6 विशेष रिपोर्ट
विज्ञान, कांग्रेस और भारतीय वैज्ञानिक
एम. उन्नीकृष्णन
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ही तरह भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना भी अंग्रेजों ने ही की थी। जे.एल. सायमनसेन और पी.एस.मॅकमोहन नामक दो ब्रिटिश रसायनविज्ञों ने सन् 1914 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ (इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन) की बुनियाद रखी। इस संघ के तत्वाधान में ही प्रतिवर्ष जनवरी माह में वार्षिक विज्ञान कांग्रेस का आयोजन होता है। आशुतोष मुखर्जी की अध्यक्षता में इसकी प्रथम सभा 15 से 17 जनवरी 1914 के मध्य कोलकाता के एशियाटिक सोसायटी सभागार में सम्पन्न हुई थी। हाल ही में तमिलनाडु के चिदम्बरम् नामक नगर में 94वीं विज्ञान कांग्रेस का आयोजन सम्पन्न हुआ।
इसकी स्थापना को अब तक लगभग एक शताब्दी बीत गई है इस अवधि में विज्ञान कांग्रेस का आकार लगातार बढ़ता रहा है। अब इसमें अनेक छात्रों और वैज्ञानिकों समेत लगभग दस हजार प्रतिनिधि सहभागी होते हैं। विज्ञान की विविध शाखाओं से सम्बध्द 14 विषयों पर लगभग 1000 शोधपत्र इसमें पढ़े गये। उद्घाटन सत्र में अति-विशिष्ठ व्यक्तियों की उपस्थिति से इस आयोजन की चमक और भी बढ़ गई।
प्रबुध्द व्यक्तियों के इस विशाल समागम में विज्ञान नदारद था और सर्वत्र कांग्रेस ही व्याप्त थी। अधिकांश सहभागी मध्यमवर्गीय शोधकर्ता या शासकीय सेवा में लगे वैज्ञानिक थे, जो रोजमर्रा के एकरस काम से बचने के लिये अपने परिवार और दोस्तों के साथ इस जमावड़े में शामिल हुए थे।
प्रतिभागियों के आने-जाने का खर्च उन संस्थाओं/प्रतिष्ठानों ने वहन किया था, जहाँ वे काम करते हैं। सहभागिता का पंजीयन भी महंगा नहीं था और कांग्रेस में मिलने वाला भोजन अत्यन्त स्वादिष्ट था। भीड़ जुटने के ये दो प्रमुख कारण थे। विज्ञान कांग्रेस में पढ़े गये शोध-पत्र घटिया दर्जे के थे, जहाँ तक कि निचले स्तर के भारतीय मानकों पर भी वे खरे नहीं उतरते थे। इसके आकर्षक का एकमात्र केन्द्र पूर्णाधिवेशन था, जिसमें विज्ञान जगत की प्रमुख हस्तियां एक मंच पर आकर अपने जीवन में अनमोल अनुभव बाँटती हैं। वैज्ञानिक समूह द्वारा प्रोत्साहित किये जाने वाले नये विचार की झलक किसी भी भाषण में दिखाई नहीं दी।
भारत राजनीतिक तौर पर एक विभाजित देश है। अतएव यहां के राजनीतिक मतभेद भले ही काल्पनिक हों या वास्तविक इस अवसर पर अक्सर उभर कर सामने आते दिखाई दिये। परिणाम स्वरुप विज्ञान पीछे रह गया और ज्यादातर समय राजनीतिक बहस में ही बीत गया।
भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ का मुख्यालय कोलकाता में है, इसलिये आमतौर पर यह आरोप लगाया जाता है कि इसमें बंगालियों का प्रभुत्व है। अगली कांग्रेस के आयोजन-स्थल का निर्धारण एक राजनीतिक निर्णय होता है, अतः उस पर विवाद होना लाजमी है। इस वर्ष कांग्रेस का आयोजन दिल्ली स्थित एमिटी विश्वविद्यालय में होना था, किंतु उसके निदेशक पर आपराधिक प्रकरण दर्ज होने के कारण आयोजन - स्थल बदल कर चिदम्बरम् तय किया गया था। हाल के समय में कुछ तकनीकी और सांगठनिक कुशलताओं के कारण विज्ञान कांग्रेस कुछ प्रतिभागियों को प्रतिष्ठा देने की ओर सभी अग्रसर हुई है।
प्रस्तुतिकरण के लिये अब स्लाईड प्रोजेक्टर के स्थान पर माईक्रोसॉफ्ट पॉवर-पाईण्ट का उपयोग किया जाता है। सभा कक्ष वातानुकूलित होते हैं और विज्ञान कांग्रेस में शामिल होने के लिये अधिकांश प्रतिनिधि हवाई जहाज से उड़कर आते हैं। लेकिन इतनी सुविधाओं के बाद यह चिन्ता की बात है कि चमक-दमक से भरपूर इस आयोजन में विज्ञान का तत्व लगातार कम होता जा रहा है।
भारतीय विज्ञान कांग्रेस और उसके साथ-साथ समूचे भारतीय विज्ञान को अंदर ही अंदर जो दीमक खाये जा रही है, उसे भारतीय समाज से ही पोषण मिलता है। वास्तविक श्रेष्ठता को पहचानने, उसे प्रोत्साहित और पोषित करने की अक्षमता, सत्ता के जड़ और सोपानबध्द ढांचे में ही निहित है। यह विद्वता के बदले सत्ता के समक्ष सिर झुकाने को उचित मानती है। वास्तविक उपलब्धियों के प्रोत्साहन में कमी एवं श्रेष्ठ बुध्दि वाले वैज्ञानिकों के अधिक मुनाफे वाले उद्यम की ओर झुकाव से भी विज्ञान कमजोर हुआ है।
सर्वाधिक खतरे की बात यह है कि व्यवस्था पर बोझ बने राजनीति में लिप्त, औसत दर्जे के अवसरवादी व्यक्तियों के लिए प्रतिबध्द वैज्ञानिकों ने मौन रहकर मैदान खाली छोड़ दिया है। गुलाम भारत में नोबल पुरस्कार पाने योग्य वैज्ञानिक थे, किंतु आज एक भी नहीं है।
भारत में अल्पसंख्यकों, महिलाओं, बच्चों, पशुओं एवं पर्यावरण की रक्षा के लिए अनेक समाजकर्मी कार्य कर रहे हैं। किंतु जब विज्ञान की रक्षा का सवाल उठता है तब कोई संगठन नजर नहीं आता। हम सबको विज्ञान के क्षेत्र में भी कार्य की आवश्यकता है ताकि वर्तमान भारतीय विज्ञान के बेतुकेपन और तर्कहीनता को बेनकाब किया जा सके। यह होगा तभी हमारे अकादमिक जगत में विज्ञान को अधिक और कांग्रेस को कम सम्मान मिलेगा। ***
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