मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014



प्रसंगवश
दुनिया का सर्वाधिक प्रदूषित शहर है दिल्ली
    भारत में प्रदूषण निरन्तर बढ़ता जा रहा है । चिंता की बात यह है कि वैश्विक पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक २०१४ में हमारा देश ३२ पायदान और नीचे खिसक कर १५५ वें स्थान पर पहुंच गया है और देश की राजधानी दिल्ली का नाम दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों की सूची में शामिल हो गया है ।
    पिछले दिनों अमेरिका के येले यूनिवर्सिटी के द्वारा पर्यावरण के नौ पैमानों के आधार पर १७८ देशों का तुलनात्मक अध्ययन जारी किया है । यह अध्ययन प्रदर्शित करता है कि दुनिया की सबसे तेज अर्थव्यवस्था के रूप में उभर रहा हमारा पर्यावरण के मोर्चेपर फिसड्डी है । सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि भारत में प्रदूषण का स्तर यहां के नागरिकों के स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डाल रहा है । दूषित पर्यावरण के कारक मानव स्वास्थ्य को होने वाले नुकसान से सुरक्षा के मामले में भारत का प्रदर्शन बहुत खराब है । वन, मात्सियिकी एवं जल संसाधनों को छोड़कर वर्ष २०१४ के लिए निर्धारित सभी नीतिगण मुद्दों में भारत का प्रदर्शन निराशाजनक रहा । भारत में प्रदूषण का स्तर यहां के नागरिकों के जीवन पर घातक प्रभाव डाल रहा है ।
    अध्ययन में यह बताया गया है कि भारत का वायु प्रदूषण दुनिया में सबसे खराब स्थिति में है । यदि चीन की जनसंख्या के साथ तुलना की जाए तो यहां वायु प्रदूषण का औसत स्तर बहुत ज्यादा है । नासा के उपग्रह के द्वारा एकत्रित आंकड़ों का गहराई से अवलोकन करने पर यह पता चलता है कि दिल्ली में हवा में प्रदूषित कणों का स्तर २.५ है, इसके बाद बीजिंग का स्थान आता है । दिल्ली में ८१ लाख पंजीकृत वाहन है, जोकि हवा में प्रदूषक तत्व छोड़ते रहते है । दिल्ली को अपनी चपेट में लेने वाले घने कोहरे का प्रमुख कारण यहां के वाहनों एवं उद्योगों द्वारा उत्सर्जित किया जाने वाला प्रदूषण है । इस मामले में बीजिंग का कोहरा भी काफी चर्चा में रहता है जिसके कारण यहां की सरकार को इस ओर ध्यान देने के लिए बाध्य होना पड़ता है लेकिन दिल्ली में इसके खतरे को नजरअंदाज किया जाता है । हार्वर्ड इंटरनेशनल रिव्यु के अध्ययन के अनुसार दिल्ली के हर पांच में से दो व्यक्ति को श्वसन संबंधी बीमारियों से जूझना पड़ रहा है । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी गतवर्ष वायु प्रदूषण को कैंसर फैलने का एक प्रमुख कारण बताया था । हवा मेंउपस्थित २.५ माइक्रॉन्स से छोटे कण सांस के साथ शरीर मेंपहुंच कर फेफड़े व ब्लड टिश्यू को नुकसान पहुंचाता है जिसके कारण ह्दयाघात से लेकर फेफडे के कैंसर जैसी बीमारियां हो   जाती है ।    
सम्पादकीय
प्रकृति को भी चाहिये जीवन का अधिकार

    हमारा अस्तित्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से है । भारतीय चिंतन मेंजीवन के ये पांच महाभूत है । सभी प्राणी इन्हीं पर निर्भर है । संविधान ने हमें अनेक मौलिक अधिकार है, लेकिन प्रकृति को जीवन का भी मौलिक अधिकार नहीं है । नदिया जल प्रवाह हैं, यह नदियों का स्वभाव है, पर विकास के नाम पर उनका जल प्रवाह बाधिक है । वायु प्राण है । वायु में तरह-तरह के प्रदूषण है । ओजोन परत भी असुरक्षित है । प्रकृति में कई जीव है । पर्यावरण बनाए रखने में सबकी भूमिका है । पर्यावरण चक्र पर मनुष्य के अलावा दूसरा कोई जीव हमला नहीं करता है, मगर कीट पतिंगों सहित सभी जीवों के अस्तित्व पर संकट हैं । मनुष्य अपनी संस्कृति पर गर्व करता है मगर आधुनिकता में अपने मौलिक अधिकार के अलावा दूसरे के अस्तित्व का स्वीकार भी नहीं है । कोई मनुष्य अकेले रहकर ही सभ्य नहीं होता । विचार करे तो अधिकारवाद में केवलअपनी ही चिंता है और कर्तव्यबोध में अन्य सभी की ।
    भारतीय जीवन दर्शन में कर्तव्य पर जोर रहा है । नदी, वन, समुद्र, पर्वत, पशु, जगत व कीटपतिंगों के प्रति भी हमारे कुछ कर्तव्य है । यह और बात है कि पशुआेंसहित कई प्राणी वनस्पतियां हमारे लिए उपयोगी भी हैं । वे उपयोगी न हों, तो भी उन्हें जीवन के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता । पेड़-पौधों की संवेदनशीलता से वे मनुष्य को दूर से ही पहचान लेते है । गाय,बैल, भैंस, बकरियां भी संवेदनशील हैं, पर उन्हें काटा जाता है । पशु जगत के पास जीवन का अधिकार नहीं है । प्राणी को जीवन से वंचित करना कहां का न्याय है ?
    जीवन का अधिकार प्राकृतिक है । प्रकृति की उमंग का विस्तार जीवन है । एक निश्चित समय पर प्रकृति ही जीवन को वापस लेती है । हर पौधा, पशु, पक्षी या कोई भी जीवन और नदी, सबके सब प्रकृति की सृजन शक्ति का ही विस्तार है । विचार अभिव्यक्ति का अधिकार खूबसूरत है । हम सब इसका सदुपयोग दुरूपयोग की हद तक करते हैं। सृष्टि के हरेक जीव, वनस्पति और रूप आकार के मौलिक अधिकार का संरक्षण होना चाहिए क्योंकि प्रकृति को भी जीवन का अधिकार है ।     
सामयिक
ग्रीन बोनस दे सकता है, सुरक्षा कवच
डॉ. भरत झुनझुनवाला

    उत्तराखंड एवं हिमाचल प्रदेश में लागू टैक्स की छूट के स्पेशल पैकेज को चार वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया है । इन पैकेजों का पर्यावरण पर भयंकर दुष्प्रभाव पड़ रहा है । उद्योगों को आकर्षित करने के लिए ये राज्य अपनी नदियों के एक-एक इंच बहाव को हाइड्रो पावर के लिए बांधों में बांधना चाहते हैं ताकि उद्योगों को बिजली मुहैया कराई जा   सके ।इस प्रकार आर्थिक विकास और पर्यावरण के बीच अंतर्विरोध पैदा हो रहा है । लेकिन पहाड़ी राज्यों को राहत देना भी जरूरी है । कठिन भूगोल के कारण इन राज्यों में उद्योग नहीं लग रहे हैं और इनका पिछड़ापन दूर नहीं हो रहा है । इस समस्या का उत्तम उपाय है कि टैक्स में छूट के स्थान पर इन्हें ग्रीन बोनस दिया जाये । 
     ग्रीन बोनस का आधार है कि मैदानी क्षेत्रों द्वारा फैलाये गये प्रदूषण को पहाड़ी क्षेत्र दूर करते हैं इसलिये उन्हे  इस कार्य को भुगतान किया जाना चाहिये । मैदानी राज्यों में उद्योगों एवं गाड़ियों द्वारा जहरीली कार्बन डाईऑक्साइड गैस को वायुमंडल में छोड़ा जाता है । पहाड़ी राज्यों के जंगलों द्वारा इस कार्बन को सोख लिया जाता है । मैदानी राज्य के लोग कार्बन उत्सर्जन के दुष्प्रभावों जैसे दूषित वायु के कारण होने वाले रोगों से बच जाते है । वायुमण्डल का तापमान कम हो जाता है और पंखा और एयरकंडीशनर को चलाने में लगने वाली बिजली की बचत होती हैं । लेकिन पहाड़ी राज्यों को हानि होती है । वे जंगल काटकर लकड़ी बेचने और खेती करने से वंचित हो जाते हैं । इसी प्रकार मैदानी राज्यों द्वारा नदियों में गन्दे पानी को छोड़ा जाता है । इस प्रदूषण को साफ करने की नदी की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि पहाड़ों में नदी का मुक्त बहाव कितना है । मुक्त बहाव में नदी का पानी पत्थरों से टकराता है और कॉपर तथा क्रोमियम सोख लेता है । इन धातुआें से नदी की प्रदूषण वहन करने की शक्ति में सुधार होता है । परन्तु नदी के मुक्त बहने के लिए पहाड़ी राज्यों को जल विद्युत परियोजनाआें से पीछे हटना पड़ता है । इससे पहाड़ को नुकसान और मैदान को लाभ होता है ।
    योजना आयोग ने कहा है कि जंगल संरक्षित करने के लिए पहाड़ी राज्यों को क्षतिपूर्ति की जानी चाहिये । सुप्रीम कोर्ट ने भी एक दशक पूर्व निर्णय दिया था कि जिन राज्यों में जंगल कम है, उनके द्वारा अधिक जंगल बचाने  वाले  राज्यों को भुगतान किया जाना      चाहिये । लेकिन मैदानी राज्यों द्वारा इस प्रस्ताव का विरोध किया गया था । तब हल निकाला गया कि केन्द्र द्वारा राज्यों को दिये जाने वाले अनुदान में पर्यावरण संरक्षण के लिए भी अंक दिये जाये । ऐसा करने से पर्यावरण का ध्यान रखने वाले राज्यों को अधिक रकम मिलेगी । हाल में योजना आयोग ने यह भी कहा है कि उत्तराखंड एव हिमाचल को प्लान खर्चो के लिए केन्द्रीय अनुदान बढ़ाकर दिया जायेगा क्योंकि वे प्राकृतिक संसाधनों का सरंक्षण कर रहे हैं जिसका लाभ पूरा देश उठा रहा है । लेकिन इस प्रकार के भुगतान से जंगलों और नदियों का संरक्षण होगा, इसमें संदेह  है । एक रपट के अनुसार बा्रजील के जंगलों को बचाने के लिए विदेशी डोनरों ने अरबों रूपये ब्राजील सरकार को दिये है परन्तु जंगलों का कटान जारी है ।
    इसी प्रकार अपने देश में पहाड़ी राज्यों को दिया जाने वाला यह अनुदान राज्य सरकारों द्वारा सामान्य खर्चो को पोषित करने में व्यय हो जायेगा और पर्यावरण की हानि पूर्ववत् बनी रहेगी । कारण यह कि दी जाने वाली रकम का संबंध वर्तमान कार्यकलापों से नहीं बल्कि पूर्व से उपलब्ध संसाधनों से है । अत: ग्रीन बोनस देने का ऐसा उपाय ढूंढना होगा कि पहाड़ी राज्यों के लिए जंगल और नदी को संरक्षित करना लाभप्रद हो जाये । इसी प्रकार वर्तमान में नदियों का जितना मुक्त बहाव है उसे बनाये रखने पर ही ग्रीन बोनस देना चाहिये । यदि राज्य द्वारा सड़क बनाने को कुछ जंगल नये स्थान पर लगाने पर ग्रीन बोनस देना चाहिये  ।
    दूसरा सुझाव है कि ग्रीन बोनस की रकम प्रभावित जनता को देनी  चाहिये । उत्तराखंड में पंचायतों की व्यवस्था है । ग्रीन बोनस इन पंचायतों को देना चाहिये । यह रकम भी जंगल और नदियों की स्थिति को नाप कर देनी चाहिये । पहाड़ी क्षेत्रों में गैस सिलेंडर की आपूर्ति घर पर और कम दाम पर करनी चाहिये । ग्रीन बोनस की रकम को सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिए उपयोग करना चाहिये ताकि जल विद्युत के लिए नदियों को नष्ट न किया जाये ।
    तीसरा सुझाव है कि निजी भूमि धारकों को खाली पड़ी जमीन पर जंगल लगाने के लिए अनुदान देना चाहिये । पहाड़ में खेती दुष्कर है जबकि जंगल लगाना सुलभ है । चीन में निजी जंगलों को लगभग २,२०० रूपये प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष दिया जाता है । पहाड़ी राज्यों द्वारा इस प्रकार अनुदान दिया जा सकता है ।    
    विषय का दूसरा पक्ष अन्य स्त्रोतों से मिलने वाली रकम है । यूरोपीय यूनियन द्वारा जारी एक पर्चे में ऐसे कई स्त्रोतों का विवरण दिया गया है । पहला कि निजी दानदाताआें द्वारा प्रकृति के संरक्षण के लिए दान दिया जाता है । दूसरा कि पर्यावरण से जुड़े राजस्व जैसे नेशनल पार्क की एंट्री फीस । तीसरा वन को लाभ पहुंचाने वाली संपदा जैसे शहद की बिक्री । मधुमक्खियां होगी तभी शहद बिकेगा । राज्य को इस प्रकार के राजस्व से जितनी प्रािप्त् हो उसके बराबर मैचिंग अनुदान केन्द्र द्वारा दिया जा सकता है ।
    पहाड़ी राज्यों को टैक्स में छूट के स्थान पर दीर्घकालीन ग्रीन बोनस दिया जाना चाहिये । टैक्स में छूट के प्रभावी होने में यंू भी संदेह हैं । गोवा में ऐसा ही छूट पूर्व में दी गई थी । पाया गया कि छूट में समािप्त् के साथ-साथ तमाम कम्पनियां गोवा छोड़कर वापस लौट गयी । उनका उद्देश्य गोवा का औघोगीकरण नहीं बल्कि टैक्स में छूट का लाभ उठाना मात्र था ।
 हमारा भूमण्डल
विश्व के सर्वाधिक जहरीले स्थान
जोई लोफ्ट्स फेरीन

