शनिवार, 18 अगस्त 2018



प्रसंगवश
चन्द्रमा पर तिरंगा फहराने वाला अभियान
चन्द्रयान प्रथम के कामयाब प्रक्षेपण के बाद  इसरों चन्द्रयान द्वितीय को भेजने की तैयारी में जुटा है । इस अभियान में चांद की सतह पर रोवर उतार कर देश अंतरिक्ष विज्ञान में अपना परचम लहराएगा । 
मानव रहित मिशन के तहत चन्द्रयान द्वितीय नामक उपग्रह को चांद की कक्षा में स्थापित करना एवं चांद की सतह पर रोवर उतारना । जीएसएलवी एमके-३ से इसे अंतरिक्ष भेजा जाएगा । 
अपने छह पहियों के साथ २० किलोग्राम का रोवर सौर ऊर्जा से चलेगा । एक साल तक काम करने वाला रोवर एक घंटे में ३६० मीटर चलने के साथ १५० किमी की दूरी तय करने मेंसफल हो सकेगा । 
लैंडर और चलायमान रोवर को चन्द्रमा के मैंजीनस सीं और सिपेलियस एन क्रेटर्सके पास उतारने की योजना है। अगर सबकुछ योजना के अनुसार हुआ तो चन्द्रमा के दक्षिणी  धु्रव पर रोवर उतारने वाला भारत पहला देश बनेगा । रोवर सतह से अलग-अलग जगहों के नमूने लेगा । इन नमूनों के आंकड़ों को कक्षा में स्थापित चन्द्रयान द्वितीय उपग्रह द्वारा पृथ्वी पर नियंत्रण कक्ष में भेजा जाएगा । इसके आंकलन से आगामी मानव चन्द्र अभियानों में सहायता मिलेगी । 
पिछले वर्ष१२ नवम्बर २०१७ को रूसी अंतरिक्ष एजेंसी और इसरो के बीच चन्द्रयान द्वितीय पर काम करने की सहमति हुई । कक्षा में परिक्रमाकरने वाले उपग्रह और रोवर की जिम्मेदारी इसरो पर जबकि रॉस्कोस्मोस (रूसी अंतरिक्ष एजेंसी) पर लैंडर मुहैया कराने की जिम्मेदारी थी । हालांकि रूस के मंगल अभियान फोबोस ग्रंट के विफल होने पर रूस ने इस परियोजना से हाथ खींच लिए । लिहाजा लाचिंग की तारीख टलती गई  । अब भारत अपने बलबूते पूरे अभियान को अंजाम देने जा रहा है ।
सम्पादकीय 
वन्य जीव प्रबंधन में दक्षता आवश्यक
पिछले दिनों भोपाल से खबर आयी कि मध्यप्रदेश के नेशनल पार्को में से सात  में ऐसे अफसर फील्ड डायरेक्टर बने हुए हैं जो वन्य जीव प्रबंधनमें दक्ष नहीं है । जबकि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के स्पष्ट निर्देश है कि प्रशिक्षित अधिकारियों को ही नेशनल पार्को में तैनात किया जाये । 
भारत की पारिस्थितिकी एवं भौगोलिक दशाआें में अनेक विविधता पायी जाती है, इसी विविधता के कारण विश्व की कुल जीव जन्तुआें की पन्द्रह लाख ज्ञात प्रजातियों में से लगभग ८१ हजार प्रजातियाँ भारत में पायी जाती है । वन्यप्राणी पर्यावरण के अभिन्न अंग है तथा पारिस्थितिकी के अन्य अवयवों से इनका घनिष्ट सम्बन्ध होता है । इसी कारण वन्यप्राणियों का पर्यावरण संतुलन में विशिष्ट योगदान है । पर्यावरण के मौलिक रूप को सुरक्षित रखने में वन्य प्राणियों के सरंक्षण के कार्यो की महत्वपूर्ण भूमिका है । 
लगातार बढ़ती जनसंख्या एवं भूमि संसाधनो का अत्यधिक उपयोग होने से वन्यप्राणियों के लिए रहवास और दैनिक आवश्यकता पूर्ति में असंतुलन पैदा हो रहा है, जो उनके जीवन का संकट बन रहा है । वन्यप्राणियों के अनेक समस्याआें में आहार की समस्या मुख्य है इसलिए वन्यप्राणियों के संरक्षण के लिए केवल उनके शिकार को रोकना ही पर्याप्त् नहीं है वरन् वन्यप्राणियों के जिन्दा रहने के लिए उनके शिकार के योग्य प्राणी तथा अन्य प्राणियों के बीच संतुलन भी आवश्यक है । जंगलों का सिमटा हुआ  दायरा और वृक्षों की अत्यधिक कटाई गहन वनों को विरल बना रही है, इस कारण वनों की सीमाए सिकुड़ रही है । इससे वन्यप्राणियों का जीवन आधार प्रभावित हो रहा है । 
वन्यजीव संरक्षण प्रबंधन में नवाचारी प्रयोगों और निरन्तर नवीन अनुसंधानों की भी आवश्यकता है । वन्यप्राणी संरक्षण की योजनाआें और उनका क्रियान्वयन स्थानीय पारिस्थितिकी और सामाजिक परिवेश को केन्द्र में रखकर करना होगा । इसे अटक्ष व्यक्तियों के हाथों में कैसे दिया जा सकता  है ? इस सवेंदनशील काम में कुशलप्रशिक्षित और दक्ष लोग होंगे तभी हम वन्यप्राणियों के संरक्षण एवं पर्यावरण मेंसंतुलन बनाये रखने में सफल  हो सकेंगे । 
सामयिक
पौधारोपण का प्रेरणादायी इतिहास
डॉ. ओ.पी. जोशी

भारत जैसे प्रकृति पूजक देश में पर्यावरण पर गंभीर संकट खड़े हैंऔर इससे निपटने में पौधारोपण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है । जाहिर है इसका समाधान प्रदूषण कम करने के साथ ज्यादा से ज्यादा मात्रा में पेड़ लगाने में है । 
अमूमन होता यह है कि सरकारें या स्वयंसेवी संस्थाएं जोर-शोर से बड़े पैमाने पर पौधरोपण तो करती हैं, लेकिन उनका परिणाम लगभग शून्य ही आता   है । इतिहास के कई उदाहरण बताते हैंकि पौधारोपण का कार्य कितनी भावना, निष्ठा एवं आनंदमयी तरीके से किया जाता था । हमंे इनसे प्रेरणा लेनी चाहिये । 
वर्षा काल प्रारंभ होतेे ही देश भर में पौधारोपण के आयोजन होने लगते हैंजो वृक्ष-रोपण के नाम से ज्यादा प्रचालित है । पिछले १०-१५ वर्षों में हो यदि ये आयोजन पेड़ों से लगाव पैदाकर नैतिक जिम्मेदारी से किये जाते तो शायद घटती हरियाली का संकट इतना गम्भीर नहीं होता । ज्यादातर अब ये आयोजन एक वार्षिक त्यौहार की भांति हो गये हैं, जो अपने लोगों को आमंत्रित करने तथा दूसरे दिन फोटो प्रकाशित होने तक सीमित हो गये हैं। 
हमारी सभ्यता एवं संस्कृति में पेड़ों का विशेष महत्व रहा है । पेड़  देवतुल्य माने गये हैं । इतिहास में जाकर देखेें तो हमें कई ऐसे उदाहरण मिलते हैंजहां पौधारोपण का कार्य कितने हर्षोल्लास एवं जिम्मेदारी से किया जाता था । अग्निपुराण  में तो पौधारोपण को एक पवित्र मांगलिक समारोह के रूप में बताया गया है । पौधों को रोपने के पूर्व उन्हें औषधीय पौधों के रस से नहलाया जाता था या कुछ समय के लिए डुबोया जाता था । 
इसके पीछे भावना यही होती थी कि पौधे में यदि कोई संक्रमण वगैरह हो तो समाप्त हो जावे एवं पौधे से एक स्वस्थ पेड़ बने । इसके बाद शीर्षस्थ भागों पर, जहां से वृद्धि होती है, वहां सोने की सलाई से हल्दी कुंकु लगाकर अक्षत से पूजा की जाती थी । सूर्य जब मेष राशि में हो तब किसी शुभ मुहूर्त में मंत्रोच्चर के साथ रोपित किया जाता था एवं बाद में नियमित देखभाल की जाती थी । 
गुजरात के अहमदाबाद पर ५२ वर्षों तक शासन करने वाले सुल्तान मेहमद बेगड़ा ने ६० हजार से ज्यादा पौधे रोपकर उन्हें वृक्ष बनाये । बेगड़ा के शासन काल में वर्षा के दिनों में १५ दिनों तक पौधारोपण का महोत्सव मनाया जाता  था । राजा स्वयं अपने परिवार के साथ पौधारोपण स्थल पर रहते थे । शुभ मुहूर्त में खोदे गये गढ़्ढों में बैड़बाजों की धुन  के साथ ईमली, चंदन, अशोक, पीपल तथा नीम आदि के पौधे सावधानीपूर्वक रोपे जाते थे । रोपे गये पौधों को सिंचाई हेतु कुंए भी आवश्यकता अनुसार खोदे जाते थे ।  पौधारोपण के  इन दिनों में जनता से किसी प्रकार की कोई कर वसूली नहीं की जाती थी । 
निजी भूमि पर पौधा-रोपण हेतु राजकीय कोष से सहायता भी प्रदान की जाती थी । पौधारोपण के इन दिनों में इस कार्य से जुड़े लोगों को भोजन कराया जाता था एवं जरूरत मदों को वस्त्र भी वितरित किये जाते थे । सावन माह की अंतिम पूर्णिमा के दिन जब समारोह का समापन होता था, उस समय एक घंटे मंे अधिक से अधिक पौधे रोपने वाली युवती को `वृक्षों को रानी`, नाम की पद्वी देकर उसकासम्मान किया जाता था । शांति निकेतन में गुरू रविन्द्रनाथ टैगौर द्वारा आयोजित पौधारोपण जीवंतता एवं प्रसन्नता लिए एक महकता आयोजन बन जाता था । इसी आयोजन के कारण आज शांति निकेतन में सैकड़ों वृक्ष खड़े हैं। 
गुरूवर स्वयं पेड़ पौधांे से परिजन समान प्यार कर बंधुत्व की भावना बनाये रखते थे । बंगाल में बंग पंचांग का चलन ज्यादा है जिसके तहत बाइशे श्रावण यानी सावन की बाईसवीं तिथि का काफी महत्व है । अत: शांति निकेतन में भी इसी दिन पौधारोपण किया जाता था । गुरूवर ने पौधारोपण पर गीत एवं मंत्र आदि लिखे थे जो आसानी से समझ में आ जाते थे । पौधों का रोपण खुशी का मौका तथा पवित्र अवसर माना जाता था । पौधारोपण के दिन (बाइशे श्रावण) सभी लोग सजधज कर आते थे । लड़के बसंती रंग के कुर्ते व धोतियां पहनकर कमर में दुपट्टा व सर पर बसंती रंग का ही रूमाल समान कोई कपड़ा बांधते थे । महिलाएं तथा लड़कियां भी बसंती घाघरा व साड़ी पहनकर गले में फूल मालाएं व बालों में गजरे सजाती थीं । सभी लोग एक जगह एकत्र हो फिर एक जुलूस के रूप में नाचते-गाते पूरे परिसर में घूमते । इस जुलूस के पीछे फूल-पत्तियों से सजी पौधों (बाल-तरू) की पालकी लिए पांच बच्च्े सफेद पोषाक पहने चलते थे, जो पंचभूत का प्रतिनिधित्व करते थे । 
कुछ बच्च्े पालकी के आसपास भी चलते जिनमें से कुछ झांझ मजीरे व शंख बजाकर गीत गाते एवं कुछ पौधों पर ताड़ की पत्तियों से चंवर डुलाते । निश्चित स्थानों पर जहां पहले से खोदे ग े तैयार रहते थे, वहां गीत गाते माटी की गोद में बाल तरू को इस भावना से रोपा जाता था कि धरती की कोख में अपनी विजय पताका फहराओं एवं फलांे फूलो । रोपित पौधे की सुरक्षा हेतु बांस का सुंदर कटघरा (ट्री-गार्ड) भी लगाया जाता था एवं आशीर्वाद स्वरूप मांगलिक गाये जाते थे, जिनका तात्पर्य होता था शतायु बनो, तुम्हारी छाया आंगन में बनी रहे एवं पंचभूतांे की कृपा हो । शाम के समय संगीत कार्यक्रम से समारोह समाप्त होता था।
शांति निकेतन के  इस आयोजन से सम्भवत: प्रेरणा पाकर समाज सेवी बाबा आमटे के महाराष्ट्र में स्थित आनंदवन में भी ऐसा आयोजन होने   लगा । आनंदवन से जुड़े लोगों का एक मिलन समारोह प्रतिवर्ष होता था जिसमंे कवि, साहित्यकार, नाटककार एवं गायक आदि आते थे । सामाजिक कार्यकर्ता श्री पु. ल. देशपांडे की सलाह पर मिलन समारोह के दूसरे दिन पौधा-रोपण से जुड़ा बालतरू पालकी यात्रा का कार्यक्रम जोड़ा गया । इस कार्यक्रम में बाहर से आये लोगों के साथ-साथ स्थानीय लोगों को भी शामिल किया  गया । रातभर पालकी यात्रा की तैयारी की जाती जिसमें बालतरू  के छोटे-छोटे मटके रखे जाते थे । सभी लोग स्नान कर एवं सज कर आनंदवन के एक छोर पर एकत्र होते एवं वहीं से बालतरू  की पालकी का जुलूस प्रारंभ होता । आरंभ में आनंद-वन का बैंड, फिर भजन गाती टोलियां, अखाड़े तथा सिर पर मंगल कलश लिए महिलाएं  होती  थी । 
इसके पीछे अबीर, गुलाल उड़ाती बाल-तरू की पालकी चलती थी । बाबा आमटे स्वयं भी बाल तरू पालकी उठाते   थे । पालकी जुलूस जगह जगह रूककर बाल तरू का रोपण करता जाता था । समाप्ति पर एक शमियाने में एक मंच पर पालकी रख उसका अभिवादन कर सभी लोग बिदा होते थे। इतिहास के ये उदाहरण बताते हैंकि पौधारोपण का कार्य कितनी भावना, निष्ठा एवं आनंदमयी तरीके से किया जाता था । हमंे इनसे प्रेरणा लेनी चाहिये ।                                  
हमारा भूमण्डल
भारी धातुएँ कितनी हानिकारक ?
