गुरुवार, 19 जनवरी 2017


प्रसंगवश
पर्यावरण चेतना के संकल्प के तीन दशक

इस अंक से पर्यावरण डाइजेस्ट अपने नियमित प्रकाशन के इकतीसवें वर्ष में प्रवेश कर रही है । 
पिछले तीन दशक लघु समाचार पत्रों एवं पत्रिकाआें के लिये चुनौतीपूर्ण रहे है । इसी कालखण्ड में हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिकायें एक-एक कर बंद हो गयी । वही दूसरी ओर हिन्दी पत्रिकाआें के उदय का भी यह काल खंड साक्षी रहा है । भारत सरकार की प्रेस इंडिया २०१५-१६ रिपोर्ट के अनुसार ३१ मार्च २०१६ तक कुल प्रकाशनों की संख्या १,१०,८५१ तक पहुंच  गयी । इसमे हिन्दी समाचार पत्र और पत्रिकाआें की संख्या ४४,५५७ है ।   इस मासिक पत्रिका में बेहद सीमित साधनों और प्रबल इच्छाशक्ति के बलबूते ३० वर्षो का लम्बा सफर तय किया है । हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में पर्यावरण को समर्पित यह पहली और विशिष्ट पत्रिका है । पत्रिका में अब तक पर्यावरण से जुड़े विभिन्न विषयों पर राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय लेखकों, पत्रकारों, विचारकों और सामाजिक कार्यकर्ताआें के ४२०० से अधिक लेख प्रकाशित हुए है । 
पिछले तीन दशकों में हमने देखा कि व्यवसायिक पत्रिकाआें की बढ़ती भीड़ में रचनात्मक पत्रिका को जिंदा रखना संकटपूर्ण तो है लेकिन असंभव नहीं है । पर्यावरण चेतना का यह छोटा सा दीपक अनेक संकटों के बावजूद निरन्तर प्रकाशमान बना रहा तो इसके पीछे हमारे पर्यावरण प्रेमी मित्रों की शक्ति का संबल था, यही संबल हमारे वर्तमान और भविष्य की यात्रा की गति और शक्ति का आधार है । 
पर्यावरण डाइजेस्ट ने कभी किसी सरकार संस्थान या आंदोलन का मुखपत्र बनने का प्रयास नहीं किया, पत्रिका की प्रतिबद्धता सदैव जन सामान्य के प्रति रही है । इसी प्रतिबद्धता को एक बार पुन: दोहराना चाहते है । 
पत्रिका के नियमित प्रकाशन में जिन मित्रों का सहयोग/समर्थन मिला उन सभी के प्रति हम कृतज्ञता ज्ञापित करते है और आशा करते है कि भविष्य में भी मित्रों का इसी प्रकार स्नेह और सहयोग मिलता रहेगा ।
सम्पादकीय
प्रकृति का शोषण बंद करना होगा 
 प्रसिद्ध भौतिकविद् स्टीफन हॉकिंग का कहना है कि मानव जाति अपने इतिहास में आज सबसे अधिक खतरनाक वक्त का सामना कर रही है । विश्व की आबादी लगातार बढ़ रही है और प्राकृतिक संसाधन खत्म हो रहे है । पर्यावरण नष्ट हो रहा है । प्रकृति के साथ सन्तुलन बनाने वाले वन्य जीवों की प्रजातियां लुप्त् हो रही है । 
वैज्ञानिक बताते हैं कि दस हजार साल पहले तक धरती पर महज कुछ लाख इंसान थे । १८वीं सदी के आखिर में आकर धरती की आबादी ने सौ करोड़ का आंकड़ा छुआ था । १९२० में धरती पर दो सौ करोड़ लोग हुए । आज दुनिया की आबादी सात अरब से ज्यादा है । साल २०५० तक यह आंकड़ा करीब दस अरब और २२वीं सदी के आते-जाते धरती पर      ११ अरब इंसान होने का अनुमान जताया जा रहा है । 
हम जिस तकनीकी और प्रौघोगिकी विकास का गुणगान करते हैं, वह हमारे नियंत्रण में नहीं है, इसीलिए स्टीफन कहते हैं कि हमारे पास अपने ग्रह को नष्ट करने की प्रौघोगिकी है, लेकिन इससे बच निकलने की क्षमता अब तक हमने विकसित नहीं की है । 
वैज्ञानिक स्टीफन ने प्रकृतिके साथ लगातार किए जा रहे खिलवाड़ को लेकर जो चेतावनी जारी की है, उस पर पूरी दुनिया को तत्काल अमल करने की जरूरत है, ताकि विकास की अंधी दौड़ में हम इंसानी बस्तियों को कब्रिस्तान में बदलने की आदत से बाज आएं । साथ ही इंसानों को अपनी जीवनशैली में तत्काल बदलाव करने की भी जरूरत है । 
प्रकृति के जबरदस्त दोहन के परिणाम पहले भी हमारे सामने आते रहे हैं । कही बाढ़, कहीं सूखा तो कहीं भूकंप की त्रासदी से हमारा सामना होता ही रहता है । ये आपदाएं हमारे लिए सबक के समान ही है । धरती पर मानव सभ्यता को दीर्घजीवी बनाने के लिए मानव को अपनी जीवनशैली में तत्काल बदलाव लाने की जरूरत है । 
सामयिक
समुद्र तटीय क्षेत्रों की गहराती समस्याएं
भारत डोगरा

भारत में समुद्र तटीय क्षेत्र लगभग ७००० कि.मी. तक फैला हुआ है । विश्व के सबसे लंबे समुद्र तटीय क्षेत्रों वाले देशों में भारत की गिनती होती है । 
समुद्र तट सदा अपनी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध रहे हैं और विश्व के अन्य देशों की तरह भारत में भी समुद्र तट के अनेक क्षेत्र पर्यटक स्थलों के रूप में विकसित व विख्यात हुए हैं । किन्तु समुद्र तटीय क्षेत्रों का एक दूसरा पक्ष भी है जो उनके प्राकृतिक सौंदर्य के कारण छिपा रह जाता है । यह हकीकत यहां जीवन के बढ़ते खतरों के बारे मेंहै । 
समुद्र तटीय क्षेत्रों में आने वाले कई तूफान व चक्रवात पहले से अधिक खतरनाक होते जा रहे हैं । इसे वैज्ञानिक जलवायु बदलाव से जोड़ कर देख रहे हैं । जलवायु बदलाव के कारण समुद्र में जल-स्तर का बढ़ना निश्चित है । इस कारण अनेक  समुद्र तटीय क्षेत्र डूब सकते हैं । समुद्र तट के कई गावों के जलमग्न होने के समाचार मिलने भी लगे हैं । 
भविष्य में खतरा बढ़ने की पूरी संभावना है जिससे गांवों के अतिरिक्त समुद्र तट के बड़े शहर व महानगर भी संकटग्रस्त हो सकते   हैं । जहां समुद्र तटीय क्षेत्रों के पर्यटन स्थलों की सुंदरता व पर्यटकों की भीड़ की चर्चा बहुत होती हैं, वहीं पर इन क्षेत्रों के लिए गुपचुप बढ़ते संकटों की चर्चा बहुत कम होती   है । हमारे देश में समुद्र तटीय क्षेत्र बहुत लंबा होने के बावजूद कोई हिन्दी-भाषी राज्य समुद्र तट से नहीं जुड़ा है । 
शायद इस कारण हिन्दी मीडिया में तटीय क्षेत्रों की गहराती समस्याआें की चर्चा विशेष तौर पर कम होती है ।  इस ओर अधिक ध्यान देना जरूरी है । वैसे भी समुद्र तट क्षेत्र में आने वाले तूफानों का असर दूर-दूर तक पड़ता है । दूसरी ओर, दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्रों में बनने वाले बांधों का असर समुद्र तट तक भी पहुंचता है । 
तट रक्षा व विकास परामर्श समिति के अनुसार भारत के तट क्षेत्र का लगभग ३० प्रतिशत २०१२ तक समुद्री कटाव से प्रभावित होने लगा था । इस बढ़ते कटाव के कारण कई बस्तियां और गांव उजड़ रहे हैं । कई मछुआरे और किसान तटों से कुछ दूरी पर अपने आवास नए सिरे से बनाते हैं पर कुछ समय बाद ये भी संकटग्रस्त हो जाते हैं ।
संुदरबन (पश्चिम बंगाल) में घोराबारा टापू एक ऐसा टापू है जो समुद्री कटाव से बुरी तरह पीड़ित    है । ५० वर्ष पहले यहां २ लाख की जनसंख्या और २०,००० एकड़ भूमि थी । इस समय यहां मात्र ८०० एकड़ भूमि बची है और ५००० लोग ही    है । इससे पता चलता है कि समुद्र व नदी ने यहां कितनी जमीन छीन ली है । 
अनेक समुद्र तटीय क्षेत्रों में रेत व अन्य खनिजों का खनन बहुत निर्ममता से हुआ है । इस कारण समुद्र का कआव बहुत बढ़ गया है । कुछ समुद्र तटीय क्षेत्रों में वहां के विशेष वन (मैन्ग्रोव) बुरी तरह उजाड़े गए हैं । इन कारणों से सामान्य समय में कटाव बढ़ा है व समुद्री तूफानों के समय क्षति भी अधिक होती है । नए बंदरगाह बहुत तेजी से बनाए जा रहे हैं और कुछ विशेषज्ञोंने कहा है कि जितनी भी जरूरत है उससे अधिक बनाए जा रहे हैं । इनकी वजह से भी कटाव बढ़ रहा   है । 
समुद्र किनारे जहां तूफान की अधिक संभावना है वहां खतरनाक उद्योग लगाने से परहेज करना चाहिए  । पर समुद्र किनारे अनेक परमाणु बिजली संयंत्र व खतरनाक उद्योग हाल के समय में तेजी से लगाए गए हैं जो प्रतिकूल स्थितियों में गंभीर खतरे उत्पन्न कर सकते हैं । 
अनेक बड़े बांधों के निर्माण से नदियों के डेल्टा क्षेत्र में पर्याप्त् मात्रा में व वेग से अब नदियों का मीठा पानी नहीं पहुंचता है और इस कारण समुद्र के खारे पानी को और आगे बढ़ने का अवसर मिलता है । इस तरह कई समुद्र तटीय क्षेत्रों के जल स्त्रोतों व भूजल में खारापन आ जाता है जिससे पेयजल और सिंचाई, सब तरह की जल सम्बंधी जरूरतें पूरी करने में बहुत कठिनाई आती    है । 
इस तरह के बदलाव का असर मछलियों, अन्य जलीय जीवों व उनके प्रजनन पर भी पड़ता है । मछलियों की संख्या कम होने का प्रतिकूल असर परंपरागत मछुआरों को सहना पड़ता है । इन मछुआरों के लिए अनेक अन्य संकट भी बढ़ रह हैं । मछली पकड़ने के मशीनीकृत तरीके बढ़ने से मछलियों की संख्याभी कम हो रही है व परंपरागत मछुआरों के अवसर तो और भी कम हो रह हैं । समुद्र तट पर पर्यटन व होटल बनाने के साथ कई तरह के हथकंउे अपनाए जाते हैं । कई मछुआरों व उनकी बस्तियों को उनके मूल स्थान से हटाया जा रहा है । 
तट के पास का समुद्री जल जैव विविधता को बनाए रखने व जलीय जीवोंके प्रजनन के लिए विशेष महत्व का होता है । प्रदूषण बढ़ने के कारण समुद्री जीवोंपर अत्याधिक प्रतिकूल असर पड़ रहा है । 
समुद्र तटीय क्षेत्रों की समस्याआें के समाधान के लिए कई स्तरोंपर प्रयास की जरूरत है । इन समस्याआें  पर उचित समय पर ध्यान देना चाहिए ।
हमारा भूमण्डल
रेडियोधर्मिता पीड़ितों को न्याय से इंकार
टॉम आर्म्स 
मार्शल द्वीप आधुनिक परमाणु तकनीक के सबसे भयावह स्वरूप को पिछले करीब ७ दशकों से भुगत रहे हैं । परन्तु यह छोटा सा देश अपने अस्तित्व को बचाने के साथ ही साथ पूरी दुनिया को बचाए रखने की मुहीम की अगुवाई भी कर रहा है ।
मार्शल द्वीपों के निवासी इस धरती पर सबसे ज्यादा यंत्रणा सहने वाले लोग हैं। यदि वे आधुनिक समय में परमाणु परीक्षण के दौरान कैंसर की जकड़ से नहीं मर पाए तो अब जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप बढ़ती समुद्री सतह उन्हें डुबो देगी । सभी पीड़ितों की तरह वह भी न्याय चाहते हैं।  परंतु हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने उनकी अर्जी को राजनयिक सह तकनीकी नजरिए से रद्द कर दिया । 
मार्शल द्वीपांेे की कुल आबादी करीब ५४००० है और दक्षिणी प्रशांत महासागर में दो समानांतर पंक्तियों में फैले इन द्वीपों का कुल क्षेत्रफल करीब ७५,००० वर्गमील है। उनकी सबसे लोकप्रिय संपत्ति (रियल स्टेट) बिकनी अटोल्ल है । दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका के बाद अमेरिका को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वह इन द्वीप समूहों के नागरिकों के कल्याण का ध्यान   रखे । उसने यहां के निवासियों का कल्याण ६७ परमाणु विस्फोट करके किया । कुल १२ वर्षों की अवधि में अमेरिका ने यहां २०० किलोटन दिन के बराबर के विस्फोट किए । 
