ज्ञान विज्ञान
फेसबुक मनुष्य को सामाजिक बनाता हैं या नहीं
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । वास्तव में हम इनते सामाजिक हैं कि लोगों से मेलजोल का असर दिमाग के उसी हिस्से पर देखा जाता है जो भोजन जैसी निहायत बुनियादी चीजों से जुड़ा है ।
पिछले कुछ सालों में हमारे मिलने जुलने के तौर-तरीकों में बदलाव आया है । अब हम रूबरू नहीं मिलते बल्कि पर्दो पर एक-दूसरे की डिजिटल छवियां देखते हैं । तो सवाल यह उठता है कि ऑनलाईन मेलजोल से किन मायनों में भिन्न होता है ।
फेसबुक मनुष्य को सामाजिक बनाता हैं या नहीं
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । वास्तव में हम इनते सामाजिक हैं कि लोगों से मेलजोल का असर दिमाग के उसी हिस्से पर देखा जाता है जो भोजन जैसी निहायत बुनियादी चीजों से जुड़ा है ।
पिछले कुछ सालों में हमारे मिलने जुलने के तौर-तरीकों में बदलाव आया है । अब हम रूबरू नहीं मिलते बल्कि पर्दो पर एक-दूसरे की डिजिटल छवियां देखते हैं । तो सवाल यह उठता है कि ऑनलाईन मेलजोल से किन मायनों में भिन्न होता है ।
अंतर्क्रिया की इन दो शैलियों में एक अंतर यह हो सकता है कि हम इनसे कितना आनंदित महसूस करते हैं । क्या फेसबुक पर अंतर्क्रिया हमें उतना ही आनंदित करती है जितनी आमने-सामने की अंतर्क्रिया ? हाल ही में प्रकाशित एक पर्चे से लगता है कि इसका जवाब है शायद नही । वास्तव में इस पर्चो से तो लगता है कि हम फेसबुक पर जितना अधिक समय बिततो हैं, उतना ही ज्यादा बुूरा महसूस करते है ।
शोधकर्ताआें ने कॉलेज कैंपस के आसपास के प्रतिभागियों को लेकर एक अध्ययन किया । शुरूआत में उन्हें कुछ प्रश्नवालियां भरने को दी गई थी । इनमें से एक का संबंध इस बात से था कि वे जिन्दगी में कितना संतुष्ट महूस करते हैं । इसके बाद प्रतिभागियों को लगातार दो हफ्तों तक प्रतिदिन ५ टेक्स्ट मेसेज भेजे गए । प्रत्येक मजमून के लिए प्रतिभागिों को कुछ सवालों के जवाब देने थे । जैसे उन्हें उस क्षण कैसा लगा, और आखरी संदेश से लेकर इस संदेश तक उन्होनें फेसबुक कितना इस्तेमाल किया और दूसरे लोगों के साथ रूबरू अंतर्क्रिया कितनी की । दो हफ्ते बाद प्रतिभागियों ने प्रश्नावली का दूसरा सेट भरा । शोधकर्ताआें ने इस बार भी प्रतिभागियों की जिंदगी में संतुष्टि का आंकलन किया ।
तो, ऑनलाइन अंतर्क्रिया हमें कैसा महसूस कराती है ? शोधकर्ताआें ने इसका जवाब जानने के लिए आंकडों का विश्लेषण दो अलग-अलग तरह से किया । सबसे पहले उन्होनें यह देखा कि प्रत्येक मेसेज के बीच प्रतिभागियों की पल-दर-पल भावनाएं क्या थी । पता चला कि प्रतिभागी मेसेजेस के बीच फेसबुक का जितना ज्यादा इस्तेमाल करते हैं उनकी भावनाए उतनी ही नकारात्मकता की ओर बढ़ती हैं । दो सप्तह में फेसबुक के इस्तेमाल का संबंध नकारात्मक बदलाव से देखा गया । मजेदार बात यह है कि जिन लोगों ने इस दौरान प्रत्यक्ष सामाजिक संपर्क नहीं बनाए, उनमें यह संबंध नदारद था जबकि जिन लोगों ने खूब सामाजिक संपर्क बनाए उनमें यह असर ज्यादा देखा गया ।
