मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

पक्षी जगत
संवेदना के संवाहक पक्षी
डॉ. कैलाशचन्द्र सैनी
    यदि पृथ्वी पर फूल और पक्षी नहीं होते तो संसार में साहित्य और संगीत का जन्म ही नहीं होता । मानव जीवन नीरस और प्रकृति निर्जीव-सी लगती । पक्षियों का मधुर संगीत और आकर्षक रूप-सौन्दर्य और प्रकृति की मोहकता मन में नव-स्फूर्ति का संचार करते हैं । इन पंक्तियों के लेखक को बचपन से ही पक्षियों के प्रति विशेष लगाव रहा है । स्कूल के दिनों से ही मुझे घर-आंगन में परिन्दों का चहचहाना, सुबह-शाम चिड़ियों का चीं-चीं करके वातावरण को गंुजायमान करना, घर के पिछवाड़े में परिन्दों का फूदकना, दालान में  कबूतरों का गुटर गूं करते हुए दाना चुगना, पगडंडियों पर गौरैया का धूल में नहाना, घर  में पालतू तोते का बच्चें की तरह बोलते हुए उछलकूद करना बड़ा अच्छा लगता था ।  घर की मुंडेर पर बैठ कौए का कांव कांव करना शायद ही किसी को पसन्द हो लेकिन मुझे वह भी अखरता नहीं था । 
     लोग समझते हैं कि चिड़ियाँ निरर्थक ही चीं-चीं करती रहती हैं, किन्तु यह सही नहीं है । पक्षियों में भी बुद्धि और भाव-संवेदना होती है, उनमें भी विचार व्यक्त करने की क्षमता होती है । उनकी चहचहाहट में प्रसन्नता, , पीड़ा, जानकारी आदि की सूचनाएं होती हैं  जिन्हें उसकी बिरादरी के पक्षी सहजता से समझते हैं और उसी के  अनुरूप आचरण करते हैं ।
    मैंनेे बचपन से ही यह अनुभव किया है कि पक्षी भी खूब घुलमिल कर बाते करतेे हैं, एक-दूसरे के साथ विचारों का आदान-प्रदान करते हैं । अपने संभाषण से सहयोग जुटाने का प्रयास करते हैं । करीब ४० वर्ष पूर्व जब मैं  स्कूल में पढ़ता था । तब हमारे  घर में एक तोता पाला हुआ था। तोते का पिंजरा  घर में शहतूत के पेड़ पर लटका रहता था । गर्मियों में जब पेड़ पर खूब फल लगते थे तब बहुत से तोते वहां आया करते थे । कई तोते हमारे पालतू तोते के पिंजरे पर और उसके आसपास बैठते और बड़े ही मधुर स्वर में भिन्न-भिन्न तरह की आवाजे निकाल कर बतियाते थे । लगता था जैसे कह रहे हों कि 'यहा कैद होकर कैसे बैठ हो, बाहर आओ हमारे साथ चलो और आनन्द की उड़ान भरो ।`
    हमारा पालतू तोता जो मनुष्य की तरह बोलना सीख गया था लेकिन उस समय अपने साथियों के साथ उन्हीं के सुर में सुर मिलाते हुए बोलता था । उस समय उसकी आँखें विचित्र प्रकार से पीले गोल  घेरों के गहराने से छोटी हो जाती थीं । मैंने देखा कि दो तोतों से तो हमारे तोते की गहरी दोस्ती हो गई थी । वे दो-तीन दिन  के अन्तराल पर अक्सर आया करते और कुछ देर उससे बतियाकर चले जाते थे ।
    कुछ दिन बाद हमारे  घर में एक और पालतू तोता आया जो शायद किसी के यहां से उड़कर आया था । हमने उसे अलग पिंजरे में रखा । वह बहुत ही जहीन (बुद्धिमान) था । वह स्वयं अपनी चोंच से पिंजरे की खिड़की खोल लेता था  तथा बाहर आकर कुछ  देर घूम-फिर कर वापस पिंजरे में जा बैठता था । क भी-कभी वह उड़कर चला  भी जाता था और कुछ दिनों के बाद लौट आता था । तीन-चार बार ऐसा हुआ लेकिन एक दिन वह ऐसा गया कि लौट कर ही नहीं आया । शायद किसी ने उसे अपने घर में रख लिया और पिंजरे पर ताला लगा दिया जिससे वह खिड़की को खोल कर भाग न सके । हमारे पालतू तोते वे सभी चीजंे खाते थे जो घर के लोग खाते थे । सवेरे उठते ही उनकी  भी चाय पीने की     आदत पड़ गई थी । कभी उन्हें चाय       देना भूल  जाते तो वे गुस्से से अपनी कटोरी को चोंच से उठा-उठा कर पटकने लगते  थे । तोते की स्मरण शक्ति  दूसरे पक्षियों से अधिक होती है तभी तो वह करीब १०० शब्द आसानी से सीख लेता है ।
    सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग के सेवाकाल के मेरे आठ वर्षोंा में से  करीब ६ वर्ष विभाग के न्यू गेट स्थित रंगमंच कार्यालय पर बीते जहां छोटे-बड़े सभीतरह के पेड़-पौधे थे । प्रदर्शनी स्थल पर रंग-बिरंगे फूलों के पौधे भी खूब थे यहां भाँति-भाँति  की चिड़ियाँ प्राय: चहचहाती रहती थीं । गर्मियों में कोयल की कूक, बगीचे में रंग-बिरंगें फूलों पर रसपान करती फूलचुही, लॉन में कीड़े-मकोड़े ढंूढ़ता हुदहुद, जोड़े में घूमती मैनाएँ आदि मन को बहलाने के  लिए काफी थे । कोयल की मधुर वाणी सभी का मन मोह लेती है । ध्यान से सुनने पर ही आपको इस बात का अहसास होता है कि उसका स्वर धीरे-धीरे तेज होता जाता है अर्थात् आरोह में कूकती कोयल अपने चरम पर पहुँच कर कुछ देर के लिए शांत हो जाती है ।
    इसकी खास बात यह देखी गई है कि यह  ने पेड़ों पर पत्तों की ओट में छिप कर अपनी स्वर लहरी बिखेरती है । फूरसत के क्षणों में मैंने  बहुत प्रयास करने के बाद ही इसे कूकते हुए देखा   है । आमतौर पर यह जमीन पर नहीं उतरती लेकिन एक बार उदयपुर में मैंने इसे कुछ क्षण के लिए जमीन पर बैठे देखा था । हरापन लिए इसकी चमकीली आभा लिए काली काया बड़ी आकर्षक लगती है ।
    प्रकृति के सान्धिय में पलते और फूदकते परिन्दों से मैंने काफी कुछ सीखा है । छोटे-बड़े सभी परिन्दे अपने-अपने फन में माहिर होते हैं। उनके दैनन्दिन जीवन को गहराई से देखने पर ही पता चलता है जैसे सभी के जीवन का एक ही उद्देश्य है और वह यह कि 'प्रत्येक क्षण का आनन्द लो` । प्रकृति ने शायद उन्हें यही सिखाया है कि अपना प्रत्येक काम प्रसन्नता और  प्रफूल्लता से करो । प्रकृति की प्रेरणा से ही पक्षी आजीवन उत्साह और उमंग से जीवन जीते हैंऔर सदा स्वस्थ और प्रसन्न रहते हैं । यही कारण है कि पक्षी यदा-कदा ही बीमार पड़ते हैं और जब कभी बीमार होते हैं  तो अपना इलाज प्रकृति में ही ढूढ़ लेते हैं ।
    मनुष्य पशु-पक्षियों से बुद्धिमान और सामर्थ्यवान होने के बाद भी उसका दुर्भाग्य है कि वह जीवन का आनन्द लेना नहीं सीख पाया। कारण है उसकी संग्रह वृत्ति, चिन्ताओं, आशंकाओं, आकांक्षाओं और कृत्रिमता से परिपूर्ण जीवन क्रम । इसीलिए आजकल अधिकांश लोग नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त होकर रोते-कलपते जीवन जीते हैं । 
    पक्षी प्रकृति के  सान्निध्य में फलते-फूलते हैं । वर्ष २००१ में राजस्थान विधान सभा का स्थानान्तरण ज्योति नगर स्थित इसके नये वन में हो गया । तब यहां विभिन्न प्रजातियों के  पक्षियों की संख्या काफी कम हुआ करती थी । यद्यपि  वन निर्माण के  दौरान ही यहां तत्कालीन राज्यपाल बलिराम  भगत और विधान सभा अध्यक्ष  हरिशंकर भाभड़ा द्वारा पौधारोपण किया गया था ताकि  वन के प्रारम्भ होने तक ये पेड़ पर्याप्त बड़े हो जाएँ । लेकिन फिर  भी इस नये वन के  प्रारम्भ होने पर यहां हरियाली कम ही थी जो ५-७ वर्ष बाद इसकी चारों दिशाओं में लॉन विकसित होने पर ठीक हुई । आज यहां नाना प्रकार के परिन्दे न केवल चहचहाते हैं, बल्कि सन्तानोत्पत्ति कर खूब फलते-फूलते हैं ।  यहां की हरियाली और भाँति- भाँति के फूलों से आकर्षित होकर सैकड़ों तरह के पक्षी आते-जाते रहते हैं । टिटहरी (कुररी) तो यहां बड़ी संख्या में मिल जायेंगी जो जयपुर शहर में अन्यत्र कम ही देखने को मिलती है । इसकी खास बात यह है कि यह बरसात के आगमन से पूर्व ही अपने विशेष स्वर में बोलती   है ।
    विधान सभा भवन के भीतर जहां सम्पूर्ण राज्य के राजनेता प्रदेश और देश के हितसाधन के लिए एकत्र होते हैं और अपनी राजनीतिक गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं । वहीं  भवन के बाहरी भाग में पेड़-पौधों और फूलों की क्यारियों में फूदकते नाना प्रकार के परिन्दे मस्त रहते हैं । सर्दियों में यहां कई प्रकार की छोटी-छोटी रंग-बिरंगी प्रवासी चिड़ियाँ खूब आती हैं । 
