शनिवार, 18 जून 2016




प्रसंगवश
बन गई कृत्रिम आंख
नरेन्द्र देवागंन 
कई लोग प्राय: रेटिनाइटिस पिगमेंटोसा नाम आनुवंशिक रोग से अथवा वृद्धावस्थ में होने वाले मांसपेशीय विकार से अंधे हो जाते हैं । दरअसल जब प्रकाश पुतली में प्रवेश करता है तब आंख का लेंस इसे फोकस करता है । इसके बाद यह मध्य भाग में स्थित विट्रियस ह्यूमर नामक जेली से होता हुआ रेटिना तक पहुंचता है । 
ऐसा माना जाता है कि मस्तिष्क तक विद्युत आवेग पहुंचाने वाली छड़ व शंकु कोशिकाआें में खराबी होने के कारण अंधापन होता है । इस दिशा में मैसाचुसेट्स के अनुसंधानकर्ता ने सराहनीय कार्य किया है । उन्होंने एक ऐसी माइक्रोचिप बनाई है जो छड़ व शंकु कोशिकाआेंके बदले तंत्रिकाआें को स्वयं उद्दीप्त् करेगी । मार्च १९९६ में अंधे खरगोशों पर प्रयोग में जब इस माइक्रोचिप को उद्दीप्त् किया गया तो देखा गया कि गैंगलियॉन कोशिकाआें को संकेत मिलते हैं । लेकिन वैज्ञानिकों ने मनुष्य में इसके इस्तेमाल पर शंका व्यक्त की थी । 
अलबत्ता, मैसाचुसेट्स के वैज्ञानिकों की कड़ी मेहनत के फलस्वरूप, अब मनुष्योंके लिए विजन चिप उपलब्ध है । इसमें एक सौर पैनल लगा हुआ है जिसका सम्बन्ध माइक्रो इलेक्ट्रोड्स से है । रेटिना की सतह पर स्थित गैंगलियॉन कोशिकाआें को माइक्रोइलेक्ट्रोड्स के संपर्क में लाते ही ये कोशिकाएं उद्दीप्त् हो जाती है । 
उल्लेखनीय है कि माइक्रो इलेक्ट्रोड जिन कोशिकाआेंको छूते हैं, सिर्फ वे ही उद्दीप्त् होती है । उद्दीप्त् कोशिकाएं प्रकाश-तंत्रिका द्वारा सारे संकेत मस्तिष्क तक पहुंचाती है । सर्वप्रथम बनी चिप में मात्र २० माइक्रो इलेक्ट्रोड लगे हैं। इन्हें अब १०० तक आसानी से बढ़ाया जा सकता है ।
रेटिनाइटिस पिगमेंटोसा से पीड़ित एक अंधे रोगी की आंख में विजन चिप के सिर्फ एक इलेक्ट्रोड को डालने के पश्चात् उसके दिमाग में स्पष्ट चित्र बनता पाया गया । उसने रंग के साथ-साथ चित्र की आकृति को बारीकी से परखा । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि अधिक इलेक्ट्रोड लगाने पर और भी अच्छे परिणाम मिलेंगे । इस दिशा में शोध जारी है । इस तरह का उपचार जन्म के बाद अंधे होने वाले व्यक्तियों के लिये ही संभव है ।
सम्पादकीय
मनुष्येत्तर प्राणियों में शोक संवेदना
 हाल ही में यह अवलोकन किया गया कि बंदर भी अपने मृतक का मातम मनाते हैं । चपटी नाक वाले बंदरों के एक समूह में एक मादा पेड़ से गिरी और नीचे चट्टान से टकराकर उसका सिर फट गया । उसी समूह का प्रमुख नर बंदर (अल्फा नर) उसके पास ही रहा और उसके सिर को सहलाता रहा । उसने ऐसा तब तक किया जब तक कि वह मर नहीं गई । मरने के बाद भी वह उसके पास ही बना रहा और उसे छूता रहा, उसके सिर को हल्के से खींचता रहा । लगता था कि वह उसे फिर से जिलाने का प्रयास कर रहा था ।
जापान के क्योतो विश्वविद्यालय के जेम्स एंडरसन का कहना है कि इस अवलोकन से पता चलता है कि वयस्क नर ने अत्यनत स्नेहपूर्ण व्यवहार का प्रदर्शन किया । इससे निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कम से कम सशक्त बंधनों से बंधे जानवरों में मरणासन्न प्राणी के लिए करूणा का भाव होता है ।  
इससे पहले उत्तर-पश्चिमी जाम्बिया के एक अभयारण्य से रिपोर्ट आई थी कि चिम्पैंजी न सिर्फ अपने मृतक का मातम मनाते हैं बल्कि कुछ हद तक उसका अंतिम संस्कार भी करते हैं । इन दोनों रिपोर्ट से पता चलता है कि मृत्यु के बाद शोकाकुल व्यवहार के मामले मेंमनुष्य अकेले नहींहै । इनसे यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि ये जानवर भी समझते हैं कि मृत्यु एक पूर्ण विराम है, उसके बाद यह प्राणी वापिस नहीं लौटेगा । अर्थात् मृत्यु एक अनुत्क्रमणीय घटना है । 
वैसे एंडरसन का कहना है कि जन्तुआें के व्यवहार पर मानवीय मूल्य थोपना या उनका मानवीयकरण करना थोड़ खतरनाक है, मगर लगता है कि सामूहिक प्राणियों में बार-बार मृत्यु से संपर्क होने पर मृत्यु की अनुत्क्रमणीयता को लेकर कुछ समझ तो बन जाती होगी और इसका भावनात्मक असर भी होता होगा । इसलिए उपरोक्त अवलोकनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना अनुचित न होगा कि मनुष्य के अलावा कुछ अन्य  प्राणियोंमें भी शोक संवेदना होती है । 




सामयिक
पर्यावरण विनाश बनाम अस्तित्व का संकट
भारत डोगरा
विकास की अंधी दौड़ ने पूरी मानवता के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया  है । औद्योगिक एवं समृद्ध देश इस समस्या को लेकर कतई चिंतित भी नहीं हैं। पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर के बाद अब देखना होगा कि ये देश अपने यहां ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कितनी कमी लाते हैं।
वैज्ञानिक जगत में अब इस बारे में व्यापक सहमति बनती जा रही है कि धरती पर जीवन को संकट में डालने वाली अनेक गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं दिनोंदिन विकट होती जा रही हैं। इनमें जलवायु का बदलाव सबसे चर्चित समस्या है । परंतु इसी के साथ अनेक अन्य गंभीर समस्याएं भी हैंजैसें समुद्रों का अम्लीकरण व जलसंकट । ऐसी अनेक समस्याओं का मिला-जुला असर यह है कि इनसे धरती पर पनप रहे विविध तरह के जीवन के अस्तित्व मात्र के लिए संकट उपस्थित हो गया है । विविध प्रजातियों के अतिरिक्त इस संकट की पहुंच मनुष्य तकभी हो गई है ।
इन पर्यावरणीय समस्याओं के अतिरिक्त एक अन्य वजह से भी धरती पर जीवन के लिए गंभीर संकट उपस्थित हुआ है और वह है महाविनाशक हथियारों के बड़े भंडार का एकत्र होना व इन हथियारों के वास्तविक उपयोग की या दुर्घटनाग्रस्त होने की बढ़ती संभावनाएं । इन दो कारणों से मानव इतिहास में पहली बार मानव निर्मित कारणों की वजह से जीवन के अस्तित्व मात्र के लिए गंभीर संंकट उत्पन्न हुआ है । हम इसे अस्तित्व का संकट भी कह सकते हैं।
मानव इतिहास के सबसे बड़े सवाल न्याय, समता और लोकतंत्र के  रहे हैं। अब जब अस्तित्व की बड़ी चुनौती सामने है तो इसका सामना भी न्याय, समता और लोकतंत्र की राह पर ही होना चाहिए । अस्तित्व का संकट उपस्थित करने वाले कारणों को दूर करना निश्चय ही सबसे बड़ी प्राथमिकता होना चाहिए पर अभी तक इन समस्याओं के समाधान का विश्व नेतृत्व का रिकार्ड बहुत निराशाजनक रहा है। इस विफलता के कारण इस संदर्भ में जनआंदोलनों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई है । यहां पर एक बड़ा सवाल सामने है कि अनेक समस्याओं के दौर से गुजर रहे यह जनांदोलन इस बड़ी जिम्मेदारी को कहां तक निभा पाएंगे ।
ऐसी अनेक समस्याओं के बावजूद समय की मांग है कि जनआंदोलन अपनी इस बहुत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जिम्मेदारी को पूरी निष्ठा से निभाने का अधिकतम प्रयास अवश्य करें । इसके लिए एक ओर तो यह बहुत जरूरी है कि जनआंदोलनों में व्यापक आपसी एकता बने तथा दूसरी ओर यह भी उतना ही जरूरी है कि आपसी गहन विमर्श से बहुत सुलझे हुए विकल्प तैयार किए जाएं ।
विश्व स्तर पर पर्यावरण संबंधी अंादोलनों का जनाधार इस कारण व्यापक नहीं हो सका है क्योंकि इसमें न्याय व समता के  मुद्दों का उचित ढंग से समावेश नहीं हो पाया है । जलवायु बदलाव के संकट को नियंत्रण में करने के उपायों में जनसाधारण की भागीदारी प्राप्त करने का सबसे असरदार उपाय यह है कि विश्व स्तर पर ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में पर्याप्त कमी वह भी उचित समयावधि में लाए जाने की ऐसी योजना बनाई जाए जो सभी लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने से जुड़ी हो । तत्पश्चात इस योजना को कार्यान्वित करने की दिशा में तेजी से बढ़ा जाए। 
यदि इस तरह की योजना बना कर कार्य होगा तो ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन में कमी के जरूरी लक्ष्य के साथ-साथ करोड़ों अभावग्रस्त लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का लक्ष्य अनिवार्य तौर पर इसमें जुड़ जाएगा व इस तरह ऐसी योजना के लिए करोड़ों लोगों का उत्साहवर्धक समर्थन भी प्राप्त हो सकेगा । यदि गरीब लोगों के लिए जरूरी उत्पादन को प्राथमिकता देने वाला नियोजन न किया गया तो फिर विश्व स्तर पर बाजार की मांग के अनुकूल ही उत्पादन होता रहेगा । 
वर्तमान विषमताओं वाले समाज में विश्व के धनी व्यक्तियों के पास क्रय शक्ति बेहद अन्यायपूर्ण हद तक केन्द्रित है। अत: बाजार में उनकी गैर-जरूरी व विलासिता की वस्तुओं की मांग को प्राथमिकता मिलती रहेगी । जिससे अंतत: इन्हीं वस्तुओं के उत्पादन को प्राथमिकता मिलेगी । सीमित प्राकृतिक संसाधनों व कार्बन स्पेस का उपयोग इन गैरजरूरी वस्तुओं के उत्पादन के लिए होगा ।  गरीब लोगों की जरूरी वस्तुएं पीछे छूट जाएंगी, उनका अभाव बना रहेगा या और बढ़ जाएगा ।
अत: यह बहुत जरूरी है कि ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की योजना से विश्व के सभी लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की योजना को जोड़ दिया जाए व उपलब्ध कार्बन स्पेस में बुनियादी जरूरतों को प्राथमिकता देने को एक अनिवार्यता बना दिया जाए। इस योजना के तहत जब गैर-जरूरी उत्पादों को प्राथमिकता से हटाया जाएगा तो यह जरूरी बात है कि सब तरह के हथियारों के उत्पादन में बहुत कमी लाई जाएगी । मनुष्य व अन्य जीवों की भलाई की दृष्टि से देखें तो हथियार न केवल सबसे अधिक गैरजरूरी हैं अपितु सबसे अधिक हानिकारक भी हैं। इसी तरह के अनेक हानिकारक उत्पाद हैं(शराब, सिगरेट, कुछ बेहद खतरनाक केमिकल्स आदि) जिनके उत्पादन को कम करना जरूरी है ।
इस तरह की योजना पर्यावरण आंदोलन को न्याय व समता आन्दोलन के नजदीक लाती है व साथ ही इन दोनों आंदोलनों को शान्ति आंदोलन के नजदीक लाती  है । जब यह तीनों सरोकार एक होंेगे तो दुनिया की भलाई के कई महत्वपूर्ण कार्य आगे बढेंगे ।
हमारा भूमण्डल
बढ़ती गर्मी से सुलगती आर्थिक असमानता
टिम रेडफोर्ड 
धरती का तापमान बढ़ने से हम सब पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर अब नए और क्रांतिकारी विचार सामने आ रहे हैं। वैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों का एक वर्ग मानता है कि इससे प्राकृतिक संसाधनों और संपदा के पुर्नवितरण एवं पुर्नआबंटन की प्रक्रिया में समृद्ध देश और ठंडी जलवायु क्षेत्रों में रहने वाले लाभान्वित होंगे । वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि अंतत: तो समय ही सिद्ध करेगा कि कौन कितने लाभ और कौन कितने घाटे में है ।
