शनिवार, 16 मार्च 2013



सोमवार, 11 मार्च 2013

प्रसंगवश
सहलाने पर अच्छा क्यों लगता है ?
    यदि आपने बिल्ली पाली है, तो आपको याद होगा कि उसे सहलाने पर वह कितना सुख महसूस करती है । वह इतनी खुश क्यों होतह है ? कैल्टेक के वैज्ञानिकोंका कहना है कि इस सवाल का जवाब एक विशेष किस्म की तंत्रिकाआें में है । ये तंत्रिकाएं चूहों में खोजी गई और मनुष्यों में भी पाई जाती हैं । इसके आधार पर यह भी समझ में आता है कि क्यों मनुष्यों को मालिश अच्छी लगती है और सहलाया जाना भी भाता है ।
    त्वचा को सहलाने पर मनुष्यों समेत कई स्तनधारी प्राणियों में सुख की अनुभूति पैदा होती है । मगर अब तक यह स्पष्द नहीं था कि इस संवेदना को कौन-सी तंत्रिकाएं मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं । वैसे भी सुखद अनुभूतियों पर शोध करना अपेक्षाकृत मुश्किल होता है । इसलिए अभी तक शोधकर्ता दर्दनाक अनुभूतियों पर ध्यान केन्द्रित करते आए हैं ।
    कैल्टेक के शोधकर्ताआें ने पाया है कि एक खास किस्म की तंत्रिकाएं हैं जो सहलाने की अनुभूति को पकड़ती हैं । इन तंत्रिकाआें को चंद आणविक चिन्हों की मदद से पहचाना जा सकता है । शोधकर्ताआें ने एक चूहे की पिछली टांगों के एक हिस्से की त्वचा को सहलाया । सहलाने की क्रिया का मानकीकरण किया गया था - एक खास किस्म का ब्रश, एक खास स्तर के दबाव से यह काम करता था । इस क्रिया से उत्पन्न उद्दीपन को ग्रहण करने वाली तंत्रिकाआें को पहचानने के लिए कुछ विशेष तकनीकों का इस्तेमाल किया गया था । जब ये तंत्रिकाएं उत्तेजित होती थ तो प्रकाश उत्पन्न होने की व्यवस्था की गई थी ।
    इन तंत्रिकाआें को उत्तेजित करने से चिंता को कम करने में भी मदद मिलती है । इससे समझ में आता है कि जानवरों को सहलाए जाने पर अच्छा क्यों लगता है । मनुष्यों में भी इस तरह की तंत्रिकाएं पाई जाती है । इससे लगता है कि सहलाने पर हमें जो इसी तरह की अनुभूति होती है, उसकी क्रियाविधि भी शायद यही हो ।
    अभी शोधकर्ता यह कहने से हिचक रहे है कि क्या इस खोज के कुछ चिकित्सकीय लाभ मिल सकते हैं मगर इतना तो कहा ही जा सकता है कि किसी व्यक्ति को थपथपाने या सहलाने पर मिलने वाले सुखद एहसास का संबंध तंत्रिकाआें से है ।

कुत्ते हमारे वफादार कैसे बने ?
     कुत्ते दरअसल भेडियों के वंशज हैं, जो थोड़े कम आक्रामक हैं और मित्रतापूर्ण व्यवहार करते हैं । यह लगभग सर्वमान्य तथ्य है कि हजारों बरस पहले कुत्तों को पालतू बनाया गया था । कुछ लोग मानते है कि इन्हें पालतू बनाया नहीं गया था, बल्कि ये भोजन की तलाश में खुद ही मनुष्यों के पास रहने लगे थे और धीरे-धीरे पालतू हो गए । कौन सी बात सही है, इसका पता लगाना मुश्किल है।
    हाल ही में नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि कुत्तेमनुष्यों के आसपास रहते-रहते ही उनके साथी बने थे । इस अध्ययन के मुखिया उपसला विश्वविद्यालय के कस्र्टिन लिंडब्लैड-टोह का कहना है कि हालांकि यह संभव है कि मनुष्यों ने जाकर कुछ भेड़िए पकड़ लिए होंगे और उन्हें पालतू बनाया होगा, मगर ज्यादा संभव यह लगता है कि खेती की शुरूआत के बाद भेड़ियों को मनुष्यों का बचा-खुचा खाना हासिल करना सुविधाजनक लगा होगा ।
    जीवाश्म प्रमाणों से पता चलता है कि कुत्तों का पालतूकरण साइबेरिया या इस्त्रायल में ३३००० से ११००० वर्ष पूर्व के बीच हुआ है । दूसरी ओर, आधुनिक कुत्तोंके डीएनए विश्लेषण के आधार पर लगता है कि ये करीब १०,००० साल पहले पालतू हुए हैं । ऐसा माना जाता है कि इनका पालतूकरण दक्षिण-पूर्व एशिया या मध्य-पूर्व में कहीं हुआ होगा हालांकि कई विशेषज्ञ मानते हैं कि इन्हें अलग-अलग जगहों पर एक से अधिक बार पालतू बनाया गया है ।
    बहरहाल, लिंडब्लैड-टोह के दल ने यह देखने की कोशिश की कि भेड़ियों और कुत्तों के जीन्स में क्या अंतर हैं । उन्होंने पाया कि भेड़ियों और कुत्तों के जीनोम के ३६ खंडों में अंतर होते हैं । इनमें से १९ खंड ऐसे थे जो मस्तिष्क के विकास या कार्य से संबंधित हैं । इसके अलावा १० खण्ड ऐसे हैं जिन्होनें कुत्तों को स्टार्च का पाचन करने में सक्षम बनाया । गौरतलब है कि मनुष्यों के भोजन में मंड यानी स्टार्च एक प्रमुख घटक होता है । इसके आधार पर माना जा सकता है कि स्टार्च को पचाने की क्षमता का विकास मनुष्यों और कुत्तों में साथ-साथ हुआ । यह सह विकास का एक उम्दा उदाहरण है ।
सामयिक
मूर्तियां बनीं प्रदूषण की सूचक
डॉ. किशोर पंवार

    पिछले दिनों इन्दौर से प्रकाशित एक दैनिक समाचार पत्र में चौंका देने वाली खबर सचित्र छपी  है : क्यों काली पड़ रही सिन्दूर चढ़ी मूर्तिया ? पारसी मोहल्ला, चिड़ियाघर के सामने बड़े बालाजी, सत्यनारायण मंदिर की हनुमान प्रतिमा सिन्दूर चढ़ाने के दो घंटे बाद काली पड़ रही है । पारसी मोहल्ला के मुरली मनोहर मंदिर के पुजारी राहुल जोशी ने कहा कि पहले हर हफ्ते हनुमानजी को चौला चढ़ता था परन्तु पहले कभी मूर्ति काली नहीं पड़ी थी । शंका हुई कि कहीं घी तो मिलावटी नहीं है ? तो तेल मिलाकर सिन्दूर चढ़ाया गया, वह भी काला हो गया । अलग-अलग दुकानों से सिन्दूर बुलवाया गया, वह भी काला पड़ रहा है । रहवासियों ने क्षेत्र के वायु प्रदूषण स्तर जांचने की मांग की है ।
    खबर ने रसायन शास्त्री डॉ. एस.एल. गर्ग का एक्सपर्ट कमेंट भी छपा है । उनका कहना है कि तांबा, चांदी और देव प्रतिमांए संभवत: हाइड्रोजन सल्फाइड गैस के कारण काली पड़ रही हैं । या तो कहीं से यह गैस वहां पहुंच रही है या नदी में किसी रासायनिक क्रिया के फलस्वरूप बन रही है । दरअसल ये सब मंदिर खान नदी के किनारे या उसके आसपास ही स्थित है । 
     सिन्दुर हिन्दू स्त्रियों की मांग की शोभा है । यह गणेश, हनुमान और भैरव की प्रतिमाआें का श्रृंगार भी है । देश में लाखों लोग हनुमान एवं गणेश के मंदिर से अपने माथे पर बड़ा सा सिन्दूर का टीका लगाकर निकलते हैं जो इन देवों के आशीर्वाद का प्रतीक है ।
    अब खबर है कि वही सिन्दूरी चौला और टीका काला हो गया है । दरअसल, भगवान के शरीर पर यह कालिख तो हम सबने मिलकर लगाई है । लगाया तो था सिन्दूर पर हो गया वह काला, हमारी करतूतों से । वे दिन आ गए हैं जब हवा में घुले जहर का असर प्रतिमाआें पर भी पड़ने लगा है । यह एक खतरे का संकेत है ।
    बायोइंडीकेटर यानी सूचक जीव- ऐसे पेड़-पौधें, जंतु और सूक्ष्मजीव जो पर्यावरण के हालात का संकेत देते हैं । जैसे अमरीका में एस्ट्रागेलस नाम का पौधा जहां उगता है वहां सेलेनियम और यूरेनियम की उपस्थिति निश्चित मानी जाती है । एक्वेलेजिया केनाडेंसिस जमीन में नीचे लाइम स्टोन की खदान का सूचक है ।
    कुछ पौधों की पत्तियों पर विशेष प्रकार के लक्षण उत्पन्न होने से हवा एवं पानी में जहरीली धातुआें एवं गैसों की अधिकता की सूचना मिलती है । जैसे ट्यूलिप की पत्तियों के किनारे झुलसना, हवा मेंफ्लोराइड की अधिकता बताता है । हमारे देश में आम, अमलतास, शीशम और बेशरम की पत्तियों के किनारे एवं बीच-बीच में जल धब्बे हवा में सल्फर डाईऑक्साइड प्रदूषण की सूचना देते हैं । जंगलों में लाइकेन (पत्थरफूल) की अनुपस्थिति हवा मेंसल्फर डाईऑक्साइड एवं फ्लोराइड की बढी हुई मात्रा की स्पष्ट चेतावनी होती है । पानी में कोलीफार्म बैक्टीरिया की अधिकता जल-मल प्रदूषण का पैमाना है । ये सब प्रदूषण सूचक जीव हैं । ये जैविक सूचक कहलाते हैं ।
    परन्तु अब जो सूचक हमारे सामने आए है वे तो भगवान हैं । ये प्रदूषण के एक नए सूचक डिवाइन इंडीकेटर या दैवी सूचक हैं । जैविक सूचकों की चेतावनी तो हमने आज तक सुनी नहीं । यदि इन दैवी सूचकों की भी न सुनी तो फिर प्रदूषण के कहरसे हमें भगवान भी नहीं बचा पाएंगे ।     सीवेज या नदी-नालों का काला गंदा पानी । इसमें रसोई एवं टायलेट के व्यर्थ पदार्थ होते हैं । एक मध्यम श्रेणी के सीवेज में ७५ प्रतिशत तैरने वाले कणीय पदार्थ एवं लगभग ४० प्रतिशत छानने योग्य ठोस कार्बनिक पदार्थ होते हैं । यह कार्बनिक एवं अकार्बनिक पदार्थो का मिश्रण है ।
     कार्बनिक पदार्थो में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा एवं यूरिया होते    हैं । इसके अलावा इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस, आयरन और सल्फर होते हैं । यदि उद्योगों का पानी भी नालों में मिलता है तो उसमें तांबा, जस्ता, केडमियम, लेड (सीसा) वगैरह भी पाए जाते हैं । सीवेज में कई संक्रमणकारी सूक्ष्मजीव होते हैं । जैसे वायरस, प्रोटोजोआ और बैक्टीरिया । इनसे कई रोग फैलने का खतरा होता है, जैसे पोलियो, पेचिश, दस्ता, टायफाइड और वायरल हिपेटाइटिस (पीलिया) आदि ।
    जब सीवेज मेंऑक्सीजन की मात्रा शून्य हो जाती है तब कुछ बैक्टीरिया श्वसन के लिए नाइट्रेट का अपचयन करते हैं । जब नाइट्रेट भी खत्म हो जाता है तब ये सल्फेट का अपचयन करते हैं जिससे हाइड्रोजन सल्फाइड गैस बनती है । सीवेज में दुर्गन्ध मुख्य रूप से हाइड्रोजन सल्फाइड, क्लोरीन, अमोनिया और फीनॉल्स के कारण आती है । शैवाल, फफूंद और अन्य सूक्ष्मजीव ही गंध का कारण होते हैं । गंदा पानी जितना ज्यादा अम्लीय होता है उतनी ही ज्यादा मात्रा में हाइड्रोजन सल्फाइड गैस बनती है ।
    इस गैस की अधिकता से आसपास रहने वालों को आंखों में जलन, गले में खराश, खांस, उल्टी आना जैसे लक्षण पैदा होते हैं । ज्यादा परेशानी होने पर सांस फूलना और फेफडोंमें पानी भरने की भी शिकायत हो जाती है । अत: नालों की नियमित सफाई जरूरी है ।
    साफ पानी में किचन और टायलेट का पानी मिलने से उसमें ऑक्सीजन की कमी हो जाती है । स्वच्छ पानी में घुलित ऑक्सीजन ५-७ मिलीग्राम प्रति लीटर होती है । परन्तु प्रदूषित पानी में यह २-३ मिलीग्राम प्रति लीटर रह जाती है । ज्यादा प्रदूषित पानी में यह शून्य भी हो सकती है । कार्बनिक प्रदूषण बढ़ने से पानी में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा घटती है परन्तु बीओडी (जैविक ऑक्सीजन मांग) बढ़ जाती है । जब पानी में ऑक्सीजन की बहुत कमी हो जाती है तब पानी के वे सभी जीव-जन्तु मर जाते हैं जिन्हें जीने के लिए ऑक्सीजन की जरूरत   होती है ।
    अनॉक्सी परिस्थिति में दूसरे प्रदूषक पैदा होते हैं । जैसे हाइड्रोजन सल्फाइड, अमोनिया, कार्बनिक डाईसल्फाइड और मीथेन । हाइड्रोजन सल्फाइड पानी में पाए जाने वाले धात्विक आयनों से क्रिया करके सल्फाइड बनाती है जैसे जिंक सल्फाइड, आयरन सल्फाइड, लेड सल्फाइड आदि ।
    ये सभी सल्फाइड काले भूरे रंग के होते हैं । यही कारण है कि गंदे नालों का पानी काला होता है । इन नालों की तलछट से हवा के बुलबुले भी निकलते रहते हैं जिनमें मुख्य रूप से हाइड्रोजन सल्फाइड और मीथेन गैस होती है ।
    सिन्दूर को अंग्रेजी में वर्मीलान कहते हैं । यह मरक्यूरिक सल्फाइड  है जो सिन्दूरी रंग का होता है । लगता है मांग में भरने वाला सिन्दूर यही है । यह जहरीला है । दूसरा सिन्दूर रेड लेड है जो लेड टेट्राऑक्साइड है । यह सिन्दूरी लाल रंग का होता है । हनुमान और गणेश की प्रतिमा पर चढ़ाया जाने वाला सिन्दूर यही है । इसे तेल या घी में मिलाकर चढ़ाया जाता है । मांग में भरने वाले सिन्दूर में भी इसे मिलाया जाता है । दोनों जहरीले पदार्थ है ।
