1 सामयिक
खनन के नाम पर संसाधनों की लूटमार
भारत डोगरा
नई राष्ट्रीय खनन नीति की घोषणा शीघ्र होने वाली है। यदि कुछ मुद्दों पर विवाद बहुत पेचीदा न होते, तो संभवतः यह नीति कब की प्रस्तुत हो चुकी होती।
किसी राष्ट्र के विकास, आजीविका व व्यापार में खनिज संपदा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भारत की खनिज संपन्नता को देखते हुए यह भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। पर साथ ही खनन के पर्यावरण पर होने वाले असर को इसलिये भी ध्यान में रखना बहुत जरुरी है जिससे खनन की प्रक्रिया से तबाही न हो। यह भी आकलन करना आवश्यक है कि खनन का आसपास के गांववासियों, खेती और पशुपालन, जल-स्त्रोतों व वनों पर क्या असर पड़ेगा। यह सभी बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न हैं।
यदि किसी स्थान से खनिज इस तरह से निकाला जाए कि वहां के जल-स्त्रोत ही तबाह हो जाएं तो निश्चय ही जीवन के आधार की यह तबाही स्वीकार नहीं की जा सकती है। अतएव इस विषय में समग्र दृष्टिकोण की बहुत आवश्यकता है। जब टिकाऊ व समग्र विकास को ध्यान में न रखकर केवल अल्पकालीन मुनाफे को आधार बनाया जाता है तो इससे खनिज सम्पदा सम्पन्न क्षेत्रों के विकास के स्थान पर उनकी तबाही होने लगती है।
भारत में इन दिनों लौह अयस्क का व्यापार संबंधी विवाद काफी तीखा हो रहा है व इसे राष्ट्रीय आर्थिक नीति की घोषणा में देरी का यह एक मुख्य कारण भी माना जा रहा है। दरअसल भारत के अयस्क भंडार पर विश्व की कई स्टील कंपनियों की नजर गढ़ी है व वे बड़े पैमाने पर लौह अयस्क खरीदने के लिए तैयार हैं। लौह अयस्क को बड़े पैमाने पर निर्यात करने के कई प्रस्ताव हाल ही में चर्चित भी हुए हैं। इस बारे में एक अन्य राय यह है कि देश के सीमित लौह अयस्क भंडार की अगर हम इतनी तेजी से निर्यात कर देंगे तो हमारे अपने स्टील उद्योग को लौह अयस्क कहां से मिलेगा। भविष्य हेतु ठीक से कार्य योजना बननी चाहिए जिससे कि अति महत्वपूर्ण स्टील उद्योग की जरुरतें पूरी हो सकें।
कुछ अध्ययनों में चिंता जाहिर करते हुए बताया गया है कि यदि वर्तमान दर से निर्यात होता रहा तो कुछ ही वर्षो में हमारे लौह अयस्क भंडार समाप्त होने लगेंगे व तब हमारे अपने स्टील उद्योग के लिए कच्चे माल के संकट की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। इसके जवाब में यह कहा जा रहा है कि समय के साथ-साथ लौह अयस्क के नए भंडार पता चलेंगे। अतः अभी विदेशी मुद्रा कमाने के अवसर को हाथ से न जाने दिया जाए,पर यह दृष्टिकोण बहुत भाग्यवादी है। साथ ही यह भी विचारणीय है कि क्या केवल नए भंडार की उम्मीद पर आप अपनी भविष्य की जरुरतों को नजरअंदाज कर दें? कई देशों के पास अपने अच्छे खासे लौह अयस्क भंडार है पर फिर भी वे एक सीमा के बाद इनका जल्दबाजी में दोहन नहीं करते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी भविष्य की जरुरतों का भी ख्याल है।
लौह अयस्क के अतिरिक्त कोयले संबंधी विवाद भी पेचीदा हैं। एक बहुत शक्तिशाली लॉबी यह चाहती है कि इस क्षेत्र में बड़ी निजी व विदेशी कम्पनियों का तेजी से आगमन हो। पर कोयले के खनन के निमित्त वर्ष 1973 में बना राष्ट्रीकरण का कानून इसकी इजाजत ही नहीं देता। जब कोयले के खनन का राष्ट्रीकरण हुआ था तो इसे कांग्रेस लोक हितकारी निर्णय के रुप में बहुत प्रचारित किया था। अब कांग्रेस की अग्रणी भूमिका वाली यूपीए सरकार के लिए यह कठिन हो रहा है कि वह अपनी ही प्रचारित एवं प्रसारित नीतियों से पीछे कैसे हटे।
इस स्थिति से निबटने का एक तरीका काफी माथापच्ची के बाद यह ढूंढा गया था कि जिन कम्पनियों या उपक्रमों को कोयले की अधिक जरुरत होती है, (जैसे ताप बिजलीघरों व स्टील उद्योग को) उन्हें कोयले के कुछ कैप्टिव ब्लाक दे दिए जाएं व तत्पश्चात् उन्हें यह इजाजत भी दे दी जाए कि वे किसी निजी या विदेशी खनन कंपनी से संयुक्त प्रयास या संयुक्त उपक्रम का समझौता कर लें। अब इसे और आगे बढ़ाया जा रहा हैव बड़ी निजी व विदेशी खनन कंपनियों को सीधे कोयले के ब्लाक खनन के लिए देने की तैयारी की जा रही है। उन्हें बस यह बताना होगा कि स्टील या सीमेंट उद्योग या ताप बिजली घरों आदि कोयले के बड़े व महत्वपूर्ण उपभोक्ताओं को आपूर्ति करने की स्वीकृति उनके पास है।
