मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

दृष्टिकोण
पर्यावरण और विकास में संतुलन जरूरी
डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित
    सभ्यता के नये-नये सोपान चढ़ती मानव जाति के इतिहास में पर्यावरण और विकास शब्दों ने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को नया आयाम दिया है । पिछले पंाच दशक में इन दोनों शब्दों को जितनी लोकप्रियता मिली है, उतनी आज तक किसी शब्द को नहीं  मिली ।
    पर्यावरण को लेकर मानव समाज की दुर्गति मनुष्य के विकास के  प्रति इस निरर्थक विश्वास के कारण हुई कि प्रकृति में हर वस्तु केवल उसी के उपयोग के लिये है । प्रकृति की उदारता, उसकी प्रचुरता और दानशीलता को मनुष्य ने अपना अधिकार समझा, इसी दृष्टिकोण से प्रकृति के शोषण से उत्पन्न असंतुलन की स्थिति भयावह हो चुकी है । पर्यावरण प्रदूषण में सबसे बड़ा योगदान हमारी गलत विकास योजनाओं का रहा है । जैसे-जैसे इन विकास योजनाओं का विस्तार हुआ, पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी जटिल होती गयी । 


     हमारे पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखने के लिये अब दूर जाने की जरूरत नहीं है । आज बंजर इलाके और फैलता  रेगिस्तान, वन कटाई से लुप्त होते पेड़-पौधे और जीव-जन्तु, औघोगिक संस्थानों के प्रदूषण से दूषित होता पानी, गांवों शहरों पर गहराती गंदी हवा और हर वर्ष स्थायी होता जा रहा बाढ़ एवं सूखे का संकट । ये सब इस बात के साक्षी है कि हम पर्यावरण और विकास गतिविधियों में संतुलन नहीं रख पाये हैं । देश के हर क्षेत्र में पर्यावरण के प्रति मनुष्य की संवेदनहीनता के उदाहरण देखे जा सकते है ।
    हमारे देश में जब से विकास शब्द  प्रचलन में आया है, इसका सामान्य अर्थ केवल प्रति व्यक्ति आय बढ़ाना ही रहा है, सरकारें इसके लिये विशेष प्रत्यनशील रहती है ताकि हर कोई एक पूर्व निर्धारित वैश्विक जीवन पद्धति में ढल जाये । आज विकास के नाम पर पर्यावरण का निर्मम दोहन हो रहा है, उसे उचित नहीं कहा जा सकता । यह विकास क्या लोगों को विकसित कर रहा है ? यह भी विचारणीय प्रश्न है । वैश्विक दृष्टि से देखे तो आज विश्व में २० प्रतिशत लोग धरती के ८० प्रतिशत संसाधनों का उपयोग कर रहे है, शेष ८० प्रतिशत लोगों के लिये २० प्रतिशत संसाधन ही बचते है । विकास की दो मूलभूत कसौटी  है - पहला यह निरन्तर होना चाहिये और दूसरा इसका आधार नैतिक होना चाहिये ।
    क्या आज के विकास कार्यक्रमों का इस कसौटी से कोई संबंध रह गया है ? उदारीकरण के  मौजूदा दौर में जब सरकारें पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से कंधे झटकते जा रही है तब यह मुद्दा और भी महत्वपूर्ण हो जाता है । विकास के  पक्षधरों का मानना है कि विकास को संसाधनो के सहयोग से उद्योगों द्वारा प्राप्त कर सकते है, लेकिन ये संसाधन लगातार कहां से और कैसे प्राप्त होगे और इसका पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस पर विचार करने की आवश्यकता है ।
    हम देखते है कि मानव को प्रकृति प्रदत्त उपहार हवा, पानी और मिट्टी खतरे में है । धरती के फेफड़े वन समाप्त होते जा रहे है, पेड़-पौधों के अभाव में प्राणवायु की शुद्धता और गुणवत्ता दोनों ही घटती जा रही है । बढ़ते वायु-प्रदूषण के कारण केवल महानगर ही नहीं अपितु छोटे-छोटे कस्बों तक में वायु-प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, जो कई बीमारियों का कारण बन रहा है ।
