्रणाली भी अस्तित्व में थीं जो मिट्टी की गुणवत्ता पर आधारित थी। इसका विवरण हमें अर्थशास्त्र और अग्निपुराण में मिलता है। इसी प्रकार से संगम साहित्य (300ई.पू. से 300 ई.) के एक ग्रंथ तोल्काप्पियम में भूमि ह्रास और मरुस्थलीकरण को वर्गीकरण का एक आधार जरुर बताया गया है मगर किसी भी प्राकृतिक संसाधन के बारे में उपयोगहीनता की बात बिलकुल नहीं कही गई है। इस बात को सहजता से स्वीकार किया गया था कि प्राकृतिक संसाधन एकाधिक सेवाएं प्रदान करते हैं। वनवासी समुदाय जिस ढंग से भूमि का वर्गीकरण करते हैं उसमें यह मान्यता स्पष्ट झलकती है। मसलन नीलगिरी के कुरुम्ब समुदाय में जमीन का परिसीमन परिपाटियों के अनुसार किया जाता है और अपने दायरे में आने वाली जमीन का विवरण उसके कार्य के आधार पर होता है। इसी प्रकार का वर्गीकरण कोली पर्वत के मलई अली में भी मिलता है। ये लोग जमीन का वर्गीकरण वहां पाए जाने वाले पानी की गुणवत्ता और गहराई के आधार पर करते हैं।

इन वैकल्पिक प्रणालियों के उल्लेख का आशय प्राचीन व पारंपरिक ज्ञान को महिमामंडित करना नहीं है बल्कि यह रेखांकित करना है कि हमें जमीन के उपयोग व बंदोबस्त की वर्तमान नीतियों में आधुनिक समझ को जगह देनी चाहिए। ***

अनाज भरे गोदामों के भूखे चौकीदार

3 हमारा भूमण्डल

अनाज भरे गोदामों के भूखे चौकीदार

हीरा झमतानी

विश्व के 180 राष्ट्रों की सरकारों ने सन् 1996 में आयोजित विश्व खाद्य सम्मेलन में संकल्प लिया था कि सन् 2015 तक वे अपर्याप्त पोषण पाने वाले लोगों की संख्या आधी करेंगे।

संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ओ.) की रपट विश्व में खाद्य असुरक्षा की स्थिति 2006 के अनुसार भूखे लोगों की तादाद घटाने के लिये कोई परिणामकारी कदम नहीं उठाया गया है। साथ ही इसके आंकड़े चौंकाने वाले हैं। रपट के अनुसार पूरी दुनिया में 85.40करोड़ व्यक्ति, अर्थात् प्रत्येक 7व्यक्तियों में से एक व्यक्ति को भरपेट भोजन नहीं मिलता है। विकासशील देशों में स्थिति और भी ज्यादा खराब है, वहां प्रति 6 में से 1 व्यक्ति भूखा या कुपोषित है। अफ्रीका के उप सहारा क्षेत्र में तो यह अनुपात 3 और 1 का है।

दरअसल पिछले वर्षो में दुनिया के अधिकांश इलाकों में भूखे लोगों की संख्या बढ़ी है, कुछ क्षेत्रों में तो यह 50 प्रतिशत तक बढ़ी है। विश्व में भूखे लोगों की कुल संख्या में वर्ष 2001-03 के दौरान 2.30 करोड़ की वृध्दि दर्ज की गई थी। सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य से तुलना करने पर ये आंकड़े भ्रमित करने वाले प्रतीत होते हैं। सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य में सन् 2015 तक भूखे लोगों के अनुपात में 50 प्रतिशत कमी की सम्भावना प्रकट की गई है। इसमें भूखे लोगों की कुल संख्या को आधा करने की बात नहीं है।

जनसंख्या के वर्तमान स्वरुप के अंतर्गत अनुमान के अनुसार यदि विकासशील देश सामूहिक रुप से भूखे लोगों की संख्या को आधा करने का सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य प्राप्त भी कर लें, तब भी 58.5 करोड़ लोग ऐसे बचेंगे जिन्हें भरपेट भोजन उपलब्ध नहीं होगा। विश्व खाद्य सम्मेलन द्वारा निर्धारित लक्ष्य 4.12 करोड़ की संख्या से यह 1.73 करोड़ अधिक है। यह स्थिति उस दुनिया की है, जहां खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार विश्व में सभी का पेट भरने के लिये पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध है। खाद्य एवं कृषि संगठन के प्रमुख जैकोस डायोफ ने खाद्य सुरक्षा पर उद्घाटन सत्र में कहा था, संसाधनों एवं उन्नत तकनीक से सम्पन्न विश्व में लोगों का भूखे रहना एक प्रकार का षड़यंत्र है।

खाद्य एवं कृषि संगठन की खाद्य सुरक्षा पर 32वां सत्र सम्पन्न हुआ। विश्व में भुखमरी की स्थिति भयानक होने के बावजूद दसवां विश्व खाद्य सम्मेलन सरकारों के इस वादे के साथ समाप्त हुआ कि गरीबों के लिए विशेष आहार सुरक्षा सुनिश्चित की जायेगी। विश्व खाद्य सम्मेलन प्लस 10 का स्तर घटाकर उसे केवल विशेष सत्र का रुप देकर वस्तुतः सरकारों ने कुपोषण एवं भूख की समस्या के प्रति गंभीर न होने का संकेत दे दिया है। विशेष सत्र में निम्न तीन पेनल गठित हुए - सहायता और निवेश, कृषि सुधार एवं ग्रामीण विकास तथा व्यापार एवं वैश्वीकरण।

इस विशेष सत्र के निष्कर्षो का संकलन सत्र के अध्यक्ष फ्रांस के प्रो. माइकल थीबीयर ने किया। निष्कर्षो पर सर्वसम्मति थी कि गरीबों के हित में नीतियां बनाई जाएं और खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया जाए। गरीबों के लिए व्यापारिक गतिविधि एवं निजी निवेश के अनुकूल परिवेश के निर्माण के मामले में भिन्नता नजर आई। निष्कर्षो में व्यापार उदारीकरण, जैव-ईंधन का विकास तथा गरीब किसानों के लिए आनुवांशिक रुप से संशोधित बीजों के विषय में चिंता व्यक्त की गई। व्यापार के लिए अधिक खुलापन एवं कृषि आधारित विकास के जरिये गरीबी में कमी तथा खाद्य सुरक्षा बढ़ाने जैसे मामलों से संबंधित विचारों में काफी अंतर और विरोधाभास प्रकट हुआ।

वैश्वीकरण के प्रति रुझान की सूचना और आकलन प्राप्त करने, वाणिज्यिक समझौते एवं कृषि विकास को लेकर बनाई जाने वाली वाणिज्यिक नीतियों के विकास की संभावनाओं के लिए खाद्य एवं कृषि संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से सरकारों को सहायता करने की भी अपील की गई। विशेष सत्र के अन्त में प्रो. माइकल थीबीयर ने निष्कर्षो को पढ़ कर सुनाया और कहा कि विश्व खाद्य सुरक्षा समिति की रपट में निष्कर्षो को प्रकाशित किया जायेगा और उन पर सवाल उठाने के बजाय विभिन्न मतों पर चर्चा करना अधिक तर्कसंगत होगा।

