गुरुवार, 19 जनवरी 2017

हमारा भूमण्डल
रेडियोधर्मिता पीड़ितों को न्याय से इंकार
टॉम आर्म्स 
मार्शल द्वीप आधुनिक परमाणु तकनीक के सबसे भयावह स्वरूप को पिछले करीब ७ दशकों से भुगत रहे हैं । परन्तु यह छोटा सा देश अपने अस्तित्व को बचाने के साथ ही साथ पूरी दुनिया को बचाए रखने की मुहीम की अगुवाई भी कर रहा है ।
मार्शल द्वीपों के निवासी इस धरती पर सबसे ज्यादा यंत्रणा सहने वाले लोग हैं। यदि वे आधुनिक समय में परमाणु परीक्षण के दौरान कैंसर की जकड़ से नहीं मर पाए तो अब जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप बढ़ती समुद्री सतह उन्हें डुबो देगी । सभी पीड़ितों की तरह वह भी न्याय चाहते हैं।  परंतु हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने उनकी अर्जी को राजनयिक सह तकनीकी नजरिए से रद्द कर दिया । 
मार्शल द्वीपांेे की कुल आबादी करीब ५४००० है और दक्षिणी प्रशांत महासागर में दो समानांतर पंक्तियों में फैले इन द्वीपों का कुल क्षेत्रफल करीब ७५,००० वर्गमील है। उनकी सबसे लोकप्रिय संपत्ति (रियल स्टेट) बिकनी अटोल्ल है । दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका के बाद अमेरिका को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वह इन द्वीप समूहों के नागरिकों के कल्याण का ध्यान   रखे । उसने यहां के निवासियों का कल्याण ६७ परमाणु विस्फोट करके किया । कुल १२ वर्षों की अवधि में अमेरिका ने यहां २०० किलोटन दिन के बराबर के विस्फोट किए । 
गौरतलब है हिरोशिमा में गिराया गया बम मात्र १५ किलोटन का था । इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बिकनी अटोल्ल अब रहने लायक नहीं बचा है साथ ही यह तथ्य भी अब आश्चर्यचकित नहीं करता कि मार्शल द्वीप दुनिया में सर्वाधिक कैंसर पीड़ितों का निवास स्थल है एवं वहां रेडिएशन संबंधित सर्वाधिक जन्मजात विकलांगता पाई जाती है । अमेरिका की सरकार इन द्वीपों को सैनिक संरक्षण तो प्रदान करती है, परंतु वहां एक भी कैंसर विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं कराती ।
द्वीप निवासियों का मत है कि ऐसे सभी देश जिनके कि पास परमाणु हथियार हैं वे सभी उसकी इस दुरावस्था के लिए जिम्मेदार हैं । क्यों ? क्योंकि सन् १९६८ में हुई परमाणु निषेध संधि (एन पी टी) के अनुच्छेद ४ के अनुसार ``शीघ्रातिशीघ्र परमाणु हथियारों की समप्ति हेतु अच्छी नीयत से प्रभावशाली कदम उठाए जाएंगे और इस परमाणु दौड़ पर रोक लगाई जाएगी । इसी के साथ प्रभावशाली अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण में पूर्ण परमाणु हथियार बंदी संबंधी संधि का मार्ग प्रशस्त किया जाएगा ।`` 
पिछले वर्ष मार्शल द्वीपों ने ऐसे नौ देशों, अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, इजरायल, उत्तरी कोरिया, भारत, पाकिस्तान, व इग्लैंड, जिन्होंने या तो घोषणा कर दी है कि उनके पास परमाणु हथियार हैं या ऐसा विश्वास है कि वे परमाणु हथियार सम्पन्न हैं, के खिलाफ इस बिना पर मुकदमा दायर किया कि वे अपने ``वायदे`` से मुकर गए हैं । परंतु केवलतीन देशों भारत, पाकिस्तान व ब्रिटेन के खिलाफ ही मुकदमा चल सका क्योंकि बाकी के देश अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को मान्यता ही नहीं देते । 
संयुक्त राष्ट्र संघ के इस कानूनी अंग ने ५ अक्टूबर को अपना निर्णय सुनाया । न्यायालय ने कमोवेश बंद कमरे में ही इसकी सुनवाई करी । बचाव पक्ष ने तकनीकी पक्ष पर बहस करते व जोर डालते हुए अपने पक्ष में निर्णय करवा लिया और द्वीप निवासियों की त्रासदी की अवेहलना की । उनका कहना था कि मार्शल द्वीपों के अधिवक्ता ने उनसे न्यायालय से बाहर ही समझौता कर लिया है ।
