विश्व वानिकी दिवस पर विशेष
जैव विविधता : संकट में है जीवन की विरासत
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
हमारी धरती पर जीव जन्तु एवं वनस्पतियां सर्वत्र पायी जाती है इन्हें रंग रूप आकार-प्रकार एवं गुणधर्म के आधार पर अनेक वर्गो में विभाजित किया गया है । यदि सम्पूर्ण पृथ्वी को एक इकाई मान लिया जाये तो इस पर मौजूद सभी जीव जन्तुआें और वनस्पतियों की विविधता ही जैवविविधता है ।
जीवन की विविधता का विस्तार ही जैव विविधता है । जीवन में विभिन्न प्रकार की वनस्पति, प्राणी और सूक्ष्म जीव तथा इनके आवास, प्राकृतिक क्षैत्र एवं प्राकृतिक वातावरण सम्मिलित है । विविधता मेंअनुवांशिक विविधता, प्रजातीय विविधता, कृषि जैव विविधता एवं पारितत्र विविधता प्रमुख है । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू.एन.ई.पी.) द्वारा १९९२ में जैव विविधता की परिभाषा करते कहा गया था जैव विविधता जीन प्रजातियां तथा पारितंत्रों का समस्त योग है ।
जैव विविधता : संकट में है जीवन की विरासत
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
हमारी धरती पर जीव जन्तु एवं वनस्पतियां सर्वत्र पायी जाती है इन्हें रंग रूप आकार-प्रकार एवं गुणधर्म के आधार पर अनेक वर्गो में विभाजित किया गया है । यदि सम्पूर्ण पृथ्वी को एक इकाई मान लिया जाये तो इस पर मौजूद सभी जीव जन्तुआें और वनस्पतियों की विविधता ही जैवविविधता है ।
जीवन की विविधता का विस्तार ही जैव विविधता है । जीवन में विभिन्न प्रकार की वनस्पति, प्राणी और सूक्ष्म जीव तथा इनके आवास, प्राकृतिक क्षैत्र एवं प्राकृतिक वातावरण सम्मिलित है । विविधता मेंअनुवांशिक विविधता, प्रजातीय विविधता, कृषि जैव विविधता एवं पारितत्र विविधता प्रमुख है । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू.एन.ई.पी.) द्वारा १९९२ में जैव विविधता की परिभाषा करते कहा गया था जैव विविधता जीन प्रजातियां तथा पारितंत्रों का समस्त योग है ।
पहले जैव विविधता शब्द के स्थान पर प्राकृतिक विविधता शब्द का प्रयोग होता था, बाद में थोड़े दिनों तक जैविक विविधता शब्द का भी उपयोग हुआ । सन् १९८५-८६ में पहली बार जैव विविधता शब्द प्रचलन में आया । जनसंचार की दृष्टि से जैव विविधता शब्द जैविक विविधता से अधिक बोधगम्य है, इसलिये यह शब्द शीघ्र ही सारी दुनिया में प्रचलित हो गया । पृथ्वी पर लगभग १८ लाख जीव प्रजातियों की पहचान की गयी है, जो धरती की जैव विविधता को समृद्ध बनाती है । वर्तमान में इनमें से कई प्रजातियां विलुप्त् होती जा रही है, जो चिन्ता का विषय है ।
जैव विविधता का आर्थिक, सामाजिक, सास्कृतिक और पर्यावरणीय महत्व है । जैव विविधता से हमारे लिये भोजन तथा औषधियां और उद्योगों को कच्च माल उपलब्ध होता है । बाजार से खरीदी जाने वाली ज्यादातर वस्तुआें की आपूर्ति पृथ्वी की जैव विविधता पर ही आश्रित है । ह्दयरोग, मलेरिया और डाइबिटिज सहित बड़ी-बड़ी बीमारियों का इलाज वनोषधियों के बल पर ही संभव हो पाया है । अभी तो प्रकृति मेंउपलब्ध औषधियों में से थोड़ी सी औषधियों का उपयोग हो पा रहा है । वैज्ञानिकों का कहना है कि विश्व की २५००० चिन्हित वनस्पति प्रजातियों में से महज ५००० प्रजातियों का ही औषधिय प्रयोग हो रहा है । ऐसे ही वानस्पतिक विविधता के एक छोटे से अंश से ही हमारी खाद्यान्न की आपूर्ति हो रही है । लगभग १७०० ऐसी वनस्पतियां है, जिन्हें खाद्य के रूप में उगाया जा सकता है । इनमें से मात्र ३० से ४० वनस्पति फसलों से पूरे विश्व को भोजन उपलब्ध हो रहा है ।
