सामाजिक पर्यावरण
स्वयं को धिक्कारती मानवता
अमिताभ पाण्डेय
भारत में घटता लिंगानुपात भविष्य के संकट का द्योतक है । ० से ६ वर्ष के आयु वर्ग में लड़कियों की घटती संख्या स्पष्ट तौर पर दर्शा रही है कि कन्या भ्रूण हत्या जैसे अनैतिक व गैरकानूनी कार्य पूरेजोर शोर से जारी हैं ।
अपने सिद्धांत, कार्य, व्यवहार के दम पर दुनिया भर लिए आदर्श बने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि जब तक बेटी के जन्म का स्वागत बेटे के जन्म की तरह नहीं किया जाता तब तक हमे यह मान लेना चाहिए कि भारत आंशिक अपंगता से पीडित है । गांंधी जी के यह विचार यह संकेत करते हैं कि हमारा समाज बेटियों के साथ न्याय नहीं कर रहा है । बेटियों के जन्म का उत्सव नहीं मना रहा है । इसके विपरीत बेटों के जन्म का लेते ही उत्सव का माहौल, खुशी के दृश्य दिखाई देने लगते हैं।
स्वयं को धिक्कारती मानवता
अमिताभ पाण्डेय
भारत में घटता लिंगानुपात भविष्य के संकट का द्योतक है । ० से ६ वर्ष के आयु वर्ग में लड़कियों की घटती संख्या स्पष्ट तौर पर दर्शा रही है कि कन्या भ्रूण हत्या जैसे अनैतिक व गैरकानूनी कार्य पूरेजोर शोर से जारी हैं ।
अपने सिद्धांत, कार्य, व्यवहार के दम पर दुनिया भर लिए आदर्श बने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि जब तक बेटी के जन्म का स्वागत बेटे के जन्म की तरह नहीं किया जाता तब तक हमे यह मान लेना चाहिए कि भारत आंशिक अपंगता से पीडित है । गांंधी जी के यह विचार यह संकेत करते हैं कि हमारा समाज बेटियों के साथ न्याय नहीं कर रहा है । बेटियों के जन्म का उत्सव नहीं मना रहा है । इसके विपरीत बेटों के जन्म का लेते ही उत्सव का माहौल, खुशी के दृश्य दिखाई देने लगते हैं।
बेटियों को पैदा होने, पलने, बढने के पर्याप्त अवसर देने, बेटियों के साथ भेदभाव खत्म करने का उनका आग्रह हमारे समाज के लोग उसे आज भी पूरा नहीं कर पाए हैं । इसका नतीजा यह है कि समाज में बेटियों को पैदा होने से रोका जा रहा है । देश में कन्या भू्रण हत्या के मामले लगातार बढ रहे हैं । समाज में पुत्र पैदा करने की चाह,बेटी को पराया धन मानने की जो मानसिकता पीढियों से चली आ रही है उसमें अब तक प्रभावशाली बदलाव नहीं हो पाया है । इस प्रवृत्ति का परिणाम यह है कि हमारे देश में शिशु लिंगानुपात गड़बड़ा गया है । बेटियों की संख्या बेटों की तुलना में कम हो गई है । यदि हम मध्यप्रदेश के सन्दर्भ में देखें तो वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार प्रदेश में कुल जनसंख्या ७ करोड़ २५ लाख है जिसमें ३ करोड़ ७६ लाख १२ हजार ९२० पुरुष और ३ करोड़ ४९ लाख ८४ लाख ६४५ महिलाएं है । मध्यप्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में लिंगानुपात प्रति १००० पुरुष पर ९३६ महिलाओं का है । यदि ग्रामीण क्षेत्र में ०-६ वर्ष के बच्चेंआंकडों को देखें तो प्रति १००० लडकों पर ९१७ बालिकाएं है ।
इसी प्रकार मध्प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में लिंगानुपात प्रति १००० पुरुषों पर ९१६ महिलाओं का है । यदि शहरी क्षेत्र से ०-६ वर्ष के बच्चें के आकडें देखें तो प्रति १००० लड़कों पर ८९५ लड़कियां हैं । इससे यह जाहिर होता है कि शहरी क्षेत्रों में लड़कों की तुलना में लड़कियां कम हैं। आंकडे बताते हैं कि आनुपातिक दृष्टि से ग्रामीण क्षेत्रों में बेटियां अधिक है । यानि शहरी क्षेत्र का पढ़ा लिखा समाज बेटियोंं के साथ उपेक्षित व्यवहार अन्यायपूर्ण आचरण अधिक कर रहा है । राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकडों से पता चलता है कि वर्ष २०११ मंे मध्यप्रदेश में लिंग चलन के ३८ मामले दर्ज किये गये हैं। यह संख्या बेहद कम है, जबकि ऐसे अनेक मामले हुए हैं जिनको आरोपियों को पकड़ा ही नहीं जा सका है । लिंग चयन की बढती घटनाओं के कारण ही मध्यप्रदेश के २२ जिलों में शिशु लिंगानुपात गड़बड़ा गया है । प्रदेश के २२ जिलों में प्रति १००० बच्चें की तुलना में बेटियांे का आंकड़ा ९०० के आसपास ही सिमटकर रह गया है ।
घटते लिंगानुपात को रोकने के सामाजिक और सरकारी प्रयास सार्थक परिणाम नहीं दे पा रहे हैैं। अधिकारिक जानकारी यह बताती है कि युध्द से ज्यादा मौतें लिंग चयन के कारण पिछले ६ वर्षों में हुई है । इस अवधि में साढ़े तीन करोड़ कन्याओं की भू्रण हत्या कर दी गई । बेटियोें को जन्म लेने से पहले ही मार डालने का यह सिलसिला समाज में अब भी लगातार चल रहा है । इसके लिए पुरुषवादी मानसिकता के साथ ही वे चिकित्सक भी बराबर के दोषी हैं जो कन्या की धन के लालच में भ्रूण हत्या करने के लिए तैयार हो जाते है ।