प्रो. ईश्वरचन्द्र शुक्ल / विशाल कुमार सिंह

हम अपने स्वास्थ्य को ठीक रखने  हेतु  विभिन्न  प्रकार  के फल, सब्जियाँ, दालें, अनाज आदि का प्रयोग करते  है ।
क्या कभी सोचा है कि इन सबकी उत्पत्ति जिस मृदा में हो रही है वह विभिन्न प्रकार के हानिकारक तत्वों से भरपूर है या मुक्त है ? आजकल भारी तत्वों से उपजाऊ जमीन प्रदूषित हो रही है जिससे अनेक प्रकार के विकार हमारे अंदर आ रहे है । कृषि योग्य भूमि का भारी धातुआें से  युक्त होना बहुत बड़ा वातावरणीय प्रदूषण  है । यहाँ तक कि सिंचाई के लिए शुद्ध जल का मिलना भी बहुत कठिन हो रहा है । अधिकतर कल-कारखानों द्वारा निकला प्रदूषित जल जमीन में जा रहा है तथा कई जगह तो यही सिंचाई के कामआता है जिससे कृषि उत्पाद प्रभावित हो रहे है ं । भारी  तत्वों द्वारा प्रदूषित सब्जियाँ तथा फल मनुष्य तथा जानवरों को बीमार कर रहे हैं । 
पौधों की वृद्धि के लिए कापर, आयरन, जिंक, निकिल और मैंग्नीज सूक्ष्म मात्रा में अवश्य होते हैं लेकिन जब इनकी मात्रा अत्यधिक होती है तो विषाग्र हो जाती है । कृषि उपज बढ़ाने के लिए किसान कम्पोस्ट तथा कार्बनिक खाद, रासायनिक उर्वरक, नाली के पानी की गाद, कल कारखानों से निकले जल का प्रयोग सिंचाई में कर रहा है जिससे मृदा में भारी तत्वों का अनुपात बढ़ रहा है । इस प्रकार आर्सेनिक, निकल, कोबाल्ट, कापर, कैडमियम, जिंक, मैग्नीज, लेड़, क्रोमियम आदि की उपस्थिति मृदा मेंबढ़ती जा  रही है । यही पौधों के विभिन्न भागों में जड़ द्वारा पहुँच रहे हैं । भारी तत्वों का पौधों मे ंएकत्र होना पानी में उसकी सान्द्रता पर निर्भर करता है । भारी तत्व पौधे के विभिन्न भागोंमें अधिकतर सिंचाई के पानी  तथा मृदा द्वारा जाते है । 
जहाँ तक ज्ञात है कि पौधों में तत्वों के जाने की विधि एक विशेष प्रोटीन जो कि कोशिका के जीव द्रव्य झिल्ली में रहती है द्वारा आयन के रूप में अवशोषित होकर स्थानान्तरित होते है । प्रोटीन में मुख्यत: प्रोटीन पम्प जो कि ऊर्जा को ग्रहण करती है तथा वैघुत रसायन अवयव पैदा करती है । दूसरी प्रोटीन सह तथा प्रति अभिगमन है जो कि ए.टी.पी. द्वारा पैदा की वैघुत शक्ति द्वारा आयन को ले जाती   है । तीसरी प्रोटीन आयन के अभिगमन को कोशिका में ले जाती है । प्रत्येक अभिगमन विधि आयन के परास को ले जाती है । धनात्मक धातु आयन ऋणात्मक आयन की ओर आकर्षित होते है तथा ऋणात्मक आयन धनात्मक की ओर आकर्षित होते है । आयनों के घुलने की गति पौधों की प्रजातियों पर निर्भर करती है । 
ककड़ी, टमाटर, प्याज, सेम, पेपरमिन्ट, लौकी, आदि सब्जियां जो कि शहर में पैदा की जाती है महापालिका, घरेलू पानी तथा कुछ कारखानों के पानी से प्रदूषित होती है । अत: इनमें भारी तत्वों कैडमियम, लेड, कापर तथा निकिल की मात्रा गांव मेंउगाई गई सब्जियों की तुलना में अधिक होते है । 
पौधे में भारी तत्वों के एकत्र होने के कारण केवल वातावरण के संदूषण पर ही नहीं बल्कि पौधों की प्रजाति पर भी निर्भर करता है । पालक में भारी तत्वों का जमावड़ा भिण्डी की तुलना में अधिक होता है । पौधों की  जड़ों द्वारा धातुआें को अपने अंदर खीचने तथा तत्वों को तने तक पहॅुंचाने पर निर्भर करता है । यह भी पाया      गया कि कापर, क्रोमियम का सान्द्रण पत्ते वाली सब्जियों जैसे पालक, पत्तागोभी, बैगन, चौलाई में बिना   पत्ती वाली सब्जियों जैसे बैगन, भिण्डी, टमाटर आदि की तुलना में अधिक   होता है । 
सब्जियों में भारी तत्वों का संग्रह मौसम के अनुसार भी होता है । गर्मियों में कैडमियम, जिंक, क्रोमियम, मैंगनीज का सान्द्रण अधिक होता है जबकि कापर, लेड तथा निकिल का सान्द्रण सर्दी में अधिक होता है । मृदा में उपस्थित हाइड्रोजन आयन भी अपना बहुत बड़ा प्रभाव डालते है । इसके प्रभाव से भारी तत्वों की घुलनशीलता तथा उनका पौधों में अवशोषित होना महत्व रखता है । धातु घुलाने वाली स्थिति में कैडमियम      का सान्द्रण पुदीना में अन्य सब्जियों जैसे पालक, चुकंदर, गांठगोभी, पत्तागोभी की तुलना में अधिक होता है । इसका कारण मृदा का अम्लीय होना होता है । 
अभी तक हमने देखा कि सब्जियों में भारी तत्वों का सान्द्रण   मृदा तथा वातावरण के कारण होता है । अब आप जानिये इन तत्वों का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है । भारी तत्व हमारे शरीर से सीधे तरीके से या संदूषित पानी के पीने अथवा सिंचाई द्वारा सब्जियों में जाने से प्रवेश करते है । हमारे पाचन तंत्र पर भारी तत्वों के अवशोषण का प्रभाव उनके रसायनिक गुण, मनुष्य की उम्र तथा पोषक स्तर से संबंधित होता है । 
यदि भोजन में कैल्शियम, आयरन तथा जिंक की कमी है तो भोजन से लेड का अवशोषण अधिक होगा । इनके लगातार एकत्र होने तथा जैविक विघटन न होने के कारण ये विषाक्त तत्व गुर्दे, हड्डी तथा यकृत को खराब करके विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य समस्याएँपैदा करते हैं । इन्हीं के आधार पर आकस्मिक स्वास्थ्य हानि को नापा जाता है । इससे कैंसर कारक या अकैंसर कारक पदार्थो का पता लगाया जाता है । 
यह प्रतिदिन भोजन लेने की मात्रा, अवधि, बारंबारता धातुआें का भोजन में सान्द्रण औसत शरीर का भार तथा अकैंसर कारक पदार्थो के प्रभाव पर निर्भर करता है । यदि इनकी मात्रा अधिक होती है तो यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ह ै। 
अत: भारी धातुआें के सान्द्रण का प्रभाव अत्यन्त विषैला होता है जिसे प्रदूषित जल तथा मृदा आदि से निकलाना परम आवश्यक है । यदि इनकी मात्रा नियोजित नहीं रहेगी तो स्वास्थ्य समस्याएँ होती ही रहेगी । साग-सब्जियां सामान्य भोजन के मुख्य भोग है क्योंकि इनसे सूक्ष्म पोषक तत्व, प्रोटीन, प्रतिआक्सी कारक, विटामिन आदि मानव शरीर को प्राप्त् होते हैं । आजकल स्वच्छ पानी की कमी के कारण शहरों में अधिकतर सिंचाई नाली के पानी से हो रही है जिससे भारी तत्वों का एकत्रीकरण शरीर में हो रहा है । 
उचित यह होगा कि प्रदूषित जल को सजावत के पौधों लकड़ी के पेड़ों को  पैदा करने में प्रयोग किया जाय न कि सब्जियों के उत्पादन हेतु । अत: स्वच्छ पानी द्वारा सिंचाई की हुई सब्जियों ही स्वस्थ्यवर्धक एवं पोषण देती है । कम्पोस्ट खाद का प्रयोग किया जाये तथा कीटनाशकों का प्रयोग कम से कम किया जाय तभी हमारा हरी सब्जियों के खाने का प्रयोजन सफल होगा ।                                         
स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
नदी धर्म मानने से ही नदिया बचेगी 
अनुपम मिश्र
दुनिया की सबसे पवित्र मानी जाने वाली नदी होने के साथ ही गंगा दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में भी    है । 
प्रधानमंत्री मोदी का पसंदीदा कार्यक्रम होने के बावजूद गंगा की सफाई अभी बहुत दूर की कौड़ी है ।  सरकार ने इस प्रोजेक्ट के लिए २०१५    में ३ अरब डॉलर की रकम खर्च करने की योजना बनाई । लेकिन पिछले दो सालों में गंगा की सफाई के लिए मिले पैसे का महज चौथाई हिस्सा ही खर्च किया है । 
सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है । वह है नदी धर्म । गंगा को बचाने की कोशिश में लगे लोगों को पहले इस धर्म को मानना पड़ेेगा ।
गंगा मैली हुई है । उसे साफ करना है । सफाई की अनेक योजनाएँ पहले भी बनी हैं । कुछ अरब रुपए इनमें बह चुके हैं । बिना कोई अच्छा परिणाम दिए । इसलिए केवल भावनाओं में बह कर हम फिर ऐसा कोई काम न करें कि इस बार भी अरबों रुपयों की योजनाएँ बनें और गंगा जस की तस गंदी ही रह जाए ।
बेटे-बेटियाँ जिदद्ी हो सकते हैं। कुपुत्र-कुपुत्री भी हो सकते हैं । पर अपने यहाँ प्राय: यही तो माना जाता है कि माता, कुमाता नहीं होती । तो जरा सोचें कि जिस गंगा माँ के  बेटे-बेटी उसे स्वच्छ बनाने के प्रयत्न कोई ३०-४० बरस से कर रहे हैं वह साफ क्यों नहीं होती ? क्या इतनी जिद्दी है हमारी यह माँ ?