दुनिया में सभी प्राचीन सभ्यताआें की बुनियाद में मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और आदर का रिश्ता है । इसी में पेड़, पहाड़ और नदी आदि की पूजा का प्रचलन हुआ । मोहन जोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्तिपूजा के साथ ही पेड़-पौधों एवं जीव जन्तुआें की पूजा की परम्परा भी विद्यमान थी । भारतीय साहित्य, चित्रकला और वास्तुकला में वृक्ष पूजा के अनेक प्रसंग मिलते है । अजंता के गुफा चित्रों और सांची के तोरण स्तम्भों की आकृतियों में वृक्ष पूजा के दृश्य है । हमारे सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेदों में प्रकृतिकी परमात्मा स्वरूप में स्तूति है । इसके साथ ही वाल्मिकी रामायण, महाभारत और मनुस्मृति जैसे प्राचीन ग्रन्थों में वृक्ष पूजा की विविध विधियों का विस्तार से वर्णन है ।
भारत एक विशाल देश है, इसी विशालता के कारण इसे उप-महाद्वीप कहा जाता है । हमारे यहां जलवायु और वनस्पति में भी बहुत अधिक भिन्नता पायी जाती है । एक तरफ हिम से आच्छादित हिमालय है, वहीं दूसरी और राजस्थान में थार के मरूस्थल में रेतीली गर्म आंधिया चलती है । देश में एक भाग में दलदल युक्त मेंग्रोव वन है तो दूसरे भाग में सदाबहार वन है । इसी कारण भारत सम्पन्न जैव विविधता वाले देशों में गिना जाता है ।
भारतीय पर्वत श्रृंखलाआें के अपने विशिष्ट स्थान निर्धारण, भौतिक स्वरूप व उंचाईयों में विभिन्नता के कारण यहां विशिष्ट जैविक सम्पदा भण्डार पाये जाते है, चाहे वह पुष्पधारी औषधिय व सुंगधित पौधे हो या फिर हजारों प्रकार के पक्षी, मछलियां, सरीसृप, उभयचर या स्तनधारी जीव हो, यही कारण है कि हमारे पश्चिमी व पूर्वी घाट हिमालय प्रदेश और उत्तर-पूर्वी राज्यों की गिनती विश्व के समृद्ध जैव सम्पदा भण्डारों में होती है । भारत के उत्तरी-पूर्वी राज्य और समुद्र तटीय क्षेत्र जैव विविधता की दृष्टि से अधिक समृद्ध है । भारत की लगभग ७५०० कि.मी. लम्बी तटीय रेखा नदी मुहाने और डेल्टा प्रदेश में जैव विविधता के अपार भण्डार मौजूद है । संसार की लगभग ३४० कोरल प्रजातियां भारत में मिलती है । देश में मेग्रोव पौधों एवं समुद्री घास की भी बहुतायत हैं ।
हमारे राष्ट्रीय प्रतीकों में देश की समृद्ध जैव विविधता की झलक दिखायी देती है । भारत के राज चिन्ह में चार सिंह, एक हाथी, एक घोडा और एक बैल के चित्र है । हमारा राष्ट्रीय पशु बाघ, राष्ट्रीय पक्षी मोर और राष्ट्रीय पुष्प कमल है । इसी प्रकार सभी राज्यों में स्थानीय जैव विविधता की समृद्धता के अनुरूप विभिन्न राज्य प्राणी और राज्य पक्षी घोषित किये गये है । दुनिया के १७ वृहद् जैव विविधता सम्पन्न देशोंमें भारत महत्वपूर्ण स्थान रखता है । जैव विविधता के दृष्टिकोण से भारत के लगभग ७० प्रतिशत हिस्से का सर्वेक्षण किया जा चुका है और इस सर्वेक्षण के आधार पर ४५ हजार पादप प्रजातियों (कवक एवं निम्न श्रेणी पौधों सहित) और ८९ हजार जंतु प्रजातियों का वर्णन किया गया है । जन्तु समुदाय के अन्तर्गत २५४६ मछली, ५९३५३ कीटों, २४० उभयचर, ४६० सरीसृप, १२३२ पक्षी तथा ३९७ स्तनधारी प्रजातियां शामिल है ।