    गंदे नालों में बनने वाली हाइड्रोजन सल्फाइड का जो टेस्ट प्रदूषण जांच प्रयोगशाला में लगना चाहिए था, वह अब भगवान के दरबार में लग रहा है । बढ़ते प्रदूषण के संदर्भ में हमने पेड़-पौधों की पत्तियों, फूलोंऔर फलोंे पर बने जख्म (लक्षण) नहीं देखे । धरती पर घटती तितलियों और पक्षियों की संख्या पर गौर नहीं किया । वायु प्रदूषण एवं जल प्रदूषण से प्रति वर्ष हो रही हजारों मानव मृत्युआें पर ध्यान नहीं दिया । परन्तु जो टेस्ट भगवान लगा रहे हैं उस पर तो अब जरा गौर कर लें । सिन्दूर यानी लेड टेट्राऑक्साइड और हाइड्रोजन सल्फाइड गैस मिलकर लेड सल्फाइड बनता है । संभवत: यही क्रिया देव प्रतिमाआेंपर हुई है, और वे काली हो गई है ।
    इस सिन्दूर का रंग फिर से हमें लौटाना है । अजब व सुखद संयोग है कि इधर हनुमान जी ने चेतावनी दी और उधर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने खान नदी शुद्धीकरण योजना की घोषणा की । उम्मीद की जाना चाहिये कि सिन्दूर सिन्दूरी ही रहेगा, कालिख नहीं बनेगा ।
हमारा भूमण्डल
बीमार वैश्विक अर्थव्यवस्था
आर. नास्ट्रेनिस

    संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किए गए वैश्विक आर्थिक आकलन से आने वाले वर्ष में वैश्विक अर्थव्यवस्था में बहुत सुधार की गुंजाइश दिखाई नहीं दे रही है । प्राकृतिक संसाधनों के निर्यात पर निर्भर अर्थव्यवस्थाआें में आ रहा सुधार भी बहुत शुभ संकेत नहीं है । वहीं दूसरी और आयात निर्भर अर्थव्यवस्थाआें पर बढ़ता बोझ भी भविष्य के प्रति निराशा ही पैदा कर रहा है । इन विकट एवं विचित्र परिस्थितियों में अंतत दोनों ही पक्ष हारते नजर आ रहे हैं ।
    संयुक्त राष्ट्र संघ का मत है कि वैश्विक वित्तीय संकट के सामने आने के चार वर्ष बाद भी अल्प विकसित देशों की अर्थव्यवस्था के सन २०१३ में पटरी पर आने की गुजांइश बहुत कम हैं । विश्व अर्थव्यवस्था की स्थिति एवं भविष्य - २०१३ नामक संयुक्त राष्ट्र संघ रिपोर्ट में कहा गया है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर जो कि सन् २०१२ में ३.७ प्रतिशत थी नए वर्ष में बढ़कर ५.७ प्रतिशत तक पहुंच जाएगी । रिपोर्ट में कहा गया कि वापसी की मुख्यतया उम्मीद यमन एवं सूडान की आर्थिक स्थिति में आए सुधार पर निर्भर करेगी, जहां पर सन् २०१० एवं २०११ में राजनीतिक, अस्थिरता में काफी कमी आई है । 
      संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार अल्प विकसित देशों में यह प्रति व्यक्ति के हिसाब से सन् २०१२ में १.३ प्रतिशत थी, के सन् २०१३ में ३.३ प्रतिशत पर पहुंचने की उम्मीद है । इसे उल्लेखनीय सुधार माना जा सकता है लेकिन यह २००० के दशक के दौरान संभाव्य कल्याणकारी वृद्धि दर पर ५ प्रतिशत से काफी कम है । वैसे यह अनुमान विश्व मेंआए आर्थिक एवं वित्तीय संकट से पहले का है । इतना ही नहीं अल्प विकसित देशों को आर्थिक गतिविधियों में काफी भिन्नता भी बनी रहेगी । रिपोर्ट के अनुसार - अंगोला एवं गुयाना जैसे अनेक तेल निर्यातक देशों को तेलों की निरन्तर मजबूत कीमतों से फायदा पहुंचेगा एवं सन् २०१३ में उनकी वृद्धि दर क्रमश: ७ एवं ९ प्रतिशत रह सकती है । लेकिन ऐसे अल्प विकसित देश जहां कृषि की प्रधानता है वहां जोखिम बना रहेगा । इस तरह के तीव्र आर्थिक उतार चढ़ाव नीति निर्माताआें के लिए अनेक समस्याएं खड़ी कर देते हैं । इसी वजह से दीर्घकालीन नीतियां तैयार करने में समस्या आती है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने लघु अवधि एवं अनायास आने वाले संकटों से किसानों को बचाने का आव्हान भी किया है । इसी क्रम में इथोपिया में पिछले १० वर्षो से हो रही जबरदस्त वृद्धि को सराहते हुए इस वर्ष इसमें थोड़ी कमी की आंशका जताई है । लेकिन इस सतत वृद्धि के लिए उन्हीं कृषि क्षेत्र में हुए विकास को ही श्रेय दिया है ।
    अनेक अल्पविकसित देशों में श्रमिकों को रहे स्थायी भुगतान की वजह से वहां हो रहे ठोस निवेश एवं उपभोग की ओर भी ध्यान खींचा गया है । इसका उदाहरण बांग्लादेश है जहां पर विदेशी मांग कम होने के बावजूद उम्मीद की गई है कि वहां सन् २०१३-१४ में विकास दर ६ प्रतिशत को पार कर जाएगी । विदेशों में ज्यादा रोजगार मिलने की वजह से सन् २०१२ की दूसरी छमाही में यहां विदेशी धन की आवक में २० प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है । इसी के साथ यह चेतावनी भी दी गई है कि कई अल्प विकसित देशों की स्थिति में गिरावट भी आ सकती है ।
    रिपोर्ट में कहा गया है कि सन् २०१२ में कई विकसित देश दोहरी मंदी का शिकार हो गए हैं । विकसित देशों का आर्थिक संकट अंतत: विकासशील देशों पर हस्तांतरित हो रहा है । इससे उनके यहां संकट गहरा रहा है और उनके निर्यातों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा  है । अनेक विकासशील देशों ने हाल के वर्षो में उत्साहजनक आर्थिक प्रगति की है । लेकिन अब वे जिनमें चीन भी शामिल है अनेक अधोसंरच-नात्मक बाधाआें से जूझ रहे हैं और यहां की स्थानीय सरकारों के सामने जबरदस्त आर्थिक संकट खड़े हो रहे हैं । जिसमें परियोजनाआें में निवेश में कमी एवं कहीं पर अधिक निवेश की वजह से उत्पादन क्षमता का अत्यधिक विस्तार होना भी शामिल है ।
    अफ्रीका की अर्थव्यवस्था के बारे में बताया गया है कि इसमें थोड़ी गिरावट आएगी और यह सन् २०१२ की ५ प्रतिशत की वृद्धि दर से गिरकर ४.८ प्रतिशत पर आ सकती है । कमोवेश सतत बनी विकास दर की पृष्ठभूमि में तेल निर्यातक देशों का शक्तिशाली प्रदर्शन, अधोसंरचनात्मक परियोजनाआें में लगातार निवेश एवं एशियाई अर्थव्यवस्थाआें के साथ बढ़ते आर्थिक रिश्ते शामिल हैं । लेकिन अफ्रीका अभी भी कई चुनौतियों में उलझा हुआ है । हालांकि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि जारी रहेगी लेकिन यह गरीबी को कम करने में अपर्याप्त् बैठेगी । इस क्षेत्र की अधिकांश अर्थव्यवस्थाआें के समक्ष अधोसरंच-नात्मक परियोजनाआें में वित्तीय खर्च की कमी बड़ी समस्या है ।
    संयुक्त राष्ट्र संघ रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि चीन एवं भारत की अर्थव्यवस्थाआें में सन् २०१२ में आई व्यापक कमी से विकासशील एशिया भी कमजोर हुआ है । इस कमी की मुख्य वजह वैसे तो निर्यात में आई कमी है लेकिन विगत दो वर्षो में अर्थव्यवस्था को चुस्त न बना पाना भी इसका एक प्रमुख कारण  है । इस दौरान घरेलू निवेश में भी कमी आई है । चीन और भारत दोनों को ढांचागत परिवर्तनों में काफी कठिनाई आ रही है । भारत में अब और अधिक नीतिगत प्रोत्साहन दे पाना कठिन है । वहीं चीन एवं इस क्षेत्र के अन्य देशों में ऐसे प्रोत्साहन दिए जाने की अधिक गुंजाइशें मौजूद तो हैं, लेकिन वे ऐसा करने में सकुचा रहे हैं । वैसे लग रहा है कि पूर्वी एशिया में वृद्धि दर सन् २०१२ के ५.८ प्रतिशत के अनुमानोंसे बढ़कर सन् २०१३ में ६.२ प्रतिशत पर पहुंच सकती है । वहीं दक्षिण एशिया में यह सन् २०१२ के ४.४ प्रतिशत से बढ़कर ५ प्रतिशत पर पहुंच सकती हैं । लेकिन यह निहित संभावनाआें से काफी कम है ।
    वहीं पश्चिम एशिया में एक दम विरोधाभासी प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है । अधिकांश तेल निर्यातक देशों में तेल के राजस्व में रिकार्ड तेजी एवं सरकार द्वारा किए जा रहे खर्चो से जबरदस्त वृद्धि दर प्राप्त् करने में मदद मिलती है । इसके ठीक विपरीत तेल आयातक देशों में बढ़ते आयात खर्च, घटती बाहरी मांग एवं नीतियों में घटती संभावनाआें के चलते आर्थिक गतिविधियों में कमजोरी आई है इसके परिणामस्वरूप तेल निर्यातक एवं तेल आयतक अर्थव्यवस्थाएं दोहरे परिणाम देती दिखाई पड़ रही है । इस बीच सीरिया में सामाजिक असंतोष एवं राजनीतिक अस्थिरता से पूरा क्षेत्र ही जोखिम में पड़ गया है । कुल मिलाकर इस पूरे क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि जो कि सन् २०११ में ६.७ प्रतिशत थी के सन् २०१२ एवं १३ में घटकर ३.३ प्रतिशत पर पहुंच जाने की आशंका है ।
    निर्यात में आ रही कमी के चलते लेटिन अमेरिका और केरेबियन देशों की वृद्धि दर में सन् २०१२ में उल्लेखनीय कमी आई है । इसके और नीचे जाने का अनुमान है । वैसे ब्राजील के मजबूत प्रदर्शन से थोड़ी उम्मीद बंधी है । समूचे क्षेत्र के घरेलू उत्पाद के संबंध में मत है कि यह सन् २०१२  के ३ प्रतिशत की वृद्धि से बढ़कर ३.९ प्रतिशत पर पहुंच सकता है । वहीं राष्ट्रमंडलीय स्वतंत्र राज्यों की अर्थव्यवस्था का संक्रमण सन् २०१२ में भी जारी  रहा । दूसरी छमाही में इसमें थोडा सुधार अवश्य आया है उत्पाद वस्तुआें खासकर तेल एवं प्राकृतिक  गैसों के बढ़ते मूल्यों के चलते तेल निर्यातक रूस एवं कजाकिस्तान जैसे देशों की अर्थव्यवस्था में वृद्धि दिखती है वहीं दूसरी ओर माल्दोवा गणराज्य एवं यूक्रेन में स्थितियां एकदम उल्ट  रहीं ।
    इनमें से कम ऊर्जा आयातक देशों को निजी विदेशी निवेश से सहायता मिली । वैसे यहां की वृद्धि दर के ३.८ प्रतिशत पर स्थिर रहने की संभावना है । इसी तरह दक्षिण पूर्वी यूरोप का संक्रमण काल में लघु अवधि के लिए चुनौती बना हुआ है । यहां की वृद्धि दर के सन् २०१२ में ०.६ प्रतिशत से बढ़कर सन् २०१३ में १.२ प्रतिशत होने की संभावना है ।
विश्व वानिकी दिवस पर विशेष
जैव विविधता : संकट में है जीवन की विरासत
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
    हमारी धरती पर जीव जन्तु एवं वनस्पतियां सर्वत्र पायी जाती है इन्हें रंग रूप आकार-प्रकार एवं गुणधर्म के आधार पर अनेक वर्गो में विभाजित किया गया है । यदि सम्पूर्ण पृथ्वी को एक इकाई मान लिया जाये तो इस पर मौजूद सभी जीव जन्तुआें और वनस्पतियों की विविधता ही जैवविविधता है ।
    जीवन की विविधता का विस्तार ही जैव विविधता है । जीवन में विभिन्न प्रकार की वनस्पति, प्राणी और सूक्ष्म जीव तथा इनके आवास, प्राकृतिक क्षैत्र एवं प्राकृतिक वातावरण सम्मिलित है । विविधता मेंअनुवांशिक विविधता, प्रजातीय विविधता, कृषि जैव विविधता एवं पारितत्र विविधता प्रमुख है । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू.एन.ई.पी.) द्वारा १९९२ में जैव विविधता की परिभाषा करते कहा गया था जैव विविधता जीन प्रजातियां तथा पारितंत्रों का समस्त योग है । 
     पहले जैव विविधता शब्द के स्थान पर प्राकृतिक विविधता शब्द का प्रयोग होता था, बाद में थोड़े दिनों तक जैविक विविधता शब्द का भी उपयोग हुआ । सन् १९८५-८६ में पहली बार जैव विविधता शब्द प्रचलन में आया । जनसंचार की दृष्टि से जैव विविधता शब्द जैविक विविधता से अधिक बोधगम्य है, इसलिये यह शब्द शीघ्र ही सारी दुनिया में प्रचलित हो गया । पृथ्वी पर लगभग १८ लाख जीव प्रजातियों की पहचान की गयी है, जो धरती की जैव विविधता को समृद्ध बनाती है । वर्तमान में इनमें से कई प्रजातियां विलुप्त् होती जा रही है, जो चिन्ता का विषय है ।