साधु-सन्त समाज, हर राजनीतिक दल, सामाजिक संस्थाएँ, वैज्ञानिक समुदाय, गंगा प्राधिकरण और तो और विश्व बैंक जैसा बड़ा महाजन भी गंगा को तन-मन-धन से साफ करना चाहते हैं और यह माँ ऐसी है कि साफ ही नहीं होती ।
शायद हमेंे थोड़ा रुककर कुछ धीरज के साथ इस गुत्थी को समझना चाहिए ।
अच्छा हो या बुरा हो, हर युग का एक विचार एक झंडा होता है । उसका रंग इतना जादुई, इतना चोखा होता है कि वह हर रंग के झंडों पर चढ़ जाता है । तिरंगा, लाल, दुरंगा और भगवा सब उसको नमस्कार करते हैं उसी का गान गाते है। उस युग के, उस दौर के करीब-करीब सभी मुखर लोग, मौन लोग भी उसे एक मजबूत विचार की तरह अपना लेते हैं ।
कुछ समझ कर, कुछ बिना समझे भी । तो इस युग को, पिछले कोई ६०-७० बरस को, विकास का युग माना जाता है । जिसे देखो उसे अपना यह देश पिछड़ा लगने लगा है । वह पूरी निष्ठा के साथ इसका विकास कर दिखाना चाहती है । विकास पुरुष जैसे विश्लेषण सभी समुदायों में बड़े अच्छे लगने लगे हैं ।
वापस गंगा पर लौटें । पौराणिक कथाएँ और भौगोलिक तथ्य दोनों कुल मिलाकर यही बात बताते हैं कि गंगा आपौरुशेय है । इसे किसी एक पुरुष ने नहीं बनाया। अनेक संयोग बने और गंगा को अवतरण हुआ । जन्म  नहीं । भूगोल, भूगर्भ शास्त्र बताता है कि इसका जन्म हिमालय के जन्म से जुड़ा है । कोई दो करोड़ तीस लाख बरस पुरानी हलचल से । इसके साथ एक बार फिर अपनी दीवारों पर टंगे कैलेंडर देख लें । 
इस विशाल समय अवधि का विस्तार अभी हम भूल जाएं । इतना ही देखें कि प्रकृति ने गंगा को सदानीरा बनाए रखने के लिए इसे अपनी कृपा के केवल एक प्रकार-वर्षा-भर से नहीं जोड़ा । वर्षा तो चार मास ही होती है । बाकी आठ  मास इसमें पानी लगातार कैसे बहे, कैसे रहे, इसके लिए प्रकृति ने उदारता का एक और रूप गंगा को दिया है । नदी का संयोग हिमनद से करवाया । जल को हिम से मिलाया । 
प्रकृति ने गंगोत्री और गौमुख हिमालय में इतनी अधिक ऊँचाई पर, इतने ऊँचे शिखरों पर रखे हैं कि वहां कभी हिम पिघल कर समाप्त नहीं होता । जब वर्षा समाप्त हो जाए तो हिम, बर्फ पिघल-पिघल कर गंगा की धारा को अविरल रखते हैं । 
तो हमारे समाज ने गंगा को माँ माना और ठेठ  संस्कृत से लेकर भोजपुरी तक में ढेर सारे श्लोक मंत्र, गीत सरस सरल साहित्य रचा । समाज ने अपना पूरा धर्म उसकी रक्षा में लगा दिया । इस धर्म ने यह भी ध्यान रखा कि हमारे धर्म, सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है । वह है नदी धर्म । नदी अपने उद्गम से मुहाने तक एक धर्म का, एक रास्ते का, एक घाटी का, एक बहाव का पालन करती है। हम नदी धर्म को अलग से इसलिए नहीं पहचान पाते क्योंकि अब तक हमारी परम्परा तो  उसी नदी धर्म से अपना धर्म जोड़े रखती थी ।
पर फिर न जाने कब विकास नाम के एक नए धर्म का झंडा सबसे ऊपर लहराने लगा । यह प्रसंग थोड़ा अप्रिय लगेगा पर यहां कहना ही पड़ेगा कि इस झंडे के नीचे हर नदी पर बड़े-बड़े बांध बनने लगे । एक नदी घाटी का पानी नदी धर्म के सारे अनुशासन तोड़ दूसरी घाटी में ले जाने की बड़ी-बड़ी योजनाओं पर नितांत भिन्न विचारों के राजनैतिक दलों में भी गजब की सर्वानुमति दिखने लगती  है ।
अनेक राज्यों में बहने वाली भागीरथी, गंगा नर्मदा इस झंडे के नीचे आते ही अचानक माँ के बदले किसी न किसी राज्य की जीवन रेखा बन जाती हैं और फिर उसका इस राज्य में बन रहे बांधों को लेकर वातावरण में, समाज में इतना तनाव बढ़ जाता है कि कोई संवाद, स्वस्थ बातचीत की गंुजाइश ही नहीं बचती ।
दो राज्यों में एक ही राजनीतिक दल की सत्ता हो तो भी बांध, पानी का बँटवारा ऐसे झगड़े पैदा करता है कि महाभारत भी छोटा पड़ जाए । सब बड़े लोग, सत्ता में आनेवाला हर दल, हर नेतृत्व बांध से बंध जाता है। हरेक को नदी जोड़ना एक जरूरी काम लगने लगता है।
वह यह भूल जाता है कि प्रकृति जरूरत पड़ने पर ही नदियां जोड़ती है। इसके लिए वह कुछ हजार-लाख बरस तपस्या करती है, तब जाकर गंगा-यमुना इलाहाबाद मंे मिलती हैं । कृतज्ञ समाज तब उस स्थान को तीर्थ मानता है । मुहाने पर प्रकृति नदी को न जाने कितनी धाराओं में तोड़ भी देती है। बिना तोड़े नदी का संगम, मिलन सागर से हो नहीं सकता ।
तो नदी में से साफ पानी जगह-जगह बांध,नहर बना कर निकालते जाएं । सिंचाई बिजली बनाने और उद्योग चलाने के लिए विकास के लिए । अब बचा पानी तेजी से बढ़ते बड़े शहरों, राजधानियों के लिए बड़ी-बड़ी पाइपलाईन में डाल कर चुराते जाएं ।
यह भी नहीं भूलें कि अभी ३०-४० बरस पहले तक इन सभी शहरों में अनगिनत छोटे-बड़े तालाब हुआ करते थे । ये तालाब चौमासे की वर्षा को अपने में संभालते थे और शहरी क्षेत्र की बाढ़ को रोकते थे और वहां का भूजल उठाते थे । यह ऊंचा उठा भूजल फिर आने वाले आठ महीने शहरों की प्यास बुझाता था। अब इन सब जगहों पर जमीन की कीमत आसमान छू रही है ।
बिल्डर-नेता-अधिकारी मिल जुल कर पूरे देश के सारे तालाब मिटा  रहे हैं । महाराष्ट्र  के पुणे, मुंबई में एक ही दिन की वर्षा मंे बाढ़ आ गयी । इन्द्र का एक सुन्दर पुराना नाम, एक पर्यायवाची शब्द है पुरन्दर-पुरों को, किलों को, शहरों को तोड़ने वाले । यानि यदि हमारे शहर इन्द्र से मित्रता कर उसका पानी रोकना नहीं जानते तो फिर वह पानी बाढ़ की तरह हमारे शहरों को नष्ट करेगा ही यह पानी बह गया तो फिर गर्मी में अकाल भी आएगा ही । 
तो नदी से सारा पानी विकास के नाम पर निकालते रहें जमीन की कीमत के नाम पर तालाब मिटाते जाएं, और फिर सारे शहरों, खेतों की सारी गन्दगी, जहर नदी में मिलाते जाएंं फिर सोचें कि अब कोई नयी योजना बना कर हम नदी भी साफ कर लेंगे। नदी ही नहीं बची । गन्दा नाला बनी नदी साफ होने से रही। भरूच में जाकर देखिए रसायन उद्योग विकास के नाम पर नर्मदा को किस तरह बर्बाद किया गया   है । नदियां ऐसे साफ नहीं होंगी । हमें हर बार निराशा ही हाथ लगेगी ।
तो क्या आशा बची ही नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है । आशा है, पर तब जब हम फिर से नदी धर्म ठीक से समझें । विकास की हमारी आज जो इच्छा है उसकी ठीक जांच कर सकें । बिना कटुता के । गंगा को, हिमालय को कोई चुपचाप षड्यन्त्र करके नहीं मार रहा । ये तो सब हमारे ही लोग हैं । विकास, जी.डी.पी., नदी जोड़ो, बड़े बांध सब कुछ हो रहा है। या तो इसे एक पक्ष करता है या दूसरा पक्ष । विकास के इस झंडे के तले पक्ष-विपक्ष का भेद समाप्त हो जाता है। मराठ ी में एक सुन्दर कहावत है: रावण तोंडी रामायण । रावण खुद बखान कर रहा है । रामायण की कथा । हम ऐसे रावण  न  बनें ।                        
मध्यप्रदेश पर विशेष 
प्रगति पथ पर बढ़ता मध्यप्रदेश
मध्यप्रदेश ने तेजी से विकसित प्रदेश बनने की ओर कदम बढ़ाये है । प्रदेश न केवल बीमारू के टैग से मुक्त हुआ है बल्कि विकास और प्रगति के अनेक क्षेत्र में देश के कई राज्यों से आगे हुआ है । 
वर्ष १९५६ में अपने निर्माण के समय कतरन प्रदेश कहलाने वाला मध्यप्रदेश न केवल आज अपने सांस्कृतिक वैशिष्ट्य, पुरा धरोहरों, प्राकृतिक संसाधनों, वन आवरण, पर्यटकों के आकर्षण के सभी रंगों, बहुवर्णी संस्कृति, सुदृढ़ कानून व्यवस्था, वंचितों-गरीबों के हक में कल्याणकारी योजनाआें की मूक क्रांति, महिला सशक्तिकरण और अधोसंरचना विकास के क्षेत्र में एक उदाहरण है । 
किसी भी प्रदेश के लिए ढॉचागत विकास के साथ यह जरूरी है कि वहाँ के नागरिक भी सुखी, सम्पन्न और खुशहाल रहे । सरकार में उनका विकास हो और सरकार उन्हें साथ लेकर विकास का सफर तय करे । मध्यप्रदेश इस कसौटी पर भी खरा उतरता है, चाहे वह प्रदेश की जीवन-रेखा नर्मदा नदी के सरंक्षण के लिए निकाली गई ``नर्मदा सेवा यात्रा'' हो, आदिशंकराचार्य के अवदान के स्मरण के लिए निकाली गयी एकात्म यात्रा हो या वर्ष २००९ में मुख्यमंत्री श्री चौहान द्वारा की गई ``आओ बनाएँ अपना मध्यप्रदेश'' यात्रा और अभियान । 
मध्यप्रदेश उन चूनिंदा प्रदेशों में से है, जहाँ बेटी का जन्म अभिशाप नहीं है तो किसान को उसकी गाढ़ी मेहनत का वाजिब मूल्य दिलाने में सरकार की संवेदनशीलता भावांतर सहित अनेक किसान-कल्याण के फैसलों और नीतियों को दिखाती है । कुल मिलाकर जहाँ सरकार की चिंताआें से कोई भी वर्ग अछूता नहीं हो, ढूंढना हो तो मध्यप्रदेश का नाम ही सामने आता है । 
यह केवल लिखने पर को नहीं है । पिछले १४ वर्ष में प्रदेश ने विकास के सभी संकेतकों की कसौटी पर अपने को खरा साबित किया है । कह सकते है कि आज मध्यप्रदेश विकास के हर पैरामीटर पर तेजी से प्रगति करता प्रदेश है । 