कनाडा समेत अनेक देशों के प्रतिनिधियों का कहना था कि वे निष्कर्षो को परिशिष्ट और अध्यक्षीय निष्कर्ष के रुप में सीमित रखे जाने तक ही सहमत हैं। उन्हें कानूनी रुप से बाध्यकारी न बनाया जाए। अध्यक्षीय निष्कर्षो पर चर्चा के दौरान डेन्मार्क और अमरीका समेत कुछ देशों ने कहा कि व्यापार उदारीकरण पर नकारात्मक दृष्टिकोण एवं खाद्य संप्रभुता जैसे कुछ मुद्दों से असहमत होने के कारण वे इस रपट से अलग रहना पसंद करेंगे। भद्रजन समाज (सिविल सोसायटी) समूह भी अध्यक्षीय निष्कर्ष से नाखुश दिखा। उनका कहना था कि रपट में वे तमाम बातें परिलक्षित नहीं हुई, जो चर्चा में उठी थीं, विशेष रुप से व्यापार उदारीकरण, कृषि सुधार और संसाधनों की कमी जैसे विषयों की उपेक्षा की गई है। अनेक स्वयंसेवी संगठनों ने मिलकर अपनी एक रपट प्रस्तुत की और आग्रह किया कि उसे अध्यक्षीय निष्कर्षो के साथ परिशिष्ट के रुप में प्रकाशित किया जाए। किंतु इसे भी अस्वीकार कर दिया गया। विश्व खाद्य सुरक्षा समिति की 32 वीं रपट में कहा गया है कि अध्यक्षीय निष्कर्षो पर विशेष सत्र के सहभागियों द्वारा ना तो चर्चा की गई और ना ही उन्हें स्वीकार किया गया।

विश्व खाद्य सुरक्षा समिति की रपट में सार्वजनिक सम्पत्ति एवं खाद्य सम्प्रभुता पर भी प्रकाश डाला गया है। कुछ राष्ट्रों (ब्राजील, क्यूबा और लातिन अमेरिकी तथा कैरिबियाई समूह) को वैश्विक सार्वजनिक सम्पत्ति के नाम पर ही आपत्ति थी। उनके अनुसार यह प्राकृतिक संसाधनों पर राष्ट्रीय सम्प्रभुता सुनिश्चित करने वाले रियो घोषणा-पत्र तथा अन्य पर्यावरणीय समझौतों के प्रतिकूल हैं।

खाद्य सम्प्रभुता के विषय में रपट में कहा गया है कि आहार एवं कृषि संगठन के अनुसार इसकी कोई मान्य परिभाषा नहीं है। किंतु इसका आशय है- अपना कृषि उत्पादन बढ़ाकर और स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय बाजारों में उसकी पहुंच सुनिश्चित करके खाद्यान्न आपूर्ति का प्रबंधन करने की राष्ट्रों की क्षमता। इस विशेष सत्र में कोई ठोस सुझाव नहीं दिये गये। समिति ने केवल खाद्य सुरक्षा के मूल कारणों से निपटने के लिए तत्काल कार्यवाही का आह्वान किया है। इसके अलावा भोजन का अधिकार के लिए स्वैच्छिक संगठनों ने सरकरों से स्वैच्छिक दिशा निर्देशों को अनिवार्य बना कर लागू करने की अपील की, ताकि यह खाद्य सुनिश्चित करने का माध्यम बन सके।

सरकारों के प्रमुखों एवं मंत्रियों की उपस्थिति के साथ-साथ खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में उठाए जाने वाले ठोस निर्णय के मामले में भी यह सम्मेलन बौना साबित हुआ। यह सम्मेलन विश्व में भूख और कुपोषण की समस्या हल करने में खाद्य एवं कृषि संगठन की भूमिका के प्रति सरकारों के अविश्वास का एक ज्वलंत उदाहरण है।

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पाकिस्तान : विलुप्त होती सिन्धु घाटी की सभ्यता

4 विदेश

पाकिस्तान ः विलुप्त होती सिन्धु घाटी की सभ्यता

शाहिद हुसैन

पिछले वर्ष 22 सितम्बर 2006 को कराची (पाकिस्तान) से 150 किलोमीटर दूर स्थित दक्षिणपूर्वी नगर खारोचान में 50,000 व्यक्ति एक अभूतपूर्व उत्सव जश्ने-ए-सिंधु डेल्टा के निमित्त एकत्रित हुए। विशेषज्ञों और राजनीतिज्ञों ने सिंधु नदी को श्रध्दांजली दी, नदी में दीपदान किया गया और बड़ी संख्या में नौजवान युवक-युवतियों ने ऊर्जापूर्ण नृत्य भी किया। पाकिस्तान मछुआरा संघ द्वारा आयोजित इस समारोह का विशेष महत्व यह था कि इस साल हुई मूसलाधार वर्षा के फलस्वरुप सिंधु डेल्टा (नदी मुख) के निवासियों को आठ वर्ष पश्चात् ताजा जल प्राप्त हो पाया था। वर्षा के बाद आयी बाढ़ ने अरबसागर से मुख्यभूमि में प्रविष्ठ विषैले तत्वों को भी बाहर फेंक दिया था।

विशेषज्ञों का अभिमत है कि यह एक अल्पकालिक समाधान भर है। उनका मानना है कि नुकसान इतना अधिक हो चुका है कि सिंधु डेल्टा के पूर्ण पुनर्वास हेतु आवश्यक है कि ताजे जल की लगातार उपलब्धता सुनिश्चित की जाए। पर्यावरणविदों का यह भी मानना है कि समुद्र, सिंधु नदी डेल्टा की ऊपरी परिधि में 54 किमी. तक अतिक्रमण कर चुका है। इस परिस्थिति के निर्माण की वजह सिंधु नदी के पानी को दूसरी ओर मोड़ना है ओर कोरटी जलाशय जो कि सिंधु नदी पर बने अनेको बांधों, जलाशयों में से अंतिम है, से पानी की न्यूनतम निकासी है।

पहले इन इलाकों में मार्च के महीने में ही ताजा जल पहुंच जाता था और मई में धान की बुआई का कार्य भी प्रारंभ हो जाता था। पंरतु सन् 1930 के दशक में सक्कर बांध के बन जाने के पश्चात् यहां पर ताजा जल अप्रेल में पहुंचने लगा और सन् 1955 में कोटरी जलाशय के निर्माण के बाद तो यहां ताजे जल का बहाव एकदम ही रुक गया। अनेक लोग इस बात में विश्वास करते हैं कि पाकिस्तान के थट्टा प्रांत के इस नगर का नाम समुद्र के खारे पानी के नाम पर ही पड़ा है क्योंकि सिंधी भाषा में खारो का अर्थ है खारा या नमकीन एवं चान का अर्थ है नैसर्गिक या प्राकृतिक जल प्रवाह।