जलवायु परिवर्तन के कारण अब गंभीरता के साथ संसाधनों के पुनर्वितरण और संपदा के पुर्नआबंटन की संभावना तो बढ़ती जा रही है, परंतु इस प्रक्रिया के न्यायोचित ढंग से अंतिम परिणाम तक पहुंचने में शंका है । शोधकर्ताओं का मानना है कि यह सब राबिनहुड की प्रसिद्ध दंतकथा के विपरीत होगा यानी कि अब संपदा व धन गरीबों से लूटकर अमीरों को दे दिया जाएगा । इसके बावजूद अमीर भी संभवत: स्वयं को अमीर महसूस नहीं कर पाएंगे । वैज्ञानिक लगातार इस बात की चेतावनी दे रहे हैं। उनके अनुसार मछलियों एवं अन्य जलीय जलचर अब भूमध्य से ध्रुवों की ओर कूच करने लगे हैं क्योंकि उष्णकटिबंधीय क्षेत्र ज्यादा तप रहा है और यह विस्तारित भी होता जा रहा है । इसका सीधा सा अर्थ है कि कम से कम एक मूल्यवान संसाधन अब विश्व के सर्वाधिक गरीब देशों से निकलकर उन समुदायों की ओर जा रहा है जो कि तुलनात्मक रूप से अधिक समृद्ध हैं। गौरतलब है कि दुनिया की अधिकांश आर्थिक महाशक्तियां कम तापमान वाले क्षेत्र में ही स्थित हैं।
अमेरिका स्थित याले वानिकी एवं पर्यावरण शिक्षण विद्यालय में बायो इकॉनामिक्स एवं इकोसिस्टम के सहायक प्रोफेसर इलि फेनिचेल का कहना है कि ``लोगों का ध्यान मुख्यत: इन संपत्तियों के भौतिक पुर्नआबंटन पर ही केन्द्रित है । मुझे नहीं लगता कि हम लोगों ने इस दिशा में सोचना प्रारंभ किया है कि किस प्रकार जलवायु परिवर्तन संपदा का पुर्नआबंटन करवा सकता है और उन संपदाओं के मूल्यों (कीमत) को प्रभावित कर सकता है । हम सोचते हैं कि मूल्यों का प्रभाव अत्यधिक महत्वपूर्ण है ।`` पिछले महीने ही डॉ. फेनिचेल ने ``वास्तविक नकद मूल्य`` की गणना की एक विधि खोजी है, जिसे पर्यावरणविद ``प्राकृतिक संपदा`` कहते हैं। अब उन्होंने और उनके साथियों ने ``प्रकृति जलवायु परिवर्तन`` का अध्ययन प्रारंभ किया है और यह विचार करना प्रारंभ किया है कि यह नकद राशि अंतत: कहां जाकर इकट्ठा होगी । वैसे उनके पास तत्काल इसका कोई उत्तर नहीं है ।
वह कहते हैं, ``हम नहीं जानते कि यह किस तरह सामने आएगा परंतु हम यह तो जानते हैंकि इसका मूल्यों पर प्रभाव अवश्य  पड़ेगा । मूल्य (कीमतें) मात्रा और कमी को दर्शाता है और प्राकृतिक पूंजी को लेकर लोगों का कहीं और पलायन बहुत ही दुष्कर है । परंतु यह उसी तरह अपरिहार्य है जिस तरह मछलियों की प्रजातियों का आवागमन ।`` शोधकर्ता अत्यन्त सचेत होकर कह रहे हैंकि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन जनित यह जलवायु परिवर्तन जो कि पिछली शताब्दी या उससे थोड़े अधिक समय से जीवाष्म इंर्धन के अत्यन्त दुरुप्रयोग से बढ़ता जा रहा है, की वजह से प्राकृतिक पूंजी का पुर्नआबंटन हो सकता है, सभी प्रकार की पूंजी के मूल्य में परिवर्तन हो सकता है और इससे संपदा का व्यापक स्तर पर पुनर्वितरण संभव हो सकता है । 
उनका मानना है कि हालांकि यह स्पष्ट नहीं है, कि बेहतर आर्थिक स्थिति वाले प्राकृतिक पूंजी के संभाव्य परिवर्तन जैसे मछलियों के निवास स्थान में परिवर्तन होने से अनिवार्यत: लाभान्वित होंगे ही    होंगे । उत्तरी विश्व के अधिकांश मछली मारने वाले बंदरगाहों पर इच्छित प्रजातियों के अन्तर्वाह का वास्तविक प्रभाव यह पड़ेगा कि पकड़ी गई मछली का मूल्य वास्तव में घट जाएगा । डॉ. फेनिचेल का कहना है कि, ``यदि उत्तरी समुदाय विशेष रूप से अच्छे प्रबंधकों जैसा कार्य नहीं करेंगे तो जिस असाधारण संपत्ति के वे वारिस हैंउसकी कीमत बहुत कम आंकी जाने लगेगी । ऐसे में उनका एकत्रीकरण भी कम होता जाएगा ।``
संपन्न ही लाभ में :  यह तो स्पष्ट है कि उन्हें ही ज्यादा फायदा हो रहा है जो ज्यादा संपन्न हैं। जिनसे छिन रहा है वे उनसे बहुत ज्यादा खो रहे हैं, जितना ही फायदा लेने वालांे को फायदा मिल रहा है । अंत में पाने वाले भी खोने तो वालों के मुकाबले बहुत अधिक अर्जित नहीं कर   पाएंगे । अंतत: होगा यही कि संपदा का कुशल पुर्नआंबटन संभव नहीं हो पाएगा ।
जलवायु वैज्ञानिक इस बात की लगातार चेतावनी देते रहे हैंकि जलवायु परिवर्तन गरीबों पर सबसे कठोर मार करेगा । उदाहरण के जलवायु परिवर्तन की वजह से विश्व के सूखे क्षेत्रों के और अधिक सूख जाने की आशंका है और  विश्व के  तमाम निर्धनतम लोग अभी से ही इस तरह का दबाव महसूस करने लगे हैं। उष्णकटिबंधीय वन एवं समुद्री चट्टानंे जैव विविधता संबंधी ``प्राकृतिक पूंजी`` में अधिक समृद्ध हैं, परंतु वैश्विक तापमान वृद्धि से इनमें से कुछ के सामने खतरा पैदा हो गया है । 
रुटगेर्स विश्वविद्यालय के  एक पर्यावरणविद् और उपरोक्त रिपोर्ट के  सह लेखक मालिन प्लिन्सिकी का कहना है, ``हम अब तक यही सोचते थे कि जलवायु परिवर्तन मात्र भौतिकशास्त्र और जीवशास्त्र संबंधी समस्या है। परंतु अब लोगबाग भी जलवायु परिवर्तन पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। परंतु हाल-फिलहाल हमारे पास जलवायु परिवर्तन से प्रभावित प्राकृतिक संसाधनों की वजह से मनुष्य के स्वभाव पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर बेहतर समझ मौजूद नहीं है । 
विशेष लेख
साहित्य में प्रकृति और पर्यावरण
मेहता नगेन्द्र सिंह
साहित्य समाज का दर्पण   है । मनीषी के हितकारी विचारों का शाश्वत संग्रह है । मेरे द्वारा साहित्य, खासकर हिन्दी काव्य-साहित्य को अभी तक जिस रूप में जाना और समझा गया है, उसके आधार पर यह कह सकने की स्थिति में हॅू कि साहित्य समग्र अतीत, वर्तमान और अदृश्य सम्भावी भविष्य का समुद्भावक गद्यपद्यात्मक वाक्यों का संचयन है, चिन्तन-मनन का विषय है, जो युगों-युगों से भारतीय संस्कृतिऔर भाषाई सभ्यता को प्रतिध्वनित करता आ रहा है । 
वस्तुत: साहित्य विचारों की उत्तमता, उत्कृष्ट चिन्तन की लक्ष्यधारिता और काल वैशिष्टय की यथार्थ परक सत्यानुभूति है, जो परम दिव्य उपलब्धियों तथा बौद्धिक अनुभवों पर आधृत होकर मानवता का उच्च्तर विकास करता है । साहित्य हमेशा से सत्याधारित, सौन्दर्य एवं शिवत्व के साथ समस्त प्राणियों का हितकारी और ह्दयस्पर्शी रहता आया है । 
यह मानव सभ्यता एवं संस्कृति से तालमेल बैठाता हजारों वर्षो से मनुष्य के ज्ञान का अक्षय स्त्रोत रहा है । साहित्य के बिना जीवन का सरस, आनन्दमय, गतिमय तथा प्रकृति सम्पन्न शाश्वत अस्तित्व संभव नहीं है । इसलिए साहित्यको सत्यम, शिवम और सुन्दरम का प्रतिरूप कहा गया है । यही कारण है कि सहित में तात्विक हितैषणा के भाव में य प्रत्यय के योग से साहित्य निष्पन्न हुआ है । इसके सृजन में प्रकृति उत्प्रेरक तत्व और पर्यावरण संरक्षक-तत्व के रूप मेंसदैव साथ रहा है । यही कारण है कि साहित्य मानव जीवन के लिए आज भी प्रासंगिक और आवश्यक रह सका है । इस तरह साहित्य में प्रकृति और पर्यावरण का चित्रात्मक वर्णन कब और कैसे हुआ है, उसका उल्लेख निम्न पक्तियों में उद्धत है । विषय बोध और उसके विश्लेषण के लिए सर्वप्रथम इसके पारिभाषिक प्रकरण से अधोगत होना जरूरी है । 
प्रकृति और पर्यावरण क्रमश: निम्न पंक्तियों में विनिवेदित है - पृथ्वी पर सृष्टिकर्त्ता ने सर्वप्रथम जीव-सृष्टि के पूर्व उसके आवासन का सृजन किया, जिसमें हरीतिमा, मनोरमता, सौम्यता, सुवासिता, जीवनोपयोगी उत्पादकता, विविधता और गतिशीलता जैसे वैशिष्ट्या की सतत उपलब्धता का प्रबन्धन कर दिया था । ऐसे प्राकृतिक व्यवस्था-विधान के मूर्तरूप को प्रकृति कहा गया है । इसकी मुख्य घटकों में पेड़-पौधों से सम्पन्न जंगलों और वन्य-जीवों की उपस्थिति अनिवार्य रही है । उतंग शिखरों से नदियों एवं झरनों का क्रमश: उतरना और गिरना, चिड़ियों का चहकना, वन फूलों का खिलना और हवा के झोकों से झूलना तथा चन्द्र किरणों का थिरकना आदि प्रकृति की रमनीयता में चार चाँद लगा देते हैं । इसे हम सृष्टिकर्ता की चमत्कारी कारीगरी भी कह सकते है । 
भारतीय वाड़मय मंे प्रकृति का चित्रण अथवा वर्णन भरपूर मात्रा में उपलब्ध है । इसका अध्ययन-मनन क्रमश: आदिकालीन, भक्तिकालीन, रीतिकालीन, छायावादकालीन और उत्तर छायावादकालीन साहित्य में किया गया है । यों तो ये सारे साहित्य आकाशीय विस्तार और सागरीय अगम्यता ग्रहण किये हुए हैं, फिर भी संक्षेप में इन्हें निम्नांकित प्रकारों से उदघाटित करने का प्रयास अपेक्षित है।  
प्रकृति चित्रण का वर्णन प्राय: काव्य साहित्य में समग्र भाव से अधिक हुआ है । हिन्दी काव्य साहित्य का अध्ययन और अनुशीलन से ज्ञान होता है कि भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न काव्यकारों ने प्रकृति-चित्रण की प्रवृति पृथक-पृथक ढंग से किया है । आदिकालीन काव्यकारों में से अधिकतर चारण और भाट थे । इनकी काव्य रचना का मुख्य उद्देश्य वीरों का यशोगान करना और युद्ध में संलीन वीरों के ह्दयों में रणोत्साह का संचार करना था । फलत: उनके लेखन में प्रकृति उतनी मुखरित नहीं हो सकी, जितनी होनी चाहिए थी । 
लेकिन आदि कवि वाल्मिकि ने सर्वप्रथम काव्यधारा को प्रवाहित किया, जिससे परवर्ती काव्यकारों की काव्य यात्रा का मार्ग प्रशस्त हुआ । वहीं कालिदास ने प्रकृति के विशाल क्षेत्र का परिभ्रमण किया । मेघदूत उनका मुख्य वाहन रहा । भक्तिकाल में संत कबीरदास, कृष्णभक्त सूरदास और रामभक्त तुलसीदास ने प्रकृति के प्रति अनुराग की भावना प्रकट करने में असीम सफलता पायी । सूफी काव्यकार जायसी ने भी अपने ब्रह्म के वाहय जगत में प्रकृति के प्रत्येक परमाणु को व्याप्त् पाया । परोक्ष ब्रह्म के अनन्त सौन्दर्य की दीिप्त् से समस्त प्रकृति को पूर्ण दिखाया । इसी तरह रीति काल में प्रकृति का उपयोग भाव के उद्दीपन और अलंकार रूप में  हुआ । कवि केशव और बिहारी ने प्रकृति को अपनी नायिका बनाया और उसके सौष्ठव एवं सौन्दर्य का रसमय बखान किया । 
छायावाद कालीन कवियों के बीच प्रकृति सहचरी बनकर अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान पायी । इसी काल में प्रकृति और पुरूष का एकीकरण  हुआ । इस काल के काव्यकार-प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी ने प्रकृति के अमूर्त्त और जड़ पदार्थो को मूर्त्त रूप प्रदान किया और उनका मानवीकरण किया । उन्होंने प्रकृतिमें मानवीय व्यापार और भावों को प्रतिबिम्बित देखा और आने ह्दय में प्रकृति के हर्ष-विवाद का प्रत्यक्ष अनुभव किया । मानव और प्रकृति का यही रागात्मक सम्बन्ध विराट सत्ता के सम्मिलन का माध्यम हुआ । इस तरह मानव ने समझा कि प्रकृति साहचर्य के बिना उनका जीवन अधूरा है । क्यांेकि छायावादी काव्य साहित्य और प्रकृति का परस्पर बड़ा घनिष्ठ संबंध रहा है । 
वस्तुत: प्रकृति ही इन कवियों की सौन्दर्य सर्जना का मूलाधार रहा । छायावादी चतुष्टय के प्राय: सभी कवि प्रकृति-सौन्दर्य से अभिभूत होकर ही मूर्धन्य कवि कहलाये । खासकर पंतजी का काव्य-सौन्दर्य प्रकृति सौन्दर्य से निरूपित है, ऐसा कहना गलत नहीं होगा । 
छायावादोत्तरकालीन कवियों ने भी अपना काव्य परचम प्रकृति प्रांगण से अन्यत्र नहीं लहराया । यद्यपि वे सभी प्रकृतिकी हरीतिमा को निहारते रहे तथापि उन्हें आजादी की लड़ाई भी लड़नी पड़ी । प्रकृति से शक्ति लेकर राष्ट्र प्रेम और राष्ट्रीयता का बोध जनमानस को कराते रहे । आजादी की लड़ाई जीतने के बाद भी पड़ोसी देशों के कटुतापूर्ण दंश झेलने को हम शापित रहे । उन दिनों राष्ट्र कवि दिनकर और गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह नेपाली ने अपने ओजस्वी स्वरों से जागृति का शंखनाद करते रहे । 