    अमीर देशों की बढ़ती उपभोक्ता  मांग के चलते अल्प विकसित एवं विकासशील देश जहरीले प्रदूषण का शिकार हो रहे हैं । विश्वभर से जहरीला कचड़ा इकट्ठा होकर घाना जैसे देशों में पहुंचता है और वहां वह उपचारित होता है । वहीं दूसरी ओर रसायन निर्माण इकाईयां स्थानीय लोगों की आयु घटा रही है और सोने का खनन लोगों की जान पर भारी पड़ रहा है ।
    ग्रीन क्रास स्विटजरलैंड एवं अमेरिका स्थित ब्लेकस्मिथ इंस्टिट्यूट ने हाल ही में दुनिया के दस शहरों को एक यथार्थवादी संज्ञा  देते  हुए इन्हें  मानव स्वास्थ्य के लिए सर्वाधिक जहरीला स्थान निरुपित किया है । घाना में स्थित ई-वेस्ट (इलेक्ट्रानिक अपशिष्ट) से लेकर इंडोनेशिया में सोने की खदान वाला क्षेत्र और बांग्लादेश में चमड़ा सफाई संकुल इन दस सर्वाधिक जहरीले खतरों में शामिल हैं जो कि जहरीले प्रदूषण के वैश्विक संघर्ष पर प्रकाश डालते हैं । ये स्थान ब्लेकस्मिथ इंस्टिट्यूट द्वारा विश्वभर में ३००० जहरीले स्थानों, जिनकी संख्या में दिनोंदिन वृद्धि हो रही है, में से चुने गए हैं । इनका चयन वहां जहरीले प्रदूषकों की मौजूदगी, लोगों के उसके संपर्क में आने की मात्रा और खतरे में लोगों की संख्या के आधार पर किया गया है ।
     जहरीले प्रदूषण से मानव स्वास्थ्य  को गंभीर नुकसान पहुंच सकता है । यह कैंसर शारीरिक दुर्बलता, अंगों को नुकसान एवं श्वास संबंधी समस्याओं का जाना-माना कारण है । अनुमान है कि विश्वभर में २० करोड़ लोगों के स्वास्थ्य को प्रदूषण से खतरा है । स्विटजरलैंड स्थित ग्रीनक्रास के  डॉ. स्टीफन रॉबिन्सन का कहना है कि प्रदूषण से होने वाली मृत्यु की तुलना एचआईवी एवं तपेदिक से की जा सकती है । जबकि उपरोक्त समस्याओं से निपटने के लिए वैश्विक तौर पर अरबों डॉलर के कार्यक्रम चल रहे हैं, लेकिन प्रदूषण से निपटने के लिए इस तरह की पहल का सर्वथा अभाव है । ब्लेकस्मिथ इंस्टिट्यूट के वरिष्ठ कार्यक्रम निदेशक ब्रेट इरिक्सन का कहना है, हमारे आंकड़ों (३००० जहरीले स्थानों के आधार पर) में सर्वाधिक बड़ा मुद्दा अनौपचारिक तौर पर बैटरियों को पिघलाना है और कुआें के माध्यम से सोने का खनन वैश्विक तौर पर प्रदूषण दूसरा सबसे बड़ा मुद्दा है ।
    रूस का ड्झेरझिंक जिसे १० जहरीले स्थानों में शामिल किया गया है, में रसायन निर्माण के लंबे इतिहास के परिणामस्वरूप एवं अव्यवस्थित अपशिष्ट निदान की वजह से हालात विशेष रूप से खराब हैं । यहां निवास करने वाले पुरुषों की औसत आयु ४२ वर्ष एवं महिलाओं की ४७ वर्ष है। नाईजीरिया के नाइजर नदी घाटी में सन् १९७६ से अब तक तेल के करीब ७००० कुएं खोदे जा चुके हैं । इसकी वजह से यहां के निवासियों में कैंसर एवं श्वास संबंधी बीमारियों के में वृद्धि हुई है इसी के साथ स्थानीय बच्चें की  बीमारियों में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है । कम एवं मध्य आय वाले देशों में जहां खनन एवं निर्माण उद्योग बहुतायत में हैं के पर्यावरणीय नियमन कमजोर हैं और पर्यावरण को सुधारने के लिए धन की कमी है । ऐसे अधिकांश जहरीले स्थान वहीं पर पाए जाते हैं । इरिक्सन का कहना है कि ``कुल मिलाकर उच्च् आय वाले देशों ने इस समस्या से पार पा लिया है । हम यह मान बैठे है कि हमने पर्यावरण प्रभाव आकलन कर लिया है।
    ब्लेकस्मिथ इंस्टिट्यूट के सहायक निदेशक डॉ. जेक कारवानोस का मानना है कि, ``विश्वभर का जहरीला प्रदूषण अंतत: घूमकर उच्च् आय देशों द्वारा की गई उपभोक्ता मांग के कारण लौटकर उन्हीं के पास पहुंचता है। (अमेरिका में) आपका सारा शरीर मूलभूत रूप से उन रासायनिक तत्वों से ढका हुआ है जो कि अन्य देशों से इसलिए आता है, क्योंकि ये देश तो इनका उपयोग करने में समर्थ ही नहीं हैं ।`` इतना ही नहीं इन्हें विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठ न एवं एशिया विकास बैंक जैसे आंचलिक एवं अंतरराष्ट्रीय संगठनों से धन प्राप्त होता है । इरिक्सन का यह भी कहना है कि ``इन्हें उपचारित करने की राह का बड़ा रोड़ा खतरनाक अपशिष्ट के भराव हेतु जमीन की कमी है । कुछ मामलों में उपचार करने हेतु काफी समय भी लगता है । चेरनोबिल के आसपास का क्षेत्र आगामी २०० से ३०० वर्षों तक न तो रहने और ना ही आर्थिक उद्देश्यों के  लिए काम में आ सकता है ।
    प्रदूषण की तस्वीर डरावनी नजर तो अवश्य आ रही है, लेकिन कुछ अच्छी खबरें भी हैं। सन् २००७ में नामित दस सर्वोच्च् जहरीले खतरों वाले कुछ स्थल इस बार की सूची में नहीं हैं । कम से कम ऐसा एक स्थान है डोमिनिकन गणराज्य के लेड बैटरी गलन क्षेत्र को उपचार सुविधा के  माध्यम से पूरी तरह से उपचारित कर दिया गया है और इसके परिणामस्वरूप स्थानीय बच्चें के स्वास्थ्य में सुधार भी हुआ है ।     हाल ही के वर्षों में कुछ सरकारों ने जहरीले प्रदूषण से निपटने में खास प्रतिबद्धता दर्शाई है । उदाहरण के लिए भारत ने इस दिशा में व्यापक कार्य प्रारंभ किया है। साथ ही यहां राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा कोष की स्थापना भी की गई है, जो कि इन प्रदूषित क्षेत्रों के पुनरूद्धार का कार्य करेगा ।
विशेष लेख
पर्यावरण की अर्थशास्त्रीय अवधारणा
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

    दार्शनिक विचारक वर्नान हावर्ड की सूक्ति  जब आपकी जिंदगी की बाजी जीत ली है ।   मेरा मानना है कि प्रकृति एवं पर्यावरण के संरक्षण के लिए हमें सीमित आवश्यकता के दर्शन को अपनाना चाहिए । पारिस्थिक तंत्र एवं अर्थतंत्र के समन्वय का विचार करना चाहिए ।
    अर्थशास्त्रियों की मान्यता है कि अर्थशास्त्र की विषय वस्तु अभाव ही है । संसाधनो का सदैव अभाव बना रहता है । स्वभाविक प्रश्न यह उठता है कि अभाव क्यों महसूस होता है ? इसका एक मात्र उत्तर है कि हम सदैव जितना हमारे पास होता है उससे अधिक चाहते है अत: सदैव अभाव बना रहता है । पर्यावरण के हित में हमें केवल इतना समझना है कि जब हम निर्वक सम्मत उपयोग करते हैं । त्याग के साथ ग्रहण करते हैं तो सृष्टि में समभाव बना रहता   है । संतुलन रहता है और जीवन का स्पंदन रहता है । 
     भारतीय संस्कृति एवं प्रकृति का वीथिकाआें, वनस्पतियों एवं जन्तुआें से गहरा संबंध रहा है । हमारी प्रकृति एवं संस्कृति का मूल मंत्र यह है कि हम पोषण करें । न तो शोषण करें न शोष को सहे । विदूषता यह है कि आजकल शोषणकारी प्रवृत्ति के कारण प्रकृति एवं पर्यावरण में असंतुलन पैदा कर दिया है । सिद्धान्त एवं सामाजिक व्यवहार के बीच दूरी बढ़ी है । हर सख्स सबकुछ अपनी झोली में समेट लेना चाहता है यह स्थिति पर्यावरणर की अर्थवत्ता के लिए घोतक है । हमारी चाहत है कि पर्यावरण अक्षुण्य रहे तथा हमें सुख- समृद्धि सदैव प्राप्त् हो ।
    सृष्टि में सर्वत्र विनिमय है । एक सुदीर्घ श्रृंखला है हमारे चारो ओर, और यही श्रृंखला हर जीव को आपस में जोड़ती है । क्या हम समक्ष सकते है कि जल में रहने वाली मछली का हमारे स्वास्थ्य से संबंध है । कतिपय मत्स्य प्रजातियों मच्छरों के लाखा खाती हैं और इस प्रकार परोक्ष रूप से वह मच्छर जनित बीमारियों से हमारी रक्षा करती है । क्या हम समझ सकते है कि जंगल के मांस पक्षी शेर का हमारी खाद्य श्रृंखला से नाता है । हम जानते है कि शाकाहारी जंगली हाथी जंगल में अपने आहार के लिए उत्पात मचाते है । वह, पेड़ तक उखाड़ देते है । दरअसल प्रकृति चाहती है कि ऐसा हो क्योंकि इससे उन वृक्ष प्रजातियों को पनपने का अवसर मिलता है जो प्रभावी प्रजातियों के पनपने के कारण दबी रह जाती हैं । अत: हाथियों के व्यवहार से वन वनस्पतियों में सामुदायिक विकास होता है । जब हम विनिमय की अवधारणा को समझने का प्रयास करते हैं तब यह पाते है कि हमारे चारों ओर हर चीज हमारे जीवन से जुड़ी है । प्रकृति की जो प्रणाली हमें सरल दिखलाई देती है वह बड़ी जटिल है । हमें प्रकृति के प्रत्येक संसाधन के प्रति सतर्क दृष्टि रखनी चाहिए तथा विवेक सम्मत रहना चाहिए ।
    यह सुस्थापित तथ्य है कि बाजार की अवधारणा और अर्थव्यवस्था में अभाव ही हमें संसाधनों के कुशन उपयोग करने में मददगार होते हैं अब यह तथ्यगत प्रश्न उठता है कि अभाव किस प्रकार पर्यावरण के स्वभाव तथा हमारे सदभाव से जुड़ा है । मनुष्य के अस्तित्व के लिए पर्यावरण का संतुलित एवं संवर्धित रहना उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार प्रगतिशील जीव के लिए आर्थिक विकास । इकॉनामी एवं इकोलॉजी का परस्पर घनिष्ठ संबंध है । परितंत्र एवं अर्थतंत्र परस्पर पूरक है ।
    पर्यावरण तभी सुरक्षित है जब कि अर्थतंत्र भी मजबूत हो और कृषि क्षेत्र में विकास हो । यह बात तब उजागर होती है जब हमारी सरकार उपलब्धियों और चुनौतियों का लेखा जोखा देती है । किन्तु ध्यान रहे उत्पादन, उपयोग उद्योग के साथ-साथ हमें अपनी धरती की धारण शक्ति एवं अन्नपूर्णता का ध्यान भी रखना होगा।
    समावेशी विकास की बात उठी है । निचले तबके के भूमिहीन खेती हर किसान तथा पिछड़े लोगों को आर्थिक एवं सामाजिक संबल प्रदान करने की जरूरत है । सेवा दायरा बढ़ाने की भी आवश्यकता है ताकि शिक्षा, कानून, सुरक्षा, पर्यटन एवं वित्तीय सेवकों की पूर्ति हो सके । सबको समान अवसर मिले । सार्वजनिक एवं निजी भागीदारी सुनिश्चित हो । दूरसंचार के समग्र विकास की जरूरत है । शहरी क्षेत्रों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में दूर संचार प्रणालियों विकसित की जाएं । ग्रामीण आबादी का शहरों को पलायन रूके । मँहगाई पर अंकुश लगे ताकि  उचित मूल्य पर सबको आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध हो । भूमि अधिग्रहण कहीं विकास की चमक में ग्रहण न लगा दे । बुनियादी ढाँचे का समयबद्ध ढंग से विकास करना होगा ।
    सुख समृद्धि के हेतु हमें धन का निवेश करने के परम्परागत साधनों की ओर ध्यान देना होगा । आज का धनिक वर्ग पर्यावरण को तोड़ने वाले साधनों पर धन का व्यय   करता है जबकि पहले लोग तालाब खुदवाते थे, बावड़ी बनवाते थे, बाग-बगीचे लगवाते थे । धर्मशाला, पाठशाला, गौशाला, अश्वशाला आदि बनवा कर लोकहितकारी कार्य किया करते थे । यह सुख साधन प्रकृति का संवर्धन करते थे । आज हम प्रदूषणकारी साधनों को अधिक अपनाते है जो ऊर्जा संकट को भी कई गुना बढ़ाते है । कहने का भाव है कि हमें पर्यावरण के परिवर्धन में धन का निवेश करना होगा । प्रकृति के प्रति श्रृद्धा का निवेश करना   होगा ।
    अक्सर हम लोग भौतिक साधनों को सुख से जोड़ते है किन्तु क्या अर्थ सम्पन्नता से हम सुखी हुए है । यदि ऐसा होता तो सम्पन्न व्यक्तियों को कोई दुख नहीं रहता किन्तु वास्तव में वह अधिक उद्विग्न, रूग्ण और अशांत रहते है । भौतिक सुख सुविधा से अधिक जरूरी है मन:  शांति । किन्तु आज की भौतिकवादी अर्थशास्त्रीय अवधारणा में मानस चिंतन का समय ही नहीं रहता है । सुख सुविधांए जुटाने के क्रम में मंत्रीकरण बढ़ा है । अत: हमें पर्यावरणोन्मुखी एवं समन्वय करणीय बनाना ही होगा तकि सुख समृद्धि के साथ शांति भी मिलें ।
जनजीवन
पूंजीवाद का उदय
कश्मीर उप्पल