पिछले दशक के मध्य से न्यून वर्षा के कारण यहां के ईको सिस्टम के पुनर्वास का कार्य ठीक से नहीं हो पाया। साथ कोटरी बांध से पानी के वितरण में आई कमी ने समस्याओं को और भी बढ़ा दिया था। सीमांत जल क्षेत्रों में लगातार ताजे जल का प्रवाह न होने के कारण समुद्री लहरों के लगातार प्रवाह से उपजाऊ भूमि पर तेजी से समुद्र हावी होता गया और यहां की भूमि मानव उपयोग योग्य ही नहीं रह पाई। पीने के पानी की कमी, कृषि की हानि और चारागाहों के समाप्त होने से हजारों लोगों को अपना घर छोड़ कर पलायन हेतु विवश होना पड़ा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार करीब 5 लाख एकड़ भूमि रेगिस्तानी हो गई है। जबकि स्थानीय निवासियों के अनुसार यह आंकड़ा इससे दुगना है। स्थानीय निवासियों का कहना है कि जहां हमारी (सिंध प्रांत) 40 प्रतिशत जमीन बंजर हो गई है वहीं पंजाब प्रांत में भूमि में 40 प्रतिशत की वृध्दि हुई हैं । इससे पाकिस्तान के पंजाब व अन्य छोटे प्रांतों के बीच विवाद भी बढ़ रहे हैं।

समुद्री सीमा इको सिस्टम, (आईसीयूएन) पाकिस्तान के निदेशक ताहिर कुरैशी का कहना है कि सन् 1991 में पाकिस्तान के विभिन्न प्रांतो के मध्य हुए समझौते के अनुसार यह अनिवार्य कर दिया गया है कि कम से कम 1 करोड़ एकड़ फीट पानी कोटरी जलाशय से छोड़ा जाएगा जो कि सिंधु डेल्टा से होता हुआ अरब सागर में जा मिलेगा। परंतु पिछले 15 वर्षो में ऐसा केवल तीन मर्तबा ही संभव हो पाया है। हालांकि इस वर्ष की अतिवृष्टि से सिंधु नदी में असाधारण उफान आया है और निचले अनुप्रवाह वाली छोटी नदियों में प्रवाह भी आया। मेंग्रो वनों में नये जीवन का संचार हुआ साथ ही मछली व्यवसाय को भी नई जान मिली। साथ ही मछलियों को भी ढेर सारा नया प्राकृतिक खाद्य भी उपलब्ध हुआ।

हैदराबाद सिंध स्थित खारोचन के एक किसान अब्दुल मजीद काजी का कहना है कि किसानों और मछुआरों को अब आगे अच्छे दिन आने का आभास हो रहा है। नदी के किनारे स्थित हजारों एकड़ कृषि योग्य भूमि जो कि पूर्व में खारेपन का शिकार हो गई थी में इस बार कई वर्षो के पश्चात् रबी की फसल की बुआई संभव हो पाई है। पुराने दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं कि यहां खारोचान में हजारों-हजार मवेशी थे। ऊन, घी और मक्खन से लदी नौकाएं प्रतिदिन कराची जाती थीं। कृषि यहां एक मौसमी व्यवसाय था परंतु खूब पैदावार होती थी। नदियों का जल उतरने पर यहां पर चांवल की खेती भी होती थी।

यहां से अनाज का निर्यात भारत की समुद्री सीमा से लगे हिस्सों, इरान एवं खाड़ी के देशों को होता था। लकड़ी भी यहां से निर्यात का एक प्रमुख उत्पाद था। विभाजन के पूर्व स्वास्थ्य अधिकारी, पुलिस, राजस्व, वन, भूमि व कस्टम विभाग के बड़े अधिकारी यहां पर नियुक्त थे। आज यहां पर मात्र एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है जिसमें हमेशा ही दवाईयों का अभाव बना रहता है।

आज नदी के किनारे बसे इस नगर में पीने का पानी तक बाहर से मंगाना पड़ता है। सामान्य दिनों में जहां यह 600 रुपये प्रति टेंकर की दर से उपलब्ध होता है वहीं मानसून के दिनों में इसका मूल्य 2000 रुपये तक हो जाता है। कई बार 25 लीटर पेयजल हेतु 15 रुपये से अधिक भुगतान करना पड़ता है। यहां पर निवास करने वालों को अपनी आमदनी का बड़ा भाग पेयजल पर खर्चा करना पड़ता है। खारेपानी की वजह से मछलियों की उपलब्धता भी कम हो गई है। साथ ही वन आच्छादन कम होने से लकड़ी व्यवसाय व पर्यावरण पर भी वितरीत प्रभाव पड़ा है।

हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र इण्डस डेल्टा एन एनवायरमेंटल असेसमेंट के मुताबिक बारिश के मौसम में पीछे से बहकर आनेवाली उपजाऊ गाद में आश्चर्यजनक रुप से कमी आई है। सिंध के सिंचाई एवं विद्युत विभाग के अनुसार सन् 1880-82 में यहां पर 4000 करोड़ टन तक गाद प्रतिवर्ष जमा हो जाती थी। सन् 1940 से 54 के बीच सक्कर बांध के निर्माण के पश्चात् यह घटकर 225 करोड़ टन रह गई थी। सन् 1977-92 के मध्य तरबेला बांध के बन जाने पर यह घटकर 1000 करोड़ टन तक पहुंच गई। सबसे शोचनीय तथ्य यह है कि सन् 1992 से यह आवक कभी 300 करोड़ टन से अधिक नहीं रही। वर्तमान में यह अपने सुनहरे अतीत का 20 प्रतिशत भी नहीं है।

इन बांधों के निर्माण के पूर्व पूरे सिंध नदी क्षेत्र में ढेरों सहायक नदियां विद्यमान थीं। कुल 13 सहायक नदियों को साथ लेकर सिंधु नदी अरबसागर में मिलती थी। इसके परिणाम स्वरुप हजारों वर्ग मील तक समुद्री तट पर प्रवाह प्रभावित होता था। आज इसकी केवल एक सहायक नदी खोबर प्रवाहमय है और वह भी साल में मात्र दो या तीन महीने।

एक ओर दुनिया की सबसे पुरानी नदी घाटी सभ्यता और इसके निवासी कुपोषण का शिकार होकर विलुप्त होने के कगार पर हैं, वहीं पाकिस्तानी सरकार पर इसका कमोवेश कोई असर नहीं हो रहा है। वह इस नदी पर अभी भी और बड़े बांध बनाने पर उतारु है। इसकी वजह है इन कार्यो में लगने वाला धन। विश्व बैंक की भ्रष्टाचार विरोधी समिति का मानना है कि इसके लिये आबंटित 200 अरब डालर में से करीब आधा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। वैसे भी ट्रांसपरेंसी इन्टरनेशनल के मुताबिक निर्माण का यह क्षेत्र अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वाधिक भ्रष्ट है और विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक यह क्षेत्र इसी भ्रष्टाचार की बली हेतु अभिशप्त है। ***

क्या जंगल का राजा है शेर ?

5 आवरण

क्या जंगल का राजा है शेर ?