भारत का जैव विविधता सम्पन्न संरक्षित क्षेत्र देश के कुल भू-भाग का ४.७४ प्रतिशत है । इस संरक्षित क्षैत्र में ९४ राष्ट्रीय पार्क, ५०१ वन्य जीव अभ्यारण्य, १५ बायोस्फीयर रिजर्व और अनेक आरक्षित वन सम्मिलित है । भारत ने वर्ष १९९९ में राष्ट्रीय जीव विविधता रणनीति कार्य योजना बनाई थी जिसके अन्तर्गत जैव विविधता के सरंक्षण और इसके सतत् उपयोग तथा राज्य सरकारों/समुदायों/ गैर सरकारी संस्थाआें/उद्योग आदि की भागीदारी को सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखा था । इसके बाद वर्ष २००६ में भारत ने राष्ट्रीय पर्यावरण नीति बनाई जिसमें २०१२ ई. तक राष्ट्रीय परिक्षेत्र में वन क्षेत्र को २३ प्रतिशत से बढ़ाकर ३३ प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया । इस नीति के अन्तर्गत १६३ राष्ट्रीय पार्क और ७०७ वन्य जीव अभ्यारण्य स्थापित किए जाने का भी लक्ष्य है ।
धरती नामक हमारा यह छोटा-सा ग्रह अपने अस्तित्व के संकट की ओर कदम बड़ा रहा है । जंगलों की अंधाधुंध कटाई से हजारों हजार पशु-पक्षी और फूल पौधों की दुर्लभ प्रजातियां हर साल काल के गाल में समा रही है । यदि जंगलों के कटने का सिलसिला इसी प्रकार जारी रहा तो आगामी २०-३० सालों में उष्ण कंटिबंधीय वनो का नामो निशान मिट जायेगा । हर नया दिन अपने साथ किसी नयी प्रजाति की मौत का संदेश लेकर आता है ।
आज इस ग्रह पर जितनी तीव्रता से प्रजातियां लुप्त् हो रही है, उतनी गति से पहले कभी उनका विनाश नहीं हुआ । आज स्थिति यह है कि अनेक वनस्पति प्रजातियां और प्राकृतिक प्रणाली भारी संकट में है । समूची दुनिया में चिड़ियाआें की ११८६ प्रजातियां विलुप्त् होने के कगार पर है । एक अनुमान के अनुसार चिड़िया वर्ग की कुल १२ प्रतिशत अथवा ८ में से एक प्रजाति विलुिप्त् के घेरे में है । बर्ड लाइफ इंटरनेशनल की रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्तमान में जिन ११८६ प्रजातियों के लुप्त् होने का खतरा है, उनमें से ३८१ प्रजातियां अत्यन्त जोखिम की स्थिति में है और ६८० प्रजातियां असुरक्षित अवस्था में हैं, इसके अतिरिक्त ७२७ प्रजातियों के लिये वैश्विक स्तर पर खतरा बढ़ गया है ।
जैव विविधता के लिये ग्लोबल वार्मिंग भी बड़ा खतरा है, जो जंगलों के सफाये से भी ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है । टोरटो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन माल्कान ने एक अध्ययन में बताया कि इस बात के पुख्ता प्रमाण मिले हैंकि ग्लोबल वार्मिंग भी विभिन्न प्रजातियों के लुप्त् होने का प्रमुख कारण बनेगा । इस अध्ययन में २५ मुख्य क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित किया गया जहां वनस्पति और जीव जन्तुआें की संख्या अधिक है इसमें अनुमान लगाया गया है कि यदि अगले १०० वर्षो में वातावरण में जहरीली गैसों का स्तर इसी प्रकार बढ़ता रहा तो कुल प्रजातियों में से ११.६ प्रतिशत का अस्तित्व पूरी तरह समाप्त् हो जायेगा ।