वर्तमान युग भूमंडलीकरण के गिरफ्त मेंउलझकर यांत्रिक और संवेदनहीन होता गया । फलस्वरूप काव्य पर गद्यात्मक प्रभाव बढ़ता गया । कवियों की कलमों को कृत्रिम स्याही मिलने लगी । कागजी फूलों की रंगीन छटा दिखने लगी । काव्य की खुशबू में विषैली बदबू प्रवेश कर गई । प्रकृति का अंग-प्रत्यंग क्षत-विक्षत होता गया । प्रकृति-प्रांगण भी उदास और बंजर बनता गया क्योंकि वे सभी कांक्रीट के जंगल से घिर गये । ऐसे में कलमकारों के समक्ष कृत्रिम अथवा काल्पनिक प्रकृति उपस्थित हो गयी । कहने का आशय यह है कि हम प्रकृतिवादी की जगह प्रगतिवादी होते गये । इस परिवर्तन का असर हमारे लेखन और साहित्य पर भी पड़ा है, जो हमारी भावभूमि और संवेदनशीलता के लिए घातक सिद्ध होगा । 
हिन्दी साहित्य में पर्यावरण शब्द का प्रवेश स्टॉकहोम में आहूत पृथ्वी शिखर सम्मेलन (१९७२) से हुआ, और ब्राजील सम्मेलन (१९९२) के बाद इस शब्द का प्रयोग और प्रचलन साहित्य में बढ़ने लगा । पर्यावरण प्राकृतिक परिवेश को कहा जाता है । यह दो शब्द खंडों यथा परि और आवरण से निर्मित है । परि का अर्थ घेराव अथवा घिरा हुआ और आवरण का अर्थ आच्छादन अथवा ढका हुआ से है । प्रकृति के जो घटकें यथा क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा के साथ पेड़-पौधे हैं वही घटकें पर्यावरण के भी हैं । इस आशय में प्रकृति और पर्यावरण को पृथक नहीं कर सकते । चूकि पर्यावरण एक वैज्ञानिक  विषय है जो हमारे जीवन अस्तित्व से सीधे जुड़ा होता है । अतएव इस विषय के प्रति हमारी सजगता सर्वोपरि होनी चाहिए । 
यह ज्ञातव्य है कि आज सारा विश्व पर्यावरणीय अवनयन और प्रदूषण के बढ़ते प्रकोप से ग्रसित है । इन दोनों से उत्पन्न समस्याएँ दिनोंदिन जटिल होती जा रही है । इसके निदान और नियंत्रण के लिए सरकारी तंत्रों के साथ-साथ जनमानस को भी आन्दोलित करना नितान्त आवश्यक हो गया है । इसके लिए एक सशक्त साहित्य यानी पर्यावरण साहित्य का सृजन सामयिक और अनिवार्य हो गया । यही कारण रहा कि दलित साहित्य और स्त्री विमर्श साहित्य के अनुरूप पर्यावरण साहित्य का सृजन आन्दोलन आज समय की आवश्यकता है । 
पर्यावरण को लेकर निकलने वाली नियमित पत्रिकाओें मे हरित वसुन्धरा (पटना), पर्यावरण (भारत सरकार), पर्यावरण डाइजेस्ट (रतलाम), हमारी धरती (अलीगढ), पृथ्वी और पर्यावरण (ग्वालियर), पर्यावरण और विकास (इन्दौर) और शिवमपूर्णा (भोपाल) ने भी पर्यावरण साहित्य के संवर्द्धन मेंभरपूर सहयोग प्रदान किया जो प्रशंसनीय ही नहीं आदर के पात्र है । 
समस्त प्राणी जगत के जीवन अस्तित्व के लिए साहित्य में प्रकृति और पर्यावरण को जीवन्त बनाए रखना समय की अहम और अपेक्षित मांग है । जीवन्तता के साथ-साथ इसकी निरन्तरता बनी रहनी चाहिए । 
जल जगत
पानी पर हकदारी का सवाल 
अरूण तिवारी 
प्यास किसी की प्रतिक्षा नहीं करती । अपने पानी के इंतजाम के लिए हमें भी किसी की प्रतिक्षा नहीं करनी है । हमें अपनी जरूरत के पानी का इंतजाम खुद करना है । 
देवउठनी ग्यारस का अबूझ सावा आये, तो नये जोहड़, कुण्ड और बावड़िया बनाने का मुहूर्त करना है । आखा तीज का अबूझ सावा आये, तो समस्त पुरानी जल संरचनाआें की गाद निकालनी है, पाल और मेडबंदियां दुरूस्त करनी हैं, ताकि बारिश आये, तो पानी का कोई कटोरा खाली न रहे । 
जल नीति और नेताआें के वादे ने फिलहाल इस एहसास पर धूल चाहे जो डाल दी हो, किन्तु भारत के गांव-समाज को अपना यह दायित्व् हमेशा से स्पष्ट था । जब तक हमारे शहरों में पानी की पाइप लाइन नहीं पहुंची थी, तब तक यह दायित्वपूर्ति शहरी भारतीय समुदाय को भी स्पष्ट थी, किन्तु पानी के अधिकार को लेकर अस्पष्टता हमेशा बनी रही । याद कीजिए कि यह अस्पष्टता, प्रश्न करने वाले यक्ष और जवाब देने वाले पाण्डु पुत्रों के बीच हुई बहस का भी कारण बनी थी । सवाल आज भी कायम हैं कि कौन सा पानी किसका है ? बारिश की बूंदों पर किसका हक है ? नदी-समूद्र का पानी किसका   है ? तल, वितल, सुतल व पाताल का पानी किसका है ? सरकार, पानी की मालकिन है या सिर्फ ट्रस्टी ? यदि ट्रस्टी, सौंपी गई संपत्ति का ठीक से देखभाल न करें, तो क्या हमें हक है कि हम ट्रस्टी बदल दें ?
पानी की हकदारी को लेकर मौजूं इन सवालों में जल संसाधन संबंधी संसदीय स्थायी समिति की ताजा सिफारिश ने एक नई बहस जोड़ दी है । बीती तीन मई को सामने आई रिपोर्ट ने पानी को समवर्ती सूची में शामिल करने की सिफारिश की  है । स्थायी समिति की राय है कि यदि पानी पर राज्यों के बदले, केन्द्र का अधिकार हो, तो बाढ़ और सुखा जैसी स्थितियों से बेहतर ढंग से निपटना संभव होगा । 
क्या वाकई यह होगा ? बाढ़ सुखा से निपटने में राज्य क्या वाकई बाधक हैं ? पानी के प्रंबंधन का विकेन्द्रित होना अच्छा है या केन्द्रित होना ? समवर्ती सूची में आने से पानी पर एकाधिकार, तानाशाही बढेगी या घटेगी ? बाजार का रास्ता आसान हो जायेगा या कठिन ? स्थायी समिति की सिफारिश से उठे इस नई बहस में जाने के लिए जरूरी है कि हम पहले समझ लें कि पानी की वर्तमान संवैधानिक स्थिति क्या है और पानी को समवर्ती सूची में लाने का मतलब क्या है ?
वर्तमान संवैधानिक स्थिति के अनुसार जमीन के नीचे का पानी उसका है, जिसकी जमीन है । सतही जल के मामले में अलग-अलग राज्यों में थोड़ी भिन्नता जरूर है, किन्तु सामान्य नियम है कि निजी भूमि पर बनी जल संरचना का मालिक, निजी भूमिधर होता है । ग्राम पंचायत के अधिकार क्षेत्रफल में आने वाली एक तय रकबे की सार्वजनिक जल संरचना के प्रबंधन व उपयोग तय करने का अधिकार ग्राम पंचायत का होता है । यह अधिकतम रकबा सीमा भिन्न राज्यों में भिन्न है । भौगोलिक क्षेत्रफल के हिसाब से यही अधिकार क्रमश: जिला पंचायतों, नगर निगम/नगर पालिकाआें और राज्य सरकारों को प्राप्त् हैं । 
इस तरह आज की संवैधानिक स्थिति में पानी, राज्य का विषय है । इसका एक मतलब यह है कि केन्द्र सरकार, पानी को लेकर राज्यों को मार्गदर्शी निर्देश जारी कर सकती है, पानी को लेकर केन्द्रीय जल नीति व केन्द्रीय जल कानून बना सकती है, लेकिन उसे जैसे का तैसा मानने के लिए राज्य सरकारों को बाध्य नहीं कर सकती । राज्य अपनी स्थानीय परिस्थितियों और जरूरतों के मुताबिक बदलाव करने के लिए संवैधानिक रूप से स्वतंत्र  हैं । लेकिन राज्य का विषय होने का मतलब यह कतई नहीं है कि पानी के मामले में केन्द्र का इसमें कोई दखल नहीं है । 
केन्द्र को राज्यों के अधिकार में दखल देने का अधिकार है, किन्तु सिर्फ और सिर्फ तभी कि जब राज्यों के बीच बहने वाले कोई जल विवाद उत्पन्न हो जाये । इस अधिकार का उपयोग करते हुए ही तो एक समय केन्द्र सरकार द्वारा जल रोकथाम एवं नियंत्रण कानून १९७४ की धारा ५८ के तहत केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, केन्द्रीय भूजल बोर्ड और केन्द्रीय जल आयोग का गठन किया गया था । धारा ६१ केन्द्र को केन्द्रीय भूजल बोर्ड आदि के पुनर्गठन का अधिकार देती है और धारा ६३ जल संबंधी ऐसे केन्द्रीय बोर्डो के लिए नियम-कायदे बनाने का अधिकार केन्द्र के पास सुरक्षित करती है । 
पानी के समवर्ती सूची में आने से बदलाव यह होगा कि केन्द्र, पानी संबंधी जो भी कानून बनायेगा, उन्हे मानना राज्य सरकारों की बाध्यता होगी । केन्द्रीय जल नीति हो या जल कानून, वे पूरे देश में एक समान लागू होंगे । पानी के समवर्ती सूची में आने के बाद केन्द्र द्वारा बनाये जल कानून के समक्ष, राज्यों के संबंधित कानून स्वत: निष्प्रभावी हो जायेगे । जल बंटवारा विवाद में केन्द्र का निर्णय अंतिम होगा । नदी जोड़ परियोजना के संबंध में अपनी आपत्ति को लेकर अड़ जाने को अधिकार समाप्त् हो जायेगा । केन्द्र सरकार, नदी जोड़ परियोजना को बेरोक-टोक पूरा कर सकेगी ।  समिति के पास पानी समवर्ती सूची में लाने के पक्ष में कुलजमा तर्क यही हैं । 
यह भी तर्क भी इसलिए हैं कि केन्द्र सरकार संभवत: नदी जोड़ परियोजना को भारत की बाढ़-सुखा की सभी समस्याआें को एकमेव हल मानती है औश्र समवर्ती सूची के रास्ते इस हल को अंजाम तक पहुंचाना चाहती है । क्या यह सचमुच एकमेव व सर्वश्रेष्ठ हल है ? पानी को समवर्ती सूची में कितना जायजा है, कितना नाजायज ? जल प्राधिकार के साथ-साथ भारत के जल प्रबंधन की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है । इस पर व्यापक बहस जरूरी है । 
नदी जोड़ परियोजना का हमेशा विरोध तथा विकेन्द्रित व सामुदायिक जल प्रबंधन की हमेशा वकालत करने वाले जलपुरूष राजेन्द्र सिंह ने भी पानी को समवर्ती सूची में लाने का समर्थन किया है । देश के कई राज्यों में चल रहे जल सत्याग्रह में अग्रणी भूमिका निभा रही लोक संघर्ष मोर्चा (महाराष्ट्र) की प्रमुख प्रतिभा शिंदे ने तो स्वयं इसकी मांग की, तर्क दिया कि ऐसा करने से जंगल और जंगलवासियों का भला हुआ है, पानी और पानी के लाभार्थी समुदाय का भी होगा । 
राजीव गांधी वाटरशेड मिशन के पूर्व सलाहकर कृष्णगोपाल व्यास ने सवाल किया कि पानी को समवर्ती सूची में लाने की जरूरत ही कहां है ? पानी की वर्तमान संवैधानिक स्थिति ही ठीक है । समस्याआें के समाधान के लिए केन्द्र सरकार अभी भी मागदर्शीनिर्देश देने के लिए स्वतंत्र है ही । श्री व्यास इससे इंकार नहीं करते कि पानी के समवर्ती सूची में आने से जलाधिकार के संघर्ष और पानी के व्यावसायीकरण की संभावनायें घटने की बजाय बढ़ेगी । केन्द्रीय नदी गंगा बेसिन प्राधिकरण के पूर्व विशेषज्ञ सदस्य तथा लोक विज्ञान संस्थान, देहरादून के प्रमुख रवि चौपड़ा की राय भी श्री व्यास की राय से भिन्न नहीं है । 
स्पष्ट है कि पानी के संकट से उबरने के लिए जरूरत समवर्ती सूची से ज्यादा, बेहतर आपसी समन्वय, संकल्प और नीयत का   है । इस सिफारिश को लेकर अकाली दल व भाजपा क ेसाझे गठबंधन वाली पंजाब की सरकार ने विरोध जताया है । उल्लेखनीय है कि पंजाब सरकार ने नदी जोड़ परियोजना का भी विरोध किया था । दूसरी तरफ पार्टी का पक्ष ध्यान में रखते हुए केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती के साथ-साथ भाजपा शासित झारखण्ड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा की सरकारों ने सहमति जताई है । 
प्रश्न यह है कि समवर्ती सूची में आने के बाद यदि पार्टी का पक्ष करने वाली नीयत केन्द्र सरकार की हुई तो जिन राज्यों में केन्द्र सरकार के दल वाले सरकारें नहीं हुई, उन राज्यों के साथ न्याय हो पायेगा, इसकी संभावना इस सिफारिश में कहां हैं ? जब कभी भी केन्द्र में सत्तारूढ़ दल, विपक्षी दलों की सरकारों को गिराने की नीयत रखेगी, तो क्या समवर्ती सूची में आकर पानी पर हकदारी में समानता प्रभावित हुए बगैर बच पायेगी ?