डॉ. चन्द्रशीला गुप्ता

सिंह या एशियाई सिंह वह शेर है जो इतिहास में दर्ज है। प्राचीन समय में यह दक्षिण यूनान से उत्तर-पश्चिम में भारत के पलामू (बिहार) तक फैला हुआ था। सहारा के रेगिस्तान ने एशियाई सिंह को अफ्रीकी सिंह से पृथक कर रखा था। यह एशियाई सिंह या शेर (क्षेत्रानुसार नाम अलग-अलग हैं) भी बीसवीं सदी में सिर्फ सौराष्ट्र (गुजरात) के गिरवन को छोड़कर पूरे भारत से विलुप्त हो गया। मुख्य कारण थे खुले चारागाहों व झाड़ियों का नष्ट होना, जगह-जगह बस्तियों का निर्माण, शिकार के लिए बेहतर हथियारों का बनते जाना इत्यादि।

एशियाई सिंह जिसका वैज्ञानिक नाम पेन्थरा लियो पर्सिका है, विशाल विडाल वंश में बाघ के बाद सबसे बड़ा है। यह दहाड़ने वाली पांच बिल्लियों में से एक है। अतः बाघ, तेंदुए, हिम तेंदुए व जगुआर (दक्षिण अफ्रीका के एक चीते जैसे पशु) का निकट संबंधी है। वैसे सिंह इस मामले में भी विशिष्ट है इसका उद्भव अपेक्षाकृत बेहद ठण्डी जलवायु में हुआ है जिसमें यह आज नहीं पाया जाता है। यहां हम सिंह के यूरोपिय उद्भव को जानने के लिए सुदुर अतीत में नही जाएंगे।

आदि काल से ही सिंह को शक्ति व सत्यनिष्ठा का प्रतीक माना जाता था। अथर्व वेद में राजा की तुलना सिंह से की गई है। राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय (सन् 375-412) के राज्य में सोने के सिक्कों पर राजा के नाम के आगे सिंह विक्रम (सिंह जैसे पराक्रमी) उपाधि लिखी गई है। सिक्के के दूसरी और देवी दुर्गा को सिहारुढ़ बताया है। सिंह कई शताब्दियों से राष्ट्रीय पशु माना गया है। हमारे राष्ट्रीय चिन्ह में सिंह उपस्थित है।

कुछ सदियों पूर्व तक एशियाई सिह एशिया माइनर, अरब, फारस व भारत भर में फैला हुआ था। इस्त्राइल से यह 13वीं सदी में लुप्त हुआ। यद्यपि अरब देशों में यह रेगिस्तानों के अलावा अन्य जगहों पर पिछली सदी तक था।

सन् 1929 में जूनागढ़ के नवाब सर महावत खानजी ने अपने राज्य में सिंह पर डाक टिकट जारी किया था। इस तरह देश में डाक टिकट में छपने वाला प्रथम वन्य जीव सिंह ही था। सिंह ठोस व भारी शरीर वाला प्राणी है। यह खुले मैदानों में रहता है, अतः घने जंगलों से गुजरने के लिए छरहरे शरीर की आवश्यकता नहीं है। अब तक सबसे लम्बा सिंह 2.92 मीटर देखा गया है। अफ्रीकी सिंह की लम्बाई 3.23 मीटर और वज़न करीब 204 कि.ग्रा. कम होता है। नर की अपेक्षा मादा ऊंचाई में करीब 15 से.मी. और वज़न में 25 कि.ग्रा. कम होती है। नर की दाढ़ी होती है जिसकी वजह से उसका आकार बड़ा दिखाई देता है और भ्रम होता है कि यह बाघ से बड़ा होता है। मादा में दाढ़ी की अनुपस्थिति से वह जितनी छोटी है उससे भी छोटी दिखाई देती है। चिड़ियाघर के सिंह की दाढ़ी ज्यादा घनी होती है।

सिंह की पूरी काया पर रोएंदार मटमैले रंग की खाल होती है जिसका रंग पेट पर कुछ हल्का होता है। कान काले से होते हैं, पूंछ लम्बी, थोड़ी फरयुक्त व सिरे पर काले बालों का गुच्छा होता है। आगे के पैर बेहद मजबूत होते हैं। शिकार की गर्दन मरोड़ने के लिए पंजे का एक ही वार काफी होता है। यह अपने नखरों से टुथपिक का काम भी लेता है। यदि खाते समय मांस का कोई टुकड़ा दांतों में फंस जाता है तो यह नखर का हुकनुमा इस्तेमाल करते हुए टुकड़ा निकाल लेता है।

यद्यपि यह बाघ या तेंदुए के समान कूदने में सक्षम नहीं है फिर भी सिंह की 3.7 मीटर ऊंची व 10.8 मीटर लम्बी छलांग रिकॉर्ड में है। सिंह स्वयं और इनके शावक भी पेड़ों पर चढ़ते रहते हैं, अपनी अगली टांगों की पकड़ द्वारा वे तने पर आगे बढ़ते जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार एक सिंह की खींचने की क्षमता दस इन्सानों के बराबर है। ये अपने भारी भरकम शिकार को आसानी से झाड़ियों में घसीट ले जाते हैं।

सिंह का गर्भकाल 105 दिन है और एक बार में 2-3 शावक जन्म लेते हैं। शावक जन्म के समय करीब 30 से.मी. लम्बे व 450 ग्राम के होते हैं। पूरे शरीर पर बाल और भूरे धब्बे पाए जाते हैं। यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि जन्म के समय इनकी आंखें खुली रहती है या बंद होती हैं, लेकिन 2 सप्ताह बाद ही ये पूरी तरह देख पाते हैं। तीन सप्ताह में दांत आना शुरु हो जाते हैं। शुरु में शावक मां से दूर जाने पर भी वापस मां की छत्रछाया में लौट आते हैं। छः माह की उम्र में मां के निर्देशन में ये शिकार का प्रशिक्षण पाते हैं और डेढ़-दो वर्ष की उम्र से स्वतंत्र जीवन बिताने लगते हैं। तीन या चार वर्ष में ये वयस्क हो जाते हैं। प्राकृतिक स्थिति में इनकी अधिकतम आयु 20 वर्ष है और ज्यादातर शावक वयस्क अवस्था तक नहीं पहुंच पाते हैं। लेकिन पालतू सिंह इससे अधिक जीते देखे गए हैं।

शिकार करते समय यह सर्वप्रथम शिकार की गर्दन को पंजे के वार से तोड़ देता है। अगले पंजों के नाखून से नाक पकड़कर उसकी गर्दन को पकड़कर गोल घुमाता है। इस प्रकार शिकार की गर्दन टूट जाती है। बहुचर्चित शिकार की पीठ पर चढ़ जाना कभी कभार ही होता है क्योंकि सिंह सामने रहना पसंद करता है। सामने से वार करने पर गर्दन मरोड़ने में लिए अतिरिक्त ताकत मिल जाती है। साथ के छोटे सदस्य शिकार को पीटकर बेदम करने के अलावा उसे झाड़ियों में घसीटने का काम करते हैं। सिंह शिकार की आंतें सबसे पहले खाता है लेकिन आमाशय को निकालकर मिट्टी में दबा दिया जाता है। आंत के अन्दर अधपचा हरा भोजन इसको रेशा व विटामिन प्रदान करता है। आंत के बाद सिंह मांस पर ध्यान देता है। यह पीछे से खाना शुरु कर आगे सिर की ओर बढ़ता है।

वैसे तो सिंह का प्रिय भोजन शाकाहारी चौपाए (हिरन, सांभर, भेड़, बकरी, ऊंट व अन्य ढोर आदि) हैं मगर मजबूरी में कौए से लेकर मछली तक भी खा जाते हैं। वृध्द या घायल सिंह मानवभक्षी होते देखे गए हैं। ज्यादातर मानवभक्षी हो जाने पर यथाशीघ्र मार डाला जाता है।