दूसरी तरह के विश्लेषण से पता चला कि जो लोग ज्यादा फेसबुक का इस्तेमाल करते थे उनकी जिन्दगी में संतुष्टि में बड़ी गिरावट दर्ज की गई ।
वैसे आप फेसबुक इस्तेमाल बंद करें, उससे पहले यह ध्यान रखना होगा कि इस अध्ययन की कई सीमाएं भी हैं । पहली सीमा तो यह है कि यह कार्य-कारण संबंध नहीं दर्शाता, सिर्फ दो चीजों के एक साथ होने की बात करता है । दूसरी, यह अध्ययन १९ वर्ष आयु वर्ग के लोगों के बीच किया गया था । सामाजिक नेटवर्क का इस्तेमाल उम्र के अनुसार बदलता है । इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अन्य उम्र समूहों में भी ऐसे ही परिणाम आते हैं । तीसरी, यह सिर्फ फेसबुक पर आधारित अध्ययन है, इसमें अन्य सामाजिक नेटवर्क को शामिल नहीं किया गया है । हो सकता है यह असर सिर्फ फेसबुक का हो ।
सीमाएं जो भी हो मगर सामाजिक नेटवर्क्स का इस्तेमाल बढ़ रहा है, ऑनलाइन मेलजोल भी बढ़ रहा है, इसलिए इस तरह की अंतर्क्रियाआें के सामाजिक व मनोवैज्ञानिक असर का आकलन एक जरूरी काम है ।
डरावनी याददाश्त को मिटाने का तरीका
मनोचिकित्सक को भूल जाइए । आपको अपने बिस्तर पर एक रात की नींद ही काफी है । नेचर न्यूरोसाइंस में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार नींद के दौरान मस्तिष्क का लक्षित प्रशिक्षण डरावनी यादों के प्रभाव को कम करता है । शोधकर्ताआें का कहना है कि इस तकनीक से मानसिक विकारों, जैसे डर (फोबिया) और दुर्घटना जन्य तनावों (ट्रॉमा) को कम किया जा सकता है ।
फिलहाल इन तकलीफों का इलाज एक्सपोजर चिकित्सा द्वारा किया जाता है । इसमें मरीज सोच-समझकर अपने डरों को कम करता है । चिकित्सक की देखरेख में मरीज खुद ही आपने आपको तैयार करता है कि दर्दनाक संकेतों पर प्रतिक्रिया न करे । लेकिन कुछ मरीजों के लिए यह चिकित्सा काफी कष्टदायक हो सकती है, खासकर जब वे पहली बार इसमें शामिल होते हैं ।
शोधकर्ताआें ने कॉलेज कैंपस के आसपास के प्रतिभागियों को लेकर एक अध्ययन किया । शुरूआत में उन्हें कुछ प्रश्नवालियां भरने को दी गई थी । इनमें से एक का संबंध इस बात से था कि वे जिन्दगी में कितना संतुष्ट महूस करते हैं । इसके बाद प्रतिभागियों को लगातार दो हफ्तों तक प्रतिदिन ५ टेक्स्ट मेसेज भेजे गए । प्रत्येक मजमून के लिए प्रतिभागिों को कुछ सवालों के जवाब देने थे । जैसे उन्हें उस क्षण कैसा लगा, और आखरी संदेश से लेकर इस संदेश तक उन्होनें फेसबुक कितना इस्तेमाल किया और दूसरे लोगों के साथ रूबरू अंतर्क्रिया कितनी की । दो हफ्ते बाद प्रतिभागियों ने प्रश्नावली का दूसरा सेट भरा । शोधकर्ताआें ने इस बार भी प्रतिभागियों की जिंदगी में संतुष्टि का आंकलन किया ।