गौरतलब है हिरोशिमा में गिराया गया बम मात्र १५ किलोटन का था । इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बिकनी अटोल्ल अब रहने लायक नहीं बचा है साथ ही यह तथ्य भी अब आश्चर्यचकित नहीं करता कि मार्शल द्वीप दुनिया में सर्वाधिक कैंसर पीड़ितों का निवास स्थल है एवं वहां रेडिएशन संबंधित सर्वाधिक जन्मजात विकलांगता पाई जाती है । अमेरिका की सरकार इन द्वीपों को सैनिक संरक्षण तो प्रदान करती है, परंतु वहां एक भी कैंसर विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं कराती ।
द्वीप निवासियों का मत है कि ऐसे सभी देश जिनके कि पास परमाणु हथियार हैं वे सभी उसकी इस दुरावस्था के लिए जिम्मेदार हैं । क्यों ? क्योंकि सन् १९६८ में हुई परमाणु निषेध संधि (एन पी टी) के अनुच्छेद ४ के अनुसार ``शीघ्रातिशीघ्र परमाणु हथियारों की समप्ति हेतु अच्छी नीयत से प्रभावशाली कदम उठाए जाएंगे और इस परमाणु दौड़ पर रोक लगाई जाएगी । इसी के साथ प्रभावशाली अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण में पूर्ण परमाणु हथियार बंदी संबंधी संधि का मार्ग प्रशस्त किया जाएगा ।`` 
पिछले वर्ष मार्शल द्वीपों ने ऐसे नौ देशों, अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, इजरायल, उत्तरी कोरिया, भारत, पाकिस्तान, व इग्लैंड, जिन्होंने या तो घोषणा कर दी है कि उनके पास परमाणु हथियार हैं या ऐसा विश्वास है कि वे परमाणु हथियार सम्पन्न हैं, के खिलाफ इस बिना पर मुकदमा दायर किया कि वे अपने ``वायदे`` से मुकर गए हैं । परंतु केवलतीन देशों भारत, पाकिस्तान व ब्रिटेन के खिलाफ ही मुकदमा चल सका क्योंकि बाकी के देश अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को मान्यता ही नहीं देते । 
संयुक्त राष्ट्र संघ के इस कानूनी अंग ने ५ अक्टूबर को अपना निर्णय सुनाया । न्यायालय ने कमोवेश बंद कमरे में ही इसकी सुनवाई करी । बचाव पक्ष ने तकनीकी पक्ष पर बहस करते व जोर डालते हुए अपने पक्ष में निर्णय करवा लिया और द्वीप निवासियों की त्रासदी की अवेहलना की । उनका कहना था कि मार्शल द्वीपों के अधिवक्ता ने उनसे न्यायालय से बाहर ही समझौता कर लिया है ।
ब्रिटेन के मामले में ८-८ न्यायाधीश पक्ष व विपक्ष में थे । अतएव न्यायाधिकरण के अध्यक्ष ने ब्रिटेन के पक्ष में इस टाई को तोड़ा । भारत और पाकिस्तान की स्थिति कुछ ठीक  थी जिन्हें ९ के मुकाबले ७ मतों से जीत मिली । द्वीपों के प्रमुख अधिवक्ता पूर्व विदेशमंत्री ७१ वर्षींया टोनी डे ब्रम का कहना था कि परमाणु परीक्षणों की वायु ने सैकड़ांे पुरातन ग्रामीण प्रवालद्वीपों एवं तमाम अन्य को हजारों वर्षों तक न रह सकने लायक बना दिया है। उन्होंने न्यायालय को बताया कि जब नौ वर्ष के थे तब समुद्र में मछली मारने के दौरान उन्होंने एक परमाणु विस्फोट देखा था । वह विस्फोट २०० मील की दूरी पर हुआ था, परंतु पूरा आकाश लाल हो गया और क्षितिज पर एक विशाल मशरूम बादल उभर आया । 
इसके तुरंत बाद भयानक धमाका सुनाई दिया और रेडियोएक्टिव ताप भी फूट पड़ा । डे ब्रम ने काफी भावुक और कातर शब्दों में अपनी बात रखी परंतु वह न्यायालय के समक्ष असफल रहे । वही मार्शल द्वीपों के हेग स्थित स्थानीय अधिवक्ता फॉन वान डेन बाइसेन का कहना था, ``यहां के न्यायाधीशो के अलावा पूरी दुनिया को यह स्पष्ट है कि यह एक विवाद है।`` एक अन्य गैर सरकारी संगठ न जो सं. रा. संघ से संबंद्ध है, का कहना है, यह मुकदमा अन्य गैर परमाणु देशों के लिए पथ प्रदर्शक बनेगा । 
वही मार्शल द्वीपों की सरकार के सलाहकार वेमेन का कहना है कि हमें ५० लाख लोगों और १०० से अधिक गैर सरकारी संगठनों का समर्थन प्राप्त हुआ है । उन्होंने इस बात की ओर इशारा किया कि न्यायालयीन निर्णय काफी कम अंतर से आया है और न्यायालय में इस विषय पर गहरा मतभेद भी था ।
ऐसे संकेत भी आए हैं कि अब वैश्विक परमाणु हथियार विरोधी लाबी भी इस मामले को उठाएगी । आस्ट्रिया, ब्राजील, आयरलैंड, मेक्सिको, नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका के ६ सदस्यीय समूह ने वायदा किया है कि वह सं. रा. संघ   साधारण सभा में प्रस्ताव लाएंगे कि ``परमाणु हथियारों को प्रतिबंधित करने के लिए एक कानूनी बाध्यता वाला समझौता स्वीकार किया    जाए ।`` मार्शल द्वीप निवासियों के लिए यह प्रस्ताव थोड़ा सांत्वनाजनक है क्योंकि उन्हें निर्णय के विरुद्ध अपील करने तक की अनुमति नहीं दी गई है । 
परंतु अब उनके सामने और भी समस्याएं खड़ी हो गई हंै जैसे कि सीवेज (कचड़ा) उनके रसोई के सिंक में ही तैरता रहता है, खारे पानी ने ताजे पानी की आपूर्ति को नुकसान पहुंचा कर इसे पीने योग्य ही नहीं रहने दिया है । साथ ही उनकी फसलें भी मरने लगी हैं। मार्शल द्वीपों के निवासियों के लिए जलवायु परिवर्तन विमर्श का विषय नहीं है बल्कि  उनका तो जीना ही मुहाल होता जा रहा है । 
द्वीपों की इस श्रृंखला का सबसे ऊँचा स्थान समुद्र की सतह से महज छ:फूट ही ऊँचा है । बढ़ते समुद्री स्तर के चलते इस बात की पूरी संभावना है कि इस शताब्दी के मध्य तक यह रहने लायक नहीं रह जाएगा । यहां की राजधानी माजुरो में अक्सर जबरदस्त ऊंची लहरें घुस जाती हंै और घरों और व्यापार को नष्ट कर देती हैं। 
तीन बार विदेशमंत्री रहे टोनी डे ब्रम ने अपना पूरा जीवन परमाणु हथियारों के खिलाफ लड़ाई और अपने देश को पानी की कब्र में बदलने से बचाने में लगा दिया है । उन्हें दुनियाभर में सराहा जाता है और पेरिस जलवायु सम्मेलन की वार्ता को उन्होंने ही असफल होने से बचाया  था । गौरतलब है वे अपने प्रयासों से १०० देशों, जिसमें बाद में यूरोपीय संघ, कनाडा और अमेरिका भी शामिल हो गये थे, को बातचीत पर राजी कर पाए थे । 
ऐसा तब हुआ जबकि वे दुनिया के सातवें सबसे छोटे देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे । डे ब्रम ने ही सन् १९८३ में एक समझौता किया था जिसके तहत मार्शल द्वीपों के निवासी अमेरिका के अरकासंस, आरेगॉन और वाशिंगटन राज्यों के बस पाए थे । अंतत: उन्हीं के प्रयासों से अमेरिका ने पेरिस सम्मेलन में वायदा किया वह जलवायु परिवर्तन से पीड़ितों हेतु ३ अरब डॉलर की    मदद पहुंचाएगा । ब्रम का कहना है ``हम इस पंक्ति में पहले स्थान पर हैं।``
वे इस धन को ब्रेक वाटर व जलशोधन (नमक निकालने) संयंत्रों पर खर्च करना चाहते हैं। परंतु हमें सोचना होेगा कि दुनिया के प्रथम रेडियोधर्मी जलवायु परिवर्तन शरणार्थियों का वास्तव में क्या भविष्य है ?
विशेष लेख
दुनिया से खत्म हो जाएंगी २५०० भाषाएं 
संध्या रायचौधरी 

हमारा समाज जैस-जैसे विकसित हो रहा है भाषा के मामले मेंहम तेजी से विपन्न होते जा रहे हैं । अध्ययन के अनुसार ९७ फीसदी लोग केवल चार भाषाएं बोलते हैं । जबकि ९६ फीसद भाषाएं केवल तीन फीसदी आबादी द्वारा बोली जा रही   है । भाषाआेंकी मौत का मातम सारी दुनिया मना रही है, पर हम भारतीय भाषाआें में से १९६ को जल्दी ही खो देंगे, जिस पर कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही है । 
भाषा का विलुप्त् होना मनुष्य जाति के लिए सबसे खास बात है । जिस तरह मछली जल में रहती है, उसी तरह मनुष्य भाषा में । लेकिन भाषाआें की मौत फटाफट हो रही   है । बीती सदी में कोई ऐसा दशक नहीं बीता, जिसमें किसी भाषा का अंत न हुआ हो । इसी दशक में अंडमान की एक भाषा बो का अंत इसे बोलने वाली एकमात्र महिला बोआ सीनियर की मृत्यु के साथ हुआ । इसके कुछ ही दिन बाद यूनेस्को ने भाषा एटलस जारी किया, जिसके मुताबिक दुनिया की करीब ६००० भाषाआें में से २५०० के लुप्त् होने की आशंका है । 
भारत में सर्वाधिक १९६ भााषाआें पर लुप्त् होने का खतरा है । दूसरा स्थान अमेरिका का है जहां की १९२ भाषाआें पर यह संकट है । यूनेस्को के अनुसार दुनिया में १९९ भाषाएं ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वाले १०-१० सेे भी कम लोग हैं । 
भाषा की मौत का अर्थ गहरा है । इसके साथ संस्कृति का भी अंत हो जाता है, मनुष्यों की विशिष्ट पहचान गुम हो जाती है । भाषा का मरना दुनिया की विविधता पर भी चोट है । यह हमारे एकरंगी विश्व की ओर जाते कदम का सूचक है । दुनिया के भाषा विज्ञानी इसे लेकर सांसत में हैं । वैश्वीकरण के बाद भाषाआें के विलोप में काफी तेजी आई है । आज दुनिया के करीब ९७ फीसदी लोग केवल चार भाषाएं बोलते हैं । इससे उलट दुनिया की ९६ फीसदी भाषाएं केवल तीन फीसदी आबादी द्वारा बोली जाती है । 
भाषाआें के विलुप्त् होने के कारणोंमें मनुष्यों का प्रवास, सांस्कृतिक विलोपन, भाषा के प्रति नजरिए में बदलाव, सरकारी नीतियां, शिक्षा का माध्यम, और रोजगार आदि अहम हैं । वैश्वीकरण के जिस दौर में हम आज आ पंहुचे हैं, वहां एक ही तरह का खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, एक ही तरह की जिदंगी और एक ही तरह की भाषा का जोर है । 
आजकल अंग्रेजी सबसे अधिक थोपी जाने वाली भाषा बन गई है लेकिन ऐसा नहीं है कि दूसरी भाषाएं अतिक्रमण नहीं कर रही है । स्थानीय भाषा भी दूसरी कम प्रभावी स्थानीय भाषाआें को खा जाती है । विश्व स्तर पर अंग्रेजी ऐसा ही कर रही है । वैसे ऐसा आरोप हिंदी जैसी भाषाआें पर भी लगता है, जो क्षेत्रीय भाषाआें पर नकारात्मक असर डालती हैं । 
दुनिया के दो सबसे बड़े भाषा प्रेमी और विश्लेषक - प्रोफेसर डेविड हेरीसन और ग्रेगरी एंडरसन, जो नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी की भाषा विषयक परियोजना में दुनिया की खाक छान चुके हैं, ने भाषाआें के विलोपन पर काफी कुछ लिखा और बताया है । इन दोनोंविशेषज्ञों का कहना है कि विश्व की सैकड़ों भाषाएं विश्व पटल से मिटने वाली हैं । प्रशांत महासागरी द्वीप समूहों, पूर्वी साइबेरिया, उत्तरी-पश्चिमी इलाका, मध्यवर्ती दक्षिण अमेरिका भाषाई विलोपन के दृष्टिकोण से सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र हैं । ये दोनों भाषा विज्ञानी कहते हैं कि भाषाआें के मिटने की दर जैन विविधता के मिटने की दर से कहीं तेज है । दोनों भाषाविदों ने पाया कि कुछ भाषाएं तो ऐसी थीं, जो आनन-फानन में ही मिट गई । अमूमन ऐसा प्राकृति आपदाआें के बाद हुआ, जिसने किसी छोटे-मोटे समुदाय को अपनी चपेट में ले लिया और उस समूह के साथ उसकी भाषा भी सदा के लिए खो  गई । वैसे ज्यादातर भाषाएं धीरे-धीरे मर रही हैं । उनका दम किसी दूसरी भाषा के हाथोंघुटता है । 
