5 आवरण
क्या जंगल का राजा है शेर ?
डॉ. चन्द्रशीला गुप्ता
सिंह या एशियाई सिंह वह शेर है जो इतिहास में दर्ज है। प्राचीन समय में यह दक्षिण यूनान से उत्तर-पश्चिम में भारत के पलामू (बिहार) तक फैला हुआ था। सहारा के रेगिस्तान ने एशियाई सिंह को अफ्रीकी सिंह से पृथक कर रखा था। यह एशियाई सिंह या शेर (क्षेत्रानुसार नाम अलग-अलग हैं) भी बीसवीं सदी में सिर्फ सौराष्ट्र (गुजरात) के गिरवन को छोड़कर पूरे भारत से विलुप्त हो गया। मुख्य कारण थे खुले चारागाहों व झाड़ियों का नष्ट होना, जगह-जगह बस्तियों का निर्माण, शिकार के लिए बेहतर हथियारों का बनते जाना इत्यादि।
एशियाई सिंह जिसका वैज्ञानिक नाम पेन्थरा लियो पर्सिका है, विशाल विडाल वंश में बाघ के बाद सबसे बड़ा है। यह दहाड़ने वाली पांच बिल्लियों में से एक है। अतः बाघ, तेंदुए, हिम तेंदुए व जगुआर (दक्षिण अफ्रीका के एक चीते जैसे पशु) का निकट संबंधी है। वैसे सिंह इस मामले में भी विशिष्ट है इसका उद्भव अपेक्षाकृत बेहद ठण्डी जलवायु में हुआ है जिसमें यह आज नहीं पाया जाता है। यहां हम सिंह के यूरोपिय उद्भव को जानने के लिए सुदुर अतीत में नही जाएंगे।
आदि काल से ही सिंह को शक्ति व सत्यनिष्ठा का प्रतीक माना जाता था। अथर्व वेद में राजा की तुलना सिंह से की गई है। राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय (सन् 375-412) के राज्य में सोने के सिक्कों पर राजा के नाम के आगे सिंह विक्रम (सिंह जैसे पराक्रमी) उपाधि लिखी गई है। सिक्के के दूसरी और देवी दुर्गा को सिहारुढ़ बताया है। सिंह कई शताब्दियों से राष्ट्रीय पशु माना गया है। हमारे राष्ट्रीय चिन्ह में सिंह उपस्थित है।
कुछ सदियों पूर्व तक एशियाई सिह एशिया माइनर, अरब, फारस व भारत भर में फैला हुआ था। इस्त्राइल से यह 13वीं सदी में लुप्त हुआ। यद्यपि अरब देशों में यह रेगिस्तानों के अलावा अन्य जगहों पर पिछली सदी तक था।
सन् 1929 में जूनागढ़ के नवाब सर महावत खानजी ने अपने राज्य में सिंह पर डाक टिकट जारी किया था। इस तरह देश में डाक टिकट में छपने वाला प्रथम वन्य जीव सिंह ही था। सिंह ठोस व भारी शरीर वाला प्राणी है। यह खुले मैदानों में रहता है, अतः घने जंगलों से गुजरने के लिए छरहरे शरीर की आवश्यकता नहीं है। अब तक सबसे लम्बा सिंह
सिंह की पूरी काया पर रोएंदार मटमैले रंग की खाल होती है जिसका रंग पेट पर कुछ हल्का होता है। कान काले से होते हैं, पूंछ लम्बी, थोड़ी फरयुक्त व सिरे पर काले बालों का गुच्छा होता है। आगे के पैर बेहद मजबूत होते हैं। शिकार की गर्दन मरोड़ने के लिए पंजे का एक ही वार काफी होता है। यह अपने नखरों से टुथपिक का काम भी लेता है। यदि खाते समय मांस का कोई टुकड़ा दांतों में फंस जाता है तो यह नखर का हुकनुमा इस्तेमाल करते हुए टुकड़ा निकाल लेता है।
यद्यपि यह बाघ या तेंदुए के समान कूदने में सक्षम नहीं है फिर भी सिंह की
सिंह का गर्भकाल 105 दिन है और एक बार में 2-3 शावक जन्म लेते हैं। शावक जन्म के समय करीब 30 से.मी. लम्बे व
शिकार करते समय यह सर्वप्रथम शिकार की गर्दन को पंजे के वार से तोड़ देता है। अगले पंजों के नाखून से नाक पकड़कर उसकी गर्दन को पकड़कर गोल घुमाता है। इस प्रकार शिकार की गर्दन टूट जाती है। बहुचर्चित शिकार की पीठ पर चढ़ जाना कभी कभार ही होता है क्योंकि सिंह सामने रहना पसंद करता है। सामने से वार करने पर गर्दन मरोड़ने में लिए अतिरिक्त ताकत मिल जाती है। साथ के छोटे सदस्य शिकार को पीटकर बेदम करने के अलावा उसे झाड़ियों में घसीटने का काम करते हैं। सिंह शिकार की आंतें सबसे पहले खाता है लेकिन आमाशय को निकालकर मिट्टी में दबा दिया जाता है। आंत के अन्दर अधपचा हरा भोजन इसको रेशा व विटामिन प्रदान करता है। आंत के बाद सिंह मांस पर ध्यान देता है। यह पीछे से खाना शुरु कर आगे सिर की ओर बढ़ता है।
वैसे तो सिंह का प्रिय भोजन शाकाहारी चौपाए (हिरन, सांभर, भेड़, बकरी, ऊंट व अन्य ढोर आदि) हैं मगर मजबूरी में कौए से लेकर मछली तक भी खा जाते हैं। वृध्द या घायल सिंह मानवभक्षी होते देखे गए हैं। ज्यादातर मानवभक्षी हो जाने पर यथाशीघ्र मार डाला जाता है।