तो, ऑनलाइन अंतर्क्रिया हमें कैसा महसूस कराती है ? शोधकर्ताआें ने इसका जवाब जानने के लिए आंकडों का विश्लेषण दो अलग-अलग तरह से किया । सबसे पहले उन्होनें यह देखा कि प्रत्येक मेसेज के बीच प्रतिभागियों की पल-दर-पल भावनाएं क्या थी । पता चला कि प्रतिभागी मेसेजेस के बीच फेसबुक का जितना ज्यादा इस्तेमाल करते हैं उनकी भावनाए उतनी ही नकारात्मकता की ओर बढ़ती हैं । दो सप्तह में फेसबुक के इस्तेमाल का संबंध नकारात्मक बदलाव से देखा गया । मजेदार बात यह है कि जिन लोगों ने इस दौरान प्रत्यक्ष सामाजिक संपर्क नहीं बनाए, उनमें यह संबंध नदारद था जबकि जिन लोगों ने खूब सामाजिक संपर्क बनाए उनमें यह असर ज्यादा देखा गया ।
दूसरी तरह के विश्लेषण से पता चला कि जो लोग ज्यादा फेसबुक का इस्तेमाल करते थे उनकी जिन्दगी में संतुष्टि में बड़ी गिरावट दर्ज की गई ।
वैसे आप फेसबुक इस्तेमाल बंद करें, उससे पहले यह ध्यान रखना होगा कि इस अध्ययन की कई सीमाएं भी हैं । पहली सीमा तो यह है कि यह कार्य-कारण संबंध नहीं दर्शाता, सिर्फ दो चीजों के एक साथ होने की बात करता है । दूसरी, यह अध्ययन १९ वर्ष आयु वर्ग के लोगों के बीच किया गया था । सामाजिक नेटवर्क का इस्तेमाल उम्र के अनुसार बदलता है । इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अन्य उम्र समूहों में भी ऐसे ही परिणाम आते हैं । तीसरी, यह सिर्फ फेसबुक पर आधारित अध्ययन है, इसमें अन्य सामाजिक नेटवर्क को शामिल नहीं किया गया है । हो सकता है यह असर सिर्फ फेसबुक का हो ।
सीमाएं जो भी हो मगर सामाजिक नेटवर्क्स का इस्तेमाल बढ़ रहा है, ऑनलाइन मेलजोल भी बढ़ रहा है, इसलिए इस तरह की अंतर्क्रियाआें के सामाजिक व मनोवैज्ञानिक असर का आकलन एक जरूरी काम है ।
डरावनी याददाश्त को मिटाने का तरीका
मनोचिकित्सक को भूल जाइए । आपको अपने बिस्तर पर एक रात की नींद ही काफी है । नेचर न्यूरोसाइंस में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार नींद के दौरान मस्तिष्क का लक्षित प्रशिक्षण डरावनी यादों के प्रभाव को कम करता है । शोधकर्ताआें का कहना है कि इस तकनीक से मानसिक विकारों, जैसे डर (फोबिया) और दुर्घटना जन्य तनावों (ट्रॉमा) को कम किया जा सकता है ।
फिलहाल इन तकलीफों का इलाज एक्सपोजर चिकित्सा द्वारा किया जाता है । इसमें मरीज सोच-समझकर अपने डरों को कम करता है । चिकित्सक की देखरेख में मरीज खुद ही आपने आपको तैयार करता है कि दर्दनाक संकेतों पर प्रतिक्रिया न करे । लेकिन कुछ मरीजों के लिए यह चिकित्सा काफी कष्टदायक हो सकती है, खासकर जब वे पहली बार इसमें शामिल होते हैं ।
हाल ही में शिकैगो स्थित नार्थवेस्टर्न युनिव-र्सिटी की कैथरीना हौनर और उनके साथियों ने एक तकनीक इजाद की है जो नींद में काम करती है ।
सबसे पहले डरावनी यादें निर्मित करने के लिए उन्होनें प्रतिभागियों को बिजली का झटका दिया और साथ में कुछ चेहरों के चित्र दिखाए और पुदीने या नीम्बू जैसी अलग-अलग खुशबुएं सुंघाई । इसके बाद प्रतिभागियों को वे चेहरे देखते ही या वह खुशबू संूघते ही पसीने छूटने लगते थे क्योंकि उन्हें डर होता था कि साथ में बिजली का झटका भी लगेगा ।