    वैश्विक अर्थव्यवस्था पिछली दो  सहस्त्राब्दियों में अनेक मोड़ों से  गुजरी है । तमाम उतार चढ़ाव के बावजूद लगता है कि पूंजीवाद अब अर्थव्यवस्था का एक स्थायी अंग बन गया है । 
    पूंजीवाद शब्द की व्युत्पत्ति 'पंूजी` शब्द से हुई है । अत: पूंजीवाद को धन के शास्त्र के रुप में देखा जाता हैं, लेकिन अब यह पूर्णत: गलत साबित हो चुका है । पूंजीवाद का एक तत्व पूंजी है परन्तु यह इसके अन्य तत्वों के बिना एक तरह से निष्क्रिय रहता है । पूंजी के अन्य घटकों में मशीनें, तकनीक, शक्ति के साधन, कच्च माल और  ज्ञान विज्ञान का स्तर है । आजकल इन सभी तत्वों मंे तकनीक सबसे प्रमुख बन  गई  है । अमरीका और यूरोप की तकनीक ही है जो दूसरे देशों में कच्च माल और बाजार की खोज में घूम  रही है  ।  गौरतलब है विश्व के अनेक देशों के पास धन तो है पर तकनीक नहीं है  ।
     पूंजीवाद की पहली अवस्था में कोलम्बस की 'खोज` के फलस्वरुप गुलामों के सस्ते श्रम से ही यूरोप में कृषि, और यातायात का तेजी से विकास शुरु हुआ था । पूंजीवाद का अर्थ सर्वप्रथम दो ऐसी पुस्तकों के माध्यम से चर्चित हुआ था जो अपनी अवधारणा में  परस्पर विरोधी हैं । एडम स्मिथ की पुस्तक 'वेल्थ ऑफ नेशन्स` को पूंजीवादी व्यवस्था की आधारशिला माना जाता है । एडम स्मिथ ने सरकार की भूमिका को कानून व्यवस्था       और जनकल्याण तक सीमित कर आर्थिक क्रियाकलापों से दूर रखा था । उनके अनुसार राज्य का काम शासन करना है न कि व्यापार करना । इस तरह पूंजीवाद मंे निजी क्षेत्र केवल  आर्थिक कार्यकलाप सम्पन्न करता      है ।
    प्रसिद्ध लेखक मारिस डॉब के  अनुसार पूंजीवादी प्रणाली पर चर्चा के  लिए मूलत: कार्ल मार्क्स जिम्मेदार हैं । कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजिल द्वारा सन् १८४८ में 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र` (कम्युनिस्ट मेनिफोस्टो) में पूंजीवाद के विभिन्न स्वरूपों की  चर्चा की गई थी । इसी घोषणा पत्र के  माध्यम से दुनिया के सामने 'पूंजीवाद का सत्य` उजागर हुआ था । इस घोषणा पत्र` में पूंजीवाद के संबंध मंे कहा गया है कि पूंजीपति से है मतलब आधुनिक पूंजीपति वर्ग से अर्थात सामाजिक उत्पादन के साधनों के स्वामियों और उजरती श्रम के मालिकों से है । सर्वहारा से मतलब आधुनिक उजरती मजदूरों से है, जिनके पास उत्पादन का अपना खुद का कोई साधन नहीं होता, इसीलिए वे जीवित रहने के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए विवश होते है ।`
    मार्क्स की इस परिभाषा से यह बात समझ में आनी चाहिए कि महात्मा गांधी चरखे को इतना महत्व क्यों देते थे । गांधीजी ने उजरती मजदूरों को जिनके पास उत्पादन का अपना खुद का साधन नहीं होता, को चरखे से उत्पादन का एक साधन प्रदान किया था । गांधी लघु एवं कुटीर उद्योगों के माध्यम से भी मजदूरों को जीवन की सुरक्षा प्रदान करना चाहते थे । गांधीजी के  इन  प्रयोगों के फलस्वरुप ही श्रमिक जीवित रहने के लिए अपनी श्रमशक्ति बेचने को बाध्य नहीं होते हैं ।
    पूंजीवाद मंे मजदूरों के एक बहुत बड़े वर्ग को उत्पत्ति के साधनों के स्वामित्व से अलग कर दिया जाता है । इस स्थिति में प्रतीत होता है कि श्रमिकों की जीविका भूमि, कच्च माल, और  बैकों आदि के स्वामियों पर निर्भर करती है । इसलिए देश के अधिकांश लोगों की जीविका, सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता देने वालों के रूप में पूंजीपतियों की भूमिका किसी राष्ट्र की भूमिका से भी बड़ी दिखने लगती है । वैसे पूंजीवाद में दो वर्ग होते हैं । एक उत्पादन के साधनों के स्वामी और दूसरा उजरती मजदूरों का ।
    प्रसिद्ध अर्थशास्त्री सोम्बार्ट ने अपने अध्ययन मंे मध्यकाल में  सम्पत्ति के कुछ हाथों में एकत्रीकरण का अध्ययन किया था । उनके अनुसार रोम के पोप और सामंतों के आदेश से कुलीन जागीरदारों और यूरोप के  व्यापारिक केन्द्रों के कुछ व्यक्तियों के हाथों में विशाल सम्पत्ति  एकत्रित होने लगी थी ।
    मध्यकाल में सर्वप्रथम दस्तकारी पूंजीवाद प्रारंभ हुआ था ।  इसमें व्यापारी अग्रिम राशि देकर कारीगरों    का माल खरीद लेते थे। इस माल को व्यापारियों द्वारा दुनिया के बाजारों में ऊँची कीमत पर बेचा जाता था । १६वीं शताब्दी से लेकर १८वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक व्यापारियों की आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी । इतिहासकार इसका उल्लेख व्यापारिक क्रान्ति के रूप में करते हैं । इसमें  मजदूरों की  यथास्थिति बनी रही और लाभ के रूप में अतिरिक्त पूंजी व्यापारियों के  हाथ में केन्द्रित होती      रही ।
    पश्चिम यूरोप के देशों में धर्म ने भी पूंजीवाद के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । प्रोटेस्टेंट सुधारों (रिफॉर्मस्) के फलस्वरुप सम्पत्ति का अधिकार, उत्तराधिकार का नियम, अनुबंध की स्वतंत्रता, स्वतंत्र बाजार, साख प्रणाली और राजनैतिक संगठनों ने पूंजीवाद के विकास हेतु आवश्यक आधार स्थापित किया था । धार्मिक केन्द्रोंद्वारा धन अर्जित करने  वाले साहसिक कार्यों का सम्मान किया जाने लगा था । इसके फलस्वरूप लोगों मंे अधिकतम धन अर्जित करने की भावना उत्पन्न हुई ।
    औद्योगिक क्रान्ति कोई अचानक होने वाली घटना नहीं थी । पन्द्रहवीं शताब्दी  के बाद लगभग १५० वर्षो में  इसका विकास काल फैला  हुआ था । युद्ध और व्यापार मंे विजय पाने के लिए 'व्यापारिक-पूंंजीवाद` ने विज्ञान को प्रोत्साहन दिया । सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में नये बाजारों (देशों) पर अधिकार के प्रश्न पर कई युद्ध हुए । ब्रिटेन ने अपनी सामुद्रिक शक्ति के बल पर पुर्तगाल, स्पेन, हालैण्ड और फ्रांस पर विजय प्राप्त की थी । आर्थर बर्नी के अनुसार ब्रिटिश साम्राज्यवादी राज्य को प्रारंभ मेंअमेरिका और बाद मंे भारत पर अधिकार से विशाल शक्ति प्राप्त हुई थी । भारत की आर्थिक लूट से प्राप्त सम्पत्ति से ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति की नींव रखी गई थी ।
सामाजिक पर्यावरण
स्वयं को धिक्कारती मानवता
अमिताभ पाण्डेय

