शनिवार, 31 मार्च 2007

वृक्षों की कटाई- आपदाओं को आमन्त्रण

7 विश्व वानिकी दिवस पर विशेष

वृक्षों की कटाई- आपदाओं को आमन्त्रण

डॉ. चन्द्रशेखर लोखण्डे

वृक्ष एवं वनस्पतियों का हमारे जीवन से घनिष्ट संबंध है। वनस्पति को जंगल की स्वामिनी कहा गया है। वृक्ष एवं वनस्पति से हमारे प्राणों की रक्षा होती हैं। वृक्ष अपने पत्तों के द्वारा Co2(कार्बनडाइ आक्साईड)को सोखते हैं तथा जड़ों के द्वारा जल को खींच लेते हैं। यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। ऊपर से Co2 (कार्बनडाइ आक्साईड) और नीचे जड़ो से पानी साथ में सूर्य प्रकाश और पत्तो के अन्दर स्थित हरित द्रव्य इनके संयोग से कार्बोहाइड्रेट्स और प्राण वायु (O2) बनते हैं, यह प्राणवायु पत्तों के जरिये वायुमण्डल में छोड़ा जाता है। वनस्पति और वृक्षों के पत्तों में यह कार्बोहाइड्रेट्स शर्करा के रुप में विद्यमान रहता है इसी को प्रकाश संश्लेषण कहा जाता है। कार्बनडाइ ऑक्साईड का शोषण और प्राणवायु (ऑक्सिजन) का विजर्सन यह प्रक्रिया वृक्षों, लताओं और पौधों में निरन्तर चलती रहती है।

चन्द्रमा की शीतल किरणें वनस्पतियों के पोषण में विशेष कार्य करती हैं। सूर्य प्रकाश, ऊषा की कोमल किरणों तथा चन्द्रमा की शीतल चाँदनी से वनस्पति जगत् फलता-फूलता है यही चेतन-अचेतन जगत् को सुन्दर और सजीव बनाये रखने में मदद करता है।

यत् त्वा सोमप्रपिबिन्ति तत् आ प्यायसे पुनः॥

वायुः सोमस्य रक्षिता समानां मास आकृतिः॥

अर्थव 14-1-4

अर्थ - (सोम) हे चन्द्रमा ! (यत्) जब (त्वा) तुझ को (प्रपिबन्ति) वे (किरणें) पी जाती हैं, (ततः) तब (पुनः) फिर (आ प्यायसे) तू परिपूर्ण हो जाता है। (वायुः) पवन (सोमस्य) चन्द्रमा का (रक्षिता) रक्षक है और (मासः) सब का परिमाण करने वाला (परमेश्वर) (समानाम्) अनुकूल क्रियाओं का (आकृतिः) बनाने वाला है।

भावार्थ - जब चन्द्रमा के रस को सूर्य की किरणें खींच लेती हैं तब रस पृथिवी पर किरणोें द्वारा आता है और पदार्थो को (वनस्पति, औषधियों,फल-फूल आदि को) पुष्ट करता है। फिर वह पार्थिव रस किरणों से वायु द्वारा खींचकर चन्द्रमा को पहँचता हैं, इस प्रकार चन्द्रमा ईश्वरीय नियम से (प्राकृतिक चक्र) प्राणियों को सदा उपकारी होता है। (क्षेमकरणदास त्रिवेदी भाष्यकृत)

वनस्पति, फल-फूल, औषधि, अन्नादि के निर्माण में अहम् भूमिका निभाती हैं और वनस्पति को बढ़ाने में सूर्य और चन्द्रमा का उष्ण और शीतल किरणें सहयोग करती रहती हैं। भूजल को पृथ्वी की ऊपरी सहत में लाने का कार्य वृक्ष व वनस्पतियों की जड़ें करती हैं। इन वनस्पतियों के कारण वायुमण्डल में शीतलता और आर्द्रता बनी रहती है। जमीन को शीतल बनाए रखने में वृक्षों और वनस्पतियों का बड़ा योगदान हैं जिससे कि जमीन में पानी बना रहता हैं।