    जैव विविधता का आर्थिक, सामाजिक, सास्कृतिक और पर्यावरणीय महत्व है । जैव विविधता से हमारे लिये भोजन तथा औषधियां और उद्योगों को कच्च माल उपलब्ध होता है । बाजार से खरीदी जाने वाली ज्यादातर वस्तुआें की आपूर्ति पृथ्वी की जैव विविधता पर ही आश्रित है । ह्दयरोग, मलेरिया और डाइबिटिज सहित बड़ी-बड़ी बीमारियों का इलाज वनोषधियों के बल पर ही संभव हो पाया है । अभी तो प्रकृति मेंउपलब्ध औषधियों में से थोड़ी सी औषधियों का उपयोग हो पा रहा है । वैज्ञानिकों का कहना है कि विश्व की २५००० चिन्हित वनस्पति प्रजातियों में से महज ५००० प्रजातियों का ही औषधिय प्रयोग हो रहा है । ऐसे ही वानस्पतिक विविधता के एक छोटे से अंश से ही हमारी खाद्यान्न की आपूर्ति हो रही है । लगभग १७०० ऐसी वनस्पतियां है, जिन्हें खाद्य के रूप में उगाया जा सकता है । इनमें से मात्र ३० से ४० वनस्पति फसलों से पूरे विश्व को भोजन उपलब्ध हो रहा है ।
    दुनिया में सभी प्राचीन सभ्यताआें की बुनियाद में मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और आदर का रिश्ता है । इसी में पेड़, पहाड़ और नदी आदि की पूजा का प्रचलन    हुआ । मोहन जोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्तिपूजा के साथ ही पेड़-पौधों एवं जीव जन्तुआें की पूजा की परम्परा भी विद्यमान   थी । भारतीय साहित्य, चित्रकला और वास्तुकला में वृक्ष पूजा के अनेक प्रसंग मिलते है । अजंता के गुफा चित्रों और सांची के तोरण स्तम्भों की आकृतियों में वृक्ष पूजा के दृश्य है । हमारे सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेदों में प्रकृतिकी परमात्मा स्वरूप में स्तूति है । इसके साथ ही वाल्मिकी रामायण, महाभारत और मनुस्मृति जैसे प्राचीन ग्रन्थों में वृक्ष पूजा की विविध विधियों का विस्तार से वर्णन है ।
    भारत एक विशाल देश है, इसी विशालता के कारण इसे उप-महाद्वीप कहा जाता है । हमारे यहां जलवायु और वनस्पति में भी बहुत अधिक भिन्नता पायी जाती है । एक तरफ हिम से आच्छादित हिमालय है, वहीं दूसरी और राजस्थान में थार के मरूस्थल में रेतीली गर्म आंधिया चलती है । देश में एक भाग में दलदल युक्त मेंग्रोव वन है तो दूसरे भाग में सदाबहार वन है । इसी कारण भारत सम्पन्न जैव विविधता वाले देशों में गिना जाता है ।
    भारतीय पर्वत श्रृंखलाआें के अपने विशिष्ट स्थान निर्धारण, भौतिक स्वरूप व उंचाईयों में विभिन्नता के कारण यहां विशिष्ट जैविक सम्पदा भण्डार पाये जाते है, चाहे वह पुष्पधारी औषधिय व सुंगधित पौधे हो या फिर हजारों प्रकार के पक्षी, मछलियां, सरीसृप, उभयचर या स्तनधारी जीव हो, यही कारण है कि हमारे पश्चिमी व पूर्वी घाट हिमालय प्रदेश और उत्तर-पूर्वी राज्यों की गिनती विश्व के समृद्ध जैव सम्पदा भण्डारों में होती है । भारत के उत्तरी-पूर्वी राज्य और समुद्र तटीय क्षेत्र जैव विविधता की दृष्टि से अधिक समृद्ध है । भारत की लगभग ७५०० कि.मी. लम्बी तटीय रेखा नदी मुहाने और डेल्टा प्रदेश में जैव विविधता के अपार भण्डार मौजूद है । संसार की लगभग ३४० कोरल प्रजातियां भारत में मिलती है । देश में मेग्रोव पौधों एवं समुद्री घास की भी बहुतायत हैं ।
    हमारे राष्ट्रीय प्रतीकों में देश की समृद्ध जैव विविधता की झलक दिखायी देती है । भारत के राज  चिन्ह में चार सिंह, एक हाथी, एक घोडा और एक बैल के चित्र है । हमारा राष्ट्रीय पशु बाघ, राष्ट्रीय पक्षी मोर और राष्ट्रीय पुष्प कमल है । इसी प्रकार सभी राज्यों में स्थानीय जैव विविधता की समृद्धता के अनुरूप विभिन्न राज्य प्राणी और राज्य पक्षी घोषित किये गये है । दुनिया के १७ वृहद् जैव विविधता सम्पन्न देशोंमें भारत महत्वपूर्ण स्थान रखता है । जैव विविधता के दृष्टिकोण से भारत के लगभग ७० प्रतिशत हिस्से का सर्वेक्षण किया जा चुका है और इस सर्वेक्षण के आधार पर ४५ हजार पादप प्रजातियों (कवक एवं निम्न श्रेणी पौधों सहित) और ८९ हजार जंतु प्रजातियों का वर्णन किया गया है । जन्तु समुदाय के अन्तर्गत २५४६ मछली, ५९३५३ कीटों, २४० उभयचर, ४६० सरीसृप, १२३२ पक्षी तथा ३९७ स्तनधारी प्रजातियां शामिल है ।
    भारत का जैव विविधता सम्पन्न संरक्षित क्षेत्र देश के कुल भू-भाग का ४.७४ प्रतिशत है । इस संरक्षित क्षैत्र में ९४ राष्ट्रीय पार्क, ५०१ वन्य जीव अभ्यारण्य, १५ बायोस्फीयर रिजर्व और अनेक आरक्षित वन सम्मिलित है । भारत ने वर्ष १९९९ में राष्ट्रीय जीव विविधता रणनीति कार्य योजना बनाई थी जिसके अन्तर्गत जैव विविधता के सरंक्षण और इसके सतत् उपयोग तथा राज्य सरकारों/समुदायों/ गैर सरकारी संस्थाआें/उद्योग आदि की भागीदारी को सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखा था । इसके बाद वर्ष २००६ में भारत ने राष्ट्रीय पर्यावरण नीति बनाई जिसमें २०१२ ई. तक राष्ट्रीय परिक्षेत्र में वन क्षेत्र  को २३ प्रतिशत से बढ़ाकर ३३ प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया । इस नीति के अन्तर्गत १६३ राष्ट्रीय पार्क और ७०७ वन्य जीव अभ्यारण्य स्थापित किए जाने का भी लक्ष्य है ।
    धरती नामक हमारा यह छोटा-सा ग्रह अपने अस्तित्व के संकट की ओर कदम बड़ा रहा है । जंगलों की अंधाधुंध कटाई से हजारों हजार पशु-पक्षी और फूल पौधों की दुर्लभ प्रजातियां हर साल काल के गाल में समा रही है । यदि जंगलों के कटने का सिलसिला इसी प्रकार जारी रहा तो आगामी २०-३० सालों में उष्ण कंटिबंधीय वनो का नामो निशान मिट जायेगा । हर नया दिन अपने साथ किसी नयी प्रजाति की मौत का संदेश लेकर आता है ।
    आज इस ग्रह पर जितनी तीव्रता से प्रजातियां लुप्त् हो रही है, उतनी गति से पहले कभी उनका विनाश नहीं हुआ । आज स्थिति यह है कि अनेक वनस्पति प्रजातियां और प्राकृतिक प्रणाली भारी संकट में है । समूची दुनिया में चिड़ियाआें की ११८६ प्रजातियां विलुप्त् होने के कगार पर है । एक अनुमान के अनुसार चिड़िया वर्ग की कुल १२ प्रतिशत अथवा ८ में से एक प्रजाति विलुिप्त् के घेरे में है । बर्ड लाइफ इंटरनेशनल की रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्तमान में जिन ११८६ प्रजातियों के लुप्त् होने का खतरा है, उनमें से ३८१ प्रजातियां अत्यन्त जोखिम की स्थिति में है और ६८० प्रजातियां असुरक्षित अवस्था में हैं, इसके अतिरिक्त ७२७ प्रजातियों के लिये वैश्विक स्तर पर खतरा बढ़ गया है ।
    जैव विविधता के लिये ग्लोबल वार्मिंग भी बड़ा खतरा है, जो जंगलों के सफाये से भी ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है । टोरटो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन माल्कान ने एक अध्ययन में बताया कि इस बात के पुख्ता प्रमाण मिले हैंकि ग्लोबल वार्मिंग भी विभिन्न प्रजातियों के लुप्त् होने का प्रमुख कारण बनेगा । इस अध्ययन में २५ मुख्य क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित किया गया जहां वनस्पति और जीव जन्तुआें की संख्या अधिक है इसमें अनुमान लगाया गया है कि यदि अगले १०० वर्षो में वातावरण में जहरीली गैसों का स्तर इसी प्रकार बढ़ता रहा तो कुल प्रजातियों में से ११.६ प्रतिशत का अस्तित्व पूरी तरह समाप्त् हो जायेगा ।
    जैव विविधता के पुर्वानुमानों के अनुसार वन विनाश की मौजूदा रफ्तार अगर जारी रहती है तो सन् २०२० तक दुनिया की लगभग १५ प्रतिशत प्रजातियां धरती से लुप्त् हो जायेगी । आंकड़े दर्शाते है कि प्रतिवर्ष २५००० से ५०००० या प्रतिदिन ८० से १५० प्रजातियों को नुकसान पहुंच रहा है । वैज्ञानिकों का मानना है कि परिन्दों तथा स्तनपायी जीवों के लुप्त् होने की वर्तमान दर उस अवस्था से ५०० से एक हजार गुना ज्यादा है जो प्रकृति से छेड़छाड करने की स्थिति में आम तौर पर रहती है । जैव विविधता लोप के भविष्य के सारे अनुमान इस बुनियादी गणित पर आधारित है कि यदि किसी आवास स्थल का कुल इलाका ९० प्रतिशत कम कर दिया जाए तो उस क्षेत्र की ५० प्रतिशत प्रजातियां समाप्त् हो जाती है । लुप्त् होने के इस भूगोल से ज्ञात होता है कि यदि विनाश की यही गति कायम रही तो आगामी दशक में दस से पन्द्रह प्रतिशत प्रजातियां लुप्त् हो जाएगी यह विलुिप्त् दर साढ़े छह करोड़ वर्ष पूर्व क्रेटेशियस काल में हुए भारी विनाशकी प्रजाति विलोप दर से भी ज्यादा होगी ।
    अंतर्राष्ट्रीय अध्ययनों के अनुसार अगली सदी के दौरान प्रजाति विलोप का सबसे बड़ा अकेला कारण कंटिबंधीय वनों का विनाश होगा । सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि किसी भी एक प्रजाति का अतिदोहन भी अन्य प्रजातियों के विलोप का कारण बन सकता है । इसलिए प्रकृति के इस नाजुक संतुलन के साथ संवेदनशील व्यवहार करना चाहिए वरना प्रणाली खुद उसी पर पलटवार कर पर्यावरणीय संकट उपस्थित कर सकती है ।
    इस निराशाजनक स्थिति के बावजूद कुछ आशा की किरणेंभी दिखायी देती है । मानव जहां प्रकृति विनाश के लिये जिम्मेदार है, दूसरी और मानव ने ही प्रकृति संरक्षण के प्रेरणादायी उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं, जिनसें जैव विविधता संरक्षण के प्रयासों को मजबूती मिली है । वन और वन्यजीवों के संरक्षण के लिये राजस्थान के विश्नोई समाज की भूमिका अग्रगण्य है । इसके साथ ही उत्तराखण्ड का चिपको आंदोलन, दक्षिण का अप्पिको और बीज बचाओ अभियान जैसे बड़े सामाजिक आन्दोलनों के साथ ही कई स्वयं सेवी संगठन, शासकीय विभाग, विश्व प्रकृति निधि, अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संगठन, जैव विविधता बोर्ड जैसी संस्थाआें और पर्यावरण प्रेमी पत्रकारों/लेखकों ने जैव विविधता संरक्षण के लिये उल्लेखनीय कार्य किये है ।
    प्रकृति और मनुष्य के गहरे अनुराग के कारण दोनों के साहचर्य से प्रकृति का संतुलन बना रहता है । पिछले हजारोंवर्षो से चले आ रहे प्रकृति संतुलन में पिछली एक-दो शताब्दी में आये व्यापक बदलाव के लिये उत्तरदायी मानवीय हस्तक्षेप की भूमिका पर विचार की आवश्कता है । प्रकृति के साथ प्रेममूलक संबंधों में आ रही गिरावट और बढ़ती संवेदनहीनता के दायरों से बाहर निकलकर पुन: प्रकृति की और लौटने के लिये हमें हमारी परम्पराआें, सामाजिक शिक्षाआें और संस्कृति की समृद्ध विरासत की ओर मुड़ कर देखना होगा ।
    आज हमारी भोगवादी जीवन शैली में सुख के साधनों का दबाव बढ़ता जा रहा है, इस कारण रासायनिक पदार्थो, उर्वरकों, कीटनाशियों और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग हो रहा है जो घटती जैव विविधता का प्रमुख कारण है । जैव विविधता संरक्षण के लिये हमें हमारे राष्ट्रपिता के विचारों को आचारण में लाने की आवश्यक है, उनका मानना था कि यहधरती हरेक की आवश्यकता की पूर्ति कर सकती है लेकिन किसी एक का लालच   नहीं । इन विचारों को अपनाने से ही पृथ्वी की जैव विविधता सुरक्षित रह सकेगी। जन सामान्य तक यह विचार भी पहुंचाना होगा कि प्रकृति मेंसभी जीवों के विकास का आधार एक दूसरे के रख रखाव व संरक्षण पर आधारित है ।
    बहुत लोगों के लिये यह आश्चर्य का विषय होगा कि भारत जैसे धर्मप्राण देश में पहली कविता न कोई स्त्रोत है न मंगलाचरण, वरन् बहेलिये के बाण से बिद्ध छटपटाते हुए पक्षी को देखकर संवेदनशील महाकवि का अप्रयास फूट पड़ने वाला आक्रोश है । आदि कवि वाल्मिकी रचित रामायण मेंबालकाण्ड के निम्न श्लोक (जिसे लोकभाषा की पहली कविता माना जाता है) में इसे देखा जा सकता है । मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगया: शाश्वती समा: । यत्क्रौंच मिथुना देकमबधी: काममोहितम ।। युगऋषि के आक्रोश में भारतीय संस्कृति का जियो और जीने दो का संदेश छिपा है, जिसकी प्रासंगिकता आज और भी बढ़ गयी है । अभी भी धरती पर जीवन की सुदीर्घता और स्थायी विकास के लिये जीव, वनस्पति प्रजातियां और पर्यावरण प्रणालियां बचायी जा सकती है । इस उद्देश्य की पूर्ति में यदि आज हम चूक गये तो आने वाली पीढ़ियां हमें क्षमा नहीं करेगी ।