जैव विविधता के पुर्वानुमानों के अनुसार वन विनाश की मौजूदा रफ्तार अगर जारी रहती है तो सन् २०२० तक दुनिया की लगभग १५ प्रतिशत प्रजातियां धरती से लुप्त् हो जायेगी । आंकड़े दर्शाते है कि प्रतिवर्ष २५००० से ५०००० या प्रतिदिन ८० से १५० प्रजातियों को नुकसान पहुंच रहा है । वैज्ञानिकों का मानना है कि परिन्दों तथा स्तनपायी जीवों के लुप्त् होने की वर्तमान दर उस अवस्था से ५०० से एक हजार गुना ज्यादा है जो प्रकृति से छेड़छाड करने की स्थिति में आम तौर पर रहती है । जैव विविधता लोप के भविष्य के सारे अनुमान इस बुनियादी गणित पर आधारित है कि यदि किसी आवास स्थल का कुल इलाका ९० प्रतिशत कम कर दिया जाए तो उस क्षेत्र की ५० प्रतिशत प्रजातियां समाप्त् हो जाती है । लुप्त् होने के इस भूगोल से ज्ञात होता है कि यदि विनाश की यही गति कायम रही तो आगामी दशक में दस से पन्द्रह प्रतिशत प्रजातियां लुप्त् हो जाएगी यह विलुिप्त् दर साढ़े छह करोड़ वर्ष पूर्व क्रेटेशियस काल में हुए भारी विनाशकी प्रजाति विलोप दर से भी ज्यादा होगी ।
अंतर्राष्ट्रीय अध्ययनों के अनुसार अगली सदी के दौरान प्रजाति विलोप का सबसे बड़ा अकेला कारण कंटिबंधीय वनों का विनाश होगा । सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि किसी भी एक प्रजाति का अतिदोहन भी अन्य प्रजातियों के विलोप का कारण बन सकता है । इसलिए प्रकृति के इस नाजुक संतुलन के साथ संवेदनशील व्यवहार करना चाहिए वरना प्रणाली खुद उसी पर पलटवार कर पर्यावरणीय संकट उपस्थित कर सकती है ।
इस निराशाजनक स्थिति के बावजूद कुछ आशा की किरणेंभी दिखायी देती है । मानव जहां प्रकृति विनाश के लिये जिम्मेदार है, दूसरी और मानव ने ही प्रकृति संरक्षण के प्रेरणादायी उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं, जिनसें जैव विविधता संरक्षण के प्रयासों को मजबूती मिली है । वन और वन्यजीवों के संरक्षण के लिये राजस्थान के विश्नोई समाज की भूमिका अग्रगण्य है । इसके साथ ही उत्तराखण्ड का चिपको आंदोलन, दक्षिण का अप्पिको और बीज बचाओ अभियान जैसे बड़े सामाजिक आन्दोलनों के साथ ही कई स्वयं सेवी संगठन, शासकीय विभाग, विश्व प्रकृति निधि, अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संगठन, जैव विविधता बोर्ड जैसी संस्थाआें और पर्यावरण प्रेमी पत्रकारों/लेखकों ने जैव विविधता संरक्षण के लिये उल्लेखनीय कार्य किये है ।
प्रकृति और मनुष्य के गहरे अनुराग के कारण दोनों के साहचर्य से प्रकृति का संतुलन बना रहता है । पिछले हजारोंवर्षो से चले आ रहे प्रकृति संतुलन में पिछली एक-दो शताब्दी में आये व्यापक बदलाव के लिये उत्तरदायी मानवीय हस्तक्षेप की भूमिका पर विचार की आवश्कता है । प्रकृति के साथ प्रेममूलक संबंधों में आ रही गिरावट और बढ़ती संवेदनहीनता के दायरों से बाहर निकलकर पुन: प्रकृति की और लौटने के लिये हमें हमारी परम्पराआें, सामाजिक शिक्षाआें और संस्कृति की समृद्ध विरासत की ओर मुड़ कर देखना होगा ।
आज हमारी भोगवादी जीवन शैली में सुख के साधनों का दबाव बढ़ता जा रहा है, इस कारण रासायनिक पदार्थो, उर्वरकों, कीटनाशियों और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग हो रहा है जो घटती जैव विविधता का प्रमुख कारण है । जैव विविधता संरक्षण के लिये हमें हमारे राष्ट्रपिता के विचारों को आचारण में लाने की आवश्यक है, उनका मानना था कि यहधरती हरेक की आवश्यकता की पूर्ति कर सकती है लेकिन किसी एक का लालच नहीं । इन विचारों को अपनाने से ही पृथ्वी की जैव विविधता सुरक्षित रह सकेगी। जन सामान्य तक यह विचार भी पहुंचाना होगा कि प्रकृति मेंसभी जीवों के विकास का आधार एक दूसरे के रख रखाव व संरक्षण पर आधारित है ।
