गुरुवार, 19 जनवरी 2017

पुण्य-स्मरण
अनुपम मिश्र : आँखों में पानी के हिमायती 
राजकुमार कुम्भज 
प्रख्यात गांधीवादी अनुपम मिश्र सच्च्े अर्थोमें अनुपम थे। वह पानी मिट्टी पर शोध के अलावा चिपको आंदोलन में भी सक्रिय रहे वे कर्म और वाणी के अद्वैत योद्धा थे । 
बड़ी से बड़ी सच्चई को भयरहित स्वार्थरहित दोष रहित और पक्षपातरहित बोल देने के लिए प्रतिबद्ध थे । अनुपम मिश्र गांधी शांति प्रतिष्ठान के ट्रस्टी और राष्ट्रीय गांधी स्मारक निधि के उपाध्यक्ष   रहे । वह ऐसे पहले भारतीय थे, जिन्होंेने पर्यावरण पर ठ ीक तब से काम और चिंतन शुरू  कर दिया था जबकि देश में पर्यावरण का कोई भी सरकारी विभाग तक नहीं था । उन्होंने हमेशा ही परंपरागत जलस्त्रोतों के संरक्षण, प्रबंधन तथा वितरण के संदर्भ में अपनी आवाज बुलंद की । अनुपम मिश्र की पहल पर ही गांधी प्रतिष्ठान में पर्यावरण अध्ययन कक्ष की स्थापना हुई थी जहां से हमारा पर्यावरण और देश का पर्यावरण जैसी ही महत्वपूर्ण पुस्तक आई ।
वह अकसर कहा करते पूरा भारत देश ही मेरा घर है। राजस्थान के अलवर में मृतप्राय अरवरी नदी को पुनजीवित करने का उनका संकल्प कैसे भुलाया जा सकता है ? अरवरी नदी के पुनर्जीवन ने उन्हें नई पहचान से लबालब कर दिया । राजस्थान के ही लापोडिया और उत्तराखंड में परंपरागत जलस्त्रोतों को दोबारा जीवित कर देने में भी उनका सराहनीय योगदान रहा था । बावजूद इसके उनकी विशेषताएं यही थी कि वे कभी भी अपने द्वारा सुझाए या संपादित किए गए काम पर किसी भी तरह के निजी श्रेय का दावा नहीं करते थे ।
उन्होंने अपनी उपलब्धियों को कभी भी अपने सरल तत्व यानी सहजता पर हावी ही नहीं होने    दिया । उनका होना पानी का होना  था । उनका होना पानीदार आदमी का होना था । उनका होना साधारण में असाधारण का होना था । उनका होना गांधी के न होने वाले वक्त में गांधी मार्ग का होना था । अनुपम मिश्र इसलिए भी अनुपम थे कि उन्होंने हमें मनुष्यों पर विश्वास करना सिखाया । वे मानते थे जो विश्वास करता है वही मनुष्य है ।  
पर्यावरण के लिए सतत चिंता और चिंतन करते रहने वाले अनुपम मिश्र ने दूसरी संस्थाओं सहित सरकारों को भी पर्यावरण के लिए चिंता और चिंतन करना सिखाया । उनकी चिंता और चिंतन के केन्द्र्र में सिर्फ किसी भूखंड पर तालाब का होना और तालाब में पानी का होना ही महत्वपूर्ण नहीं था । बल्कि उन्होंने अपने व्यवहार से यह तक प्रतिष्ठित किया था कि आदमी की आँखों में भी पानी का होना कितना जरूरी है ।
नब्बे के दशक की शुरूआत में जब अनुपम मिश्र की लिखी पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब प्रकाशित हुई तब तक हमारे समाज में पर्यावरण कर लेकर कोई खास गंभीरता दिखाई नहीं देती थी और पानी का प्रबंधन तो बहुत दूर की कोई कौड़ी हुआ करती थी । नदियां आज जितनी जहरीली नहीं हुई थीं और गंगा भी कमोवेश गंदगी से अछूती कही जा सकती थी । पीने के पानी का भी इस कदर बाजारीकरण नहीं हुआ था । किन्तु अनुपम मिश्र की चिंताएं भविष्य के संकट को भली भांति भांप रही थीं । 
उन्होंने अपने समाज से जिस भाषा में संवाद किया उस भाषा का भी उनकी चिंताओं पर गहरा प्रभाव दिखाई देता है । वे जिस भाषा में बोलते और लिखते थे । वह लोगों को भीतर तक छू जाने वाली अपनी सी लगने लगती थी । अन्यथा नहीं है कि अनुपम मिश्र के कवि पिता भवानी प्रसाद मिश्र भी अपनी बात जिस भाषा में बोलते थे उसी भाषा में लिखते थे । प्रख्यात समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया भी ऐसी है भाषा और मुहावरों में अपनी बात कहते थे कि वह समाजवादी चिंतन धारा से निकले एक गांधीवादी विचारक थे। समाजवाद और  गांधीवाद उनके रग-रग में रच-बस गए थे ।