२५ साल में लुप्त् हुई भाषाएं 
* ऑस्ट्रेलिया के जनजातीय समूह मेंबोली जाने वाली दो भाषाएं यावुरू और मगाटा को बोलने वाले केवल तीन लोग बचे हैं । इसी तरह भाषा अमुरदाग है, जिसे बोलने वाला केवल एक व्यक्ति जिंदा है । 
* बो - यह ग्रेट अंडमानी भाषा इसी साल लुप्त् हुई, जब इसे बोलने वाली एकमात्र महिला बोआ सीनियर की मौत हुई । यह भाषा उत्तरी अंडमान के पश्चिमी किनारे पर बोली जाती थी । यह भाषा लिपिहीन थी इसलिए इसके सम्बंध मेंअब कोई जानकारी नहीं हैं । 
* इयाक - यह २१ जनवरी २००८ को लुप्त् हुई । इसे बोलने वाले आखरी व्यक्ति थे स्म्थि जोन्स । इयाक एक सदी पहले अलास्का के प्रशांत महासागरीय तटीय क्षेत्रों में काफी प्रचलित थी । 
* अकाला सामी - यह रूस के कोला पेनेसुएला में बोली जाती   थी । इसे बोलने वाले आखरी व्यक्ति माजा सर्जीना थे जिनकी मौत २९ दिसंबर २००३ को हुई । इसका लिखित ज्ञान इतना कम है कि इसे पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता । 
* गागुडजू - इसकी मौत २३ मई २००२ को इसे बोलने वाले आखरी व्यक्ति बिग बिल निएट्जी के साथ हुई । यह कभी उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में बोली जाती थी । इस भाषा को काकाडू या गागाडू के नाम से भी जाना जाता है । 
* उबयेख - यह कभी तुर्की के कॉकेशियन प्रांत मेंबड़े पैमाने पर बोली जाती थी । यह क्षेत्र काला सागर के इलाके मेंपड़ता है । उबयेख के अंतिम जानकार का नाम अज्ञात है, लेकिन माना जाता है कि उनकी मृत्यु १९९२ में हुई थी  
* मुनिची - यह कभी पेरू के यूरीमागुआस प्रांत के मुनिचीस गांव में बोली जाती थी । इस भाष के अंतिम जानकार हुऐनचो इकाहुएटे थे जिनकी मौत १९९० में हुई थी । 
* कामास - इसे कामाशियन के नाम से भी जाना जाता है । यह रूस के यूराल पर्वतमाला क्षेत्र मेंबोली जाती थी । आखरी बोलने वाले कलावाडिया पोल्तोनिकोवा थे जिनकी मौत १९८९ में हो गई । भाषा का व्याकरण अभी भी उपलब्ध है । 
* मियामी इलिनाइस - यह देशज अमेरिकन भाषा थी । १९८९ में हुए अध्ययन के बाद पाया गया कि इसे बोलने वाला कोई नहीं बचा है । लुप्त् होने से महज २५ साल पहले तक अमेरिका के इलिनॉय, इंडियाना, मिशिगन, ओहायो जैसे प्रांतों में इसे बोलने वाले कुछ लोग थे ।
* नेगरहॉलैंड्स क्रिओल - यह १९८७ में लुप्त् हुई । आखरी व्यक्ति जो इस भाषा की जानकार थी वे थी श्रीमती एलिक स्टीवेंसन । यह भाषा अमेरिका के वर्जिन आइलैंड में बोली जाती थी ।
इस संदर्भ में इंटरनेट पर भारतीय भाषाआें की चर्चा भी लाजमी है । भारत सही मायने में इंटरनेट क्रांति को साकार होते देख रहा है । इसका असर तकनीक के हर क्षेत्र में दिख रहा है । इंटरनेट पर अंग्रेजी भाषा का आधिपत्य खत्म होने की शुरूआत हो गई है । गूगल में हिंदी वेब डॉट कॉम से एक ऐसी सेवा शुरू की है जो इंटरनेट पर हिंदी उपलब्ध समस्त सामग्री को एक जगह ले आई है । इसमें हिंदी वॉइस सर्च जैसी सुविधाएं भी शामिल हैं । 
इस प्रयास को गूगल ने इंडियन लैंग्वेज इंटरनेट एलाएंस (आईएलआईए) कहा है । इसका लक्ष्य २०१७ तक ३० करोड़ ऐसे नए लोगों को इंटरनेट से जोड़ना है जोे इसका इस्तेमाल र्स्माटफोन या अनय किसी मोबाइल फोन से   करेंगे । गूगल के आंकड़ों के मुताबिक, अभी देश में अंग्रेजी भाषा समझने वालों की संख्या १९.८ करोड़ है, और इनमें से ज्यादातर लोग फिलहाल इंटरनेट से जुड़े हुए हैं । 
एक तथ्य यह भी है कि भारत में इंटरनेट बाजार का विस्तार इसलिए ठहर-सा गया है क्योंकि सामग्रियां अंग्रेजी में हैं । आंकड़े बताते है कि इंटरनेट पर ५५.८ प्रतिशत सामग्री अंग्रेजी में है, जबकि दुनिया की पांच प्रतिशत  से कम आबादी अंग्रेजी का इस्तेमाल अपनी प्रथम भाषा के रूप में करती है । दुनिया के मात्र २१ प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी की कुछ समझ रखते हैं । इसके बरक्स अरबी या हिंदी जैसी भाषाआें में, जो बड़े पैमाने पर बोली जाती हैं, इंटरनेट सामग्री क्रमश: ०.८ और ०.१ प्रतिशत ही उपलब्ध है । 
बीते कुछ वर्षोंा में इंटरनेट और विभिन्न सोशल नेटवर्किंग साइट्स जिस तरह लोगों की अभिव्यक्ति, आशाआें और अपेक्षाआें का माध्यम बनकर उभरे हैं, वह उल्लेखनीय जरूर है, मगर भारत की भाषाआें में जैसी विविधता है, वह इंटरनेट में नहीं दिखती । भारत में इंटरनेट को तभी गति दी जा सकती है जब इसकी अधिकतर सामग्री हिंदी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाआें में हो । परामर्श संस्था मैकेंजी का एक नया अध्ययन बताता है कि २०१७ तक भारत के जीडीपी में इंटरनेट १०० अरब डॉलर का योगदान देगा, जो २०१४ में ३० अरब डॉलर था । 
अध्ययन यह भी बताता है कि अगले तीन साल में भारत दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा इंटरनेट उपभोक्ताआें को जोड़ेगा । इसमें देश के ग्रामीण इलाकों की बड़ी भूमिका होगी । मगर इंटरनेट उपभोक्ताआें की यह रफ्तार तभी बरकरार रहेगी जब इंटरनेट सर्च अधिक सुगम बनेगी । हिंदी और अन्य भारतीय भाषाआें को इंटरनेट पर बढ़ावा देना होगा, तभी गैर अंग्रेजीभाषी लोग इंटरनेट से जयादा जुड़ेंगे । 
जीवन शैली
क्या मनुष्य हजार साल तक जी सकता है ?
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन 

एक औसत मनुष्य कितनी उम्र जीता है ? १९०० में दुनिया भर में मनुष्य की औसत आयु लगभग ३१ वर्ष थी जबकि आज यह ६८ वर्ष है । यह इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि जानलेवा संक्रमणों पर दवाइयों के जरिए जीत हासिल की जा सकी है जो पहले संभव नहीं था । हमारी औसत आयु को बढ़ाने में स्वास्थ्य के तौर-तरीकों ने मदद की है । संपूर्ण पोषण, व्यायाम और अच्छी आदतें (आप की मर्जी से परिभाषित) इसकी वजह हैं । इस संदर्भ में आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक दवाइयां और टॉनिक जैसे कुछ शास्त्रोक्त तरीके  हैं । इनमें से प्रत्येक के बारे में हम जितना ज्यादा सीखते हैं उतना ही यह समझ में आता है कि वे कैसे शरीर को तंदुरूस्त बनाए रखने में मददगार या बाधक होते हैं । 
उम्र के अनुसार शरीर कमतर कार्यकुशल होता जाता है । बुढ़ापा आने लगता है और हम इससे लड़ने के तरीके खोजने लगते है । किसी बूढे शरीर की तुलना में जवान और सामान्यत: ज्यादा तंदुरूस्त होता है । इसी संदर्भ में हिन्दू पौराणिक कथाआें का मार्कडेय ग्रीक पौराणिक कथाआें के टायथोनस से आगे निकल जाता है । मार्कडेय हमेशा सोलह साल का बना रहना चाहता था जबकि टाइथोनस का मात्र अनंत जीवन मिला था, अनंत यौवन नहीं । मार्कडेय ने जान लिया था कि युवा शरीर ज्यादा तंदुरूस्त होता है । 
क्या होता है जब हमारी उम्र बढ़ती है ? शरीर के कई हिस्से होते हैं जो एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं और एक-दूसरे के साथ अंतर्सम्बध बनाते हैं । यदि उनमें से एक कमजोर पड़ता है तो यह कमजोरी दूसरे अंगों में भी झलकती है और इस प्रकार हमारा पूरा शरीर कमजोर होता जाता है । हम शरीर रचना और शरीर क्रिया विज्ञान को जितना ज्यादा समझते जाते हैं उतनी ज्यादा अच्छी तरह हम पूरे शरीर को तुदुरूस्त और कामकाजी बनाए रख सकते हैं । उदाहरण के लिए शकर का अत्यधिक सेवन रक्त, गुर्दे, तंत्रिकाआें ५और आंखों की क्रिया को प्रभावित करता है । धुम्रपान से फेफड़े और शरीर के अन्य हिस्से प्रभावित होते हैं । अत्यधिक भोजन और कम व्यायाम शरीर को आलसी और आकार्यक्षम बनाता है । एक घटक या शरीर के एक हिस्से में अक्षमता हमारे पूरे स्वास्थ को प्रभावित करती है । यदि हमारा ह्दय कुशलता से रक्त पंप नहीं करता तो यह हमारे पूरे मेटाबॉलिज्म को प्रभावित करता है । ह्रदय रोग विशेषज्ञ इस पंप को ठीक करने का प्रयास करते है और अक्सर कामयाब रहते हैं । ऐसा करने के लिए वे स्टेंट लगाते हैं ताकि रक्त प्रवाह बहाल हो सके । यहां तक कि वे खराब हो चुके ह्रदय को हटा एक कामकाजी ह्रदय का प्रत्यारोपण भी कर सकते है । 
कोशिकाआें (जैसे रक्ताधान में) ऊतकों (आंखों के कॉर्निया) या यहां तक कि शरीर के पूरे अंग (ह्रदय, गुर्दे) का प्रत्यारोपण अंगों की मरम्मत करने के आम तरीके बन गए हैं । आज कोशिका विज्ञान के क्षेत्र मेंप्रगति के चलते शोधकर्ता शरीर के घटकों - जैसे कोशिकाएं, ऊतक और अंगों के निर्माण की कोशिशें कर रहे हैं । स्टेम कोशिका आधारित तरीक से विभिन्न प्रकार की कोशिकाएं प्रयोगशालाआें में बनाई जा सकती है और बनाई जा रही है हालांकि अभी तक ऊतक नहीं बनाए जा सके हैं। लेकिन वह दिन दूर नहीं जब ऊतक और सामान्य अंग भी उपलब्ध होंगे । इसके लिए जीव वैज्ञानिकों को इंजीनियर्स और डिजाइनर्स के साथ मिलकर काम करना होगा । उदाहरण के लिए हमारे रक्षा क्षेत्र ने डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के नेतृत्व में रक्त वाहिकाआें में डाले जाने वाले धातु के स्टेंटबनाए और पोलियो रोगियों के लिए पैरों की हडि्डयों की जगह इस्तेमाल होने वाले हल्के वजन की मिश्र धातु बनाई । ऐसे कार्यो में जैविक सामग्री के इस्तेमाल के करीब पहुंचते हुए यूएस के एक समूह ने २० साल पहले एक मानव मूत्राशय बनाकर एक युवक के शरीर मेंप्रविष्ट कराया । वह अच्छी तरह मानव कान की बायोइंजीनियरिंग भी अपनी राह पर  है । आईआईटी हैदराबाद और एल.वी. प्रसाद आई. इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों के बीच सहयोग से आंखों के कॉनिया के बायोप्रिटिंग के प्रयास जारी है । इसके तहत वास्तविक कोशिकाआें की परत दर-परत जमाकर कॉनिया प्रिंट करने का लक्ष्य है । एक नया लक्ष्य जैव संश्लेषित अंग का पुनर्जनन है । 
