8 ज्ञान विज्ञान
सल्फर से कम करेंगे धरती का तपमान !
तपती धरती का ताप कम करने के लिए पूरी दुनिया में बहस छिड़ी हुई है। ग्लोबल वार्मिंग की अवधारणा ने तरह-तरह के सवाल खड़े कर दिए हैं। वैज्ञानिक वर्ग इस अध्ययन में निरंतर लगा हुआ है कि पृथ्वी को किसी तरह भी इस आगामी संकट से बचाया जा सके।
एक विचार यह भी आया है कि वायुमंडल की स्ट्रैटोस्फेयर लेयर को सल्फर स्क्रीन से ढँक दिया जाए। धरती से 10 से 50 किमी ऊँचाई पर स्थित इस परत तक सल्फर पहुँचाने के लिए रॉकेटों का प्रयोग किया जाए।
यह विचार थोड़ा विराधाभासी भी हैं क्योंकि अब तक विज्ञान में यही बताया जाता रहा है कि सल्फर प्रदूषक तत्व के रुप में वातावरण में शामिल हैं। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग जैसे संकट से बचाने वाली ओजोन परत के निर्माण और क्षरण पर अध्ययन कर रहे पॉल क्रुटॉन ने सल्फर से जरिए ग्लोबल वार्मिंग से निजात दिलाने का उपाय सुझाया है।
उनका मानना है कि सल्फर कण पृथ्वी के लिए प्राकृतिक शीतलता का काम करते हैं। ये कण मिलकर वायुमंडल की ऊपरी परत में एक चादर जैसी बनाएँगे, जो सूर्य किरणों को सीधे ही धरती तक पहँचने से रोकने में कारगर होगी।
श्री पॉल ने 1991 में दक्षिण पूर्ण एशिया में फटने वाले माउंट पिनाटूबो ज्वालामुखी को अपना मॉडल बनाया। उन्होंने आकलन किया कि इसने स्ट्रैटोफेयर लेयर में करीब 10 लाख टन सल्फर डाई ऑक्साइड छोड़ी। यह गैस हवा के बहाव के साथ पृथ्वी से काफी ऊँचाई पर घूमने लगी।
सालभर में गैस में मौजूद सल्फर जैसे प्रदूषक तत्व पूरी दुनिया में फैल गए। इसका असर देखा गया कि दो साल बाद धरती के तापमान में 0.6 डिग्री की कमी देखने को मिली। लेकिन श्री पॉल यह भी कहते हैं कि दुबारा धरती का तापमान कम करने के लिए एक और ज्वालामुखी विस्फोट का इंतजार नहीं किया जा सकता। इसलिए रॉकेट के जरिए सल्फर डाई ऑक्साइड को भेजे जाने पर विचार किया जा सकता है।
पिछले करीब 200 सालों में दुनिया में सल्फर डाई ऑक्साइड से पर्यावरण के भारी नुकसान को देखा जा चुका है। उसके बाद भी श्री पॉल इसके उपयोग से तापमान घटाने की तरफदारी करते हैं।
अमेरिका में एक भारतीय का कमाल
अमेरिका भले ही अपने दम पर अंतरिक्ष में पहुँच गया हो लेकिन ऊँचे पेड़ो पर चढ़ने के लिए उसको भारतीय तरीका इस्तेमाल करना पड़ रहा हैं बोस्टन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता प्रो. डेविड कॉर्टर जैव विविधता से संबंधित अपने महत्वपूर्ण शोध को अंजाम देने के लिए एक ऐसे भारतीय यंत्र का प्रयोग कर रहे हैं, जिससे वे आसानी से पेड़ पर चढ़ सकते हैं।
केरल के एक देहाती युवक ने ऐसा यंत्र बनाया है, जिसकी मदद से नारियल एवं सुपारी के 40-60 फुट ऊँचे पेड़ों पर सरपट चढ़ा जा सकता है। केरल के एमजे जोसफ (अपच्चन) द्वारा विकसित किए गए इस यंत्र का नाम रखा गया है ट्री क्लाइंबर।
यह खुद अपच्चन बनाते हैं और 2 हजार रु. में बेचते है। अब तक वे 6 हजार यंत्र बेच चुके हैं। कुछ साल पहले बनाया गया यह यंत्र 2-3 मिनटों में पेड़ पर चढ़ा देता है। धातु से बने इस यंत्र को पेड़ पर लटकाकर उसमें दोनों पैर डाले जाते हैं। पैरों को एक-एक ऊपर करने से यंत्र ऊपर चढ़ाता जाता है।
इस तरह के जमीनी आविष्कारों को प्रोत्साहन देने के लिए गैर सरकारी संगठन ने यंत्र का इंटरनेट पर प्रचार किया है। इसके परिणाम भी सुखद मिले हैं। खासकर अमेरिका से तो काफी अच्छा फीडबैक मिला है। फ्लोरिडा के एक वैज्ञानिक ने तो यह तकनीक खरीदने की भी कोशिश की, परंतु जोसफ ने मना कर दिया।
हाथी अपना अक्स पहचानते हैं
आइने में दिखने वाली छवि मेरी है, इस बात की जागरुकता बहुत कम प्राणियों में देखी गई है। इन्सानों में तो यह चेतना थोड़ी ज्यादा ही है मगर वनमानुषों में अैर डॉल्फिनों में भी देखी गई है। और अब हाथी भी इस जमात में शामिल हो गए हैं।
