वन्य प्राणी जगत
संकट में हैं काजीरंगा के गैंडे
राहुल मुखर्जी
विश्वविख्यात काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के एक सींग वाले गैंडों पर बांग्लादेश से आए अवैध घुसपैठिए कहर ढा रहे हैं । यहां पिछले १० महीने के भीतर ३९ गैंडों को मार गिराने की घटनाएं सामने आई हैं । जाहिर है इस दुलर्भ वन्य प्राणी पर पहले से कहीं ज्यादा संकट के बादल मंडरा रहे हैं ।
उद्यानों के जिन अंदरूनी कोर क्षेत्रों में सर्वोच्च् न्यायालय पर्यटन तक की अनुमति नहीं दे रहा है, काजीरंगा के इन्हीं भीतरी क्षेत्रों में बांग्लादेशी घुसपैठियों की बस्तियां हैं । असम गण परिषद के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत ने आरोप लगाया है कि उद्यान के बफर क्षेत्र में अवैध प्रवासियों को बसा दिए जाने से गैंडे के अस्तित्व पर संकट बढ़ा हे । कांगे्रस इस तरह से अपना वोट बैंक बढ़ाने में लगी है । हालांकि महंत के इस आरोप का जवाब देते हुए असम के वन मंत्री रकाबुल हुसैन ने कहा है कि १९९६ में खुद महंत के शासन काल में ही उद्यान के अंदरूनी कोर क्षेत्रों में ९६ भूमिहीन परिवारों को बसाने का सिलसिला शुरू किया गया था ।
संकट में हैं काजीरंगा के गैंडे
राहुल मुखर्जी
विश्वविख्यात काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के एक सींग वाले गैंडों पर बांग्लादेश से आए अवैध घुसपैठिए कहर ढा रहे हैं । यहां पिछले १० महीने के भीतर ३९ गैंडों को मार गिराने की घटनाएं सामने आई हैं । जाहिर है इस दुलर्भ वन्य प्राणी पर पहले से कहीं ज्यादा संकट के बादल मंडरा रहे हैं ।
उद्यानों के जिन अंदरूनी कोर क्षेत्रों में सर्वोच्च् न्यायालय पर्यटन तक की अनुमति नहीं दे रहा है, काजीरंगा के इन्हीं भीतरी क्षेत्रों में बांग्लादेशी घुसपैठियों की बस्तियां हैं । असम गण परिषद के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत ने आरोप लगाया है कि उद्यान के बफर क्षेत्र में अवैध प्रवासियों को बसा दिए जाने से गैंडे के अस्तित्व पर संकट बढ़ा हे । कांगे्रस इस तरह से अपना वोट बैंक बढ़ाने में लगी है । हालांकि महंत के इस आरोप का जवाब देते हुए असम के वन मंत्री रकाबुल हुसैन ने कहा है कि १९९६ में खुद महंत के शासन काल में ही उद्यान के अंदरूनी कोर क्षेत्रों में ९६ भूमिहीन परिवारों को बसाने का सिलसिला शुरू किया गया था ।
बहरहाल शासक दल कोई भी हो उसकी कार्यप्रणाली कमोबेश एक जैसी होती है । हालांकि गैंडे बाढ़ की चपेट में आने और पेशेवर शिकारियों के हत्थे चढ़ जाने से भी मर रहे हैं ।
असम की राजधानी गुवाहाटी से २१७ किलोमीटर दूर ब्रह्मापुत्र की घाटी व तलहटी के ४३० वर्ग किमी मेंे फैला है काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान । थल और जल के ये भूखण्ड दुर्लभ किस्म के तमाम पशुआें के साथ-साथ एक सींग वाले गैंडे के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं । लेकिन यह उद्यान गाहे-बगाहे एक सींग वाले गैंडे के अवैध शिकार के लिए चर्चा मेंबना रहता है ।
