सोमवार, 11 मार्च 2013

महिला दिवस पर विशेष
सिर्फ कागजोंपर न रहे महिला नीति
रोली शिवहरे/प्रशांत दुबे
    यह सच है कि एक राज्य महिला नीति बनाते समय महिलाआें को समता, समानता, गरिमा व क्षमताआें के साथ महिला को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने की बात करता है लेकिन दूसरी ओर उसी महिला की गरिमा के साथ खिलवाड़ करते हुये कन्यादान योजना लागू करता है । खबर यह भी है कि नई महिला नीति का प्रारूप भी इस पर मौन है और नीति नियंता भी ।
    देश में पहली महिला नीति बनाने का तमगा हासिल करने वाले विगत एक साल से बगैर महिला नीति की सांसे भरते मध्यप्रदेश में नई महिला नीति को बनाने की कवायद जोर-शोर से चल रही है । महिला एवं बाल विकास विभाग और प्रशासन अकादमी की महिला शाखा इस पर कसरत कर रही है । यह सब बहुत ही जल्दबाजी में हो रहा है । यह खबर है कि प्रदेश के लोकप्रिय मुख्यमंत्री इस नीति को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर लागू कर इसे भुनाना चाहते है । यह जनसंपर्क विभाग का एक महत्वपूर्ण काम है कि चुनावी सालोंमें दिवसों की महत्ता को जम कर भुनायें और कमोबेश वही हो रहा है । बहरहाल जल्दबाजी में बन रही इस महिला नीति के काफी उथले होने के आसार भी है । इस घनघोर जल्दबाजी मेंदुष्यन्त बरबस ही याद आते हैं ।  बाढ़ की संभावनायें सामने हैं और नदियों के किनारे घर बने हैं ।  बहरहाल महिला संगठन भी कसरत कर महिलाआें के पक्ष की बातें इस नीति में डलवाने की पुरजोर उठा-पटक कर रहे हैं । यदि ८ मार्च को महिला नीति घोषित नहीं भी हो पाई तो भी देर-सबेर महिला नीति बन ही जायेगी ।
     परन्तु यहां सवाल दूसरा है कि क्या यह नीतियां रस्मअदायगी ही होती हैं कि यदि विकास के तराजू पर तौलते समय महिलाआें के उत्थान की बात की जाये तो राज्य कह सके कि हमने महिला नीति बनाई है ।  पर इस बात पर सरकार कितनी गंभीर है कि पहले लागू की गई महिला नीति के क्रियान्वयन का क्या स्तर रहा है ? पिछली महिला नीति २००८-२०१२ में सरकार ने कुछ महत्त्वपूर्ण प्रावधान किये थे पर छ: साल बाद भी ढांक के तीन पात, तो फिर ऐसी महिला नीति क्यों बनें.......? क्या यह नीतियां दिखावे या वेबसाईट पर शोभा बढ़ाने के काम आती हैं ताकि जब गूगल पर सर्च किया जाये तो टप से उछल कर महिला नीति, मध्यप्रदेश सामने आ जाये और महिलाआें के हक में मध्यप्रदेश का यशगान गाया जा सकें ।
    क्या यह नीतियां मुख्यमंत्री और प्रशासन के खम ठोंकने के काम ही आती है या इसमें महिलाआें की या संदर्भित समूह के उत्थान की वास्तविक चिंता भी समाहित होती   है । हमारा अनुभव आधारित जवाब है   नहीं । आईये जरा पुरानी महिला नीति २००८-१२ के कुछ प्रमुख प्रावधानों को कुरेदें तो हम पाते हैं कि जो  कहा उसका धरातल पर कुछ ज्यादा नहीं  हुआ हैं । पुरानी महिला नीति के एक लक्ष्य में ही कहा गया है कि महिला से संबंधित नीतियों, विधियों कार्यक्रमों, योजनाआें का परिणाममूलक क्रियान्वयन सुनिश्चित हो, पर ऐसा हुआ नहीं ।
    अव्वल तो यही कि महिला अत्याचारों पर प्रदेश अव्वल होने का दंश झेल रहे प्रदेश के प्रत्येक पुलिस थानों में महिला पुलिस अधिकारी की नियुक्ति करने की बात कही गई थी परन्तु अभी तक प्रदेश में ऐसी कोई नियुक्तियां नहीं हुई । ट्रेफिकिंग को रोकने के लिये निगरानी व्यवस्था बनाई जानी    थी । परन्तु ऐसा हुआ नहीं, बल्कि ट्रेफिकिंग पिछले पांच सालों में और बढ़ी है । केवल सात सालों में ही ८१०८ बालिकाआें की गुमशुदगी दर्च है जो कहां गई किसी को कुछ पता नहीं ।