इसी तरह का एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य एकदम नए सिरे से शुरू करके एक पूरी मानव आंख बनाने का है । शोधकर्ता कहते हैं कि यदि छिपकली अपनी कटी पूंछ या सेलमैंडर अपनी आंख का दोबारा उगा सकते हैं, तो क्यों हमे अपने अंदर छुपे सेलेमैंडर को जगा नहीं सकते ? उनका मतलब यह है कि इस उभयचर जंतु में देखे कि कैसेउसके जीन्स उसकी आंखों का निर्माण करते हैं और फिर हम अपने समकक्ष जीन्स से यही करवाने का प्रयास कर सकते हैं । जैव-चिकित्सा विज्ञान ने उस युग का रूख कर लिया है जहां खराब या नाकाम हो चुके शारीरिक अंगों को प्रयोगशाला में बनाकर प्रत्यारोपित किया जा सकेगा । यह कैलिफोर्निया के डॉ. ऑबरे डी ग्रे का एक साहसिक लक्ष्य है । उन्होंने बुढ़ाने की क्रिया से लड़ने हेतु एस.ई.एन.एस. की स्थापना की है । उनका कहना है कि १५० साल जीने वाल व्यक्ति हमारे साथ है और कौन जाने हम जल्द ही १००० से ज्यादा सालों तक जीवित रह सकेंगे । 
मुझे याद है १९७० के दशक में मेरे पास एक फोर्ड प्रीफेक्ट कार थी । पहले हमने उसके टायर बदले, फिर कार्बुरेटर, फिर इंजिन को बदला और वॉल्व, वायपर्स बदले । इसके बाद कार का रंग-रोगन करवाया और कानपुर छोड़ने से पहले उसे बेच   दिया । जनरल मैकआर्थर कहते थे कि सैनिक कभी नहीं मरते, वे सिर्फ ओझल हो जाते है । डॉ. ऑबरे डी ग्रे का कहना है कि पुराने शरीर शायद कभी न मरें । 
जीव जगत
पशु संरक्षण की आवश्यकता 
प्रो. किशोरी लाल व्यास 

प्राचीन काल में मनुष्य ने कुछ पशुआें को पालित बना लिया था, जिनमें गाय, भैंस, ऊँट, बकरी, भे इत्यादि प्रमुख है । ये पशु मनुष्य के लिए अनेक प्रकार से उपयोगी है । गाय को प्राचीन काल से ही भारत में माता का दर्जा प्राप्त् है । 
आज पशुआें के प्रति हमारी दृष्टि बदल गई है । आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में गाय, भैंस आदि पशुआें को माँस, चमड़ा, अस्थियाँ आदि का स्त्रोत मान लिया गया है । 
आज भी भारत की अधिकांश कृषि पशुआें पर निर्भर है । इसी कारण हमारे किसानों के लिए गाय-बैल बछड़े भैस आदि जानवर पशु न होकर, उनके अपने आत्मीय है । 
भारतीय किसान के लिए पशु आज भी वस्तु या मांस का लोथड़ा नहीं हैं, वे उनके सुख-दु:ख के साथी, है । किसान गाय भैंसों से दूध प्राप्त् करता है, बछड़े प्राप्त् करता है उन्हें पालता और बड़ा करता है । बछड़े बैल बनते हैं जो खेती में तथा परिवहन में किसानों की चौबीसों घंटे सहायता करते हैं । 
जो गांव शहरो के निकट बसे हैं या शहरों की सीमा में आते है, उन गॉवों पर शहर के प्रदूषण का भयंकर प्रभाव पड़ता है । उदाहरणार्थ - मुसी नदी के तट पर बसा हैदराबाद शहर। शहर की सारी गंदगी, कचरा, नालियाँ, रासायनिक-प्रदूषण, खेती के और घरो के अपशिष्ट बहकर मूसी नदी मेंगिरते हैं गत पचास वर्षो में मूसी नदी, नदी न रहकर एक बड़ी सी गंदी नाली बन गई है । उस नदी का परिसर कचरे से पटा है । 
अब मूसी नदी का प्रदूषित जल आगे जाकर घास के बड़े-बड़े मैदानों में सिंचाई के कामआता है । इसी पानी से सब्जियाँ, फल आदि उगाये जाते हैं । यह घांस प्रतिदिन गाँवों में गाय-भैंसों को खिलाई जाती है । इन्हीं पशुआें का दुध गांव वालों व शहर वाले उपयोग में लाते हैं । इस दुध को गर्म करने पर बदबू उठती   है । इस दूध का विश्लेषण करने पर इसमें डी.डी.टी., रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के अवशेष, फेक्टरियों के रसायन, जैसे - जस्ता, पारा, शीशा पेंटस आदि घुले मिलते  हैं । इस प्रकार पर्यावरण विनाश का चक्र चलता है । प्रतिदिन हरी सब्जियों, फलों आदि के माध्यम से हम न जाने कितना रसायन खाते होंगे । 
यही हाल शहरों के निकट बसे सारे गांवों का है । गोमती नदी लखनऊ द्वारा, गंगा-कानपुर, वाराणसी, पटना आदि गंगा द्वारा गोदावरी-राजमहेन्द्री द्वारा कृष्णा विजयवाड़ा द्वारा देश की सारी नदियाँ आज भारी प्रदूषण लेकर बह रही है । इस पर्यावरण विनाश के शिकार है - किसान, सामान्य जन और पशु  पक्षी । किसी की गलती की सजा, कोई पाये, पर्यावरण विनाश का मारा, कहाँ कहाँ जाए ?
कमोबेश यह स्थिति देश के सारे किसानों की, मजदूरों की बच्चें की और उपभोक्ताआें की हो गई है । पता नहीं हम क्या खा-पी रहे हैं । कौन सा रसायन हमारे शरीर में जाकर कौन सी बीमारी पैदा कर रहा है । आज सारा भारत मिला वह तथा प्रदूषण से त्रस्त है । एक समय ऐसा था कि भारत देश अपनी पशु संपदा के लिए विश्व में अव्वल था । भारत के किसान तो अपने पशुआें को जान से अधिक प्यार करते थे । गाय, बैंल, भैंस, ऊँट आदि की रक्षा में वे प्राण देने में भी पीछे नहीं हटते थे । 
जोधपुर (राज.) में गांवों में आज भी पशु-पक्षी को कोई नहीं मारता । हिरण, चितल, मोर आदि ग्रामीणों के घरों में स्वछन्द घूमते    हैं । आज ये ढाई सौ वर्ष पूर्व खेजड़ी वृक्षों को बचाने के लिए २७२ लोगों ने अपना बलिदान दिया था । अमृत देवी नामक महिला पहली स्त्री थी जो उनके नेतृत्व में पेड़ों को बचाने के लिए ३६३ लोग शहीद हो गये थे । इससे प्रेरणा पाकर हिमालय में चिपको आंदोलन शुरू हुआ था । 
आज स्थित उलट गई है । भारत की आजादी के बाद कई शहरों में बड़े-बड़े यांत्रिक कत्लखाने खुल गये । केवल हैदराबाद मेंही अलकबीर, अल्लाना आदि कत्लखाने खुल गये जिसमें प्रतिदिन ५ से १० हजार पशु व्यवसाय यांत्रिक उपकरणों से पश्चिमी देशों के ढंग पर काटे जाते हैं । छोटे-छोटे बछडे तक नहीं छोड़े जाते, उनका मांस पेटी बंद कर मिडिल इस्ट के देशों को हवाई जहाज द्वारा भेजा जाता है । बदले में भारत देश अरब देशों से पेट्रोल डीजल खरीदता है, और खेती का यांत्रिक बनाता जा रहा है । इसका परिणाम क्या होगा ?
हमारी पशु संपदा तो नष्ट हो ही रही है, हम ट्रेक्टरो आदि यंत्रों को चलाने के लिए ईधन के लिए अरब देशों पर निर्भर होते जा रहे हैं । गत दस वर्षो में हैदराबाद के चारो ओर गांवों से लाखो गाय, बैल, भैंस- बछड़े, पाडे खरीद कर, काट दिये गये, उनका मांस निर्यात किया   गया । 
हमारी कृषि और परिवहन की निर्भरता पेट्रोल डीजल पर बढ़ती   गई । महंगाई, बेरोजगारी और भुखमरी बढ़ती गई । पशु के प्रति प्रेमदृष्टि समाप्त् होकर व्यापारी दृष्टि विकसित हो गई । पशु सम्पदा की इस दयनीय स्थिति से एक ओर दु:ख होता है तो दूसरी ओर उन यांत्रिक कत्लखानों से बढ़ते प्रदूषण के कारण समस्याएं और जटिल होती जा रही है । दुर्भाग्य की बात यह है कि हर छोटे बड़े शहरों में ऐसे पशु कत्लखाने खुल गये हैं जिनमें हजारो पशु निर्ममता से मारे जाते हैं । 
सरकारी अधिकारियों के निकम्मेपन के कारण पशु-हत्यारों के हौसले इतने बुलन्द हैंकि कानून का डर तो उन्हें बिल्कुल नहीं है । यदि क्षेत्रीय ग्रामीण इन हत्याआें का विरोध करते है तो अवैध हथियारों से इन निहत्थे किसानों पर आक्रमण किया जाता है, कभी-कभी हत्याएँ तक होती है ।
पृथ्वी पर पैदा हुए प्रत्येक जीव को जीवित रहने व उसके हक को दिलाने की बाते कही गयी है । मनुष्य का कर्तव्य प्रत्येक जीव जन्तु, पशु पक्षियों की हत्याएं करना एक रोजगार बन गया है । कभी दूध की नदियां बहानेवाला यह देश आज पूरी तरह से अपना अस्तित्व खोता जा रहा है । इस प्रकार हो रही पशु हत्याआें से निरन्तर कम हो रही पशुआें की संख्या से कृषि कार्य भी पूरी तरह से प्रभावित होने के कगार पर है जिसके कारण भविष्य में दूध का भी अकाल पड़ेगा । 
पशुआें की इस सामूहिक हत्या के परिणामस्वरूप पर्यावरण का भी विनाश हो रहा है । जिन क्षेत्रों में यह अवैध धन्धा चल रहा है वहाँ मृत पशुआें के शरीर से बहने वाला खून मूत्र आदि जमीन में बोरिंग करके बड़े पाइप के सहारे जमीन के नीचे पहुंचा दिया जाता है जो क्षेत्रवासियोंके नल के पानी मेंमिलकर आता है तथा स्वास्थ को हानि पहुंचाता है । इन सबकी जानकारी कृषि विभाग, पशु पालन विभाग, नियंत्रण बोर्ड आदि सबको है, लेकिन कुछ हल नहीं निकल रहा है । 
भारत देश में पशुआें की संख्या दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है । अत: दूध एवं दुग्ध पदार्थो के भाव बहुत बढ़ गये हैं । बड़ी निर्दयता से इन पशुआें का संहार किया जाता है । इसका दुष्परिणाम किसानों के जीवन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पड़ता है । 
आज इस विषय पर गंभीरता से विचार करने और कार्य करने की आवश्यकता है, वरना हमारा पशुधन तो समाप्त् होगा ही, पर्यावरण की समस्याएं भी विकराल होती    जायेगी । 
पर्यावरण परिक्रमा
दुनिया के चार बड़े शहरों में बंद होंगे डीजल वाहन

दुनिया के चार बड़े शहरों में २०२५ तक डीजल वाहनों पर पूर्ण प्रतिबंध लग जाएगा । ग्रीन एक्टिविस्टों के बढ़ते दबाव को देखते हुए चारों शहरो के मेयरों ने यह निर्णय लिया है । इन शहरों में आगामी एक दशक में कार, ट्रकों व अन्य डीजल वाहनों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लग जाएगा । चार शहरों में पेरिस, मेक्सिको, मैड्रिड और एथेंस शामिल हैं । 
इन शहरों के मेयरों ने इस बात की घोषणा की है कि वह भारी डीजल वाहनों पर प्रतिबंध लगाने जा रहे हैं । मेयरों ने कहा कि वह प्रदूषण रहित अन्य वाहनों को बढ़ावा देने के लिए लोगों की आर्थिक मदद करेंगे । साथ ही पैदल चलने और साईकिलिंग को बढ़ावा दिया जाएगा । इस बात का संकल्प मेक्सिको में आयोजित एक द्विपक्षीय बैठक में लिया गया । डीजल वाहन सवालों के घेरे में पिछले कुछ वर्षो में बढ़ते प्रदूषण के कारण डीजल वाहनों का उपयोग सवालों के घेरे में आ गया है । 
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि हर साल करीब ६० लाख लोग प्रदूषण के कारण मरते है । इसका एक बड़ा कारण डीजल वाहन भी है । डीजल के धुंए से ही पॉर्टिकुलेट मेटर (पीएम) निकलता है । दूसरा तत्व नाइट्रोजन ऑक्साइड जो डीजल इंजन से ही निकलता है । पीएम ही एक ऐसा तत्व है जो फेफड़ों से जुडी गंभीर बीमारी तो नाइट्रोजन ऑक्साइड सांस की तकलीफ के लिए जिम्मेदार है । नाइट्रोजन आक्साइड से उनको भी सांस की बीमारी हो सकती है, जिन्हें कभी सांस की कोई बीमारी नहीं है। 

भारत में उत्सर्जित कार्बन से उपयोगी केमिकल बनाया
दिनोंदिन बढ़ते कार्बन उत्सर्जन से निपटने के लिए दुनियाभर में कोशिश हो रही हैं । इसी क्रम में भारत ने दूसरी बार विश्व में अपना परचम लहराया है । पिछले साल तमिलनाडु में दुनिया का सबसे बड़ा सौर ऊर्जा संयंत्र लगाया गया । अब भारतीय कंपनी कार्बन क्लीन सॉल्यूशंस ने ऐसी सस्ती तकनीक विकसित की है, जो उत्सर्जित कार्बन को बड़ी मात्रा में उपयोगी केमिकल में बदल रही है ।