बीते दस माह में सींग के लिए ३९ गैंडों का बेरहमी से शिकार किया गया । इस सींग का अंतर्राष्ट्रीय बाजार मूल्य ४० लाख रूपए से लेकर ९० लाख रूपए तक है । गैंडों का शिकार गोली मारकर, रास्तों में गड्ढे खोदकर और काजीरंगा के बीच से गुजरने वाली उच्च् दाब विघुत लाइन से तार जमीन में बिछाकर की जा रही है । बाढ़ के पानी की चपेट मेंआ जाने से भी बड़ी संख्या में गैंडे मारे गए है । सड़क दुर्घटना और आपसी संघर्ष में भी गैंडों के मरने की घटनाएं सामने आती रहती हैं ।
हालांकि काजीरंगा उद्यान यूनेस्को के विश्व विरासत स्थलों की सूची में शामिल है, लेकिन वहां ऐसी किसी विशेष सुविधा का विस्तार नहीं हुआ है जिससे बाढ़ की चपेट में आने से इन्हें बचाया जा सके । इस बार की बाढ़ शिकारियों को बेखौफ शिकार करने का कारण बनी । इसी साल के सितम्बर में काजीरंगा में बाढ़ का पानी घुस आने से शिकारियों के पौ-बारह हो गए और उन्होनें चार दिन के भीतर ही पंाच गैंडों को मार गिराया । बेदर्द शिकारियों ने गैंडों के सींग उखाड़ लिए और उन्हें खून से लथपथ हालत में अपनी मौत मरने को छोड़ दिया । वन संरक्षकों को हवा तक नहीं लगी । इसके अलावा आंगलोग जिले में छह गैंडों को उस समय मार गिराया गया जब वे बाढ़ग्रस्त वन क्षेत्र से बचने के लिए खुले में आ गए थे । बाढ़ के पानी में डूब जाने से भी २८ गैंडे मारे गए । १९८८ में आई बाढ़ व बीमारी से १०५ गैंडे मरे थे । वहीं १९९८ में आई बाढ़ में डूब जाने से एक साथ ६५२ गैंडे मारे गए थे ।
खुफिया रिपोर्ट जता रही है कि गैंडो के शिकार में बांग्लादेशी घुसपैठिए और कारबी पीपुल्स लिबरेशन टाइगर्स के उग्रवादी भी शामिल हैं । इसके अलावा मिजो और नगा उग्रवादी भी सींग के लिए गैंडों पर कहर ढाते रहते हैं । हालांकि १९८८ में असम में उल्फा नाम का एक ऐसा उग्रवादी संगठन वजूद में आया था, जिसने गैडों के सरंक्षण की दिशा में अहम पहल की थी और गैडों के सींग की तस्करी करने वाले दो शिकारियों की गोली मारकर हत्या कर दी थी । इसके बाद कुछ समय तक इस प्राणी के शिकार पर अंकुश लग गया था, लेकिन बाद मेंफिर शुरू हो गया ।
भारत की धरती पर गैंडे का अस्तित्व दस लाख साल से भी ज्यादा पुराना है । चंडीगढ़ के निकट पिजोर मेंहुई पुरातत्वीय खुदाई में चट्टानों की परतों के बीच अनेक दुलर्भ प्राणियों के जीवाश्म मिले हैं । इनमें गैंडे के भी जीवाश्म हैं । इसी तरह गुजरात के भावनगर के परीम द्वीप मेंभी लगभग दस लाख साल पुराने प्राणियों के जीवाश्म मिले हैं, जिनसे पता चला है कि इस द्वीप में गैंडे और जिराफ परिवार के जीव बड़ी संख्या में बसेरा करते थे । इसलिए इसे आदिम युग का पशु भी कहा जाता है ।