सिंह समूहों में रहने के आदी होते है। एक समूह में 4 से लेकर 30 तक सदस्य होते हैं। जरुरी नहीं कि समूह में एक ही परिवार के सदस्य हों। समूह का एक नायक होता है और कई सिंहनियां और शावक होते हैं। कभी-कभी दो समूह मिलकर एक हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में एक वक्त में 2 नायक हो सकते हैं। नायकत्व का निर्णय पराक्रम से तय होता है और हारा हुआ सिंह युवा नरों को लेकर नया समूह बना लेता है।

किसी समय एशियाई सिंह बड़े क्षेत्र में फैले हुए थे मगर वर्तमान में ये गुजरात के काठियावाड़ के गिर क्षेत्र तक सीमित हैं। गिर वन स्वतंत्रता के पूर्व जूनागढ़ राज्य में स्थित था। वहां पर सिंह की मौजूदगी निश्चित ही जूनागढ़ नवाब के संरक्षण के फलस्वरुप थी। उन्नीसवीं सदी के अंत में अनियंत्रित शिकार ने इन्हें विलुप्ति की कगार पर ला दिया तथा मात्र 20 सिंह बचे थे। तब एक भयंकर अकाल भी पड़ा था। इसे छप्पनिया अकाल के नाम से जाना जाता है। तब जंगल में भी सिंह के भोजन का अकाल था। अतः ये नर भक्षी हो गए थे और इनको बड़ी संख्या में मार दिया गया था। तब नवाब ने इनके शिकार पर सख्त प्रतिबंध लगा दिया थाऔर सख्ती से लागू किया था। काफी समय बाद सीमित संख्या में इनके शिकार की अनुमति दी गई थी। संरक्षण के उपायों का चमत्कारिक प्रभाव हुआ। सन् 1936 की गणना में 287 सिंह गिने गए थे।

गिर क्षेत्र में दो वनवासी जातियां गुर्जर एवं मलाधारी निवास करती हैं जिनकी जीविका के प्रमुख साधन बकरी, भेड़ या ऊंट होते हैं। सिंहों व अन्य वन्य प्राणियों को संरक्षण मिलने से इन पशुपालकों की पशु संपदा पर खतरे बेहद बढ़ गए हैं। चाणक्य के प्रसिध्द ग्रन्थ अर्थशास्त्र में अभयारण्यों के नियम कायदे वर्णित हैं। गुजरात सरकार ने सिंह के संरक्षण के लिए इनका अनुसरण किया है। गिर अभयारण्य का करीब 14,000 वर्ग कि.मी. केन्द्रीय भाग 1975 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया गया है। यहां सारे वानिकी कार्य प्रतिबन्धित है। मलाधारियों के विस्थापन के साथ इसका क्षेत्र बढ़ाने की योजना है। गिर अभयारण्य के चारों ओर 468 कि.मी. लम्बा परकोटा बना दिया गया है।

सिंह के बारे में अनेक भ्रामक व असत्य कथाएं कही व लिखी जाती हैं। जैसे इसे रेगिस्तान व जंगलों के राजा के रुप में वर्णित किया गया है जबकि सिंह घास के मैदानों का वासी है। इसकी अनेक सभ्य आदतें भी है। जैसे शिकार से पहले यह स्वस्थ खेल की परंपरा निभाते हुए जोर से दहाड़ता है ताकि शिकार को उसके आगमन की सूचना मिलें। अन्य ऐसे प्राणी घात लगाकर शिकार करते हैं। पूरे विडाल वंश में सिंह की दहाड़ सबसे ऊंची होती है। यह अपने इलाके की घोषणा करने के लिए होती है। अन्य आवाजें परिस्थितियों से संबंधित होती हैं।

मादा अपने बच्चों को पुकारने के लिए कोमल स्वर में म्याऊं सी आवाज लगती है। क्रुध्द सिंह चेतावनी में गुर्राता है। उत्तेजित व हमले के लिए तैयार होने पर खंखारता है। अन्य मांसाहारियों के समान सिंह का इलाका भी बड़ा होता है जिसमें वे विचरते है वह शिकार करते हैं। एक समूह में इलाके में दूसरे समूह का इलाका शामिल हो सकता है। इनकी सामान्य रफ्तार 5 कि.मी. प्रति घण्टा होती है लेकिन ये एक रात में 48 कि.मी. का रास्ता तय करते भी देखे गए हैं। इसी प्रकार हमले के वक्त ये शानदार टर्न भी लेते हैं।

शेरों का शिकार तब से चलन में है जब वे खोह या गुफाओं में रहते थे और आगे चलकर सर्कस, तमाशों व चिड़ियाघरों में अपरिहर्य बन गए। आज इनकी अनेक प्रजातियां (बारबारी व केपलायन) लुप्त हो चुकी हैं। एशियाई सिंह भी संरक्षण की वजह से ही नजर आ रहा है।

सिंह को देखने का सर्वाधिक आनंद उसे उसके प्राकृतिक परिवेश में देखकर ही लिया जा सकता है । ये सुबह शाम नजर आ सकते हैं क्योंकि यह इनके शिकार का वक्त है। बन्द गाड़ियों में घूमकर इन्हें देखा जा सकता है। इन्हें मोटर यानों की आदत पड़ गई हैं। पर्यटकों के लिये सिंह हमेशा से आकर्षण का केन्द्र रहें हैं ।

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विज्ञान, कांग्रेस और भारतीय वैज्ञानिक

6 विशेष रिपोर्ट

विज्ञान, कांग्रेस और भारतीय वैज्ञानिक

एम. उन्नीकृष्णन

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ही तरह भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना भी अंग्रेजों ने ही की थी। जे.एल. सायमनसेन और पी.एस.मॅकमोहन नामक दो ब्रिटिश रसायनविज्ञों ने सन् 1914 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ (इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन) की बुनियाद रखी। इस संघ के तत्वाधान में ही प्रतिवर्ष जनवरी माह में वार्षिक विज्ञान कांग्रेस का आयोजन होता है। आशुतोष मुखर्जी की अध्यक्षता में इसकी प्रथम सभा 15 से 17 जनवरी 1914 के मध्य कोलकाता के एशियाटिक सोसायटी सभागार में सम्पन्न हुई थी। हाल ही में तमिलनाडु के चिदम्बरम् नामक नगर में 94वीं विज्ञान कांग्रेस का आयोजन सम्पन्न हुआ।

इसकी स्थापना को अब तक लगभग एक शताब्दी बीत गई है इस अवधि में विज्ञान कांग्रेस का आकार लगातार बढ़ता रहा है। अब इसमें अनेक छात्रों और वैज्ञानिकों समेत लगभग दस हजार प्रतिनिधि सहभागी होते हैं। विज्ञान की विविध शाखाओं से सम्बध्द 14 विषयों पर लगभग 1000 शोधपत्र इसमें पढ़े गये। उद्घाटन सत्र में अति-विशिष्ठ व्यक्तियों की उपस्थिति से इस आयोजन की चमक और भी बढ़ गई।

प्रबुध्द व्यक्तियों के इस विशाल समागम में विज्ञान नदारद था और सर्वत्र कांग्रेस ही व्याप्त थी। अधिकांश सहभागी मध्यमवर्गीय शोधकर्ता या शासकीय सेवा में लगे वैज्ञानिक थे, जो रोजमर्रा के एकरस काम से बचने के लिये अपने परिवार और दोस्तों के साथ इस जमावड़े में शामिल हुए थे।