जनजीवन
नकद हस्तांतरण और पलायन
रिचर्ड महापात्र

    गांव से लोगों के पलायन को रोकने के लिए सरकारें नए-नए कदम उठा रही है । अभी हाल ही में भारत सरकार ने अन्य देशों के अनुभवों के आधार पर नकद हस्तांतरण प्रणाली को लागू किया   है । जिसके परिणाम देखने शेष है । अभी तक के अनुभव बताते है कि यह प्रक्रिया लोगोंके पलायन को बढ़ावा दे सकती है । यह एक जटिल काम है । देश में सीधे नकद हस्तांतरण प्रणाली का क्रियान्वयन करने वाले विशेषज्ञ भी इसी बदलाव के लिये मशक्कत कर रहे हैं ।
    गरीबों को दी जाने वाली मदद को धन में बदलने के लिये सरकार ने छूट की राशि को सीधे हितग्राहियों के खाते मेंजमा किये जाने की घोषणा की है । शुरूआत में सरकार ५१ जिलों में इस योजना को लागू करेगी और फिर २०१३ के अंत तक पूरे देश में इसका विस्तार किये जाने की योजना है । 
     सीधे नकद हस्तांतरण प्रणाली करीब और विकासशील देशों में तेजी से फैल रही है लेकिन भारत अभी इस मामले में नया ही है । दुनिया के देशोंमें जो कुछ बड़े कार्यक्रम चलाये जा रहे हैंउनसे जुड़े तथ्यों को देखते हुए लगता है कि यह काम इतना आसान नहीं है । सीधे नकद हस्तांतरण के जटिल प्रभाव भी अब सामने आने लगे है । इस प्रणाली में एक बुनियादी बदलाव निहित है । चूंकि पैसों का मामला निजी मामला है, इस हस्तांतरण पहल से एक समुदायोन्मुख कार्यक्रम, वैयक्तिक योजना में बदल जाता है । इसमें एक और पेंच है - बेहतर आजीविका अवसरों के लिये होने वाला पलायन ।
    तीव्र पलायन को रोकना एक प्रमुख विकास लक्ष्य है । सीधे नकद हस्तांतरण, पलायन को दो तरह से प्रभावित कर सकता है । एक, यह उन लागों का पलायन रोक सकता है जिन्हें नकद हस्तांतरण का लाभ लेने के लिये अपने पैतृक स्थान पर ही रहना पड़ेगा । दूसरा, यह उन लोगों का पलायन बढ़ा सकता है जिनके पास बाहर निकलने के लिये पहले पैसे नहीं थे ।
    लंदन स्थित ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट ने हाल ही में, लेटिन अमेरिका और अफ्रीका में, पलायन पर सीधे नकद हस्तांतरण से पड़ने वाले प्रभाव से संबंधित २२ अध्ययनों का विश्लेषण किया है । इनमें से दस अध्ययन बताते हैं कि इस व्यवस्था ने पलायन रोकने में मदद की है जबकि दूसरे दस अध्ययनों का निष्कर्ष है कि इसने पलायन को बढ़ाया है । ऐसा इस वजह से हो सकता है कि हस्तांतरित नकद, पलायन को रोकने के लिये पर्याप्त् नहींथा और लोगों ने बाहर जाने के लिये ही उस पैसे का इस्तेमाल   किया ।
    मैक्सिको का सशर्त नकद हस्तांतरण ऑपार्चुनीडेड्स इस संदर्भ में एक उदाहरण है । वहां छह में से चार अध्ययनों में पाया गया कि कई परिवारों ने उस नकद को कर्ज लेने के लिये उपयोग किया ताकि परिवारजनों को कमाने के लिये बाहर जाने मेंमदद मिल सके । ठीक इसी तरह दक्षिण अफ्रीका में उन इलाकों में पलायन बढ़ा, जहां वृद्ध अनुदान कार्यक्रम चलाया जा रहा था । वहां परिवारों ने इस पैसे को कमाई के लिये बाहर जाने में खर्च किया ।
    सीधे नकद हस्तांतरण का एक सकारात्मक पहलू है कि यह क्षेत्रीय विषमता को कम करने में मददगार रहा है । प्राय: लोग आर्थिक रूप से पिछड़े इलाकों में समृद्ध इलाकों की तरफ पलायन करते हैं । ब्राजील में नकद हस्तांतरण कार्यक्रम से क्षेत्रीय विषमता में ४० प्रतिशत की कमी आई है ।
    भारत में इसके प्रभाव को महात्मा गंाधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी कानून मनरेगा के अन्तर्गत चलने वाली सशर्त नकद हस्तांतरण योजना के अनुभवों के आधार पर समझ सकते है । इन योजनाआें के अन्तर्गत मिलने वाली मजदूरी, नकद के रूप में इसी उद्देश्य से हस्तांतरित की गई है कि पलायन रूके । लेकिन पांच सालों में भी ज्यादा समय का क्रियान्वयन बताता है कि परिवारों ने बहुत ही अलग-अलग ढंग से इस पैसों को खर्च किया है । इन योजनाआें में महिलाआें की भागीदारी जबर्दस्त  रही है । परिवारों ने महिलाआें को तो इन योजनाआें में काम पर लगा दिया, लेकिन पुरूषों का पलायन जारी    रहा । इससे अतिरिक्त आमदनी होती है । इसका अर्थ है कि योजनाआें का असल मकसद, जो कि पलायन को रोकना था, वह पूरा नहीं हुआ ।
    एक और सशर्त नकद हस्तांतरण का कार्यक्रम है - जननी सुरक्षा योजना । जिसमें अस्पताल में प्रसव कराने पर नकद प्रोत्साहन का प्रावधान है । घोर पलायन के लिये विख्यात उड़ीसा के बालांगीर जिले मेंमहिलाएं नकद प्रोत्साहन राशि के लिये अस्पताल में प्रसव कराने गांव में रूकती तो है पर इसके तुरन्त बाद पलायन कर जाती हैं । बावजूद इसके जिले मेंपलायन दर घटी नहीं है । एक और मजेदार पहलू यह है कि गर्भावस्था के दौरान महिलाएं मनरेगा की योजनाआें से जुड़ जाती है क्योंकि ऐसे में उन्हें हल्के कामदिये जाते     हैं । यह परिवार का फैसला होता है कि जो भी मिल रहा है उसे ले लिया जाये । बाद में ये महिलाएं और कमाई के लिये बाहर चली जाती हैं । लेकिन बालांगीर में, महिलाआें के पलायन से बच्चें का टीकाकरण भी प्रभावित हुआ है । बालांगीर में कोई परिवार पलायन करेगा या रूकेगा यह उसके खाते में होने वाली राशि पर निर्भर है ।    
    लेकिन लैटिन अमेरिका के अनुभव बताते है कि नकद हस्तांतरण प्रणाली लोगोंके पलायन को बढ़ावा दे सकती है । इसका समाधान शायद नये तरह की नकद हस्तांतरण प्रणाली में है जो लोगों को उनके मूल स्थान से बांधे रखती है, पर यह कोई आसान काम नहीं । देश में सीधे नकद हस्तांतरण प्रणाली का क्रियान्वयन करने वाले विशेषज्ञ भी इसी बदलाव के लिये मशक्कत कर रहे हैं । ऐसे में भारत को चौकस होने की जरूरत है ।
सामाजिक पर्यावरण
शराब बनाम यौन हिंसा
भारत डोगरा
    शराब को राजस्व का प्रमुख स्त्रोत बनाकर हमारी राजनीतिक व्यवस्था भी नशे में डूब गई प्रतीत होती है । शराब और अपराध खासकर महिलाआें के विरूद्ध एवं शराब और बढ़ती गरीबी और बीमारी के बीच सीधा रिश्ता है । यदि राजस्व की शराब पर निर्भरता को समाप्त् नहीं किया गया तो विकास की किसी भी योजना का लाभ गरीब व वंचित समुदाय को प्राप्त् नहीं मिल पाएगा ।
    हाल के समय में महिलाआें के विरूद्ध हिंसा के मुद्दे पर वैंसे तो व्यापक चर्चा हुई हैं, लेकिन इस गंभीर समस्या के एक महत्वपूर्ण कारण पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया है । यह शराब की दुकानों व ठेके के तेज प्रसार के कारण देश के दूर-दराज के क्षेत्रोंमें भी शराब की उपलब्धि के बहुत सरल हो जानेे और बहुत बढ़ जाने का मुद्दा है । अनेक महिला संगठनों व सामाजिक कार्यकर्ताआें ने इस बारे में कई बार चेतावनी दी है कि शराब के ठेकों व दुकानों के तेजी से फैलने के कारण महिलाआें की असुरक्षा बढ़ रही है और उनके विरूद्ध हिंसा की संभावना बढ़ रही है । 
     हाल के वर्षोमें अपनी आय बढ़ाने के लिए अधिकांश राज्य सरकारों ने शराब के ठेकों की संख्या को तेजी से बढ़ाया है और अब ये ठेके बहुत दूर-दूर के गांवों में भी पहुंच गए हैं । इसका एक कारण यह भी रहा है कि शराब के कुछ बड़े व्यावसायियों के नेताआेंऔर अधिकारियों से उच्च् स्तर पर बहुत नजदीकी संबंध बन गए और इन्होंने भी शराब को इन गांवों में पहुंचाने के लिए  विभिन्न सरकारों पर दबाव बनाया ।
    विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन बताते है कि अधिक शराब पीने वाले क्षेत्रों में महिलाआें के विरूद्ध हिंसा के मामले अधिक पाए गए । इतना ही नहीं इनमें से बड़ी संख्या में वे शराब से संबंधित थे । दूसरी और जहां शराब की उपलब्धि कम हुई, वहां महिलाआें के विरूद्ध हिंसा में भी कमी आई । वैश्विक तौर पर देखे तो जब शराब की दुकानों के खुले रहने के समय में कमी की गई तो इससे ब्राजील व ऑस्ट्रेलिया में हिंसा कम हुई ।
    महिला जब घर में पति को शराब पीने से मना करती है तो उसे पीटा जाता है, जबकि घर से बाहर शराबियों द्वारा यौन हिंसा की संभावना बढ़ती है । जो बेहद अनुचित कार्य होश-हवास में करने से पहले आदमी बीस बार सोचता है, उसे वह शराब के नशे के नशे में बेहिचक कर डालता है । शराब के बढ़ते चलन ने महिलाआें के जीवन को बेहद असुरक्षित बनाया है । यही स्थिति शहरों की मलिन बस्तियों में व शराब की दुकानों के आसपास के क्षेत्रों में भी देखी जा सकती है ।
    इस संदर्भ में हाल में दिल्ली की एक अदालत ने निर्णय को बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है । अतिरिक्त सेशन जज सुश्री कामिनी ने २५ जनवरी के अपने निर्णय में शराब के नशे में बलात्मकार करने वाले एक व्यक्ति को सजा देते हुए स्पष्ट कहा है कि शराब की बढ़ती खपत और बढ़ते अपराधों विशेषकर बढ़ती यौन हिंसा के अपराधों में निश्चित तौर पर आपसी संबंध है । माननीय न्यायाधीश ने सरकार को शराब की उपलब्धि और बिक्री को नियंत्रित व कम करने व यथासंभव शराबबंदी लागू करने की संवैधानिक जिम्मेदारी की याद दिलाई है । साथ ही उन्होनें दिल्ली सरकार को अपनी जिम्मेदारी से दूर हटने के लिए लताड़ा भी है ।
    माननीय न्यायाधीश ने यह भी कहा कि ऐसा लगता है कि शराब की बुराई को कम करने या नियंत्रित करना राज्य की प्राथमिकता में है ही नहीं, जबकि शराब के स्वास्थ्य व सुरक्षा पर प्रतिकूल असर के बारे मेंबहुत चिंता व्यक्त की गई है ।
    न्यायाधीश महोदया ने अपने महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि शहरी गरीब बस्तियों में शराब की खपत बहुत बढ़ गई है । उन्होनें कहा कि जब शराब में निकोटीन व कैफीनमिलाकर सेवन किया जाता है तो यह और भी खतरनाक हो जाता है व विभिन्न अपराधों व यौन अपराधों की संभावना इस स्थिति में और बढ़ती है । शराब के नशे की प्रवृत्ति व उपलब्धि को कम करने या दूर करने की अपनी जिम्मेदारी से सरकार को भागना नहीं चाहिए व पल्ला झाड़ने की प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए । सरकार को शराबबंदी की अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभानी चाहिए ।
    माननीय न्यायाधीश के इस निर्णय की भावना के अनुकूल महिलाआें के विरूद्ध हिंसा रोकने व कम करने का एक अनिवार्य बिन्दु यह भी होना चाहिए कि सरकार शराब की उपलब्धि को व्यापक और सरल बनाने के स्थान पर इसे समुचित ढंग से नियंत्रित भी करे तथा दूरदराज के गांवों में शराब के ठेके खोलने पर रोक लगनी चाहिए ।
वन्य प्राणी जगत
संकट में हैं काजीरंगा के गैंडे
राहुल मुखर्जी

    विश्वविख्यात काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के एक सींग वाले गैंडों पर बांग्लादेश से आए अवैध घुसपैठिए कहर ढा रहे हैं । यहां पिछले १० महीने के भीतर ३९ गैंडों को मार गिराने की घटनाएं सामने आई हैं । जाहिर है इस दुलर्भ वन्य प्राणी पर पहले से कहीं ज्यादा संकट के बादल मंडरा रहे हैं ।
