मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

समाज और कानून
विकास की आड़ में ससाधनों की लूट
जयन्त वर्मा
    संयुक्त  राष्ट्र संघ ने सन् १९८७ में ``विकास के अधिकार`` की घोषणा के अंतर्गत राष्ट्रों  को विभिन्न दिशा-निर्देश जारी किए थे । भारतीय संविधान भी अपने नागरिकों खासकर अनुसूचित जनजातियों को अनेक विशेष अधिकार प्रदान करता है । प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर आदिवासी बहुल इलाकों में संविधान की उपेक्षा कर, प्राकृतिक संसाधनों की लूट एवं आदिवासियों को शोषण बदस्तूर जारी है ।
    भारत के संविधान के भाग-चार में शासन के मूलभूत तत्व लिपिबद्ध  हैंऔर राज्य को यह निर्देश है कि विधि बनाकर इन तत्वों को लागू किया जाय । अनुच्छेद-३८(२) में स्पष्ट लिखा है कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के  बीच प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करना राज्य का कर्तव्य है । वर्ष १९५० में भारत का संविधान लागू होने के समय देश की लगभग ८० फीसदी आबादी कृषि और सहायक व्यवसायों में संलग्न थी । इनकी आजीविका का मुख्य स्त्रोत प्राकृतिक संसाधन अर्थात जल, जंगल और जमीन थे । उपनिवेश काल में ब्रिटिश हुकूमत ने जल, जंगल और जमीन को मनमाने तौर पर हड़प लेने के लिए असंख्य कानून बनाए । सन् १८९४ का भूमि अधिग्रहण कानून, सन् १९२७ का भारतीय वन कानून आदि ऐसे ही कुछ कानून हैं। 
     ब्रिटिश हुकूमत से समझौते के  तहत जब भारतवासियों को सत्ता का हस्तांतरण हुआ तो उपनिवेशकालीन सभी कानूनों को कायम रखा गया । संविधान के सातवें संशोधन में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को यह अधिकार दिया गया था कि वे एक वर्ष की अवधि में ऐसे सभी कानूनों की समीक्षा करेंगे, जो ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किए गए थे । यदि वे संविधान की प्रस्तावना, भाग-तीन और चार के  प्रतिकूल पाए जाते हैंतो उन्हें संशोधित या निरस्त करने का भी उन्हें पूर्ण अधिकार था । दुर्र्भाग्य से तत्कालीन शासक वर्ग ने इस अवसर का लाभ नहीं उठाया । इसकी वजह शायद यह थी कि उन्हें ब्रिटिश कालीन सभी कानून अपने वर्गहित में दिखे होंगे । इसके बाद यह मान लिया गया कि उपनिवेशकालीन सभी कानून संविधान सम्मत हैं ।
    संविधान में विकास को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है । वर्ष १९९० के बाद भू-मण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियां अपनाई गई । सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि को विकास का पैमाना मान लिया गया । इसका अर्थ यह था कि जल, जंगल और जमीन पर आश्रित लोगों से ये संसाधन छीन कर कम्पनियों के  हवाले कर दिए जाएं ताकि वे उनका भरपूर दोहन कर देश को विकसित बना दें । 
    योजना आयोग का अनुमान है कि आजादी के बाद निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की विभिन्न परियोजनाओं के लिए भूमि के  अधिग्रहण से लगभग ६ करोड़ लोग विस्थापित हो चुके हैं । सर्वाधिक रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश घटा देने और खाद्यान्न के समर्थन मूल्य में निरंतर गिरावट के कारण खेती घाटे का सौदा बन गई । राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार पिछले १७ वर्षो में ३ लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके  हैं । एक ताजा अध्ययन के अनुसार प्रतिदिन दो हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं । लोगों का गांव से शहर की ओर पलायन बढ़ता जा रहा है । संसद और विधानसभाओं में इस समस्या को लेकर चुप्पी दिखती है । सभी राजनीतिक दल यह मान चुके हैं कि खेती-किसानी का काम श्रम केन्द्रित न होकर पूंजी केन्द्रित बनाया जाय । इसके लिए छोटे और सीमांत किसानों से खेती की भूमि हड़प कर कार्पोरेट घरानों को सौंपने की ओर तेजी से कदम उठाए जा रहे हैं। एन.डी.ए. की सरकार ने वर्ष २००० में योजना आयोग का दृष्टिपत्र तैयार किया था, जिसके अनुसार वर्ष २०२० में भारत की सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान घटाकर मात्र ६ प्रतिशत कर देने की योजना है । यू.पी.ए. की सरकार और उसमें शामिल सभी राजनीतिक दलों का भी यही दृष्टिपत्र है ।