    महिलाआें के भू अधिकारों के संदर्भ में समानाधिकार दिये जाने पर जोर दिया गया था, लेकिन इसी राज्य सरकार ने महिलाआें के नाम पर रजिस्ट्री करने पर १ प्रतिशत शुल्क लगाने के प्रावधान तक को खत्म कर दिया और अब स्थिति जस की तस है । इसके लिए कानून भी बनाया जाना था, परन्तु उस पर भी कोई बात आगे नहीं बढ़ी । एनएफएचएस के अनुसार ५६ फीसदी खून की कमी वाली महिलाआें के प्रदेश में किशोरी स्वास्थ्य को बेहतर करने और पौषण देने की बात पिछली नीति में कही गई थी लेकिन अभी भी यह सरकार हर गांव में केवलदो ही किशोरी बालिकाआें को पोषण आहार उपलब्ध करवा रही है, ना कि सभी बालिकाआें   को । सबल योजना भी प्रदेश के १५ जिलों तक सीमित है बाकी ३५ जिलों के लिए कुछ   नहीं ।
    नीति यह भी कहती थी कि गर्भकाल में महिलाआें को भी मेहनत करवाने से ठेकेदार पर कार्यवाही  होगी । परन्तु एक भी ठेकेदार के खिलाफ प्रदेश में कोई आज तक कोई भी कार्यवाही नहीं हुई बल्कि गर्भवती महिलायें तो मनरेगा (सरकारी कार्यक्रमों में ही) में भी काम करती पाई जा रही    हैं । इस पूरे मसले पर हर साल महिलाआें की स्थिति पर नवीन आंकड़ों और राज्य स्तर पर उठाये जा रहे कदमों के संबंध में एक स्थिति पत्र बनाने और उसे सार्वजनिक करने की जिम्मेदारी योजना आर्थिक एवं सांख्यिकी विभाग की थी, लेकिन अब तक यह पत्र एक बार भी नहीं निकला है । क्रियान्वयन की निगरानी इसी विभाग के पास थी लेकिन निगरानी हुई होती तो शायद हमें यह मर्सिया गाने की जरूरत थी ही नहीं ।
    हां कुछ हुआ है तो वह है पंचायती राज्य एवं शहरी निकायों में महिलाआें को ५० फीसदी आरक्षण । यह काबिल-ए-गौर काम है और इसलिये सरकार बधाई की पात्र है लेकिन यह भी देखना सरकार का ही काम है कि उनकी क्षमतावृद्धि कैसे की जाये ताकि वे यह काम बेहतर तरीके से कर  सकें । इसी प्रकार बालिका भ्रूण हत्या की रोकथाम और बालिका शिक्षा पर तो ध्यान दिया जा रहा है पर बालिकायें स्कूल क्यों छोड़ती हैं उस पर ज्यादा कसरत नहीं हुई    है ।
    पिछली महिला नीति में सरकार ने यह भी कहा था कि गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाली बालिकाआें को विवाह में विशेष सहायता दी जायेगी । सरकार ने इसके लिये प्रावधान तो बढ़-चढ़कर किये पर कन्या को दान की वस्तु समझते हुये कन्यादान योजना लागू कर दी । कन्यादान शब्द यदि राज्य उपयोग करता है तो इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति नहीं होगी । समझ से परे यह भी है कि एक राज्य महिला नीति बनाते समय महिलाआें को समता, समानता, गरिमा व क्षमताआें के साथ महिला को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने की बात करता है लेकिन दूसरी ओर उसी महिला की गरिमा के साथ खिलवाड़ करते हुये कन्यादान योजना लागू करता है । खबर यह भी है कि नई महिला नीति का प्रारूप भी इस पर मौन है और नीति नियंता भी । 
    प्रदेश के तमाम महिला संगठनोंने इन सभी मुद्दों पर अपनी तल्ख टिप्पणी करते हुये यह मांग की है कि ना केवल बेहतर नीति बनाई जाये बल्कि पुरानी महिला नीति के प्रावधानों और उनके हश्र को ध्यान में रखते हुये सरकार उसका क्रियान्वयन सुनिश्चित करने का खाका भी खीचें । संगठनों का यह भी कहना है कि जल्दबाजी की बजाय प्रस्तावित महिला नीति को जनमंचों पर लाना चाहिये, उस पर गंभीर चर्चायें हों और उसके बाद ही सरकार आगे बढ़े ।
    इससे हटकर एक बड़ा सवाल कि सरकार जो नीति में लिखेगी, वो अपनाने के लिए कितना तैयार है, यह भी वह   बताये । देखना यह भी होगा कि पिछली बार के नीति दस्तावेज की प्रथम पंक्ति की तरह सरकार इस बार भी महिला को प्रकृति की सबसे सुदंर कृति बतायेगी या महिला को सुदंर और कुरूप की छबि से बाहर निकलकर ना केवल पुरूष के समकक्ष बताने का जतन करेगी बल्कि उसे आगे लाने के प्रयास भी करेगी ।

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