    उद्यानों के जिन अंदरूनी कोर क्षेत्रों में सर्वोच्च् न्यायालय पर्यटन तक की अनुमति नहीं दे रहा है, काजीरंगा के इन्हीं भीतरी क्षेत्रों में बांग्लादेशी घुसपैठियों की बस्तियां हैं । असम गण परिषद के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत ने आरोप लगाया है कि उद्यान के बफर क्षेत्र में अवैध प्रवासियों को बसा दिए जाने से गैंडे के अस्तित्व पर संकट बढ़ा हे । कांगे्रस इस तरह से अपना वोट बैंक बढ़ाने में लगी है । हालांकि महंत के इस आरोप का जवाब देते हुए असम के वन मंत्री रकाबुल हुसैन ने कहा है कि १९९६ में खुद महंत के शासन काल में ही उद्यान के अंदरूनी कोर क्षेत्रों में ९६ भूमिहीन परिवारों को बसाने का सिलसिला शुरू किया गया था । 
      बहरहाल शासक दल कोई भी हो उसकी कार्यप्रणाली कमोबेश एक जैसी होती है । हालांकि गैंडे बाढ़ की चपेट में आने और पेशेवर शिकारियों के हत्थे चढ़ जाने से भी मर रहे हैं ।
    असम की राजधानी गुवाहाटी से २१७ किलोमीटर दूर ब्रह्मापुत्र की घाटी व तलहटी के ४३० वर्ग किमी मेंे फैला है काजीरंगा राष्ट्रीय     उद्यान । थल और जल के ये भूखण्ड दुर्लभ किस्म के तमाम पशुआें के साथ-साथ एक सींग वाले गैंडे के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं । लेकिन यह उद्यान गाहे-बगाहे एक सींग वाले गैंडे के अवैध शिकार के लिए चर्चा मेंबना रहता है ।
    बीते दस माह में सींग के लिए ३९ गैंडों का बेरहमी से शिकार किया गया । इस सींग का अंतर्राष्ट्रीय बाजार मूल्य ४० लाख रूपए से लेकर ९० लाख रूपए तक है । गैंडों का शिकार गोली मारकर, रास्तों में गड्ढे खोदकर और काजीरंगा के बीच से गुजरने वाली उच्च् दाब विघुत लाइन से तार जमीन में बिछाकर की जा रही है । बाढ़ के पानी की चपेट मेंआ जाने से भी बड़ी संख्या में गैंडे मारे गए है । सड़क दुर्घटना और आपसी संघर्ष में भी गैंडों के मरने की घटनाएं सामने आती रहती हैं ।
    हालांकि काजीरंगा उद्यान यूनेस्को के विश्व विरासत स्थलों की सूची में शामिल है, लेकिन वहां ऐसी किसी विशेष सुविधा का विस्तार नहीं हुआ है जिससे बाढ़ की चपेट में आने से इन्हें बचाया जा सके । इस बार की बाढ़ शिकारियों को बेखौफ शिकार करने का कारण बनी । इसी साल के सितम्बर में काजीरंगा में बाढ़ का पानी घुस आने से शिकारियों के पौ-बारह हो गए और उन्होनें चार दिन के भीतर ही पंाच गैंडों को मार  गिराया । बेदर्द शिकारियों ने गैंडों के सींग उखाड़ लिए और उन्हें खून से लथपथ हालत में अपनी मौत मरने को छोड़ दिया । वन संरक्षकों को हवा तक नहीं लगी । इसके अलावा आंगलोग जिले में छह गैंडों को उस समय मार गिराया गया जब वे बाढ़ग्रस्त वन क्षेत्र से बचने के लिए खुले में आ गए थे । बाढ़ के पानी में डूब जाने से भी २८ गैंडे मारे गए । १९८८ में आई बाढ़ व बीमारी से १०५ गैंडे मरे थे । वहीं १९९८ में आई बाढ़ में डूब जाने से एक साथ ६५२ गैंडे मारे गए थे ।
    खुफिया रिपोर्ट जता रही है कि गैंडो के शिकार में बांग्लादेशी घुसपैठिए और कारबी पीपुल्स लिबरेशन टाइगर्स के उग्रवादी भी शामिल हैं । इसके अलावा मिजो और नगा उग्रवादी भी सींग के लिए गैंडों पर कहर ढाते रहते हैं । हालांकि १९८८ में असम में उल्फा नाम का एक ऐसा उग्रवादी संगठन वजूद में आया था, जिसने गैडों के सरंक्षण की दिशा में अहम पहल की थी और गैडों के सींग की तस्करी करने वाले दो शिकारियों की गोली मारकर हत्या कर दी थी । इसके बाद कुछ समय तक इस प्राणी के शिकार पर अंकुश लग गया था, लेकिन बाद मेंफिर शुरू हो गया ।
    भारत की धरती पर गैंडे का अस्तित्व दस लाख साल से भी ज्यादा पुराना है । चंडीगढ़ के निकट पिजोर मेंहुई पुरातत्वीय खुदाई में चट्टानों की परतों के बीच अनेक दुलर्भ प्राणियों के जीवाश्म मिले हैं । इनमें गैंडे के भी जीवाश्म हैं । इसी तरह गुजरात के भावनगर के परीम द्वीप मेंभी लगभग दस लाख साल पुराने प्राणियों के जीवाश्म मिले हैं, जिनसे पता चला है कि इस द्वीप में गैंडे और जिराफ परिवार के जीव बड़ी संख्या में बसेरा करते थे । इसलिए इसे आदिम युग का पशु भी कहा जाता है ।
    गैंडे को अन्य प्राणियों की तरह बुद्धिमान पशु नहीं माना जाता है । गैंडे की बुद्धि की परीक्षा की  परीक्षा सबसे पहले द्वारका नरेश भगवान कृष्ण ने की थी । कृष्ण युद्ध नीति में नई तकनीकों को अपनाने के लिए प्रयत्नशील थे । इस दृष्टि से उन्होनें हाथी की जगह गैंडे को रखने की बात युद्ध विशेषज्ञों से कही । कृष्ण की दलील थी कि हाथी जरूरत से अधिक उंचा प्राणी है । नतीजतन उसकी पीठ पर बैठे सैनिक को युद्ध में आसानी से निशाना बना लिया जाता है । तो कुछ गैंडो को युद्ध के लिए प्रशिक्षित करने की शुरूआत   हुई ।
    लंबे प्रशिक्षण के बाद गैंडों को कृष्ण के समक्ष प्रस्तुत किया  गया । तब प्रशिक्षक ने उत्तर दिया, महाराज यह एकदम बुद्धिहीन जंगली पशु है, सिखाने के अनेक प्रयासों के बाद भी यह युद्ध की बारहखड़ी नहीं सीख पाया । ऐसा प्राणी युद्ध के लायक नहीं है । यह अपने स्वामी को कभी विजय नहीं दिला सकता । कृष्ण ने सभी प्रशिक्षु गैंडों को वन में छोड़ने का आदेश दिया । इस समय से गैंडों के साथ एक मिथक जुड़ा कि जड़-बुद्धि गैंडे जाते समय यह भूल गए थे कि उनके शरीर पर लोहे का कवच भी बंधा है । तब से ही कहा जाने लगा कि उनकी पीठ पर चढ़ा यह कवच उनकी स्थाई धरोहर हो गई और वे अपनी मृत्यु के समय इस कवच को अपनी संतान को बतौर विरासत सौंप देते हैं ।
    भारतीय संस्कृत साहित्य में भी गैंडे का खूब उल्लेख है । चरक, सुश्रुत और कालिदास ने गैंडे का उल्लेख खड्ग और खड्गी नामों से किया है । इसे यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इसके सींग का आकार खड्ग यानी तलवार की तरह होता  है । हलायुध कोश में तो गैंडे के ग्यारह संस्कृत नाम दिए हैं । इससे पता चलता है कि प्राचीन भारतीय प्राणी विशेषज्ञ गैंडे के आचरण को जानने में दिलचस्पी लेते रहे हैं ।
    अपनी उक्त बुद्धिहीनता के कारण गैंडे सबसे ज्यादा मारे जाते  हैं । गैंडे अपने अनूठे स्वभाव के चलते नाक की सीध में चलते हैं और जिस रास्ते से वे एक बार गुजरते हैं, बार-बार उसी रास्ते पर चलते हैं । इनके इसी आचरण का लाभ शिकारी उठाते हैं और रास्ते में गड्ढे खोदकर अथवा बिजली के तार बिछाकर इनका आसानी से शिकार कर लेते हैं । गैंडे जब घास-फूंस से ढंके गड्ढे में गिर जाते है तो शिकारी भालों जैसे नुकीले औजारों को इनके शरीर में गोंच-गोंच कर इनकी हत्या कर देते हैं ।
    आसानी से शिकार हो जाने के कारण इनकी संख्या लगातार घटती जा रही है । काजीरंगा में २०११ में हुई प्राणी गणना के अनुसार महज २२९० गैंडे ही शेष बचे हैं । काजीरंगा इन्हें इसलिए लुभाता है क्योंकि यहां एक विशेष प्रजाति की घास पाई जाती है, जो गैंडों के आहार व प्रजनन के लिए उपयोगी है । लेकिन जहरीली वनस्पतियों के काजीरंगा मेंपहुंच जाने से इस घास की पैदावार भी प्रभावित हो रही है । इसी वजह से गैंडों के सामने आहार का संकट बढ़ रहा है और प्रजनन क्षमता भी प्रभावित हो रही है ।
पर्यावरण परिक्रमा
सोेने से ४० गुना महंगा है उल्कापिंड   

सेन्ट्रल रूस में गिरे उल्कापिंड के टुकड़े सोने से भी ४० गुना महंगे है  । रूसी वैज्ञानिकों ने घोषणा की है कि उन्हें उल्कापिंड के ५० टुकड़े मिल गए हैं । ये टुकड़े रूस की उराल की पहाड़ियों और चेलियाबिंस्क के आसपास गिरे थे ।
    युवा शोधार्थी एक के मुताबिक उल्कापिंड के टुकड़े बहुमूल्य हैं । इस उल्कापिंड के टुकड़े की कीमत २२०० डॉलर प्रति ग्राम (१.२१ लाख रूपये प्रति ग्राम) है, जो सोने से करीब ४० गुना अधिक है । रूसी विज्ञान अकादमी के सदस्य विक्टर ग्रोशोस्की ने कहा कि हम चेबरकुल झील के पास उल्कापिंड के ५० टुकड़े मिलने की पुष्टि करते हैं।
    अकादमी ने इन टुकडों का रासायनिक परीक्षण कराया । इसमें यह साबित हुआ कि ये बाहरी अंतरिक्ष से आए थे । यह उल्कापिंड रेंगुलर कॉन्ड्राइटस श्रेणी का है । इसमें लौह, क्राइसोलाइट और सल्फाइट के तत्व पाए गए हैं । रशियन एकेडमी ऑफ साइंस की टीम ने ये टुकड़े एकत्रित किए हैं । जिनका येकेटेरिंगबर्ग स्थित युरल्स फेडरल यूनिवर्सिटी की लेबोरेटरी में परीक्षण चल रहा है । इसमें १० फीसदी तक आयरन मिला है ।
दवा परीक्षण और सरकार
    हमारे देश में अवैध दवा परीक्षण को लेकर अभी तक सुप्रीम कोर्ट केन्द्र सरकार को फटकार लगाता रहा है, लेकिन अब देवा परीक्षण और उससे होने वाली मौतों के लिए कांग्रेस शास्ति राज्य आंध्रप्रदेश ने अपनी ही केन्द्र सरकार को पूर्ण रूप से जिम्मेदार ठहराया    है । सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में प्रदेश सरकार ने कहा है कि इस संबंध में राज्य सरकार को सूचना नहीं दी जाती, बल्कि इसे केन्द्र सरकार की ओर से मंजूरी मिलती  है । आंध्रप्रदेश सरकार ने अपने हलफनामे में यह भी कहा है कि ड्रग्स एण्ड कॉस्मेटिक अधिनियम में कोई दण्डात्मक प्रावधान नहीं है, लिहाजा इस अधिनियम को सख्त बनाने के अलावा इस मामले में राज्य सरकारों को भी अधिकार दिया जाना चाहिए । बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बेरोक-टोक आम लोगों पर दवाईयों के परीक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए पिछले दिनों सभी राज्य सरकारों को अपनी ओर से हलफनामा दाखिल करने को कहा था । ऐसे में आंध्रप्रदेश स्वास्थ्य मंत्रालय के मुख्य सचिव के आर किशोर ने अपने हलफनामे में कहा है कि क्लीनिकल ड्रग ट्रायल के मसले पर हमारे देश मेंसमुचित कानून नहीं है, जिसकी वजह से इस मामले में आरोपियों के खिलाफ ड्रग्स एण्ड कॉस्मेटिक अधिनियम के तहत कोई दण्डात्मक कार्यवाही नहीं की जा सकती ।
    उल्लेखनीय है कि इस साल के शुरूआत मेंसुप्रीम कोर्ट ने गैरकानूनी दवा परीक्षण पर केन्द्र सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था कि इस काम मेंलगी बहुराष्ट्रीय कंपनियां जिस तरह से आम लोगों को बलि का बकरा बना रही हैं, उससे ऐसा लगता है कि सरकार कुंभकर्णी नींद में सो रही है । सुप्रीम कोर्ट ने तब आदेश दिया था कि अब सभी दवाआें के परीक्षण केन्द्र सरकार के स्वास्थ्य सचिव की देखरेख में   होंगे । शायद शीर्ष अदालत के इसी  फैसले के मद्देनजर अब केन्द्र सरकार ने विदेश मेंनिर्मित दवाआें के भारत में बिक्री या उपयोग की मंजूरी के मामले में एक मानक संचालन प्रक्रिया विकसित करने के मकसद से चार विशेषज्ञ समितियोंका गठन किया है, जो दवा परीक्षण की गतिविधियों की निगरानी कर अपनी रिपोर्ट स्वास्थ सचिवों के अधीन  काम करने वाली शीर्ष समिति को सौपेगी । इसके अलावा यह समितियां स्वास्थ्य मंत्रालय से संबद्ध संसदीय समिति की पिछले साल आई उस रिपोर्ट पर भी गौर करेगी, जिसने यहां सवाल उठाया था कि दवा और सौदंर्य प्रसाधन अधिनियम के खिलाफ जाकर विदेशों में बनी उन दवाइयों का भी बिक्री की इजाजत क्यों दे रहा है, जो उनके घातक दुष्परिणामों को देखते हुए पश्चिमी देशों में प्रतिबंधित हैं ।