विज्ञान हमारे आसपास
स्पेस वॉक में लंबाई बढ़ी, उम्र घटी
शर्मिला पाल

इंसान रोज नए-नए रहस्यों को सुलझाने में जुटा रहता है । बं्रह्माड में आज क्या, कैसे, क्यों और आगे क्या, यह जानने की जिज्ञासा वैज्ञानिकों को चैन से नहीं रहने देती है । और जब इन रहस्यों की कुछ जानकारियां सामने आती है तो आम इंसान तो क्या खुद वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित रह जाते हैं । 
ऐसा ही तब हुआ जब अमेरिका के अंतरिक्ष वैज्ञानिक स्कॉट केली ३४० दिन अंतरिक्ष में बिताने के बाद धरती पर लौटे । स्वाभाविक रूप से मन में यह सवाल उठता है कि इतने लंबे समय तक वे अंतरिक्ष में कैसे रहे होंगे, उन पर क्या प्रभाव पड़ा होगा । दिलचस्प बात यह पता चली कि उनकी लंबाई दो इंच बढ़ गई थी, जबकि उम्र १० मिली सेंकड घट गई थी । उन्होनें यह भी बताया कि वहां पर रहकर अंतरिक्ष यात्री कैसे अंतरिक्ष में चहलकदमी करते  हैं । जब कोई अंतरिक्ष यात्री मिशन पर जाता है तो उसके लिए तैयारियां काफी पहले से ही शुरू हो जाती है । 
अंतरिक्ष यात्री खुद को अंतरिक्ष की परिस्थितियों के मुताबिक ढालने लगते है । इस दौरान उनके खानपान से लेकर पोशाक तक का ख्याल रखा जाता है । सामान्य पोशाक और स्थितियों में अंतरिक्ष में कदम नहीं रखा जा सकता । आपने देखा होगा अंतरिक्ष यात्री हमेशा एक खास तरह की ड्रेस पहनते है । एक भारी भरकम सूट और उस पर हेलमेट और ऑक्सीजन मास्क भी लगा रहता है । अंतरिक्ष में अंतरिक्ष यात्रियों को यही सूट पहनना पड़ता  है । इसे स्पेश सूट कहते हैं । स्पेश सूट की बदौलत ही अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष के प्रतिकूल माहौल मेंजीवित रह पाते हैं । 
इस स्पेश सूट को तैयार करने के लिए वैज्ञानिकों ने बहुत मेहनत और शोध किया है । यह सूट उस कपड़े से नहीं बना होता है, जिसे हम और आप पहनते है । अंतरिक्ष की स्थितियों का आंकलन करने के बाद यह सूट तैयार किया जाता है । इस सूट को पहनने के बाद शरीर का तापमान और बाहरी वातावरण से शरीर पर पड़ने वाला दबाव नियंत्रित रहता है । इसके साथ ही यह सूट इस तरह से बनाया जाता है कि यह एक कवच के समान अंतरिक्ष में मौजूद हानिकारक किरणों से शरीर की रक्षा करें । इस सूट के अंदर ही एक लाइफ सपोर्ट सिस्टम होता है, जिससे अंतरिक्ष यात्री को शुद्ध ऑक्सीजन प्राप्त् होती है । इस सूट के अंदर गैस और द्रव पदार्थो को रीचार्ज और डिस्चार्ज करने की व्यवस्था भी होती है । इस सूट में ही अंतरिक्ष यात्री वहां से एकत्रित किए गए ठोस कणों को सुरक्षित रख सकते हैं । 
जब कोई अंतरिक्ष यात्री यान से निकलकर अंतरिक्ष में कदम रखता है, तो उसे स्पेश वॉक कहते   है । १८ मार्च १९६५ को रूसी अंतरिक्ष यात्री एल्केसी लियोनोव ने पहली बार स्पेश वॉक की थी । आज समय-समय पर अंतरिक्ष यात्री स्पेश वॉक के लिए अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन से बाहर जाते हैं । स्पेश वॉक पर जाते समय वे एक विशेष प्रकार की पोशाक पहनते हैं जो उन्हें अंतरिक्ष में सुरक्षित रखती है । वहां हवा का अभाव होने के कारण इन स्पेश सूट के अंदर ही ऑक्सीजन की व्यवस्था रहती है जिससे वे सांस लेते हैं । सांस के तौर पर सिर्फ ऑक्सीजन लेने से अंतरिक्ष यात्री के शरीर से पूरी नाइट्रोजन बाहर निकल जाती है । यदि उनके शरीर में जरा सी भी नाइट्रोजन हो तो उससे स्पेश वॉक के दौरान अंतरिक्ष यात्री के शरीर में नाइट्रोजन का बुलबुला बन सकता है। 
इन बुलबुले से उनके जोड़ों में तेज दर्द हो सकता है । यह स्पेशसूट उन्हें वॉक पर जाने से कई घंटे पहले ही पहन लेना पडता है । यह सूट इतना बड़ा होता है कि इसे पहनकर अभ्यास करना जरूरी होता है, ताकि वे सहज ही जाएं और सूट से जुड़ी तकनीकी बातों को समझ लें । इतना ही नहीं स्पेश सूट अंतरिक्ष यात्री को सामान्य तापमान उपलब्ध कराता    है । अंतरिक्ष में तापमान शून्य से २०० डिग्री कम या २०० डिग्री अधिक भी हो सकता है ।
इन तैयारियों के बाद अंतरिक्ष यात्री स्पेश वॉक के लिए तैयार रहते है । इस वॉक के लिए यान से वे एयरलॉक से बाहर निकलते   है । एयरलॉक में दो दरवाजे होते    हैं । जब अंतरिक्ष यात्री यान के अंदर होते है तो एयरलॉक इस तरह बंद होता है कि अंदर की जरा सी भी हवा बाहर न जाने पाए । जब अंतरिक्ष यात्री स्पेश वॉक के लिए पूरी तरह तैयार हो जाते हैं तो वे एयरलॉक के पहले दरवाजे से बाहर जाते है और पीछे से उसे मजबूती से बंद कर दिया जाता है । इसके बाद वे एयरलॉक का दूसरा दरवाजा खोलते हैं । स्पेश वॉक करने के बाद फिर एयरलॉक से ही वे यान के अंदर आते हैं । 
अंतरिक्ष यात्रियों में घर से दूर रहने का तनाव या होमसिकनेस जैसा भाव उत्पन्न होने लगता है । आम तौर पर मिशन के चौथे महीने में अंतरिक्ष यात्री घर लौटाना चाहता है । वे स्पेश स्टेशन में रहकर थक जाते हैं और अपने परिवार वालों से मिलना चाहते है । अब नासा के ज्यादातर अभियान छह महीने से लेकर साल भर के होते है । नासा इसलिए अब ज्यादा चॉकलेट पुडिंग भेजने पर विचार कर रहा है । 
इतना ही नहीं अलाबामा में बैठी जमीनी टीम को इंटरनेशनल स्पेश स्टेशन के अंतरिक्ष यात्रियों की इधर-उधर गुम हो चुकी चीजों पर भी नजर रखनी होती है । यह स्पेस प्रोग्राम का सबसे मुश्किल काम होता है । अंतरिक्ष यात्री अपना सामान इधर-उधर रखकर भूल जाते हैं । ज्यादातर समय चीजें सुराखों में फंसी हुई मिलती है । जाहिर है एक अंतरिक्ष यात्री के साथ में हजारों का सपोर्ट स्टॉफ काम करता है । 
लोगों के मन में हमेशा यह जानने की जिज्ञासा रहती है कि अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष में कैसे रहते होंगे । अंतरिक्ष में गुरूत्वाकर्षण का प्रभाव खत्म हो जाता है, ऐसे में उन्हें किन परेशानियों का सामना करना पड़ता होगा । अंतरिक्ष यात्री क्या खाना खाते होंगे ? उनका वॉशरूम कैसाहोता होगा ? उनका बिस्तर कैसा होता है ?
अमूमन अंतरिक्ष यात्री ४ से ६ घंटे सोते हैं । यान में स्लीप सेंटर होता है । स्लीप सेंटर एक छोटे फोन बूथ की तरह होता है, जिसमें स्लीपिंग बैग होता है । स्लीप सेंटर में कम्प्यूटर, किताबें और खिलौने भी रख सकते है । ब्रश करते समय पानी भी बुलबुलों की तरह उड़ता है । यान में हाइड्रेटेड और डिहाइड्रेटेड सभी तरह का भोजन होता है । असलियत यह है कि अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष में भेजने का एक अहम मकसद होता है पृथ्वी से कई किलोमीटर दूर अंतरिक्ष में रहते हुए मनुष्यों पर उन परिस्थितियों का असर देखना । 
यदि मनुष्य को कभी स्पेश में, ग्रहों या उपग्रहों पर लंबे समय तक रहना है, तो यह पता होना जरूरी है कि अंतरिक्ष में लंबे समय तक रहने का इंसान पर असर क्या होता है । लेकिन खुद अंतरिक्ष यात्रियों पर हो रहे प्रयोग के असर पर नजर रखता कौन है ? अंतरिक्ष यात्रियों के हर पल की हरकत और उन पर हो रहे असर को जांचती है हजारों विशेषज्ञों की एक टीम, जो नासा के कन्ट्रोल हब या फिर नासा पेलोड ऑपरेशन्स इंटीग्रेशन सेंटर के नाम से जानी जाती है । 
अमेरिका के अलाबामा स्थित एक सैन्य अड्डे से संचालित इस कन्ट्रोल हब में एक समय में आठ पुरूष और महिलाएं होती है । उनकी नजरें कम्प्यूटर मॉनिटर्स पर जमी होती है और चेहरों पर आंकड़ों का बोझ स्पष्ट नजर आता है । यह सेंटर दरअसल इंटरनेशनल स्पेश स्टेशन के वैज्ञानिक प्रयोगों का नियंत्रण केन्द्र है जहां चौबीसों घंटे काम होता है । पेलोड कम्यूनिकेशन्स मैनेजर सेम शाइन कहती हैं कि हम वैज्ञानिकों और स्पेश स्टेशन के अंतरिक्ष यात्रियों के बीच संपर्क सेतु का काम करते हैं । शाइन उन लोगों में शामिल है जो इंटरनेशनल स्पेश स्टेशन के वैज्ञानिकों से सीधे बात करते रहते हैं । यह काफी मुश्किल होता है - भाषाई अंतर होता है, टाइम जोन का अंतर होता है, कई बार इटली के अंतरिक्ष यात्री को कोई जानकारी देनी होती है, तो कई बार किसी जर्मन यात्री से जानकारी लेनी होती है । 
सन् २०११ में १०० अरब डॉलर की लागत से तैयार हुए इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में अमेरिका, रूस, जापान और युरोपीय प्रयोगशालाएं है और इसमें काम करने वाले अंतरिक्ष यात्री अब छह माह से एक साल तक वहां बिताते    हैं । शाइन कहती हैं, आप विज्ञान की किसी भी शाखा का नाम लें, हम उसके किसी न किसी विषय पर जरूर रिसर्च कर रहे होंगे । हम सूक्ष्म गुरूत्व अनुसंधान से लेकर पौधों की वृद्धि और तरल धातुआें के गुणों की समझ तक के बारे में प्रयोग कर रहे हैं । 
एक अहम अध्ययन इन परिस्थितियों में हडि्डयों और मांसपेशियों के वेस्टेज पर हो रहा    है । अंतरिक्ष यात्रियों पर पृथ्वी से बाहर धातु के बक्से में रहने, कृत्रिम भोजन खाने, रिसाइकिल किए मूत्र को पीने और महीनों तक चंद अंतरिक्ष यात्रियों के साथ रहने का असर भी देखा जाता है । ये वे अहम अध्ययन है जिनके बाद तय होगा कि मनुष्य अंतरिक्ष में, ग्रहों-उपग्रहों पर कितनी देर रह सकता है । इतना ही नहीं, महीनों तक पृथ्वी से दूर रहने से संबंधित मनोवैज्ञानिक पहलुआें का अध्ययन भी किया जा रहा है । 
कई बार स्पेस स्टेशन के निवासी शिकायत करते हैं कि उन्हें अच्छा नहीं लग रहा है । शाइन कहती है कि ऐसी सूरत में पता किया जाता है कि वे कैसा महसूस कर रहे हैं । फिर उन्हें कम्फर्ट भोजन दिया जाता है और उनकी स्थिति को देखा जाता है । शाइन के मुताबिक नियंत्रण केन्द्र की कोशिश होती है कि वे उन्हें घर जैसा महसूस कराएं । 
स्पेस वॉक के दौरान अंतरिक्ष यात्री खुद को यान के करीब रखने के लिए टेदर का इस्तेमाल करते है । यह रस्सी की तरह होता है, जिसका एक सिरा स्पेस वॉक करने वाले से और दूसरा यान से जुड़ा होता है । टेदर यात्री को अंतरिक्ष में यान से काफी दूर जाने से रोकता है । इसके अलावा अंतरिक्ष यात्री सेफर (सिंप्लीफाइड एड फॉर इवीए रेसक्यू) भी पहनते हैं । इसे पीठ पर थैले की तरह पहना जाता है । स्पेस वॉक के दौरान यदि अंतरिक्ष यात्री से काफी दूर जाने लगे, तो यह सेफर उसे वापस यान में लौटने में मदद करता है । स्पेस वॉकर सेफर को जॉय स्टिक से नियंत्रित करता है । 
अंतरिक्ष में पहला स्पेस वॉक करने वाले अंतरिक्ष यात्री थे रूस के एल्केसी लियोनोव । उन्होनें ८ मार्च १९६५ को पहली बार १० मिनट तक स्पेस वॉक किया था । अब तक दुनिया के कई देशों के कई अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष में स्पेस वॉक कर चुके हैं । 
पर्यावरण परिक्रमा
२०५० तक भारत मेंहो सकता है जलसंकट