बहुत लोगों के लिये यह आश्चर्य का विषय होगा कि भारत जैसे धर्मप्राण देश में पहली कविता न कोई स्त्रोत है न मंगलाचरण, वरन् बहेलिये के बाण से बिद्ध छटपटाते हुए पक्षी को देखकर संवेदनशील महाकवि का अप्रयास फूट पड़ने वाला आक्रोश है । आदि कवि वाल्मिकी रचित रामायण मेंबालकाण्ड के निम्न श्लोक (जिसे लोकभाषा की पहली कविता माना जाता है) में इसे देखा जा सकता है । मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगया: शाश्वती समा: । यत्क्रौंच मिथुना देकमबधी: काममोहितम ।। युगऋषि के आक्रोश में भारतीय संस्कृति का जियो और जीने दो का संदेश छिपा है, जिसकी प्रासंगिकता आज और भी बढ़ गयी है । अभी भी धरती पर जीवन की सुदीर्घता और स्थायी विकास के लिये जीव, वनस्पति प्रजातियां और पर्यावरण प्रणालियां बचायी जा सकती है । इस उद्देश्य की पूर्ति में यदि आज हम चूक गये तो आने वाली पीढ़ियां हमें क्षमा नहीं करेगी ।
जैव विविधता का आर्थिक, सामाजिक, सास्कृतिक और पर्यावरणीय महत्व है । जैव विविधता से हमारे लिये भोजन तथा औषधियां और उद्योगों को कच्च माल उपलब्ध होता है । बाजार से खरीदी जाने वाली ज्यादातर वस्तुआें की आपूर्ति पृथ्वी की जैव विविधता पर ही आश्रित है । ह्दयरोग, मलेरिया और डाइबिटिज सहित बड़ी-बड़ी बीमारियों का इलाज वनोषधियों के बल पर ही संभव हो पाया है । अभी तो प्रकृति मेंउपलब्ध औषधियों में से थोड़ी सी औषधियों का उपयोग हो पा रहा है । वैज्ञानिकों का कहना है कि विश्व की २५००० चिन्हित वनस्पति प्रजातियों में से महज ५००० प्रजातियों का ही औषधिय प्रयोग हो रहा है । ऐसे ही वानस्पतिक विविधता के एक छोटे से अंश से ही हमारी खाद्यान्न की आपूर्ति हो रही है । लगभग १७०० ऐसी वनस्पतियां है, जिन्हें खाद्य के रूप में उगाया जा सकता है । इनमें से मात्र ३० से ४० वनस्पति फसलों से पूरे विश्व को भोजन उपलब्ध हो रहा है ।
दुनिया में सभी प्राचीन सभ्यताआें की बुनियाद में मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और आदर का रिश्ता है । इसी में पेड़, पहाड़ और नदी आदि की पूजा का प्रचलन हुआ । मोहन जोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्तिपूजा के साथ ही पेड़-पौधों एवं जीव जन्तुआें की पूजा की परम्परा भी विद्यमान थी । भारतीय साहित्य, चित्रकला और वास्तुकला में वृक्ष पूजा के अनेक प्रसंग मिलते है । अजंता के गुफा चित्रों और सांची के तोरण स्तम्भों की आकृतियों में वृक्ष पूजा के दृश्य है । हमारे सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेदों में प्रकृतिकी परमात्मा स्वरूप में स्तूति है । इसके साथ ही वाल्मिकी रामायण, महाभारत और मनुस्मृति जैसे प्राचीन ग्रन्थों में वृक्ष पूजा की विविध विधियों का विस्तार से वर्णन है ।