    फिलहाल जो स्थिति है, उससे यहीं प्रतीत होता है कि प्रतिबंधित दवाआें की बिक्री को लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बनाई गई दवाआें के परीक्षण के लिए सरकार अब तक एक तरह से सुविधाजनक माध्यम से काम करती रही है, जबकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले चार-पांच साल में २५ हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं । विडंबना यह है कि अब तक दवा परीक्षण के नाम पर तमाम नियम-कायदों की धज्जियां उड़ाने वाली दवा कंपनियों के खिलाफ न सिर्फ कोई कार्यवाही की जा सकी है, बल्कि केन्द्रीय मानक नियंत्रण संगठन की ओर से मुआवजे के लिए जिन फार्मूलोंपर आधारित दिशा-निर्देश तय करने की कोशिश हो रही है, उनमें भी परीक्षण को अंजाम देने वाली कंपनियों और डॉक्टरों की सुविधाआें का ख्याल रखा जाता है । दवा परीक्षण के शिकार अधिकतर गरीब तबके के लोग होते है, जिन्हेंपता नहीं चल पाता कि उनके साथ क्या गलत हो रहा है । जब कोई मामला तूल पकड़ता है तब मामूली रकम देकर उन्हें चुप करा दिया जाता है । ऐसे में सरकार की नई पहल से अवैध दवा परीक्षण के कारोबार पर पाबंदी लग पाएगी ।
सौर विद्युत सेल की क्षमता में इजाफा
    सौर-विद्युत सेले यानी सोलर फोटो-वोल्टेइक सेल काफी उपयोगी चीज है । इनकी मदद से हम सूर्य के प्रकाश को विघुत में बदल सकते हैं। मगर इनकी कार्यक्षमता काफी कम है और ये मंहगी भी बहुत होती है । मगर अब नैनो टेक्नॉलॉजी की मदद से इनकी कार्यक्षमता बढ़ाई जा सकती है और कीमत कम की जा सकती  है ।
    सौर प्रकाश विघुत से की कार्यक्षमता बढ़ाने का नुस्खा यह है कि पहले एक अर्ध-चालक सतह पर सोने के सूक्ष्म कण जमा कर दिए जाए । फिर सोने के इन कणों का उपयोग आधार के रूप में करते हुए इन पर फॉस्फोरस और इंडियम के यौगिकों के निहायत महीन तार निर्मित किए जाएं । ऐसे एक तार की मोटाई महज १८० नैनोमीटर होगी । गौरतलब है कि एक नैनोमीटर मीटर का एक अरब वां भाग होता है । इस तरह के नैनो-तारो से बनी सौर-विघुत सेल लगभग १४ प्रतिशत सौर ऊर्जा को विद्युत मेंबदल देगी ।
    उक्त नुस्खा जर्मनी के फ्रानहॉफर इंस्टीट्यूट फॉर सोलर एनर्जी सिस्टम्स में आजमाया गया है । देखा गया कि यह लगभग उतने ही प्रकाश को विद्युत में बदलता है कि जितना कि एक पारंपरिक इंडियम फॉस्फाइड की पतली परत से बनी सेल करती हैं जबकि इस नई सेल में नैनो तार वास्तव में कुल सतह के मात्र १२ प्रतिशत भाग पर ही होते  हैं । यानी ये काफी सस्ती हो सकती है ।
    इसका सबसे पहला नवाचार तो अर्ध-चालक का चुनाव है । यह इंडियम और फॉस्फोरम का एक मिश्रण है जो इस पर आपतित सौर ऊर्जा का अधिकांश हिस्सा सोख लेता है । फिलहाल यह ७१ प्रतिशत ऊर्जा सोखता है । इसमें सुधार की गुंजाइश है । इसके लिए एक तो नैनो तारों को बेेहतर ढंग से बनाना होगा और उनमें इंडियम और फॉस्फोरस का सही मिश्रण प्रयुक्त करना होगा ।
    इसके अलावा ऐसे सौर सेलों को मल्टीजंक्शन सौर सेलों में जोड़ा जाएगा । मल्टीजंक्शन सौर सेलों की विशेषता यह होती है कि उनमें एक से अधिक किस्म के अर्ध-चालकों को उपयोग किया जाता है और इन्हें एक के ऊपर एक परतों में संयोजित किया जाता है ताकि सूर्य से आपतित अधिकांश ऊर्जा को सोखा जा सके । फिलहाल ऐसी मल्टीजंक्शन सेलों की कार्यक्षमता ४३ प्रतिशत है । जब इनके साथ नई नैनो-तकनीक को जोड़ा जाएगा तो कार्यक्षमता में बहुत इजाफा होने की संभावना है ।
जैव संसाधन व्यवसायियों को देना होगा लाभांश
    मध्यप्रदेश के जैव संसाधनों से व्यावसायिक लाभ प्राप्त् करने वाले व्यक्ति, विभाग तथा कंपनियों को लाभ का अंश मप्र राज्य जैव विविधता बोर्ड की जैव विविधता निधि को देना होगा । इस राशि से क्षेत्रीय स्तर पर जैव विविधता संरक्षण एवं ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के साथ-साथ वनों पर निर्भरता कम करने, वनीकरण का कार्य तेज करने तथा जैव संसाधनों से जीविका के साधन बढ़ाने संबंधी कार्य किये जाएंगे । साथ ही स्थानीय निकायों में गठित जैव विविधता प्रबंधन समितियों की व्यवस्थाआें को मजबूत किया जाएगा ।
    म.प्र. राज्य जैव विविधता बोर्ड के सदस्य सचिव डॉ. आरजी सोनी ने बताया कि यह प्रावधान जैव विविधता अधिनियम २००२ में किया गया है । इसके आधार पर म.प्र. द्वारा २००४ में बनाए गए नियम में लाभांश जमा करने का प्रावधान है ।
    जैव संसाधनों से तात्पर्य पौधे, जीव-जन्तु या उनके भाग से है । व्यावसायिक उपयोग से तात्पर्य वाणिज्य उपयोग के लिये औषधि, औघोगिक किण्वक, खाद्य सुंगध, सुवास, प्रसाधन, तेल राल, रंग, सत और जीन के अंतिम उपयोग से है । इसके अलावा मध्यप्रदेश जैव विविधता नियम के अनुसार मध्यप्रदेश से अनुसंधान अथवा वाणिज्यिक उपयोग के लिये जैव संसाधन तथा उनसे संबंधित ज्ञान प्राप्त् करने वाले व्यक्ति अथवा संस्थान को इसके लिये राज्य जैव विविधता बोर्ड में आवेदन करना अनिवार्य है ।
विज्ञान जगत
गॉड पार्टिकल और जंक डीएनए का साल
चक्रेश जैन
    मानव जीनोम और और हिग्ज बोसान रिसर्च को वर्ष २०१२ की विज्ञान जगत की अति महत्वपूर्ण उपलब्धियों में शुमार किया जा सकता है । दुनिया की ३२ प्रयोगशालाआें के ४०० जीव विज्ञानियों ने यानी एनसाइक्लोपीडिया ऑफ डीएनए एलिमेंटस (एनकोड) महाशोध परियोजना के माध्यम से यह साबित कर दिया है कि जंक डीएनए निष्क्रिय नहीं है । सरल भाषा में कहें तो जंक डीएनए उस स्विच का काम करते हैं, जिससे प्रत्येक जीन क्रिया चालू-बंद होती है । भावी शोध में इस स्विच की कार्यप्रणाली पर रोशनी  डाली जाएगी ।
     वर्ष के उत्तरार्द्ध मेंविज्ञान की शोध पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार वनस्पतिविदों ने पहली बार केलेके डीएनए का अनुक्रमण पूरा कर लिया । केला पहला गैर-घासीय एक बीजपत्री पौधा है, जिसके ३६,००० जीन्स वाले जीनोम का अनुक्रमण किया गया है । 
     डीएनए अणु पूरे साल सुर्खियों में रहा । यह वही अणु  है, जिसने एन.डी. तिवारी का पितृत्व सुलझाने में अहम भूमिका निभाई और डीएनए छाप से सिद्ध हो गया कि रोहित शेखर के जैविक पिता एन.डी. तिवारी ही हैं ।
    इस वर्ष जुलाई को जिनेवा स्थित सर्न प्रयोगशाला में एक प्रेस कांफ्रेस में हिग्ज बोसान कण खोजे जाने की विधिवत घोषणा की गई । इस कण को लोकप्रिय भाषा में गॉड पार्टिकल भी कहा जाता है । वास्तव में हिग्ज बोसान के साथ गॉड पार्टिकल नाम जुड़ने से हमारी जिज्ञासा बढ़ गई है । भौतिक शास्त्री तथा नोबेल विजेता लियोन लेडरमैन इस कण को गॉडडैम पार्टिकल (अभिशप्त् कण) नाम देना चाहते थे, क्योंकि यह आज भी रहस्यपूर्ण है । उन्होंने बाद में इस विषय पर एक किताब लिखी और प्रकाशक की इच्छा के अनुसार इसे गॉड पार्टिकल शीर्षक दे दिया ।
    इस कण का ईश्वर से कोई लेना देना नहीं है । बीते वर्षोंा में इस महाप्रयोग ने ब्रह्मांड संबंधी हमारी समझ को समृद्ध किया है और पार्टिकल फिजिक्स को ठोस आधार दिया है । वैज्ञानिकों का मानना है कि हिग्ज बोसान रिसर्च से भविष्य में इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटिंग और चिकित्सा के क्षेत्र में नई संभावनाआें का मार्ग प्रशस्त होगा ।
    इसी वर्ष ६ जून को शुक्र ग्रह ने सूर्य का हाल-चाल जाना और आगे बढ़ गया । इसे विज्ञान की भाषा में शुक्र पारगमन कहा जाता है । प्रकृति के इस विलक्षण नजारे को लाखों लोगों ने जी भरकर देखा । अब यह खगोलीय घटना १०५ वर्ष बाद देखी जा सकेगी । वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से शुक्र पारगमन का अपना महत्व है । इस दौरान शुक्र और पृथ्वी के बीच की निश्चित दूरी ज्ञात करने और अन्य तारों की चमक के अध्ययन का मौका मिलता है ।
    बीते वर्ष मंगल ग्रह जीवन की संभावनाआें की पड़ताल जारी  रही । ६ अगस्त को नासा क्यूरि-ऑसिटी यान मंगल की सतह पर उतरा । मंगल की मिट्टी से प्राप्त् कार्बनिक यौगिकों की पहचान से शोधार्थी उत्साहित हैं । इस वर्ष भारत ने मंगल ग्रह की जानकारियां जुटाने के लिए अपने मंगल ऑर्बाइटर अभियान को मंजूरी प्रदान कर दी । इसके लिए ४५० करोड़ रूपए का प्रावधान है ।
    विदा ले चुके साल में चीन के अंतरिक्ष विज्ञान कार्यक्रम में नए अध्याय जुड़े । चीन की पहली महिला अंतरिक्ष यात्री लिउ यांग तेरह दिनों की यात्रा के बाद २९ जून को पृथ्वी पर लौटीं । वर्ष के उत्तरार्द्ध मेंचीन को अंतरिक्ष में सब्जियां उगाने में बड़ी सफलता मिली । भविष्य में मानव सहित अंतरिक्ष कार्यक्रमों के लिए इस प्रयोग का महत्व है । गुजरे साल भारतीय मूल की अुतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष मेंचार महीनों तक अभिनव और रोमांचक प्रयोग पूरे करने के बाद सकुशल पृथ्वी पर लौट आई । वे किसी अंतरिक्ष टीम का नेतृत्व करने वाली पहली महिला हैं ।
    इस वर्ष २६ अप्रैल को पीएसएलवी-१९ की पीठ पर सवार होकर स्वदेशी तकनीक से निर्मित दूरसंवेदी उपग्रह रीसैट-१ अंतरिक्ष में पहुंचा । यह उपग्रह बादलों की ताजा स्थिति से अवगत करा रहा है । यह वही वर्ष था जब भारतीय वैज्ञानिकों ने ९ सितंबर को फ्रांस तथा जापान के उपग्रहोंको अंतरिक्ष में विदा करते हुए अपने १००वें अंतरिक्ष मिशन की सफलता का जश्न मनाया । १८ अप्रैल १९७५ को अपने ही देश में बनाए गए आर्यभट्ट उपग्रह के प्रक्षेपण के साथ इसरो ने अंतरिक्ष यात्रा आरम्भ की थी । २९ सितंबर को देश का सबसे भारी और अत्याधुनिक संचार उपग्रह जीसैअ-१० सफलता-पूर्वक प्रक्षेपित किया गया । ७५० करोड़ रूपए की लागत से निर्मित जीसैट का वजन ३.४ टन  है ।
     गुजरे साल हबल दूरबीन ने ब्रह्मांड के कुछ दुर्लभ चित्र भेजे, जिसमेंअनेक आकाशगंगाएं विद्यमान हैं । इसी दूरबीन से प्लूटो के एक और चंद्रमा होने का संकेत मिल जिसे पी-५ नाम दिया है । इसी दूरबीन से प्राप्त् तस्वीरों के आधार पर वैज्ञानिकों ने एक वलयाकार आकाश गंगा खोजने का दावा किया था ।
    हबल दूरबीन के जरिए खगोल शास्त्रियों ने बौने लाल तारे ग्लीन १६३ के समीप मानव के रहने लायक एक ग्रह की खोज की । २००९ में इस दूरबीन का पुनर्जन्म हुआ था । इस छोटी-सी अवधि में हबल ने ब्रह्मांड के रहस्यों पर रोशनी डालते महत्त्वपूर्ण चित्र भेजे हैं । वर्ष के उत्तरार्द्ध में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की रिसर्च टीम ने सबसे बड़ा ब्लैक होल खोजने का दावा किया । ब्लैक होल से जुड़े अध्ययन पर इस खोज का गहरा प्रभाव पड़ेगा । एक अनुमान के अनुसार ब्रह्मांड में ४०० से अधिक ब्लैक होल हो सकते हैं ।
    भारत में गणित जगत की विलक्षण प्रतिभा श्रीनिवास रामानुजन की १२५वीं जयंती राष्ट्रीय गणित वर्ष के रूप में मनाई गई । इसका उद्देश्य स्कूल से लेकर उच्चतर शोध तक गणित को प्रोत्साहित करना और आम लोगों में गणित के प्रति जागरूकता पैदा करना था । सभी विज्ञानों में गणित को क्वीन का स्थान प्राप्त् है ।
    बीते वर्ष भी स्टेम कोशिकाआें पर शोध जारी रहा और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के अध्येताआें ने रक्त से ही स्टेम कोशिकाएं बनाने में सफलता प्राप्त् की ।
    जून में रियो डी जेनेरो में पृथ्वी सम्मेलन हुआ, जिसे रियो प्लस २० नाम दिया गया । इसमें टिकाऊ विकास, हरित अर्थ व्यवस्था और पर्यावरण से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर विचार मंथन किया गया । इसी वर्ष अक्टुबर में हैदराबाद में जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र का ११वां अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन १९ दिनों तक चला, जिसमें १९२ देशों ने हिस्सा लिया । सम्मेलन में जैव विविधता से जुड़े ३० प्रस्तावों पर विचार-विनियम हुआ, लेकिन दो पर सहमति नहीं बना । ये दोनों ही प्रस्ताव जैव विविधता के आर्थिक पक्ष से संबंधित हैं ।