भारत में जिस तेजी के साथ जलस्तर कम हो रहा है उसे देखते हुए कहा जा रहा है कि भारत में २०५० तक पीने का पानी भी बाहर के देशों से आयात करना पड़ेगा । केन्द्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट ने चेतावनी दी है कि साल २०५० तक आज के मुकाबले जमीन के भीतर सिर्फ २२ फीसदी पानी रह जाएगा । पानी की उपलब्धता को लेकर किए सर्वेकी रिपोर्ट के मुताबिक २०५० तक प्रतिव्यक्ति पानी की उपलब्धता ३१२० लीटर हो जाएगी जिससे भारी जलसंकट खड़ा हो जाएगा । २००१ के डाटा के मुताबिक जमीन के भीतर प्रति व्यक्ति ५१२० लीटर पानी बचा है जो कि साल १९५१ में १४१८० लीटर हुआ करता था । यानी की २००१ में १९५१ के मुकाबले आधा पानी रह गया है । अनुमान लगाया जा रहा है कि साल २०२५ तक पानी की उपलब्धता २५ फीसदी ही रह जाएगी । 
विशेषज्ञों का कहना है कि पानी को बचाने के लिए जल संरक्षण करने की जरूरत है और इसके लिए बारिश के पानी को तालाबों, नहरों कुआेंमें संचित करना जरूरी है और साथ ही साथ लोगों को जल संरक्षण के लिए शिक्षित करने और उन्हें प्रेरित करने की जरूरत है । 
बोर्ड ने भूमिगत जल को रिचार्ज करने की एक कृत्रिम योजना भी बनाई है । इससे तेजी से होने वाले विकास और भूमिगत जल के स्त्रोतों का अलग-अलग चीजों में दोहन किए जाने से हालांकि सिंचाई युक्त खेती, आर्थिक विकास और शहरी भारत के जीवन स्तर मे काफी सुधार आया है । 
देश के ग्रामीण इलाकोंमें रहने वाले लोगों की ८५ फीसदी से ज्यादा घरेलु जरूरतों के लिए भूमिगत जल ही एक मात्र स्त्रोत है । शहरी इलाकों में ५० फीसदी पानी की जरूरत भूमिगत जल से पूरी होती    है । देश में होने वाली कुल कृषि भूमि में ५० फीसदी सिंचाई का माध्यम भी भूमिगत जल ही है । 

गुलामी के शिंकजे में १.८३ करोड़ भारतीय 
दुनिया भर में आज अनुमानित ४ करोड़ ५८ लाख पुरूष, महिला और बच्च्े आधुनिक दासता में फंसे है जो पहले के अनुमान से २८ प्रतिशत अधिक है । उन्हें मानव तस्करी, बंधुआ मजदूरी, कर्ज देकर दास बनाने, जबरन या दासोचित विवाह या वाणिज्यिक यौन शौषण के जरिए दास बनाए गए है । २०१६ के वैश्विक दासता सूचकांक से यह चौंकाने वाली बात सामने आई है । 
इस बारे में प्रमुख शोध रिपोर्ट पिछलें दिनों वॉक फ्री फाउडेशन ने प्रकाशित की है । कुल संख्या के लिहाज से देखे तो, भारत में सबसे अधिक १ करोड़ ८३ लाख ५० हजार लोग दासता के चंगुल मेंफंसे है । इसके बाद ३३ लाख ९० हजार के साथ चीन का स्थान है । २१ लाख ३० हजार के साथ पाकिस्तान तीसरे, १५ लाख ३० हजार के साथ बांग्लादेश चौथे और १२ लाख ३० हजार दासों के साथ उज्बेकिस्तान पांचवे स्थान पर है । 
इन पांच देशों में, कुल मिलाकर दुनिया के करीब ५८ प्रतिशत यानी २ करोड़ ६६ लाख दास है । यह दासता और दास्ता के चुंगल में फंसे शब्दों के रूप में उपयोग किए गए हैं, तथा इन्हें पारंपरिक दासता के रूप में नहीं समझना चाहिए जिसमें लोगों को कानूनी संपत्ति के रूप में बंधुआ रखा जाता था, जो दुनिया भर में हर देश में खत्म हो चुकी है । 
मौजूदा संघर्ष और सरकारी कामकाज में अत्यधिक व्यवधान के कारण अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सोलिया, सीरिया और यमन के लिए रेटिंग । वैश्विक दासता सूचकांक २०१६ के अनुसार २०१४ की तुलना में २८ प्रतिशत अधिक लोग दासता के चंगुल में फंसे है । अधिक डाटा संग्रह और शोध की नई विधि के कारण यह महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है । 
वर्ष २०१६ के वैश्विक दासता सूचकांक के लिए सर्वेक्षण शोध में २५ देशों में ५३ भाषाआें में ४२,००० अधिक साक्षात्कार लिए गए जिनमें भारत में १५ राज्य-स्तरीय सर्वेक्षण शामिल है । यह ४४ प्रतिशत वैश्विक आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं । वैश्विक दासता सूचकांक में आधुनिक दासता से निपटने के लिए सरकारी कार्यवाही और प्रयासों पर नजर डाली गई है । आंकलन में शामिल १६१ देशों में से १२४ देशों में संयुक्त राष्ट्र के मानव तस्करी प्रोटोकॉल के अनुरूप मानव तस्करी को अपराधों में शामिल किया है तथा ९६ देशों ने सरकारी प्रयासों में समन्वय के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना विकसित की   है । कुल मिलाकर देखे तो भारत में दासों की संख्या सबसे अधिक है लेकिन इस समस्या से निपटने के उपाय शुरू करने में महत्वपूर्ण प्रगति की है । इसे मानव तस्करी, बाल देह व्यापार और जबरन विवाह को अपराधों में शामिल किया है । 
हर किसान परिवार पर ५० हजार का कर्ज 
भारत को हमेशा से ही कृषि प्रधान देश माना गया है, मगर अब आलम यह है कि हमारी यह प्रधानता ही कमी बनती जा रही है । भारत में कृषि उत्पादकता और कृषकोंकी स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है । देश के हर किसान पर औसतन करीब ५० हजार रूपये का कर्ज है । कृषि अभी भी भारतीयों की आजीविका का आधार है । 
साल २०११ की जनगणना के मुताबिक लगभग ५६ फीसदी कामकाजी लोग देश मेंअभी भी खेती किसानी में लगे हैं । दुर्भाग्य की बात यह है कि कृषि उत्पादकता कम है, सिंचाई की सुविधाएं खराब है और भंडारण व बिक्री का ढांचा बिखरा   है । 
सिंचाई व्यवस्था को बेहतर करने के लिए मोदी सरकार ने प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना की शुरूआत की है, जिसका लक्ष्य नए जल संसाधनों का निर्माण, जलाशयों का नवीनीकरण, भूजल विकास आदि है । हालांकि, साल २०१५-१६ के लिए पूंजी उपयोग का हाल निराशाजनक रहा । 
स्पेश सूट रोकेगा ब्लीडिंग, बचेगी मां की जान
नासा की खोज से प्रेरित होकर वैज्ञानिकों ने अनूठा सूट बनाया है ।इसे मिरेकल सूट कहा जा रहा    है । यह अंतरिक्ष में पहने जाने वाले स्पेस सूट की तरह है । इसको पहनने से महिला को प्रसव के दौरान ज्यादा ब्लीडिंग नहीं होती है । मां की जान जाने का खतरा भी कम हो जाता है। सूट का कई दशों में ट्रायल कामयाब रहा है । पांच हजार रूपए के इस सूट  को एक बार पहनने पर महज ७० रूपये चुकानें होगे । एक स्पेस सूट को ७० बार इस्तेमाल किया जा सकता है । 
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूओ) ने भी इसे महिलाआें को पहनाने की सलाह दी है । दुनिया में हर साल करीब साढ़े तीन लाख महिलाआें को बच्च्े के जन्में के दौरान जान गंवानी पड़ती है । भारत में एक लाख से करीब १७४ महिलाआें की मौत होती है । नासा के एम्स रिसर्च सेन्टर ने स्पेस सूट के जरिए महिला के शरीर के निचले हिस्से पर दबाव बनाने का सुझाव दिया था । यह हवा भरे ब्लैडर की मदद से पैरों में रक्त के जमाव को रोकता है । एम्स के हाल ही में किए शोध के मुताबिक कम दबाव डालकर भी खून को दिल और मस्तिष्क तक भेजा जा सकेगा। इससे प्रसव में ब्लीडिंग को रोका जा सकता है । अंतरिक्ष यात्रियों के लिए नासा ऐसे ही स्पेस सूट का इस्तेमाल करता है । नासा के मुताबिक इस सूट से पाकिस्तान मेंअत्यधिक ब्लीडिंग से पीड़ित १४ महिलाआें में से १३ को बचाया जा चुका है । दरअसल, इसका आइडिया नासा को १९५९ में आया था, जब एक महिला ने एम्स रिसर्च सेंटर में फोन करके सहायता मांगी थी । महिला को लगातार काफी ब्लीडिंग हो रही थी । नौ बार सर्जरी के बाद भी ब्लीडिंग रूक नही रही  थी ।  इसके बाद एम्स के डॉक्टरों ने उसे स्पेस सूट पहनाया था । इससे ब्लीडिंग रोकने में मदद मिली थी । 
सन् १९९० में सबसे पहले कैलिफोर्निया की जोएक्स कार्पोरेशन ने महिलाआें के लिए स्पेस सूट बनाया । एम्स की रिसर्च में शामिल व सेफ मदरहुड की संस्थापक स्वेलन मिलर कई देशों में मातृ-मृत्युदर को कम करने के लिए अभियान चला रही है । उनकी कंपनी ही इस सूट को तैयार कर रही है । वे कहती है - स्पेस सूट के परिणाम काफी सकारात्मक रहे   है । इसे बनाने का उद्देश्य मां और नवजात बच्च्े की मौत को रोकना है । करीब २० देशोंमें इसका प्रयोग किया जा रहा है । 
दुनियाभर में घटा जी.एम. फसलों का क्षेत्र
केवलदेश में ही फसलों पर मार नहीं पड़ रही है, एक रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में जैनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फसल का क्षेत्र घट गया है । ऐसा पहली बार हुआ  है । एक गैर सरकारी संगठन ने रिपोर्ट जारी कर जानकारी दी है कि २०१५ में बॉयोटेक बीजों की बुआई कम की गई । इसका मुख्य कारण रहा उपयोगी वस्तुआें की दरों में भारी कमी । जीएम फसलों के लिए २०१५ में केवल १७९.७ मिलियन हेक्टेयर में खेती की गई, जो कि २०१४ की तुलना में एक प्रतिशत कम था । २०१४ में १८१.५ मि.हे. में जी.एम. फसलों की खेती की गई थी । 
प्रदेश चर्चा
म.प्र. : इन्दौर में रोजाना करोड़ों लीटर पानी की बर्बादी 
चिन्मय मिश्र
पिछले कुछ अर्से से पानी उल्लास नहीं बल्कितनाव का कारण बनता जा रहा है । भारत का संभवत: प्रत्येक अंचल इस वक्त किसी न किसी स्वरूप में जलसंकट का साक्षी बना हुआ है ।  
राजस्थान के जैसलेमर जिले के रामगढ़ जैसे क्षेत्र जहां पर हिन्दुस्तान में सबसे कम पानी, औसतन करीब ४ इंच पानी वर्ष भर में बरसता है, इसके अपवाद हैं। वहां साल भर पीने के पानी का संकट नहीं होता । फसलों की स्थिति ऐसी है कि मालवा जिसके बारे में कभी कहा जाता था ``डग डग रोटी पग पग नीर`` से मजदूर अब यहां फसल काटने आते हैं। परंतु सीखने की प्रकृति को तो अधिकांश भारतीय समाज बिदाई दे चुका है और वैसे भी समझदारी में तो उसकी कोई सानी ही नहीं है। ऐसे ही समझदारों की एक फौज अब मांग कर रही है कि देश का पूरा पानी केन्द्र सरकार के अधीन कर दिया जाए । 
राज्यों से पानी संबंधित सभी अधिकार वापस ले लिए जाएं । इसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दिया जाए । परंतु स्थितियां इसके ठीक उलट होना चाहिये । मांग की जानी चाहिए कि पानी को पूरी तरह से पंचायत और स्थानीय समुदाय को सौंप दिया जाए ।
अपनी स्मृति को थोड़ा पीछे ले जाइये । बीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक खनन के तमाम अधिकार वहां बसने वाले समुदायों के पास थे । धीरे-धीरे उनका अतिक्रमण होता गया । पहले राज्य और बाद में केन्द्र ने जमीन के नीचे मौजूद सभी संसाधनों में से अधिकांश को अपने कब्जे में लेकर राज्यों को रायल्टी देने और समुदायों को ठेंगा दिखाना प्रारंभ कर दिया । अब पारदर्शिता के नाम पर खनिज संसाधनों की खदानों की नीलामी हो रही है और भारत की अमूल्य संपदा गिने-चुने निजी हाथों में चली जा रही है । ऐसा ही अब पानी के साथ होने की आशंका है वर्तमान केन्द्र सरकार पारदर्शिता की आड़ में पानी के स्त्रोतों की नीलमी से शायद ही हिचकिचाए । वैसे प्रायोगिक तौर पर छतीसगढ़  सरकार शिवनाथ नदी को निजी हाथों में सौंप कर मुसीबत मोल ले चुकी है । लेकिन हमारी नई संघीय सरकार पिछली गलतियांे से ``सबक`` लेकर कोई असाधारण फार्मूला लाकर पानी की नीलामी को कानूनी और व्यावहारिक जामा पहना सकती है ।