    भारत में घटता लिंगानुपात भविष्य के संकट का द्योतक है । ० से ६ वर्ष के आयु वर्ग में लड़कियों की घटती संख्या स्पष्ट  तौर पर दर्शा रही है कि कन्या भ्रूण हत्या जैसे अनैतिक व गैरकानूनी कार्य पूरेजोर शोर से जारी हैं ।
    अपने सिद्धांत, कार्य, व्यवहार के दम पर दुनिया भर लिए आदर्श बने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि जब तक बेटी के जन्म का स्वागत बेटे  के जन्म की तरह नहीं किया जाता तब तक हमे यह मान लेना चाहिए कि भारत आंशिक अपंगता से पीडित है । गांंधी जी के यह विचार यह संकेत करते हैं कि हमारा समाज बेटियों के  साथ न्याय नहीं कर रहा है । बेटियों के जन्म का उत्सव नहीं मना रहा है । इसके विपरीत बेटों के जन्म का लेते ही उत्सव का माहौल, खुशी के दृश्य दिखाई देने लगते हैं। 
     बेटियों को पैदा होने, पलने, बढने के पर्याप्त अवसर देने, बेटियों के साथ भेदभाव खत्म करने का उनका आग्रह हमारे समाज के लोग उसे आज भी पूरा नहीं कर पाए हैं । इसका नतीजा यह है कि समाज में बेटियों को पैदा होने से रोका जा रहा है । देश में कन्या भू्रण हत्या के मामले लगातार बढ रहे हैं । समाज में पुत्र पैदा करने की चाह,बेटी को पराया धन मानने की जो मानसिकता पीढियों से चली आ रही है उसमें अब तक प्रभावशाली बदलाव नहीं हो पाया है । इस प्रवृत्ति का परिणाम यह है कि हमारे देश में शिशु लिंगानुपात गड़बड़ा गया है । बेटियों की संख्या बेटों की तुलना में कम हो गई है । यदि हम मध्यप्रदेश के सन्दर्भ में देखें तो वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार प्रदेश में कुल  जनसंख्या ७ करोड़ २५ लाख है जिसमें ३ करोड़ ७६ लाख १२ हजार ९२० पुरुष और ३ करोड़ ४९ लाख ८४ लाख ६४५ महिलाएं है । मध्यप्रदेश के  ग्रामीण क्षेत्रों में लिंगानुपात प्रति १००० पुरुष पर ९३६ महिलाओं का है । यदि ग्रामीण क्षेत्र में ०-६ वर्ष के बच्चेंआंकडों को देखें तो प्रति १००० लडकों पर ९१७ बालिकाएं है ।
    इसी प्रकार मध्प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में लिंगानुपात प्रति १००० पुरुषों पर ९१६ महिलाओं का है । यदि शहरी क्षेत्र से ०-६ वर्ष के बच्चें के आकडें  देखें तो प्रति १००० लड़कों पर ८९५ लड़कियां हैं । इससे यह जाहिर होता है कि शहरी क्षेत्रों में लड़कों की तुलना में लड़कियां कम हैं। आंकडे बताते हैं कि आनुपातिक दृष्टि से ग्रामीण क्षेत्रों में बेटियां अधिक है । यानि शहरी क्षेत्र का पढ़ा लिखा समाज  बेटियोंं  के साथ उपेक्षित व्यवहार अन्यायपूर्ण आचरण अधिक कर रहा है । राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के  आंकडों से पता चलता है कि वर्ष २०११ मंे मध्यप्रदेश में लिंग चलन के ३८ मामले दर्ज किये गये हैं। यह संख्या बेहद कम है, जबकि ऐसे अनेक मामले हुए हैं जिनको आरोपियों को पकड़ा ही नहीं जा सका है । लिंग चयन की बढती घटनाओं के कारण ही मध्यप्रदेश के २२ जिलों में शिशु लिंगानुपात गड़बड़ा गया है ।  प्रदेश के २२ जिलों में प्रति १००० बच्चें की तुलना में बेटियांे का आंकड़ा ९०० के  आसपास ही सिमटकर रह गया है ।
    घटते लिंगानुपात को रोकने के सामाजिक और सरकारी प्रयास सार्थक परिणाम नहीं दे पा रहे हैैं। अधिकारिक जानकारी यह बताती है कि युध्द से ज्यादा मौतें लिंग चयन के कारण पिछले ६ वर्षों में हुई है । इस अवधि में साढ़े तीन करोड़ कन्याओं की भू्रण हत्या कर दी गई । बेटियोें को जन्म लेने से पहले ही मार डालने का यह सिलसिला समाज में अब भी लगातार चल रहा है । इसके  लिए पुरुषवादी मानसिकता के साथ ही वे चिकित्सक भी बराबर के दोषी हैं जो कन्या की धन के लालच में भ्रूण हत्या करने के लिए तैयार हो जाते है ।
    प्रशंगवश यह बताना जरूरी होगा कि भारतीय समाज में बेटे की चाह, पुत्र प्राप्ति की आंकाक्षा प्राचीनकाल से ही बलवती रही है । इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि    वैदिक एवं उत्तर वैदिक काल को छोड़कर अन्य कालखण्डों में बाहरी हमलों, आतंरिक रक्षा और सुरक्षा के  संघर्ष तथा अपना जीवन बचाये रखने की चुनौती ने परिवार-समाज-देश के प्रति उत्तरदायित्व के लिए पुरूष को अधिक जिम्मेदार बनाया । निर्णय लेने की क्षमता में भी पुरुष का पक्ष ही प्रधान रहा । इन सब कारणों के चलते समाज में पुरुषवादी मानसिकता प्रभावशाली होती चली गई। इस पुरुषवादी मानसिकता ने पुत्र को परिवार का भाग्य विधाता और पुत्री को परिवार पर निर्भर रहने का अघोषित संदेश समाज में प्रचारित प्रसारित किया । नतीजा यह रहा कि समाज में पुत्रों को अधिक महत्व मिलने लगा और बेटियों के बारे में उपेक्षित मानसिकता बना ली गई । इस मानसिकता को समय के साथ बढने का मौका मिला । यह मानसिकता आज कन्या भू्रण हत्या के रूप  में घर, परिवार, समाज, देश सबके सामने बड़ी सामाजिक बुराई के रूप में हमारे सामने है । कन्या भू्रण हत्या को रोकने के लिए बनाये गये नियम कानून लालफीतों की फाईलों में कैद होकर रह गये प्रतीत होते हैं । 
पर्यावरण परिक्रमा
दुनिया की २० फीसदी प्रजातियां लुप्त् होने के कगार पर
    संसार में जीव-जन्तुआें की लगभग २० प्रतिशत प्रजातियां लुप्त् होने के कगार पर है । पृथ्वी पर इस समय लगभग तीन करोड़ प्रजातियां है । एक अध्ययन में यह चेतावनी दी गई है ।
    वैज्ञानिकों को डर है कि यदि इस दिशा में ध्यान नहीं दिया गया, तो आने वाले समय में प्रतिवर्ष ५० प्रजातियों की दर से इनके विलुप्त् होने का खतरा है । उनका कहना है कि पर्वतीय गोरिल्ला और बंगाल टाइगर की दयनीय स्थिति के बारे में खूब चर्चा हो रही है, परन्तु लाखों अन्य प्रजातियों के भी विलुप्त् होने का खतरा है, जिस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा । ब्रिटिश मीडिया में जारी रिपोर्टो के अनुसार, वैज्ञानिकों ने २५ हजार से अधिक प्रजातियों का अध्ययन करने के बाद यह बात कही है । अध्ययन में पाया गया कि २५ प्रतिशत स्तनधारी, १३ प्रतिशत पक्षी, २२ प्रतिशत सरीसृप (रेंगकर चलने वाले) और ४१ प्रतिशत उभयचर (जल और जमीन दोनों पर रहने वाले) जीवों के विलुप्त् होने का खतरा है । शार्क, रेंज, स्केट और कुछ अन्य मछलियों की ३३ प्रतिशत प्रजातियों के भी खत्म होने का खतरा है । इंटरनेशल जर्नल ऑफ साईंस के अध्ययन में शामिल प्रोफेसर जोना-थाम बेली के हवाले से जानकारी दी गई है कि लगभग ११ हजार रीढयुक्त प्रजातियों पर विलुप्त् होने का खतरा मंडरा रहा है । बेली का कहना है कि अध्ययन से प्रतीत होता है कि पृथ्वी की तीन करोड़ प्रजातियों में से भविष्य में लगभग ६० लाख प्रजातियों के विलुप्त् होने का खतरा है ।
    वैज्ञानिकों ने पाया कि पिछले कुछ वर्षो में जीवों के संरक्षण के लिए किए गए उपायां से ६४ प्रजातियों को लाभ पहुंचा है । वैसे, जीवों के संरक्षण उपायोंपर बहुत कम पैसा खर्च किया जा रहा है । प्रजातियों के विलुप्त् होने के अभूतपूर्व खतरे को देखते हुए इस दिशा में प्रयास और तेज करना   होगा ।
क्या फिर आएगा हिम युग
    क्या धरती पर मिनी हिम युग आ रहा है ? क्या सूरज को नींद  आ रही है और वह सोने जा रहा है ? वैज्ञानिकों की मानें तो ऐसा हो रहा है और सूरज की गतिविधियों सुस्त हो रही हैं । स्थिति बहुत हद तक १६४५ जैसी है, जब धरती पर मिनी हिम युग आया था और लंदन की थेम्स नदी जम गई थी । वैज्ञानिकों का मानना है कि यह सोलर ठहराव पृथ्वी के मौसम में बड़ा परिवर्तन ला सकता है । इस बात की भी २० प्रतिशत संभावना है कि इसके चलते पृथ्वी के तापमान में जबरदस्त कमी आएगी ।
    ऑक्सफोर्डशायर की रदरफोर्ड एप्पलटन लेबोरेटरी के वैज्ञानिकों रिचर्ड हैरीसन कहते हैं, सूरज पर होने वाली गतिविधियां अपने उच्च्तम स्तर को छूकर नीचे आ रही है । वह कहते है, मैं ३० साल से सौर विज्ञानी हॅू । मैने इससे पहले ऐसी चीज कभी नहीं देखी । यह सौर घटना हिम युग जैसी सदी ला सकती है । युनीवर्सिटी ऑफ रीडिग के माइक लॉकवुड कहते हैं कि तापमान बेहद कम हो जाने से पृथ्वी की मौसम प्रणाली ध्वस्त हो सकती है ।
    पिछले वर्ष अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने चेतावनी दी थी कि सूर्य पर कुछ अवांछित हो सकता है । वैज्ञानिकों के अनुसार २०१४ सोलर मैक्सिमम वर्ष है । यह ११ साल चलने वाले सन स्पॉट साइकिल (सूर्य धब्बों के चक्र) का उच्च्तम स्तर होता है । लेकिन नासा द्वारा ली गई सूर्य की तस्वीरों से साफ है कि सौर गतिविधियों तुलनात्मक तौर पर काफी धीमी है । नासा का कहना है कि सूर्य पर नजर आ रहे धब्बे भी २०११ की तुलना में काफी कम संख्या में दिखाई दे रहे हैं । इसके साथ ही सूर्य से उठने वाली ताकतवर सौर लपटें भी कभी-कभी ही उठ रही है ।
    हालांकि कुछ सौर वैज्ञानियों का मानना है कि नासा सूर्य पर हो रही गतिविधियों को पढ़ने में गलती कर रही है । नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट के सौर विज्ञानी डीन पेनसेल का मानना है कि यह सोलर मैक्सिमम ही है । यह हमारी अपेक्षाआें से अलग इसलिए दिख रहा है, क्योंकि इसके २उच्च्तम स्तर है । इससे पहले १९८९ और २००१ में आए अंतिम २ सोलर मैक्सिमम में भी एक नहीं बल्कि २ उच्च्तम स्तर देखे गए थे । उनका मानना है कि सौर गतिविधियों को चक्र २ साल का होता है । इसमें यह तेज होती है, धीमी होती है और फिर तेज होती     है । इस तरह यह एक मिनी साइकिल बनाती है ।
    माउंडर मिनिमम उस अवधि को कहते है जो १६४५ से शुरू होकर १७१५ तक चली थी । तत्कालीन सौर पर्यवेक्षकों के रिकार्ड के अनुसार इस दौरान सूर्य के धब्बे अत्यन्त कम या दुर्लभ हो गए थे । इसके चलते लंदन की थेम्स नदी जम गई थी । सौर ठहराव की इस अवधि मेंसामान्यत: बर्फ से मुक्त रहने वाली नदियां जम जाती है और कम ऊँचाई के मैदानों में साल भर बर्फ जमी रहती है ।
कम कैलोरी खर्च करने से मानव ज्यादा जीत हैं
    हाल में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि मानव और वानर जाति के प्राणी अन्य स्तनधारियों के मुकाबले रोजाना आधी कैलोरी की खपत करते हैं ।
    वैज्ञानिकों के मुताबिक इसके कारण मानव और वानरों का जीवन अपेक्षाकृत सुस्त होता है और यही उनके लम्बे जीवन का राज है । मानव, चिम्पाजी, बबून तथा अन्य वानर श्रेणी के जीव अन्य स्तनधारी प्राणियों के मुकाबले आधी कैलोरी की खपत करते हैं ।
    न्यूयार्क के हंटर कॉलेज के मानव विज्ञानी और अध्ययन के प्रमुख लेखक हरमन पोंट्जर ने काह कि इस बात को ध्यान में रखा जाए तो एक अत्यधिक सक्रिय जीवन शैली वाले व्यक्ति को भी अपने आकार के दूसरे स्तनधारी प्राणियों इतनी औसत ऊर्जा कम खर्च करने के लिए रोज मैराथन दौड़ लगाना होगा । उपापचय की इतनी सुस्त प्रक्रिया से ही पता चलता है कि मानव और अन्य वानर जाति के प्राणी क्यों धीरे-धीरे बढ़ते है और क्यों इतना लंबा जीवन जीते हैं । शोध पत्रिका प्रोसिडिग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रकाशित शोध आलेख में कहा गया कि परिवार में पलने वाले कुत्ते या अन्य कई ऐसे स्तनधारी जीव हैं, जो कुछ ही महीनों में जवान हो जाते हैं और ढेर सारे बच्च्े पैदा कर लेते हैं तथा अधिक से अधिक १०-२० साल में मर जाते हैं ।    
    आलेख में आगे कहा गया है कि दूसरी ओर मानव तथा वानर जाति के अन्य प्राणियों का बचपन काफी लंबा होता है । वे कम बच्च्े पैदा करते हैं और काफी लम्बा जीवन जीते है ।
भारतीय भाषाआें में अनुवाद की सुविधा देगा इंडो-वर्डनेट
अंग्रेजी से भारतीय भाषाआें में अनुवाद की कठिनाई दूर करने के लिए इंडो-वर्डनेट ट्रांसलेशन टूल  लाया जा रहा है । इसके जरिए १८ भारतीय भाषाआें में अनुवाद किया जा सकेगा । इसे आईआईटी बॉम्बे की टीम विकसित कर रही है ।
    इंग्लिश टू इंडियन लैंग्वेज मशीन ट्रांसलेशन (ईआईएलएमटी) के दूसरे चरण पर काम चल रहा है । इस पूरे प्रोजेक्ट का नाम इंडो-वर्डनेट रखा गया है । इस टूल और सर्च इंजन के जरिए अंग्रेजी से हिन्दी, बांग्ला, मराठी, उड़िया, उर्दू, तमिल, बोडो, गुजराती, असमिया, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी नेपाली, पंजाबी, संस्कृत और तेलुगु में अनुवाद हो सकेगा । इन भाषाआें से अंग्रेजी अथवा इन्हीं में से एक-दूसरे में भी अनुवाद करना सरल होगा । इंडो-वर्डनेट पर्यटन उद्योग, लेखकों और अनुवादकों के लिए खास उपयोगी होगा । भाषा विज्ञान में शोध कर रहे लोगों को भी लाभ मिलेगा ।
    अभी उपलब्ध अनुवाद टूल्स पर्याप्त् नहीं है । इन टूल्स के साथ फीड किए शब्द भारतीय भाषाआें की विविधता और व्याकरण के मुताबिक फिट नहीं बैठते है । लिहाजा पहले अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया जाता है । फिर अन्य किसी भाषा में अनुवाद होता है । कई बार कंटेट का सही अनुवाद भी नहीं हो पाता ।
    भारत की १८ भाषाआें के ४लाख ५६ हजार ७३९ शब्दों को इंडो-वर्डनेट का डिक्शनरी में फीड किया गया है । जिस भाषा का चयन अनुवाद के लिए किया जाएगा, की-बोर्ड भी खुद ही उस भाष में सिलेक्ट हो जाएगा । इस टूल के जरिए मणिपुरी बोलने वाला पर्यटक तेलुगु के शब्दों को आसानी से समझ सकता है । लीगल फील्ड में सक्रिय होने के बाद सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्ट के फैसलों को सभी भारतीय भाषाआें में अनुवाद के जरिए आसानी से पढ़ा-समझा जा सकेगा ।
    आईआईटी बॉम्बे से पहले ही द्रविड़ वर्डनेट का काम पूरा हो चुका है । प्रो. पुष्पक भट्टाचार्य और उनकी टीम ने इस काम को पूरा करने के बाद इंडो-वर्डनेट का काम शुरू किया था । द्रविड वर्डनेट में कन्नड़, मलयालम, तमिल और तेलुगु भाषाआें के बाद दो और भाषाआें    उर्दू व मराठी भाषा को जोड़ा गया  था ।
कविता
कविता और पेड़
डॉ. किशोर काबरा

तुमने खुब कविताएँ लिखी,
अच्छा किया ।
बहुत पुस्तकें छपवाई
यह भी अच्छा किया,
अब यह बताओ कि तुमने कितने पेड़ लगाए ?
क्योंकि
तुम्हारी एक पुस्तक तब छपी होगी,
जब सौ पेड़ कटे होंगे,
जब सौ पेड़ कटे होंगे
तब कितनी नदियाँ सूखी होगी ?
कितने पर्वत मिट होंगे,
कितने ग्लेशियर हटे होंगे ?
तुम कविता नहीं लिख रहे हो,
पर्यावरण का असन्तुलन बढ़ा रहे हो
जंगलों की छाती पर रेगिस्तान चढ़ा रहे हो ।
तुम्हें पीढ़ियां माफ कर दे, इतिहास क्षमा कर दे
पर ये पेड़ तुम्हें नहीं बख्शेगे ।
कविता के बदले सम्मान और पुरस्कार चाहते हो
तो पेड़ो का शाप भी तुम्हें भोगना पड़ेगा ।
और अब भी नहीं रूके
तो वह शाप तुम्हें चौगुना पड़ेगा ।
अब सब पक्षी पेड़ों का मातम मनाऍगे,
कोई एक शब्द भी नहीं चुगेगा ।
और-तो-और,
मरने के बाद तुम्हारी कब्र पर
एक तिनका भी नहीं उगेगा ।
विज्ञान हमारे आसपास
क्या गर्भ में पल रहा बच्च सीख सकता है ?
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

