शनिवार, 31 मार्च 2007

प्रदेश चर्चा

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म.प्र. ः कोयले की दलाली में जान का खतरा

रामकुमार विद्यार्थी

कोयले ने राष्ट्र के आर्थिक विकास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। आजादी के बाद बिजली उत्पादन हो या रेल परिवहन, देश को आज की स्थिति तक पहुंचाने में कोयले ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। आज जब खदानों में कोयला समाप्त हो गया हैं तो उन्हें एक कब्रगाह में तब्दील कर दिया गया है। वहीं देश के भाग्य निर्माताओं को सोचना चाहिये कि जिन लोगों का पुनर्वास वो पिछले 60 साल में नही कर पाई वे अब क्या करें। अब जबकि पुनः विस्थापन का दौर प्रारंभ हो गया है तो सभी विस्थापितों के हित में संघर्षरत व्यक्तियों/संस्थाओं को कोयला खदानों के कारण निर्वासित व्यक्तियों को आधार बनाकर नई पुनर्वास नीति का निर्धारण करवाना चाहिये।

मध्यप्रदेश का दक्षिणी-पूर्वी हिस्सा कोयलांचल के रुप में खास पहचान रखता है। यहां के उमरिया, शहडोल और अनूपपुर जिलों से व्यापक मात्रा में कोयले का उत्खनन किया जाता है। कोल इण्डिया की सबसे बड़ी कंपनी एसईसीएल द्वारा संचालित भूमिगत खदानों का यहां जाल बिछा हुआ है। इस क्षेत्र की कई खदानें बहुत पुरानी हैं, जहां आजादी के पूर्व से ही कोयलो का खनन किया जाता रहा है। उमरिया की खान तो उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध की है।

काले हीरे की खुदाई से कंपनी व सरकार की तकदीर बदलने वाली इन कोयला खदानों ने इस क्षेत्र को नये तरह के संकट में ला खड़ा किया है। कोयला उत्पादन से प्रतिदिन करोड़ों रुपयों की आय कमाने वाली कपंनी, कर्मचारियों के साथ-साथ स्थानीय जनता को सामाजिक और पर्यावरणीय सुरक्षा प्रदान करने में विफल रही है। कोयला क्षेत्र में नागरिक सुरक्षा के मामले में घोर उदासीनता बरती जा रही है। भूमिगत खदानों से कोयले का दोहन करके जमीनों को खाली छोड़ दिया जाता है। ऐसा क्षेत्र जिसके पेट में मौजूद कोयले का दोहन किया जा चुका है, को स्थानीय बोली में गोफ कहा जाता है, जिसके धसकने का डर हमेशा बना रहता है।

विन्ध्य क्षेत्र की जोहिला, सोहागपुर, जमुना-कोतमा और इसी से लगे छत्तीसगढ़ के हसदेव में समय-असमय खदान धसकने की घटनाएं प्रकाश में आती रही हैं। आज भी कोयला खदानों में होने वाले दगानों (विस्फोटों) के कारण कई खदानों के ऊपर बसी आबादी निरंतर भय और खतरे में निवास कर रही है। दगानों की धमक ऊपर तक सुनाई देती है और उनके कारण इमारतों की दीवारेंं तक दरक जाती हैं। साथ ही सैकड़ों, नदी-नालों, कुआें-तालाबों का जल स्तर लगातार गिर रहा है और वे बेमौत मर रहे हैं। खुली खदानों की स्थिति भी ऐसी ही है। समूचे कोयला क्षेत्र में स्थानीय सुरक्षा नियमों, पर्यावरण नीतियों को ताक पर रख कर अंधाधुंध दोहन जारी है।

गोफ क्षेत्र में आने वाली खेती एवं आवास की भूमियों का कोयला कंपनियों ने अधिग्रहण तो कर लिया है, किंतु समुचित पुर्नवास नहीं होने के कारण अभी भी कई प्रभावित परिवार उस खतरनाक क्षेत्र में रहने को अभिशप्त हैं। लोहसरा, सोमना, भगता, भवनिहा टोला जैसे गांव आज भी गोफ पर बसे हुए हैं। सोमना कोयला खदान से प्रभावित कई परिवार वर्षो से नौकरी व मुआवजे की लड़ाई लड़ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उनकी भूमि का दोहन जारी है। भवनिहा टोला के आस-पास के खेत धंसते जा रहे हैं, उनमें बड़े-बड़े सुराखनुमा गङ्ढे हो गये हैं। लोहसरा गांव के तालाब में मोटी दरार पड़ गयी और समूचा पानी गोफ में समा गया। खुला क्षेत्र होने के कारण पुश भी इन गङ्ढों के शिकार हुए हैं।

