शनिवार, 31 मार्च 2007

राष्ट्रीय जल नीति जरुरी हैं

11 जनजीवन

राष्ट्रीय जल नीति जरुरी हैं

अवधेश कुमार

कर्नाटक में उठा तूफान अनपेक्षित नहीं हैं, हालांकि यह चिन्ताजनक हैं। सामान्यतः यह उम्मीद की गई कि प्राधिकरण के फैसले के बाद लंबे समय से कावेरी के पानी को लेकर खींचती तलवारें स्थायी रुप से म्यान में चली जाएँगी।

जाहिर है, कर्नाटक में जो उत्तेजना और रोष तथा केरल में जो विरोध दिख रहा है वह इस उम्मीद करने वाले इस विवाद के अतीत को शायद भूल गए थे। ज्यादा पीछे न जाएँ तो सितंबर 2002 में न्यायाधिकरण ने जब कर्नाटक सरकार को 1.25 अरब घनफुट पानी छोड़ने का आदेश दिया था तब भी कर्नाटक के लोगों ने उग्र प्रदर्शन किया था। उसके बाद उच्चतम न्यायालय ने भी न्यायाधिकरण के फैसले पर मुहर लगाते हुए तत्काल इसके पालन का आदेश दिया, लेकिन कर्नाटक ने अपनी असमर्थता जता दी। यहाँ तक कि तत्कालीन मुख्यमंत्री एसएम कृष्णा तक ने उच्चतम न्यायालय के फैसले का पालन करने से सार्वजनिक तौर पर इंकार किया था। इसके पीछे के प्रसंगों की ओर लौटेंगे तो भी लगभग ऐसी ही तस्वीर दिखाई देगी। ठीक वैसी ही स्थिति पुनः पैदा हो रही है किंतु पहले और आज में महत्वपूर्ण अंतर यह है कि न्यायाधिकरण ने इसके पहले केवल अंतरिम आदेश दिया, इस बार उसने अंतिम फैसला दिया है। बावजूद इसके यदि कर्नाटक का असंतोष पहले के समान ही है एवं केरल भी संतुष्ट नहीं हैं तो यह कई मायनों में गंभीर संकट का घोतक है।

कावेरी जल न्यायाधिकरण ने फैसला देने में 16 वर्ष लगाए। जाहिर है, दोनों पक्षों को सुनने और स्थिति को समझने के लिए यह पर्याप्त समय है। यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि उसने नदी में जल की उपलब्धता, चारों राज्यों की आवश्यकताएँ आदि का पूरा विचार करके ही फैसला दिया होगा। इसलिए देश भर की समान्य अपेक्षा यही होगी कि कर्नाटक इस फैसले को तत्काल स्वीकार करें। इसका प्रभाव केरल पर भी पड़ेगा। किंतु जिस ढंग से कर्नाटक में उग्र प्रतिक्रियाएँ हुई हैं उससे साफ है कि वह आदेश के मुताबिक सामान्य वर्ष में 419 अरब घनफुट पानी तमिलनाडु की ओर छोड़ने तथा स्वयं के एि 270 अरब घनफुट पानी रखने को तैयार नहीं है।

दूसरे शब्दों में उसकी ओर से मामले का निपटारा नहीं हुआ है। सामान्य स्थिति में कावेरी बेसिन में करीब 740 अरब घनफुट पानी उपलब्ध रहने का रिकॉर्ड है। कर्नाटक द्वारा बिलिगुंडी जलाशय से तमिलनाडु को जारी किए जाने वाले वास्तविक पानी की मात्रा केवल 192 अरब घनफुट वार्षिक ही होगी। पुड्डुचेरी के लिए सात अरब घनफुट एवं केरल के लिए जो 30 अरब घनफुट पानी दिया जाना है वह उसी में से जाएगा। इसके लिए कर्नाटक को अलग से कुछ नहीं देना है। दस अरब घनफुट पानी पर्यावरण की सुरक्षा के लिए सुरक्षित रखा गया है।

सामान्य वर्ष से मतलब उस साल से हैं जिसमें कावेरी बेसिन में पानी की कुल उपलब्धता कम है तो कर्नाटक फैसले के अनुसार इतना पानी छोड़ने के लिए विवश नहीं है। हालांकि यह इस फैसले का एक कमजोर पहलू है। न्यायाधिकरण ने पानी के बॅंटवारे के लिए तो पैमाना बना दिया है, लेकिन सामान्य वर्ष न होने यानी पानी कम होने पर बँटवाने के लिए कोई मापदंड तय नहीं किया है।

कर्नाटक या केरल के लोगों को यह समझना चाहिए कि न्यायाधिकरण का यह अंतिम फैसला है एवं इसके बाद केवल उच्चतम न्यायालय में पुनरीक्षण अपील की जा सकती हैं अपील का अधिकार हर राज्य को है एवं इसमें सामान्य तौर पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती किंतु जब न्यायाधिकरण 16 वर्षो की बौध्दिक और जमीनी कसरत के बाद इस नतीजे पर पहँचा है तो फिर चाहे वह उच्चतम न्यायालय ही क्यों न हो, इसके द्वारा जुटाए गए तथ्यों तथा निष्कर्षो से बिल्कुल अलग कैसे जा सकता है ? आखिर प्राधिकरण का गठन किया ही इसीलिए गया था कि वह इस मामले पर केन्द्रित होकर हर पहलू की विस्तार से जाँच-परख कर सकेगा। फिर से ऐसी ही कसरत तो नहीं की जा सकती।

प्रश्न है कि अब रास्ता क्या है? चारों राज्य आपस में कोई समझौता कर नहीं सकते और न्यायाधिकरण की इतनी लंबी कवायद भी व्यर्थ होती दिख रही है। जाहिर है, इससे अलग ही उपाय ढूँढना होगा। यदि हम थोड़ी भी गहराई से घटनाक्रमों का विश्लेषण करेंगे तो केन्द्र की निष्क्रियता साफ दिखाई देगी। सच यही है कि अगर केन्द्र ने समय पर सक्षम पहल की होती तो यह इतना बड़ा विवाद बनता नहीं नही। कर्नाटक एवं तमिलनाडु की तरह केन्द्र ने भी निहायत ही अदूरदर्शिता का परिचय दिया।

आजादी के साथ ही सभी नदियों को राष्ट्र की संपत्ति घोषित की जानी चाहिए थी। इसके साथ ऐसे सभी समझौतों की विस्तृत समीक्षा कर नदी जल बँटवारे का देशव्यापी पैमाना तय होना चाहिए था। आज भी केन्द्र के पास अंतरराज्य जल विवाद अधिनियम के तहत स्पष्ट कानूनी अधिकार हैं। वास्तव में कावेरी ही नहीं देशभर में नदी जल के बॅंटवारे को लेकर विभिन्न राज्यों के बीच जो विवाद आज तक बने हुए हैं, उनका मूल कारण यही है कि कोई बाध्यकारी राष्ट्रीय नीति नहीं बनी। फलतः व्यवहारिक एवं तकनीकी पहलुओं पर भावना की राजनीति हावी हो गई। कावेरी विवाद का सबक यही है कि केन्द्र इस दिशा में सक्रिय हो। सारी नदियों को राष्ट्र की संपत्ति मानकर जल विभाजन की एकरुप नीति बनें तथा इसकी मॉनिटरिंग केन्द्र अपने हाथ में ले। जल संरक्षण आदि विषय इसके बाद आते हैं।

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