प्रशंगवश यह बताना जरूरी होगा कि भारतीय समाज में बेटे की चाह, पुत्र प्राप्ति की आंकाक्षा प्राचीनकाल से ही बलवती रही है । इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि वैदिक एवं उत्तर वैदिक काल को छोड़कर अन्य कालखण्डों में बाहरी हमलों, आतंरिक रक्षा और सुरक्षा के संघर्ष तथा अपना जीवन बचाये रखने की चुनौती ने परिवार-समाज-देश के प्रति उत्तरदायित्व के लिए पुरूष को अधिक जिम्मेदार बनाया । निर्णय लेने की क्षमता में भी पुरुष का पक्ष ही प्रधान रहा । इन सब कारणों के चलते समाज में पुरुषवादी मानसिकता प्रभावशाली होती चली गई। इस पुरुषवादी मानसिकता ने पुत्र को परिवार का भाग्य विधाता और पुत्री को परिवार पर निर्भर रहने का अघोषित संदेश समाज में प्रचारित प्रसारित किया । नतीजा यह रहा कि समाज में पुत्रों को अधिक महत्व मिलने लगा और बेटियों के बारे में उपेक्षित मानसिकता बना ली गई । इस मानसिकता को समय के साथ बढने का मौका मिला । यह मानसिकता आज कन्या भू्रण हत्या के रूप में घर, परिवार, समाज, देश सबके सामने बड़ी सामाजिक बुराई के रूप में हमारे सामने है । कन्या भू्रण हत्या को रोकने के लिए बनाये गये नियम कानून लालफीतों की फाईलों में कैद होकर रह गये प्रतीत होते हैं ।
इसी प्रकार मध्प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में लिंगानुपात प्रति १००० पुरुषों पर ९१६ महिलाओं का है । यदि शहरी क्षेत्र से ०-६ वर्ष के बच्चें के आकडें देखें तो प्रति १००० लड़कों पर ८९५ लड़कियां हैं । इससे यह जाहिर होता है कि शहरी क्षेत्रों में लड़कों की तुलना में लड़कियां कम हैं। आंकडे बताते हैं कि आनुपातिक दृष्टि से ग्रामीण क्षेत्रों में बेटियां अधिक है । यानि शहरी क्षेत्र का पढ़ा लिखा समाज बेटियोंं के साथ उपेक्षित व्यवहार अन्यायपूर्ण आचरण अधिक कर रहा है । राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकडों से पता चलता है कि वर्ष २०११ मंे मध्यप्रदेश में लिंग चलन के ३८ मामले दर्ज किये गये हैं। यह संख्या बेहद कम है, जबकि ऐसे अनेक मामले हुए हैं जिनको आरोपियों को पकड़ा ही नहीं जा सका है । लिंग चयन की बढती घटनाओं के कारण ही मध्यप्रदेश के २२ जिलों में शिशु लिंगानुपात गड़बड़ा गया है । प्रदेश के २२ जिलों में प्रति १००० बच्चें की तुलना में बेटियांे का आंकड़ा ९०० के आसपास ही सिमटकर रह गया है ।
घटते लिंगानुपात को रोकने के सामाजिक और सरकारी प्रयास सार्थक परिणाम नहीं दे पा रहे हैैं। अधिकारिक जानकारी यह बताती है कि युध्द से ज्यादा मौतें लिंग चयन के कारण पिछले ६ वर्षों में हुई है । इस अवधि में साढ़े तीन करोड़ कन्याओं की भू्रण हत्या कर दी गई । बेटियोें को जन्म लेने से पहले ही मार डालने का यह सिलसिला समाज में अब भी लगातार चल रहा है । इसके लिए पुरुषवादी मानसिकता के साथ ही वे चिकित्सक भी बराबर के दोषी हैं जो कन्या की धन के लालच में भ्रूण हत्या करने के लिए तैयार हो जाते है ।
प्रशंगवश यह बताना जरूरी होगा कि भारतीय समाज में बेटे की चाह, पुत्र प्राप्ति की आंकाक्षा प्राचीनकाल से ही बलवती रही है । इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि वैदिक एवं उत्तर वैदिक काल को छोड़कर अन्य कालखण्डों में बाहरी हमलों, आतंरिक रक्षा और सुरक्षा के संघर्ष तथा अपना जीवन बचाये रखने की चुनौती ने परिवार-समाज-देश के प्रति उत्तरदायित्व के लिए पुरूष को अधिक जिम्मेदार बनाया । निर्णय लेने की क्षमता में भी पुरुष का पक्ष ही प्रधान रहा । इन सब कारणों के चलते समाज में पुरुषवादी मानसिकता प्रभावशाली होती चली गई। इस पुरुषवादी मानसिकता ने पुत्र को परिवार का भाग्य विधाता और पुत्री को परिवार पर निर्भर रहने का अघोषित संदेश समाज में प्रचारित प्रसारित किया । नतीजा यह रहा कि समाज में पुत्रों को अधिक महत्व मिलने लगा और बेटियों के बारे में उपेक्षित मानसिकता बना ली गई । इस मानसिकता को समय के साथ बढने का मौका मिला । यह मानसिकता आज कन्या भू्रण हत्या के रूप में घर, परिवार, समाज, देश सबके सामने बड़ी सामाजिक बुराई के रूप में हमारे सामने है । कन्या भू्रण हत्या को रोकने के लिए बनाये गये नियम कानून लालफीतों की फाईलों में कैद होकर रह गये प्रतीत होते हैं ।
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