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पड़ती भूमि पर पुनर्विचार की ज़रुरत
जयश्री वेंकटेशन
पिछले दिनों पड़ती भूमि कई कारणों से खबरों में रही। तमिलनाडु सरकार ने यह कदम उठाया कि राज्य के भूमिहीनों को ढाई-ढाई एकड़ जमीन दी जाएगी। इस निर्णय के चलते यह बहस छिड़ गई कि जमीन आएगीकहां से?
इसी प्रकार से चेन्नै जैसे महानगरों के आसपास सेटेलाइट टाउन निर्मित करने के प्रस्ताव के बाद भी इसी तरह की शंकाएं व्यक्त की गई। इन शंकाओं का समाधान करते हुए तमिलनाडु सरकार ने स्पष्ट किया कि इस काम के लिए भी मात्र पड़ती भूमि या सूखी भूमि का ही अधिग्रहण किया जाएगा। यह भी कहा गया था कि पानी के स्त्रोतों, रिहायशी इलाकों और जंगलों को इस कार्यक्रम के दायरें में नहीं लाया जाएगा।
तमिलनाडु में कुल 17,303.29 वर्ग कि.मी. भूमि को पड़ती भूमि के रुप में चिन्हित किया गया है। यह राज्य के भौगोलिक क्षेत्रफल का 13.3 प्रतिशत है। तर्क यह दिया जा रहा है कि यह जमीन सरकारी जरुरत को आसानी से पूरा कर सकती है। इस तरह के सुझाव भी आए हैं कि पड़ती भूमि का उपयोग प्लांटेशन, खास तौर से रतनजोत के प्लांटेशन हेतु किया जए ताकि जैव ईंधन उद्योग को बढ़ावा मिल सके। यह सही है कि जीवाश्म ईंधन (पेट्रोल, डीजल वगैरह) से हटकर जैव ईंधन की ओर कदम बढ़ाना एक अच्छा कदम होग, मगर पड़ती भूमि को जैव ईंधन प्लांटेशन में तब्दील करने के विचार की छानबीन करने की जरुरत है।
मसलन, यह सुझाया जा रहा है कि पालनी पर्वत की पड़ती भूमि पर रतनजोत उगाया जाए जबकि यह इलाका कुछ ऐसे पौधों का प्राकृत वास है जो सिर्फ यहीं पाए जाते हैं। इसके लिए प्रस्ताव यह है कि रेल्वे के साथ वापिस खरीद की व्यवस्था कर ली जाए।
इसी प्रकार से, हाल के दिनों में तटवर्ती क्षेत्रों को प्रोसोपिस जुलीफेरा उगने के लिए छोड़ दिया गया है, यहां तक कि मैन्ग्रोव वनों के पट्टों को भी। यह प्रजाति ईंधन की जरुरत की पूर्ति करती है। इन जमीनों को भी पड़ती भूमि के रुप में वर्गीकृत किया गया है।
दक्षिण चेन्नै में एक दलदल है जो इकॉलॉजी की दृष्टि के काफी महत्वपूर्ण है। इसके संरक्षण के लिए पांच वर्षो से किए जा रहे प्रयासों में अवरोध पैदा हो गया क्योंकि यह पड़ती भूमि है।
यह चिंता व्यक्त की गई है कि पड़ती भूमि कहीं एक मोहक शब्द में न बदल जाए जो दानदाता संस्थाओं को उसी तरह रिझाने लगे जैसे स्थानीय लोगों व संस्थाओं की भागीदारी और जेंडर जैसे जुमलें रिझाते हैं। मगर इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि हम भूमि बंदोबस्त व प्रशासन की औपनिवेशिक विरासत को सीने से चिपकाए बैठे हैं और अभी भी उसका पालन कर रहे हैं।