अभी जोर शोर से यह प्रचार किया जा रहा है कि राजस्थान के कोटा से पानी की रेल लातूर जा रही है और शीघ्र ऐसी ही एक रेल बुंदेलखंड के लिए भी रवाना होगी । अनुपम मिश्र ने ``आज भी खरे हैंतालाब`` में जिक्र किया है, ``२५ अप्रैल १९९० को इंदौर (म.प्र) से ५० टेंकर पानी लेकर रेलगा़़डी देवास आई । स्थानीय शासन मंत्री की उपस्थिति में ढोल नगाड़े बजाकर पानी की रेल का स्वागत हुआ । मंत्रीजी ने रेल्वे स्टेशन आई ``नर्मदा`` का पानी पीकर इस योजना का उद्घाटन किया ।`` गौरतलब है इंदौर से देवास की दूरी करीब ४० किलोमीटर है और तब इस पानी का रेलभाड़ा प्रतिदिन ४० हजार रु. था । तो सोचिए कोटा से लातूर करीब ७०० कि.मी. है तो  आज ५ लाख लीटर पानी पर कितना रेलभाड़ा लग रहा होगा ? परंतु परिस्थितियां दिनों दिन और भी जटिल होती जा रहीं हैं। 
उपरोक्त घटना के ३६ वर्ष बाद भी देवास की स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं हुआ । फर्क सिर्फ इतना पड़ा कि जो पानी रेल से जाता था अब पाइप से जा रहा है । आज शहरों में खासकर दिल्ली, मुंबई, चेन्नई जैसे महानगरों में पानी १०० से ३०० कि.मी की दूरी से आ रहा है। इसी पुस्तक में अनुपम जी इंदौर का ही एक और उदाहरण देते हैं``कुछ शहरों ने दूर बहने वाली किसी नदी से पानी उठाकर लाने के बेहद खर्चीले और अव्यावहारिक तरीके अपनाएं हैं। इंदौर का ऐसा ही उदाहरण आंख खोल सकता है। यहां दूर बह रही नर्मदा (करीब १०० कि. मी) का पानी लाया गया है । योजना का पहला चरण छोटा पड़ा तो एक स्वर से दूसरे चरण की मांग भी उठी और सन् १९९३ में तीसरे चरण के लिए भी आंदोलन चल रहा है ।``
इंदौर में पीने के पानी के  नाम पर इसके करीब ३२ वर्ष बाद सन् २०१५ में तीसरा चरण भी आ गया । इसके बाद इंदौर को करीब ३०० मिलियन लीटर (३० करोड़ ली.) पानी सिर्फ नर्मदा नदी से मिल जाता है और बाकी का १५० मिलियन लीटर अन्य स्त्रोतों से आ रहा है। तीसरे चरण के माध्यम से इंदौर तक पानी पहुंचाने का कुल खर्च करीब ६७० करोड़ रु. आया है। इसके रखरखाव व बिजली का खर्च भी नगर निगम के लिए वहन कर पाना कठिन हो जाता है । यदि विद्युत नियामक आयोग बिजली दरों में २० पैसे प्रति यूनिट की वृद्धि कर देता है तो नगर निगम की सांस ऊपर नीचे होने लगती है । सबसे विचित्र तथ्य यह है कि २४ द ७ की बात करने वाला इंदौर नगर निगम पानी की इतनी आवक के बावजूद शहर को दो दिन में सिर्फ एक बार मात्र एक घंटे पानी दे पा रहा है, वह भी बिना किसी तेज दबाव के । 
परंतु बात यहीं खत्म नहीं होती । पिछले दिनों जिला योजना समिति की बैठक में शहर की मेयर ने पानी के वितरण संबंधी सूचनाएं देते अथवा देते धीरे से बतलाया कि नर्मदा नदी से जो पानी आ रहा है उसमें से २० से २५ प्रतिशत का वितरण के दौरान और टंकियों तक पहुंचाने के दौरान अपव्यय साधारण भाषा में कहें तो लीकेज में नष्ट हो जाता है। इस रहस्योद्घाटन पर किसी भी दल या गैरसरकारी संगठनों की कोई प्रतिक्रिया न आना वास्तव में अत्यन्त आश्चर्य का विषय है । 
महापौर के हिसाब से इंदौर में प्रतिदिन करीब ७.५ करोड़ लीटर पानी व्यर्थ बह जाता है। यानी प्रति माह करीब २२५ करोड़ लीटर पानी और वर्ष भर में करीब २७०० करोड़ लीटर पानी व्यर्थ बह रहा है। क्या हम इससे बर्बादी की भयावहता का अंदाज लगा सकते हैं। लातूर में ५ लाख लीटर पानी लेकर रेलगाड़ी प्रति सप्ताह पहंुच रही है । इस हिसाब से इंदौर में प्रतिदिन जितना पानी व्यर्थ बह रहा है उससे लातूर को करीब १४५ हफ्ते तक पानी मिल सकता है । क्या पानी की कमी से जूझ रहा एक देश इतने पानी की बर्बादी को झेल सकता है ? परंतु आज किसी पर कोई जवाबदेही नहीं है और हम अपनी स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को उनकी बची कुची जवाबदारी से भी छुटकारा दिलवा देना चाहते हैं।
पानी को लेकर कुछ अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी बात करना आवश्यक है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद वंदना शिवा ने एक रिपोर्ट में बताया है कि एक ग्रामीण महिला को सिर्फ पानी लाने के लिए एक वर्ष में औसतन १४००० किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है । अब आप इससे पानी की अनुपलब्धता की त्रासदी का अंदाजा लगा सकते हैं। यह दूरी औसतन ३८ किलोमीटर प्रतिदिन पड़ती है । (इसे इस तरह समझिए किपानी के स्त्रोत के पास कितने चक्कर लगाना पड़ते हैं। अनुमान है कि सुदूर ग्रामीण अंचलों में यह दूरी प्रति चक्कर २.५ किलोमीटर पड़ती है।) यह तो हुई महिलाओं की बात । अर्थात् अपने घर में पानी लाने के लिए एक भारतीय महिला प्रतिवर्ष पूरी धरती की परिक्रमा कर लेती है । 
केन्द्र सरकार ने बताया है कि देश में कुल ३३ करोड़ ६० लाख नागरिक अकाल से प्रभावित हैंऔर इसमें से १६.४० करोड़ बच्च्े हैं। इस परिस्थिति के चलते बच्चें की स्थिति दिनांेदिन दयनीय होती जा रही है । उन्हें मानव तस्करी, जबरन या बंधुआ मजदूरी, बाल मृत्यु, स्वास्थ्य पर बुरे प्रभाव, बालविवाह का सामना और पलायन की स्थिति में शिक्षा से वंचित होना पड़ रहा है। यह बात भी सामने आई है कि बाल विवाह में से आधे से भी ज्यादा इन्हीं १० अकाल प्रभावित प्रदेशों से हैं।  
जंगलों की आग बुझाने के लिए भी पानी दूर दराज से हेलिकाप्टरों से आ रहा है । क्या हम अभी भी अपनी प्राथामिकताओं पर ध्यान नहीं देंगे । सिर्फ वर्तमान में जीने वाला समाज अपना भविष्य अंधकार में डाल देता है । 
कृषि जगत
जलवायु परिवर्तन और हमारी कृषि
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

आजकल तापमान निरन्तर बढ़ता जा रहा है । २१वीं शताब्दी के पहले १६ बरसों में १५ बरस पिछली एक शताब्दी की तुलना में सर्वाधिक गर्म रहे हैं इसके कई कारण है लेकिन इसका एक बड़ा कारण हरियाली में आ रही निरन्तर कमी   है । 
यह आश्चर्य का विषय है कि पेड़, नदियों और पहाड़ों के अलावा जीव जन्तुआें तक की पूजा करने वाले भारतीय समाज को आज इनके विनाश को लेकर उतनी चिंता नहीं है जितनी होनी चाहिए । 
तापमान में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन की समस्या केवलपर्यावरण का विषय नहीं है बल्कि यह हमारी कृषि व्यवस्था, आर्थिक और औघोगिक नीति और जीवन शैली से जुड़ा हुआ है । जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव खेती पर पड़ेगा क्योंकि तापमान, वर्षा आदि में बदलाव आने से मिट्टी की क्षमता में कमी होगी और कीट पतंगों से फैलनेवाली बीमारियां बड़े पैमाने पर होगी । गर्म मौसम होने से वर्षा चक्र प्रभावित होता है, इससे बाढ़ या सूखे का खतरा बढ़ता है । 
मालवा की बात करे तो एक समय था जब डग-डग रोटी पग-पग नीर के मुहावरे के लिए मालवांचल प्रसिद्ध था इन दिनों गायब होती हरियाली और तेजी से नीचे जा रहे भूजल स्तर के कारण मालवा की वर्तमान स्थिति को डग-डग अभाव और पग-पग प्यास के रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है । कृषि वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे है यदि तापमान ३-५ डिग्री बढ़ता है तो गेहूं के उत्पादन में १०-१५ प्रतिशत की कमी आ जाएगी ।
जलवायु परिवर्तन के कारणों को देखे तो औद्योगिकरण के कारण वर्तमान में जीवाश्म ईधनों का अधिकाधिक उपयोग हो रहा है । फलत: प्रचुर मात्रा में कार्बन-डाई-ऑक्साईड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाईट्रस ऑक्साइड जैसी गैसें उत्सर्जित होकर वायु मण्डल में मिल रही है, इससे पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है । पृथ्वी का औसत वार्षिक तापमान लगभग १५ डिग्री सेटीग्रेट है । पृथ्वी को गर्म रखने की वायुमण्डल की यह क्षमता ग्रीन हाऊस गैसों की उपस्थिति पर निर्भर करती   है । यदि ग्रीन हाऊस गैसों की मात्रा में वृद्धि हो जाए तो, वे पराबैगनी किरणों को अत्यधिक मात्रा में अवशोषित कर लेगी । परिणामस्वरूप ग्रीन हाउस प्रभाव बढ़ जाएगा, जिससे वैश्विक तापमान में अत्यधिक वृद्धि हो जाएगी । तापमान में वृद्धि की इस स्थिति को ही ग्लोबल वार्मिग कहते है । 
बढ़ते वैश्विक तापमान यानि ग्लोबल वार्मिग के लिये कोई एक कारण जिम्मेदार नहीं है वरन् इसके लिए अनेक कारण जिम्मेदार है और इन सब में महत्वपूर्ण है, मानव गतिविधियाँ । मनुष्य की उपभोगवादी प्रवृत्ति, जिसके कारण हमारी पृथ्वी का सुन्दर पर्यावरण बिगड़ता चला जा रहा है और अनेक विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न हो रही है । 
बढ़ता शहरीकरण, औद्योगिकरण, वाहनों की भीड़, क्लारो फ्लोरो कार्बन का वातावरण में रिसाव, बढ़ती विमान यात्राएें, प्रकृति के साथ किया जा रहा खिलवाड़ एवं सबसे बढ़कर हमारी विलासितापूर्ण जीवन शैली का असर पूरे विश्व पर पड़ रहा है एवं सबसे ज्यादा प्रभावित वे देश हो रहे है जिनकी आबादी ज्यादा है और विकास की दृष्टि से पीछे है । 
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कई देशों की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था पर पड़ा है । कतिपय देशों का सकल घरेलू उत्पाद और उनसे प्राप्त् होने वाली आय में प्राकृतिक संसाधनों की अहम भूमिका है । दक्षिणी एशिया के चीन व भारत दो ऐसे विकासशील देश है, जहाँ प्राकृतिक साधनों के दोषपूर्ण विदोहन से यहाँ की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ रहा है । यहा वन क्षेत्र कम हुआ है, बीसवीं सदी में भारत भूमि लगभग ३० प्रतिशत वनाच्छादित थी, जो घटकर मात्र १९.४ प्रतिशत ही रह गई है । भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्यत: कृषि आधारित है, कृषि के लिये जल का महत्व है, पहले ही मानसून की अनिश्चिता के कारण भारतीय कृषि अनिश्चितता का शिकार रही है । 
विभिन्न फसलोंके उत्पादन एवं उसकी उत्पादकता पर प्रभाव पड़ा है, फसलों पर कीटों का प्रकोप बढ़ा है, कृषि उत्पादन में कमी के कारण, कृषि पदार्थो की कीमतों में भारी वृद्धि देखी जा रही है, जिससे आम आदमी को अपनी रोजमर्रा की आवश्यकता को पूरा करने में भारी कठिनाईयों को सामना करना पड़ रहा है । जलवायु परिवर्तन के कारणों से मानव का स्वास्थ्य भी अछूता नहीं है । स्वाईन फ्लू, डेंगू, चिकन गुनिया, बर्ड फ्लू, कैंसर इत्यादि बीमारियों की संख्या बढ़ी है । 
हमारी कृषि व्यवस्था पर प्रसिद्ध विज्ञान लेखक प्रो. दिनेश मणि का कहना है भारत में वैज्ञानिक कृषि का शुभारंभ १६वीं शताब्दी में हुआ । जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि होने के कारण कृषि उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता पड़ी । नई नीतियों का जन्म हुआ जिनका सीधा प्रभाव कृषि पर पड़ा । नकदी खेती के लिए गन्ना, कपास, तम्बाकू, चारा, पशु उत्पादन, ऊन और चमड़ा पैदा करने पर ध्यान दिया गया । १९वीं शताब्दी में यातायात के साधनों से कृषि के विकास को बल मिला । नदियों से नहरे निकालने की योजनाआें को क्रियान्वित किया गया । मृदा पर परीक्षण किए गए तथा उन्हें विभिन्न भागों में उनके विन्यास के अनुसार बांटा गया । उर्वरता पर आधारित पूरे देश की मृदाआें को नक्शे पर लाया गया । मृदाआें एवं जलवायु की विविधताआें को ध्यान में रखकर उपयुक्त फसलें एवं फसल पद्धतियां सुझाई गई । सिंचित एवं बारानी खेती के लिए कृषि तकनीकों का ज्ञान एवं विकास इन्हीं दिनों में प्रारंभ हो गया था । इस प्रकार कृषि के क्षेत्र में भारत प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने लगा । 