बरसात का मौसम आते ही इस तरह के हादसों की संख्या बढ़ जाती है। स्थानीय असंतोष के बाद ऐसे कुद दरारों गङ्ढों को ऊपरी तौर पर मिट्टी से पाट तो दिया गया, लेकिन अंदरुनी रुप से आम नागरिकों के लिए यह खतरा आज भी बना हुआ है। उमरिया क्षेत्र के पीली कोठी के जंगली इलाके में आज भी बड़े-बड़े गङ्ढे खतरों को न्यौता दे रहे हैं। इसी प्रकार धनपुरी कोयला खदान से प्रभावित धनपुरी के कई वार्डों में दगानों के कारण इमारतें ध्वस्त हो रही हैं। आम जनता की लाख गुहार के बावजूद भी इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है औ खौफ का यह खेल लगातार जारी है।

चूंकि कोयला खदान प्रबंधन गोफ क्षेत्र में बाड़ नहीं लगाता, इससे उस क्षेत्र में अचानक होने वाले खतरों तथा अतिक्रमण की गुंजाइश बनी रहती है। पिछले दिनों इसका उदाहरण तब सामने आया जब भाजपा सरकार ने भूमिहीनों को खाली पड़ी जमीनों पर आवासीय प्लाट देने की बात कही। फलस्वरुप भाजपा के अनूपपुर जिलाध्यक्ष दिलीप जायसवाल ने कुछ परिवारों को लोहसरा स्थित रिक्त भूमि पर कब्जा करवाने की कोशिश की । लेकिन मामला तब उलझ गया जब हाथ आये इस सुनहरे अवसर को भुनाने के लिए भू-माफिया सक्रिय हो गये तथा खाली पड़ी जमीन पर कब्जा जमाना शुरु कर दिया। यह अफरा-तफरी तब रुकी जब खान-प्रबंधक ने उक्त भूमि पर अपना दावा जताते हुए इस बात का खुलासा किया कि यह गोफ क्षेत्र है और आवास की दृष्टि से खतरनाक है।

कोयलांचल की मनमानी कारगुजारियों पर इशारा करते हुये समाजकर्मी संतोष कुमार द्विवेदी कहते हैं -कि समूचे कोयला क्षेत्र में पर्यावरण तथा नागरिक सुरक्षा नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। यदि नीतियों की बात की जाए तो खुली खदानों में दोहन के पश्चात् भूमि का समतलीकरण, वृक्षारोपण तथा समूचे क्षेत्र को बाड़ के घेरना अनिवार्य होता है। इसी प्रकार खदानों का कोयला निकालने के पश्चात् उनमें रेत की भराई होनी चाहिए अथवा आधार तंत्र हटाकर जमीन को धसका देना चाहिए। ऐसे सभी खतरनाक क्षेत्र को चिह्नत करके उसे बाड़ लगाकर घेर देना चाहिए, जिससे किसी प्रकार के दुर्घटना की आशंका न रहे। तत्संबंध में चेतावनी का बोर्ड भी लगाया जाना चाहिए। लेकिन खदान प्रबंधन इन सब उपायों के बारे में गंभीर नहीं है।

कोयला खदान क्षेत्र में कार्यरत श्रमिक संगठन श्रमिक समस्याओं से जुड़े मुद्दे को तो उठाते हैं, किंतु गोफ क्षेत्र से जुड़ी समस्याएं श्रमिकों से नहीं बल्कि आम नागरिकों से अधिक जुड़ी होती हैं, इसलिए श्रमिक नेताओं के लिए यह मसला प्राथमिकता का नहीं होता। नागरिकों का ऐसा कोई संगठन नहीं है जो इन मुद्दों को उठाए, यही वजह है कि खदान प्रबंधन इस ओर कभी ध्यान ही नहीं देता।

अपूपपुर जिले के कोतमा ब्लाक में क्षेत्रीय विकास समिति ने एक समय इन मुद्दों को लेकर कई आंदोलन किये और उन्हें इसमें आंशिक सफलता भी मिली, किंतु उन्होंने भी इस मुद्दे को एक स्थिति तक लाकर छोड़ दिया। हाल ही में लोहसरा ग्रामीण विकास समिति ने भी अपने हक की आवाज उठायी और संघर्ष की प्रक्रिया चलायी प्रबंधन की तानाशाही ने इस आंदोलन को भी दबा दिया। राजनीतिक दालों के नेता एवं चुने हुये प्रतिनिधि, खदान प्रबंधन से इस तरह उपकृत रहते हैं कि नागरिक अधिकारों को लेकर वे खदान प्रबंधन के विरुध्द खड़े होने का साहस भी नहीं दिखा पाते। ऐसे में कोयलांचल के नागरिको के लिए व्यक्तिगत स्तर पर मुद्दे को उठाने एवं असुरक्षा में जीने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता। फिलहाल यह सब तो हो ही रहा है। पर जो सवाल यहां के नागरिकों के मन में है और वे पूछना चाहते हैं कि, क्या कोयलांचल के निवासी पूरी तरह से सुरक्षित हैं ? क्या गोफ का खौफ यहां के निवासियों के मन से कभी खत्म हो

पायेगा ......? ***

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