इंजीनियर अनिरूद्ध शर्मा और प्रतीक ने २००९ में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी खडगपुर में पढ़ाई करने के दौरान कार्बन क्लीन सॉल्यूशंस की स्थापना की । तकनीक पर शोध के बाद पहली बार इसे तमिलनाडु के तूतिकोरिन स्थित एल्कलाई केमिकल्स प्लांट में लगाया गया है । 
इस प्लांट से सौ किमी दूर दुनिया का सबसे बड़ा सौलर फार्म कमुठी सोलर प्लांट है । दस वर्ग किमी क्षेत्रफल में बने इस फॉर्म की ६४८ मेगावट उत्पादन क्षमता है । इससे १५ लाख घरों को बिजली मिलती है । 
अभी उत्सर्जित कार्बन को धरती के नीचे चट्टानों में कैद करने की तकनीक लोकप्रिय है । यह कॉफी महंगी और लंबी प्रक्रिया है । कार्बन क्लीन सॉल्यूशंस की तकनीक को इस दिशा मेंअहम माना जा रहा है । गौरतलब है कि ऐसी ही तकनीक पर दुनियाभर में शोध हो रहे है । 
देश में कंपनी को वित्तीय मदद नहीं मिली । लेकिन मुम्बई के इंस्टीट्यूट ऑफ केमिलकल टेक्नोलॉजी और इंपीरियल कॉलेज ऑफ लंदन के साथ शोध जारी रखा गया । तभी ब्रिटेन से कंपनी को वित्तीय मदद मिली और तकनीक पर शोध आगे बढ़ा । अन्य देश भी इस प्रोेजेक्ट में रूचि दिखा चुके है । 

बॉयलर रूम मेंआग के बाद डूबा था टाइटेनिक
अब तक तो हम सभी यही जानते थे कि १९१२ में दुनिया का सबसे बड़ा जहाज टाइटेनिक हिमखंड से टकराने के कारण डूबा था । अब एक डाक्यूमेंट्री में टाइटेनिक के डूबने की वजह कुछ और बताई गई है । तीस साल से इस घटना पर शोध कर रहे पत्रकार सिनन मोलोनी ने दावा किया है कि इसके बॉयलर रूम में भीषण आग लगने के कारण यह हादसा हुआ था । 
इस आग से जहाज का अगला भाग क्षतिग्रस्त हो गया और हिमखंड से जहाज के बॉयलर रूम मेंआग लगने  से उसका तापमान १००० डिग्री हो गया । इससे जहाज का ढांचा इतना कमजोर हो गया कि हिमखंड से हुई हल्की से टक्कर से उसमें सुराख हो गए और पूरा जहाज जलमग्न हो गया । यह हादसा लापरवाही के कारण हुआ । इस आग के बारे में जहाज के अधिकारियों को बताया गया लेकिन उन्होंने उसे नजरअंदाज किया । 
नतीजजन १५०० से ज्याद लोगों की जल समाधि हो गई । 
१० अप्रेल १९१२ के टाइटेनिक ने ब्रिटेन के साउथैपटन से न्यूयॉर्क के लिए पहला सफर शुरू किया था । उत्तरी अटलांटिक महासागर में १४ अप्रेल को वह एक बड़े हिमखंड से टकराया था । इस कारण १५ अप्रेल की अलसुबह वह महासागर में डूब गया । 

देश के ८० हजार स्कूलों में सुरक्षा सर्वे 
बच्च्े स्कूलोंमें कितना सुरक्षित हैं, इस पर केन्द्र सरकार जल्द ही राष्ट्रव्यापी सर्वे करवाएगी । इसकी जिम्मेदारी राष्ट्रीय बाल अधिकार सुरक्षा आयोग (एनसीपीसीआर) को सौंपी गई है । महिला और बाल विकास मंत्रालय के तहत आने वाल एनसीपीसीआर अलग-अलग राज्यों के बाल आयोग जरिए यह सर्वे करवा रहा है, जिसके बाद रिपोर्ट तैयार कर मंत्रालय को सौंपी जाएगी । इसके जरिए स्कूल में बच्चें की स्थिति व सुरक्षा की वास्तविक स्थिति की रिपोर्ट की जाएगी । 
राज्य सरकारों को यह कार्य छह महीने में पूरा करना होगा । इसके बाद यह सर्वे एनसीपीसीआर के पास आएगा, जिसके आधार पर विस्तृत राष्ट्रीय रिपोर्ट तैयार की जाएगी जिसके आधार पर नए नियम और मानक बनेगे । स्कूलोंमें जरूरी बदलाव और बंदोबस्त भी किए जाएंगे । इसमें भावनात्मक सुरक्षों, यौन सुरक्षा, इंफ्रास्ट्रक्चर सेफ्टी, स्वास्थ्य डिजास्टर मैनेजमेंट के साथ ही न्यू एजुकेशन पॉलिसी भी शामिल है । छात्रों से जाना जाएगा कि स्कूल में वह इमोशनली कितना सेफ फील करते है । साथ ही उनके साथ लैगिक भेदभाव तो नहीं होता । 
एनसीपीसीआर के मुताबिक सर्वे के लिए जरूरी टूल्स तैयार कर लिए गए है और सभी राज्यों को भेज दिए गए है । इस सर्वे को एन्युअल स्टूडेंट रिपोर्ट ऑन सेफ एण्ड सिक्योर स्कूल एनवॉयरमेंट इन इंडिया    नाम दिया गया है सर्वे के लिए     छह मानक तय किए गए है, जिसके आधार पर प्रश्नावली, बनाई गई     है । इस प्रश्नावली को भी सभी  राज्य अपनी क्षेत्रीय भाषा में     तैयार करेंगे । राज्य आयोग की मदद से इस सर्वे को अंजाम दिया   जाएगा । 

१२ हजार करोड़ में बनेगी चार धामों को जोड़ने वाली सड़क
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देवभूमि उत्तराखंड में चार धामों को जाड़ने वाली अहम परियोजना ऑल वेदर रोड की आधारशिला रखी । चार धाम राजमार्ग विकास परियोजना के तहत १२ हजार करोड़ की लागत से ९०० किमी की टू-लेन ऐसी सड़के बनाई जाएंगी, जिससे सभी मौसमों में इन मंदिरों की यात्रा की जा सकेगी । जहां भूस्लखन होता है, वहां जालियां लगाई जाएगी और जहां नदी में उफान आता है, वहां ऊंचेपुल बनाए जाएंगे । इसलिए इस रोड का नाम ऑल वेदर रोड रखा गया है । इसे वर्ष २०२० तक पूरा करने का लक्ष्य है । रोड बनने के बाद न भूस्खलन की चिंता रहेगी, न बाढ़ का खतरा । इस रोड से राज्य के पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा । 
चार धाम यात्रा उत्तराखंड राज्य मे स्थित बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री की यात्रा को कहा जाता है । हिंदू धर्म में कहा जाता है कि यह यात्रा न सिर्फ पापमुक्त करती है, बल्कि जन्म-मृत्यु के चक्र से भी परे ले जाती है । 
प्रोजेक्ट से कई तरह से लोगों को फायदा होगा । यात्रा के दौरान प्राकृतिक आपदा से लोगों को बचने में मदद मिलेगी । रास्ते में जगह-जगह पर सुरंग, बायपास, छोटे-बड़े पुल होंगे, जो बरसात के मौसम में मदद करेंगे । रास्ते में लोगों को खाने-पीने का इंतजाम होगा । पार्किग की भी जगह-जगह सुविधा होगी । अब तक यात्रियों की शिकायत रहती थी कि उन्हें कई तरह की परेशानी का सामना करना पड़ता है । रोड बनने से ये सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी । 
प्रोजक्ट के तहत ३ हाइवे बनाए जाएंगे । पहला ऋषिकेश से रूद्रप्रयाग तक जाएगा । रूद्रप्रयाग के बाद यहां से दो रास्ते होंगे । एक बद्रीनाथ जाएगा और दूसरा गौरीकुंड होते हुए केदारनाथ तक पहंुचेगा । दूसरा हाइवे ऋषिकेश से शुरू होगा और धारासू तक पहुंचेगा । यहां से दो अलग-अलग रास्ते होंगे । पहला धारासू से गंगोत्री तक जाएगा और दूसरा यमुना यमुनोत्री तक पहुंचेगा तीसरा टनकपुर से पिथौरागढ़  जाएगा । 
जनजीवन 
आदिवासी जानते हैं स्वाद और पौष्टिकता 
बाबा मायाराम 

आदिवासी समाज के पास खान-पान का अपना एक तंत्र है । यह अपने आप में पूर्ण है तथा इसी के चलते आदिवासी समाज शताब्दियों से स्वयं को स्वस्थ व प्रसन्न बनाए रखे हुए हैं । आधुनिक औद्योगिक खेती ने मनुष्य से उसकी नैसर्गिकता ही छीन ली है ।
ओडिशा की नियमगिरी पर्वत की तलहटी में छोटा सा कस्बा है मुनिगुड़ा । यहां कुछ साल पहले नियमगिरी पहाड़ को बचाने के लिए आदिवासियों ने लड़ाई लड़ी और  जीती । अब यहां के आदिवासी भूख के खिलाफ लड़ रहे है । उनकी खेती की जमीन पर यूकेेलिप्टस, बांस और इमारती लकड़ियों के पौधे रोपे जा रहे हैं, जबकि वे अपनी भोजन की सुरक्षा के लिए विविधतायुक्त  मिश्रित खेती को अपनाना चाहते हैं ।  
पिछले दिनों यहां खाद्य संगम के मौके पर एक खाद्य प्रदर्शनी भी लगाई गई थी जिसे देखने आसपास के गांव क लोग और स्कूली बच्च्े आए थे । इसमें उत्तराखंड से बारहनाजा, ओडिशा से गैर खेती भोजन जिसमें मशरूम, हरी भाजियां और कई प्रकार के कंद शामिल थे । यहां अनाजों में विविधता तो थी ही, वे सब रंग रूप में भी अलग थे । इसमें भूरा कांदा,(कंद) लाल बेर, गहनों की तरह चमकते मक्के के भुट्टे, काली और सुनहरी धान की बालियां,फलियां और छोटे दाने का सांवा, कुटकी और मोतियों की तरह की ज्वार आदि शामिल थे । यह एक माध्यम है जिससे नई पीढ़ी में यह परंपरागत ज्ञान हस्तांतरित होता है । खाद्य संगम में प्रतिभागी आपस में खाद्यों की, कृषि की जानकारी और विश्लेषण का आदान-प्रदान करते रहे।
इस संगम में ८ राज्यों के करीब ७० लोग शामिल हुए । इसका आयोजन पर्यावरण पर दशकों से काम कर रही संस्था कल्पवृक्ष और रायगड़ा, ओडिशा में आदिवासियों के पोषण और खाद्य पर काम करने वाली संस्था लिविंग फार्म ने किया था । खेती में विविधता की तरह प्रतिभागियों में भी काफी विविधता  थी । खाद्य से जुड़े कई अनछुए मुद्दों पर यहां चार दिनों तक गरमागरम बहस होती रही ।
वर्तमान में विकास के नाम पर पर्यावरण नष्ट हो रहा है, समुदायों का विस्थापन हो रहा है,आजीविका पर संकट मंडरा रहा है, खेती-किसानी का संकट बढ़ रहा है, गैर-बराबरी बढ़ती जा रही है और असमानता भी बढ़ रही है । ये कुछ ऐसी खामियां हैं जो विकास के प्रचलित माडल से जुड़ी हुई हैं। इसकी चुनौतियों और उसके विकल्पों पर विकल्प संगम में चर्चा की जाती है। इन विकल्पों पर जो जनसाधारण समुदाय, व्यक्ति या संस्थाएं काम कर रही हैं, उनके अनुभव सुने-समझे जाते हैं। सीखने, गठजोड़ बनाने और मिल-जुलकर वैकल्पिक भविष्य बेहतर बनाने की कोशिश की जाती है ।
खेती का संकट हरित क्रांति की रासायनिक खेती से जुड़ा हुआ    है । देशी बीज लुप्त हो रहे हैं। मिट्टी खराब हो रही है । पानी-बिजली का संकट बढ़ रहा है । मिट्टी-पानी का प्रदूषण बढ़ रहा है । यह बात कुछ हद तक सही है कि गेहूं-चावल का उत्पादन बढ़ा है लेकिन कई दलहनी-तिलहनी और ज्वार, बाजरा, सांवा फसलों की बलि दे दी गई है ।   
उत्तराखंड के सामाजिक कार्यकर्ता विजय जड़धारी, जिन्होंने बीज बचाओ आंदोलन भी शुरू  किया है, ने कहा कि खाद्य संगम की जरूरत पर विचार करना चाहिए । राज्य और केन्द्र की सरकारों ने ऐसी नीतियां बनाई हैं जिससे पौष्टिक और  विविधतायुक्त  भोजन धीरे-धीरे मिलना कम हो गया है। हमारा चूल्हा कैसा होना चाहिए, बर्तन कैसे होने चाहिए, यह तय करने का अधिकार हमारा होना चाहिए ।
श्री जड़धारी ने कहा हमारे यहां मशरूम, हरी भाजियां जैसी कई चीजें जंगल से आती हैं। पशुओं का चारा जंगल से आता है। जंगल से पानी आता है । यानी जंगल पर हक  चाहिए । भोजन को पशुधन और जंगल से जोड़ा जाना चाहिए, मिट्टी से जोड़ा जाना चाहिए । हमारे पास पीढ़ियों के अनुभव से अर्जित परंपरागत ज्ञान है। इस दिशा में जागरूकता आना जरूरी है ।
कल्पवृक्ष की तरफ से खाद्य संगम की आयोजकों में से एक शीबा डेसोर ने देश भर में जैविक खेती की पहल और अभियानों के बारे में बताया । शीबा ने कहा कि जैविक खेती किसान, संगठन, नेटवर्क  सभी इस दिशा में कम रहे हैं। जैविक खेती कम सिंचाई और बिना सिंचाई दोनों तरह से की जा रही है । नीतियों के स्तर पर ओडिशा और छत्तीसगढ़ में अच्छा काम हुआ है । वहां जंगली भोजन को भी इसमें शामिल किया गया है । कई लोग इस पर अध्ययन कर बीज मेले कर रहे हैं ।