गैंडे को अन्य प्राणियों की तरह बुद्धिमान पशु नहीं माना जाता है । गैंडे की बुद्धि की परीक्षा की परीक्षा सबसे पहले द्वारका नरेश भगवान कृष्ण ने की थी । कृष्ण युद्ध नीति में नई तकनीकों को अपनाने के लिए प्रयत्नशील थे । इस दृष्टि से उन्होनें हाथी की जगह गैंडे को रखने की बात युद्ध विशेषज्ञों से कही । कृष्ण की दलील थी कि हाथी जरूरत से अधिक उंचा प्राणी है । नतीजतन उसकी पीठ पर बैठे सैनिक को युद्ध में आसानी से निशाना बना लिया जाता है । तो कुछ गैंडो को युद्ध के लिए प्रशिक्षित करने की शुरूआत हुई ।
लंबे प्रशिक्षण के बाद गैंडों को कृष्ण के समक्ष प्रस्तुत किया गया । तब प्रशिक्षक ने उत्तर दिया, महाराज यह एकदम बुद्धिहीन जंगली पशु है, सिखाने के अनेक प्रयासों के बाद भी यह युद्ध की बारहखड़ी नहीं सीख पाया । ऐसा प्राणी युद्ध के लायक नहीं है । यह अपने स्वामी को कभी विजय नहीं दिला सकता । कृष्ण ने सभी प्रशिक्षु गैंडों को वन में छोड़ने का आदेश दिया । इस समय से गैंडों के साथ एक मिथक जुड़ा कि जड़-बुद्धि गैंडे जाते समय यह भूल गए थे कि उनके शरीर पर लोहे का कवच भी बंधा है । तब से ही कहा जाने लगा कि उनकी पीठ पर चढ़ा यह कवच उनकी स्थाई धरोहर हो गई और वे अपनी मृत्यु के समय इस कवच को अपनी संतान को बतौर विरासत सौंप देते हैं ।
भारतीय संस्कृत साहित्य में भी गैंडे का खूब उल्लेख है । चरक, सुश्रुत और कालिदास ने गैंडे का उल्लेख खड्ग और खड्गी नामों से किया है । इसे यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इसके सींग का आकार खड्ग यानी तलवार की तरह होता है । हलायुध कोश में तो गैंडे के ग्यारह संस्कृत नाम दिए हैं । इससे पता चलता है कि प्राचीन भारतीय प्राणी विशेषज्ञ गैंडे के आचरण को जानने में दिलचस्पी लेते रहे हैं ।
अपनी उक्त बुद्धिहीनता के कारण गैंडे सबसे ज्यादा मारे जाते हैं । गैंडे अपने अनूठे स्वभाव के चलते नाक की सीध में चलते हैं और जिस रास्ते से वे एक बार गुजरते हैं, बार-बार उसी रास्ते पर चलते हैं । इनके इसी आचरण का लाभ शिकारी उठाते हैं और रास्ते में गड्ढे खोदकर अथवा बिजली के तार बिछाकर इनका आसानी से शिकार कर लेते हैं । गैंडे जब घास-फूंस से ढंके गड्ढे में गिर जाते है तो शिकारी भालों जैसे नुकीले औजारों को इनके शरीर में गोंच-गोंच कर इनकी हत्या कर देते हैं ।
आसानी से शिकार हो जाने के कारण इनकी संख्या लगातार घटती जा रही है । काजीरंगा में २०११ में हुई प्राणी गणना के अनुसार महज २२९० गैंडे ही शेष बचे हैं । काजीरंगा इन्हें इसलिए लुभाता है क्योंकि यहां एक विशेष प्रजाति की घास पाई जाती है, जो गैंडों के आहार व प्रजनन के लिए उपयोगी है । लेकिन जहरीली वनस्पतियों के काजीरंगा मेंपहुंच जाने से इस घास की पैदावार भी प्रभावित हो रही है । इसी वजह से गैंडों के सामने आहार का संकट बढ़ रहा है और प्रजनन क्षमता भी प्रभावित हो रही है ।