    क्या मां की कोख में पल रहा बच्च सीख सकता है ? इस बात को लोक कथाआें और दंत कथाआें में ही माना जाता रहा है कि बच्च्े अपनी मां की कोख में सीख सकते हैं । इसी विश्वास के चलते उम्मीदी मांएं, उनके परिवार और जन-मन-जन्म से पहले ही बच्च्े के लिए लोरियां और मीठे-मीठे गीत गाते हैं । लम्बे समय से चले आ रहे इस विश्वास को अब फिनलैण्ड में किए गए एक अध्ययन से थोड़ा समर्थन मिला है । पीएनएस के प्रकाशित इस अध्ययन का शीर्षक है लर्निग-इंस्टीट्यूट न्यूरल प्लास्टिसिटी ऑफ स्पीच प्रोसेसिंग बीफोर बर्थ । मतलब है कि जन्म से पहले वाणी की प्रक्रिया में सीखने द्वारा प्रेरित लचीलापन । अध्ययन का निष्कर्ष है कि जब किसी भ्रूण का संपर्क वाणी से होता है तो उसका मस्तिष्क प्रतिक्रिया देता है, उसे रिकार्ड करता है और कुछ शब्दों को याद रखता है । 
     पहला सवला तो यह है कि आप ऐसा प्रयोग कैसे करेंगे और इतने ठोस निष्कर्षो तक कैसे पहुंचेगें ? गौरतलब है कि भू्रणावस्था में शिशु का मस्तिष्क क्रमिक रूप से बढ़ता है और काफी तेजी से बढ़ता है । जब मस्तिष्क का विकास होता है तो तंत्रिकाआें के बीच लगातार नए-नए कनेक्शन्स स्थापित होते हैं । इन कनेक्शन्स को सायनेप्स कहते हैं ।  ऐसे कनेक्शन्स बनने से पेचीदा सूचनाआें को पहचानने, उनका विश्लेषण करने और रिकॉर्ड करने में मदद मिलती है । दूसरे शब्दों में, भू्रूणावस्था में शिशु का सिर्फ शरीर ही नहीं मस्तिष्क भी विकास करता है ।
    हमारी पांच संवेदनाआें - दृष्टि, स्पर्श, गंध, स्वाद और ध्वनि- में से ध्वनि एक ऐसा उद्दीपन है जो प्राय: कोख के बाहर से आता है । बाहर की गंध तो गर्भ में नहीं पहुंच सकती क्योंकि इसके अणु सारी बाधाआें को पार करके भ्रूण की नाक तक नहीं पहुंच सकते । जहां तक आखों का सवाल है, तो उनका अभी विकास हो ही रहा है अैर वैसे भी भ्रूण गर्भ  के अंधकार में है । स्पर्श अवश्य महूसूस हो सकता है । यदि मां अथवा अन्य लोग मां के पेट को सहलाएं, तो गर्भ में पलता शिशु इसे अवश्य महसूस करता है । शायद उसे अच्छा भी लगता होगा । मगर यदि यही स्पर्श झटके के रूप में हो, तो परेशान कर सकता है और खतरनाक भी हो सकता है । और यदि गर्भस्थ शिशु आवाज निकाले भी तो बाहर बैठा शोधकर्ता मात्र यह रिकार्ड कर सकता है कि गर्भ में से कुछ कंपन किनल रहे हैं । इन कंपनों का कोई अर्थ निकालना टेढ़ी खीर साबित होगा ।
     मगर आप बाहर से ध्वनि पैदा कर सकते हैं और यह जांच कर सकते हैं कि क्या गर्भस्थ शिशु इस पर ध्यान देता है  । कहने का मतलब यह है कि भ्रूण की श्रवणेंदी के साथ प्रयोग करना संभव है । फिनलैण्ड के समूह ने इस काम के लिए १७ उम्मीदी मांआें को शामिल किया । इन्हें हर सप्तह पांच से सात बार तीन शब्दों वाली ध्वनि (ींर-ींर-ींर) सुनाई जाती । हर बार यह ध्वनि ४ मिनट के लिए सुनाई जाती थी और इतनी जोर से सुनाई जाती थी कि यह गर्भ की दीवार को पार करके भ्रूण तक पहुंच सके । अलबत्ता, ध्वनि इतनी जोरदार भी नहीं होती थी कि भ्रूण को कोई नुकसान  पहुंचे ।
    इसके बाद उन्होनें यही प्रयोग जन्म के पांच दिन बाद दोहराया । वही ींर-ींर-ींर ध्वनि बजाई गई । मगर बीच में एकाध बार जानबूझकर बीच के शब्द का सुर बदल दिया गया (कहें तो ध्वनि को ींर-ढअ-ींर कर दिया गया) । या फिर कोई और बेमेल ध्वनि जोड़ दी जाती     थी । इन शिशुआें की खोपड़ी पर इलेक्ट्रोड लगाए गए थे ताकि लगातार उनक इलेक्ट्रो-एनसिफेलोग्राम (ईईजी) रिकॉर्ड होते रहें ।
    ईईजी से यह स्पष्ट हुआ कि जब भी जन्म-पूर्व वाली ध्वनि (ींर-ींर-ींर) बजाई जाती तो शिशु के मस्तिष्क में इसे दर्ज किया जाता था मगर जब बेमेल ध्वनि ींर-ढअ-ींर बजाई जाती तो प्रतिक्रिया अविलंब होती थी । यानी शिशु का मस्तिष्क इस बात को दर्ज करता था कि कुछ गड़बड़ है, मानो कह रहा हो, यह तो मेरे शब्द भण्डार से बाहर की चीज हैं ।
    तुलना के लिए यही प्रयोग कुछ ऐसे बच्चें के साथ भी किया गया जिन्हें जन्म से पहले ींर-ींर-ींर जैसी कोई ध्वनि नहीं सुनाई गई थी । इन शिशुआें ने ींर-ढअ-ींर जैसी बेमेल ध्वनि पर ऐसी कोई प्रतिक्रियापर ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी । इस प्रयोग से पता चलता है कि शिशु गर्भ में सुनी हुई शब्द ध्वनियों को सीख सकते हैं और जन्म से पूर्व सुने गए    शब्दों को जन्म के बाद भी याद रख सकते हैं ।        
    तथ्य यह है कि मानव भ्रूण में श्रवण शक्ति का विकास गर्भ के २७वें सप्तह में शुरू होता है । इसका मतलब यह होगा कि यदि इससे पहले गर्भस्थ शिशु का संपर्क ध्वनयिों से हो, तो इन्हें  दर्ज नहीं किया जाएगा । यह भी गौरतलब है कि शोधकर्ताआें ने निचले सुर की आवाजों का उपयोग किया था, ऊँचे सुर की नही । निचले सुर वाली आवाजें पदार्थो में से होकर बेहतर गुजरती हैं । जंगलों में हाथी और समुद्रों में व्हेल्स ऐसी ही निचले सुर वाली ध्वनियों का उपयोग संप्रेषण में करते  हैं ।
    एक सवाल यह है कि ऐसी   जन्म पूर्व स्मृतियां कितनी देर तक बरकरार रहेगी । इस दिशा में प्रयोग होंेगे तो कुछ रोचक परिणाम मिलने की उम्मीद की जा सकती है । और एक सवाल यह भी है कि क्या गर्भ में इस तरह के प्रशिक्षण से उन समस्याआें से छुटकारा पाया जा सकता है जो भाषा अर्जन में बाधा पैदा करती है (जैसे डिसलेक्सिया) । फिनलैण्ड के समूह को लगता है कि गर्भावस्था के दौरान सुनाए गए शब्द और गीत मददगार हो सकते हैं ।
    सुधी पाठकों के मन में यूनानी मायथॉलॉजी या महाभारत में अभिमन्यु का किस्सा तो कौंधा ही होगा । कहा जाता है कि अर्जुन अपनी पत्नी सुभद्रा को चक्रव्यूह तोड़ने का तरीका बता रहे थे । अभिमन्यु ने गर्भ में यह वार्तालाप सुन लिया था मगर सुभद्रा बीच में सो गई और अभिमन्यु अधूरी बात ही सुन पाया । परिणाम यह हुआ कि १६ साल बाद महाभारत युद्ध के दौरान अभिमन्यु चक्रव्यूह में घुस तो गया मगर परिणाम घातक रहे क्योंकि चक्रव्यूह को तोड़ना उसे नहीं आता था । सवाल यह है कि क्या जन्म-पूर्व सुने गए शब्द १६ साल तक याद रहते हैं ।
ज्ञान विज्ञान
फेसबुक मनुष्य को सामाजिक बनाता हैं या नहीं

    मनुष्य एक सामाजिक प्राणी    है । वास्तव में हम इनते सामाजिक हैं कि लोगों से मेलजोल का असर दिमाग के उसी हिस्से पर देखा जाता है जो भोजन जैसी निहायत बुनियादी चीजों से जुड़ा है ।
    पिछले कुछ सालों में हमारे मिलने जुलने के तौर-तरीकों में बदलाव आया है । अब हम रूबरू नहीं मिलते बल्कि पर्दो पर एक-दूसरे की डिजिटल छवियां देखते हैं । तो सवाल यह उठता है कि ऑनलाईन मेलजोल से किन मायनों में भिन्न होता है । 
 
    अंतर्क्रिया की इन दो शैलियों में एक अंतर यह हो सकता है कि हम इनसे कितना आनंदित महसूस करते  हैं । क्या फेसबुक पर अंतर्क्रिया हमें उतना ही आनंदित करती है जितनी आमने-सामने की अंतर्क्रिया ? हाल ही में प्रकाशित एक पर्चे से लगता है कि इसका जवाब है शायद नही । वास्तव में इस पर्चो से तो लगता है कि हम फेसबुक पर जितना अधिक समय बिततो हैं, उतना ही ज्यादा बुूरा महसूस करते है ।
    शोधकर्ताआें ने कॉलेज कैंपस के आसपास के प्रतिभागियों को लेकर एक अध्ययन किया । शुरूआत में उन्हें कुछ प्रश्नवालियां भरने को दी गई थी । इनमें से एक का संबंध इस बात से था कि वे जिन्दगी में कितना संतुष्ट महूस करते हैं । इसके बाद प्रतिभागियों को लगातार दो हफ्तों तक प्रतिदिन ५ टेक्स्ट मेसेज भेजे गए । प्रत्येक मजमून के लिए प्रतिभागिों को कुछ सवालों के जवाब देने थे । जैसे उन्हें उस क्षण कैसा लगा, और आखरी संदेश से लेकर इस संदेश तक उन्होनें फेसबुक कितना इस्तेमाल किया और दूसरे लोगों के साथ रूबरू अंतर्क्रिया कितनी की । दो हफ्ते बाद प्रतिभागियों ने प्रश्नावली का दूसरा सेट भरा । शोधकर्ताआें ने इस बार भी प्रतिभागियों की जिंदगी में संतुष्टि का आंकलन किया ।
    तो, ऑनलाइन अंतर्क्रिया  हमें कैसा महसूस कराती है ? शोधकर्ताआें ने इसका जवाब जानने के लिए आंकडों का विश्लेषण दो अलग-अलग तरह से किया । सबसे पहले उन्होनें यह देखा कि प्रत्येक मेसेज के बीच प्रतिभागियों की पल-दर-पल भावनाएं क्या थी । पता चला कि प्रतिभागी मेसेजेस के बीच फेसबुक का जितना ज्यादा इस्तेमाल करते हैं उनकी भावनाए उतनी ही नकारात्मकता की ओर बढ़ती हैं । दो सप्तह में फेसबुक के इस्तेमाल का संबंध नकारात्मक बदलाव से देखा गया । मजेदार बात यह है कि जिन लोगों ने इस दौरान प्रत्यक्ष सामाजिक संपर्क नहीं बनाए, उनमें यह संबंध नदारद था जबकि जिन लोगों ने खूब सामाजिक संपर्क बनाए उनमें यह असर ज्यादा देखा    गया ।
    दूसरी तरह के विश्लेषण से पता चला कि जो लोग ज्यादा फेसबुक का इस्तेमाल करते थे उनकी जिन्दगी में संतुष्टि में बड़ी गिरावट दर्ज की गई ।
    वैसे आप फेसबुक इस्तेमाल बंद करें, उससे पहले यह ध्यान रखना होगा कि इस अध्ययन की कई सीमाएं भी हैं ।  पहली सीमा तो यह है कि यह कार्य-कारण संबंध नहीं दर्शाता, सिर्फ दो चीजों के एक साथ होने की बात करता है । दूसरी, यह अध्ययन १९ वर्ष आयु वर्ग के लोगों के बीच किया गया था । सामाजिक नेटवर्क का इस्तेमाल उम्र के अनुसार बदलता है । इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अन्य उम्र समूहों में भी ऐसे ही परिणाम आते हैं । तीसरी, यह सिर्फ फेसबुक पर आधारित अध्ययन है, इसमें अन्य सामाजिक नेटवर्क को शामिल नहीं किया गया       है । हो सकता है यह असर सिर्फ फेसबुक का हो ।
    सीमाएं जो भी हो मगर सामाजिक नेटवर्क्स का इस्तेमाल बढ़ रहा है, ऑनलाइन मेलजोल भी बढ़ रहा है, इसलिए इस तरह की अंतर्क्रियाआें के सामाजिक व मनोवैज्ञानिक असर का आकलन एक जरूरी काम है ।
डरावनी याददाश्त को मिटाने का तरीका
    मनोचिकित्सक को भूल   जाइए । आपको अपने बिस्तर पर एक रात की नींद ही काफी है । नेचर न्यूरोसाइंस में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार नींद के दौरान मस्तिष्क का लक्षित प्रशिक्षण डरावनी यादों के प्रभाव को कम करता है । शोधकर्ताआें का कहना है कि इस तकनीक से मानसिक विकारों, जैसे डर (फोबिया) और दुर्घटना जन्य तनावों (ट्रॉमा) को कम किया जा सकता है ।    
    फिलहाल इन तकलीफों का इलाज एक्सपोजर चिकित्सा द्वारा किया जाता है । इसमें मरीज सोच-समझकर अपने डरों को कम करता है । चिकित्सक की देखरेख में मरीज खुद ही आपने आपको तैयार करता है कि दर्दनाक संकेतों पर प्रतिक्रिया न करे । लेकिन कुछ मरीजों के लिए यह चिकित्सा काफी कष्टदायक हो सकती है, खासकर जब वे पहली बार इसमें शामिल होते हैं । 


 हाल ही में शिकैगो स्थित नार्थवेस्टर्न युनिव-र्सिटी की कैथरीना हौनर और उनके साथियों ने एक तकनीक इजाद की है जो नींद में काम करती है ।
    सबसे पहले डरावनी यादें निर्मित करने के लिए उन्होनें प्रतिभागियों को बिजली का झटका दिया और साथ में कुछ चेहरों के चित्र दिखाए और पुदीने या नीम्बू जैसी अलग-अलग खुशबुएं सुंघाई । इसके बाद प्रतिभागियों को वे चेहरे देखते ही या वह खुशबू संूघते ही पसीने छूटने लगते थे क्योंकि उन्हें डर होता था कि साथ में बिजली का झटका भी लगेगा ।
    इस ट्रेनिंग के बाद प्रतिभागियों को प्रयोगशाला में झपकी लेने को कहा गया । उनकी नींद के दौरान शोधकर्ता उनकी खोपड़ी पर लगाए गए इलेक्ट्रोड्स की मद से उनके मस्तिष्क तंरगों की निगरानी करते रहे । जब प्रतिभागी स्लोवेव (धीमी तरंग वाली) नींद में पहुंच गए, तब शोधकर्ताआें ने डर से संबंधित महक ३०-३० सेकण्ड के अंतराल पर छोड़ी । धीमी तरंग वाली नींद वह अवस्था होती है जब मस्तिष्क तात्कालिक यादों को फिर से उभारता है और सुदृढ़ करता है । कोशिश यह थी कि इस महक के जरिए प्रतिभागियों के मस्तिष्क में डरावने चेहरे की याद ताजा की जाए । मगर इस बार साथ में झटका नहीं था । जैसा कि जागते हुए हुआ था, सोते समय भी महक के प्रभाव से प्रतिभागियों के मस्तिष्क में डरावने चेहरे की याद ताज की जाए । मगर इस बार साथ में झटका नहीं था । जैसे कि जागते हुए हुआ था, सोते समय भी महक के प्रभाव से प्रतिभागियों को ज्यादा पसीना आया मगर यह प्रभाव धीरे-धीरे कम होता गया ।    
    यह प्रभाव जागने के बाद भी बना रहा । जब प्रतिभागी जागे तब इस महक के प्रति उनकी डर की प्रतिक्रिया कम हो चुकी थी । अध्ययन में पता चला कि यह इलाज डरावनी यादों को मिटाता नहीं बल्कि उस याद के साथ जुड़े महक और चेहरे के संबंध को बदल देता है ।
    न्यूयॉर्क के न्यूरोसाइंटिस डेनिएला स्किलर का कहना है कि यह बहुत ही रोमांचक है क्योंकि हम तो मानते हुए हैं कि आपको अपनी भावनात्मक प्रतिक्रिया के प्रति जागरूक होना पड़ता है, तभी आप उन्हें बदल सकते हैं । वैसे अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह प्रभाव कितना स्थायी है । क्या एक रात की नींद पर्याप्त् होगी ? हौनर को लगता है कि यह एक नवीन विचार है और इस पर और काम करने की जरूरत है ।

गॉड पार्टिकल का बदला जाएगा नाम

    कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है, लेकिन जब बात गॉड पॉर्टिकल कहे जाने वाले हिग्स बोसोन की हो तो नाम बड़े मायने रखता है । गॉड पॉर्टिकल की खोज से जुड़े कुछ वैज्ञानिक इसका मौजूदा नाम बदलना चाहते हैं ।
 गॉड पॉर्टिकल का हिग्स बोसोन नाम इसके खोजकर्ता पीटर हिग्स के नाम पर रखा गया था । अब वैज्ञानिकों का कहना है कि इसकी खोज में अन्य शोधकर्ताआें भी शामिल थे और उन्हें भी इसका श्रेय दिया जाना चाहिए । 