इस ट्रेनिंग के बाद प्रतिभागियों को प्रयोगशाला में झपकी लेने को कहा गया । उनकी नींद के दौरान शोधकर्ता उनकी खोपड़ी पर लगाए गए इलेक्ट्रोड्स की मद से उनके मस्तिष्क तंरगों की निगरानी करते रहे । जब प्रतिभागी स्लोवेव (धीमी तरंग वाली) नींद में पहुंच गए, तब शोधकर्ताआें ने डर से संबंधित महक ३०-३० सेकण्ड के अंतराल पर छोड़ी । धीमी तरंग वाली नींद वह अवस्था होती है जब मस्तिष्क तात्कालिक यादों को फिर से उभारता है और सुदृढ़ करता है । कोशिश यह थी कि इस महक के जरिए प्रतिभागियों के मस्तिष्क में डरावने चेहरे की याद ताजा की जाए । मगर इस बार साथ में झटका नहीं था । जैसा कि जागते हुए हुआ था, सोते समय भी महक के प्रभाव से प्रतिभागियों के मस्तिष्क में डरावने चेहरे की याद ताज की जाए । मगर इस बार साथ में झटका नहीं था । जैसे कि जागते हुए हुआ था, सोते समय भी महक के प्रभाव से प्रतिभागियों को ज्यादा पसीना आया मगर यह प्रभाव धीरे-धीरे कम होता गया ।
यह प्रभाव जागने के बाद भी बना रहा । जब प्रतिभागी जागे तब इस महक के प्रति उनकी डर की प्रतिक्रिया कम हो चुकी थी । अध्ययन में पता चला कि यह इलाज डरावनी यादों को मिटाता नहीं बल्कि उस याद के साथ जुड़े महक और चेहरे के संबंध को बदल देता है ।
न्यूयॉर्क के न्यूरोसाइंटिस डेनिएला स्किलर का कहना है कि यह बहुत ही रोमांचक है क्योंकि हम तो मानते हुए हैं कि आपको अपनी भावनात्मक प्रतिक्रिया के प्रति जागरूक होना पड़ता है, तभी आप उन्हें बदल सकते हैं । वैसे अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह प्रभाव कितना स्थायी है । क्या एक रात की नींद पर्याप्त् होगी ? हौनर को लगता है कि यह एक नवीन विचार है और इस पर और काम करने की जरूरत है ।
गॉड पार्टिकल का बदला जाएगा नाम
कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है, लेकिन जब बात गॉड पॉर्टिकल कहे जाने वाले हिग्स बोसोन की हो तो नाम बड़े मायने रखता है । गॉड पॉर्टिकल की खोज से जुड़े कुछ वैज्ञानिक इसका मौजूदा नाम बदलना चाहते हैं ।
गॉड पॉर्टिकल का हिग्स बोसोन नाम इसके खोजकर्ता पीटर हिग्स के नाम पर रखा गया था । अब वैज्ञानिकों का कहना है कि इसकी खोज में अन्य शोधकर्ताआें भी शामिल थे और उन्हें भी इसका श्रेय दिया जाना चाहिए ।
सबसे पहले डरावनी यादें निर्मित करने के लिए उन्होनें प्रतिभागियों को बिजली का झटका दिया और साथ में कुछ चेहरों के चित्र दिखाए और पुदीने या नीम्बू जैसी अलग-अलग खुशबुएं सुंघाई । इसके बाद प्रतिभागियों को वे चेहरे देखते ही या वह खुशबू संूघते ही पसीने छूटने लगते थे क्योंकि उन्हें डर होता था कि साथ में बिजली का झटका भी लगेगा ।