शीबा ने बताया कि बीजों और पशु संबंधित विविधता पर भी काम किया जा रहा है । भारत बीज स्वराज संघ, लिविंग फार्म और बीज बचाओ आंदोलन इत्यादि इस दिशा में काम कर रहे हैं । सरकारी नीतियों में भी इस ओर कुछ झुकाव दिख रहा है। केरल में जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है । इसलिए एक वैकल्पिक समाज की जरूरत है जिसमें उत्पादक और ग्राहकों में और शहर और गांवों में दूरी न हो । 
मशहूर कृषि वैज्ञानिक डा. देबल देब, जो खुद यहां मुनिगुड़ा के पास किरंडीगुडा में १३०० देशी धानों की किस्मों के गुण-धर्म का अध्ययन कर रहे हैं (उनके २ एकड़ वाले फार्म का नाम वसुधा है), संगम में विशेष तौर पर आमंत्रित थे। उन्होंने अपने वक्तव्य में बताया कि १२-१५ हजार साल पहले खेती की शुरूआत हुई । पहले कुत्ते व गधे को इंसानों ने पालतू बनाया । यह इंसानों की जरूरत थी । डा. देबलदेब ने बताया कि १ लाख ५२ हजार प्रजाति की धान के बारे में डा. रिछारिया ने बताया था । १ लाख १० हजार किस्में १९७० तक मौजूद थीं । अब केवल ७ हजार की प्रजातियां बची   हैं । जीन बैंकों में प्रजातियों को बचाने की कोशिशें की जा रही हैं। लेकिन यह बीज किसानों को उपलब्ध नहीं हैं, कंपनियों को उपलब्ध हैं। 
उन्होंने बताया कि पीढियों से किसान अपने अपने अवलोकन से बीजों का चयन करते थे । जो बीज थोड़ी सी भिन्नता लिए होते थे किसान उनका चयन कर लेते थे । ऐसा धान भी है जो २४-२५ दिन तक पानी में जिंदा रह सकता है । जब सुंदरवन में बाढ से सभी फसलें तबाह हो गई थीं तब हम किसानों को ४ किस्मों का धान देने गए थे, उसकी उत्पादकता प्रति एकड़ ५ क्विंटल थी । धान की कई प्रजातियां हैं। इनमें सूखा रोधी, बाढ़ रोधी, नमक वाली भूमिरोधी किस्में शामिल हैं। बाढ़ रोधी ज्वार भी हो सकती है । १३५ प्रकार के चावल में आयरन है । २७ प्रकार की भैंसे, ८० प्रकार के घोड़े देश में हैं। मारवाड़ी घोड़ा भारत से खत्म हो गया लेकिन अमरीका में मिलता है । हमारे यहां आम की १५ सौ  प्रजातियां हैं।
डा. देबलदेब ने कहा कि पारंपरिक खेती से सबका पेट भर सकता है। अगर देशी बीजों का इस्तेमाल करें तो उपभोक्ता और उत्पादक का फर्क मिट जाएगा । पहले दोनों किसान थे । दोनों में पारस्परिक संबंध थे। बुनकर, बढई आदि सभी उत्पादक थे। आपस में चीजों का आदान-प्रदान करते थे। किसान उगाते थे, वो खाते भी थे ।
मुनिगुड़ा के गांव कुन्दुगुडा क एक आदिवासी ने अपनी मिश्रित खेती के बारे में विस्तार से बताया । उन्होंने कहा कि मैंने ७० प्रकार की फसलें अपने खेत में लगाई हैं । मेरी १० महीने की जरूरतें खेत से पूरी हो जाती हैं, दो माह का गुजारा जंगल से हो जाता है । यानी एक कटोरा खेत से, एक कटोरा जंगल से हमारा काम चल जाता है । 
लिविंग फार्म के संस्थापक देवजीत सारंगी बताते हैं कि हम परंपरागत खानपान को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं । यहां ६० प्रकार के फल (आम, कटहल, तेंदू, जंगली काजू, खजूर, जामुन), ४० प्रकार की सब्जियां (जावा, चकुंदा, जाहनी, कनकड़ा, सुनसुनिया की हरी भाजी), १० प्रकार के तेल बीज, ३० प्रकार के जंगली मशरूम और २० प्रकार की मछलियां मिलती हैं। कई तरह के मशरूम मिलते हैं। पीता, काठा. भारा, गनी, केतान, कंभा, मीठा, मुंडी, पलेरिका, फाला, पिटाला, रानी, सेमली, साठ , सेदुल आदि कांदा (कंद) मिलते हैं।
यह भोजन पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इससे भूख और कुपोषण की समस्या दूर होती है । 
ज्ञान-विज्ञान
वर्ष २०१६ : विज्ञान में क्या हुआ ?
फरवरी २०१६ में लिगो वेधशाला ने गुरूत्व तरंगों को  पकड़ा । इन तरंगों की भविष्यवाणी आइस्टाइन के सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत द्वारा १९१५ में की गई    थी । इस सिद्धांत के मुताबिक विशाल पिंड अपने आसपास के स्थान-समय को तोड़ते-मरोड़ते हैं । जब ऐसे पिंड में त्वरण होता है तो गुरूत्व तरंगें पैदा होती हैं । 
    मई २०१६ में एक फ्रंसीसी शैलाश्रय में डेढ़ लाख वर्ष पुरानी कुछ रचनाएं मिलीं जिनके बारे मेंविश्वास किया जा रहा है कि इन्हें मानव-सदृश जीव निएंडरथल ने बनाया होगा । ये रचनाएं स्टेल्गेमाइट से बनी हैं । अभी यह नहीं कहा जा सकता कि क्या इन्हें किसी मकसद से बनाया गया था । 
गूगल की सहायक कंपनी डीपमाइंड द्वारा विकसित कृत्रिम बुद्धि अब गो नामक एक खेल में मनुष्य को परास्त कर सकती है । मार्च २०१६ में अल्फागो नामक इस कृत्रिम बुद्धि ने विश्व चैम्पियन ली सेडॉल को पांच मुकाबलों की एक श्रृंखला में ४-१ से हरा दिया । 
जुलाई में यह खबर आई कि रजोनिवृत्ति (मेनोपॉज) के साथ संतानोत्पति की क्षमता समाप्त् होना अनिवार्य नहीं है । शोधकर्ताआें ने पाया कि मेनोपॉज के बाद अंडाशयों को पुन: सक्रिय किया जा सकता है और स्त्री संतान पैदा करने में सक्षम बनाई जा सकती है । इससे कम उम्र में मेनोपॉज के बाद भी स्त्री संतान पैदा कर सकेगी और मेनोपॉज के कई हानिकारक प्रभावोंसे मुक्ति मिल सकेगी । 
वायुमंडल मेंकार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि का धरती के गर्म होने में प्रमुख योगदान है । कुछ गणनाआें से स्पष्ट हुआ है कि तापमान पर कार्बन डाईऑक्साइड का प्रभाव अनुमान से कहीं अधिक होता है  । 
इसी वर्ष सितंबर में तीन पालकों से उत्पन्न शिशु की खबर आई थी । इस तकनीक में तीन व्यक्तियों से प्राप्त् डीएनए से एक शिशु का जन्म हुआ था । ऐसा माना जा रहा है कि इस तकनीक का उपयोग करके बच्चें को जेनेटिक रोगों से बचाया जा सकेगा । 
जनवरी में दो खगोल शास्त्रियों ने सौर मंडल के ९वें ग्रह की खोज की घोषणा की थी । इस ग्रह का द्रव्यमान पृथ्वी से १० गुना ज्यादा है और यह सूर्य से बहुत दूर है - सूर्य-पृथ्वी की दूरी से करीब १०० गुना ज्यादा दूर । आसपास के अन्य पिंडों की विचित्र कक्षाआें को देखकर इस ग्रह की उपस्थिति का अनुमान लगाया गया है । 
फरवरी में शोधकर्ताआें ने बताया कि खाते वक्त गोरिल्ला गाते-गुनगुनाते हैं । शोधकर्ताआें का कहना है कि यह गुनगुनाना बताता है कि गोरिल्ला अपने भोजन से कितने संतुष्ट हैं । इस खोज से भाषा के विकास पर नई रोशनी पड़ने की उम्मीद है । 
अगस्त में हमसे मात्र ४ प्रकाश वर्ष की दूरी पर एक पृथ्वीनुमा ग्रह प्रॉक्सिमा-बी खोजा गया । यह अपने सूर्य प्रॉक्सिमा सैंटोरी से करीब ७३ लाख किलोमीटर दूर परिक्रमाकरता है  जो पृथ्वी की सूर्य से दूरी (१५ करोड़ किलोमीटर) का मात्र ५ प्रतिशत है । किंतु वह तारा एक लाल बौना तारा है, इसलिए संभव है कि इस ग्रह का तापमान जीवन के लिए उपयुक्त होगा और वहां पानी तरल अवस्था में मिल सकता है । 
पहली बार यह देखा गया है कि पेड़ सोते हैं और सोते समय उनमें शारीरिक परिवर्तन होते हैं । पहले ऐसे परिवर्तन छोटे पौधों में देखे गए थे । पहले ऐसे परिवर्तन छोटे पौधों में देखे गए थे । बर्च पेड़ों की शाखाएं रात के वक्त कम से कम १० से.मी. तक झुक जाती है । 
नवम्बर में एक खबर यह आई कि यदि बूढ़े चूहों को जवान मनुष्यों का खून दिया जाए, तो उनमें बुढ़ाने के लक्षण कम हो जाते हैं । प्रयोगों में देखा गया कि जिन बूढ़े चूहों को १८-वर्षीय लोगों का खून दिया गया, उनकी याददाश्त बेहतर  हुई । 
जीन संपादन का चिकित्सा में उपयोग शुरू 
वर्ष २०१५ में लायला नाम की ल्यूकेमिया से पीड़ित एक बच्ची का उपचार ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाआें से किया गया था जिनमें जेनेटिक फेरबदल किए गए थे । दूसरे शब्दों में इनमें जीन-संपादन किया गया था । इस उपचार के बाद ल्यूकेमिया के सारे लक्षण गायब हो गये थे । अब जीन संपादन की यह तकनीक इस स्थिति में आ चुकी है कि २०१७ के अंत तक कई लोगों की जान बचाई जा सकेगी । 
       जीन संपादन का मतलब है कि मौजूदा जीन्स में फेरबदल करना या उन्हें निष्क्रिय कर देना । यह करना बहुत मुश्किल रहा है । जीन संपादन की ऐसी विधियां विकसित करने में कई वर्ष लगे थे जिनकी मदद से लायला का जीवन बचाया जा सका । मगर अब क्रिस्पर तकनीक के आविष्कार के बाद यह काम आसानी से किया जा सकता   है । 
क्रिस्पर तकनीक इतनी कारगर है कि मामला इसके क्लीनिकल परीक्षण के चरण में पहुंच चुका है । चीन में इसका उपयोगी पीडी १ नामक एक जीन को निष्क्रिय बनाने में किया जा रहा है। यह जीन एक कैंसरग्रस्त व्यक्ति की प्रतिरक्षा कोशिकाआें से निकाला गया है । इनके पीडी-१ जीन में फेरबदल करके इन्हें वापिस व्यक्ति के शरीर में पहुंचा दिया जाता है । दरअसल, पीडी-१ जीन प्रतिरक्षा 
कोशिकाआें की सतह पर एक स्विच की तरह काम करता है और कई कैंसर कोशिकाएं इसी स्विच से जुड़कर उसे बंद कर देती है । संपादित कोशिका में ऐसा कोई स्विच नहीं होता जिसे कैंसर कोशिकाएं बंद कर सके । 
यूएस में चल रहे इसी प्रकार के एक परीक्षण का लक्ष्य कहीं अधिक महत्वाकांक्षी है । इसके अन्तर्गत प्रतिरक्षा कोशिकाआें म ेंएक अतिरिक्त जीन जोड़ा गया है ताकि प्रतिरक्षा कोशिकाएं कैंसर गठान पर आक्रमण कर सके । इन नवीन प्रतिरक्षा कोशिकाआें के पीडी १ जीन को निष्क्रिय कर दिया गया है । ऐसे जीन को जोड़कर ल्यूकेमिया जैसे कई किस्म के कैसरों के उपचार में मदद मिली है । अभी ठोस गठानों के संदर्भ मेंसफलता नहीं मिल पाई है । अब माना जा रहा है कि पीडी-१ जीन को निष्क्रिय कर देने से इसमें भी सफलता मिलेगी । 
यदि इन दो परीक्षणों से पता चलता है कि कोशिका के जीनोम का संपादन सुरक्षित है, तो जल्दी ही इस तकनीक का उपयोग कई बीमारियों में किया जा सकेगा, ऐसी उम्मीद   है । 
धरती के नीचे पिघले लोहे की धारा
हमारे पैरो तले की जमीन के नीचे पिघले लोहे की एक नदी बह रही है । यह लोहा लगभग सूरज की सतह के तापमान जितना गर्म है । और तो और, यह धारा रफ्तार पकड़ती जा रही है । 

     तरल पदार्थ  की इस धारा की खोज युरोपीय एजेंसी द्वारा वर्ष २०१३ में प्रक्षेपित तीन उपग्रहों के एक साथ उपयोग से संभव हुई थी । इन तीन उपग्रहों की तिकड़ी को स्वार्म कहते हैं । इन तीन उपग्रहों की खासियत यह है कि ये अंतरिक्ष से पृथ्वी की सतह से ३००० किलोमीटर की गहराई में हो रही चुंबकीय उथल-पुथल को भांप और माप सकते  है । यह वह स्थान है जहां पृथ्वी का पिघला हुआ कोर केन्द्र में उपस्थित ठोस मैंटल के संपर्क में है । 