    वैज्ञानिकों का तर्क है कि एकांत पसंद पीटर हिग्स गॉड पॉर्टिकल  की खोज करने वाले छह वैज्ञानिकोंमें से एक थे । १९६४ में इसकी खोज की घोषणा की थी । हिग्स बोसोन के लिए अब कई नाम सुझाए गए है । एक प्रस्ताव इसे ब्राउट-एंग्लट-हिग्स या बीईएच कहने का आया है । बेल्जियम के भौतिक विज्ञानी रॉबर्ट ब्राउट और फैकोइस एंग्लर्ट ने अपने शोध पत्र हिग्स से पहले लिखे  थे । दूसरा नाम सुझाया गया है - बर्क (बीई एचजीएचके) इसमें पहले तीन अक्षर लंदन के इंपीरियल कॉलेज के गेराल्ड गुरानिक, कार्ल हैगन और टॉम किबल के  नाम को दर्शाते है । इन तीनों वैज्ञानिकों ने हिग्स के बाद अपने शोध पत्र लिखे थे । 
दृष्टिकोण
पर्यावरण और विकास में संतुलन जरूरी
डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित
    सभ्यता के नये-नये सोपान चढ़ती मानव जाति के इतिहास में पर्यावरण और विकास शब्दों ने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को नया आयाम दिया है । पिछले पंाच दशक में इन दोनों शब्दों को जितनी लोकप्रियता मिली है, उतनी आज तक किसी शब्द को नहीं  मिली ।
    पर्यावरण को लेकर मानव समाज की दुर्गति मनुष्य के विकास के  प्रति इस निरर्थक विश्वास के कारण हुई कि प्रकृति में हर वस्तु केवल उसी के उपयोग के लिये है । प्रकृति की उदारता, उसकी प्रचुरता और दानशीलता को मनुष्य ने अपना अधिकार समझा, इसी दृष्टिकोण से प्रकृति के शोषण से उत्पन्न असंतुलन की स्थिति भयावह हो चुकी है । पर्यावरण प्रदूषण में सबसे बड़ा योगदान हमारी गलत विकास योजनाओं का रहा है । जैसे-जैसे इन विकास योजनाओं का विस्तार हुआ, पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी जटिल होती गयी । 