सिंह समूहों में रहने के आदी होते है। एक समूह में 4 से लेकर 30 तक सदस्य होते हैं। जरुरी नहीं कि समूह में एक ही परिवार के सदस्य हों। समूह का एक नायक होता है और कई सिंहनियां और शावक होते हैं। कभी-कभी दो समूह मिलकर एक हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में एक वक्त में 2 नायक हो सकते हैं। नायकत्व का निर्णय पराक्रम से तय होता है और हारा हुआ सिंह युवा नरों को लेकर नया समूह बना लेता है।
किसी समय एशियाई सिंह बड़े क्षेत्र में फैले हुए थे मगर वर्तमान में ये गुजरात के काठियावाड़ के गिर क्षेत्र तक सीमित हैं। गिर वन स्वतंत्रता के पूर्व जूनागढ़ राज्य में स्थित था। वहां पर सिंह की मौजूदगी निश्चित ही जूनागढ़ नवाब के संरक्षण के फलस्वरुप थी। उन्नीसवीं सदी के अंत में अनियंत्रित शिकार ने इन्हें विलुप्ति की कगार पर ला दिया तथा मात्र 20 सिंह बचे थे। तब एक भयंकर अकाल भी पड़ा था। इसे छप्पनिया अकाल के नाम से जाना जाता है। तब जंगल में भी सिंह के भोजन का अकाल था। अतः ये नर भक्षी हो गए थे और इनको बड़ी संख्या में मार दिया गया था। तब नवाब ने इनके शिकार पर सख्त प्रतिबंध लगा दिया थाऔर सख्ती से लागू किया था। काफी समय बाद सीमित संख्या में इनके शिकार की अनुमति दी गई थी। संरक्षण के उपायों का चमत्कारिक प्रभाव हुआ। सन् 1936 की गणना में 287 सिंह गिने गए थे।
गिर क्षेत्र में दो वनवासी जातियां गुर्जर एवं मलाधारी निवास करती हैं जिनकी जीविका के प्रमुख साधन बकरी, भेड़ या ऊंट होते हैं। सिंहों व अन्य वन्य प्राणियों को संरक्षण मिलने से इन पशुपालकों की पशु संपदा पर खतरे बेहद बढ़ गए हैं। चाणक्य के प्रसिध्द ग्रन्थ अर्थशास्त्र में अभयारण्यों के नियम कायदे वर्णित हैं। गुजरात सरकार ने सिंह के संरक्षण के लिए इनका अनुसरण किया है। गिर अभयारण्य का करीब 14,000 वर्ग कि.मी. केन्द्रीय भाग 1975 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया गया है। यहां सारे वानिकी कार्य प्रतिबन्धित है। मलाधारियों के विस्थापन के साथ इसका क्षेत्र बढ़ाने की योजना है। गिर अभयारण्य के चारों ओर 468 कि.मी. लम्बा परकोटा बना दिया गया है।
सिंह के बारे में अनेक भ्रामक व असत्य कथाएं कही व लिखी जाती हैं। जैसे इसे रेगिस्तान व जंगलों के राजा के रुप में वर्णित किया गया है जबकि सिंह घास के मैदानों का वासी है। इसकी अनेक सभ्य आदतें भी है। जैसे शिकार से पहले यह स्वस्थ खेल की परंपरा निभाते हुए जोर से दहाड़ता है ताकि शिकार को उसके आगमन की सूचना मिलें। अन्य ऐसे प्राणी घात लगाकर शिकार करते हैं। पूरे विडाल वंश में सिंह की दहाड़ सबसे ऊंची होती है। यह अपने इलाके की घोषणा करने के लिए होती है। अन्य आवाजें परिस्थितियों से संबंधित होती हैं।
मादा अपने बच्चों को पुकारने के लिए कोमल स्वर में म्याऊं सी आवाज लगती है। क्रुध्द सिंह चेतावनी में गुर्राता है। उत्तेजित व हमले के लिए तैयार होने पर खंखारता है। अन्य मांसाहारियों के समान सिंह का इलाका भी बड़ा होता है जिसमें वे विचरते है वह शिकार करते हैं। एक समूह में इलाके में दूसरे समूह का इलाका शामिल हो सकता है। इनकी सामान्य रफ्तार 5 कि.मी. प्रति घण्टा होती है लेकिन ये एक रात में 48 कि.मी. का रास्ता तय करते भी देखे गए हैं। इसी प्रकार हमले के वक्त ये शानदार टर्न भी लेते हैं।
शेरों का शिकार तब से चलन में है जब वे खोह या गुफाओं में रहते थे और आगे चलकर सर्कस, तमाशों व चिड़ियाघरों में अपरिहर्य बन गए। आज इनकी अनेक प्रजातियां (बारबारी व केपलायन) लुप्त हो चुकी हैं। एशियाई सिंह भी संरक्षण की वजह से ही नजर आ रहा है।
सिंह को देखने का सर्वाधिक आनंद उसे उसके प्राकृतिक परिवेश में देखकर ही लिया जा सकता है । ये सुबह शाम नजर आ सकते हैं क्योंकि यह इनके शिकार का वक्त है। बन्द गाड़ियों में घूमकर इन्हें देखा जा सकता है। इन्हें मोटर यानों की आदत पड़ गई हैं। पर्यटकों के लिये सिंह हमेशा से आकर्षण का केन्द्र रहें हैं ।
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