प्रदेश में वर्ष २००३ से २०१७ के बीच हुए अभूतपूर्व विकास को आँकड़े भी प्रमाणित करते है । चौदह साल पहले अगर प्रदेश का सिंचित रकबा ७.५ लाख हेक्टर था, तो आज यह ४० लाख हेक्टेयर है । विद्युत उत्पादन भी २९०० मैगावाट से बढ़कर १७ हजार ७०० मेगावाट हो गया है । सड़के ४५ हजार किलोमीटर से बढ़कर ९५ हजार किलोमीटर हो गई है । पेयजल की सुविधा के लिए नर्मदा नदी को गंभीर, कालीसिंध, पार्वती, क्षिप्रा जैसी छोटी नदियों से जोड़ा जा रहा है । माइक्रो इरिगेशन मिशन संचालित कर पानी के उपयोग को किफायती बनाया गया है ।
प्रदेश की फसल उत्पादकता आज १७८५ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, जो१३ साल पहले ८३१ किलोग्राम हेक्टेयर थी । कुल कृषि उत्पादन भी  २१४ लाख मीट्रिक टन सेबढ़कर ५४५ लाख मीट्रिक टन होगया है । गेंहू उत्पादन के क्षेत्र में तो क्रांति सी हो गई   है । पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों की बराबरी ही नहीं, उन्हें भी प्रदेश ने पीछे छोड़ दिया है । 
आज प्रदेश का गेहूं उत्पादन २१९ लाख मीट्रिक टन है, जो डेढ़ दशक पहले मात्र ४९ लाख २३ हजार मीट्रिक टन था । धान उत्पादन भी १७ लाख से बढ़कर ५४ लाख मीट्रिक टन होगया है । दलहन- तिलहन उत्पादन में पूरा देश इस प्रदेश का लोहा मानता है । दलहन उत्पादन ३३ लाख मीट्रिक टन सेबढ़कर आज ७९ लाख २३ हजार मीट्रिक टन हो गया है ।  सोयाबीन उत्पादन भी २६ लाख ७४ हजार मीट्रिक टन सेबढ़कर ८४ लाख १६ हजार मीट्रिक  टन  हो गया  है । 
वर्ष २००३ में प्रदेश में १.६९ मिलियन लाख टन गेहूं का उत्पादन होता था, जो अब बढ़कर ७१ लाख ८८ हजार मीट्रिक टन  हो गया है । धान उपार्जन भी ९५ हजार मीट्रिक टन से बढ़कर १५ लाख ६० हजार मीट्रिक टन हो गया है । सुचारू व्यवस्था और बिचौलियों को बाहर करने के सरकार के प्रयासों से कृषि उपज मंडियोंमें कृषि जिंसो की आवक १०६ लाख ७६ हजार मीट्रिक टन से बढ़कर २३४ लाख मीट्रिक टन हो गई हैं । 
पहले प्रदेश में करीब १५ प्रतिशत की ऊँची दर पर किसानों को खेती-किसानी के लिए सहकारी ऋण मिलते थे । आज शून्य प्रतिशत ब्याज दर पर  यह सुविधा किसान को प्राप्त्   है । यही नहीं, किसान द्वारा लिये गये १०० रूपये के ऋण पर उसे ९० रूपये ही लौटाने होते है । शेष राशि राज्य सरकार सब्सिडी के रूप में सहकारी संस्थाआें को देती है । यही वजह है कि १३ हजार ५८८ करोड का ऋण किसानों ने लिया है, जबकि चौदह साल पहले यह ऋण राशि महज १३०० करोड़ होती थी । 
प्रदेश के उद्यानिकी क्षेत्र में भी इस अरसे से खासी बढ़ोत्तरी हुई है । किसान खेती को लाभदायी बनाने के लिए परंपरागत फसलों के साथ उद्यानिकी और औषधीय फसलों की ओर आकर्षित हुए है । यही वजह है कि ४ लाख ६९ लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया  है । दुग्ध उत्पादन में भी क्रांति हो रही है । दुग्ध उत्पादन भी ५.३८ मिलियन टन से बढ़कर ९.५९ मिलियन टन हो गया है । 
शिक्षा सुविधाआें में भी प्रदेश में खासी बढ़ोतरी हुई है । स्कूली छात्र-छात्राआें को नि:शुल्क गणवेश, साइकिल, मेधावी छात्रों को लैपटॉप और स्मार्ट फोन, प्रतियोगी परीक्षाआें की कोचिंग, विदेश अध्ययन छात्रावृत्ति, शोध छात्रवृत्ति, मूल्य सूचकांक के अनुसार शिष्यवृति और छात्रावृत्ति का संयोजन, गरीब मेधावी छात्रों के लिये मेधावी  प्रोत्साहन योजना, शिक्षा और खेल परिसरों का विकास जैसे कदम प्रदेश में नई शैक्षणिक संस्कृति में  मददगार साबित हुए है ।
आज प्रदेश में प्राथमिक शालाएँ ५६ हजार ३२६ से बढ़कर ८३ हजार ८९० हो गई है । इसी तरह माध्यमिक शालाएँ १८ हजार ८०१ से बढ़कर ३० हजार ३४१, हाई स्कूल १५१५ से ३८६३, हायर सेकेंडरी स्कूल १५१७ से २८८५, आईटीआई २२२ से ९६१, इंजीनियरिंग और पॉलीटेक्निक कॉलेज १०४ से ३०१ और मेडिकल कॉलेज ५ से बढ़कर १८ हो गए है ।  
प्रदेश में स्वास्थ्य सुविधाआें के विस्तार, शासकीय अस्पतालों में नि:शुल्क जाँच सुविधाआें और नि:शुल्क दवा वितरण की योजनाआें से प्रदेश स्वस्थ प्रदेश बनने की ओर अग्रसर है । सरकार के प्रयासों से मातृ और शिशु मृत्युदर में पिछले चौदह वर्षो में उल्लेखनीय कमी आई है । संस्थागत प्रसव २६.९ प्रतिशत से बढ़कर उल्लेखनीय ८१ प्रतिशत तक पहुंच गया है । इस उपलब्धि में जननी सुरक्षा जैसी सेवा कारगर साबित हुई है । मातृ मृत्युदर ३७९ प्रति लाख जीवित जन से घटकर २२१ प्रति लाख जीवित जन रह गई है । शिशु मृत्युदर भी ८६ प्रति  हजार से घटकर ५० प्रति हजार रह गई है । 
प्रदेश में आँगनवाड़ी केन्द्रों की संख्या आज ९२ हजार २७० है, जो वर्ष २००३ में मात्र ४७ हजार ४३३ थे । हैडपंप भी ३ लाख ६६ हजार से बढ़कर ५ लाख २१ हजार हो गए है । ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल की सुगमता के लिए नल-जल योजनाआें की स्थापना में तेजी लाई गई है । यह योजनाएँ भी इस अरसे में ७७४९ से बढ़कर २१ हजार ५१८ हो गई है । सूक्ष्म एवं लघु उद्योग ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सहभागी बनने के साथ ही लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने के साधन भी बने है । इन उद्योगों की संख्या भी १ लाख २२ हजार से बढ़कर ४ लाख ६३ हजार हो गई है । 
मध्यप्रदेश की प्रगति और विकास का यह सफर दिनोदिन नए पड़ाव पाने की ओर अग्रसर है । यह अगर किसी के लिए अजूबा है, तो फिर इस अजूबे को साकार करने में मुख्यमंत्री  शिवराजसिंह चौहान और प्रदेशवासी, दोनों बधाई के पात्र है । यह सफर सरकार के साथ समाज के खड़ा होने का भी सफल उदाहरण है । 
मध्यप्रदेश पर विशेष 
मध्यप्रदेश के वन संसाधन
जकिया रूही
वन संपदा से सम्पन्न मध्य- प्रदेश मेंआर्थिक एवं पर्यावरणीय दृष्टिकोण से वनों के महत्व को देखते हुए वन प्रबंधन की दिशा में राज्य सरकार द्वारा विभिन्न नीतियों एवं संस्थाआें के माध्यम से ठोस कदम उठाए गए हैं । 
हाल ही में जारी की गई भारतीय वन स्थिति रिपोर्ट (वन सर्वेक्षण) २०१७ में राज्य सरकार के इन्हीं प्रयासों के चलते मध्यप्रदेश का विशेष उल्लेख किया गया है । मध्यप्रदेश को सर्वाधिक वन क्षेत्रफल एवं बांस क्षेत्रफल वाले राज्य के रूप में विशिष्टता प्राप्त् हुई है । जल निकायों के क्षेत्रफल में वृद्धि तथा प्रचुर वन कार्बन के लिए भी राज्य को चिन्हित किया गया है । स्पष्ट है कि मध्यप्रदेश में वन संसाधनों का प्रबंधन राष्ट्रीय स्तर पर एक सकारात्मक संदेश देता है । 
उल्लेखनीय है कि पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की अधीनस्थ संस्था भारतीय वन सर्वेक्षण, देहरादून द्वारा सन् १९८७ से वन सर्वेक्षण रिपोर्ट द्विवार्षिक रूप से प्रकाशित की जाती है । वर्तमान रिपोर्ट (२०१७) इस श्रेणी का १५वां प्रतिवेदन है जिसमें भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आई.आर.एस. रिसोर्ससेट-२ से प्राप्त् आँकड़ों का प्रयोग कर वन संपदा का आंकलन किया गया  है । 
वन सर्वेक्षण २०१७ के अनुसार मध्यप्रदेश सर्वाधिक वन क्षेत्रफल वाला राज्य है, जिसका कुल ७७४१४ वर्ग किलोमीटर अर्थात भौगोलिक क्षेत्र का २५.११ प्रतिशत हिस्सा वनों से आच्छादित है । अरूणाचल प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्रमश: ६६९६४ तथा ५५५४७ वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के साथ दूसरे एवं तीसरे स्थान पर है । साथ ही मध्यप्रदेश में कुल ८०७३ वर्ग किलोमीटर का वृक्षावरित इलाका मौजूद है । इस प्रकार से राज्य में वनावरित तथा वृक्षावरित क्षेत्र का विस्तार कुल ८५४८७ वर्ग किलोमीटर है जो कि भौगोलिक क्षेत्र का २७.७३ प्रतिशत तथा देश के कुल हरित आवरण वाले भू-भाग का १०.६६ प्रतिशत हिस्सा है । इस प्रकार से मध्यप्रदेश में प्रतिव्यक्ति हरित क्षेत्रफल की गणना ०.१२ हेक्टेयर की गई है । 
इस रिपोर्ट में हरित आवरण से संबंधित जिले वार आँकड़े भी प्रस्तुत किए गए हैं । मध्यप्रदेश का सर्वाधिक वन क्षेत्रफल बालाघाट एवं उमरिया में मौजूद है जो कि इन जिलों के भौगोलिक क्षेत्रफल का क्रमश: ५३.४६ प्रतिशत व ४९.८५ प्रतिशत है । उज्जैन व शाजापुर जिलों में न्यूनतम वनावरण क्रमश: ०.४४ प्रतिशत तथा ०.७४ प्रतिशत पाया गया है । वर्ष २०१५ के आकलन के मुकाबले सर्वाधिक वनावरण वृद्धि शिवपुरी (८७ वर्ग किलोमीटर) तथा शहडोल (८४ वर्ग किलोमीटर) में दर्ज की गई है । 
भारत में ग्रीन गोल्ड अर्थात बांस युक्त कुल क्षेत्र १५.६९ मिलियन हेक्टेयर आकलित किया गया है जिसका कि ११.५८ प्रतिशत अर्थात १.८ मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल मध्यप्रदेश में स्थित है । वर्ष २०११ की तुलना में ५१०८ वर्ग किलोमीटर की वृद्धि दर्ज करते हुए मध्यप्रदेश ने सर्वाधिक बांस क्षेत्र वाला राज्य बनने के साथ बांस राज्य का दर्जा प्राप्त् किया है, वहीं महाराष्ट्र व अरूणाचल प्रदेश इस सूचक में द्वितीय व तृतीय स्थान पर रहे । 