ब्रिटेन के मामले में ८-८ न्यायाधीश पक्ष व विपक्ष में थे । अतएव न्यायाधिकरण के अध्यक्ष ने ब्रिटेन के पक्ष में इस टाई को तोड़ा । भारत और पाकिस्तान की स्थिति कुछ ठीक  थी जिन्हें ९ के मुकाबले ७ मतों से जीत मिली । द्वीपों के प्रमुख अधिवक्ता पूर्व विदेशमंत्री ७१ वर्षींया टोनी डे ब्रम का कहना था कि परमाणु परीक्षणों की वायु ने सैकड़ांे पुरातन ग्रामीण प्रवालद्वीपों एवं तमाम अन्य को हजारों वर्षों तक न रह सकने लायक बना दिया है। उन्होंने न्यायालय को बताया कि जब नौ वर्ष के थे तब समुद्र में मछली मारने के दौरान उन्होंने एक परमाणु विस्फोट देखा था । वह विस्फोट २०० मील की दूरी पर हुआ था, परंतु पूरा आकाश लाल हो गया और क्षितिज पर एक विशाल मशरूम बादल उभर आया । 
इसके तुरंत बाद भयानक धमाका सुनाई दिया और रेडियोएक्टिव ताप भी फूट पड़ा । डे ब्रम ने काफी भावुक और कातर शब्दों में अपनी बात रखी परंतु वह न्यायालय के समक्ष असफल रहे । वही मार्शल द्वीपों के हेग स्थित स्थानीय अधिवक्ता फॉन वान डेन बाइसेन का कहना था, ``यहां के न्यायाधीशो के अलावा पूरी दुनिया को यह स्पष्ट है कि यह एक विवाद है।`` एक अन्य गैर सरकारी संगठ न जो सं. रा. संघ से संबंद्ध है, का कहना है, यह मुकदमा अन्य गैर परमाणु देशों के लिए पथ प्रदर्शक बनेगा । 
वही मार्शल द्वीपों की सरकार के सलाहकार वेमेन का कहना है कि हमें ५० लाख लोगों और १०० से अधिक गैर सरकारी संगठनों का समर्थन प्राप्त हुआ है । उन्होंने इस बात की ओर इशारा किया कि न्यायालयीन निर्णय काफी कम अंतर से आया है और न्यायालय में इस विषय पर गहरा मतभेद भी था ।
ऐसे संकेत भी आए हैं कि अब वैश्विक परमाणु हथियार विरोधी लाबी भी इस मामले को उठाएगी । आस्ट्रिया, ब्राजील, आयरलैंड, मेक्सिको, नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका के ६ सदस्यीय समूह ने वायदा किया है कि वह सं. रा. संघ   साधारण सभा में प्रस्ताव लाएंगे कि ``परमाणु हथियारों को प्रतिबंधित करने के लिए एक कानूनी बाध्यता वाला समझौता स्वीकार किया    जाए ।`` मार्शल द्वीप निवासियों के लिए यह प्रस्ताव थोड़ा सांत्वनाजनक है क्योंकि उन्हें निर्णय के विरुद्ध अपील करने तक की अनुमति नहीं दी गई है । 
परंतु अब उनके सामने और भी समस्याएं खड़ी हो गई हंै जैसे कि सीवेज (कचड़ा) उनके रसोई के सिंक में ही तैरता रहता है, खारे पानी ने ताजे पानी की आपूर्ति को नुकसान पहुंचा कर इसे पीने योग्य ही नहीं रहने दिया है । साथ ही उनकी फसलें भी मरने लगी हैं। मार्शल द्वीपों के निवासियों के लिए जलवायु परिवर्तन विमर्श का विषय नहीं है बल्कि  उनका तो जीना ही मुहाल होता जा रहा है । 
द्वीपों की इस श्रृंखला का सबसे ऊँचा स्थान समुद्र की सतह से महज छ:फूट ही ऊँचा है । बढ़ते समुद्री स्तर के चलते इस बात की पूरी संभावना है कि इस शताब्दी के मध्य तक यह रहने लायक नहीं रह जाएगा । यहां की राजधानी माजुरो में अक्सर जबरदस्त ऊंची लहरें घुस जाती हंै और घरों और व्यापार को नष्ट कर देती हैं। 
तीन बार विदेशमंत्री रहे टोनी डे ब्रम ने अपना पूरा जीवन परमाणु हथियारों के खिलाफ लड़ाई और अपने देश को पानी की कब्र में बदलने से बचाने में लगा दिया है । उन्हें दुनियाभर में सराहा जाता है और पेरिस जलवायु सम्मेलन की वार्ता को उन्होंने ही असफल होने से बचाया  था । गौरतलब है वे अपने प्रयासों से १०० देशों, जिसमें बाद में यूरोपीय संघ, कनाडा और अमेरिका भी शामिल हो गये थे, को बातचीत पर राजी कर पाए थे । 
ऐसा तब हुआ जबकि वे दुनिया के सातवें सबसे छोटे देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे । डे ब्रम ने ही सन् १९८३ में एक समझौता किया था जिसके तहत मार्शल द्वीपों के निवासी अमेरिका के अरकासंस, आरेगॉन और वाशिंगटन राज्यों के बस पाए थे । अंतत: उन्हीं के प्रयासों से अमेरिका ने पेरिस सम्मेलन में वायदा किया वह जलवायु परिवर्तन से पीड़ितों हेतु ३ अरब डॉलर की    मदद पहुंचाएगा । ब्रम का कहना है ``हम इस पंक्ति में पहले स्थान पर हैं।``
वे इस धन को ब्रेक वाटर व जलशोधन (नमक निकालने) संयंत्रों पर खर्च करना चाहते हैं। परंतु हमें सोचना होेगा कि दुनिया के प्रथम रेडियोधर्मी जलवायु परिवर्तन शरणार्थियों का वास्तव में क्या भविष्य है ?

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