असम की राजधानी गुवाहाटी से २१७ किलोमीटर दूर ब्रह्मापुत्र की घाटी व तलहटी के ४३० वर्ग किमी मेंे फैला है काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान । थल और जल के ये भूखण्ड दुर्लभ किस्म के तमाम पशुआें के साथ-साथ एक सींग वाले गैंडे के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं । लेकिन यह उद्यान गाहे-बगाहे एक सींग वाले गैंडे के अवैध शिकार के लिए चर्चा मेंबना रहता है ।
बीते दस माह में सींग के लिए ३९ गैंडों का बेरहमी से शिकार किया गया । इस सींग का अंतर्राष्ट्रीय बाजार मूल्य ४० लाख रूपए से लेकर ९० लाख रूपए तक है । गैंडों का शिकार गोली मारकर, रास्तों में गड्ढे खोदकर और काजीरंगा के बीच से गुजरने वाली उच्च् दाब विघुत लाइन से तार जमीन में बिछाकर की जा रही है । बाढ़ के पानी की चपेट मेंआ जाने से भी बड़ी संख्या में गैंडे मारे गए है । सड़क दुर्घटना और आपसी संघर्ष में भी गैंडों के मरने की घटनाएं सामने आती रहती हैं ।
हालांकि काजीरंगा उद्यान यूनेस्को के विश्व विरासत स्थलों की सूची में शामिल है, लेकिन वहां ऐसी किसी विशेष सुविधा का विस्तार नहीं हुआ है जिससे बाढ़ की चपेट में आने से इन्हें बचाया जा सके । इस बार की बाढ़ शिकारियों को बेखौफ शिकार करने का कारण बनी । इसी साल के सितम्बर में काजीरंगा में बाढ़ का पानी घुस आने से शिकारियों के पौ-बारह हो गए और उन्होनें चार दिन के भीतर ही पंाच गैंडों को मार गिराया । बेदर्द शिकारियों ने गैंडों के सींग उखाड़ लिए और उन्हें खून से लथपथ हालत में अपनी मौत मरने को छोड़ दिया । वन संरक्षकों को हवा तक नहीं लगी । इसके अलावा आंगलोग जिले में छह गैंडों को उस समय मार गिराया गया जब वे बाढ़ग्रस्त वन क्षेत्र से बचने के लिए खुले में आ गए थे । बाढ़ के पानी में डूब जाने से भी २८ गैंडे मारे गए । १९८८ में आई बाढ़ व बीमारी से १०५ गैंडे मरे थे । वहीं १९९८ में आई बाढ़ में डूब जाने से एक साथ ६५२ गैंडे मारे गए थे ।
खुफिया रिपोर्ट जता रही है कि गैंडो के शिकार में बांग्लादेशी घुसपैठिए और कारबी पीपुल्स लिबरेशन टाइगर्स के उग्रवादी भी शामिल हैं । इसके अलावा मिजो और नगा उग्रवादी भी सींग के लिए गैंडों पर कहर ढाते रहते हैं । हालांकि १९८८ में असम में उल्फा नाम का एक ऐसा उग्रवादी संगठन वजूद में आया था, जिसने गैडों के सरंक्षण की दिशा में अहम पहल की थी और गैडों के सींग की तस्करी करने वाले दो शिकारियों की गोली मारकर हत्या कर दी थी । इसके बाद कुछ समय तक इस प्राणी के शिकार पर अंकुश लग गया था, लेकिन बाद मेंफिर शुरू हो गया ।
भारत की धरती पर गैंडे का अस्तित्व दस लाख साल से भी ज्यादा पुराना है । चंडीगढ़ के निकट पिजोर मेंहुई पुरातत्वीय खुदाई में चट्टानों की परतों के बीच अनेक दुलर्भ प्राणियों के जीवाश्म मिले हैं । इनमें गैंडे के भी जीवाश्म हैं । इसी तरह गुजरात के भावनगर के परीम द्वीप मेंभी लगभग दस लाख साल पुराने प्राणियों के जीवाश्म मिले हैं, जिनसे पता चला है कि इस द्वीप में गैंडे और जिराफ परिवार के जीव बड़ी संख्या में बसेरा करते थे । इसलिए इसे आदिम युग का पशु भी कहा जाता है ।