जल संरक्षण के क्षेत्र में वनों के महत्व को ध्यान में रखते हुए इस रिपोर्ट में पहली बार जंगलों में मौजूद जल निकायों के क्षेत्रफल वाले सूचकांक को भी शामिल किया गया है, जिसमें सर्वाधिक वृद्धि दर्ज करने वाले महाराष्ट्र, गुजरात एवं मध्यप्रदेश शीर्ष राज्य है । सुखद तथ्य है कि मध्यप्रदेश के वनों में स्थित जल स्त्रोंतो में वर्ष २००५ में १९३० वर्ग किलोमीटर की तुलना में वर्ष २०१५ में २३१९ वर्ग किलोमीटर अर्थात ३८९ वर्ग किलोमीटर की वृद्धि दर्ज की गई है । 
कार्बन स्टाक के मामले में भी मध्यप्रदेश राज्य की सराहना हुई है । देश भर में अरूणाचल प्रदेश के कार्बन स्टाक के बाद मध्यप्रदेश में सर्वाधिक स्टाक पाया गया है जो पेरिस जलवायु समझौते के राष्ट्रीय लक्ष्य के प्रति राज्य की प्रतिबद्धता को दर्शाता है । मध्यप्रदेश का ६९५.६ मिलियन टन कार्बन स्टाक देश के कुल वन कार्बन का ९.८२ प्रतिशत हिस्सा है । 
रिपोर्ट में सामने आए उत्साहजनक तथ्य राज्य की वानिकी, कृषि वानिकी एवं जल वानिकी नीतियों के अहम योगदान को दर्शाते हैं । राज्य में वन संसाधनों के संरक्षण एवं संवर्धन की दो प्रमुख योजनाएं क्रियान्वित की जा रही है । कृषि वानिकी से कृषक समृद्धि योजना के तहत वृक्षारोपण/बांस रोपण के लिए प्रत्येक किसान को न्यूनतम ५० व अधिकतम ५००० पौधे नि:शुल्क प्रदाय किये जाते हैं । निजी भूमि पर वानिकी को बढ़ावा देने के लिए किसान लक्ष्मी योजना चलाई जा रही है जिसके अन्तर्गत चयनित भूमि स्वामियों को न्यूनतम १०० पौधों के सफल रोपण हेतु प्रोत्साहन दिया जाता है । दोनों ही योजनाआें में जीवित पौधों की संख्या के आधार पर अनुदान राशि का प्रदाय किया जाता है । 
मध्यप्रेश के आर्थिक सर्वेक्षण २०१७-१८ के अनुसार कृषि वानिकी से कृष समृद्धि योजना के अन्तर्गत कृषकों की भूमि पर रोपण हेतु १.०८ करोड पौधों का प्रदाय सितम्बर २०१७ तक किया गया । निजी भूमि पर वृक्षारोपण प्रोत्साहन योजना के अन्तर्गत भूस्वामी / वनदूतों को माह सितम्बर २०१७ तक ३९.३६ लाख राशि का अनुदान वितरित किया गया है । 
प्रदेश की विभिन्न संस्थाएँ भी कुशलवन प्रबंधन की दिशा में कार्य कर रही है । राज्य का वन विभाग अपनी प्रशासनिक इकाइयों १६ वृत्त एवं ६३ वन मण्डलों के माध्यम से वन क्षेत्रों के वैज्ञानिक प्रबंधन में जुटा हुआ है । वन विभाग अपने फारेस्ट फायर अलर्ट सिस्टम द्वारा उपग्रह के माध्यम से जंगलोंमें आगजनी की घटनाआें पर निगरानी रखता है । मध्यप्रदेश में वनों की उत्पादकता बढ़ाने एवं वनीकरण कार्य हेतु प्रदेश के ११ कृषि जलवायु क्षेत्रों के अन्तर्गत भोपाल, जबलपुर, रीवा, ग्वालियर, सागर, इन्दौर, खण्डवा, झाबुआ, रतलाम, सिवनी व बैतूल में एक-एक अनुसंधान एवं विस्तार वृत्त स्थापित किए गए हैं । प्रत्येक वृत्त के अन्तर्गत उच्च् तकनीकी रोपणियाँ स्थापित की गई हैं जो वृक्षारोपण की सफलता सुनिश्चित करती हैं । 
जहां एक ओर मध्यप्रदेश बांस मिशन बांस उत्पादन व संरक्षण में अहम भूमिका निभा रही है, वहीं लोक वानिकी एवं संयुक्त वन प्रबंधन के कार्यक्रमों द्वारा जन सहयोग से जंगलों की गुणवत्ता बढ़ाई जा रही है । मध्यप्रदेश संरक्षित वन नियम तथा मध्यप्रदेश ग्राम वन नियम २०१५ के अनुसार ग्राम वन एवं संरक्षित वनों का प्रबंधन ग्राम सभा द्वारा गठित ग्राम वन समितियों को देकर राज्य में जन भागीदारी की अनूठी पहल की गई है । 
हालाँकि वन सर्वेक्षण के अनुसार राज्य के हरित क्षेत्रफल में १२ वर्ग किलोमीटर की मामूली गिरावट दर्ज की गई है जिसके मुख्य कारण कृषि विस्तार, विकास कार्य, खनन एवं जलमग्नता बताए गए हैं । वर्ष २००५ में राज्य के भौगोलिक क्षेत्र के कुल ४८.४८ प्रतिशत मेंबुवाई हुई जो वर्ष २०१७ में बढ़कर ५०.१४ प्रतिशत हो गई । साथ ही राज्य में वर्ष २००४-०५ में ७.५ लाख हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता वर्ष २०१५-१६ में ३६ लाख हेक्टेयर हो चुकी है । 
कृषि विस्तार के इन विस्तृत उपायों के कारण मध्यप्रदेश एक मात्र ऐसा राज्य बना है जिसने लगातार पांचवी बार कृषि कर्मण सम्मान प्राप्त् किया । प्रदेश में वर्ष २००४-०५ में ११४५० किलोमीटर सड़कों की तुलना में वर्तमान में लगभग ३१५०० किलोमीटर लम्बाई की सड़कों का निर्माण एवं उन्नयन हुआ । सरदार सरोवर परियोजना के तहत अलीराजपुर, बड़वानी, धार और खरगौन जिलों के १७८ गांव डूब से प्रभावित हुए । 
हरित क्षेत्र में इस गिरावट की प्रतिपूर्ति करने के लिए नर्मदा सेवा यात्रा के दौरान नर्मदा कछार में वृक्षारोपण का सघन अभियान चलाया गया । अकेले २ अगस्त २०१७ को नर्मदा नदी के किनारे ७.१० करोड़ पौधों का रोपण किया गया । मध्यप्रदेश ने व्यापक विकास कार्यो के बावजूद हरित क्षेत्र में न्यूनतम कमी दर्ज कर विकास बनाम पर्यावरण बहस में एक सराहनीय उदाहरण प्रस्तुत किया है । 
भारत में विश्व के कुल भू-भाग का २.४ प्रतिशत हिस्सा है जिस पर दुनिया की १७ प्रतिशत आबादी तथा १८ प्रतिशत मवेशियों की जरूरत पूरी करने का दबाव है । इसके बावजूद भारत अपनी वन संपदा को संरक्षित रखने में सफल रहा है । हर्ष का विषय है कि हरित भवन के रणनीतिक प्रयास में मध्यप्रदेश की अहम भूमिका रही है । आशा है कि भविष्य में भी मध्यप्रदेश प्रकृति: रक्षति रक्षिता को चरितार्थ करते हुए सतत् विकास के नए कीर्तिमान स्थापित कर अन्य राज्यों का पथप्रदर्शन करेगा ।  
मध्यप्रदेश पर विशेष 
म.प्र. टाइगर स्टेट हो सकता है 
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)

राष्ट्रीय बाघ आंकलन २०१८ (बाघों की गिनती) के पहले चरण के रूझान के आधार पर वन विभाग प्रदेश में ४०० से ज्यादा बाघों की उपस्थिति का अनुमान लगा रहा है और हालात, इससे भी बेहतर परिणाम की संभावना जता  रहे हैं क्योंकि बाघ प्रदेश के उन क्षेत्रों में भी देखे जा रहे हैं, जहां पहले नहीं दिखाई देते थे । 
प्रदेश में इसी साल फरवरी से मार्च के बीच हुई बाघों की गिनती के आंकड़े दिसम्बर २०१८ या जनवरी २०१९ तक घोषित  होगें । इससे पहले ही प्रदेश में उत्साह का माहौल है । खासकर वन विभाग के अफसर उत्साहित है । दरअसल, उन्हें बाघों की गिनती के पहले चरण के रूझान से इतना तो तय हो गया है कि बाघों की गिनती को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बनने वाली मेरिट में प्रदेश चौथे-पाचवें नम्बर पर नही जाएगा बल्कि प्रारंभिक रूझान ``टाइगर स्टेट'' का तमगा वापस पाने की उम्मीद भी जता रहे है । 
इस बार साल २०१४ के मुकाबले ७१७ की बजाय १४३२ बीटों में बाघों की उपस्थिति के संकेत मिले हैं । इन बीटों में लिए गए बाघों के फोटो, पगमार्क, पेड़ों पर खरोंच के निशान का दस्तावेजीकरण किया गया है । जिसका परीक्षण स्टेट फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (एसएफ आरआई) जबलपुर कर रहा है । गौरतलब है कि इस बार प्रदेश में बाघों की गिनती पूरी तरह से वैज्ञानिक तरीके से ही गई है । इसी तरीके से २०१४ में कर्नाटक में बाघों की गिनती  हुई थी । 
म.प्र. से टाइगर स्टेट का तमगा वर्ष २०१० में तब छिन गया था, जब २००६ की गिनती के मुकाबले बाघों की संख्या ३०० से घटकर २५७ रह गई थी और ३०० बाघों के साथ यह तमगा कर्नाटक के पास चला गया था । कर्नाटक ने २०१४ की बाघा गणना में ४०६ बाघों की गिनती कराकर अपनी प्रतिष्ठा कायम रखी । जबकि २००६ में कर्नाटक में २९० बाघ थे और उनकी संख्या लगातार बढ़ती गई । २०१४ की गणना में मध्यप्रदेश में ३०८ बाघ पाए गए थे । 
वन अफसर इसलिए भी उत्साहित है क्योंकि २०१४ की गिनती के मुकाबले बाघों की संख्या २०१६ में ही बढ़ थी । विभाग ने एसएफ आरआई से प्रदेश के संरक्षित क्षेत्र (नेशनल पार्क व अभयारण्य) में बाघों की गिनती करवाई थी । तब इन क्षेत्रों में २५० वयस्क बाघ पाए गए थे । जबकि २०१४ में राष्ट्रीय स्तर पर कराई गई गणना में प्रदेश के इन्हीं क्षेत्रों में कुल २८६ बाघ गिने गए थे । जिनमें २२२ वयस्क थे । यानी दो साल में संरक्षित क्षेत्रों में २८ बाघ बढ़ गए थे । 
वन्य जीव संरक्षण से जुड़ी संस्था वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड का दावा है कि पिछले १०० सालों में बाघों की संख्या ९७ फीसदी कम हुई है । दुनिया में बाघों की कुल संख्या का ६० से ७० प्रतिशत हमारे देश में है । देश में लगभग ५० टाइगर रिजर्व हैं, उसमें से ६ म.प्र. में है । कान्हा नेशनल पार्क देश में सबसे पहले बने ०९ टाइगर रिजर्व में से एक है । भारत में पाए जाने वाले बाघों की कुल आबादी का २० प्रतिशत और विश्व में पाई जाने वाली बाघों की आबादी का १० फीसदी मध्यप्रदेश में ही है । बाघों के लिए बफर और कोर एरिया मिलाकर, देशभर में लगभग ७१ हजार वर्ग किमी क्षेत्र है । इसमें से करीब १४ प्रतिशत इलाका म.प्र. में है । विशेषज्ञ मानते है कि बाघ संरक्षण के लिए मध्यप्रदेश में काफी संभावनाएं है । 