प्रतिभागियों के आने-जाने का खर्च उन संस्थाओं/प्रतिष्ठानों ने वहन किया था, जहाँ वे काम करते हैं। सहभागिता का पंजीयन भी महंगा नहीं था और कांग्रेस में मिलने वाला भोजन अत्यन्त स्वादिष्ट था। भीड़ जुटने के ये दो प्रमुख कारण थे। विज्ञान कांग्रेस में पढ़े गये शोध-पत्र घटिया दर्जे के थे, जहाँ तक कि निचले स्तर के भारतीय मानकों पर भी वे खरे नहीं उतरते थे। इसके आकर्षक का एकमात्र केन्द्र पूर्णाधिवेशन था, जिसमें विज्ञान जगत की प्रमुख हस्तियां एक मंच पर आकर अपने जीवन में अनमोल अनुभव बाँटती हैं। वैज्ञानिक समूह द्वारा प्रोत्साहित किये जाने वाले नये विचार की झलक किसी भी भाषण में दिखाई नहीं दी।

भारत राजनीतिक तौर पर एक विभाजित देश है। अतएव यहां के राजनीतिक मतभेद भले ही काल्पनिक हों या वास्तविक इस अवसर पर अक्सर उभर कर सामने आते दिखाई दिये। परिणाम स्वरुप विज्ञान पीछे रह गया और ज्यादातर समय राजनीतिक बहस में ही बीत गया।

भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ का मुख्यालय कोलकाता में है, इसलिये आमतौर पर यह आरोप लगाया जाता है कि इसमें बंगालियों का प्रभुत्व है। अगली कांग्रेस के आयोजन-स्थल का निर्धारण एक राजनीतिक निर्णय होता है, अतः उस पर विवाद होना लाजमी है। इस वर्ष कांग्रेस का आयोजन दिल्ली स्थित एमिटी विश्वविद्यालय में होना था, किंतु उसके निदेशक पर आपराधिक प्रकरण दर्ज होने के कारण आयोजन - स्थल बदल कर चिदम्बरम् तय किया गया था। हाल के समय में कुछ तकनीकी और सांगठनिक कुशलताओं के कारण विज्ञान कांग्रेस कुछ प्रतिभागियों को प्रतिष्ठा देने की ओर सभी अग्रसर हुई है।

प्रस्तुतिकरण के लिये अब स्लाईड प्रोजेक्टर के स्थान पर माईक्रोसॉफ्ट पॉवर-पाईण्ट का उपयोग किया जाता है। सभा कक्ष वातानुकूलित होते हैं और विज्ञान कांग्रेस में शामिल होने के लिये अधिकांश प्रतिनिधि हवाई जहाज से उड़कर आते हैं। लेकिन इतनी सुविधाओं के बाद यह चिन्ता की बात है कि चमक-दमक से भरपूर इस आयोजन में विज्ञान का तत्व लगातार कम होता जा रहा है।

भारतीय विज्ञान कांग्रेस और उसके साथ-साथ समूचे भारतीय विज्ञान को अंदर ही अंदर जो दीमक खाये जा रही है, उसे भारतीय समाज से ही पोषण मिलता है। वास्तविक श्रेष्ठता को पहचानने, उसे प्रोत्साहित और पोषित करने की अक्षमता, सत्ता के जड़ और सोपानबध्द ढांचे में ही निहित है। यह विद्वता के बदले सत्ता के समक्ष सिर झुकाने को उचित मानती है। वास्तविक उपलब्धियों के प्रोत्साहन में कमी एवं श्रेष्ठ बुध्दि वाले वैज्ञानिकों के अधिक मुनाफे वाले उद्यम की ओर झुकाव से भी विज्ञान कमजोर हुआ है।

सर्वाधिक खतरे की बात यह है कि व्यवस्था पर बोझ बने राजनीति में लिप्त, औसत दर्जे के अवसरवादी व्यक्तियों के लिए प्रतिबध्द वैज्ञानिकों ने मौन रहकर मैदान खाली छोड़ दिया है। गुलाम भारत में नोबल पुरस्कार पाने योग्य वैज्ञानिक थे, किंतु आज एक भी नहीं है।

भारत में अल्पसंख्यकों, महिलाओं, बच्चों, पशुओं एवं पर्यावरण की रक्षा के लिए अनेक समाजकर्मी कार्य कर रहे हैं। किंतु जब विज्ञान की रक्षा का सवाल उठता है तब कोई संगठन नजर नहीं आता। हम सबको विज्ञान के क्षेत्र में भी कार्य की आवश्यकता है ताकि वर्तमान भारतीय विज्ञान के बेतुकेपन और तर्कहीनता को बेनकाब किया जा सके। यह होगा तभी हमारे अकादमिक जगत में विज्ञान को अधिक और कांग्रेस को कम सम्मान मिलेगा। ***

वृक्षों की कटाई- आपदाओं को आमन्त्रण

7 विश्व वानिकी दिवस पर विशेष

वृक्षों की कटाई- आपदाओं को आमन्त्रण

डॉ. चन्द्रशेखर लोखण्डे

वृक्ष एवं वनस्पतियों का हमारे जीवन से घनिष्ट संबंध है। वनस्पति को जंगल की स्वामिनी कहा गया है। वृक्ष एवं वनस्पति से हमारे प्राणों की रक्षा होती हैं। वृक्ष अपने पत्तों के द्वारा Co2(कार्बनडाइ आक्साईड)को सोखते हैं तथा जड़ों के द्वारा जल को खींच लेते हैं। यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। ऊपर से Co2 (कार्बनडाइ आक्साईड) और नीचे जड़ो से पानी साथ में सूर्य प्रकाश और पत्तो के अन्दर स्थित हरित द्रव्य इनके संयोग से कार्बोहाइड्रेट्स और प्राण वायु (O2) बनते हैं, यह प्राणवायु पत्तों के जरिये वायुमण्डल में छोड़ा जाता है। वनस्पति और वृक्षों के पत्तों में यह कार्बोहाइड्रेट्स शर्करा के रुप में विद्यमान रहता है इसी को प्रकाश संश्लेषण कहा जाता है। कार्बनडाइ ऑक्साईड का शोषण और प्राणवायु (ऑक्सिजन) का विजर्सन यह प्रक्रिया वृक्षों, लताओं और पौधों में निरन्तर चलती रहती है।

चन्द्रमा की शीतल किरणें वनस्पतियों के पोषण में विशेष कार्य करती हैं। सूर्य प्रकाश, ऊषा की कोमल किरणों तथा चन्द्रमा की शीतल चाँदनी से वनस्पति जगत् फलता-फूलता है यही चेतन-अचेतन जगत् को सुन्दर और सजीव बनाये रखने में मदद करता है।

यत् त्वा सोमप्रपिबिन्ति तत् आ प्यायसे पुनः॥

वायुः सोमस्य रक्षिता समानां मास आकृतिः॥

अर्थव 14-1-4

अर्थ - (सोम) हे चन्द्रमा ! (यत्) जब (त्वा) तुझ को (प्रपिबन्ति) वे (किरणें) पी जाती हैं, (ततः) तब (पुनः) फिर (आ प्यायसे) तू परिपूर्ण हो जाता है। (वायुः) पवन (सोमस्य) चन्द्रमा का (रक्षिता) रक्षक है और (मासः) सब का परिमाण करने वाला (परमेश्वर) (समानाम्) अनुकूल क्रियाओं का (आकृतिः) बनाने वाला है।