गांधी शांति प्रतिष्ठान से प्रकाशित होने वाली पत्रिका गांधी मार्ग के हरेक अंक और हरेक पृष्ठ पर उनकी अनुपम संपादकीय दृष्टि देखी जा सकती है । अपने मुद्दों और आग्रहों पर कायम रहने की उनमें एक जिद तो थी लेकिन वहां बड़ बोलापन और दोहराव नहीं होता था । वहां भाषा की परवाह थी और खामियांे से मुक्ति होती थी। किंतु उनकी समूची सोच किसी भी दृष्टिकोण से मात्र अकादमिक अनुसंधान नहीं थी बल्कि  लोक-संवाद और लोक विद्या से ही जुड़ी  थी । लोक और समाज से उनका रिश्ता इतना विस्तृत और इतना विविध था कि वे जीवनपर्यंत समाज को कुछ सिखाने की बजाय समाज से सीखने की ही बात दोहराते रहे । 
नदियों को अपनी आजादी चाहिए । इंसानों जैसी आजादी चाहिए। जब से हमने नदियों की आजादी छीनी है नदियां नाला बनकर रह गई हैं । जैसा मौलिक विचार देने वाले अनुपम मिश्र नदियों को लेकर स्पष्ट मत था कि जब लोग नदियों से जुड़ जाएंगे, तो फिर नदियों को नदियों से जोड़ने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी । सरकार को, सरकारी अफसरों को और नेताओं को जाहिर है कि जनता के बीच जाकर जनता से संवाद करना चाहिए । देश में हो रहे मौजूदा विकास से होने वाले खतरों के प्रति वे हमेशा आगाह करते रहे । आज भी खरे हैं तालाब इसका प्रमाण है । उनकी इस पुस्तक में कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गोवा से गुवाहाटी तक समूचे भारत में फैले पानी के अद्वितीय जल प्रबंधन का खुलासा उपलब्ध है । 
उन्होंने परंपरागत भारतीय जल प्रबंधन पर दो मूल्यवान पुस्तकें लिखी थीं आज भी खरे है तालाब (१९९३) और राजस्थान की रजत बूंदें (१९९५) नपे तुले शब्दों में प्रामाणिक बातें करना उनकी लेखकीय प्रतिभा का प्रमाण था। `आज भी खरे हैं तालाब` की खूबी यह थी कि वह अनेकों भाषाओं में अनूदित हुई । किंतु यह तथ्य वाकई विस्मयकारी रहा कि उन्होंने अपनी इस पुस्तक की कभी कोई रायल्टी नहीं ली । आज भी खरे हैं तालाब आज भी कॉपीराइट से मुक्त किताब है कोई भी कहीं भी कभी भी चाहे जितनी प्रतियां स्वतंत्रतापूर्वक छाप सकता है । 
वे सच्ची वैज्ञानिकता और सच्ची साहित्यिक गहराई से अपने काम में जुट जाते थे । उन्हें सच बोलने के लिए किसी भी आंड़बर अथवा नाटकीयता की आवश्यकता नहीं पड़ती थी । वे एक ऐसे सीधे-सच्च्े आदमी थे जो किसी भी सच को संपूर्ण व सीधे-सीधे ही बोल देते थे। उनके सोच विचार की प्रक्रिया और जीवनक्रम में प्राकृतिक तौर पर प्रकृति और सिर्फ प्रकृति समाहित   थी । 
उन्हें एक खास अर्थ में प्रकृति पुरुष भी कहा जा सकता है। वह मानते थे कि पारंपरिक कृषि हवा रोशनी और पानी पर सबका समान अधिकार था। सिंचाई के अपने संसाधन थे। सामूहिकता का सफल जीवन-दर्शन था। किसान के पास पालतू जानवर थे । जिनसे आय भी मिलती थी और खाद का बंदोबस्त भी हो जाता था । किंतु वह सब पता नहीं कहां चला गया ? आज सबकुछ बिक रहा है । कौन नहीं जानता है कि आज का सबसे बड़ा सवाल पानी और पर्यावरण ही है ? जल जंगल और जमीन की मूल्य बताकर विनयशील अनुपम मिश्र ने वक्त से पहले ही विदा ले गए ।

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