मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

यातायात
सड़क पर अपना हक
सुश्री सुनीता नारायण


    प्रदूषण से छुटकारे हेतु की गई व्यक्तिगत पहल का खामियाजा प्रसिद्ध पर्यावरणविद्  सुनीता नारायण को अपनी हडि्डयां तुड़वा कर भुगतना पड़ा  है । लेकिन यह दुर्घटना ने उनके इरादों को और मजबूती प्रदान की है और अब वे नगर नियोजन के स्तर पर पैदल व साइकल चालकों के लिए प्रावधान सुनिश्चित करना चाहती है । 
    यह लेख मैं अपने बिस्तरे से लिख रही हूं । एक सड़क दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होने व हडि्डयां टूटने के बाद मुझे ठीक  होने तक इसी बिस्तरे पर रहना है । मैं साइकिल चला रही  थी । तेजी से आई एक मोटर गाड़ी ने मुझे अपनी चपेट में ले लिया था और टक्कर मारकर कार भाग गई । खून से लथपथ मैं सड़क पर थी । ऐसी दुर्घटनाएं बार-बार होती हैं हमारे यहां । हर शहर में होती हैं,  हर सड़क पर होती हैं । यातायात की योजनाएं बनाते समय हमारा ध्यान पैदल चलने वालों और साइकिल चलाने वालों की सुरक्षा पर जाता ही नहीं । सड़क पर उनकी गिनती ही नहीं होती । ये लोग बिना कुछ किए, एकदम साधारण-सी बात मंे, बस सड़क पार करते हुए अपनी जान गंवा बैठते हैं । मैं इनसे ज्यादा भाग्यशाली थी ।
     दुर्घटना के बाद दो गाड़ियां रुकीं, अनजान लोगों ने मुझे अस्पताल पहुंचाया । मेरा इलाज हो रहा है । मैं ठीक होकर फिर वापस इसी लड़ाई में लौटूंगी । लेकिन यह लड़ाई हम सबको मिलजुल कर लड़नी पड़ेगी । सड़कों पर हम पैदल चलने और साइकिल चलाने की अपनी जगह यों ही गंवा नहीं     सकते । इस दुर्घटना के बाद मेरे कई मित्रों, रिश्तेदारों ने मुझे खूब फटकारा कि भला दिल्ली की सड़कों पर तुम्हें साइकिल चलाने की क्या सूझी । ये सब ठीक कह रहे थे।
    हमने अपने इन शहरों की सड़कों को केवल मोटरगाड़ियों के लिए ही बनाया है । इन सड़कोंपर गाड़ियों का ही राज दौड़ता है । इनमें साइकिल चलाने के लिए बगल में लेन नहीं हैं, पैदल चलने वालों के लिए फूटपाथ तक नहीं हैं । कुछ बड़े शहरों में कुछ जगहों पर वे हैं भी तो टुकड़ों में हैं । ये टूटी-फूटी हैं या फिर उन पर गाड़ियां खड़ी रहती हैं । सड़कें तो कारों के लिए हैंतो बाकी की चिंता क्यों करें ।
    साइकिल पर चलना या पैदल चलना कठिन है तो इसका कारण केवल योजनाओं की कमी या बुरी योजना नहीं हैं । हमारे दिमागों में यह घुसा बैठा है कि जो कार में बैठा है, उसका एक दर्जा है और सड़क का सारा हक उसी के  पास है । जो पैदल चलते हैंवे तो गरीब हैंं, अभागे हैं, उन्हें यदि बुरी तरह से हटा देना, दबा देना संभव नहीं तो कम से कम हाशिए पर तो डाल ही देना है । यह दिमाग बदलना है । आगे कोई और रास्ता नहीं है, हमें तो हमारा चलना-फिरना फिर से देखना-समझना होगा । यदि इस वायु प्रदूषण को रोकना है तो कारों पर नियंत्रण किए बिना काम चलेगा नहीं । हमें सीखना होगा कि हम कैसे चलें-फिरें, न कि हमारी कारें कैसे चलें-दौड़ें ।