    वर्ष २०१२ में भौतिक शास्त्र का सबसे बड़ा और पहला पुरस्कार भारत के प्रोफेसर अशोक सेन को दिया गया । उन्होंने स्ंट्रिग थ्योरी पर महत्त्वपूर्ण शोध किया है । प्रोफेसर सेन इलाहाबाद के हरीशचंद्र रिसर्च इंस्टीट्यूट से जुड़े हैं । ५६ वर्षीय सेन को पुरस्कार के रूप में तीस लाख डॉलर मिले हैं जो नोबेल पुरस्कार से तीन गुना अधिक है ।
    विदा हो चुके वर्ष में विज्ञान का प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार तीन अमरीकी वैज्ञानिकों सहित छह अनुसंधानकर्ताआें को प्रदान किया गया । समीक्षकों का मानना है कि विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों में अमेरिका का वर्चस्व कायम है । इस बार चिकित्सा विज्ञान का नोबेल सम्मान जापानी शोधार्थी शिनाया यामानाका और ब्रिटेन के जॉन गर्डन को स्टेम कोशिकाआें पर महत्त्वपूर्ण शोधकार्य के लिए संयुक्त रूप से दिया गया । यामानाका पहले ही विज्ञान के दो प्रतिष्ठित सम्मान अल्बर्ट लास्कर अवार्ड २००९ एवं वुल्फ पुरस्कार २०११ ग्रहण कर चुके हैं । जापान को दो दशकों बाद यह सम्मान मिला है ।
    रसायन शास्त्र का नोबेल पुरस्कार दो अमरीकी अध्येताआें रॉबर्ट लेफकोविज तथा ब्रायन कोबिल्का को जी-प्रोटीन युग्मित ग्राहियों पर अनुसंधान के लिए दिया गया है ।
    भौतिकी का नोबेल पुरस्कार फ्रांस के सर्ज हरोश तथा अमरीकी डेविड वाइनलैंड को क्वांटम भौतिकी में योगदान के लिए प्रदान किया  गया ।
    विदा हो चुके साल में वैज्ञानिक दृष्टिकोध के ध्वज को फहराने का प्रयास भी जारी रहा । इसी थीम पर दिल्ली में पहली बार हिंदी में अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ, जिसका आयोजन सीएसआईआर के निस्केयर संस्थान ने किया था ।
    गुजरे वर्ष में एक्स-रे क्रिस्टेलोग्रॉफी की खोज के सौ साल पूरे हुए और शताब्दी वर्ष मनाया   गया । इस वर्ष यूनेस्को के कलिंग पुरस्कार की हीरक जंयती भी मनाई गई । विज्ञान लोकप्रियकरण के इस अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार की शुरूआत १९५२ में की गई थी । वर्ष २०१२ में इंडियन बॉटेनिकल गार्डन ने अपनी स्थापना के २२५ वर्ष पूरे किए ।
    वर्ष २०१२ में हमने विज्ञान जगत की कई महान हस्तियों को खो दिया । ५ जून को प्रख्यात अमरीकी विज्ञान लेखक रे डगलस बेरी का निधन हो गया । उन्होंने विज्ञान कथाआें को साहित्य की मुख्यधारा में लाने में विशिष्ट भूमिका निभाई थी ।
    इसी वर्ष ६ फरवरी को हिंदी में विज्ञान के प्रतिष्ठित लेखक रमेशदत्त शर्मा नहीं रहे । उन्होंने विज्ञान लेखन में नए मुहावरों का प्रयोग किया और अपनी विशिष्ट पहचान बनाई । वे कई वर्षोंा तक खेती पत्रिका के सम्पादक रहे । 
    २३ जुलाई को अमरिका की प्रथम महिला अंतरिक्ष यात्री सैली राइड का निधन हो गया । वे अंतरिक्ष यात्रा पर जाने वाली सबसे युवा महिला थी । चंद्रमा पर कदम रखने वाले दुनिया के पहले व्यक्ति नील आर्मस्ट्रांग ने २५ अगस्त को विदा ले ली । उन्होंने ३८ वर्ष की उम्र में २० जुलाई १९६९ को चंद्रमा पर कदम रखा था । पहली बार किडनी का सफल प्रत्यारोपण करने वाले डॉ. जोसेफ ई. मुरे २६ नवम्बर को चल बसे ।
    जीनोमिक्स, पार्टिकल फिजिक्स, जैनो टेक्नॉलॉजी, सिंथेटिक बॉयोलॉजी, पुनर्मिश्रित डीएनए टेक्नॉलॉजी जैसे अग्रणी विषयों में अनुसंधान से प्रौद्योगिकी समृद्ध होती जा रही है, जिसकी झलक विदा हो चुके साल में भी दिखाई दी । 
महिला दिवस पर विशेष
सिर्फ कागजोंपर न रहे महिला नीति
रोली शिवहरे/प्रशांत दुबे
    यह सच है कि एक राज्य महिला नीति बनाते समय महिलाआें को समता, समानता, गरिमा व क्षमताआें के साथ महिला को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने की बात करता है लेकिन दूसरी ओर उसी महिला की गरिमा के साथ खिलवाड़ करते हुये कन्यादान योजना लागू करता है । खबर यह भी है कि नई महिला नीति का प्रारूप भी इस पर मौन है और नीति नियंता भी ।
    देश में पहली महिला नीति बनाने का तमगा हासिल करने वाले विगत एक साल से बगैर महिला नीति की सांसे भरते मध्यप्रदेश में नई महिला नीति को बनाने की कवायद जोर-शोर से चल रही है । महिला एवं बाल विकास विभाग और प्रशासन अकादमी की महिला शाखा इस पर कसरत कर रही है । यह सब बहुत ही जल्दबाजी में हो रहा है । यह खबर है कि प्रदेश के लोकप्रिय मुख्यमंत्री इस नीति को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर लागू कर इसे भुनाना चाहते है । यह जनसंपर्क विभाग का एक महत्वपूर्ण काम है कि चुनावी सालोंमें दिवसों की महत्ता को जम कर भुनायें और कमोबेश वही हो रहा है । बहरहाल जल्दबाजी में बन रही इस महिला नीति के काफी उथले होने के आसार भी है । इस घनघोर जल्दबाजी मेंदुष्यन्त बरबस ही याद आते हैं ।  बाढ़ की संभावनायें सामने हैं और नदियों के किनारे घर बने हैं ।  बहरहाल महिला संगठन भी कसरत कर महिलाआें के पक्ष की बातें इस नीति में डलवाने की पुरजोर उठा-पटक कर रहे हैं । यदि ८ मार्च को महिला नीति घोषित नहीं भी हो पाई तो भी देर-सबेर महिला नीति बन ही जायेगी ।
     परन्तु यहां सवाल दूसरा है कि क्या यह नीतियां रस्मअदायगी ही होती हैं कि यदि विकास के तराजू पर तौलते समय महिलाआें के उत्थान की बात की जाये तो राज्य कह सके कि हमने महिला नीति बनाई है ।  पर इस बात पर सरकार कितनी गंभीर है कि पहले लागू की गई महिला नीति के क्रियान्वयन का क्या स्तर रहा है ? पिछली महिला नीति २००८-२०१२ में सरकार ने कुछ महत्त्वपूर्ण प्रावधान किये थे पर छ: साल बाद भी ढांक के तीन पात, तो फिर ऐसी महिला नीति क्यों बनें.......? क्या यह नीतियां दिखावे या वेबसाईट पर शोभा बढ़ाने के काम आती हैं ताकि जब गूगल पर सर्च किया जाये तो टप से उछल कर महिला नीति, मध्यप्रदेश सामने आ जाये और महिलाआें के हक में मध्यप्रदेश का यशगान गाया जा सकें ।
    क्या यह नीतियां मुख्यमंत्री और प्रशासन के खम ठोंकने के काम ही आती है या इसमें महिलाआें की या संदर्भित समूह के उत्थान की वास्तविक चिंता भी समाहित होती   है । हमारा अनुभव आधारित जवाब है   नहीं । आईये जरा पुरानी महिला नीति २००८-१२ के कुछ प्रमुख प्रावधानों को कुरेदें तो हम पाते हैं कि जो  कहा उसका धरातल पर कुछ ज्यादा नहीं  हुआ हैं । पुरानी महिला नीति के एक लक्ष्य में ही कहा गया है कि महिला से संबंधित नीतियों, विधियों कार्यक्रमों, योजनाआें का परिणाममूलक क्रियान्वयन सुनिश्चित हो, पर ऐसा हुआ नहीं ।
    अव्वल तो यही कि महिला अत्याचारों पर प्रदेश अव्वल होने का दंश झेल रहे प्रदेश के प्रत्येक पुलिस थानों में महिला पुलिस अधिकारी की नियुक्ति करने की बात कही गई थी परन्तु अभी तक प्रदेश में ऐसी कोई नियुक्तियां नहीं हुई । ट्रेफिकिंग को रोकने के लिये निगरानी व्यवस्था बनाई जानी    थी । परन्तु ऐसा हुआ नहीं, बल्कि ट्रेफिकिंग पिछले पांच सालों में और बढ़ी है । केवल सात सालों में ही ८१०८ बालिकाआें की गुमशुदगी दर्च है जो कहां गई किसी को कुछ पता नहीं ।
    महिलाआें के भू अधिकारों के संदर्भ में समानाधिकार दिये जाने पर जोर दिया गया था, लेकिन इसी राज्य सरकार ने महिलाआें के नाम पर रजिस्ट्री करने पर १ प्रतिशत शुल्क लगाने के प्रावधान तक को खत्म कर दिया और अब स्थिति जस की तस है । इसके लिए कानून भी बनाया जाना था, परन्तु उस पर भी कोई बात आगे नहीं बढ़ी । एनएफएचएस के अनुसार ५६ फीसदी खून की कमी वाली महिलाआें के प्रदेश में किशोरी स्वास्थ्य को बेहतर करने और पौषण देने की बात पिछली नीति में कही गई थी लेकिन अभी भी यह सरकार हर गांव में केवलदो ही किशोरी बालिकाआें को पोषण आहार उपलब्ध करवा रही है, ना कि सभी बालिकाआें   को । सबल योजना भी प्रदेश के १५ जिलों तक सीमित है बाकी ३५ जिलों के लिए कुछ   नहीं ।
    नीति यह भी कहती थी कि गर्भकाल में महिलाआें को भी मेहनत करवाने से ठेकेदार पर कार्यवाही  होगी । परन्तु एक भी ठेकेदार के खिलाफ प्रदेश में कोई आज तक कोई भी कार्यवाही नहीं हुई बल्कि गर्भवती महिलायें तो मनरेगा (सरकारी कार्यक्रमों में ही) में भी काम करती पाई जा रही    हैं । इस पूरे मसले पर हर साल महिलाआें की स्थिति पर नवीन आंकड़ों और राज्य स्तर पर उठाये जा रहे कदमों के संबंध में एक स्थिति पत्र बनाने और उसे सार्वजनिक करने की जिम्मेदारी योजना आर्थिक एवं सांख्यिकी विभाग की थी, लेकिन अब तक यह पत्र एक बार भी नहीं निकला है । क्रियान्वयन की निगरानी इसी विभाग के पास थी लेकिन निगरानी हुई होती तो शायद हमें यह मर्सिया गाने की जरूरत थी ही नहीं ।
    हां कुछ हुआ है तो वह है पंचायती राज्य एवं शहरी निकायों में महिलाआें को ५० फीसदी आरक्षण । यह काबिल-ए-गौर काम है और इसलिये सरकार बधाई की पात्र है लेकिन यह भी देखना सरकार का ही काम है कि उनकी क्षमतावृद्धि कैसे की जाये ताकि वे यह काम बेहतर तरीके से कर  सकें । इसी प्रकार बालिका भ्रूण हत्या की रोकथाम और बालिका शिक्षा पर तो ध्यान दिया जा रहा है पर बालिकायें स्कूल क्यों छोड़ती हैं उस पर ज्यादा कसरत नहीं हुई    है ।
    पिछली महिला नीति में सरकार ने यह भी कहा था कि गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाली बालिकाआें को विवाह में विशेष सहायता दी जायेगी । सरकार ने इसके लिये प्रावधान तो बढ़-चढ़कर किये पर कन्या को दान की वस्तु समझते हुये कन्यादान योजना लागू कर दी । कन्यादान शब्द यदि राज्य उपयोग करता है तो इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति नहीं होगी । समझ से परे यह भी है कि एक राज्य महिला नीति बनाते समय महिलाआें को समता, समानता, गरिमा व क्षमताआें के साथ महिला को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने की बात करता है लेकिन दूसरी ओर उसी महिला की गरिमा के साथ खिलवाड़ करते हुये कन्यादान योजना लागू करता है । खबर यह भी है कि नई महिला नीति का प्रारूप भी इस पर मौन है और नीति नियंता भी । 
    प्रदेश के तमाम महिला संगठनोंने इन सभी मुद्दों पर अपनी तल्ख टिप्पणी करते हुये यह मांग की है कि ना केवल बेहतर नीति बनाई जाये बल्कि पुरानी महिला नीति के प्रावधानों और उनके हश्र को ध्यान में रखते हुये सरकार उसका क्रियान्वयन सुनिश्चित करने का खाका भी खीचें । संगठनों का यह भी कहना है कि जल्दबाजी की बजाय प्रस्तावित महिला नीति को जनमंचों पर लाना चाहिये, उस पर गंभीर चर्चायें हों और उसके बाद ही सरकार आगे बढ़े ।
    इससे हटकर एक बड़ा सवाल कि सरकार जो नीति में लिखेगी, वो अपनाने के लिए कितना तैयार है, यह भी वह   बताये । देखना यह भी होगा कि पिछली बार के नीति दस्तावेज की प्रथम पंक्ति की तरह सरकार इस बार भी महिला को प्रकृति की सबसे सुदंर कृति बतायेगी या महिला को सुदंर और कुरूप की छबि से बाहर निकलकर ना केवल पुरूष के समकक्ष बताने का जतन करेगी बल्कि उसे आगे लाने के प्रयास भी करेगी ।
ज्ञान विज्ञान
चिड़िया सुर कैसे साधती है ?