जंगलों को पृथ्वी के फुफ्फुस (Lungs) कहा गया है, पृथ्वी इन्हीं जंगलों की वनस्पतियों से मानो सांस ग्रहण करती है। यदि जंगल समाप्त हो जाय तो भूजल भी समाप्त हो जाय। एक दिन में वट वृक्ष (बड़) और पीपल का वृक्ष 1712 कि.ग्रा. प्राण वायु (आक्सीजन) का निर्माण करता है और 2252 कि.ग्रा. कार्बन डाइ ऑक्साईड (दूषित वायु) को शोषण करता है। यह इन वायुओं का शोषण और निर्माण कर स्वयं जीवित रहते हैं और मनुष्यादि प्राणियों को जीवित रहने का अवसर प्रदान करते हैं।

सोमं मन्यते पपिवान् यत् संपिंषन्त्योषधिम्।

सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति पार्थिवः॥

अर्थव 14-1-3

अर्थ - (सोमं) चन्द्रमा के (अमृत को) (पपिवान) मैंने पी औषधि (अन्न सोमलतादि) (संपिंषन्ति) वे (यत्) जब (ओषधिम्) ओषधि (अन्न सोमलतादि) (सिंपिंषन्ति) वे (मनुष्य) पीसते हैं। (यम्) जिस (सोमम्) जगत्स्त्रष्टा परमात्मा को (ब्रह्माणः) ब्रह्मज्ञानी लोग (विदः) जानते हैं, (तस्य) उसका (अनुभव) (पार्थिवः) पृथिवी (के विषय) में आसक्त पुरुष (न) नहीं (अश्नाति) भोगता है।

भावार्थ - चन्द्रमा के द्वारा पुष्ट हुए अन्न सोमलता आदि के सेवन से मनुष्य शरीर पुष्ट होते हैं, परन्तु जो मनुष्य विद्वानों का सत्संग करके ईश्वर ज्ञान से आत्मा को पुष्ट करते हैं वे शरीर पोषकों की अपेक्षा अधिक आनन्द पाते हैं।

इस मन्त्र में भले ही आत्मिक आनन्द को सर्वोपरि माना गया है, लेकिन कथ्य विषय के अनुसार मन्त्र के पूर्वार्ध में चन्द्रमा के द्वारा पोषित वनस्पतियों एवं अन्नादि से मनुष्य का शरीर पुष्ट होता है यह बात दृष्टव्य हैं। कलकारखानों, यन्त्रों तथा पत्थरी कोयलों से निकली (खान से निकला कोयला) कार्बनडाइ ऑक्साईड जैसी घातक हवाएँ वायुमण्डल में प्रवेश कर सम्पूर्ण वातावरण को दूषित बना देती हैं, आवश्यकता से अधिक इस तरह का धुऑं निकलने से मनुष्य की श्वास नलिकाओं को संकुचित बना देती है जिससे दमा, खाँसी घातक बीमारियाँ होने लगती हैं। उसी तरह वनस्पतियों एवं वृक्षों में पत्तियों के छिद्र भी बन्द हो जाते हैं। आवश्यकता से अधिक वनस्पति पेड़-पौधे कार्बन वायु को सोख नहीं सकते, अतः उनकी वृध्दि रुक जाती है अथवा वे सूखने लगते हैं। जंगलों की कटाई से प्राणवायु (ऑक्सिजन) अत्यल्प होता चला जा रहा है। शहरों के पास के वृक्ष सूखते चले जा रहे हैं, जिसकी वजह से मनुष्य को प्राणवायु उचित मात्रा में नहीं मिल पा रहा हैं।

देश में हर साल लगभग 37.5 लाख एकड़ क्षेत्र के वृक्ष काटे जाते हैं जिसके कारण अनुमानतः 1200 करोड़ टन मिट्टी बहकर चली जाती है। कलकत्ता, मुंबई, बैंगलोर जैसे शहरों में सम्भवतः कुछ काल पश्चात् प्राणवायु के सिलंडर पीठ पर लादकर चलना पड़ेगा ऐसी स्थिति आ रही है। इस समय बड़े-बड़े शहरों में मास्क लगाकर लोगा गाड़ी चला रहे हैं यह दृष्य देखने को मिल जाएगा। कार्बनडाई ऑक्साइड के वायुमण्डल में बढ़ने से पृथ्वी का नैसर्गिक समतोल ढल रहा हैऔर दूषित वायुओं के प्रकोप से पृथ्वी का तापमान आवश्यकता से अधिक बढ़ रहा है।