यह सर्वविदित है कि हमारा देश कृषि प्रधान देश है । कृषि पर सबसे अधिक दबाव देश में बढ़ती जनसंख्या का है । देश के ३२ करोड़ ९० लाख हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्रफल में से खेती केवल १४ करोड़ ३० लाख हेक्टेयर में ही की जाती है । हमें वर्तमान में इन उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों द्वारा ही कृषि उत्पादों में बढ़ोतरी करनी होगी ।
भारतीय कृषि में किसान और पर्यावरण का सीधा संबंध है तथा किसान कृषि और पर्यावरण के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी है । इसलिए किसानों को ऐसी खेती करनी चाहिए जिससे खेती में उन्नति के साथ-साथ पर्यावरण को भी शुद्ध बनाये रखा जा सके । जलवायु परिवर्तन के कारण फसलोंकी उत्पादकता एवं गुणवत्ता में कमी आएगी तथा अनेक फसलों के उत्पादन क्षेत्रों में परिवर्तन होगा । तापमान में वृद्धि के फलस्वरूप फसलों की वानस्पतिक वृद्धि, पुष्पन तथा परिपक्वन अवधि में भी परिवर्तन होंगे । जलवायु परिवर्तन के कारण सूखा, अतिवृष्टि तथा चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाआें में वृद्धि होगी । जलवायु परिवर्तन के कारण खेती के लिए जल की उपलब्धता घटेगी, मृदा अपरदन बढ़ने तथा मृदा में कार्बन की मात्रा घटने से उर्वरता घटेगी और इसका सबसे अधिक असर विकासशील देशों पर पड़ेगा । 
जलवायु परिवर्तन के संभावित दुष्प्रभावों से कृषि को बचाने के लिए अनुकूलन हेतु अनेक कार्यनीतियोंको मूर्तरूप देना होगा । फसलों एवं जीव-जन्तुआें में स्वाभाविक रूप से काफी हद तक अपने आपको ढालने की क्षमता होती है जिसे प्राकृतिक अनुकूलन करते हैं । हमें परम्परागत या आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल कर फसलों की ऐसी प्रजातियां विकसित करनी होगी जो उच्च् तापमान को सह सके । वहीं दूसरी ओर कृषि प्रबंध तकनीकों में सुधार करके हम जलवायु परिवर्तन के संभावित प्रभावोंको काफी हद तक कम कर सकते है । जैसे बुआई का समय, रासायनिक उर्वरकों का संतुलित प्रयोग, कृषि विविधिकरण इत्यादि ऐसी क्रियायें हैं जिनके द्वारा हम जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को काफी  हद तक नियंत्रित कर सकते है । कृषि क्षेत्र में अनुकूलन हेतु नयी प्रणालियों में प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करते हुए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी । 
इस कार्य को पूरा करने के लिए टिकाऊ खेती के सिद्धांतोंको समझने व उनके अनुसरण पर जोर देना होगा । पारंपरिक खेती के साथ-साथ कृषि वानिकी, जैविक खेती, न्यूनतम जोत, समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन तथा समन्वित नाशीजीव प्रबंधन को अपनाने की आवश्यकता है । तभी हम कृषि को सुरक्षित रख पायेंगे तथा पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचा सकेंगे । बढ़ते तापमान, समुद्री तूफान व अन्य प्राकृतिक आपदाआेंकी चुनौती का सामना करने के लिए अनुसंधानकर्ताआें को एकजुट प्रयास करने चाहिए । कृषि में सुधार के साथ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाने के विकल्पों की खोज भी अत्यन्त आवश्यक है । 
सम्पूर्ण कृषि विकास के लिए समेकित जलप्रबंधन द्वारा जल की प्रत्येक बूंद का इस्तेमाल कृषि में करने की आवश्यकता है । उन्नत कृषि तकनीकी के प्रचार-प्रसार के लिए कृषि शिक्षा के पाठ्यक्रम को नया रूप देना होगा ताकि कृषि शिक्षा, अनुसंधान विस्तार और भारतीय कृषि में आवश्यकताआें के अनुरूप जनशक्ति तैयार की जा सके । इससे हमारी कृषि और कृषकों को मजबूती मिलेगी । 
मानव जीवन में तीन बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी और उपजाऊ मिट्ठी मुख्य रूप से वनों पर ही आधारित है । इसके साथ ही पेड़ से कई अप्रत्यक्ष लाभ भी है जिनमें खाद्य पदार्थ, औषधियों, फल-फूल, इंर्धन, पशु आहार, इमारती लकड़ी, वर्षा सन्तुलन, भूजल संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता आदि प्रमुख है। 
पेड़ और पर्यावरण की रक्षा की महान विरासत हमारी राष्ट्रीय धरोहर है । हमने सबसे पहले संसार को संदेश दिया कि पेड़ों से हमारे पारिवारिक रिश्ते है, हम उसे अपना भाई मानते है, उसकी रक्षा में प्राणों की बलि देने में हम संकोच नहीं करते है । 
अतीत में देखे तो पेड़ लगाने और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए हमारे देश में प्राचीनकाल से ही प्रयास होते रहे है जिसमें सरकार और समाज दोनों ही समान रूप से भागीदार होते थे राजा सड़क किनारे छायादार पेड़ लगवाते थे तो जन सामान्य इनके संरक्षण की जिम्मेदारी निभाता था इस प्रकार राज और समाज के परस्पर सहकार से देश में एक हरित संस्कृति का विकास हुआ जिसने वर्षो तक देश को हरा भरा रखा आज की विषम परिस्थिति में इसी विचार से हरियाली का विकास होगा जिसकी आज सर्वाधिक आवश्यकता है ।
ज्ञान-विज्ञान
पेड़ शाखाएं झुकाकर सोते हैं 
पेड़ शायद खर्राटे न लेते हो मगर नींद के दौरान शायद उनके बदन चटकते है । पहली बार यह अवलोकन किया गया है कि रात के समय पेड़ों के शरीर मेंभौतिक परिवर्तन होते हैंं जो नींद के समान माने जा सकते हैं । नींद की बात छोड़ दें तो भी ये परिवर्तन पेड़ों में दिन-रात के चक्र को तो दर्शाते ही   है । ऐसे परिवर्तन पहले छोटे-छोटे पौधों में ही देख गए थे । 
भूर्ज के पेड़ों पर किए गए अवलोकनों से पता चला है कि रात पूरी होते-होते इनकी शाखाएं पूरे १० से.मी. तक झुक जाती है । हंगरी के इकॉलॉजिकल रिसर्च सेन्टर के एंड्रास ज्लिस्की का कहना है कि यह प्रभाव पूरे पेड़ पर देखा गया और अदभूत  था ।  उनके अनुसार ऐसा प्रभाव पहले किसी ने नहीं देखा था जबकि परिवर्तन काफी बड़ा था ।
ज्ंलिस्की और उनके साथियों ने ऑस्ट्रिया और फिनलैण्ड में भुर्ज पेड़ों का अध्ययन किया है । उन्होंने अपने अध्ययन के लिए सूर्यास्त से सूर्योदय के बीच इन पेड़ों को लेसर पूंजों से स्कैनिंग किया था । लेसर पुंज को पेड़ पर एक ही जगह से डाला जा रहा था । इस पुंज को शाखाआें और तने से टकराकर वापिस आने में लगने वाले समय के आधार पर प्रत्येक पेड़ की गति को नापा जा सकता है । और यह मापन तीन आयामों में हो सकता है और इसकी विभेदन क्षमता १ से.मी. है । 
ऐसे अध्ययन पहले सिर्फ छोटे पौधों पर किए थे और संभवत: बड़े पेड़ों पर ऐसा अध्ययन पहली बार किया गया है । टीम ने भुर्ज के दो पेड़ों को स्कैनिंग के लिए चुना था । एक पेड़ ऑस्ट्रिया में था और दूसरा फिनलैण्ड में । प्रत्येक पेड़ का स्कैनिंग पूरी एक रात के लिए किया गया । फिनलैण्ड के पेड़ का स्कैनिंग हर एक घंटे बाद किया गया जबकि आस्ट्रिया के पेड़ को हर १० मिनट में एक बार स्कैन किया गया । टीम ने लेसर पुंज का इस्तेमाल इसलिए किया था ताकि फोटोग्राफी के दौरान हर बार फ्लैश चमकाने से पेड़ का कुदरती चक्र न गड़बड़ा जाए । 
स्कैनिंग के लिए ऐसी रातें चुनी गइ्र थी जब हवा न चल रही हो ताकि हवा के चलने के असर से बचा  सके । दोनों पेड़ दिन व रात की अवधियों के लिहाज से एक-सी स्थितियों में थे । 
ज्ंलिसकी का मत है कि शाखाआें के ढलने का कारण शायद यह है कि कोशिकाआें के अंदर पानी का दबाव कम हो जाता है जिसकी वजह से उनमें उतना तनाव नहीं रह पाता और वे अपने ही वजन से झुक जाती है । यह भी हो सकता है कि पेड़ आराम फरमा रहा हो । दिन के समय शाखाएं ऊपर की ओर तनी रहे तो धूप मिलने में आसानी होती है । मगर उन्हें तानकर रखने में ऊर्जा खर्च होती है । तो जब रात में रोशनी के लिए जद्दोजहद न करना हो तो शाखाआें को तानकर रखने में कोई तुक नहीं है ।
तो सवाल है कि क्या शाखाआें का झुकना सक्रिय प्रतिक्रिया है जो रात-दिन के चक्र को दर्शाती है या क्या यह पानी और धूप की उपलब्धता के नियंत्रण में  है ? इस सवाल का जवाब देने के लिए पहले तो ऐसे प्रयोग अन्य प्रजातियों पर भी करने होंगे । उसके बाद ही यह देखने का मौका आएगा कि इसकी क्रियाविधि क्या है । 

पतंगे और चमगादड़

पिछले करीब ६.५ करोड़ वर्षो से चमगादड़ों और टाइगर मॉथ्स (व्याघ्र शलभ) के बीच हथियारों की होड़ जारी है । चमगादड़ प्रतिध्वनि की मदद से पतंगों की स्थिति को भांपकर उनका भक्षण करते हैं और पंतगे उनकी आवाज को सुनकर उन्हें छकाते रहते हैं । इसके अलावा पतंगे इस होड़ में खुद अपनी तीक्ष्ण आवाज (अल्ट्रासाउंड) का भी उपयोग करते है । 
वैज्ञानिकों के मन में यह प्रश्न बरसों से था कि क्यों कुछ पतंगे ऊंची आवृत्ति वाली ऐसी टिक-टिक पैदा करते है जो सुनने में ऐसी लगती है मानो फर्नीचर चरमरा रहा हो । एक जवाब यह लगता था कि शायद इस आवाज से वे चमगादड़ की प्रतिध्वनि तकनीक को जाम कर देते होंगे । वहीं दूसरा जवाब यह भी  समझ में आता था कि शायद इस आवाज से वे चमगादड़ों का आगाह करते है कि पंतगे जहरीले होते हैं । 
इस बात का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने दो तरह के टाइगर मॉथ लिए । एक थे लाल सिर वाले मॉथ और दूसरे थे मार्टिन्स लाइकेन मॉथ । इसके बाद उन्होंने इनमें से कुछ कीटों के ध्वनि पैदा करने वाले अंग हटा दिए । अब एरिजोना के घास के मैदान में प्रयोग की तैयार की    गई । वहां इंफ्रा रेड वीडियो कैमरे लगाए गए, अल्ट्रासोनिक माइक्रोफोन लगाए गए और पराबैंगनी रोशनियां चमगादडों को आकर्षित करने के लिए लगाई गई थी । 
अंधेरे में उन्होंने पंतगों को एक-एक करके छोड़ और चमगादड़ पतंगा अंतक्रिया का पूरा रिकॉर्ड  किया । उन्होंने पाया कि पतंगे अल्ट्रासोनिक टिक-टिक कभी-कभार ही इतनी तेजी से पैदा कर पाते हैं कि उससे चमगादड़ का प्रतिध्वनि तंत्र जाम हो सके । उन्होनें यह भी देखा कि अल्ट्रासोनिक ध्वनि पैदा करने का उपकरण न हो तो ६४ प्रतिशत लाल सिर वाले और ९४ प्रतिशत लाइकेन मॉथ पकड़े तो जाते है मगर वापिस थूक दिए जाते हैं । 
प्लॉस वन नाम ऑनलाइन शोध पत्रिका में प्रकाशित इन परिणामों के आधार पर शोधकर्ताआें का निष्कर्ष है कि टाइगर पतंगों की कुछ प्रजातियों के विपरीत ये प्रजातियां चमगादड़ के प्रतिध्वनि सिस्टम को जाम नहीं करती बल्कि उन्हें अपने जहरीले होने की चेतावनी देती है । 

क्या समंदरों में ऑक्टोपस वगैरह का राज होगा ?

