मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

विशेष लेख
पर्यावरण की अर्थशास्त्रीय अवधारणा
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

    दार्शनिक विचारक वर्नान हावर्ड की सूक्ति  जब आपकी जिंदगी की बाजी जीत ली है ।   मेरा मानना है कि प्रकृति एवं पर्यावरण के संरक्षण के लिए हमें सीमित आवश्यकता के दर्शन को अपनाना चाहिए । पारिस्थिक तंत्र एवं अर्थतंत्र के समन्वय का विचार करना चाहिए ।
    अर्थशास्त्रियों की मान्यता है कि अर्थशास्त्र की विषय वस्तु अभाव ही है । संसाधनो का सदैव अभाव बना रहता है । स्वभाविक प्रश्न यह उठता है कि अभाव क्यों महसूस होता है ? इसका एक मात्र उत्तर है कि हम सदैव जितना हमारे पास होता है उससे अधिक चाहते है अत: सदैव अभाव बना रहता है । पर्यावरण के हित में हमें केवल इतना समझना है कि जब हम निर्वक सम्मत उपयोग करते हैं । त्याग के साथ ग्रहण करते हैं तो सृष्टि में समभाव बना रहता   है । संतुलन रहता है और जीवन का स्पंदन रहता है । 
     भारतीय संस्कृति एवं प्रकृति का वीथिकाआें, वनस्पतियों एवं जन्तुआें से गहरा संबंध रहा है । हमारी प्रकृति एवं संस्कृति का मूल मंत्र यह है कि हम पोषण करें । न तो शोषण करें न शोष को सहे । विदूषता यह है कि आजकल शोषणकारी प्रवृत्ति के कारण प्रकृति एवं पर्यावरण में असंतुलन पैदा कर दिया है । सिद्धान्त एवं सामाजिक व्यवहार के बीच दूरी बढ़ी है । हर सख्स सबकुछ अपनी झोली में समेट लेना चाहता है यह स्थिति पर्यावरणर की अर्थवत्ता के लिए घोतक है । हमारी चाहत है कि पर्यावरण अक्षुण्य रहे तथा हमें सुख- समृद्धि सदैव प्राप्त् हो ।
    सृष्टि में सर्वत्र विनिमय है । एक सुदीर्घ श्रृंखला है हमारे चारो ओर, और यही श्रृंखला हर जीव को आपस में जोड़ती है । क्या हम समक्ष सकते है कि जल में रहने वाली मछली का हमारे स्वास्थ्य से संबंध है । कतिपय मत्स्य प्रजातियों मच्छरों के लाखा खाती हैं और इस प्रकार परोक्ष रूप से वह मच्छर जनित बीमारियों से हमारी रक्षा करती है । क्या हम समझ सकते है कि जंगल के मांस पक्षी शेर का हमारी खाद्य श्रृंखला से नाता है । हम जानते है कि शाकाहारी जंगली हाथी जंगल में अपने आहार के लिए उत्पात मचाते है । वह, पेड़ तक उखाड़ देते है । दरअसल प्रकृति चाहती है कि ऐसा हो क्योंकि इससे उन वृक्ष प्रजातियों को पनपने का अवसर मिलता है जो प्रभावी प्रजातियों के पनपने के कारण दबी रह जाती हैं । अत: हाथियों के व्यवहार से वन वनस्पतियों में सामुदायिक विकास होता है । जब हम विनिमय की अवधारणा को समझने का प्रयास करते हैं तब यह पाते है कि हमारे चारों ओर हर चीज हमारे जीवन से जुड़ी है । प्रकृति की जो प्रणाली हमें सरल दिखलाई देती है वह बड़ी जटिल है । हमें प्रकृति के प्रत्येक संसाधन के प्रति सतर्क दृष्टि रखनी चाहिए तथा विवेक सम्मत रहना चाहिए ।