भारत एक विशाल देश है, इसी विशालता के कारण इसे उप-महाद्वीप कहा जाता है । हमारे यहां जलवायु और वनस्पति में भी बहुत अधिक भिन्नता पायी जाती है । एक तरफ हिम से आच्छादित हिमालय है, वहीं दूसरी और राजस्थान में थार के मरूस्थल में रेतीली गर्म आंधिया चलती है । देश में एक भाग में दलदल युक्त मेंग्रोव वन है तो दूसरे भाग में सदाबहार वन है । इसी कारण भारत सम्पन्न जैव विविधता वाले देशों में गिना जाता है ।
भारतीय पर्वत श्रृंखलाआें के अपने विशिष्ट स्थान निर्धारण, भौतिक स्वरूप व उंचाईयों में विभिन्नता के कारण यहां विशिष्ट जैविक सम्पदा भण्डार पाये जाते है, चाहे वह पुष्पधारी औषधिय व सुंगधित पौधे हो या फिर हजारों प्रकार के पक्षी, मछलियां, सरीसृप, उभयचर या स्तनधारी जीव हो, यही कारण है कि हमारे पश्चिमी व पूर्वी घाट हिमालय प्रदेश और उत्तर-पूर्वी राज्यों की गिनती विश्व के समृद्ध जैव सम्पदा भण्डारों में होती है । भारत के उत्तरी-पूर्वी राज्य और समुद्र तटीय क्षेत्र जैव विविधता की दृष्टि से अधिक समृद्ध है । भारत की लगभग ७५०० कि.मी. लम्बी तटीय रेखा नदी मुहाने और डेल्टा प्रदेश में जैव विविधता के अपार भण्डार मौजूद है । संसार की लगभग ३४० कोरल प्रजातियां भारत में मिलती है । देश में मेग्रोव पौधों एवं समुद्री घास की भी बहुतायत हैं ।
हमारे राष्ट्रीय प्रतीकों में देश की समृद्ध जैव विविधता की झलक दिखायी देती है । भारत के राज चिन्ह में चार सिंह, एक हाथी, एक घोडा और एक बैल के चित्र है । हमारा राष्ट्रीय पशु बाघ, राष्ट्रीय पक्षी मोर और राष्ट्रीय पुष्प कमल है । इसी प्रकार सभी राज्यों में स्थानीय जैव विविधता की समृद्धता के अनुरूप विभिन्न राज्य प्राणी और राज्य पक्षी घोषित किये गये है । दुनिया के १७ वृहद् जैव विविधता सम्पन्न देशोंमें भारत महत्वपूर्ण स्थान रखता है । जैव विविधता के दृष्टिकोण से भारत के लगभग ७० प्रतिशत हिस्से का सर्वेक्षण किया जा चुका है और इस सर्वेक्षण के आधार पर ४५ हजार पादप प्रजातियों (कवक एवं निम्न श्रेणी पौधों सहित) और ८९ हजार जंतु प्रजातियों का वर्णन किया गया है । जन्तु समुदाय के अन्तर्गत २५४६ मछली, ५९३५३ कीटों, २४० उभयचर, ४६० सरीसृप, १२३२ पक्षी तथा ३९७ स्तनधारी प्रजातियां शामिल है ।
भारत का जैव विविधता सम्पन्न संरक्षित क्षेत्र देश के कुल भू-भाग का ४.७४ प्रतिशत है । इस संरक्षित क्षैत्र में ९४ राष्ट्रीय पार्क, ५०१ वन्य जीव अभ्यारण्य, १५ बायोस्फीयर रिजर्व और अनेक आरक्षित वन सम्मिलित है । भारत ने वर्ष १९९९ में राष्ट्रीय जीव विविधता रणनीति कार्य योजना बनाई थी जिसके अन्तर्गत जैव विविधता के सरंक्षण और इसके सतत् उपयोग तथा राज्य सरकारों/समुदायों/ गैर सरकारी संस्थाआें/उद्योग आदि की भागीदारी को सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखा था । इसके बाद वर्ष २००६ में भारत ने राष्ट्रीय पर्यावरण नीति बनाई जिसमें २०१२ ई. तक राष्ट्रीय परिक्षेत्र में वन क्षेत्र को २३ प्रतिशत से बढ़ाकर ३३ प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया । इस नीति के अन्तर्गत १६३ राष्ट्रीय पार्क और ७०७ वन्य जीव अभ्यारण्य स्थापित किए जाने का भी लक्ष्य है ।
धरती नामक हमारा यह छोटा-सा ग्रह अपने अस्तित्व के संकट की ओर कदम बड़ा रहा है । जंगलों की अंधाधुंध कटाई से हजारों हजार पशु-पक्षी और फूल पौधों की दुर्लभ प्रजातियां हर साल काल के गाल में समा रही है । यदि जंगलों के कटने का सिलसिला इसी प्रकार जारी रहा तो आगामी २०-३० सालों में उष्ण कंटिबंधीय वनो का नामो निशान मिट जायेगा । हर नया दिन अपने साथ किसी नयी प्रजाति की मौत का संदेश लेकर आता है ।