भूपृष्ठ से 20 से 40 कि.मी. की ऊँचाई पर ओजोन (O3) इस हलके वायु का स्तर पृथ्वी को घेरे हुए है उसे ओजोन आवरण (ओजोनांबर) कहते हैं। इसे पृथ्वी का कवच भी कहा जाता है। यह ओजोन वायु सूर्य की अत्यन्त घातक अति नील किरणों को (Ultra vioelt Rays) पृथ्वी से 40 कि.मी. की ऊँचाई पर ही रोक लेता हैं। सूर्य आग का अतिप्रचण्ड गोलक हैं इसमें से 10000 सेल्सियम से अधिक उष्णता निर्माण होती है। पर्यावरण के बिगड़ जाने से यह उष्णता किन्हीं-किन्हीं प्रदेशों में ओजोन आवरण को तोड़कर चली आ रही हैं। जिससे कि अनेक शारीरिक व्याधियाँ उत्पन्न हो रही हैं। लोगों की कैंसर से मृत्यु हो रही हैं। जमीन पर आई थोड़ी बहुत अति नील किरणों को वृक्ष वनस्पतियाँ रोक लेती हैं और मनुष्य को हानि पहुँचाने से बचा लेती हैं।

अग्निर्भूम्यामोषधीष्वगि्मा पो बिभ्रत्यगि्रश्मसु।

अग्निरन्तः पुरुषेषु गोष्वथ्वे स्वग्नयः॥

अर्थव 12-1-19

अर्थ - (भूम्याम्) भूमि में (वर्तमान्) (अगि्ः)अगि् (ताप) (ओषधीषु) औषधियों (अन्न सोमलता आदि) में हैं। (अगि् को (आपः) जल (बिभ्रति) धारण करते हैं, (अगि्ः) अगि् (आग) (अश्मसु) पत्थरों वा (मेघों में) है। (अगि्ः) अगि् (पुषषेषु) पुरुषों के भीतर हैं, (अग्यः) अगि् के (ताप) (गोषु) गौओं में और (अश्वेषु) घोड़ों में है।

भावार्थ - ईश्वर नियम से पृथिवी में अगि् ताप, अन्न आदि पदार्थो और प्राणियों में प्रवेश करके उनमें बढ़ने तथा पुष्ट होने का सामर्थ्य देता है। यहाँ उचित मात्रा और आवश्यक अनुपात में अगि् (सूर्य की उष्मा) पृथ्वी, मनुष्य, बादल, भूथल, गौ, घोड़े आदि को ऊर्जा प्रदान करती है, लेकिन प्राकृतिक पदार्थो के दूषित होने से (ओजोन वायु के दुर्बल हो जाने से) भूमि, जल, बादल, गौ और अन्य पशु-पक्षियों को नुकसान पहॅुंचा सकती हैं।

कहा गया है -

अगि्वासा पृथिव्यसितज्ञुस्त्विषीमन्तं संशितं मा कृणोतु।

अर्थव 12-1-21

अर्थ - (अगि्वासाः) अगि् के साथ निवास करने वाली अथवा (अगि् के वस्त्र वाली) (असितज्ञुः) बन्धन रहित कर्म को जताने वाली (पृथिवी) पृथ्वी को (त्विषिमन्तम्) तेजस्वी और (संशितम्) तीक्ष्ण (फुरतीला अथवा उपजाऊ) (कृणोतु) करें।

भावार्थ - जैसे भूमि भीतर और बाहर सूर्य ताप से बल पाकर अपने मार्ग पर बेरोक-टोक चलती है। वैसे ही मनुष्य भीतरी और बाहरी बल बढ़ाकर सुमार्ग पर बढ़ता चलें। इन मन्त्रों में सूर्य की ऊष्मा उचित मात्रा में पाकर पृथ्वी, पुरुष तथा जीव-जन्तु ऊर्जा को प्राप्त करें, सूर्य की उचित गर्मी को प्राप्त करने के लिए मनुष्य पर्यावरण के साथ छेड़-छाड़ न करे अपने स्वार्थ के लिये भौतिक पदार्थो का नाश न करें यह उपदेश दिया गया है।