    यह सुस्थापित तथ्य है कि बाजार की अवधारणा और अर्थव्यवस्था में अभाव ही हमें संसाधनों के कुशन उपयोग करने में मददगार होते हैं अब यह तथ्यगत प्रश्न उठता है कि अभाव किस प्रकार पर्यावरण के स्वभाव तथा हमारे सदभाव से जुड़ा है । मनुष्य के अस्तित्व के लिए पर्यावरण का संतुलित एवं संवर्धित रहना उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार प्रगतिशील जीव के लिए आर्थिक विकास । इकॉनामी एवं इकोलॉजी का परस्पर घनिष्ठ संबंध है । परितंत्र एवं अर्थतंत्र परस्पर पूरक है ।
    पर्यावरण तभी सुरक्षित है जब कि अर्थतंत्र भी मजबूत हो और कृषि क्षेत्र में विकास हो । यह बात तब उजागर होती है जब हमारी सरकार उपलब्धियों और चुनौतियों का लेखा जोखा देती है । किन्तु ध्यान रहे उत्पादन, उपयोग उद्योग के साथ-साथ हमें अपनी धरती की धारण शक्ति एवं अन्नपूर्णता का ध्यान भी रखना होगा।
    समावेशी विकास की बात उठी है । निचले तबके के भूमिहीन खेती हर किसान तथा पिछड़े लोगों को आर्थिक एवं सामाजिक संबल प्रदान करने की जरूरत है । सेवा दायरा बढ़ाने की भी आवश्यकता है ताकि शिक्षा, कानून, सुरक्षा, पर्यटन एवं वित्तीय सेवकों की पूर्ति हो सके । सबको समान अवसर मिले । सार्वजनिक एवं निजी भागीदारी सुनिश्चित हो । दूरसंचार के समग्र विकास की जरूरत है । शहरी क्षेत्रों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में दूर संचार प्रणालियों विकसित की जाएं । ग्रामीण आबादी का शहरों को पलायन रूके । मँहगाई पर अंकुश लगे ताकि  उचित मूल्य पर सबको आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध हो । भूमि अधिग्रहण कहीं विकास की चमक में ग्रहण न लगा दे । बुनियादी ढाँचे का समयबद्ध ढंग से विकास करना होगा ।
    सुख समृद्धि के हेतु हमें धन का निवेश करने के परम्परागत साधनों की ओर ध्यान देना होगा । आज का धनिक वर्ग पर्यावरण को तोड़ने वाले साधनों पर धन का व्यय   करता है जबकि पहले लोग तालाब खुदवाते थे, बावड़ी बनवाते थे, बाग-बगीचे लगवाते थे । धर्मशाला, पाठशाला, गौशाला, अश्वशाला आदि बनवा कर लोकहितकारी कार्य किया करते थे । यह सुख साधन प्रकृति का संवर्धन करते थे । आज हम प्रदूषणकारी साधनों को अधिक अपनाते है जो ऊर्जा संकट को भी कई गुना बढ़ाते है । कहने का भाव है कि हमें पर्यावरण के परिवर्धन में धन का निवेश करना होगा । प्रकृति के प्रति श्रृद्धा का निवेश करना   होगा ।
    अक्सर हम लोग भौतिक साधनों को सुख से जोड़ते है किन्तु क्या अर्थ सम्पन्नता से हम सुखी हुए है । यदि ऐसा होता तो सम्पन्न व्यक्तियों को कोई दुख नहीं रहता किन्तु वास्तव में वह अधिक उद्विग्न, रूग्ण और अशांत रहते है । भौतिक सुख सुविधा से अधिक जरूरी है मन:  शांति । किन्तु आज की भौतिकवादी अर्थशास्त्रीय अवधारणा में मानस चिंतन का समय ही नहीं रहता है । सुख सुविधांए जुटाने के क्रम में मंत्रीकरण बढ़ा है । अत: हमें पर्यावरणोन्मुखी एवं समन्वय करणीय बनाना ही होगा तकि सुख समृद्धि के साथ शांति भी मिलें ।

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