गैंडे को अन्य प्राणियों की तरह बुद्धिमान पशु नहीं माना जाता है । गैंडे की बुद्धि की परीक्षा की परीक्षा सबसे पहले द्वारका नरेश भगवान कृष्ण ने की थी । कृष्ण युद्ध नीति में नई तकनीकों को अपनाने के लिए प्रयत्नशील थे । इस दृष्टि से उन्होनें हाथी की जगह गैंडे को रखने की बात युद्ध विशेषज्ञों से कही । कृष्ण की दलील थी कि हाथी जरूरत से अधिक उंचा प्राणी है । नतीजतन उसकी पीठ पर बैठे सैनिक को युद्ध में आसानी से निशाना बना लिया जाता है । तो कुछ गैंडो को युद्ध के लिए प्रशिक्षित करने की शुरूआत हुई ।
लंबे प्रशिक्षण के बाद गैंडों को कृष्ण के समक्ष प्रस्तुत किया गया । तब प्रशिक्षक ने उत्तर दिया, महाराज यह एकदम बुद्धिहीन जंगली पशु है, सिखाने के अनेक प्रयासों के बाद भी यह युद्ध की बारहखड़ी नहीं सीख पाया । ऐसा प्राणी युद्ध के लायक नहीं है । यह अपने स्वामी को कभी विजय नहीं दिला सकता । कृष्ण ने सभी प्रशिक्षु गैंडों को वन में छोड़ने का आदेश दिया । इस समय से गैंडों के साथ एक मिथक जुड़ा कि जड़-बुद्धि गैंडे जाते समय यह भूल गए थे कि उनके शरीर पर लोहे का कवच भी बंधा है । तब से ही कहा जाने लगा कि उनकी पीठ पर चढ़ा यह कवच उनकी स्थाई धरोहर हो गई और वे अपनी मृत्यु के समय इस कवच को अपनी संतान को बतौर विरासत सौंप देते हैं ।
भारतीय संस्कृत साहित्य में भी गैंडे का खूब उल्लेख है । चरक, सुश्रुत और कालिदास ने गैंडे का उल्लेख खड्ग और खड्गी नामों से किया है । इसे यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इसके सींग का आकार खड्ग यानी तलवार की तरह होता है । हलायुध कोश में तो गैंडे के ग्यारह संस्कृत नाम दिए हैं । इससे पता चलता है कि प्राचीन भारतीय प्राणी विशेषज्ञ गैंडे के आचरण को जानने में दिलचस्पी लेते रहे हैं ।
अपनी उक्त बुद्धिहीनता के कारण गैंडे सबसे ज्यादा मारे जाते हैं । गैंडे अपने अनूठे स्वभाव के चलते नाक की सीध में चलते हैं और जिस रास्ते से वे एक बार गुजरते हैं, बार-बार उसी रास्ते पर चलते हैं । इनके इसी आचरण का लाभ शिकारी उठाते हैं और रास्ते में गड्ढे खोदकर अथवा बिजली के तार बिछाकर इनका आसानी से शिकार कर लेते हैं । गैंडे जब घास-फूंस से ढंके गड्ढे में गिर जाते है तो शिकारी भालों जैसे नुकीले औजारों को इनके शरीर में गोंच-गोंच कर इनकी हत्या कर देते हैं ।
आसानी से शिकार हो जाने के कारण इनकी संख्या लगातार घटती जा रही है । काजीरंगा में २०११ में हुई प्राणी गणना के अनुसार महज २२९० गैंडे ही शेष बचे हैं । काजीरंगा इन्हें इसलिए लुभाता है क्योंकि यहां एक विशेष प्रजाति की घास पाई जाती है, जो गैंडों के आहार व प्रजनन के लिए उपयोगी है । लेकिन जहरीली वनस्पतियों के काजीरंगा मेंपहुंच जाने से इस घास की पैदावार भी प्रभावित हो रही है । इसी वजह से गैंडों के सामने आहार का संकट बढ़ रहा है और प्रजनन क्षमता भी प्रभावित हो रही है ।
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