मध्यप्रदेश में संख्या बढ़ाने के साथ बाघों के सामने टेरेटरी का संकट खड़ा होने लगा है इसलिए वे अपना इलाका बदल रहे है । पिछले दो साल में देवास, उज्जैन, दतिया सहित आधा दर्जन से ज्यादा जिलों में बाघ या उसकी उपस्थिति के संकेत मिल ेहैं । इन जिलों में इससे पहले बाघ नहीं देखे गए थे । वहीं करीब आधा दर्जन ऐसे भी जिले हैं, जो बाघों के लिए अच्छे रहवास साबित हो सकते है । 
वन्यजीव पर्यटन के मामले में उत्तराखंड के बाद  मध्यप्रदेश का नम्बर आता है । इसके अलावा कर्नाटक, राजस्थान में भी बड़े पैमाने पर वन्यजीव पर्यटन होता है । इनके मुकाबले मध्यप्रदेश में पर्यटकों के लिए सुविधाएं ज्यादा होने का दावा किया जाता है । राजस्थान के रणथंभौर नेशनल पार्क में पर्यटकों के लिए १७ बसें चलाई जाती है । वहां बस में सभी पर्यटकों को एक साथ रहना पड़ता है । जबकि प्रदेश के नेशनल पार्को में जिप्सी से सैर कराई जाती है । जिसमें छह लोग बैठते हैं और उन्हें टाइगर मूवमेंट इलाके तक ले जाया जाता है ।  मध्यप्रदेश में पर्यटन बढ़ने का एक और बड़ा कारण टाइगर रिजर्व एक-दूसरे से महज २०० कि.मी. दूरी पर है । पर्यटक यह भी सोचते है कि एक पार्क मेंबाघ नहीं दिखाई देगा, तो दूसरे में चले जाएंगे । 
बाघों के लिए नए रहवास विकसित करने की बात की जाए तो सतना, शहडोल, बैतूल और छिंदवाड़ा के जंगल उनके लिए अच्छे रहवास साबित हो सकते है । दरअसल, इन जिलों के जंगल आपस में टाइगर रिजर्व को जोड़ते हैं । ये इलाके बाघों के लिए दो टाइगर रिजर्व के बीच बेहतर कॉरीडोर हो सकता   है ।
छिंदवाड़ा का जंगल पेंच और सतपुड़ा टाइगर रिजर्व को जोड़ता है । बैतूल का जंगल महाराष्ट्र के मेलघाट और सतपुड़ा टाइगर रिजर्व को जोड़ता है । ऐसे ही शहडोल का जंगल बांधवगढ़ और संजय टुबरी टाइगर रिजर्व को जोड़ता है । इसी तरह सतना का जंगल पन्ना और उत्तरप्रदेश के रानीपुर टाइगर रिजर्व को जोड़ता है । इस कॉरीडोर में बांघों का मूवमेंट लगातार रहता है । वे कई दिन कॉरीडोर में ही बिताते है । 
विभाग अब इन कॉरीडोर को विकसित करेगा । इसे लेकर तैयारियां चल रही है । इस काम में सबसे बड़ी समस्या कॉरीडोर के बीच आ रही खेती की जमीन है । जिस पर अंतिम फैसला नहींलेने से दिक्कत आ रही है इसलिए कार्यवाही धीमी चल रही है । वन अधिकारी बताते है कि कॉरीडोर में कहीं-कहीं खुला क्षेत्र है । यदि यह भर जाए तो बेहतर प्रयास होगा । बाघ संरक्षण की दिशा में टाइगर रि-लोकेट (पुनर्स्थापन) करने की रणनीति को सबसे ज्यादा कारगर बताया जा रहा है इससे बाघों में आपसी संघर्ष के मामलों में कमी आयी है ।                
विशेष लेख
भारत में गिनती के बचे है बाघ
प्रमोद भार्गव
भारत  में इस  समय २१ राज्यों के ३०,००० बाघ के रहवासी क्षेत्रों में गिनती का काम चल रहा है । २०१८ में प्रथम चरण की हुई इस गिनती के  आंकड़े बढ़ते क्रम में आ रहे है । यह गिनती चार चरणों में पूरी  होगी । 
बाघ गणना बाघ की जंगल में प्रत्यक्ष उपस्थिति की बजाय, उसकी कथित मौजूदगी के प्रमाणों के आधार पर की जा रही है । इसलिए इनकी गिनती पर विश्वसनीयता के सवाल उठने लगे हैं । वनाधिकारी बाघों की संख्या बढ़-चढ़कर बताकर एक तो अपनी पीठ  थपथपाना चाहते हैं,दूसरे उसी अनुपात में धनराशि भी बाघों के सरंक्षण हेतु बढ़ाने की मांग करने लगते हैं ।
केन्द्र सरकार के २०१० के  आकलन के अनुसार यह संख्या २२२६ हैं ।  जबकि २००६ की गणना में १४११ बाघ थे ।  इस गिनती में सुंदर वन के  वे ७० बाघ शामिल नहीं थे, जो २०१० की गणना में शामिल कर लिए गए हैं । महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तराखंड और असम में सबसे ज्यादा बाघ हैं । कर्नाटक में ४००, उत्तराखंड में ३४० और मध्य-प्रदेश में ३०८ बाघ हैं । एक समय टाइगर स्टेट का दर्जा पाने वाले मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या निरंतर घट रही है । 
मध्यप्रदेश में साल २०१७ में ११ महीने के भीतर २३ बाघ विभिन्न कारणों से मारे भी गए हैं, इनमें ११ शावक थे । दुनियाभर में इस समय ३८९० बाघ  हैं, इनमें से २२२६ भारत में बताए जाते हैं । जबकि विज्ञान-सम्मत की गई गणनाओं का अंदाजा है कि यह संख्या १५०० से ३००० के बीच हो सकती है। इतने अधिक अंतर ने 'प्रोजेक्ट  टाइगर' जैसी विश्व विख्यात परियोजना पर कई संदेह के सवाल खड़े कर दिए हैं। इससे यह भी अशंका उत्पन्न हुई है कि क्या वाकई यह परियोजना सफल है भी अथवा नहीं ? 
फिलहाल वन्य जीव विशेषज्ञ २२२६ के आंकड़े पर सहमत नहीं      है। दरअसल बाघों की संख्या की गणना के लिए अलग-अलग तकनीकों का इस्तेमाल होता है। भारतीय वन्य जीव संस्थान देहरादून के  विशेषज्ञों का कहना है कि मध्य भारत में बाघों के आवास के लिहाज से सबसे उचित स्थान कान्हा राष्ट्रीय उद्यान है।
यहां नई तकनीक से   गणना की जाए तो मौजूदा संख्या में ३० प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती  है। डब्ल्यूआईआई के जाने-माने बाघ  शोधकर्ता यादवेंद्र देवझाला ने एक शोध पत्र में लिखा है कि डीएनए फिंगर प्रिंट की तकनीक का इस्तेमाल करने वाले विशेषज्ञों ने आकलन किया है कि कान्हा में बाघों की संख्या ८९ है। वहीं कैमरा ट्रेप पर आधारित एक अन्य वैज्ञानिक तकनीक यह संख्या ६० के करीब बताती हैं । इस बात में कोई संदेह नहीं है कि बाघ एकांत पसंद करने वाले दुर्लभ प्राणी हैं । लिहाजा इनकी गणना करना आसान नहीं है। लेकिन गणना में इतना अधिक अंतर दोनों ही तकनीकों के प्रति संदेह पैदा करता  है। 
भारत में १९७३ में टाइगर प्रोजेक्ट परियोजना की शुरूआत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने की थी।  शुरूआत में इसका कार्य क्षेत्र ९ बाघ संरक्षण वनों में शुरू  हुआ । बाद में इसका क्षेत्र विस्तार ४९ उद्यानों में कर दिया गया । बाघ संरक्षण भारत सरकार और राज्यों की साझा जिम्मेदारी है। संवेदना और सह-अस्तित्व के लिए प्रोत्साहित करने वाली हमारी सांस्कृतिक विरासत ने बाघ परियोजना की सफलता में अहम् भूमिका निभाई है। इन साझा प्रयासों का ही परिणाम है कि बाघों की संख्या ३० प्रतिशत तक ही बढ़ी हैं । 
वर्ष २०१० में यह संख्या १७०६ थी, जो २०१४ में बढ़कर २२२६ हो गई हैं। लेकिन २०११ में जारी हुई इस बाघ गणना को तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश ने इस गणना का जो प्रतिवेदन जारी किया था, उसमें भ्रामक तथ्य पेश आए थे । 
        जयराम रमेश ने अखिल भारतीय बाघ गणना का जो प्रतिवेदन जारी किया था, उसी का गंभीरता से आकलन करंें तो पता चलता है कि   यह गणना भ्रामक थी । इस गणना के अनुसार २००६ में बाघों की जो संख्या १४११ थी, वह २०१० में १७०६ हो   गई । जबकि २००६ की गणना में सुंदरवन के बाघ शामिल नहीं थे, वहीं २०१० की गणना में इनकी संख्या ७० बताई गई । 
दुसरे, बाघों की बढ़ी संख्या नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से आई थी । इसमें नक्सली भय से वन अमले का प्रवेश वर्जित हैं। जब वन अमला दूराचंल और बियावान जंगलों में पहंुचा ही नहीं तो गणना कैसे संभव  हुई ? जाहिर है यह गिनती अनुमान आधारित थी । 
हालांकि यह तय हैंकि नक्सली वर्चस्व वाले भूखण्डो में बाघों की ही नहीं अन्य दुर्लभ वन्य जीवों की भी संख्या बढ़ी होगाी ? क्योकि इन मुश्किल इलाको में बाघ के अभ्यस्त शिकारी भी नक्सलियों से भय खाते हैं। लिहाजा इन क्षेत्रों में बाघ बढ़े भी हैं तो इसका श्रेय वन विभाग को क्यों ?    इस रिपोर्ट को जारी करते हुए खुद जयराम रमेश ने माना था कि २००९-२०१० में बड़ी संख्या में बाघ मारे गए थे, इसके बावजूद शिकारी और तस्कारों के समूहों को हिरासत में लिया जा सका और न ही शिकार की घटनाओं पर अंकुश लगाया जा    सका । 
ऐसे में सवाल उठता है कि जब शिकारी उन्मुक्त रहे तो बाघों का शिकार बाधित कहां हुआ ? इस गिनती में आघुनिक तकनीक से महज ६१५ बाघों के छायाचित्र लेकर गिनती की गई थी । बाकी बाघों की गिनती पंरपरागत पद्धतियों और रेडियो पट्टेधारी तकनीक से की गई थी। जबकि पदचिन्ह गिनती की वैज्ञानिक प्रमाणिकता पर खुद जयराम रमेश   ने प्रश्न चिन्ह लगा दिया था । ऐसे में यहां सवाल यह भी उठता हैं कि क्या बाघों की जान-बूझकर गिनती बढ़ाकर   इसलिए बताई गई ? जिससे वन विभाग की साख बची रहे और बाघ सरंक्षण के उपक्रमों के बहाने आवंटन के  रूप  में बढ़ी धन राशि मिलती      रहे ? 