जहां ऐसे निर्णयों में भारत के बाहर की अनेक विदेशी खनन कंपनियों में बहुत उत्साह आ गया है, वहां सरकार को अभी तक यह दुविधा है कि कोयला राष्ट्रीकरण अधिनियम सन् 1973 के रहते विदेशी व निजी क्षेत्र की इतनी सारी कंपनियों को बड़े पैमाने को कोयला खनन की अनुमति देकर वह किसी कानूनी संकट में न पड़ जाए। राष्ट्रीयकरण अधिनियम में संशोधन करने का प्रस्ताव भी बहुत समय से सरकार के समक्ष विचाराधीन है, पर इससे राजनीतिक हड़कंप मचेगा, उससे सरकार दाव पेच चलाकर वह फिलहाल अपनी इसी नीति को आगे बढ़ाना चाहती हैं।
बाक्साईट के खनन की योजनाएं भी तीखे विवादों के घेरे में हैं। उड़ीसा के कालाहांडी जिले में व इसके आसपास के क्षेत्र में प्रस्तावित बाक्साईट खनन व एल्यूमिनियम के संयंत्रों को सबसे अधिक आलोचना झेलनी पड़ती है व इसके वाजिब कारण भी हैं। इस क्षेत्र में रोजी-रोटी के गंभीर सकंट व भूख से मौतों के समाचार बार-बार चर्चा में आते रहे हैं। इसलिए यहां पर आजीविका का आधार सुधारने व विशेषकर सिंचाई व पेयजल व्यवस्था पर सरकार ने विशेष ध्यान दिया है। परंतु अब बाक्साईट व एल्यूमिनियम की विशालकाय परियोजनाओं से यहां की नदियों व जल स्त्रोतों पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना उत्पन्न हो गई है।
गांववासी व पर्यावरणविद् यह सवाल उठा रहे हैं कि बाक्साईट को केवल उद्योग के कच्चे माल के रुप में क्यों देखा जाता है इसे जल-संरक्षण के एक महत्वपूर्ण स्त्रोत के रुप में क्यों नहीं देखा जाता है? विशेषकर कालाहांडी व आसपास के क्षेत्रों में उन पर्वतों में जहां से अनेक महत्वपूर्ण जल स्त्रोत निकल रहे है, वहां तो बक्साईड की इस महत्वपूर्ण जल-संरक्षण भूमिका पर ध्यान देना आवश्यक है।
इसके अतिरिक्त नियमगिरि पर्वतमालाओं में स्थित कालाहांडी के क्षेत्रों में ऐसे आदिवासी समुदाय रहते हैं जिनके लिए एक ओर तो यह पर्वतमाला आवास व आजीविका का क्षेत्र है, वहीं दूसरी ओर स्थानीय परंपरा में इनकी इतनी गहरी आस्था व श्रध्दा है कि उनके लिये यहां से उजड़कर कहीं और बसना एक बड़े आघात की तरह है। कुछ ऐसी ही गहरी श्रध्दा की भावनाएं अधिकांश बहुसंख्यक लोगों की चित्रकूट (उत्तरप्रदेश व मध्यप्रदेश) के उन क्षेत्रों के प्रति हैं जहां अनेक प्राचीन तीर्थ स्थल व उनके आसपास के क्षेत्र खनन के लिए प्रयोग आ रहे डायनामाईट के कारण तबाह हो रहे हैं। राजस्थान के ब्रज क्षेत्र (जिला भरतपुर) में होने वाले खनन के बारे में भी बार-बार कहा गया है कि इससे लाखों तीर्थ यात्रियों की श्रध्दा के स्थान उजड़ चुके हैं व अन्य खतरे में हैं।
दूसरी ओर झरिया (झारखंड) जैसे कुछ क्षेत्रों की स्थिति तो और भी गंभीर है, क्योंकि वहां हुए अनियमित खनन के कारण हजारों लोगों का जीवन ही खतरे में पड़ गया है। यहां जमीन के अंदर के कोयला भंडारों ने जगह-जगह आग पकड़ ली हैजिससे खनन के लिए बनाए गए खंबे क्षतिग्रस्त हो जाते हैं व भूमि घसान का गंभीर खतरा उत्पन्न हो जाता है।
खनन क्षेत्र के लोगों की सुरक्षा के साथ खनन मजदूरों की सुरक्षा व भलाई का मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है। अनेक खनन क्षेत्रों जैसे कोयला खनन में मजदूर काफी असुरक्षा की स्थिति में काम करते हैं। पत्थर गिट्टी जैसे तथाकथित लघु खनिज क्षेत्र में व इससे जुड़े क्रशरों में लगे लाखों मजदूरों की स्वास्थ्य की स्थिति बहुत विकट है व उन्हें सिलकोसिस तथा टीबी जैसी गंभीर बीमारियों में झोंका जा रहा है। अतः मजदूरों की भलाई व स्वास्थ्य की रक्षा को नई खनिज नीति में महत्वपूर्ण स्थान मिलना बहुत जरुरी है।
***
1 टिप्पणी:
भारत डोगरा के इस राष्ट्रीय महत्व के विषय पर लेख को यहाँ प्रस्तुत करने के लिए ,धन्यवाद ।
एक टिप्पणी भेजें