शनिवार, 31 मार्च 2007

बजट 2007

प्रसंगवश

बजट 2007

आम आदमी का सपना और हकीकत

केन्द्र सरकार पर 25 लाख करोड़ रुपयों का कर्ज है। इस तरह प्रत्येक भारतीय व्यक्ति पर बाईस हजार रु. कर्ज है। सोलह वर्ष पहले 1990-91 में यह कर्ज केवल 3500 रु. था। केंद्र सरकार को विदेशी ऋण के 76716 करोड़ रु. चुकाना हैं। संसद में वर्ष 2007-08 का बजट पेश करने के पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम् ने वर्ष 2006-07 की आर्थिक समीक्षा को इस तरह पेश किया कि आम आदमी को कुछ भी समझ में नहीं आ सका है।

ताजा आर्थिक समीक्षा से न तो पिछले वर्ष की उपलब्धियों और असफलताओं को जानने का मौका मिला और न यह अनुमान लगाना संभव हुआ है कि अगला वर्ष कैसा बीतेगा। केव यह भरोसा दिलाया जा रहा है कि आर्थिक विकास की 9.2 प्रतिशत दर हासिल कर ली जाएगी। इस आर्थिक विकास का लाभ कितना, कैसा और किसको मिलेगा, इसकी कल्पना करना अभी मुश्किल हो रहा है।

कृषि उत्पादन में वृध्दि की निराशाजनक तस्वीर पर ध्यान दिया जाना जरुरी है। चांवल (8 करोड़ टन), दालें (1.45 करोड़ टन) तिलहन (2.8 करोड़ टन), गेंहँ (7.2 करोड़ टन) की जानकारी बतलाती है कि चालू वर्ष में उत्पादन घटा हैं। कपास (2.1 करोड़ गाँठ) और गन्ना (31 करोड़ टन) के ऑंकड़े जरुर गत वर्ष से बेहतर हैं। मगर खाद्यान्न का उत्पादन 22 करोड़ टन के लक्ष्य से 1.1 करोड़ टन कम रहा है। अनाज, दालों और तेल की बढ़ती कीमतों की जिम्मेदारी इसी कमी पर है।

यह खुशी की बात है कि उच्च शिक्षा हासिल करने वालों की संख्या में 40 प्रतिशत की वृध्दि हुई है और प्रतिवर्ष 1.5 करोड़ विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इनमें एक तिहाई लड़कियाँ हैं। मगर सर्वशिक्षा अभियान और प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा की हालत चिंताजनक है। काफी बड़े अनुपात में बच्चे पढ़ाई अधूरी छोड़ने को मजबूर हैं। इस दिशा में सबसे खास ध्यान दिलाने वाला मुद्दा यह है कि भारत की जनसंख्या 1.6 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही हैं और 2045 में जाकर ही बढ़ना रुकेगी। आधे से अधिक जनसंख्या युवा वर्ग की होगी जिनकी शिक्षा और रोजगार की व्यवस्था करना होगी शेयर बाजार में आर्थिक समीक्षा को इसीलिए चिंता की दृष्टि से लिया गया है। समीक्षा में दिए गए संकेतों के अनुसार कार्रवाई होना जरुरी है क्योंकि शेयर बाजार और वायदा बाजारों की तेजी का जो असर आर्थिक विकास की मरीचिका में प्रकट हो रहा था, उसका गुब्बारा फूटने का डर भी लग रहा है। ***

खबरिया चैनलों के लिए कानून जरुरी

सामाजिक संगठनों ने म ुनाफा और व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा की होड़ में समाज में अंधविश्वास, अपराध एवं अन्य नकारात्मक प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने वाले निजी टेलीविजन चैनलों पर नियंत्रण रखने के लिए सरकार से तत्काल कड़े कानून बनाने की मांग की है।

सामाजिक संगठन ओपन फोरम एवं ओमेक्स फाउंडेशन की ओर से पिछले दिनों नई दिल्ली में सम्पन्न मीडिया एवं सामाजिक विकास पर राष्ट्रीय संगोष्ठी में वक्ताओं ने देश में मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के तेजी से हो रहे विस्तार एवं इनके द्वारा पेश की जा रही आपत्तिजनक सामग्रियों के मद्देनजर कारगर राष्ट्रीय मीडिया नीति भी बनाए जाने की जरुरत महसूस की जा रही है।

देश में फिल्मों के लिए केंद्रीय सेंसर बोर्ड जैसी नियामक संस्था है लेकिन लोगों की मानसिकता एवं सोच को व्यापक पैमाने पर प्रभावित करने वाले टेलीविजन चैनलों के लिए कोई नियामक संस्था अभी तक नहीं बनाई गई है।

आज ज्यादातर पत्रों एवं टेलीविजन चैनलों की सामग्रियों का चयन जनहित एवं सामाजिक सरोकार के आधार पर नहीं बल्कि व्यावसायिक मुनाफे के आधार पर होता है। यही कारण है कि आज मीडिया से जनहित एवं सामाजिक विकास से जुड़ी खबरें एवं सामग्रियां गायब हो रही है और इनकी जगह पर सस्ता मनोरंजन बेचा जा रहा है। यह तर्क दिया जा रहा है कि लोग ऐसा चाहते है जबकि लोगों की रुचियों को जानने के लिए न तो कोई अध्ययन हो रहा है और न ही कोई सर्वेक्षण।

समाज और देश के विकास में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है इसलिये मीडिया को केवल व्यावसायिक होड़ में फंस कर अपनी इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।

एक समय समाचार पत्र जनहित के मुद्दों को तरजीह देते थे क्योंकि उस समय समाचार पत्रों की आमदनी का 30 से 40 प्रतिशत हिस्सा पाठकों से प्राप्त होता था लेकिन आज समाचार पत्रों एवं टेलीविजन चैनलों की आमदनी का मुख्य स्त्रोत विज्ञापन हो गए हैं। आज खबरिया चैनलों में प्राइम टाइम पर प्रसारित होने वाली खबरों में तीन प्रतिशत से भी कम खबरें सामाजिक विकास के मुद्दों से जुड़ी होती हैं।यही कारण है कि मीडिया सामान्यजन से दूर होता जा रहा है ।

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