बीती सदी में जब बाघों की संख्या कम हो गई तब मध्य प्रदेश के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में पैरों के निशान के आधार पर बाघ गणना प्रणाली को शुरूआती मान्यता दी गई थी । ऐसा माना जाता है कि हर बाघ    के पंजे का निशान अलग होता है और इन निशानों को एकत्र कर बाघों की संख्या का आकलन किया जा सकता है। कान्हा के निदेशक एचएस पवार   ने इसे एक वैज्ञानिक तकनीक माना था, लेकिन यह तकनीक उस समय मुश्किल में आ गई, जब 'साइंस इन एशिया' के मौजूदा निदेशक के उल्लास कारंत ने बंगलुरु की वन्य जीव सरंक्षण संस्था के लिए विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में बंधक बनाए गए बाघों के पंजों के निशान लिए और विशेषज्ञों से इनमें अंतर करने के लिए कहा । इसके बाद पंजों के निशान की तकनीक की कमजोरी उजागर हो गई और इसे नकार दिया गया ।
इसके बाद 'कैमरा ट्रैपिंग' का एक नया तरीका पेश आया । जिसेे कारंत की टीम ने शुरूआत में दक्षिण भारत में लागू किया। इसमें जंगली बाघों की तस्वीरें लेकर उनकी गणना की जाती थी । ऐसा माना गया कि प्रत्येक बाघ के  शरीर पर धारियों का प्रारूप उसी तरह अलग-अलग है, जैसे इंसान की अंगुलियों के निशान अलग-अलग होते है। यह एक महंगी आकलन प्रणाली थी । पर यह बाघों के पैरों के निशान लेने की तकनीक से कहीं ज्यादा सटीक थी । 
इसके तहत कैप्चर और री-कैप्चर की तकनीकों वाले परिकृत सांख्यिकी उपकरणों और प्रारूप की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके बाघों की विश्वसनीय संख्या का पता लगाने की  शुरूआत हुई। इस तकनीक द्वारा गिनती सामने आने पर बाघों की संख्या नाटकीय ढंग से घट गई । इसी गणना से यह आशंका सामने आई कि  इस सदी के अंत तक बाघ लुप्त होे जाएंगे । 
राष्ट्रीय बाघ सरंक्षण प्राधिकरण के प्रमुख राजेश गोपाल  ने तब कैमरा ट्रैप पद्धति को ही सही तरीका मानते हुए बाघों की गिनती और निगरानी के बाबत यहां दो बातंे और भी उल्लेखनीय हैं । गौरतलब है जब २००९-१० में पन्ना बाघ परियोजना से बाघों के गायब होने की खबरें आ रही थीं तब २००८ में वन विभाग ने बताया था कि पन्ना में १६  से लेकर ३२ बाघ हैं ।  इस गणना में ५० प्रतिशत का लोच है। जबकि यह गणना आधुनिकतम तकनीकी तरकीब से की गई थी । 
मसलन जब हम एक उद्यान की सटीक गिनती नहीं कर सकते तो देश के जंगलों में रह रहे बाघों की सटीक गिनती कैसे कर पांएगे ? बाघों की मौजूदा गिनती को यदि पन्ना की बाघ गणना से तुलना करें तो देश में बाघों की अनुमानित संख्या ८५३ से लेकर १७०६ तक भी  हो सकती है। बाघों की हाल में हुई गिनती में तकनीक भले ही नई रही   है, लेकिन गिनती करने वाला अमला वही था, जिसने २००८ में पन्ना क्षेत्र में बाघों की गिनती की थी । कमोबेश इसी मनोवृत्ति  का वन अमला पूरे देश में कार्यरत है, जिसकी कार्यप्रणाली निरापद नहीं मानी जा सकती ।
नवंबर-दिसंबर २०१० में श्योपुर-मुरैना की जंगली पट्टी में एक बाघ की आमद दर्ज की गई थी । इसने कई गाय-भैंसों का शिकार किया और करीब दर्जन भर ग्रामीणों ने इसे देखने की तसदीक भी की । 
वन अमले ने दावा किया था कि यह बाघ राजस्थान के राष्टीय उद्यान से भटककर अथवा मादा की तलाश में श्योपुर-मुरैना के जंगलों में चला आया है। इस बाघ को खोजने में पूरे दो माह ग्वालियर अंचल का वन अमला इसके पीछे लगा रहा । इसके छायांकन के लिए संवेदनशील कैमरे और कैमरा टेप पद्धतियों का भी इस्तेमाल किया गया। लेकिन इसके फोटो नहीं लिए जा सके । आखिर पंजे के निशान और शिकार के तरीके से प्रमाणित किया गया कि कोई नर बाघ ने ही श्योपुर-मुरैना में धमाल मचाया हुआ है। 
यह बाघ वाकई में एक निश्चित क्षेत्र में था, इसके बावजूद इसे टे्रस करने में दो माह कोशिश में लगे रहने के बाद भी नाकाम रहे। तब एक पखवाड़े के भीतर १७०६ बाघों की गिनती कैसे कर ली  ? 
बढ़ते क्रम में बाघों की गणना इसलिए भी नामुमकिन व अविश्वश्नीय है क्योंकि आर्थिक उदारवाद के चलते बहुराष्ट्रीय  कंपनियों को प्राकृतिक  संपदा के  दोहन की छूट जिस तरह से दी जा रही है, उसी अनुपात में बाघ के प्राकृतिक आवास भी प्रभावित हो रहे हैं । खनन और राजमार्ग विकास परियोजनाओं ने बाघों की वंश वृद्धि पर अंकुश  लगाया है। इन परियोजनाओं को प्रचलन में लाने के लिए चार गुना मानव बसाहटें बाघ आरक्षित क्षेत्रों में बढ़ी हैं। केंद्र व राज्य सरकारों की नीतियां भी खनन परियोजनाओं को बढ़ावा दे रही हैं। 
पन्ना में हीरा खनन परियोजना, कान्हा में बॉक्साइट, राजाजी में राष्ट्रीय राजमार्ग तड़ोबा में कोयला खनन और उत्तर-प्रदेश के तराई वन क्षेत्रों में इमारती लकड़ी माफिया बाघों के लिए जबरदस्त खतरा बने हुए हैं। इसके बावजूद खनिज परियोजनाओं के विरुद्ध बुलंदी से आवाज न राजनीतिकों की ओर से उठ  रही और न ही वन अमले की तरफ से ? हां वन अमले की बर्बरता और गोपनीयता जरुर वैसी ही बनी चली आ रही है जो फिरंगी हुकूमत के जमाने में थी। अंग्रेजों से विरासत में मिली इस शैली में बदलाव अभी तक वन अमला लाया नहीं है। 
यही कारण है कि बाघों की संख्या में लगातार कमी आ रही है जबकि राष्ट्रीय उद्यानों, वनकर्मियों और वन आंवटन में निरंतर वृद्धि हो रही है। प्रत्येक आरक्षित उद्यान को २० से २६ करोड़ रुपए दिए जाते हैं। आशंकाएं तो यहां तक हैं कि बाघों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर इसलिए बताई जाती है ताकि इनके संरक्षण के बहाने बरस रही देशी-विदेशी धनराशि नौकरशाही का हिस्सा बनती रहे। बीते चार सालों में एक अरब ९६ करोड़ का पैकिज बाघों के  संरक्षण हेतु जारी किया जा चुका है। बाघ गणना के जो वर्तमान परिणाम सामने आए है,ं केवल इसी गिनती पर ९ करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं ।
अप्रत्यक्ष व अप्रामाणिक तौर से यह सत्य सामने आ चुका है कि बाघों के शिकार में कई वनाधिकारी शामिल हैं, इसके बावजूद जंगल महकमा और कुलीन वन्य जीव प्रेमी वनखण्डों और उनके आसपास रहने वाली स्थानीय आबादी को वन्यप्राणी संरक्षण से जोड़ने की कोशिश करने की बजाय भोले-भाले आदिवासियों पर झूठे मुकदमे लादने और उन्हें वनों से बेदखल करने की कोशिशों में लगे हैं । 
जबकि सच्चई यह है कि सदियों   से वनों में आदिवासियों का बाहुल्य उनका प्रकृति और प्राणी से सह-अस्तित्व की जीवन शैली ही ईमानदारी से वन और वन्य जीवों का सुरक्षा व संरक्षण का मजबूत तंत्र साबित हो सकता है। बाघों की गणना के ताजा व पूर्व प्रतिवेदनों से भी यह  तय हुआ है कि ९० प्रतिशत बाघ आरक्षित बाघ अभ्यारण्यों से बाहर रहते हैं । 
इन बाघों के संरक्षण में न वनकर्मियों का कोई योगदान होता है और न ही बाघों के लिए मुहैया कराई जाने वाली धनराशि बाघ संरक्षण के उपायों में खर्च होती हैं ? इस तथ्य की पुष्टि  इस बात से भी होती है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में जो जंगल हैं, उनमें बाघों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई है। जाहिर है इन क्षेत्रों में बाघ संरक्षण के सभी सरकारी उपाय पहुंच से बाहर हैं। 
लिहाजा वक्त का तकाजा है कि जंगल के रहबर वनवासियों को ही जंगल के दावेदार के रुप में देखा जाए तो संभव है वन प्रबंधन का कोई मानवीय संवेदना से जुड़ा जनतांत्रिक सहभागिता मूलक मार्ग प्रशस्त हो।
पर्यावरण परिक्रमा
एनजीटी ने गंगा मिशन को सूचना पट्ट लगाने का निर्देश दिया
पिछले दिनों राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने गंगा की हालत पर बेहद चिंता जताई है । साथ ही कहा है कि जब सिगरेट के पैकेट पर यह लिखकर चेतावनी दी जा सकती है कि यह स्वास्थ्य के हानिकारक है तो फिर गंगा नदी केऊपर क्यों नहीं ? इसके साथ ही एनजीटी ने हरिद्वार से उन्नाव के बीच गंगा के पानी की स्थिति को लेकर भी अपनी नाराजगी जाहिर की है, जो नहाने और पीने के लायक नहीं है । 
इसके साथ ही एनजीटी ने नेशनल मिशन फॉर गंगा क्लीन को यह आदेश दिया है कि वह हर १०० किलोमीटर की दूरी पर पर्याप्त् सूचना के साथ एक बोर्ड लगाएं । उसमें गंगा नदी के पानी की क्वालिटी के बारे में पूरी सूचना हो ताकि यह पता चल सके कि वो पीने और नहाने के लायक है या नहीं । एनजीटी ने कहा कि श्रद्धालू लोग श्रद्धापूर्वक नदी का जल पीते हैं, और इसमें नहाते हैं, लेकिन उन्हें नहीं पता कि इसका उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर हो सकता  है । अगर सिगरेट के पैकटों पर यह चेतावनी लिखी हो सकती है कि यह स्वास्थ्य के लिए घातक है, तो लोगोंको नदी के जल के प्रतिकूल प्रभावों के बारे में जानकारी क्यों नहीं दी जाए ?