भावार्थ - जब चन्द्रमा के रस को सूर्य की किरणें खींच लेती हैं तब रस पृथिवी पर किरणोें द्वारा आता है और पदार्थो को (वनस्पति, औषधियों,फल-फूल आदि को) पुष्ट करता है। फिर वह पार्थिव रस किरणों से वायु द्वारा खींचकर चन्द्रमा को पहँचता हैं, इस प्रकार चन्द्रमा ईश्वरीय नियम से (प्राकृतिक चक्र) प्राणियों को सदा उपकारी होता है। (क्षेमकरणदास त्रिवेदी भाष्यकृत)

वनस्पति, फल-फूल, औषधि, अन्नादि के निर्माण में अहम् भूमिका निभाती हैं और वनस्पति को बढ़ाने में सूर्य और चन्द्रमा का उष्ण और शीतल किरणें सहयोग करती रहती हैं। भूजल को पृथ्वी की ऊपरी सहत में लाने का कार्य वृक्ष व वनस्पतियों की जड़ें करती हैं। इन वनस्पतियों के कारण वायुमण्डल में शीतलता और आर्द्रता बनी रहती है। जमीन को शीतल बनाए रखने में वृक्षों और वनस्पतियों का बड़ा योगदान हैं जिससे कि जमीन में पानी बना रहता हैं।

जंगलों को पृथ्वी के फुफ्फुस (Lungs) कहा गया है, पृथ्वी इन्हीं जंगलों की वनस्पतियों से मानो सांस ग्रहण करती है। यदि जंगल समाप्त हो जाय तो भूजल भी समाप्त हो जाय। एक दिन में वट वृक्ष (बड़) और पीपल का वृक्ष 1712 कि.ग्रा. प्राण वायु (आक्सीजन) का निर्माण करता है और 2252 कि.ग्रा. कार्बन डाइ ऑक्साईड (दूषित वायु) को शोषण करता है। यह इन वायुओं का शोषण और निर्माण कर स्वयं जीवित रहते हैं और मनुष्यादि प्राणियों को जीवित रहने का अवसर प्रदान करते हैं।

सोमं मन्यते पपिवान् यत् संपिंषन्त्योषधिम्।

सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति पार्थिवः॥

अर्थव 14-1-3

अर्थ - (सोमं) चन्द्रमा के (अमृत को) (पपिवान) मैंने पी औषधि (अन्न सोमलतादि) (संपिंषन्ति) वे (यत्) जब (ओषधिम्) ओषधि (अन्न सोमलतादि) (सिंपिंषन्ति) वे (मनुष्य) पीसते हैं। (यम्) जिस (सोमम्) जगत्स्त्रष्टा परमात्मा को (ब्रह्माणः) ब्रह्मज्ञानी लोग (विदः) जानते हैं, (तस्य) उसका (अनुभव) (पार्थिवः) पृथिवी (के विषय) में आसक्त पुरुष (न) नहीं (अश्नाति) भोगता है।

भावार्थ - चन्द्रमा के द्वारा पुष्ट हुए अन्न सोमलता आदि के सेवन से मनुष्य शरीर पुष्ट होते हैं, परन्तु जो मनुष्य विद्वानों का सत्संग करके ईश्वर ज्ञान से आत्मा को पुष्ट करते हैं वे शरीर पोषकों की अपेक्षा अधिक आनन्द पाते हैं।

इस मन्त्र में भले ही आत्मिक आनन्द को सर्वोपरि माना गया है, लेकिन कथ्य विषय के अनुसार मन्त्र के पूर्वार्ध में चन्द्रमा के द्वारा पोषित वनस्पतियों एवं अन्नादि से मनुष्य का शरीर पुष्ट होता है यह बात दृष्टव्य हैं। कलकारखानों, यन्त्रों तथा पत्थरी कोयलों से निकली (खान से निकला कोयला) कार्बनडाइ ऑक्साईड जैसी घातक हवाएँ वायुमण्डल में प्रवेश कर सम्पूर्ण वातावरण को दूषित बना देती हैं, आवश्यकता से अधिक इस तरह का धुऑं निकलने से मनुष्य की श्वास नलिकाओं को संकुचित बना देती है जिससे दमा, खाँसी घातक बीमारियाँ होने लगती हैं। उसी तरह वनस्पतियों एवं वृक्षों में पत्तियों के छिद्र भी बन्द हो जाते हैं। आवश्यकता से अधिक वनस्पति पेड़-पौधे कार्बन वायु को सोख नहीं सकते, अतः उनकी वृध्दि रुक जाती है अथवा वे सूखने लगते हैं। जंगलों की कटाई से प्राणवायु (ऑक्सिजन) अत्यल्प होता चला जा रहा है। शहरों के पास के वृक्ष सूखते चले जा रहे हैं, जिसकी वजह से मनुष्य को प्राणवायु उचित मात्रा में नहीं मिल पा रहा हैं।

देश में हर साल लगभग 37.5 लाख एकड़ क्षेत्र के वृक्ष काटे जाते हैं जिसके कारण अनुमानतः 1200 करोड़ टन मिट्टी बहकर चली जाती है। कलकत्ता, मुंबई, बैंगलोर जैसे शहरों में सम्भवतः कुछ काल पश्चात् प्राणवायु के सिलंडर पीठ पर लादकर चलना पड़ेगा ऐसी स्थिति आ रही है। इस समय बड़े-बड़े शहरों में मास्क लगाकर लोगा गाड़ी चला रहे हैं यह दृष्य देखने को मिल जाएगा। कार्बनडाई ऑक्साइड के वायुमण्डल में बढ़ने से पृथ्वी का नैसर्गिक समतोल ढल रहा हैऔर दूषित वायुओं के प्रकोप से पृथ्वी का तापमान आवश्यकता से अधिक बढ़ रहा है।

भूपृष्ठ से 20 से 40 कि.मी. की ऊँचाई पर ओजोन (O3) इस हलके वायु का स्तर पृथ्वी को घेरे हुए है उसे ओजोन आवरण (ओजोनांबर) कहते हैं। इसे पृथ्वी का कवच भी कहा जाता है। यह ओजोन वायु सूर्य की अत्यन्त घातक अति नील किरणों को (Ultra vioelt Rays) पृथ्वी से 40 कि.मी. की ऊँचाई पर ही रोक लेता हैं। सूर्य आग का अतिप्रचण्ड गोलक हैं इसमें से 10000 सेल्सियम से अधिक उष्णता निर्माण होती है। पर्यावरण के बिगड़ जाने से यह उष्णता किन्हीं-किन्हीं प्रदेशों में ओजोन आवरण को तोड़कर चली आ रही हैं। जिससे कि अनेक शारीरिक व्याधियाँ उत्पन्न हो रही हैं। लोगों की कैंसर से मृत्यु हो रही हैं। जमीन पर आई थोड़ी बहुत अति नील किरणों को वृक्ष वनस्पतियाँ रोक लेती हैं और मनुष्य को हानि पहुँचाने से बचा लेती हैं।