इस ट्रेनिंग के बाद प्रतिभागियों को प्रयोगशाला में झपकी लेने को कहा गया । उनकी नींद के दौरान शोधकर्ता उनकी खोपड़ी पर लगाए गए इलेक्ट्रोड्स की मद से उनके मस्तिष्क तंरगों की निगरानी करते रहे । जब प्रतिभागी स्लोवेव (धीमी तरंग वाली) नींद में पहुंच गए, तब शोधकर्ताआें ने डर से संबंधित महक ३०-३० सेकण्ड के अंतराल पर छोड़ी । धीमी तरंग वाली नींद वह अवस्था होती है जब मस्तिष्क तात्कालिक यादों को फिर से उभारता है और सुदृढ़ करता है । कोशिश यह थी कि इस महक के जरिए प्रतिभागियों के मस्तिष्क में डरावने चेहरे की याद ताजा की जाए । मगर इस बार साथ में झटका नहीं था । जैसा कि जागते हुए हुआ था, सोते समय भी महक के प्रभाव से प्रतिभागियों के मस्तिष्क में डरावने चेहरे की याद ताज की जाए । मगर इस बार साथ में झटका नहीं था । जैसे कि जागते हुए हुआ था, सोते समय भी महक के प्रभाव से प्रतिभागियों को ज्यादा पसीना आया मगर यह प्रभाव धीरे-धीरे कम होता गया ।
यह प्रभाव जागने के बाद भी बना रहा । जब प्रतिभागी जागे तब इस महक के प्रति उनकी डर की प्रतिक्रिया कम हो चुकी थी । अध्ययन में पता चला कि यह इलाज डरावनी यादों को मिटाता नहीं बल्कि उस याद के साथ जुड़े महक और चेहरे के संबंध को बदल देता है ।
न्यूयॉर्क के न्यूरोसाइंटिस डेनिएला स्किलर का कहना है कि यह बहुत ही रोमांचक है क्योंकि हम तो मानते हुए हैं कि आपको अपनी भावनात्मक प्रतिक्रिया के प्रति जागरूक होना पड़ता है, तभी आप उन्हें बदल सकते हैं । वैसे अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह प्रभाव कितना स्थायी है । क्या एक रात की नींद पर्याप्त् होगी ? हौनर को लगता है कि यह एक नवीन विचार है और इस पर और काम करने की जरूरत है ।
गॉड पार्टिकल का बदला जाएगा नाम
कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है, लेकिन जब बात गॉड पॉर्टिकल कहे जाने वाले हिग्स बोसोन की हो तो नाम बड़े मायने रखता है । गॉड पॉर्टिकल की खोज से जुड़े कुछ वैज्ञानिक इसका मौजूदा नाम बदलना चाहते हैं ।
गॉड पॉर्टिकल का हिग्स बोसोन नाम इसके खोजकर्ता पीटर हिग्स के नाम पर रखा गया था । अब वैज्ञानिकों का कहना है कि इसकी खोज में अन्य शोधकर्ताआें भी शामिल थे और उन्हें भी इसका श्रेय दिया जाना चाहिए ।
वैज्ञानिकों का तर्क है कि एकांत पसंद पीटर हिग्स गॉड पॉर्टिकल की खोज करने वाले छह वैज्ञानिकोंमें से एक थे । १९६४ में इसकी खोज की घोषणा की थी । हिग्स बोसोन के लिए अब कई नाम सुझाए गए है । एक प्रस्ताव इसे ब्राउट-एंग्लट-हिग्स या बीईएच कहने का आया है । बेल्जियम के भौतिक विज्ञानी रॉबर्ट ब्राउट और फैकोइस एंग्लर्ट ने अपने शोध पत्र हिग्स से पहले लिखे थे । दूसरा नाम सुझाया गया है - बर्क (बीई एचजीएचके) इसमें पहले तीन अक्षर लंदन के इंपीरियल कॉलेज के गेराल्ड गुरानिक, कार्ल हैगन और टॉम किबल के नाम को दर्शाते है । इन तीनों वैज्ञानिकों ने हिग्स के बाद अपने शोध पत्र लिखे थे ।
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