    देश में जल संकट दो तरफा बढ़ रहा है । सतही जल में प्रदूषण में वृद्धि हो रही है तो भूजल स्तर में निरन्तर कमी हो रही है । बढ़ते शहरीकरण और औघोगिकरण के चलते हमारी बारह-मासी नदियों के जीवन में जहर घुलता जा रहा है । हालत यह है कि मुक्तिदायिनी गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के  लिये हजारों करोड़ रूपये खर्च करने के बाद भी गंगा स्वच्छ नहीं हो सकी है । देश के कुल क्षेत्रफल की आधी जमीन बीमार है । अनेक क्षेत्रों में अतिशय चराई और निरन्तर वन कटाई के कारण हो रहे भू-क्षरण से भूमि की उपरी परत की मिट्टी वर्षा में बाढ़ के पानी से साथ बह-बह कर समुद्र में जा रही    है । इस कारण बड़े बांधों की उम्र घट रही है और नदियों में गाद जमने के कारण बाढ़ और सूखे का संकट स्थायी होता जा रहा है ।
    आज पर्यावरण संतुलन में दो बिन्दु सहज रूप से प्रकट होते है । पहला प्रकृति के औदार्य का उचित लाभ उठाया जाये और दूसरा विकास गतिविधियों में मनुष्य जनित प्रदूषण को यथासंभव कम किया जाये । इसके लिये विकास की सोच में परिवर्तन करना होंगे । थोड़ा अतीत में लौटे तो करीब तीन सौ साल पूर्व योरप में औघोगिक क्रांति  हुई, इसके बाद लोगों के जीवन स्तर में व्यापक बदलाव आया । इस बदलाव में लोगों के दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये प्राकृतिक संसाधनों का बड़े पैमाने पर दोहन शुरू हुआ जिसने एक नयी भोगवादी संस्कृति को जन्म दिया । जीवन में सुख के साधनों की असीम चाह का भार प्रकृति पर लगातार बढ़ता जा रहा है । यही हालत रही तो हमें विरासत में मिले धरती के संसाधनों को भावी पीढ़ियों के लिये सुरक्षित रखना मुश्किल हो जायेगा ।
    देश में स्वतंत्रता के बाद समाज विकास में कार्यरत अनेक संस्थाआें ने पर्यावरण के क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय सवालों का उठाया । देश में पिछले कुछ सालों में विभिन्न पर्यावरणीय मुद्दों को लेकर उभरे आंदोलनों ने अपनीं अलग-अलग पहचान बनायी है । इनमें चिपको आंदोलन, अधिको शांत घाटी और नर्मदा बचाओ आंदोलन से लेकर भोपाल गैस पीड़ित मोर्चा जैसे ताकतवर और एक सोच के साथ उभरे इन संगठनों ने विकास एवं पर्यावरण के सवालों को गभीरता से उठाया और सरकारों पर नीतियों में बदलाव के लिये जन दबाव भी बनाया । इन संस्थाआें ने देश के प्राकृतिक संसाधनों जैसे झीलें, नदियां, जैव विविधता, वन और वन्य जीवन तथा पशुधन संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिये जन सामान्य में लोक चेतना पैदा करने का कार्य किया है ।
    आज हमारी भोगवादी जीवन शैली के चलते रासायनिक पदार्थो, उर्वरकों, कीटनाशियों और प्राकृतिक  संसाधनों का अत्यधिक उपयोग हो रहा है जो पर्यावरण विघटन की समस्या का प्रमुख कारण है । पर्यावरण और विकास के रिश्तों को समझने में हम हमारे राष्ट्र पिता के विचारों से मदद ले सकते है उनका मानना था कि यह धरती हरेक की आवश्यकता की पूर्ति कर सकती है, लेकिन किसी एक का लालच नहीं । प्रकृति में सभी जीवों के विकास का आधार एक दूसरे के संरक्षण पर आधारित है  ।
    इसे लोक भाषा की पहली कविता माना जाता है । इसमें हमारी जातीय परम्पराआें, सामाजिक शिक्षाआें और संस्कृति की समृद्ध विरासत की झलक मिलती है । युगऋषि के आक्रोश में भारतीय संस्कृति का जियो और जीने दो का संदेश छिपा है, जिसकी प्रासंगिकता आज और भी बढ़ गयी है ।
    बहुत लोगों के लिये यह आश्चर्य का विषय होगा कि भारत जैसे धर्म प्राण देश में पहली कविता न कोई स्त्रोत है न मंगलाचरण वरन बहेलिये के बाण से बिद्ध छटपटाते हुए पक्षी को देखकर संवेदनशील महाकवि का अप्रयास फूट पड़ने वाला आक्रोश है । अभी भी घरती पर जीवन की सुदीर्घता और स्थायी विकास के लिये जीव, वनस्पति प्रणालियां और पर्यावरण प्रणालियां बचायी जा सकती है ।

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