आज इस ग्रह पर जितनी तीव्रता से प्रजातियां लुप्त् हो रही है, उतनी गति से पहले कभी उनका विनाश नहीं हुआ । आज स्थिति यह है कि अनेक वनस्पति प्रजातियां और प्राकृतिक प्रणाली भारी संकट में है । समूची दुनिया में चिड़ियाआें की ११८६ प्रजातियां विलुप्त् होने के कगार पर है । एक अनुमान के अनुसार चिड़िया वर्ग की कुल १२ प्रतिशत अथवा ८ में से एक प्रजाति विलुिप्त् के घेरे में है । बर्ड लाइफ इंटरनेशनल की रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्तमान में जिन ११८६ प्रजातियों के लुप्त् होने का खतरा है, उनमें से ३८१ प्रजातियां अत्यन्त जोखिम की स्थिति में है और ६८० प्रजातियां असुरक्षित अवस्था में हैं, इसके अतिरिक्त ७२७ प्रजातियों के लिये वैश्विक स्तर पर खतरा बढ़ गया है ।
जैव विविधता के लिये ग्लोबल वार्मिंग भी बड़ा खतरा है, जो जंगलों के सफाये से भी ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है । टोरटो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन माल्कान ने एक अध्ययन में बताया कि इस बात के पुख्ता प्रमाण मिले हैंकि ग्लोबल वार्मिंग भी विभिन्न प्रजातियों के लुप्त् होने का प्रमुख कारण बनेगा । इस अध्ययन में २५ मुख्य क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित किया गया जहां वनस्पति और जीव जन्तुआें की संख्या अधिक है इसमें अनुमान लगाया गया है कि यदि अगले १०० वर्षो में वातावरण में जहरीली गैसों का स्तर इसी प्रकार बढ़ता रहा तो कुल प्रजातियों में से ११.६ प्रतिशत का अस्तित्व पूरी तरह समाप्त् हो जायेगा ।
जैव विविधता के पुर्वानुमानों के अनुसार वन विनाश की मौजूदा रफ्तार अगर जारी रहती है तो सन् २०२० तक दुनिया की लगभग १५ प्रतिशत प्रजातियां धरती से लुप्त् हो जायेगी । आंकड़े दर्शाते है कि प्रतिवर्ष २५००० से ५०००० या प्रतिदिन ८० से १५० प्रजातियों को नुकसान पहुंच रहा है । वैज्ञानिकों का मानना है कि परिन्दों तथा स्तनपायी जीवों के लुप्त् होने की वर्तमान दर उस अवस्था से ५०० से एक हजार गुना ज्यादा है जो प्रकृति से छेड़छाड करने की स्थिति में आम तौर पर रहती है । जैव विविधता लोप के भविष्य के सारे अनुमान इस बुनियादी गणित पर आधारित है कि यदि किसी आवास स्थल का कुल इलाका ९० प्रतिशत कम कर दिया जाए तो उस क्षेत्र की ५० प्रतिशत प्रजातियां समाप्त् हो जाती है । लुप्त् होने के इस भूगोल से ज्ञात होता है कि यदि विनाश की यही गति कायम रही तो आगामी दशक में दस से पन्द्रह प्रतिशत प्रजातियां लुप्त् हो जाएगी यह विलुिप्त् दर साढ़े छह करोड़ वर्ष पूर्व क्रेटेशियस काल में हुए भारी विनाशकी प्रजाति विलोप दर से भी ज्यादा होगी ।
अंतर्राष्ट्रीय अध्ययनों के अनुसार अगली सदी के दौरान प्रजाति विलोप का सबसे बड़ा अकेला कारण कंटिबंधीय वनों का विनाश होगा । सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि किसी भी एक प्रजाति का अतिदोहन भी अन्य प्रजातियों के विलोप का कारण बन सकता है । इसलिए प्रकृति के इस नाजुक संतुलन के साथ संवेदनशील व्यवहार करना चाहिए वरना प्रणाली खुद उसी पर पलटवार कर पर्यावरणीय संकट उपस्थित कर सकती है ।