वायुमण्डल के अन्तर्गत आनेवाली अनेक प्रकार की वायु असन्तुलित हो जाने से कार्बनडाइ ऑक्साईड एवं तत्सम, मिथेन (CH4) क्लोरोफ्यूरो कार्बन, (N2O) आदि दूषित वायु का परिमाण बढ़ रहा है। इसके लिये जिम्मेदार मोटर गाड़ी का धुऑं, कारखाने, मशीनरी, खनिज कोयला, अप्राकृतिक ज्वलनशील पदार्थ आदि हैं। इनका स्तर तपाम्बर स्तर पर जाकर बढ़ रहा है जिसकी वजह से सूर्य की घातक किरणें जमीन पर सीधी आ रही हैं, इससे भूमि का पानी सूख रहा हैं, वृक्ष आदि सूख रहे हैं। जिस तरह ताश का एक पत्ता गिरने से सारे पत्ते एक के बाद एक गिर जाते हैं, उसी तरह प्रकृति के संयोगी पदार्थ जब एक दूसरे से अलग होने लगते हैं। तो सारा भूमण्डलीय वातावरण बिगड़जाता है।

आने वाले 40 वर्षो में कार्बनडाइ ऑक्साईड का अंश 100% से बढ़ने की सम्भावना है। मिथेन वायु का स्तर हर साल 9% से बढ़ रहा है तथा CFC’s की वायुमण्डल में सतह 5% प्रतिशत से प्रत्येक वर्ष बढ़ रही है। सूर्य की ओर से 51% प्रतिशत तापमान पृथ्वी की ओर आता है और पृथ्वी के भूपृष्ठ से 51% तापमान बाहर जाता है। सूर्य की ऊष्मा समानरुप से भूपृष्ठ पर आती है और उसी अनुपात में बाहर जाती है। लेकिन उक्त दूषित हवाओं के कारण भूथल पर आयी हुई उष्णता वापिस नहीं जा रही है। इसके कारण प्राकृतिक पदार्थो में विघटन हो रहा है। पृथ्वी का तापमान से बर्फीले प्रदेशों से बर्फ पिघलकर समुद्र में मिल रही है। प्राणवायु का अभाव बढ़ता ही चला जा रहा है। जिस तरह एक कमरे में हम कोयले की अंगीठी चलाकर रखें और चारों और से दरवाजे, खिड़कियाँ बन्द कर लें तो अन्दर रहने वालों का दम घुट जाएगा। उसी तरह पृथ्वी की ऊष्मा और दूषित हवाओं से मनुष्य को साफ सुथरा प्राणवायु नहीं मिल पा रहा है।

अथर्ववेद का मन्त्र कहता है -

अगि्र्दिवआ तपत्यग्नेर्देवस्योर्वऽन्तरिक्षम्।

अगिं् मर्तास इन्धते हव्यवाहं घृतप्रियम्॥

अर्थव 12-1-20

अर्थ - (अगि्ः) अगि् (ताप) (दिवः) सूर्य से (आ तपति) आकर तपता है। (देवस्य) कामना योग्य (अग्ेः) अगि् का (उरू) चौड़ा (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (आकाश) है। (हव्यवाहम्) हव्य (आहुति के द्रव्य अथवा नाड़ियों में अन्न के रस) को ले चलने वाले, (धृतप्रियम्) घृत के चाहने वाले (अगि्म्) अगि् को (मर्तासः) मनुष्य लोग (इन्धते) प्रकाशमान करते हैं।

भावार्थ - यह अगि् (ताप) भूमि में सूर्य से आता है तथा आकाश के पदार्थो में प्रवेश करके उन्हें बलयुक्त करता है। (बादल, बिजली, समुद्र, जल, भूमि आदि में) उस अगि् को मनुष्य आदि प्राणी भोजन आदि से शरीर में बढ़ाकर पुष्ट और बलवान् होते हैं तथा उसी अगि् को हविद्रव्यों से प्रज्वलित करके मनुष्य वायु, जल और अन्न को शुध्द निर्दोश करते हैं।

हवा, पानी और वनस्पति को शुध्द बनाए रखना ये मनुष्य का प्रथमर् कत्तव्य है। पर्यावरण की तीन महत्वपूर्ण वस्तुएँ (वायु, जल और वनस्पति) शुध्द बनाए रखने की बात वेद कहते हैं, यह दृष्टव्य है। अतः पृथ्वी के तापमान बढ़ने में जितना ओजोन आदि वायु का नाश मुख्य कारण है, उतना ही वृक्ष, वनस्पतियों की कटाई तथा जंगलों की छंटाई आदि भी प्रमुख कारण हैं।

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