अभी कुछ वर्ष पहले तक माना जाता था कि अपना अक्स पहचानने की यह क्षमता सिर्फ इन्सानों व ग्रेट एप्स में होती है। फिर 2001 में कोलम्बिया विश्वविद्यालय की डायना राइस ने स्पष्ट किया कि डॉल्फिनों में भी यह चेतना पाई जाती है प्रयोगों में देखा गया कि आइने के सामने डॉल्फिन खुद को इस तरह रखने की कोशिश करते हैं ताकि शरीर पर लगा ऐसा कोई निशान आइने में देख सकें जो वैसे नहीं दिखता। इससे पता चलता है कि वे समझते हैं कि आइने में जो प्रतिबिंब दिख रहा है वह कोई दूसरा जंतु नहीं बल्कि वे स्वयं हैं। वैसे देखा जाए तो इन्सानों और वनमानुषों की तरह डॉल्फिन भी अत्यंत सामाजिक जीव हैं और बड़े दिमागों के मालिक हैं। इनमें एक दूसरे के प्रति हमदर्दी भी देखी गई है। लिहाजा राइस ने एक और ऐसे जीव की ओर रुख किया जो बड़े दिमाग का स्वामी है यानी हाथी। एशियाई हाथी में भी परस्पर हमदर्दी देखी गई हैं।
हाथियों की दर्पण-चेतना को परखने के लिए राइस ने अटलांटा के एमरी विश्वविद्यालय के फ्रान्स डी वॉल और जोशुओ प्लॉटनिक के साथ मिलकर काम किया। उन्होंने न्यूयॉर्क के ब्रॉन्क्स चिड़ियाघर में तीन हाथियों को दर्पण दिखाया। यह देखा गया कि हाथी सूंड की मदद से प्रतिबिंब की छानबीन करने लगे। एक हाथी ने तो उसके सिर पर लगे निशान को बार-बार छूकर देखा। इस प्रयोग का विवरण प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्स में प्रकाशित करते हुए राइस ने स्पष्ट किया है कि पूर्व में इसी बात की जांच करने हेतु जो प्रयोग किए गए थे उनमें बहुत छोटे दर्पणों का उपयोग किया गया था और परिणाम नकारात्मक रहे थे। राइस का मत है कि हाथियों की दृष्टि बहुत अच्छी नहीं होती, इसलिए दर्पण बड़े होना बहुत जरुरी है ताकि वे उसके साथ खेल सकें।
अंतरिक्ष में कचरा कहां फेंकें ?
आजकल इस्तेमाल करो और फेंको का ज़माना है। फेंकते जाने की यह संस्कृति जब अंतरिक्ष में भंी फैल रही हैं। मसलन अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में रह रहे अंतरिक्ष यात्रियों के सामने कचरा एक बड़ी समस्या के रुप में पड़ा है। यदि ये लोग इस कचरे को अपने यान से बाहर फेंकने लगें तो लगभग वैसा ही होगा जैसा हमारे घरों के कचरे का होता है। बल्कि स्थिति और भी बुरी होगी। अंतरिक्ष में यह कचरा चक्कर काटता रहेगा। हो सकता है कि वह खुद उसी स्टेशन से टकरा जाए या किसी अन्य अंतरिक्ष यान से जा भिड़े।
मगर नासा का अनुमान है कि यह कचरा कोई गंभीर समस्या नहीं है क्योंकि देर सबेर यह पृथ्वी के वायुमंडल में गिरेगा और हवा के संपर्क में आते ही रगड़ से उत्पन्न गर्मी के कारण जलकर नष्ट हो जाएगा।
जब यह समस्या वाकई काफी विशाल हो गई है। अब तक अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के कचरा बाहर नहीं फेंका जाता था। लिहाज़ा अंदर कचरे का ढेर जमा हो गया है। ढेरों यंत्र आदि इस अंबार में शामिल हैं। इनमें ईंधन की टंकियों जैसी चीजें भी हैं जिन्हें किसी अन्य यान में रखकर वापिस धरती पर लाना खतरनाक हो सकता है। इसके अलावा कुछ ऐसी चीज़ें भी हैं जो अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा खुले अंतरिक्ष की चहलकदमी के दौरान यहां-वहां पड़ी रह गई हैं। इन्हें वापिस यान के अंदर ले जाना लगभग असंभव है। इन चीज़ों से निपटने का एक ही तरीका है कि जब अगली बार कोई अंतरिक्ष यात्री यान से बाहर निकले तो इन चीज़ों को उल्टी दिशा में धकेल दे। यह पूरा बखेड़ा इसलिए खड़ा हुआ है क्योंकि एक रुसी अंतरिक्ष यात्री ने अपनी अंतरिक्ष चहलकदमी के दौरान स्टेशन से एक गोल्फ की गेंद का धक्का मारना था और यह दरअसल एक गोल्फ कम्पनी द्वारा प्रायोजित स्टंट था। कम्पनी यह बताना चाहती थी कि उसकी गेंद ने इतिहास में सबसे लम्बी दूरी तय की है। नासा का विचार था कि
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