    संवेदनाओं से ओतप्रोत होकर  भावनाओं की भाषा मंे बोली गई वाणी मनुष्य को ही प्रेरित और प्रवावित नहीं करती बल्कि उससे पक्षी भी वश में हो जाते हैं । कबूतरों को अपने मालिक से उतना ही प्रेम होता है जितना किसी मनुष्य को अपनी सन्तान से । कबूतरों की संवेदना की श्रेष्ठता को उजागर करने वाली एक सत्य  घटना का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा ।  घटना जून, १९६१ में वाराणसी के पास मघई  पुल पर हुई रेल दुर्घटना से सम्बन्धित है जिसमें बड़ी संख्या में यात्री मारे गये थे । गोरखपुर की एक फर्म में काम करने वाला एक क्लर्क भी उस दारुण दुर्घटना में मारा गया । जब वह रेलगाड़ी में सवार हुआ था तो उसके पास एक पिंजरा था जिसमें सात पालतू कबूतर थे । क्लर्क को अपने इन पालतू कबूतरों से बड़ा प्यार था । वह जहां भी जाता उन्हें अपने साथ लेकर जाता था । रेल हादसे में वह पिंजरा भी टूट गया लेकिन कबूतरों को कोई नुकसान नहीं हुआ ।
    वे  इस हृदय विदारक हादसे के बाद भी न केवल उड़कर नहीं गयेे बल्कि घटना स्थल से अपने मालिक की लाश छोड़कर हटे  नहीं । दुर्घटना के ६० घण्टे बाद तक वे शव के निकट ही बैठे रहे । अगले दिन जब क्लर्क का शव हटाने के लिए लोग पहुँचे तो दु:खी कबूतरों ने एक साथ मिलकर उन पर चोंचों से प्रहार करके  अपनी अद्भुत स्वामि भक्ति का परिचय      दिया । कई लोगों ने उन्हें दाने का लालच देकर वहां से हटाने का प्रयास किया लेकिन वे अपने स्थान से टस से मस नहीं हुए । बड़ी कठिनाई से क्लर्क के घरवालों ने कबूतरों को गोद में लेकर उन्हें स्नेह से दुलारा तभी शव वहां से उठाया जा सका । 
    कबूतरों की संवेदनशीलता की एक अन्य घटना का उल्लेख करते हुए अमेरिकी वैज्ञानिक जे.वी. राइन ने वर्जीनिया केे  समर्सबिले नगर के पकिन्स नामक लड़के के पालतू कबूतर के बारे में लिखा है कि पकिन्स ने अपने पालतू कबूतर के पैरों में एक छल्ला पहना दिया था जिस पर '१७६` लिखा हुआ था । एक बार लड़का दुर्घटनाग्रस्त हुआ और उसे १२० मील दूर हॉस्पिटल मंे भर्ती होना पड़ा । कई दिन बीतने पर जिस समय बाहर घोर बर्फबारी हो रही थी, एक कबूतर आया और अस्पताल कर्मचारियों के विरोध के बाद भी लड़के के बिस्तर पर जाकर बैठ गया । ऐसा पहले क भी नहीं हुआ था । सभी स्तब्ध थे । लड़के ने हाथ बढ़ाकर देखा तो यह उसका पालतू कबूतर था जिसके  पैैर में १७६ अंक वाला छल्ला पहना हुआ था ।
    प्रख्यात चिन्तक रूसों ने लिखा है कि मनुष्य जन्म से स्वतंत्र है, पर हर ओर से जंजीरों में बंधा हुआ है । पंखवाले परिन्दों के सम्बन्ध में यह बात लागू नहीं होती । वे मानव समाज की तरह न तो सामाजिक नियमों से बंधे हुए हैं और न ही उनके  लिए शासकीय कायदे-कानून बंधनकारी हैं । वे पूरी तरह स्वतंत्र हैं इसलिए जब जहां जी चाहे आ-जा सकते हैं ।
    पक्षी अपनी दुनिया में स्वच्छंद  भ्रमण करते हैं । खेलते-कूदते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं और अपनी वंश-वृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहते हैं ।  पक्षी प्रकृति के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं ।  अपनी अद्भुत अन्त:प्रेरणा की सहायता से ये भूकम्प व समुद्री तूफान आदि की आशंका को भाँप लेते हैं और अपने विचित्र व्यवहार से किसी अनिष्ट की आशंका की पूर्व सूचना दे देते हैं । मनुष्य यदि पक्षियों की भाषा समझता तो प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली जान-माल की हानि से बचने के साथ ही जीवन में आने वाली बहुत-सी  कठिनाइयों को दूर किया जा सकता  था ।

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