     एक साथ तीन उपग्रहों की उपस्थिति का फायदा यह था कि पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में अन्यत्र हो रहे परिवर्तनों को अलग करके देखा जा सकता था कि कोर-मैटल की संपर्क सतह पर क्या चल रहा है । 
पुण्य-स्मरण
अनुपम मिश्र : आँखों में पानी के हिमायती 
राजकुमार कुम्भज 
प्रख्यात गांधीवादी अनुपम मिश्र सच्च्े अर्थोमें अनुपम थे। वह पानी मिट्टी पर शोध के अलावा चिपको आंदोलन में भी सक्रिय रहे वे कर्म और वाणी के अद्वैत योद्धा थे । 
बड़ी से बड़ी सच्चई को भयरहित स्वार्थरहित दोष रहित और पक्षपातरहित बोल देने के लिए प्रतिबद्ध थे । अनुपम मिश्र गांधी शांति प्रतिष्ठान के ट्रस्टी और राष्ट्रीय गांधी स्मारक निधि के उपाध्यक्ष   रहे । वह ऐसे पहले भारतीय थे, जिन्होंेने पर्यावरण पर ठ ीक तब से काम और चिंतन शुरू  कर दिया था जबकि देश में पर्यावरण का कोई भी सरकारी विभाग तक नहीं था । उन्होंने हमेशा ही परंपरागत जलस्त्रोतों के संरक्षण, प्रबंधन तथा वितरण के संदर्भ में अपनी आवाज बुलंद की । अनुपम मिश्र की पहल पर ही गांधी प्रतिष्ठान में पर्यावरण अध्ययन कक्ष की स्थापना हुई थी जहां से हमारा पर्यावरण और देश का पर्यावरण जैसी ही महत्वपूर्ण पुस्तक आई ।
वह अकसर कहा करते पूरा भारत देश ही मेरा घर है। राजस्थान के अलवर में मृतप्राय अरवरी नदी को पुनजीवित करने का उनका संकल्प कैसे भुलाया जा सकता है ? अरवरी नदी के पुनर्जीवन ने उन्हें नई पहचान से लबालब कर दिया । राजस्थान के ही लापोडिया और उत्तराखंड में परंपरागत जलस्त्रोतों को दोबारा जीवित कर देने में भी उनका सराहनीय योगदान रहा था । बावजूद इसके उनकी विशेषताएं यही थी कि वे कभी भी अपने द्वारा सुझाए या संपादित किए गए काम पर किसी भी तरह के निजी श्रेय का दावा नहीं करते थे ।
उन्होंने अपनी उपलब्धियों को कभी भी अपने सरल तत्व यानी सहजता पर हावी ही नहीं होने    दिया । उनका होना पानी का होना  था । उनका होना पानीदार आदमी का होना था । उनका होना साधारण में असाधारण का होना था । उनका होना गांधी के न होने वाले वक्त में गांधी मार्ग का होना था । अनुपम मिश्र इसलिए भी अनुपम थे कि उन्होंने हमें मनुष्यों पर विश्वास करना सिखाया । वे मानते थे जो विश्वास करता है वही मनुष्य है ।  
पर्यावरण के लिए सतत चिंता और चिंतन करते रहने वाले अनुपम मिश्र ने दूसरी संस्थाओं सहित सरकारों को भी पर्यावरण के लिए चिंता और चिंतन करना सिखाया । उनकी चिंता और चिंतन के केन्द्र्र में सिर्फ किसी भूखंड पर तालाब का होना और तालाब में पानी का होना ही महत्वपूर्ण नहीं था । बल्कि उन्होंने अपने व्यवहार से यह तक प्रतिष्ठित किया था कि आदमी की आँखों में भी पानी का होना कितना जरूरी है ।
नब्बे के दशक की शुरूआत में जब अनुपम मिश्र की लिखी पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब प्रकाशित हुई तब तक हमारे समाज में पर्यावरण कर लेकर कोई खास गंभीरता दिखाई नहीं देती थी और पानी का प्रबंधन तो बहुत दूर की कोई कौड़ी हुआ करती थी । नदियां आज जितनी जहरीली नहीं हुई थीं और गंगा भी कमोवेश गंदगी से अछूती कही जा सकती थी । पीने के पानी का भी इस कदर बाजारीकरण नहीं हुआ था । किन्तु अनुपम मिश्र की चिंताएं भविष्य के संकट को भली भांति भांप रही थीं । 
उन्होंने अपने समाज से जिस भाषा में संवाद किया उस भाषा का भी उनकी चिंताओं पर गहरा प्रभाव दिखाई देता है । वे जिस भाषा में बोलते और लिखते थे । वह लोगों को भीतर तक छू जाने वाली अपनी सी लगने लगती थी । अन्यथा नहीं है कि अनुपम मिश्र के कवि पिता भवानी प्रसाद मिश्र भी अपनी बात जिस भाषा में बोलते थे उसी भाषा में लिखते थे । प्रख्यात समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया भी ऐसी है भाषा और मुहावरों में अपनी बात कहते थे कि वह समाजवादी चिंतन धारा से निकले एक गांधीवादी विचारक थे। समाजवाद और  गांधीवाद उनके रग-रग में रच-बस गए थे ।
गांधी शांति प्रतिष्ठान से प्रकाशित होने वाली पत्रिका गांधी मार्ग के हरेक अंक और हरेक पृष्ठ पर उनकी अनुपम संपादकीय दृष्टि देखी जा सकती है । अपने मुद्दों और आग्रहों पर कायम रहने की उनमें एक जिद तो थी लेकिन वहां बड़ बोलापन और दोहराव नहीं होता था । वहां भाषा की परवाह थी और खामियांे से मुक्ति होती थी। किंतु उनकी समूची सोच किसी भी दृष्टिकोण से मात्र अकादमिक अनुसंधान नहीं थी बल्कि  लोक-संवाद और लोक विद्या से ही जुड़ी  थी । लोक और समाज से उनका रिश्ता इतना विस्तृत और इतना विविध था कि वे जीवनपर्यंत समाज को कुछ सिखाने की बजाय समाज से सीखने की ही बात दोहराते रहे । 
नदियों को अपनी आजादी चाहिए । इंसानों जैसी आजादी चाहिए। जब से हमने नदियों की आजादी छीनी है नदियां नाला बनकर रह गई हैं । जैसा मौलिक विचार देने वाले अनुपम मिश्र नदियों को लेकर स्पष्ट मत था कि जब लोग नदियों से जुड़ जाएंगे, तो फिर नदियों को नदियों से जोड़ने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी । सरकार को, सरकारी अफसरों को और नेताओं को जाहिर है कि जनता के बीच जाकर जनता से संवाद करना चाहिए । देश में हो रहे मौजूदा विकास से होने वाले खतरों के प्रति वे हमेशा आगाह करते रहे । आज भी खरे हैं तालाब इसका प्रमाण है । उनकी इस पुस्तक में कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गोवा से गुवाहाटी तक समूचे भारत में फैले पानी के अद्वितीय जल प्रबंधन का खुलासा उपलब्ध है । 
उन्होंने परंपरागत भारतीय जल प्रबंधन पर दो मूल्यवान पुस्तकें लिखी थीं आज भी खरे है तालाब (१९९३) और राजस्थान की रजत बूंदें (१९९५) नपे तुले शब्दों में प्रामाणिक बातें करना उनकी लेखकीय प्रतिभा का प्रमाण था। `आज भी खरे हैं तालाब` की खूबी यह थी कि वह अनेकों भाषाओं में अनूदित हुई । किंतु यह तथ्य वाकई विस्मयकारी रहा कि उन्होंने अपनी इस पुस्तक की कभी कोई रायल्टी नहीं ली । आज भी खरे हैं तालाब आज भी कॉपीराइट से मुक्त किताब है कोई भी कहीं भी कभी भी चाहे जितनी प्रतियां स्वतंत्रतापूर्वक छाप सकता है । 
वे सच्ची वैज्ञानिकता और सच्ची साहित्यिक गहराई से अपने काम में जुट जाते थे । उन्हें सच बोलने के लिए किसी भी आंड़बर अथवा नाटकीयता की आवश्यकता नहीं पड़ती थी । वे एक ऐसे सीधे-सच्च्े आदमी थे जो किसी भी सच को संपूर्ण व सीधे-सीधे ही बोल देते थे। उनके सोच विचार की प्रक्रिया और जीवनक्रम में प्राकृतिक तौर पर प्रकृति और सिर्फ प्रकृति समाहित   थी । 
उन्हें एक खास अर्थ में प्रकृति पुरुष भी कहा जा सकता है। वह मानते थे कि पारंपरिक कृषि हवा रोशनी और पानी पर सबका समान अधिकार था। सिंचाई के अपने संसाधन थे। सामूहिकता का सफल जीवन-दर्शन था। किसान के पास पालतू जानवर थे । जिनसे आय भी मिलती थी और खाद का बंदोबस्त भी हो जाता था । किंतु वह सब पता नहीं कहां चला गया ? आज सबकुछ बिक रहा है । कौन नहीं जानता है कि आज का सबसे बड़ा सवाल पानी और पर्यावरण ही है ? जल जंगल और जमीन की मूल्य बताकर विनयशील अनुपम मिश्र ने वक्त से पहले ही विदा ले गए ।
विरासत 
भाषा और पर्यावरण 
अनुपम मिश्र
किसी समाज का पर्यावरण पहले बिगड़ना शुरू होता है या उसकी भाषा-हम इसे समझ कर संभल सकने के दौर से अभी तो आगे बढ़ गए हैं । हम `विकसित` हो गए हैं । भाषा यानी केवल जीभ नहीं । भाषा यानी मन और माथा भी । एक का नहीं, एक बड़े समुदाय का मन और माथा जो अपने आसपास के और दूर के भी संसार को देखने-परखने-बरतने का संस्कार अपने में सहज  संजो लेता है । ये संस्कार बहुत कुछ उस समाज की मिट्टी, पानी, हवा में अंकुरित होते हैं, पतले-बढ़ते हैं और यदि उनमें से कुछ मुरझाते भी हैं तो उनकी सूखी पत्तियां वहीं गिरती हैं, उसी मिट्टी में खाद बनाती हैं। इस खाद यानी असफलता की ठोकरों के अनुभव से भी समाज नया कुछ सीखता है । लेकिन कभी-कभी समाज के कुछ लोगों का माथा थोड़ा बदलने लगता है। यह माथा फिर अपनी भाषा भी बदलता है । यह सब इतने चुपचाप होता है कि समाज के सजग माने गए लोगों के भी कान खड़े नहीं हो पाते । इसका विश्लेषण, इसकी आलोचना तो दूर, इसे कोेई क्लर्क  या मुंशी की तरह भी दर्ज नहीं कर पाता ।
इस बदले हुए माथे के कारण हिंदी भाषा में ५०-६० बरस में नए शब्दों की एक पूरी बारात आई है। बारातिये एक-से-एक हैं पर पहले तो दूल्हे राजा को ही देखें। दूल्हा है विकास नामक शब्द । ठीक इतिहास तो नहीं मालूम कि यह शब्द हिंदी में कब पहली बार आज के अर्थ में शामिल हुआ होगा । पर जितना अनर्थ इस शब्द ने पर्यावरण के साथ किया है, उतना शायद ही किसी और शब्द ने किया हो। विकास शब्द ने माथा बदला और फिर उसने समाज के अनगिनत  अंगों की थिरकन को थामा । अंग्रेजों के आने से ठीक पहले तक समाज के जिन अंगों के बाकायदा राज थे, वे लोग इस भिन्न विकास की `अवधारणा` के कारण आदिवासी कहलाने लगे । नए माथे ने देश के विकास का जो नया नक्शा बनाया, उसमें ऐसे ज्यादातर इलाके `पिछड़े` शब्द के रंग से ऐसे रंगे गए जे कई पंचवर्षीय योजनाओं के  झाडू-पोंछे से भी हल्के नहीं पड़ पा  रहे । अब हम यह भूल ही चुके हैं कि ऐसे ही `पिछडे`़ इलाकों की संपन्नता से, वनों से, खनिजों से, लौह-अयस्क से देश के अगुआ मान लिए गए हिस्से कुछ टिके से दिखते हैं।
कुछ मुठ्ठी भर लोग पूरे देश की देह का, उसके हर अंग का विकास करने में जुट गए हैं। ग्राम विकास तो ठीक, बाल विकास, महिला विकास सब कुछ लाईन में   है । अपने को, अपने समाज को समझे बिना उसके विकास की इस विचित्र उतावली में गजब की सर्वसम्मति है । सभी राजनैतिक दल, सभी सरकारें, सभी सामाजिक संस्थाएं, चाहे वे धार्मिक हों, मिशन वाली हों, या वर्ग संघर्ष वाली-गर्व से विकास के काम में लगी हैं, विकास की इस नई अमीर भाषा ने एक नई रेखा भी खींची है-गरीबी की रेखा । लेकिन इस रेखा की खींचने वाले संपन्न लोगों की गरीबी तो देखिए कि उनकी तमाम कोशिशें रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या में कमी लाने के बदले उसे लगातार बढ़ाती जा   रही हैं । 