पड़ती भूमि दरअसल प्राकृतिक संसाधनों को लेकर औपनिवेशिक धारणा की अवशेष है। यह धारणा मूलतः राज्य द्वारा प्राकृतिक संसाधनों पर एकछत्र नियंत्रण स्थापित करने के उद्देश्य से निर्मित की गई थी। इन संसाधनों में भूमि प्रमुख थी। कोशिश यह थी कि दुविधा वाले क्षेत्र कम से कम रहें। नजूल बंदोबस्त प्रणाली के जरिए जंगल व कृषि भूमि के बीच काल्पनिक मगर कारगर विभेद पैदा किया गया। शुध्दतः प्रबंधन के मकसद से ब्रिटिश शासन ने इस तरह के वर्गीकरण किए और जमीनों को वन भूमि व कृषि भूमि में बांट दिया। कृषि भूमि को उत्पादक भूमि व पड़ती भूमि (वेस्टलैण्ड्स) में बांटा गया। इस तरह के वर्गीकरण के उदाहरण हमें कई और मामलों में भी देखने को मिलते हैं। जैसे प्रायद्वीपीय भारत के घाट को पश्चिमी व पूर्वी घाट में बांटना, जंगलों को नम व शुष्क जंगलों में बांटना या यह कहना कि लोग या तो जातियों में शामिल होंगे या जनजातियों में।
मद्रास प्रेसिडेंसी में अपनाई गई भूमि बंदोबस्त प्रक्रिया इसका उम्दा उदाहरण है। ब्रिटिश आगमन से पहले दक्षिण भारत के ग्रामीण समाज विकेंद्रीकृत इकाइयों में संगठित था जिन्हें नाडु कहते थे। अलबत्ता ब्रिटिश शासकों ने दावा किया कि लोगों की हालत अत्यंत शोचनीय है और पूर्ववर्ती सरकारों, और खासकर टीपू सुल्तान के राज, ने गांवों को ऐसी हालत में पहुचा दिया है कि सम्पन्न किसान ढूंढे नहीं मिलेगा। यह भी कहा गया कि किसान ईमानदारी से लगान नहीं चुकाते हैं। इन मान्यताओं के आधार पर ब्रिटिश शासन ने व्यवस्थित ढंग से नियंत्रण की स्थानीय प्रणालियों को कमजोर किया और राजस्व व्यवस्था लागू करके पूरा नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया। इन व्यवस्थाओं में रैयतवाड़ी और स्थायी बंदोबस्त प्रमुख थीं। जंगल के बंदोबस्त की प्रक्रिया को मद्रास फॉरेस्ट एक्ट, 1882 पारित करके संभव बनाया गया। इस कानून के जरिए जंगल के एक बड़े हिस्से को आरक्षित जंगल घोषित कर दिया गया था।
मद्रास प्रेसिडेंसी के राजस्व इतिहास को उजागर करते हुए बेडन पॉवेल ने दो अवधियां चिन्हित की हैं - प्रारंभिक व आधुनिक बंदोबस्त। जहां प्रारंभिक बंदोबस्त कमोबेश पूर्व के आकलन पर आधारित थे, और क्षेत्रीय स्वायत्तता को प्रोत्साहित करते थे, वहीं 1858 में बंदोबस्त महकमे की स्थापना के बाद जो दौर शुरु हुआ उसमें कठोर मापदण्ड लागू किए गए और इस काम में बंदोबस्त व सर्वेक्षण अफसरों की मदद ली गई जो जमीनों के नक्शे बनाया करते थे। इस दूसरे दौर में प्रशासन के मकसद से जमीन को आक्यूपाइड और अन-ऑक्यूपाइड भूमियों में बांट दिया गया।
इन्हें इस तरह परिभाषित किया गया कि जिस जमीन पर खेती होती है वह आक्यूपाइड है और जिस जमीन पर खेती नहीं होती वह पड़ती भूमि है। वैसे दिखता तो यह है कि इससे ज्यादा से ज्यादा जमीन को कृषि भूमि में तब्दील करके निजी स्वामित्व में देने को बढ़ावा मिलेगा जगर दरअसल सर्वे की पूरी प्रक्रिया पड़ती भूमि को चिंहित करके राज्य के नियंत्रण में लाने की प्रक्रिया थी।
आरक्षित जंगलों के अलावा जो जमीन थी उसमें निम्नलिखित बारीक वर्गीकरण किए गए ः पट्टा भूमि, आकलित सूखी व नम पड़ती भूमि, अनाकलित पड़ती भूमि और पोरोम्बोके (राजस्व और वन)। आकलित सूखी व नम पड़ती भूमि वह थी जो उस समय तक खेती विहीन रहती थी जब तक कि राजस्व विभाग उसका आवंटन न कर दे। इस श्रेणी में कई किस्म के प्राकृतवास शामिल थे, जैसे दलदल, मौसमी नम भूमियां, पथरीली ढलवां भूमि, परित्यक्त चारागाह, और झूम खेती के अंतर्गत आने वाली जमीनें। पोरोम्बोके जमीनें सामुदायिक उपयोग के लिए निर्धारित थीं।