ऑस्ट्रेलिया के एडीलेड विश्वविद्यालय की जो डबलडे और उनके साथी अध्ययन तो कर रहे थे समुद्र में एक स्थानीय प्रजाति- ऑस्ट्रेलियन कटलफिश की तादाद में गिरावट का मगर उन्होनें पाया यह कि दरअसल समुद्र में ऑक्टोपस और संबंधित प्रजातियां की संख्या तेजी से बढ़ी है । 
कटलफिश वास्तव में मछली नहीं होती बल्कि यह प्राणि जगत के समुदाय सेफेलोपोडा की सदस्य है । इस समुदाय मेंऑक्टोपस वगैरह प्राणि शामिल है । डबलडे यह जानना चाहती थी कि कटलफिश की आबादी में जो गिरावट देखी गई है वह किसी कुदरती चक्र का हिस्सा है या कुछ और । इसके लिए उन्होनेंसेफेलोपॉड मत्स्याखेट के सर्वेक्षणों के आंकड़े देखे । ये आंकड़े आम तौर पर सामान्य मत्स्याखेट के दौरान पकड़े गए सेफेलोपॉडस के होते हैं, जिन्हें आम तौर पर वापिस समुद्र में फेंक दिया जाता है ।
जब उन्होंने देखा कि पिछले ६ दशकों में दुनिया भर के समुद्रों में, तटवर्ती और गहरे दोनों समुद्रों में सेफेलोपॉड्स की संख्या नाटकीय ढंग से बढ़ी है, तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा । और यह भी पता चला कि २०१३ के बाद कटलफिश की संख्या भी बढ़ने लगी है । मगर जब डबलडे का सरोकार सिर्फ कटलफिश तक सीमित नहीं था । 
विश्व सतर पर सेफेलोपॉड्स की संख्या में वृद्धि का कारण स्पष्ट नहीं है अलबत्ता कुछ सशक्त परिकल्पनाएं जरूर विकसित की गई है ।  एक परिकल्पना तो यह है कि जब मत्स्याखेट में बेतहाशा वृद्धि होती है तो समुद्र में मछलियों की संख्या घटती है । ये मछलियां सेफेलो-पॉड्स प्राणियों का शिकार करके भक्षण करती हैं । शिकारी के नहोने पर शिकार को संख्या वृद्धि का मौका मिल जाता है । 
इस संदर्भ में इक्वेडोंर के जीव वैज्ञानिक रिगोबर्टो लोसास-लुइस का कहना है कि सेफेलोपॉड्स सामान्यत: बड़ी संख्या में बच्च्े पैदा करते हैं और इनका जीवन चक्र छोटा होता है । इस वजह से किसी भी इकोतंत्र में रिक्त हुई जगह को भरने में ये मुफीद होते है । 
अभी यह कहना मुश्किल है कि क्या सेफेलोपॉड्स की संख्या वृद्धि अच्छी बात या नहीं 

शुक्रवार, 17 जून 2016

वानिकी जगत
मानव जीवन के प्राण है वृक्ष
कृष्णचंद टवाणी

समुद्र मंथन के समय अमृत  के साथ कालकूट विष भी जन्मा   था ।  भगवान शिव ने इस विष को पीकर देवों और दानवों दोनों की रक्षा की थी । विज्ञान बताता है कि शिव ही की तरह वृक्ष भी कार्बन-डाई-ऑक्साइड रूपी कालकूट विष पीकर अमृततुल्य प्राणवायु का अनुदान वातावरण में फैला रहे है ताकि इस जैविक सृष्टि की रक्षा संभव हो   सके ।
इंडियन बायलोजिस्ट के अनुसार प्राणी जगत के लिए यदि एक वृक्ष की उपयोगिता का मूल्यांकन किया जाये तो उसे वृक्ष का मूल्य प्रदूषण नियंत्रण, ऑक्सीजन निर्माण, आर्द्रता नियंत्रण, मिट्टी संरक्षण, पशु-पक्षी संरक्षण, जैव प्रोटीन तथा जल क्रम निर्माण आदि में लगभग १५ लाख ७० हजार रूपये बैठता है । 

पेड़ों का मानव जीवन में अत्यधिक महत्व है । आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक तथा वैज्ञानिक सभी दृष्टियों से पेड़ अत्यन्त उपयोगी है । पर्यावरण संतुलन में पेड़ों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । इतना ही नहीं पेड़ मानव को विभिन्न औषधियां प्रादन करते है । इसलिए पुरातनकला से पेड़ों की पूजा की जाती है । पेड़ भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग   है । भारतीय मनीषी पर्यावरण संरक्षण पर सदैव से जोर देते आये हैं । भारत में रीति-रिवाजों व तीज-त्यौहारों के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण के उपाय किये जाते रहे हैं । विभिन्न अवसरों पर पेड़ लगाना उनकी जीवन पद्धति में समाहित है । भारतीय संस्कृति में अनेक विविधताआें के बाद भी पेड़ों के संरक्षण और संवर्द्धन की परम्परा अविच्छिन्न रूप से विद्यमान है । जन्म से मृत्यु तक सभी संस्कारों में पेड़ किसी ने किसी रूप में काम आते    हैं । इसीलिए भारत में पेड़ लगाने के पुण्य और पेड़ काटने को पाप का कार्य माना गया है । 
वनस्पति से मानव रहित सभी प्राणियों का पोषण होता है । पेड़ प्रदूषण को सोखकर प्राणी जगत को प्राणवान वायु प्रदान करते हैं । एक अनुमान के अनुसार एक हेक्टेयर क्षेत्र में सघन पेड एक वर्ष में लगभग साढ़े तीन टन दूषित कार्बन डाई ऑक्साइड को सोखकर लगभग दो टन जीवन रक्षक आक्सीजन छोड़ते  है । पेड़ रेगिस्तान को बढ़ने से रोकते हैं । पेड़ शोर प्रदूषण को भी कम करते हैं । पेड़ों की आकर्षक शक्ति बादलों से वर्षा कराती है । पेड़ों से भोजन ही नहीं ईधन और आवास के लिए लकड़ी भी प्राप्त् होती है । पेड़ थके-हारे पथिक को छाया देते हैं । पेड़ रोजगार के अवसर उपलब्ध कराते हैं । लघु एवं कुटीर उद्योगों के लिए बांस, बेंत, मोम, शहद, लकड़ी, गोंद, रबड़, जड़ी बूटियां, कत्था, रेशम आदि की प्रािप्त् वनों से ही होती है । पेड़ों की पत्तियों से कृषि के लिए खाद प्राप्त् होती है । वन उत्पादों के निर्यात से देश की अर्थव्यवस्था को बल मिलता है । वन औघोगीकरण आदि से होने वाले प्रदूषण से प्रभाव को कम करने में सहायक होते हैं । पेड़ की अधिकता भूमि की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाती है । वास्तव में पेड़ मानव को ईश्वर की ऐसी देन है कि जिसके गुणों की कोई सीमा नहीं है । पेड़ की उपयोगिता के कारण ही देश के विभिन्न अंचलों से पेड़ों को लेकर अलग-अलग परम्परायें प्रचलित है ।
ऋग्वेद और अथर्ववेद में पेड़ों के महत्व पर अधिक बल दिया गया है । ऋग्वेद में सोम वृक्ष और अथर्ववेद में पलाश वृृक्ष की पूजा का वर्णन मिलता है । मॉ शीतला को पलाश वृक्ष की देवी माना गया है । आज भी चेचक निकलने पर पलाश वृक्ष के नीचे निवास करने वाली माँ शीतला की पूजा की जाती है तथा नीम के पत्तों से मरीज को हवा की जाती है । नीम के पत्तों में कीटाणुआें को नष्ट करने के औषधीय गुण होते हैं । पेडों में पानी देना पुण्य का कार्य माना जाता है । पेड़ों के संरक्षण व सम्वर्द्धन के लिए यह जरूरी भी है । अभिज्ञान शाकुन्तलम में वर्णन मिलता है कि शकुन्तला पेड़ों को जल दिये बिना कुछ नहीं खाती थी । वह पेड़ों से इतना प्रेम करती थी कि अपने श्रृंगार के लिए फूलों और पत्तों को नहीं तोड़ती थी बल्कि पेड़ों के नीचे गिरे फूल पत्तों को नहीं तोड़ती थी बल्कि पेड़ों के नीचे गिरे फूल पत्तोंसे अपना श्रृंगार करती थी । समाज में आज भी ऐसी मान्यता है कि पेड़ों को नियमित पानी देने से मनवांछित फल की प्रािप्त् होती है । आज भी लोग शनिवार के दिन पीपल के पेड़ की जड़ में जल चढ़ाकर मन को शांत करते हैं । 
हमारे ऋषि मनीषियों ने पेड़ों की पूजा का विधान बनाकर पेड़ों के संरक्षण और सम्वर्द्धन का मार्ग प्रशस्त किया । पेड़ों के विकास के लिए उन्होंने अनेक सामाजिक व धार्मिक मान्यताये स्थपित की । पेड  को पुत्र के समान बताया गया है । प्राचीन ग्रंथो में उल्लेख मिलता है कि जो वृक्षों को काटता है वह धन व संतान से वंचित हो जाता है । पुरातन काल से पेड़ों के संरक्षण के लिए इस प्रकार का धार्मिक भय समाज में उत्पन्न किया गया था । केवल सूखे पेड़ काटे जाने को उचित माना गया था । हर पेड़ काटने से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है । इसलिए हरे पेड़ों को काटा जाना सदा निषिद्ध रहा है । 
वनों का भूमि, हवा और जल पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है । कभी-कभी वनों का प्रभाव जलवायु नियंत्रित करने वाले सभी कारकों से अधिक होता है । वनों द्वारा सूर्य के प्रकाश के सोख लिया जाता है । जिससे पर्यावरण के तापक्रम में कमी आती है किन्तु दुर्भाग्य यह है कि अज्ञानी मानव द्वारा विकास की अंधी दौड़ में अनजाने ही वनों का अंधाधंुध काटा जा रहा है । वनों का काटकर मनुष्य अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी चला रहा है । उसको ध्यान ही नहीं है कि जो उसका पोषक है, वह उसी को नष्ट कर रहा है । वनों के बिना जीवन के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती । राष्ट्रीय वन योजना आयोग के अनुसार स्वच्छ पर्यावरण के लिए कुल क्षेत्रफल के एक तिहाई भाग में घने वन होना जरूरी है । भारत में प्रतिवर्ष बारह लाख हेक्टेयर वन काटे जा रहे है । यदि वन काटने की यही गति चलती रही तो शताब्दी के अंत तक केवल पाँच प्रतिशत भूभाग पर वन रह जायेंगे । 
वनों के तीव्र गति से कटने के कारण पर्यावरण संतुलन में कमी आयी है । परिणाम स्वरूप कहीं बाढ़ का खतरा उत्पन्न हुआ है तो कही रेगिस्तान का विस्तार हुआ है । अंग्रेज भू-वैज्ञानिक रिजी केण्डर की खोज के अनुसार, जहाँ अब रेगिस्तान है, वहाँ पहले कभी खेती होती थी, वन भी थे औश्र नदियां भी बहती थी, पर लोगों ने लकड़ी के लालच में पेड़ों को काट डाला । जिस कारण वन नष्ट हो गये और भूमि उर्वरता भी लुप्त् हो गयी । नदियों का पानी भाप बनकर उड़ गया । अब बंजर रेगिस्तान है । वैज्ञानिक ने चेतावनी दी है कि यदि वनों के विनाश को नहीं रोका गया तो राजस्थान के रेगिस्तान का विस्तार कोई नहींरोक सकेगा । फ्रांसीस लेखक रेनेदेवातेब्रि ने रेगिस्तानों के लिए मानव को जिम्मेवार ठहराया है, उसका कहना है कि जंगल मनुष्य के जन्म से पहले थे, रेगिस्तान मनुष्य के कारण बने  है । 
वन विनाश और असंतुलित औद्योगिक विकास के दिनों-दिन प्राकृतिक व्यवस्था में बाधा उत्पन्न हो रही है । कार्बन डाईआक्साइड को सोखने वाले पेड़ों के अभाव में वातावरण में कार्बन डाईआक्साइड बढ़ती जा रही है । यह गैस धूप को पृथ्वी पर आने तो देती है वापस नहीं जाने देती, जिस कारण वायुमण्डल का ताप धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है । वैज्ञानिकों का अनुमान है कि कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा इसी प्रकार बढ़ती रही तो अगले तीस चालीस वर्षो में धरती का ताप ३ से ५ डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ जायेगा । परिणाम स्वरूप जहाँ रेगिस्तान बढ़ सकते हैं वही धु्रवों की बर्फ पिघलने से सागरों का जलस्तर ऊँचा होने से दुनिया के अनेक नगर जलमग्न हो सकते हैं । वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तर भारत में बाढ़ आने का प्रमुख कारण हिमालय क्षेत्र में वन विनाश है, जिससे नदियों की जल धारण क्षमता कम हो जाती है और फालतू पानी नदियों के किनारों को तोड़कर बहने लगता है, इसी से बाढ़ की रचना होती है । 
कुछ वर्ष पहले डॉ. जेम्स हेनसेन ने अमरीका सीनेट में चेतावनी दी थी कि ग्रीन हाउस प्रभाव ने पृथ्वी की जलवायु को बदलना प्रारंभ कर दिया है, जिससे हिमशिखर पिघलेंगे, समुद्र की लहरें टापुआें और बस्तियों को जलमग्न कर देंगी, पृथ्वी पर केवल एक ही ऋतु होगी - गर्मी की, जिसमें मानव, जन्तु और पेड़-पौधे झुलसने लगेगे । तब वायुमण्डल के बढ़ते तापमान मे हमारी स्थिति होगी प्रेशर कुकर में रखे बैंगन की तरह, असहाय और निरूपाय । 
वन विनाश के दुष्परिणामों को देखते हुए स्काटलैंड के विज्ञान लेखक राबर्ट चेम्बर्स ने लिखा है कि वन नष्ट होेते हैं, तो जल नष्ट होता है, पशु, पक्षी और जलचर नष्ट होते है । उर्वरता नष्ट होती है और बाढ़, सूखा, आग, अकाल एवं महामारी के प्रेत एक के पीछे एक प्रकट होने लगते हैं । वन संरक्षण और सम्वर्द्धन के लिए प्रत्येक काल में व्यवस्थायें की गयी । चन्द्रगुप्त् मौर्य के शासनकाल में वन संरक्षण हेतु वन अधीक्षक नियुक्त किये जाते थे, सम्राट अशोक के समय में सड़कों के दोनों ओर वृक्षारोपण पर बल दिया जाता  था । बादशाह अकबर ने अपने शासनकाल में राजमार्गो और शहरों के किनारे पेड़ लगवाने में गहरी दिलचस्पी ली थी । 
वर्तमान समय में भी सरकार की ओर से वन संरक्षण और सम्वर्द्धन के लिए व्यापक प्रयास किये गये है । सर्वप्रथम १९५२ में राष्ट्रीय वन नीति की घोषणा की गयी । विभिन्न पंचवर्षीय योजनाआें में वन क्षेत्र के अनुर्स्थापन को सर्वोच्च् प्राथमिकता दी गयी । १९७८ से समाज हित में वनों के विकास के लिए सामाजिक वानिकी कार्यक्रम चलाया जा रहा है, जिसका उद्देश्य लकड़ी प्राप्त् करने के अलावा पशुआें के लिए चारा व खाद प्राप्त् करना, फसलों की रक्षा करना, मनोरंजन स्थलों का विकास करना, बाढ़ रोकना, आवास निर्माण आदि भी है । सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के अन्तर्गत घटते हुए वन क्षेत्र को बढ़ाने का प्रयत्न किया जा रहा है । नेशनल रिमोट सेन्सिंग एजेन्सी के अनुसार देश में वन कुल भूमि के लगभग ग्यारह प्रतिशत क्षेत्र में रह गये है जबकि यह ३३ प्रतिशत होने चाहिए । 
इस वर्ष देश में गर्मी सारे रिकार्ड तोड़ रही है इसका कारण भी है वृक्षों की कमी होना । आज भीषण जल संकट की समस्या सभी नगरों व देशों में उत्पन्न हो रही है वैज्ञानिकों ने जल संकट का कारण वृक्षों को अत्यधिक काटना ही बताया है । जल संकट से मनुष्यों का जीवन भी संकट में आ गया है । इस संकट का एक मात्र समाधान सघन वृक्षारोपण ही    है । इसलिए मानव एवं जीव मात्र की रक्षा हेतु अधिकाधिक वृक्ष लगाये तथा उनका पोषण करिये ।