    सन् १९९५ के आसपास हमारी संस्था सेंटर फॉर साइंर्स एंड  एनवायर्नमेंट ने वायु प्रदूषण के खिलाफ अपना आंदोलन शुरू किया था । तब हमने जो कुछ भी किया वह लीक का काम था । इस आंदोलन ने ईधन की गुणवत्ता को ठीक  करने पर दबाव डाला । गाड़ियों से निकलने वाले बेहद जहरीले धुंए को नियंत्रित करने के लिए नए कड़े नियम बनवाए । उनकी जांच-परख का नया ढांचा खड़ा करवाया । और उस अभियान ने ईधन का प्रकार तक बदलने का काम किया । जहरीले डीजल से चलने वाले वाहन, बसें और दो स्ट्रोक इंजिनों से दौड़ने वाले ऑटो रिक्शा को सी.एनजी. की तरफ मोड़ा ।
    इस सबका खूब लाभ भी हुआ । इसमें कोई शक नहीं कि अगर उस दौर में ये सब कड़े कदम न उठवाए गए होते तो आज हमारे इन शहरों की हवा और भी खराब होती, और भी जहरीली बन जाती । पर उतना ही काफी नहीं था । हमें जल्दी ही यह समझ आ गया था । आज फिर प्रदूषण का स्तर बढ़ चला है । पिछले महीने विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु प्रदूषण को हमारे कैंसर का एक बड़ा कारण बताया है । हमें सोचना होगा कि यह हमें स्वीकार है क्या । यह अब धीमी मौत भी नहीं बचा है, फूर्ती से मार चला है । यदि इसे रोकना है तो कारों पर नियंत्रण किए बिना काम चलेगा नहीं । हमारे देश की परिस्थिति इस ढांचे को उस अलग ढंग से देखने, बनाने की छूट भी देती है ।
    अन्य कई देशों की तरह अभी भी हमारा पूरा देश मोटरमय नहीं हो पाया है । हमने अभी भी हर जगह फ्लाई ओवर या चार लेन वाली चौड़ी सड़कों का जाल नहीं बिछा लिया है । सबसे बड़ी बात तो यह है कि अभी भी हमारे देश का एक बड़ा भाग बसों में यात्रा करता है, साइकिल चलाता है और पैदल भी चलता है । कई शहरों में तो वहां की आबादी का एक बड़ा भाग साइकिल पर ही सवार होता है । आज हमारे यहां साइकिलें इसलिए चलती हैं क्योंकि हम गरीब हैं । चुनौती तो यह है कि हम शहरी नियोजन को कुछ इस तरह बदलें कि हम अमीर होकर भी साइकिल चला सकें । पिछले कुछ बरसों से हम इसी दिशा में काम कर रहे हैं । हमारी कोशिश है कि अपने शहरों में एक सुरक्षित सार्वजनिक यातायात का ढांचा खड़ा हो सके । इस ढांचे में इसकी गुंजाइश होनी चाहिए कि जिनके पास कार हैं, उन्हें भी उसे चलाना न पड़े । इसके लिए यातायात के पूरे ढांचे में सुंदर तालमेल जरूरी है ।
    हम मैट्रो बना लें, नई बसें ले आएं पर यदि इनसे आखिरी पड़ाव पर उतरने के बाद का तालमेल नहीं है, आपकी इस यात्रा के अंतिम मील को जोड़ा नहीं गया तो सब छूट गया  समझिए । तब आपका खड़ा किया गया मंहगा ढांचा कोई काम का नहीं । अंतिम पड़ाव तक का जुड़ाव आसानी से उपलब्ध होना चाहिए । और इसीलिए हमें कुछ अलग ढंग से सोचना होगा । इस अंतिम पड़ाव के जुड़ाव में हम असफल हुए हैं। आज यातायात के कुशल प्रबंध की खूब चर्चा है । साइकिल की जगह बनाने की बात है, पैदल चलने वालों के हकों तक की चर्चा है । जब भी कभी कोई किसी सड़क का एक हिस्सा लेकर उसे साइकिल के लिए बनाना चाहता है तो एकदम उसका जोरदार विरोध होने लगता है । सड़कों पर कारों की जगह कम हो और बसों, साइकिलों की जगह, पैदल चलने वालों की जगह बढ़ सके । तभी लगातार बढ़ रही कारों की संख्या में गिरावट आ सकेगी ।

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