वास्तविक परिस्थिति में पड़ती भूमि की बेवकूफी स्पष्ट नजर आती है। मसलन तमिलनाडु में अधिकांश अनाकलित नम पड़ती भूमि के रुप में वर्गीकृत नम भूमियां वास्तव में कृषि तंत्र का अभिन्न अंग हैं और यहां मौसमी तौर पर धान की खेती होती है। इसके अलावा स्थानीय लोग इन नम भूमियों से कई लाभ प्राप्त करते है। जैसे चारा, मछली तथा चटाई, टोकरियां वगैरह बनाने के लिए कच्चा माल आदि। इस तरह की नम भूमियां शहरी क्षेत्र में हों, तो उन्हें कचरा व मलबा फेंकने का स्थान बना दिया जाता है। पहाड़ी इलाकों की नमभूमियों का उपयोग मोटा अनाज और फलियां वगैरह उगाने के लिए किया जाता है और कहीं-कहीं तो इनमें व्यापारिक फलोद्यान (बाड़ियां) भी लगाए जाते हैं। ऐसे क्षेत्रों में खेती-बाड़ी के जो तौर-तरीके अपनाए जाते हैं वे जांच-परखे हैं और इनमें बाहरी इनपुट्स की जरुरत बहुत कम होती है। यह भी जानी-मानी बात है कि कई पड़ती जमीनें पशु पालक समुदायों के लिए चारागाह हैं।
इस तरह के अवलोकनों से सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह सामने आता है कि पारंपरिक रुप से जमीन को मात्र सेवा प्रदाता के रुप में नहीं देखा जाता था। काफी प्राचीन समय में ही समझ लिया गया था कि ये जमीनें कई सारी इकॉलॉजिकल भूमिकाएं अदा करती हैं।
भूमि का जो प्रारंभिक वर्गीकरण चरक, कौटिल्स और कश्यप ने किया था वह मिट्टी की गुणवत्ता और उर्वरता, स्थानीय जलवायु की परिस्थितियों, और अनोखेपन जैसी कसौटियों पर आधारित था। भूमि वर्गीकरण की एक राजस्व प्रणाली भी अस्तित्व में थीं जो मिट्टी की गुणवत्ता पर आधारित थी। इसका विवरण हमें अर्थशास्त्र और अग्निपुराण में मिलता है। इसी प्रकार से संगम साहित्य (300ई.पू. से 300 ई.) के एक ग्रंथ तोल्काप्पियम में भूमि ह्रास और मरुस्थलीकरण को वर्गीकरण का एक आधार जरुर बताया गया है मगर किसी भी प्राकृतिक संसाधन के बारे में उपयोगहीनता की बात बिलकुल नहीं कही गई है। इस बात को सहजता से स्वीकार किया गया था कि प्राकृतिक संसाधन एकाधिक सेवाएं प्रदान करते हैं। वनवासी समुदाय जिस ढंग से भूमि का वर्गीकरण करते हैं उसमें यह मान्यता स्पष्ट झलकती है। मसलन नीलगिरी के कुरुम्ब समुदाय में जमीन का परिसीमन परिपाटियों के अनुसार किया जाता है और अपने दायरे में आने वाली जमीन का विवरण उसके कार्य के आधार पर होता है। इसी प्रकार का वर्गीकरण कोली पर्वत के मलई अली में भी मिलता है। ये लोग जमीन का वर्गीकरण वहां पाए जाने वाले पानी की गुणवत्ता और गहराई के आधार पर करते हैं।
इन वैकल्पिक प्रणालियों के उल्लेख का आशय प्राचीन व पारंपरिक ज्ञान को महिमामंडित करना नहीं है बल्कि यह रेखांकित करना है कि हमें जमीन के उपयोग व बंदोबस्त की वर्तमान नीतियों में आधुनिक समझ को जगह देनी चाहिए। ***
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