     हमारे पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखने के लिये अब दूर जाने की जरूरत नहीं है । आज बंजर इलाके और फैलता  रेगिस्तान, वन कटाई से लुप्त होते पेड़-पौधे और जीव-जन्तु, औघोगिक संस्थानों के प्रदूषण से दूषित होता पानी, गांवों शहरों पर गहराती गंदी हवा और हर वर्ष स्थायी होता जा रहा बाढ़ एवं सूखे का संकट । ये सब इस बात के साक्षी है कि हम पर्यावरण और विकास गतिविधियों में संतुलन नहीं रख पाये हैं । देश के हर क्षेत्र में पर्यावरण के प्रति मनुष्य की संवेदनहीनता के उदाहरण देखे जा सकते है ।
    हमारे देश में जब से विकास शब्द  प्रचलन में आया है, इसका सामान्य अर्थ केवल प्रति व्यक्ति आय बढ़ाना ही रहा है, सरकारें इसके लिये विशेष प्रत्यनशील रहती है ताकि हर कोई एक पूर्व निर्धारित वैश्विक जीवन पद्धति में ढल जाये । आज विकास के नाम पर पर्यावरण का निर्मम दोहन हो रहा है, उसे उचित नहीं कहा जा सकता । यह विकास क्या लोगों को विकसित कर रहा है ? यह भी विचारणीय प्रश्न है । वैश्विक दृष्टि से देखे तो आज विश्व में २० प्रतिशत लोग धरती के ८० प्रतिशत संसाधनों का उपयोग कर रहे है, शेष ८० प्रतिशत लोगों के लिये २० प्रतिशत संसाधन ही बचते है । विकास की दो मूलभूत कसौटी  है - पहला यह निरन्तर होना चाहिये और दूसरा इसका आधार नैतिक होना चाहिये ।
    क्या आज के विकास कार्यक्रमों का इस कसौटी से कोई संबंध रह गया है ? उदारीकरण के  मौजूदा दौर में जब सरकारें पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से कंधे झटकते जा रही है तब यह मुद्दा और भी महत्वपूर्ण हो जाता है । विकास के  पक्षधरों का मानना है कि विकास को संसाधनो के सहयोग से उद्योगों द्वारा प्राप्त कर सकते है, लेकिन ये संसाधन लगातार कहां से और कैसे प्राप्त होगे और इसका पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस पर विचार करने की आवश्यकता है ।
    हम देखते है कि मानव को प्रकृति प्रदत्त उपहार हवा, पानी और मिट्टी खतरे में है । धरती के फेफड़े वन समाप्त होते जा रहे है, पेड़-पौधों के अभाव में प्राणवायु की शुद्धता और गुणवत्ता दोनों ही घटती जा रही है । बढ़ते वायु-प्रदूषण के कारण केवल महानगर ही नहीं अपितु छोटे-छोटे कस्बों तक में वायु-प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, जो कई बीमारियों का कारण बन रहा है ।
    देश में जल संकट दो तरफा बढ़ रहा है । सतही जल में प्रदूषण में वृद्धि हो रही है तो भूजल स्तर में निरन्तर कमी हो रही है । बढ़ते शहरीकरण और औघोगिकरण के चलते हमारी बारह-मासी नदियों के जीवन में जहर घुलता जा रहा है । हालत यह है कि मुक्तिदायिनी गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के  लिये हजारों करोड़ रूपये खर्च करने के बाद भी गंगा स्वच्छ नहीं हो सकी है । देश के कुल क्षेत्रफल की आधी जमीन बीमार है । अनेक क्षेत्रों में अतिशय चराई और निरन्तर वन कटाई के कारण हो रहे भू-क्षरण से भूमि की उपरी परत की मिट्टी वर्षा में बाढ़ के पानी से साथ बह-बह कर समुद्र में जा रही    है । इस कारण बड़े बांधों की उम्र घट रही है और नदियों में गाद जमने के कारण बाढ़ और सूखे का संकट स्थायी होता जा रहा है ।
    आज पर्यावरण संतुलन में दो बिन्दु सहज रूप से प्रकट होते है । पहला प्रकृति के औदार्य का उचित लाभ उठाया जाये और दूसरा विकास गतिविधियों में मनुष्य जनित प्रदूषण को यथासंभव कम किया जाये । इसके लिये विकास की सोच में परिवर्तन करना होंगे । थोड़ा अतीत में लौटे तो करीब तीन सौ साल पूर्व योरप में औघोगिक क्रांति  हुई, इसके बाद लोगों के जीवन स्तर में व्यापक बदलाव आया । इस बदलाव में लोगों के दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये प्राकृतिक संसाधनों का बड़े पैमाने पर दोहन शुरू हुआ जिसने एक नयी भोगवादी संस्कृति को जन्म दिया । जीवन में सुख के साधनों की असीम चाह का भार प्रकृति पर लगातार बढ़ता जा रहा है । यही हालत रही तो हमें विरासत में मिले धरती के संसाधनों को भावी पीढ़ियों के लिये सुरक्षित रखना मुश्किल हो जायेगा ।
    देश में स्वतंत्रता के बाद समाज विकास में कार्यरत अनेक संस्थाआें ने पर्यावरण के क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय सवालों का उठाया । देश में पिछले कुछ सालों में विभिन्न पर्यावरणीय मुद्दों को लेकर उभरे आंदोलनों ने अपनीं अलग-अलग पहचान बनायी है । इनमें चिपको आंदोलन, अधिको शांत घाटी और नर्मदा बचाओ आंदोलन से लेकर भोपाल गैस पीड़ित मोर्चा जैसे ताकतवर और एक सोच के साथ उभरे इन संगठनों ने विकास एवं पर्यावरण के सवालों को गभीरता से उठाया और सरकारों पर नीतियों में बदलाव के लिये जन दबाव भी बनाया । इन संस्थाआें ने देश के प्राकृतिक संसाधनों जैसे झीलें, नदियां, जैव विविधता, वन और वन्य जीवन तथा पशुधन संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिये जन सामान्य में लोक चेतना पैदा करने का कार्य किया है ।
    आज हमारी भोगवादी जीवन शैली के चलते रासायनिक पदार्थो, उर्वरकों, कीटनाशियों और प्राकृतिक  संसाधनों का अत्यधिक उपयोग हो रहा है जो पर्यावरण विघटन की समस्या का प्रमुख कारण है । पर्यावरण और विकास के रिश्तों को समझने में हम हमारे राष्ट्र पिता के विचारों से मदद ले सकते है उनका मानना था कि यह धरती हरेक की आवश्यकता की पूर्ति कर सकती है, लेकिन किसी एक का लालच नहीं । प्रकृति में सभी जीवों के विकास का आधार एक दूसरे के संरक्षण पर आधारित है  ।
    इसे लोक भाषा की पहली कविता माना जाता है । इसमें हमारी जातीय परम्पराआें, सामाजिक शिक्षाआें और संस्कृति की समृद्ध विरासत की झलक मिलती है । युगऋषि के आक्रोश में भारतीय संस्कृति का जियो और जीने दो का संदेश छिपा है, जिसकी प्रासंगिकता आज और भी बढ़ गयी है ।
    बहुत लोगों के लिये यह आश्चर्य का विषय होगा कि भारत जैसे धर्म प्राण देश में पहली कविता न कोई स्त्रोत है न मंगलाचरण वरन बहेलिये के बाण से बिद्ध छटपटाते हुए पक्षी को देखकर संवेदनशील महाकवि का अप्रयास फूट पड़ने वाला आक्रोश है । अभी भी घरती पर जीवन की सुदीर्घता और स्थायी विकास के लिये जीव, वनस्पति प्रणालियां और पर्यावरण प्रणालियां बचायी जा सकती है ।
पक्षी जगत
संवेदना के संवाहक पक्षी
डॉ. कैलाशचन्द्र सैनी
    यदि पृथ्वी पर फूल और पक्षी नहीं होते तो संसार में साहित्य और संगीत का जन्म ही नहीं होता । मानव जीवन नीरस और प्रकृति निर्जीव-सी लगती । पक्षियों का मधुर संगीत और आकर्षक रूप-सौन्दर्य और प्रकृति की मोहकता मन में नव-स्फूर्ति का संचार करते हैं । इन पंक्तियों के लेखक को बचपन से ही पक्षियों के प्रति विशेष लगाव रहा है । स्कूल के दिनों से ही मुझे घर-आंगन में परिन्दों का चहचहाना, सुबह-शाम चिड़ियों का चीं-चीं करके वातावरण को गंुजायमान करना, घर के पिछवाड़े में परिन्दों का फूदकना, दालान में  कबूतरों का गुटर गूं करते हुए दाना चुगना, पगडंडियों पर गौरैया का धूल में नहाना, घर  में पालतू तोते का बच्चें की तरह बोलते हुए उछलकूद करना बड़ा अच्छा लगता था ।  घर की मुंडेर पर बैठ कौए का कांव कांव करना शायद ही किसी को पसन्द हो लेकिन मुझे वह भी अखरता नहीं था । 
     लोग समझते हैं कि चिड़ियाँ निरर्थक ही चीं-चीं करती रहती हैं, किन्तु यह सही नहीं है । पक्षियों में भी बुद्धि और भाव-संवेदना होती है, उनमें भी विचार व्यक्त करने की क्षमता होती है । उनकी चहचहाहट में प्रसन्नता, , पीड़ा, जानकारी आदि की सूचनाएं होती हैं  जिन्हें उसकी बिरादरी के पक्षी सहजता से समझते हैं और उसी के  अनुरूप आचरण करते हैं ।
    मैंनेे बचपन से ही यह अनुभव किया है कि पक्षी भी खूब घुलमिल कर बाते करतेे हैं, एक-दूसरे के साथ विचारों का आदान-प्रदान करते हैं । अपने संभाषण से सहयोग जुटाने का प्रयास करते हैं । करीब ४० वर्ष पूर्व जब मैं  स्कूल में पढ़ता था । तब हमारे  घर में एक तोता पाला हुआ था। तोते का पिंजरा  घर में शहतूत के पेड़ पर लटका रहता था । गर्मियों में जब पेड़ पर खूब फल लगते थे तब बहुत से तोते वहां आया करते थे । कई तोते हमारे पालतू तोते के पिंजरे पर और उसके आसपास बैठते और बड़े ही मधुर स्वर में भिन्न-भिन्न तरह की आवाजे निकाल कर बतियाते थे । लगता था जैसे कह रहे हों कि 'यहा कैद होकर कैसे बैठ हो, बाहर आओ हमारे साथ चलो और आनन्द की उड़ान भरो ।`
    हमारा पालतू तोता जो मनुष्य की तरह बोलना सीख गया था लेकिन उस समय अपने साथियों के साथ उन्हीं के सुर में सुर मिलाते हुए बोलता था । उस समय उसकी आँखें विचित्र प्रकार से पीले गोल  घेरों के गहराने से छोटी हो जाती थीं । मैंने देखा कि दो तोतों से तो हमारे तोते की गहरी दोस्ती हो गई थी । वे दो-तीन दिन  के अन्तराल पर अक्सर आया करते और कुछ देर उससे बतियाकर चले जाते थे ।
    कुछ दिन बाद हमारे  घर में एक और पालतू तोता आया जो शायद किसी के यहां से उड़कर आया था । हमने उसे अलग पिंजरे में रखा । वह बहुत ही जहीन (बुद्धिमान) था । वह स्वयं अपनी चोंच से पिंजरे की खिड़की खोल लेता था  तथा बाहर आकर कुछ  देर घूम-फिर कर वापस पिंजरे में जा बैठता था । क भी-कभी वह उड़कर चला  भी जाता था और कुछ दिनों के बाद लौट आता था । तीन-चार बार ऐसा हुआ लेकिन एक दिन वह ऐसा गया कि लौट कर ही नहीं आया । शायद किसी ने उसे अपने घर में रख लिया और पिंजरे पर ताला लगा दिया जिससे वह खिड़की को खोल कर भाग न सके । हमारे पालतू तोते वे सभी चीजंे खाते थे जो घर के लोग खाते थे । सवेरे उठते ही उनकी  भी चाय पीने की     आदत पड़ गई थी । कभी उन्हें चाय       देना भूल  जाते तो वे गुस्से से अपनी कटोरी को चोंच से उठा-उठा कर पटकने लगते  थे । तोते की स्मरण शक्ति  दूसरे पक्षियों से अधिक होती है तभी तो वह करीब १०० शब्द आसानी से सीख लेता है ।
    सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग के सेवाकाल के मेरे आठ वर्षोंा में से  करीब ६ वर्ष विभाग के न्यू गेट स्थित रंगमंच कार्यालय पर बीते जहां छोटे-बड़े सभीतरह के पेड़-पौधे थे । प्रदर्शनी स्थल पर रंग-बिरंगे फूलों के पौधे भी खूब थे यहां भाँति-भाँति  की चिड़ियाँ प्राय: चहचहाती रहती थीं । गर्मियों में कोयल की कूक, बगीचे में रंग-बिरंगें फूलों पर रसपान करती फूलचुही, लॉन में कीड़े-मकोड़े ढंूढ़ता हुदहुद, जोड़े में घूमती मैनाएँ आदि मन को बहलाने के  लिए काफी थे । कोयल की मधुर वाणी सभी का मन मोह लेती है । ध्यान से सुनने पर ही आपको इस बात का अहसास होता है कि उसका स्वर धीरे-धीरे तेज होता जाता है अर्थात् आरोह में कूकती कोयल अपने चरम पर पहुँच कर कुछ देर के लिए शांत हो जाती है ।
    इसकी खास बात यह देखी गई है कि यह  ने पेड़ों पर पत्तों की ओट में छिप कर अपनी स्वर लहरी बिखेरती है । फूरसत के क्षणों में मैंने  बहुत प्रयास करने के बाद ही इसे कूकते हुए देखा   है । आमतौर पर यह जमीन पर नहीं उतरती लेकिन एक बार उदयपुर में मैंने इसे कुछ क्षण के लिए जमीन पर बैठे देखा था । हरापन लिए इसकी चमकीली आभा लिए काली काया बड़ी आकर्षक लगती है ।
    प्रकृति के सान्धिय में पलते और फूदकते परिन्दों से मैंने काफी कुछ सीखा है । छोटे-बड़े सभी परिन्दे अपने-अपने फन में माहिर होते हैं। उनके दैनन्दिन जीवन को गहराई से देखने पर ही पता चलता है जैसे सभी के जीवन का एक ही उद्देश्य है और वह यह कि 'प्रत्येक क्षण का आनन्द लो` । प्रकृति ने शायद उन्हें यही सिखाया है कि अपना प्रत्येक काम प्रसन्नता और  प्रफूल्लता से करो । प्रकृति की प्रेरणा से ही पक्षी आजीवन उत्साह और उमंग से जीवन जीते हैंऔर सदा स्वस्थ और प्रसन्न रहते हैं । यही कारण है कि पक्षी यदा-कदा ही बीमार पड़ते हैं और जब कभी बीमार होते हैं  तो अपना इलाज प्रकृति में ही ढूढ़ लेते हैं ।
    मनुष्य पशु-पक्षियों से बुद्धिमान और सामर्थ्यवान होने के बाद भी उसका दुर्भाग्य है कि वह जीवन का आनन्द लेना नहीं सीख पाया। कारण है उसकी संग्रह वृत्ति, चिन्ताओं, आशंकाओं, आकांक्षाओं और कृत्रिमता से परिपूर्ण जीवन क्रम । इसीलिए आजकल अधिकांश लोग नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त होकर रोते-कलपते जीवन जीते हैं । 
    पक्षी प्रकृति के  सान्निध्य में फलते-फूलते हैं । वर्ष २००१ में राजस्थान विधान सभा का स्थानान्तरण ज्योति नगर स्थित इसके नये वन में हो गया । तब यहां विभिन्न प्रजातियों के  पक्षियों की संख्या काफी कम हुआ करती थी । यद्यपि  वन निर्माण के  दौरान ही यहां तत्कालीन राज्यपाल बलिराम  भगत और विधान सभा अध्यक्ष  हरिशंकर भाभड़ा द्वारा पौधारोपण किया गया था ताकि  वन के प्रारम्भ होने तक ये पेड़ पर्याप्त बड़े हो जाएँ । लेकिन फिर  भी इस नये वन के  प्रारम्भ होने पर यहां हरियाली कम ही थी जो ५-७ वर्ष बाद इसकी चारों दिशाओं में लॉन विकसित होने पर ठीक हुई । आज यहां नाना प्रकार के परिन्दे न केवल चहचहाते हैं, बल्कि सन्तानोत्पत्ति कर खूब फलते-फूलते हैं ।  यहां की हरियाली और भाँति- भाँति के फूलों से आकर्षित होकर सैकड़ों तरह के पक्षी आते-जाते रहते हैं । टिटहरी (कुररी) तो यहां बड़ी संख्या में मिल जायेंगी जो जयपुर शहर में अन्यत्र कम ही देखने को मिलती है । इसकी खास बात यह है कि यह बरसात के आगमन से पूर्व ही अपने विशेष स्वर में बोलती   है ।
    विधान सभा भवन के भीतर जहां सम्पूर्ण राज्य के राजनेता प्रदेश और देश के हितसाधन के लिए एकत्र होते हैं और अपनी राजनीतिक गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं । वहीं  भवन के बाहरी भाग में पेड़-पौधों और फूलों की क्यारियों में फूदकते नाना प्रकार के परिन्दे मस्त रहते हैं । सर्दियों में यहां कई प्रकार की छोटी-छोटी रंग-बिरंगी प्रवासी चिड़ियाँ खूब आती हैं । 
    संवेदनाओं से ओतप्रोत होकर  भावनाओं की भाषा मंे बोली गई वाणी मनुष्य को ही प्रेरित और प्रवावित नहीं करती बल्कि उससे पक्षी भी वश में हो जाते हैं । कबूतरों को अपने मालिक से उतना ही प्रेम होता है जितना किसी मनुष्य को अपनी सन्तान से । कबूतरों की संवेदना की श्रेष्ठता को उजागर करने वाली एक सत्य  घटना का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा ।  घटना जून, १९६१ में वाराणसी के पास मघई  पुल पर हुई रेल दुर्घटना से सम्बन्धित है जिसमें बड़ी संख्या में यात्री मारे गये थे । गोरखपुर की एक फर्म में काम करने वाला एक क्लर्क भी उस दारुण दुर्घटना में मारा गया । जब वह रेलगाड़ी में सवार हुआ था तो उसके पास एक पिंजरा था जिसमें सात पालतू कबूतर थे । क्लर्क को अपने इन पालतू कबूतरों से बड़ा प्यार था । वह जहां भी जाता उन्हें अपने साथ लेकर जाता था । रेल हादसे में वह पिंजरा भी टूट गया लेकिन कबूतरों को कोई नुकसान नहीं हुआ ।
    वे  इस हृदय विदारक हादसे के बाद भी न केवल उड़कर नहीं गयेे बल्कि घटना स्थल से अपने मालिक की लाश छोड़कर हटे  नहीं । दुर्घटना के ६० घण्टे बाद तक वे शव के निकट ही बैठे रहे । अगले दिन जब क्लर्क का शव हटाने के लिए लोग पहुँचे तो दु:खी कबूतरों ने एक साथ मिलकर उन पर चोंचों से प्रहार करके  अपनी अद्भुत स्वामि भक्ति का परिचय      दिया । कई लोगों ने उन्हें दाने का लालच देकर वहां से हटाने का प्रयास किया लेकिन वे अपने स्थान से टस से मस नहीं हुए । बड़ी कठिनाई से क्लर्क के घरवालों ने कबूतरों को गोद में लेकर उन्हें स्नेह से दुलारा तभी शव वहां से उठाया जा सका । 
    कबूतरों की संवेदनशीलता की एक अन्य घटना का उल्लेख करते हुए अमेरिकी वैज्ञानिक जे.वी. राइन ने वर्जीनिया केे  समर्सबिले नगर के पकिन्स नामक लड़के के पालतू कबूतर के बारे में लिखा है कि पकिन्स ने अपने पालतू कबूतर के पैरों में एक छल्ला पहना दिया था जिस पर '१७६` लिखा हुआ था । एक बार लड़का दुर्घटनाग्रस्त हुआ और उसे १२० मील दूर हॉस्पिटल मंे भर्ती होना पड़ा । कई दिन बीतने पर जिस समय बाहर घोर बर्फबारी हो रही थी, एक कबूतर आया और अस्पताल कर्मचारियों के विरोध के बाद भी लड़के के बिस्तर पर जाकर बैठ गया । ऐसा पहले क भी नहीं हुआ था । सभी स्तब्ध थे । लड़के ने हाथ बढ़ाकर देखा तो यह उसका पालतू कबूतर था जिसके  पैैर में १७६ अंक वाला छल्ला पहना हुआ था ।
    प्रख्यात चिन्तक रूसों ने लिखा है कि मनुष्य जन्म से स्वतंत्र है, पर हर ओर से जंजीरों में बंधा हुआ है । पंखवाले परिन्दों के सम्बन्ध में यह बात लागू नहीं होती । वे मानव समाज की तरह न तो सामाजिक नियमों से बंधे हुए हैं और न ही उनके  लिए शासकीय कायदे-कानून बंधनकारी हैं । वे पूरी तरह स्वतंत्र हैं इसलिए जब जहां जी चाहे आ-जा सकते हैं ।
    पक्षी अपनी दुनिया में स्वच्छंद  भ्रमण करते हैं । खेलते-कूदते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं और अपनी वंश-वृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहते हैं ।  पक्षी प्रकृति के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं ।  अपनी अद्भुत अन्त:प्रेरणा की सहायता से ये भूकम्प व समुद्री तूफान आदि की आशंका को भाँप लेते हैं और अपने विचित्र व्यवहार से किसी अनिष्ट की आशंका की पूर्व सूचना दे देते हैं । मनुष्य यदि पक्षियों की भाषा समझता तो प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली जान-माल की हानि से बचने के साथ ही जीवन में आने वाली बहुत-सी  कठिनाइयों को दूर किया जा सकता  था ।
समाज और कानून
विकास की आड़ में ससाधनों की लूट
जयन्त वर्मा
    संयुक्त  राष्ट्र संघ ने सन् १९८७ में ``विकास के अधिकार`` की घोषणा के अंतर्गत राष्ट्रों  को विभिन्न दिशा-निर्देश जारी किए थे । भारतीय संविधान भी अपने नागरिकों खासकर अनुसूचित जनजातियों को अनेक विशेष अधिकार प्रदान करता है । प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर आदिवासी बहुल इलाकों में संविधान की उपेक्षा कर, प्राकृतिक संसाधनों की लूट एवं आदिवासियों को शोषण बदस्तूर जारी है ।
    भारत के संविधान के भाग-चार में शासन के मूलभूत तत्व लिपिबद्ध  हैंऔर राज्य को यह निर्देश है कि विधि बनाकर इन तत्वों को लागू किया जाय । अनुच्छेद-३८(२) में स्पष्ट लिखा है कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के  बीच प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करना राज्य का कर्तव्य है । वर्ष १९५० में भारत का संविधान लागू होने के समय देश की लगभग ८० फीसदी आबादी कृषि और सहायक व्यवसायों में संलग्न थी । इनकी आजीविका का मुख्य स्त्रोत प्राकृतिक संसाधन अर्थात जल, जंगल और जमीन थे । उपनिवेश काल में ब्रिटिश हुकूमत ने जल, जंगल और जमीन को मनमाने तौर पर हड़प लेने के लिए असंख्य कानून बनाए । सन् १८९४ का भूमि अधिग्रहण कानून, सन् १९२७ का भारतीय वन कानून आदि ऐसे ही कुछ कानून हैं। 
     ब्रिटिश हुकूमत से समझौते के  तहत जब भारतवासियों को सत्ता का हस्तांतरण हुआ तो उपनिवेशकालीन सभी कानूनों को कायम रखा गया । संविधान के सातवें संशोधन में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को यह अधिकार दिया गया था कि वे एक वर्ष की अवधि में ऐसे सभी कानूनों की समीक्षा करेंगे, जो ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किए गए थे । यदि वे संविधान की प्रस्तावना, भाग-तीन और चार के  प्रतिकूल पाए जाते हैंतो उन्हें संशोधित या निरस्त करने का भी उन्हें पूर्ण अधिकार था । दुर्र्भाग्य से तत्कालीन शासक वर्ग ने इस अवसर का लाभ नहीं उठाया । इसकी वजह शायद यह थी कि उन्हें ब्रिटिश कालीन सभी कानून अपने वर्गहित में दिखे होंगे । इसके बाद यह मान लिया गया कि उपनिवेशकालीन सभी कानून संविधान सम्मत हैं ।
    संविधान में विकास को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है । वर्ष १९९० के बाद भू-मण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियां अपनाई गई । सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि को विकास का पैमाना मान लिया गया । इसका अर्थ यह था कि जल, जंगल और जमीन पर आश्रित लोगों से ये संसाधन छीन कर कम्पनियों के  हवाले कर दिए जाएं ताकि वे उनका भरपूर दोहन कर देश को विकसित बना दें । 
    योजना आयोग का अनुमान है कि आजादी के बाद निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की विभिन्न परियोजनाओं के लिए भूमि के  अधिग्रहण से लगभग ६ करोड़ लोग विस्थापित हो चुके हैं । सर्वाधिक रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश घटा देने और खाद्यान्न के समर्थन मूल्य में निरंतर गिरावट के कारण खेती घाटे का सौदा बन गई । राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार पिछले १७ वर्षो में ३ लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके  हैं । एक ताजा अध्ययन के अनुसार प्रतिदिन दो हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं । लोगों का गांव से शहर की ओर पलायन बढ़ता जा रहा है । संसद और विधानसभाओं में इस समस्या को लेकर चुप्पी दिखती है । सभी राजनीतिक दल यह मान चुके हैं कि खेती-किसानी का काम श्रम केन्द्रित न होकर पूंजी केन्द्रित बनाया जाय । इसके लिए छोटे और सीमांत किसानों से खेती की भूमि हड़प कर कार्पोरेट घरानों को सौंपने की ओर तेजी से कदम उठाए जा रहे हैं। एन.डी.ए. की सरकार ने वर्ष २००० में योजना आयोग का दृष्टिपत्र तैयार किया था, जिसके अनुसार वर्ष २०२० में भारत की सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान घटाकर मात्र ६ प्रतिशत कर देने की योजना है । यू.पी.ए. की सरकार और उसमें शामिल सभी राजनीतिक दलों का भी यही दृष्टिपत्र है ।
    संविधान के अनुच्छेद-३९(क) में राज्य को निर्देश है कि वह अपनी नीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के  पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो । अनुच्छेद-३९(ख) में राज्य को ऐसे कानून बनाने का निर्देश है कि समुदाय के भौतिक संसाधनों  का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटे ताकि सामुहिक हित का सर्वोत्तम रूप से सध सकें । यह भी सुनिश्चित करने का निर्देश है कि धन और उत्पादन साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेन्द्रण न हो । आर्थिक भूमण्डलीकरण की नीतियों के फलस्वरूप उपरोक्त सभी निर्देशों की धज्जियां उड़ाने वाले परिणाम सामने आ रहे हैं । संविधान के भाग-चार के उल्लंघन में चलाई जा रही आर्थिक नीतियां प्रमाणित करती हैं कि संविधान के प्रति आस्था की शपथ लेकर विधायिका और कार्यपालिका में पदस्थ पदाधिकारी जनता के साथ विश्वासघात कर रहे हैं । विकास के अधिकार के घोषणापत्र (१९८६) में विकास के तीन मानक बताए गए हैं । प्राकृतिक  संसाधनों  पर नियंत्रण, स्वनिर्धारण और विकास के प्रतिफल में भागीदारी । भूमि अधिग्रहण संशोधन अधिनियम    में इन तीनों मानकों  का समावेश नहीं किया जाना विकास पीड़ितों  के  मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन  है ।
    जुलाई २०१३ में ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा जारी राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति के प्रारूप में यह खुलासा किया गया है कि ग्रामीण भारत में खेती की जमीन खेतीहर समाज के नियंत्रण से निकलती जा रही है । भारत के एक तिहाई परिवार भूमिहीन हैं । इतने ही परिवार भूमिहीनता के करीब पहुंच चुके हैं । अगले २० प्रतिशत परिवारों के पास १ हेक्टेयर से भी कम भूमि है । इस प्रकार भारत की ६० फीसदी आबादी का देश की कुल भूमि के ५ प्रतिशत पर अधिकार है जबकि १० प्रतिशत जनसंख्या का ५५ फीसदी जमीन पर नियंत्रण है ।
    यह भी स्पष्ट हो चुका है कि आर्थिक वृद्धि दर की टपकन का लाभ निर्धनों तक नहीं पहुंच रहा है । समाज में गरीबी और अमीरी के बीच खाई तेज गति से बढ़ रही है । ऐसी दशा में आर्थिक वृद्धि दर विकास का पैमाना नहीं बल्कि लूट का हथियार बन गया है । विकास की परियोजनाओं से उजड़ने वालों का यह सवाल अब बहुत महत्वपूर्ण हो गया है कि ''किसकी कीमत पर किसका विकास....!``
    यह सभी जानते हैं कि पांचवीं अनुसूची वाले जनजातीय क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधन भरपूर हैं । वहां के  खनिज, जल, वन और भूमि पर कार्पोरेट घरानों की नजर है । येन केन प्रकारेण वे इसे मिट्टी के मोल हासिल करना चाहते हैं । पंचायतों के अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार के कानून 'पेसा` में  ग्रामसभा की सहमति के बिना लोगों की बेदखली और भूमि का अधिग्रहण प्रतिबंधित है । समता और नियामगिरी के प्रकरणों  में उच्च्तम न्यायालय ने पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्रों में कार्पोरेट घरानों को प्राकृतिक संसाधन सौंपने के सरकारी फैसलों को असंवैधानिक घोषित किया है । इसके बावजूद शासक वर्ग द्वारा जगह-जगह एम.ओ.यू. के माध्यम से जनजातीय क्षेत्रों के संसाधन कार्पोरेट घरानों को सौंपने का सिलसिला जारी है ।
    पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में नगरीय निकायों के लिए स्वशासन का कानून बनाने भूरिया समिति की सिफारिश पर अमल नहीं करके सरकार जनजातीय क्षेत्रों में प्राकृतिक  संसाधनों की लूट का दरवाजा खुला रखना चाहती है । सरकार द्वारा संविधान के प्रावधानों की अवेहलना से ही जनजातीय समाज में  रोष पनप रहा है । इस संबंध में राष्ट्रपति और गृहमंत्री ने भी अपने सम्बोधनों में राज्य सरकारों को आगाह किया है । अनेक सरकारी रिपोर्ट भी स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि लूट को विकास बताने वाली राज्य सरकारें प्राकृतिक संसाधन कार्पोरेट घरानों को बेच देने पर आमादा हैं । 
यातायात
सड़क पर अपना हक
सुश्री सुनीता नारायण