इस निराशाजनक स्थिति के बावजूद कुछ आशा की किरणेंभी दिखायी देती है । मानव जहां प्रकृति विनाश के लिये जिम्मेदार है, दूसरी और मानव ने ही प्रकृति संरक्षण के प्रेरणादायी उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं, जिनसें जैव विविधता संरक्षण के प्रयासों को मजबूती मिली है । वन और वन्यजीवों के संरक्षण के लिये राजस्थान के विश्नोई समाज की भूमिका अग्रगण्य है । इसके साथ ही उत्तराखण्ड का चिपको आंदोलन, दक्षिण का अप्पिको और बीज बचाओ अभियान जैसे बड़े सामाजिक आन्दोलनों के साथ ही कई स्वयं सेवी संगठन, शासकीय विभाग, विश्व प्रकृति निधि, अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संगठन, जैव विविधता बोर्ड जैसी संस्थाआें और पर्यावरण प्रेमी पत्रकारों/लेखकों ने जैव विविधता संरक्षण के लिये उल्लेखनीय कार्य किये है ।
प्रकृति और मनुष्य के गहरे अनुराग के कारण दोनों के साहचर्य से प्रकृति का संतुलन बना रहता है । पिछले हजारोंवर्षो से चले आ रहे प्रकृति संतुलन में पिछली एक-दो शताब्दी में आये व्यापक बदलाव के लिये उत्तरदायी मानवीय हस्तक्षेप की भूमिका पर विचार की आवश्कता है । प्रकृति के साथ प्रेममूलक संबंधों में आ रही गिरावट और बढ़ती संवेदनहीनता के दायरों से बाहर निकलकर पुन: प्रकृति की और लौटने के लिये हमें हमारी परम्पराआें, सामाजिक शिक्षाआें और संस्कृति की समृद्ध विरासत की ओर मुड़ कर देखना होगा ।
आज हमारी भोगवादी जीवन शैली में सुख के साधनों का दबाव बढ़ता जा रहा है, इस कारण रासायनिक पदार्थो, उर्वरकों, कीटनाशियों और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग हो रहा है जो घटती जैव विविधता का प्रमुख कारण है । जैव विविधता संरक्षण के लिये हमें हमारे राष्ट्रपिता के विचारों को आचारण में लाने की आवश्यक है, उनका मानना था कि यहधरती हरेक की आवश्यकता की पूर्ति कर सकती है लेकिन किसी एक का लालच नहीं । इन विचारों को अपनाने से ही पृथ्वी की जैव विविधता सुरक्षित रह सकेगी। जन सामान्य तक यह विचार भी पहुंचाना होगा कि प्रकृति मेंसभी जीवों के विकास का आधार एक दूसरे के रख रखाव व संरक्षण पर आधारित है ।
बहुत लोगों के लिये यह आश्चर्य का विषय होगा कि भारत जैसे धर्मप्राण देश में पहली कविता न कोई स्त्रोत है न मंगलाचरण, वरन् बहेलिये के बाण से बिद्ध छटपटाते हुए पक्षी को देखकर संवेदनशील महाकवि का अप्रयास फूट पड़ने वाला आक्रोश है । आदि कवि वाल्मिकी रचित रामायण मेंबालकाण्ड के निम्न श्लोक (जिसे लोकभाषा की पहली कविता माना जाता है) में इसे देखा जा सकता है । मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगया: शाश्वती समा: । यत्क्रौंच मिथुना देकमबधी: काममोहितम ।। युगऋषि के आक्रोश में भारतीय संस्कृति का जियो और जीने दो का संदेश छिपा है, जिसकी प्रासंगिकता आज और भी बढ़ गयी है । अभी भी धरती पर जीवन की सुदीर्घता और स्थायी विकास के लिये जीव, वनस्पति प्रजातियां और पर्यावरण प्रणालियां बचायी जा सकती है । इस उद्देश्य की पूर्ति में यदि आज हम चूक गये तो आने वाली पीढ़ियां हमें क्षमा नहीं करेगी ।
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