    इंसान जब गाते हैं तो सुर का ध्यान रखने के लिए तानपुरा वगैरह यंत्र उपलब्ध होते हैं । आजकल तो गाने-बजाने में ऑटो-ट्यून तकनीक का इस्तेमाल होता है । इसकी मदद से सही सुर मिलाया जाता है । मगर गायक पक्षी आज भी पुरानी तकनीक का ही उपयोग करते हैं - सुनकर अपनी गलती को पकड़ना और दुरूस्त करना । और इस तकनीक का उपयोग करते हुए वे काफी चतुराई से काम लेते हैं । 
     संवेदी अंगों के जरिए मस्तिष्क अपने स्वामी की शारीरिक क्रियाआें पर नजर रखता है । इन अंगों से प्राप्त् फीडबैक के आधार पर वह गलतियों को सुधारता चलता है । सीखने सम्बंधी कई मॉडल्स मानते हैं कि गलती जितनी बड़ी होगी, सुधार भी उतना ही बड़ा किया जाएगा ।
    मगर एमरी विश्वविद्यालय के सेमुअल सोबर और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के माइकेल ब्रेनार्ड का विचार था कि मामला इतना सरल नहीं हो सकता, इसमें कोई पेंच   होगा । यदि मामला इतना सरल होता तो पक्षियों की तो शामत आ जाती क्योंकि बाहरी आवाजों को सुनकर वे भ्रमित होते रहते और अपनी गलतिया सुधारते रहते । ऐसे में यदि बाहरी आवाज बहुत अलग सुर में हुई तो पक्षी का तो गाना मुहाल हो जाएगा ।
    इसकी जांच के लिए सोबर और ब्रेनार्ड ने कुछ बंगाली फिंच पक्षी लिए । उन्हें किसी प्रकार से भ्रमित कर दियाकि वे बेसुरा गा रह हैं । इसके बाद यह नापने की कोशिश की कि इसका मस्तिष्क पर क्या असर होता है और मस्तिष्क क्या प्रतिक्रिया करता है ।
    उन्होंने पक्षियों के कानों पर बढ़िया हेडफोन्स लगा दिए । इन हेडफोन्स के जरिए उन्हें उनका ही गाना सुनाया गया मगर बीच में गाने को इस तरह परिवर्तित किया गया कि वह वास्तविक गाने की अपेक्षा ऊंचे सुर में सुनाई पड़ता था । सुर में परिवर्तन क्रमिक रूप से किया    गया । देखा गया कि पक्षी अपनी गलती को बेहतर ढंग से सुधारते हैं जब उनके गाने और हेडफोन के जरिए सुनाई पड़ रहे गाने में अंतर कम हों । यदि अंतर बहुत ज्यादा होता तो वे उसे अनदेखा कर देते थे । यह भी पता चला कि वे गलतियों पर तभी ध्यान देते थे जब यह अंतर पक्षी गीत कर स्वाभाविक घट-बढ़ की सीमा में होता, और उसे दुरूस्त करने में ज्यादा तत्परता दिखाते थे । लेकिन इस सीमा के बाहर की गलतियों को अनदेखा किया जाता था ।

दुनिया में बढ़ती भुखमरी से मुक्ति दिलाएगा जीन
    वैज्ञानिकों ने कहा है कि एक नया जीन पानी, उर्वरक और कृषि योग्य जमीन की मौजूदा उपलब्धता में ही २०५० तक दुनिया की ९.५ अरब तक पंहुचने जा रही आबादी का पेट भरने की चिंता से मुक्ति दिला सकता है । नए जीन को स्कैरेक्रोव नाम दिया गया है जिसे कार्नेल विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताआें ने पृथक करने में सफलता हासिल की  है । इससे प्रमुख फसलों का ५० प्रतिशत अधिक उत्पादन हो सकता है जिससे बढ़ती आबादी का पेट भरा जा सकता है । 
प्लांट एंड सेल फीजियोलॉजी पत्रिका की रिपोर्ट के मुताबिक, विशेष पत्ती संरचना जिसे जांज एनाटॉमी (शरीर रचना) के नाम से जाना जाता है, के नियंत्रण के लिए खोजा गया स्कैरेक्रोव पहला जीन है । कॉर्नेल के बयान के मुताबिक, पौधे प्रकाश संश्लेषण में दो में से एक पद्धति अपनाते हैं । सी३, एक कम प्रभावी, प्राचीन पद्धति जो गेहूं और धान सहित अधिकांश पौधों में पाया जाता है । और सी४ अत्यंत प्रभावी संयोजन जिसका इस्तेमाल घास, मक्का, ज्वार और गन्ने के पौधे करते हैं और यह सुखा,अत्यंत तेज धूप, ताप और न्यून नाइट-जिन के लिए अत्यंत  उपयुक्त होता है । प्लांट फीजियोलॉजी के प्रोफेसर रोबर्ट टुर्गेऑन के साथ अध्ययन के सह लेखक थॉमस स्लेविंस्की ने कहा, अनुसंधानकर्ताआेंने जांज एनाटॉमी में छिपे अनुवांशिक गुणों को पता लगाने का प्रयास किया ताकि हम उसे सी३ फसलों में स्थापित कर सकें । टुर्गेऑन ने कहा, संपूर्ण एनाटॉमी किस तरह संचालित होती है इसे समझने के लिए खोज ने सुराग दिया है । अभी बहुत अध्ययन बाकी है, लेकिन अब अनाज के गोदाम का दरवाजा खुल चुका है औश्र आप स्कैरेक्रोव पर लोगों को काम करते हुए देख सकेंगे । 
हिमालय में फूलों की मनोरम घाटी
    उत्तराखंड में चमोली (गढ़वाल) जिले और नेपाल-तिब्बत के सीमा से घिरी है बेहद खूबसूरत फूलों की घाटी फ्लावर नेशनल   पार्क । हिमालय की ऊंची घाटियों में स्थित इस पार्क में लगभग ३०० तरह के एलपाइन फूल पाए जाते हैं ।  जिससे बर्फ से ढंके पहाड़ों के आगे ऐसा लगता है मानों रंग-बिरंगी कालीन बिछी हों । लगभग ५५ मील में फैले इस पार्क को १९८२ में राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा मिला । यह उद्यान नंदा देवी नेशनल पार्क के पास ही है । यह दिल्ली से ५९५ किलोमीटर दूर है । फूलों की यह घाटी जून से लेकर सिंतबर तक खुलती है । बाद में यह पूरी घाटी बर्फ से ढंक जाती है । 
 अगर यहां के फूलों का खूबसूरत नजारा देखना चाहते हैं, तो जुलाई से अगस्त तक का समय सबसे बेहतर है । यहां की पहली बारिश के बाद फूलों की खूबसूरती देखते बनती है । जुलाई से पहले इस घाटी में एक भी फूल नहीं खिलता । इस समय पहाड़ों से पिघलती बर्फ का आंनद लिया जा सकता है । जुलाई से अगस्त तक यह घाटी फूलों से भर जाती हैं पर अगस्त खत्म होत-होते फूल अपने आप ही पीले पड़ने लगते हैं और धीर-धीरे मुरझा जाते हैं । मौसम की बात करें, तो यहां की रात और सुबह काफी ठंडी होती है ।
    हालांकि इस घाटी की चढ़ाई काफी मुश्किल है मगर यहां आकर ऐसा लगता है मानो आप किसी जादू की नगरी में आ गए हैं । चारों तरफ का वातावरण सुकून और शांति प्रदान करता है । वैली ऑफ फ्लावर के रास्ते में अनगिनत फूल अपनी खूबसूरती से आपका मन मोह    लेगें । ऐसा प्रतीत होता है मानो उस घाटी में आने के लिए फूल आपका स्वागत कर रहे हों । फूलों के अलावा यहां ऐसे जानवर देखे जा सकते हैं, जो लगभग विलुप्त् हो रहे हैं । जैसे - स्नो लेपर्ड, ब्राउन बीयर, ब्लू शीप, एशियाटिक बल्ैक बीयर । सन् १८८२ में इसे राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा मिलने के बाद अब यह वर्ल्ड हेरिटेज साइट भी बन गया है । वहां के निवासी यह मानते हैं कि फूलों की घाटी में परियों का निवास है । यह ट्रेकिंग के लिए भी अच्छी जगह है । सन् १९३१ में इस जगह की खोज ब्रिटिश माउनटेनियर्स ने की थी और उन्होंने ही इस खूबसूरत घाटी को वैली ऑफ फ्लावर्स नाम दिया था । उन्होंने इस पर किताब भी लिखी थी ।
मच्छर को मलेरिया क्यों नहीं होता ?
    कई लोग मानते हैं कि मच्छर कीट जगत का जैव-आतंकवादी है । मच्छर जब इंसान के खून की दावत उड़ाता है (उड़ाती है कहना बेहतर होगा) तो तमाम किस्म की बीमारियां भी फैलाता है। ऐसी सारी बीमारियों के कीटाणु मच्छर के शरीर में रहते है । फिर मच्छर खुद क्यों बीमार नहीं होते ?
      दरअसल जब कोई मच्छर इंसान का खून पीता है तो उस इंसान के खून में मौजूद रोगजनक कीटाणु मच्छर के शरीर में पहुंच जाते हैं । ये मच्छर की आंत में पहुंचते हैं और वहां से खून में बहते हुए लार ग्रंथि में पहुंच जाते हैं । अगली बार जब मच्छर किसी इंसान को काटता है तो लार ग्रंथि में मौजूद ये कीटाणु उसके शरीर में पहुंच जाते हैं और चक्र फिर से शुरू हो जाता है ।
    जब ये कीटाणु मच्छर के रक्त प्रवाह में ह्दय में पहुंचते हैं तो वहां खून के प्रवाह में कोई गतिरोध पैदा नहीं करते हैं ।
कविता
पितृ छाया
प्रेम वल्लभ पुरोहित राही

    गाँव में पानी स्त्रोत के पास
    पूर्वजों का पाला-पोसा
    बुढ़ा-बुजुर्ग देवतुल्य पीपल का वृक्ष
    कई दशकों से आते-जाते
    गाँव में पलायन की वेदना झेलते
    बचे-कुचे कुछ लोगों को
    छाया-प्रतिबिम्बित करते आ रहा
    कि पलायन की पीड़ा । मुझे मरने को विवश कर रही ।
    मैं, जिन्दा हूँ तो-अपनों के ढेर सारे स्नेहिल प्यार से
    लेकिन अब किसी का आना-जाना नहीं.....
    मेरे मरने पर । देख नहीं  पाओगे
    अपने पितृों की छाया
    जिन्हें कई पीढ़ियों से मेरी शाखाआें में
    सुरक्षित हैं उनकी आत्मायें
    तभी तो देख पाते हो तुम, उनकी पितृात्माआें को
    हाँ, चाहते हो पूर्वजों की छाया निरंतर देखना
    तो, हम सभी वृक्षों को संवारते जाना
    लगा लेना गाँव के चौं-दिशा
    अपने पूर्वजों के नाम के पीपल, आम और वट वृक्ष
    दिखती रहे युग-युगोंतक पूर्वजों की छाया
    और, सबको मिलती रहे- पितृ छाया ।
पर्यावरण समाचार
जीएम फसलों को लेकर सरकारी दावे आधारहीन
    भारत में बीटी-बैंगन के स्थगन की तीसरी बरसी पर पूरे देश के करीब १५० वैज्ञानिकों ने पर्यावरण  व वन मंत्री (एमओइएफ) को पत्र लिख कर बताया है कि जीएम फसलों को लेकर खाघान्न सुरक्षा के जितने भी दावे हैं - वे आधारहीन और भ्रामक है ।
    इन वैज्ञानिकों ने निराशा जताई है कि ट्रांसजेनिक (जीन-संवर्द्धित) फसलों के नियमन के लिए जिम्मेदार पर्यावरण व वन मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में जीएमओ (जीन-संवर्द्धित संघटन) मामले की जनहित याचिका (पीआईएल) पर भारत सरकार की ओर से कृषि मंत्रालय को पक्ष रखने की अनुमति दे दी । पत्र में उन्होनें इशारा किया है कि खाद्यान्न सुरक्षा (फूड सिक्योरिटी) का अनिवार्य हिस्सा खाद्यान्न की सलामती भी (फूड सेफ्टी) है । इससे पहले २०१२ के नवम्बर में कृषि मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में यह दलील दी थी कि खाद्यान्न सुरक्षा के लिए ट्रांसजेनिक फसलें बेहद जरूरी है और भारत में इसके नियंत्रण की व्यवस्था मजबूत और दुरूस्त है ।
    जीएम-मुक्त भारत के लिए बने गठबंधन के संयोजक श्रीधर राधाकृष्णन ने कहा कि हम वन व पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने उस वैज्ञानिकता व स्वाधीनता को दर्ज करने की मांग करते हैं, तो उनके पूर्ववर्ती मंत्री ने दिखाई थी और बीटी-बैंगन को भारत का पहला जीएम खाद्यान्न बनने से रोका था । जीएम मुक्त भारत के लिए गठबंधन की सदस्य कविता कुरूगंती व्याख्या करते हुए बताती है कि दोषपूर्ण तकनीक जैसे ट्रांसजेनिक फसलें खाद्यान्न सुरक्षा से संबंधित नहीं है । वह कहती हैं कि पूरे देश के वैज्ञानिकों की ओर जंयती नटराजन को भेजी गई चिट्ठी साफ तौर पर दिखाती है कि खेती में उत्पादन को बढ़ाने के लिए गैर-ट्रांसजेनिक विकल्प मौजूद है ।
    मगर लोग इसे आपूर्ति की तरफ से समस्याप्रद मानते है । वैसे, यह समझना महत्वपूर्ण है कि आज खाघान्न सुरक्षा केवल खाघान्न उत्पादन के बारे में नहीं है, बल्कि गरीबी, आजीविका और विकास के बारे में भी है ।