पर्यावरण की भाषा इस सामाजिक-राजनैतिक भाषा से रत्ती-भर अलग नहीं है । वह हिंदी भी है । यह कहते हुए डर लगता है । बहुत हुआ तो आज के पर्यावरण की ज्यादातर भाषा देवनागरी कही जा सकती है । लिपि के कारण राजधानी में पर्यावरण मंत्रालय से लेकर हिंदी राज्यों के कस्बों, गांवों तक के लिए बनी पर्यावरण संस्थाओं की भाषा कभी पढ़ कर तो देखें । ऐसा पूरा साहित्य, लेखन, रिपोर्ट सब कुछ एक अटपटी हिंदी से पटा पड़ा है ।
कचरा-शब्दों का और उनसे बनी विचित्र योजनाओं का ढेर लगा है । इस ढेर को `पुनर्चक्रित` भी नहीं किया जा सकता । दो-चार नमूने देखें ।  सन् ८० से आठ -दस बरस तक पूरे देश में सामाजिक वानिकी नामक योजना चली । किसी ने भी नहीं पूछा कि पहले यह तो बता दो कि असामाजिक वानिकी क्या है? यदि इस शब्द का, योजना का संबंध समाज के वन से है, गांव के वन से है तो हर राज्य के गांवों में ऐसे विशिष्ट ग्रामवन, पंचायती वनों के लिए एक भरा-पूरा शब्द-भंडार, विचार और व्यवहार का संगठन काफी समय तक रहा है । कहीं उस पर थोड़ी धूल चढ़ गई थी तो कहीं वह मुरझा गया था, पर वह मरा तो नहीं था। उस दौर में कोई संस्था आगे नहीं आई इन बातों को लेकर । मरुप्रदेश में आज भी ओरण (अरण्य से बना शब्द) हैं । ये गांवों के वन, मंदिर देवी के नाम पर छोड़े जाते हैं। कहीं-कहीं तो मीलों फैले हैं ऐसे जंगल । इनके विस्तार की, संख्या की कोई व्यवस्थित जानकारी नहीं है। वन विभाग कल्पना भी नहीं कर सकता कि लोग ओरणों से एक तिनका भी नहीं उठाते । 
अकाल के समय में ही इनको खोला जाता है । वैसे ये खुले ही रहते हैं, न कटीले तारों का घेरा है, न दीवारबंदी ही, श्रद्धा, विश्वास का घेरा इन वनों की रखवाली करता रहा है । हजार-बारह सौ बरस पुराने ओरण भी यहां मिल जाएंगे। जिसे कहते हैं बच्च्े-बच्च्े की जबान पर ओरण शब्द रहा है पर राजस्थान में अभी कुछ ही बरस पहले तक सामाजिक संस्थाएं, श्रेष्ठ वन विशेषज्ञ या तो इस परंपरा से अपरिचित थे या अगर जानते थे तो कुछ कुतुहल भरे, शोध वाले अंदाज में। ममत्व, यह हमारी परंपरा है, ऐसा भाव नहीं था उस जानकारी में ।
ऐसी हिंदी की सूची लंबी है, शर्मनाक है। एक योजना देश की बंजर भूमि के विकास की आई थी । उसकी सारी भाषा बंजर ही थी। सरकार ने कोई ३०० करोड़ रुपया लगाया होगा पर बंजर-की-बंजर रही भूमि । फिर योजना ही समेट ली  गई । और सबसे ताजी योजना है जलागम क्षेत्र विकास की । यह अंगे्रजी के वॉटरशेड डेवलपमेंट का हिंदी रूप है। इससे जिनको लाभ मिलेगा, वे लाभार्थी कहलाते हैं, कहीं हितग्राही भी हैं । `यूजर्स ग्रुप` का सीधा अनुवाद उपयोगकर्ता समूह भी यहां है । तो एक तरफ साधन संपन्न योजनाएं हैं, लेकिन समाज से कटी हुई । जन भागीदारी का दावा करती हैं पर जन इनसे भागते नजर आते हैं तो दूसरी तरफ मिट्टी और पानी के खेल को कुछ हजार बरस से समझने वाला समाज है । उसने इस खेल में शामिल होने के लिए कुछ आनंददायी नियम, परंपराएं, संस्थाएं बनाई थीं । किसी अपरिचित शब्दावली के बदले एक बिल्कुल आत्मीय ढांचा खड़ा किया था । चेरापूंजी, जहां पानी कुछ गज भर गिरता है, वहां से लेकर जैसलमेर तक जहां कुल पांच-आठ  इंच वर्षा हो जाए तो भी आनंद बरस गया-ऐसा वातावरण बनाया । हिमपात से लेकर रेतीली आंधी में पानी का काम, तालाबों का काम करने वाले गजधरों का कितना बड़ा संगठ न का आकार इतना बड़ा था कि वह सचमुच निराकार हो गया । आज पानी का, पर्यावरण का काम करने वाली बड़ी-से-बड़ी संस्थाएं उस संगठन की कल्पना तो करके     देखें । लेकिन वॉटरशैड, जलागम क्षेत्र विकास का काम कर रही संस्थाएं, सरकारें, उसे निराकार संगठन को देख ही नहीं पाती । उस निराकार से टकराती हैं, गिर भी पड़ती हैं, पर उसे देख, पहचान नहीं पातीं । उस संगठन के लिए तालाब एक वॉटर बॉडी नहीं था । वह उसकी रतन तलाई थी। झुमरी तलैया थी, जिसकी लहरों में वह अपने पुरखों की छवि देखता    था । लेकिन आज की भाषा जलागम क्षेत्र विकास को मत्स्य पालन से होने वाली आमदनी में बदलती है ।
इसी तरह अब नदियां यदि घर में बिजली का बल्ब न जला पाएं तो माना जाता है कि वे `व्यर्थ में पानी समुद्र में बहा रही हैं।` बिजली जरूर बने, पर समुद्र में पानी बहाना भी नदी का एक बड़ा काम है। इसे हमारी नई भाषा भूल रही है। जब समुद्र तटीय क्षेत्रों में भूजल बड़े पैमाने पर खारा होने लगेगा-तब हमें नदी की इस भूमिका का महत्व पता चलेगा । लेकिन आज तो हमारी भाषा ही खारी हो चली है । जिन सरल, सजल शब्दों की धाराओं से वह मीठी बनती थी, उन धाराओं को बिल्कुल नीरस, बनावटी, पर्यावरणीय, परिस्थितिक जैसे शब्दों से बांधा जा रहा है । अपनी भाषा, अपने ही आंगन में विस्थापित हो रही है, वह अपने ही आंगन में पराई बन रही है ।
वनस्पति जगत
पेड़ों की ऊंचाई कौन तय करता है ?
डॉ. किशोर पंवार 

यह दुनिया तरह-तरह के अजूबों से भरी पड़ी है । इनमें एक अजूबा तो मनुष्य ही है, जो अपने आसपास की वस्तुआें को अलग-अलग नजरिए से देखता है । और फिर उन्हें जीवित और अजीवित जैसे समूहों में बांट कर उनका विस्तृत वर्गीकरण करता है । वह आगे जाकर दुनिया की छोटी से छोटी वस्तु दुनिया का सबसे विशाल जीव दुनिया का सबसे लंबा पेड़ आदि की सूचियां बनाता है । इस तरह का वर्गीकरण करना, सूचियां बनाना मनुष्य की स्वभावगत विशेषता है । इसी ने विज्ञान में टेक्सानॉमी जैसी शाखा को जन्म दिया है ।
सबसे छोटे फूलधारी पौधे का जिक्र हो तो वुल्फिया का नाम सामने आता है । यह एक मि.मी. आकार का जलीय पौधा है । सबसे बड़े बीजधारी या फूलधारी पेड़ों की बात हो तो थोड़ी दुविधा है । बड़ा यानी क्या ? ऊंचाई मेंबड़ा या मोटाई में बड़ा । मोटाई और आकार में तो जनरल शेरमन को ही यह सम्मान प्राप्त् है । वस्पति शास्त्री इसे सिकोया सेम्पेविरेन्स के नाम से जानते हैं । कैलिर्फोनिया के घने वर्षा वनों में मिलने वाले दो रेडवुड में से यह एक है । कोस्ट रेडवूड दुनिया का सबसे भारी और आयतन में सबसे बड़ा पेड़ है । 
कैलिर्फोनिया के राष्ट्रीय सिकोया उद्यान में स्थित जनरल शेरमन ९३.८ मीटर ऊंचा पे़ड़ है । पर इससे भी ऊंचा एक पेड़ है कोस्ट रेडवुड जिसका नाम हायपेरियान है । यह ११५.५ मीटर ऊंचा है । हालांकि जनरल शेरमन के तने की गोलाई ३१.१ मीटर है परन्तु यह मेक्सिको के ओऐक्सका के पेड़ अलअर्बोल डाई थुले (गोलाई ५४ मीटर) से तो छोटा ही है । 
अत: पेड़ों के आकार को लेकर उन्हें देखने के अलग-अलग तरीके हैं। सबसे मोटा, ऊंचा या अधिक आयतन वाला । जैसे कुछ वैज्ञानिक ऑस्ट्रेलिया के ग्रेट बेरियर कोरल रीफ को दुनिया का सबसे बड़ा जीव मानते है । परन्तु सच तो यह है कि यह कोई अकेला जीव नहीं जीवों का समुदाय है । इसी तरह कुछ शोधकर्ता वॉशिंगटन में खोजी गई एक कवक (जो लगभग ६०७ हेक्टर में फैली) को क्षेत्रफल के हिसाब से दुनिया का सबसे बड़ा या लम्बा जीव मानते हैं । 
अभी और भी किरदार हैं जो इसके दावेदार है । जैसे क्वेकिंग एस्पेन जो इसके दावेदार है । जैसे क्वेकिंग एस्पेन ट्री जो उटा के वास्टेक पहाड़ों में पाया जाता है । इसे स्थानीय रूप से पेन्डो कहा जाता है जिसका लेटिन भाषा में अर्थ होता है - मैं फैलता हॅू । 
पेन्डो ४७००० हजार पेड़ों का समूह है जो ४३ हेक्टर में फैले हुए हैं और संभवत: ८०,००० साल पुराने है । परन्तु कैलिफोर्निया के रेडवुड जनरल शेरमन से ये कुछ सौ टन कम हैं वजन में । इनका वजन ५.९८७ टन आंका गया है । पेन्डो को एक ही जीव माना गया है क्योंकि समूह के सभी पेड़ का जेनेटिक कोड एक ही है और उनकी जड़ें भी आपस में अन्दर ही अन्दर जुड़ी हुई है । दरअसल पेन्डो पेड़ एक-दूसरे के क्लोन ही हैं । पुराने पेड़ का तना ३० मीटर दूर तक फैलनेऔर फिर वाहं जक पकड़ लेने से नए पेड़ बनते हैं । ऐसा बार-बार हर पेड़ के साथ होता रहता है । यदि पर्यावरणीय दशाएं अनुकूल हो तो यह पेड़ फैलता रहता है । पेड़ों के फैलने की यह विधि वर्धी प्रसार कहलाती है और यह पेड़ पौधों का एक महत्वपूर्ण लक्षण है । 
अकेलेक्वेकिंग एस्पेन का तना पतला होता है और लगभग ३०-३५ मीटर तक ऊंचे हो सकते  हैं । मुश्किल परिस्थितियों में जीवित रह पाने और अपनी प्रजनन क्षमता के दम पर क्वेकिंग एस्प्रेन अमेरिका का सबसे आम पेड़ है ।
२००८ में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि दुनिया का सबसे ऊंचा पेड़ डगलस फर है । इसकी लम्बाई लगभग १३८ मीटर है । पर सवाल यह है कि लम्बाई की ये सीमा क्यों ? ये पेड़ दरअसल प्रकृतिकी गगन चुम्बी इमारते हैं । किसी पेड़ की उच्च्तम सीमा तय होने के कारण भौतिक हैं । पहला यह कि ये पेड़ ऊपर की पत्तियों के लिए सिर्फ इसी अधिकतम ऊंचाई तक जमीन से पानी खींच सकते हैं । 
आम तौर पर ऐसा देखा गया है कि पेड़ जितना ऊंचा होता है उसकी पत्तियां छोटी होती जाती हैं । इस घटना के गणितीय स्पष्टीकरण पेड़ो की अधिकतम ऊंचाई भी तय करते है । 
हार्वर्ड विश्वविघालय के कारे जेनसन और कैलिर्फोनिया विश्वविघालय के मासिज जेविनेस्की ने १९२५ पेड़ों का अध्ययन किया और पाया कि पत्तियों का आकार मुख्यत: अपेक्षाकृत छोटे पेड़ों में ही ऊंचाई के लिहाज से बदलता है । अपने अध्ययन के लिए कुछ मिलीमीटर से लेकर एक मीटर से भी बड़ी पत्तियों वाले पेड़ों को इस हेतु चुना था । 
जेनसन का मानना है कि पत्तियों के आकार का स्पष्टीकरण इनके संचरण तंत्र में छिपा है । पत्तियों द्वारा बनाई गई शर्करा नलिकाआें के एक जाल, जिसे फ्लोएम कहते हैं, के माध्यम से शेष पौधे मेंविसरित होती है । जैसे-जैसे शर्करा आगे बढ़ती है उनकी गति तेज होती जाती है । अत: जितनी बड़ी पत्ती होती है शर्करा के विसरण की गति उतनी ही तेज होती जाती है । परन्तु फ्लोएम तनो, शाखाआें और मुख्य तने में अवरोध उत्पन्न करता है । ऐसी स्थिति में एक ऐसा बिन्दु आ जाता है जब पत्ती के लिए बड़ा होना ऊर्जा की दृष्टि से व्यर्थ हो जाता है । ऊंचे-ऊंचे पेड़ इस सीमा को छूते हैं जहां उनकी पत्तियां बहुत छोटी हो जाती है क्यों शर्करा को वहां से जड़ो तक पहुंचने में एक लंबा रास्ता तय करना पड़ता है जो एक बड़ा अवरोध पैदा करता है । जेनसन द्वारा दी गई समीकरण यह सम्बन्ध बताती है कि जैसे-जैसे पेड़ ऊंचा होता जाता है बड़ी और छोटी दोनों प्रकार की पत्तियों के जीवित रहने की संभावना असामान्य रूप से कम हो जाती है ।