    संविधान के अनुच्छेद-३९(क) में राज्य को निर्देश है कि वह अपनी नीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के  पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो । अनुच्छेद-३९(ख) में राज्य को ऐसे कानून बनाने का निर्देश है कि समुदाय के भौतिक संसाधनों  का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटे ताकि सामुहिक हित का सर्वोत्तम रूप से सध सकें । यह भी सुनिश्चित करने का निर्देश है कि धन और उत्पादन साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेन्द्रण न हो । आर्थिक भूमण्डलीकरण की नीतियों के फलस्वरूप उपरोक्त सभी निर्देशों की धज्जियां उड़ाने वाले परिणाम सामने आ रहे हैं । संविधान के भाग-चार के उल्लंघन में चलाई जा रही आर्थिक नीतियां प्रमाणित करती हैं कि संविधान के प्रति आस्था की शपथ लेकर विधायिका और कार्यपालिका में पदस्थ पदाधिकारी जनता के साथ विश्वासघात कर रहे हैं । विकास के अधिकार के घोषणापत्र (१९८६) में विकास के तीन मानक बताए गए हैं । प्राकृतिक  संसाधनों  पर नियंत्रण, स्वनिर्धारण और विकास के प्रतिफल में भागीदारी । भूमि अधिग्रहण संशोधन अधिनियम    में इन तीनों मानकों  का समावेश नहीं किया जाना विकास पीड़ितों  के  मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन  है ।
    जुलाई २०१३ में ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा जारी राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति के प्रारूप में यह खुलासा किया गया है कि ग्रामीण भारत में खेती की जमीन खेतीहर समाज के नियंत्रण से निकलती जा रही है । भारत के एक तिहाई परिवार भूमिहीन हैं । इतने ही परिवार भूमिहीनता के करीब पहुंच चुके हैं । अगले २० प्रतिशत परिवारों के पास १ हेक्टेयर से भी कम भूमि है । इस प्रकार भारत की ६० फीसदी आबादी का देश की कुल भूमि के ५ प्रतिशत पर अधिकार है जबकि १० प्रतिशत जनसंख्या का ५५ फीसदी जमीन पर नियंत्रण है ।
    यह भी स्पष्ट हो चुका है कि आर्थिक वृद्धि दर की टपकन का लाभ निर्धनों तक नहीं पहुंच रहा है । समाज में गरीबी और अमीरी के बीच खाई तेज गति से बढ़ रही है । ऐसी दशा में आर्थिक वृद्धि दर विकास का पैमाना नहीं बल्कि लूट का हथियार बन गया है । विकास की परियोजनाओं से उजड़ने वालों का यह सवाल अब बहुत महत्वपूर्ण हो गया है कि ''किसकी कीमत पर किसका विकास....!``
    यह सभी जानते हैं कि पांचवीं अनुसूची वाले जनजातीय क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधन भरपूर हैं । वहां के  खनिज, जल, वन और भूमि पर कार्पोरेट घरानों की नजर है । येन केन प्रकारेण वे इसे मिट्टी के मोल हासिल करना चाहते हैं । पंचायतों के अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार के कानून 'पेसा` में  ग्रामसभा की सहमति के बिना लोगों की बेदखली और भूमि का अधिग्रहण प्रतिबंधित है । समता और नियामगिरी के प्रकरणों  में उच्च्तम न्यायालय ने पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्रों में कार्पोरेट घरानों को प्राकृतिक संसाधन सौंपने के सरकारी फैसलों को असंवैधानिक घोषित किया है । इसके बावजूद शासक वर्ग द्वारा जगह-जगह एम.ओ.यू. के माध्यम से जनजातीय क्षेत्रों के संसाधन कार्पोरेट घरानों को सौंपने का सिलसिला जारी है ।
    पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में नगरीय निकायों के लिए स्वशासन का कानून बनाने भूरिया समिति की सिफारिश पर अमल नहीं करके सरकार जनजातीय क्षेत्रों में प्राकृतिक  संसाधनों की लूट का दरवाजा खुला रखना चाहती है । सरकार द्वारा संविधान के प्रावधानों की अवेहलना से ही जनजातीय समाज में  रोष पनप रहा है । इस संबंध में राष्ट्रपति और गृहमंत्री ने भी अपने सम्बोधनों में राज्य सरकारों को आगाह किया है । अनेक सरकारी रिपोर्ट भी स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि लूट को विकास बताने वाली राज्य सरकारें प्राकृतिक संसाधन कार्पोरेट घरानों को बेच देने पर आमादा हैं । 

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