अग्निर्भूम्यामोषधीष्वगि्मा पो बिभ्रत्यगि्रश्मसु।

अग्निरन्तः पुरुषेषु गोष्वथ्वे स्वग्नयः॥

अर्थव 12-1-19

अर्थ - (भूम्याम्) भूमि में (वर्तमान्) (अगि्ः)अगि् (ताप) (ओषधीषु) औषधियों (अन्न सोमलता आदि) में हैं। (अगि् को (आपः) जल (बिभ्रति) धारण करते हैं, (अगि्ः) अगि् (आग) (अश्मसु) पत्थरों वा (मेघों में) है। (अगि्ः) अगि् (पुषषेषु) पुरुषों के भीतर हैं, (अग्यः) अगि् के (ताप) (गोषु) गौओं में और (अश्वेषु) घोड़ों में है।

भावार्थ - ईश्वर नियम से पृथिवी में अगि् ताप, अन्न आदि पदार्थो और प्राणियों में प्रवेश करके उनमें बढ़ने तथा पुष्ट होने का सामर्थ्य देता है। यहाँ उचित मात्रा और आवश्यक अनुपात में अगि् (सूर्य की उष्मा) पृथ्वी, मनुष्य, बादल, भूथल, गौ, घोड़े आदि को ऊर्जा प्रदान करती है, लेकिन प्राकृतिक पदार्थो के दूषित होने से (ओजोन वायु के दुर्बल हो जाने से) भूमि, जल, बादल, गौ और अन्य पशु-पक्षियों को नुकसान पहॅुंचा सकती हैं।

कहा गया है -

अगि्वासा पृथिव्यसितज्ञुस्त्विषीमन्तं संशितं मा कृणोतु।

अर्थव 12-1-21

अर्थ - (अगि्वासाः) अगि् के साथ निवास करने वाली अथवा (अगि् के वस्त्र वाली) (असितज्ञुः) बन्धन रहित कर्म को जताने वाली (पृथिवी) पृथ्वी को (त्विषिमन्तम्) तेजस्वी और (संशितम्) तीक्ष्ण (फुरतीला अथवा उपजाऊ) (कृणोतु) करें।

भावार्थ - जैसे भूमि भीतर और बाहर सूर्य ताप से बल पाकर अपने मार्ग पर बेरोक-टोक चलती है। वैसे ही मनुष्य भीतरी और बाहरी बल बढ़ाकर सुमार्ग पर बढ़ता चलें। इन मन्त्रों में सूर्य की ऊष्मा उचित मात्रा में पाकर पृथ्वी, पुरुष तथा जीव-जन्तु ऊर्जा को प्राप्त करें, सूर्य की उचित गर्मी को प्राप्त करने के लिए मनुष्य पर्यावरण के साथ छेड़-छाड़ न करे अपने स्वार्थ के लिये भौतिक पदार्थो का नाश न करें यह उपदेश दिया गया है।

वायुमण्डल के अन्तर्गत आनेवाली अनेक प्रकार की वायु असन्तुलित हो जाने से कार्बनडाइ ऑक्साईड एवं तत्सम, मिथेन (CH4) क्लोरोफ्यूरो कार्बन, (N2O) आदि दूषित वायु का परिमाण बढ़ रहा है। इसके लिये जिम्मेदार मोटर गाड़ी का धुऑं, कारखाने, मशीनरी, खनिज कोयला, अप्राकृतिक ज्वलनशील पदार्थ आदि हैं। इनका स्तर तपाम्बर स्तर पर जाकर बढ़ रहा है जिसकी वजह से सूर्य की घातक किरणें जमीन पर सीधी आ रही हैं, इससे भूमि का पानी सूख रहा हैं, वृक्ष आदि सूख रहे हैं। जिस तरह ताश का एक पत्ता गिरने से सारे पत्ते एक के बाद एक गिर जाते हैं, उसी तरह प्रकृति के संयोगी पदार्थ जब एक दूसरे से अलग होने लगते हैं। तो सारा भूमण्डलीय वातावरण बिगड़जाता है।

आने वाले 40 वर्षो में कार्बनडाइ ऑक्साईड का अंश 100% से बढ़ने की सम्भावना है। मिथेन वायु का स्तर हर साल 9% से बढ़ रहा है तथा CFC’s की वायुमण्डल में सतह 5% प्रतिशत से प्रत्येक वर्ष बढ़ रही है। सूर्य की ओर से 51% प्रतिशत तापमान पृथ्वी की ओर आता है और पृथ्वी के भूपृष्ठ से 51% तापमान बाहर जाता है। सूर्य की ऊष्मा समानरुप से भूपृष्ठ पर आती है और उसी अनुपात में बाहर जाती है। लेकिन उक्त दूषित हवाओं के कारण भूथल पर आयी हुई उष्णता वापिस नहीं जा रही है। इसके कारण प्राकृतिक पदार्थो में विघटन हो रहा है। पृथ्वी का तापमान से बर्फीले प्रदेशों से बर्फ पिघलकर समुद्र में मिल रही है। प्राणवायु का अभाव बढ़ता ही चला जा रहा है। जिस तरह एक कमरे में हम कोयले की अंगीठी चलाकर रखें और चारों और से दरवाजे, खिड़कियाँ बन्द कर लें तो अन्दर रहने वालों का दम घुट जाएगा। उसी तरह पृथ्वी की ऊष्मा और दूषित हवाओं से मनुष्य को साफ सुथरा प्राणवायु नहीं मिल पा रहा है।

अथर्ववेद का मन्त्र कहता है -

अगि्र्दिवआ तपत्यग्नेर्देवस्योर्वऽन्तरिक्षम्।

अगिं् मर्तास इन्धते हव्यवाहं घृतप्रियम्॥

अर्थव 12-1-20

अर्थ - (अगि्ः) अगि् (ताप) (दिवः) सूर्य से (आ तपति) आकर तपता है। (देवस्य) कामना योग्य (अग्ेः) अगि् का (उरू) चौड़ा (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (आकाश) है। (हव्यवाहम्) हव्य (आहुति के द्रव्य अथवा नाड़ियों में अन्न के रस) को ले चलने वाले, (धृतप्रियम्) घृत के चाहने वाले (अगि्म्) अगि् को (मर्तासः) मनुष्य लोग (इन्धते) प्रकाशमान करते हैं।

भावार्थ - यह अगि् (ताप) भूमि में सूर्य से आता है तथा आकाश के पदार्थो में प्रवेश करके उन्हें बलयुक्त करता है। (बादल, बिजली, समुद्र, जल, भूमि आदि में) उस अगि् को मनुष्य आदि प्राणी भोजन आदि से शरीर में बढ़ाकर पुष्ट और बलवान् होते हैं तथा उसी अगि् को हविद्रव्यों से प्रज्वलित करके मनुष्य वायु, जल और अन्न को शुध्द निर्दोश करते हैं।

हवा, पानी और वनस्पति को शुध्द बनाए रखना ये मनुष्य का प्रथमर् कत्तव्य है। पर्यावरण की तीन महत्वपूर्ण वस्तुएँ (वायु, जल और वनस्पति) शुध्द बनाए रखने की बात वेद कहते हैं, यह दृष्टव्य है। अतः पृथ्वी के तापमान बढ़ने में जितना ओजोन आदि वायु का नाश मुख्य कारण है, उतना ही वृक्ष, वनस्पतियों की कटाई तथा जंगलों की छंटाई आदि भी प्रमुख कारण हैं।

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