    प्रदूषण से छुटकारे हेतु की गई व्यक्तिगत पहल का खामियाजा प्रसिद्ध पर्यावरणविद्  सुनीता नारायण को अपनी हडि्डयां तुड़वा कर भुगतना पड़ा  है । लेकिन यह दुर्घटना ने उनके इरादों को और मजबूती प्रदान की है और अब वे नगर नियोजन के स्तर पर पैदल व साइकल चालकों के लिए प्रावधान सुनिश्चित करना चाहती है । 
    यह लेख मैं अपने बिस्तरे से लिख रही हूं । एक सड़क दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होने व हडि्डयां टूटने के बाद मुझे ठीक  होने तक इसी बिस्तरे पर रहना है । मैं साइकिल चला रही  थी । तेजी से आई एक मोटर गाड़ी ने मुझे अपनी चपेट में ले लिया था और टक्कर मारकर कार भाग गई । खून से लथपथ मैं सड़क पर थी । ऐसी दुर्घटनाएं बार-बार होती हैं हमारे यहां । हर शहर में होती हैं,  हर सड़क पर होती हैं । यातायात की योजनाएं बनाते समय हमारा ध्यान पैदल चलने वालों और साइकिल चलाने वालों की सुरक्षा पर जाता ही नहीं । सड़क पर उनकी गिनती ही नहीं होती । ये लोग बिना कुछ किए, एकदम साधारण-सी बात मंे, बस सड़क पार करते हुए अपनी जान गंवा बैठते हैं । मैं इनसे ज्यादा भाग्यशाली थी ।
     दुर्घटना के बाद दो गाड़ियां रुकीं, अनजान लोगों ने मुझे अस्पताल पहुंचाया । मेरा इलाज हो रहा है । मैं ठीक होकर फिर वापस इसी लड़ाई में लौटूंगी । लेकिन यह लड़ाई हम सबको मिलजुल कर लड़नी पड़ेगी । सड़कों पर हम पैदल चलने और साइकिल चलाने की अपनी जगह यों ही गंवा नहीं     सकते । इस दुर्घटना के बाद मेरे कई मित्रों, रिश्तेदारों ने मुझे खूब फटकारा कि भला दिल्ली की सड़कों पर तुम्हें साइकिल चलाने की क्या सूझी । ये सब ठीक कह रहे थे।
    हमने अपने इन शहरों की सड़कों को केवल मोटरगाड़ियों के लिए ही बनाया है । इन सड़कोंपर गाड़ियों का ही राज दौड़ता है । इनमें साइकिल चलाने के लिए बगल में लेन नहीं हैं, पैदल चलने वालों के लिए फूटपाथ तक नहीं हैं । कुछ बड़े शहरों में कुछ जगहों पर वे हैं भी तो टुकड़ों में हैं । ये टूटी-फूटी हैं या फिर उन पर गाड़ियां खड़ी रहती हैं । सड़कें तो कारों के लिए हैंतो बाकी की चिंता क्यों करें ।
    साइकिल पर चलना या पैदल चलना कठिन है तो इसका कारण केवल योजनाओं की कमी या बुरी योजना नहीं हैं । हमारे दिमागों में यह घुसा बैठा है कि जो कार में बैठा है, उसका एक दर्जा है और सड़क का सारा हक उसी के  पास है । जो पैदल चलते हैंवे तो गरीब हैंं, अभागे हैं, उन्हें यदि बुरी तरह से हटा देना, दबा देना संभव नहीं तो कम से कम हाशिए पर तो डाल ही देना है । यह दिमाग बदलना है । आगे कोई और रास्ता नहीं है, हमें तो हमारा चलना-फिरना फिर से देखना-समझना होगा । यदि इस वायु प्रदूषण को रोकना है तो कारों पर नियंत्रण किए बिना काम चलेगा नहीं । हमें सीखना होगा कि हम कैसे चलें-फिरें, न कि हमारी कारें कैसे चलें-दौड़ें ।
    सन् १९९५ के आसपास हमारी संस्था सेंटर फॉर साइंर्स एंड  एनवायर्नमेंट ने वायु प्रदूषण के खिलाफ अपना आंदोलन शुरू किया था । तब हमने जो कुछ भी किया वह लीक का काम था । इस आंदोलन ने ईधन की गुणवत्ता को ठीक  करने पर दबाव डाला । गाड़ियों से निकलने वाले बेहद जहरीले धुंए को नियंत्रित करने के लिए नए कड़े नियम बनवाए । उनकी जांच-परख का नया ढांचा खड़ा करवाया । और उस अभियान ने ईधन का प्रकार तक बदलने का काम किया । जहरीले डीजल से चलने वाले वाहन, बसें और दो स्ट्रोक इंजिनों से दौड़ने वाले ऑटो रिक्शा को सी.एनजी. की तरफ मोड़ा ।
    इस सबका खूब लाभ भी हुआ । इसमें कोई शक नहीं कि अगर उस दौर में ये सब कड़े कदम न उठवाए गए होते तो आज हमारे इन शहरों की हवा और भी खराब होती, और भी जहरीली बन जाती । पर उतना ही काफी नहीं था । हमें जल्दी ही यह समझ आ गया था । आज फिर प्रदूषण का स्तर बढ़ चला है । पिछले महीने विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु प्रदूषण को हमारे कैंसर का एक बड़ा कारण बताया है । हमें सोचना होगा कि यह हमें स्वीकार है क्या । यह अब धीमी मौत भी नहीं बचा है, फूर्ती से मार चला है । यदि इसे रोकना है तो कारों पर नियंत्रण किए बिना काम चलेगा नहीं । हमारे देश की परिस्थिति इस ढांचे को उस अलग ढंग से देखने, बनाने की छूट भी देती है ।
    अन्य कई देशों की तरह अभी भी हमारा पूरा देश मोटरमय नहीं हो पाया है । हमने अभी भी हर जगह फ्लाई ओवर या चार लेन वाली चौड़ी सड़कों का जाल नहीं बिछा लिया है । सबसे बड़ी बात तो यह है कि अभी भी हमारे देश का एक बड़ा भाग बसों में यात्रा करता है, साइकिल चलाता है और पैदल भी चलता है । कई शहरों में तो वहां की आबादी का एक बड़ा भाग साइकिल पर ही सवार होता है । आज हमारे यहां साइकिलें इसलिए चलती हैं क्योंकि हम गरीब हैं । चुनौती तो यह है कि हम शहरी नियोजन को कुछ इस तरह बदलें कि हम अमीर होकर भी साइकिल चला सकें । पिछले कुछ बरसों से हम इसी दिशा में काम कर रहे हैं । हमारी कोशिश है कि अपने शहरों में एक सुरक्षित सार्वजनिक यातायात का ढांचा खड़ा हो सके । इस ढांचे में इसकी गुंजाइश होनी चाहिए कि जिनके पास कार हैं, उन्हें भी उसे चलाना न पड़े । इसके लिए यातायात के पूरे ढांचे में सुंदर तालमेल जरूरी है ।
    हम मैट्रो बना लें, नई बसें ले आएं पर यदि इनसे आखिरी पड़ाव पर उतरने के बाद का तालमेल नहीं है, आपकी इस यात्रा के अंतिम मील को जोड़ा नहीं गया तो सब छूट गया  समझिए । तब आपका खड़ा किया गया मंहगा ढांचा कोई काम का नहीं । अंतिम पड़ाव तक का जुड़ाव आसानी से उपलब्ध होना चाहिए । और इसीलिए हमें कुछ अलग ढंग से सोचना होगा । इस अंतिम पड़ाव के जुड़ाव में हम असफल हुए हैं। आज यातायात के कुशल प्रबंध की खूब चर्चा है । साइकिल की जगह बनाने की बात है, पैदल चलने वालों के हकों तक की चर्चा है । जब भी कभी कोई किसी सड़क का एक हिस्सा लेकर उसे साइकिल के लिए बनाना चाहता है तो एकदम उसका जोरदार विरोध होने लगता है । सड़कों पर कारों की जगह कम हो और बसों, साइकिलों की जगह, पैदल चलने वालों की जगह बढ़ सके । तभी लगातार बढ़ रही कारों की संख्या में गिरावट आ सकेगी ।
पर्यावरण समाचार
फ्लाई ऐश से बनायी डिस्प्रीन
    फ्लाई ऐश बेकार नहीं है । कोटा यूनिवर्सिटी की रसायनविद् डॉ. आशुरानी और रिसर्च स्कॉलर चित्रलेखा खत्री ने उसे उपयोगी बना दिया है । इन्होने फ्लाई ऐश से एस्प्रीन और डिस्प्रीन की गोलियां बनाने का तरीका खोजा है । उन्हें इसका पेटेंट भी मिल गया है ।
    इनका दावा है कि इस तरीके से ५० पैसे की डिस्प्रीन २५ पैसे में मिलने लगेगी । डॉ. आशुरानी ने बताया कि हम चार साल से इस पर काम कर रहे थे । सरकार ने इस शोध के लिए ७० लाख रूपए की सहायता की । उन्होनें बताया कि कैटलिस्ट लिक्विड फॉर्म में होता है । रिएक्शन के बाद डिस्प्रीन अलग करने में पानी ज्यादा लगता है ।
    इससे जल प्रदूषण भी होता है । वही फ्लाई ऐश सॉलिड फॉर्म में कैटलिस्ट की भूमिका निभाता है । इससे डिस्प्रीन बनाने में पानी की जरूरत कम हो जाती है । रिएक्शन के बाद डिस्प्रीन अलग करने के लिए बार-बार पानी की जरूरत नहीं  होती । कैटलिस्ट के तौर पर फ्लाई ऐश का पहला पेटेंट कोटा से हुआ  है । यह कोटा यूनिवर्सिटी के किसी भी विभाग का पहला पेटेंट है ।
    फ्लाई ऐश में मेटल के कई ऑक्साइड होते है । मुख्यत: इसमें पाई जाने वाली सिलिका का उपयोग किया गया । सिलिका का एसिटाइलेशन रिएक्शन करके ही एस्प्रीन डिस्प्रीन तैयार की गई ।
सिर्फ ८५ लोगोंके पास है दुनिया की आधी दौलत
    सिर्फ ८५ अमीर लोगों के पास दुनिया की कुल आबादी का आधी दौलत है । यह बात एक रिपोर्ट में कही गई है । यह रिपोर्ट विकास संगठन ऑक्सफेम ने जारी की है । रिपोर्ट में विकसित और विकासशील देशों में बढ़ रही असमानता के प्रभाव पर विस्तार से लिखा गया है । रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि १९७० के उत्तरार्द्ध से उन २९ देशों में अमीरों के लिए टैक्स की दरें गिरने लगी, इसका मतलब यह हुआ कि कई देशों में अमीर न केवलअधिक पैसे कमा रहे हैं बल्कि वे कम टैक्स भी दे  रहे हैं ।