एनजीटी प्रमुख  ए.के. गोयल की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा - हमारा नजरियां है कि महान गंगा के प्रति अपार श्रद्धा को देखते हुए, सामान्य जन यह जाने बिना इसका जल पीते हैं और इसमें नहाते हैं कि जल इस्तेमाल के योग्य नहीं है । गंगाजल का इस्तेमाल करने वाले लोगों के जीवन जीने के अधिकार को स्वीकार करना बहुत जरूरी है और उन्हें जल के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए । एनजीटी ने राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन को सौ किलो मीटर के अंतराल पर डिस्पले बोर्ड लगाने का निर्देश दिय ताकि यह जानकारी दी जाए कि जल पीने या नहाने लायक है या नहीं । 
अमेरिकी ने बनाए बांस के टूथब्रश
स्टारबक्स और मैकडोनल्ड जैसी मल्टीनेशनल कंपनियों ने प्लास्टिक के विरोध के चल रहे अभियान को समर्थन दिया है । ऐसा ही एक मुहिम अमेरिकी आंत्रप्रेन्योर क्रिस्टिना रेमिनेज ने शुरू की है । उन्होंने बांस से टूथब्रश तैयार किए हैं जो पूरी तरह इकाफ्रैंडली हैं । 
प्लस अल्ट्रा स्टार्टअप की फाउंडर क्रिस्टिना कहती हैं कि मुझे इस पल का छह साल से इंतजार था । अब बड़ी कंपनियोंको भी प्लास्टिक के नुकसान के बारे में जागरूकता आने लगी है । क्रिस्टिना का तर्क है - जो कैमिकल युक्त प्लास्टिक पर्यावरण के लिए खतरनाक है, वह शरीर के लिए कैसे अच्छा हो सकता  है ? फिर हम अपने मुंह में इसे कैसे जगह दे पाते है । क्रिस्टिना को यह बात हमेशा परेशान करती थी । एक अध्ययन के मुताबिक एक शख्स साल में चार बार ब्रश बदलता है तो पूरे जीवन में करीब ३०० टूथब्रश इस्तेमाल करता है । ये सारा प्लास्टिक धरती को प्रदूषित करता  है ।
प्लस अल्ट्रा शुरू करने से पहले क्रिस्टिना रिटेल स्टोर होलफूड्स में कैशियर के रूप मेंकाम  करती  थी वहीं रहते हुए क्रिस्टिना को वेंडर बनने का आइडिया आया । कॉफी रिसर्च के बाद  यह  कंपनी  शुरू की । साथ में स्टोर पर नौकरी भी जारी रखी । पहले तो प्रोडक्ट को खासा रिस्पॉन्स नहीं मिला । फिर चीन की एक कपंनी ने  ब्रश के ८० प्रोटोटाइअप मंगाए और डेंटिस्ट से चेक करवाए । 
पहला  बड़ा ऑर्डर (२१ लाख रूपये) वहीं से मिला । इसके लिए क्रिस्टिना ने २७ लाख सालाना पैकेज वाली नौकरी भी छोड़ दी थी । आज उनकी कंपनी में कुल जमा छह एम्पॉयी हैं लेकिन सालाना बिक्री करीब १०-१३ करोड़ रूपय के करीब पहुंच  गई ह ै। 
क्रिस्टना के लिए शुरूआती समय बहुत ही संघर्ष वाला था । इस टूथब्रश के लिए मार्केट तलाशना बहुत मुश्किल था । सामान्य ब्रश की तुलना में इनकी कीमत (२५०-४५० रूपये) ज्यादा थी । पर क्रिस्टिना ने हिम्मत नहीं हारी, होलफूड्स में रहने के दौरान सीखे मार्केटिंग स्किल काम आए । आज २२ अमेरिकी राज्यों में ३०० से ज्यादा रिटेल स्टोर पर उनके टूथब्रश बिक रहे है । अमेजन और अगले साल पूरे अमेरिका में मिलने लगेगे । फिलहाल वह शेविंग रेजर के हैडल बांस से बनाने के प्रोजेक्ट पर काम कर रही है । 
क्रिस्टिना कहती है कि आने वाले पांच साल में बाथरूम में इस्तेमाल होने वाले ज्यादातार प्रोडक्ट्स को वह बांस के ईको- फैं्रडली प्रोडक्ट से बदलकर रख   देगी । 
दूल्हा डोप टेस्ट में पास होगा तभी होगी शादी 
पंजाब एक ओर जहां नशे की समस्या सेजूझ रहा है । वहीं, केन्द्रशासित प्रदेश और पंजाब हरियाणा की राजधानी चण्डीगढ़ में इस समस्या से निपटने के लिए अनोखी योजना शुरू करने की तैयार की जा रही है । 
दरअसल, बेहद नियोजित तरीके से बसाए गए चण्डीगढ़ में शादी के पहले होने वाले दूल्हे का डोप टेस्ट (नशे की जांच) कराने की योजना बनाई गई है । इस केन्द्रशासित प्रदेश के अफसरों का कहना है कि अगर दूल्हा इसके लिए तैयार होता है तो वे डोप परीक्षण के लिए मेडिकल उपकरण भी मुहैया कराएंगे । 
अफसरोंने हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट को इस बारे में जानकारी भी दी है कि इस तरह की जांच कराना संभव है और यह नशे के रोकथाम की दिशा में अहम कदम होगा । ज्यादातर पारिवारिक विवाद की वजह पति द्वारा नशा करना था । ऐसे में अगर दूल्हे के डोप जांच की सुविधा की व्यवस्था अगर सरकार करती है तो चंडीगढ़ ऐसा करने वाला देश का पहला प्रदेश होगा । 
सरकार द्वारा कराए गए अध्ययन के मुताबिक, चंडीगढ़ समेत पंजाब में करीब ९ लाख युवा नशाखोरी में शामिल है । इनकी उम्र १५-३५ साल केबीच है । ज्यादार (५३ फीसदी) हैरोइन जैसा नशा लेते है । 
पिछले साल अप्रैल में जस्टिस रितु बहारी ने कहा था हरियाणा, पंजाब और केन्द्र शासित राज्य चण्डीगढ़ को नोटिस जारी किए गए हैं कि हर सिविल अस्पताल में इस तरह की व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती है, जिसमें दूल्हों का डोप टेस्ट हो सके । क्योंकि अधिकतर पारिवारिक विवादों में कोर्ट ने नोटिस किया है कि उनकी वजह शादी से पहले इस बात की जांच न करना है कि वे नशे का सेवन तो नहीं करते । 
समुद्र में दफन कर रहे टैंक, ताकि पनपे जीवन
लेबनान में जंगी टैंको को भूमध्यसागर में डूबोया जा रहा है, ताकि समुद्री जीवन का संरक्षण किया जा सके और समुद्र में वनस्पति और जीवजन्तु पनप सकें । वैज्ञानिकों का मानना है कि टैंक समुद्र में डालने से इनके ऊपर काई जमेगी और समुद्र का पर्यावरण स्वच्छ होगा । समुद्र में डूबे टैंक चट्टानों की तरह काम करेंगे और इन पर वनस्पति पनपेगी । इस तरह कृत्रिम चट्टाने सेना में काम आने वाले लोहे के पलंगों से भी बनाई जा रही है । 
२०१२ से ही वैज्ञानिक समुद्री जीवन के संरक्षण के लिए काम रहे है । बेरूत के डॉ. माइकल चालहाउब ने त्रिपोली के समुद्र तट की खूबसूरती बढ़ाने के लिए फंड की व्यवस्था की   है । ७०-१०० मीटर की दूरी के अंतराल पर रखा जा रहा है, टैंको का एक दूसरे से । नौकाआें और क्रेन की सहायता से इन टैंको को समुद्र की सतह पर पहुंचाया जा रहा है । 
पिछले १०० सालों में ९० फीसदी घटी गरीबी
आम धारणा के विपरीत आय और जीवनस्तर के मामले में दुनिया के हालात पहले से काफी बेहतर हो गए है । पिछले १०० साल के दौरान घोर गरीबी तकरीबन ९० फीसदी कम हो गई है । १९१० में जहां ८२.४ फीसदी लोग घोर गरीबी में जीवन बिता रहे थे, वहीं २०१५ में ऐसे लोगों की तादाद घटकर केवल९.६ फीसदी रह गई है ं । वर्ल्ड बैंक के मुताबिक वैसे लोगों को गरीब माना जाता है, जिनकी आय रोजना १.९० डॉलर (लगभग १३१ रूपये) से कम है । 
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक रिसर्च प्रोजेक्ट में कहा गया है वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के हिसाब से १९५० में पूरी  दुनिया में तीन चौथाई से ज्यादा लोग घोर गरीबी में थे । १९८१ में भी ऐसे लोगों की संख्या ४४ फीसदी थी । इस मामले में नवीनतम आंकड़े साल २०१५ के उपलब्ध हैं, जिसके मुताबिक घोर गरीबी का सामान कर रहे लोगों की तादाद १० फीसदी से कम रह गई है । प्रोजेक्ट में इसे बड़ी उपलब्धि माना गया है । 
रिपोर्ट के मुताबिक १८२० में कुछ ही लोग अच्छी जीवनशैली का आनंद उठा रहे थे और ज्यादातर लोगोंकी माली हालत ऐसी थी, जिसे हम घोर गरीबी कहते है । जैसे-जैसे समय बीतता गया, दुनिया के ज्यादा से ज्यादा हिस्सोंमें तेजी से औघोगीकरण हुआ । नतीजतन उत्पादकता बढ़ी और इस वजह से लोग गरीबी से उबरने लगे । 
हालांकि समग्र तौर पर दुनियाभर में गरीबी  काफी कम हुई है, लेकिन सभी देशों में यह उपलब्धि एक जैसी नहीं रही है । वर्ल्ड बैंक ने कहा है २०१२ और २०१३ के बीच घोर गरीबी झेल रहे लोगों की तादाद में जो कमी आई, उसमें सबसे ज्यादा योगदान पूर्वी एशिया और प्रशांत का रहा, जिसमें भारती, चीन और इंडोनेशिया जैसे देश शामिल है । 
विज्ञान हमारे आसपास
दबाव में बदलता बर्फ का स्वरूप
एस. अनंतनारायणन
  पानी पृथ्वी पर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है और यह सारे जीवन का आधार है। यही पानी ज़बर्दस्त बहुरूपता प्रदर्शित करता है। प्राकृतिक रूप से यह वायुमंडल में वाष्प के रूप में, नदियों और महासागरों में तरल रूप में और ठोस बर्फ के रूप में मौजूद है। इसका ठोस रूप भी अठारह अलग-अलग रचनाओं में मिलता है । 
हालांकि बर्फ अपने इन सभी रूपों में ही रहता है, परंतु उच्च् दबाव की स्थिति में यह संभावना होती है कि पानी के हाइड्रोजन और ऑक्सीजन घटक अलग-अलग हो जाएं । ऐसा सोचा गया है कि पानी के ऐसे रूप विशालकाय ग्रहों के भीतर पाए जा सकते हैं । और कुछ सैद्धांतिक अध्ययन भी किए गए हैं कि  इस तरह के बर्फ  के अनुमानित गुण क्या होंगे। लॉरेंस लिवरमोर प्रयोगशाला, कैलिफोर्निया विश्व विघालय और रोचेस्टर के वैज्ञानिकों ने नेचर फिजिक्स जर्नल में बताया है कि उन्होंने लेजर संचालित संपीड़न करके उच्च् दबाव पर बर्फ की ऐसी अवस्था बनाने का प्रयास किया है। 

पानी की सबसे आश्चर्यजनक और सुपरिचित विशेषता यह है कि जिस ढंग से तरल से हिमांक (बर्फ  बनने का तापमान) पर पहुंचते समय इसके  घटक व्यवस्थित होने लगते हैं । अन्य वस्तुओं की तरह, तापमान में कमी के साथ, पानी का आयतन भी कम हो जाता है, लेकिन ४ डिग्री सेल्सियस पर पहुंचते ही स्थिति बदल जाती है । ४ डिग्री सेल्सियस से लेकर बर्फ  बनने तक पानी फैलता है, यानी उसका घनत्व कम होता है। और शून्य डिग्री सेल्सियस पर जमने के बाद, घटते तापमान के साथ इसके कई अलग-अलग क्रिस्टलीय रूप नजर आते हैं ।
हमारा जाना-पहचाना सामान्य बर्फ  षट्कोणीय क्रिस्टल के  रूप में रहता है। ये षट्कोणीय क्रिस्टल विविध तरीकों से व्यवस्थित हो सकते हैं।  इस तरह से बर्फ की पपड़ियां (हिमकण या स्नो-फ्लेक्स) बनते हैं। तापमान कम होने के साथ बर्फ का अगला रूप घनाकार क्रिस्टल का बना होता है जो बर्फियों के समान जमे होते हैं। बर्फ का यह रूप ऋण ५३ डिग्री सेल्सियस से कम पर बनता है। इसे यदि ऋण ३३ डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया जाए तो यह वापिस सामान्य बर्फ में बदल जाता है। बर्फ का अगला रूप नियमित रूप से समचतुर्भुज (रोम्बोहेड्रल)  आकार का  होता है। यह सामान्य बर्फ को ऋण ८३ डिग्री सेल्सियस से नीचे ठंडा करके संपीड़ित करने (दबाने पर) पर  बनता है ।
फिर बर्फ के ऐसे भी रूप होते हैं जो उच्च् दबाव पर संपीड़न के  द्वारा बनते हैं और ये पानी से अधिक घने होते हैं। जब थोड़ा ठंडा किया जाए और लगभग ३,००० वायुमंडलीय दाब डाला जाए, तो बर्फ  चतुष्कोण (टेट्रागोनल) क्रिस्टल का रूप लेता है, जो उच्च दबाव पर बनने वाले सभी रूपों में सबसे हल्का होता है।
बर्फ  का एक प्रकार ऐसा भी है जो गैर-क्रिस्टलीय (रवाहीन) है। यह तीन रूपों - कम घनत्व, उच्च् घनत्व और बहुत उच्च घनत्व - में पाया जाता है। जब उच्च् घनत्व के रवाहीन बर्फ को ८,००० से अधिक वायुमंडलीय दबाव में रखकर गर्म किया जाता है और धूल जैसे कण मौजूद हों तो यह एक त्रिआयामी रोम्बोहेड्रल क्रिस्टल का रूप  ले लेता है। मात्र ऋण २० डिग्री सेल्सियस और ५,००० वायुमंडलीय दबाव पर हमें एक आयताकार प्रिज्म की संरचना मिलती है। ऋण ३ डिग्री सेल्सियस और १ करोड़ वायुमंडलीय दाब पर एक चतुष्कोण (टेट्रागोनल) संरचना मिलती है ।
इस तरह, बर्फ  विभिन्न तापमान और दबाव पर विभिन्न क्रिस्टल रूप लेता है। हालांकि, इन सभी रूपों में, धनावेशित हाइड्रोजन क और ऋणावेशित ज के  बीच विद्युत आकर्षण बल पानी के अणुओं को एक साथ रखने में सक्षम होते हैं और उनका व्यवहार भी सामान्य पानी की तरह कुचालक होता है। किन्तु करोड़ों वायुमंडलीय दबाव जैसी चरम स्थितियों में, पानी के अणुओं के  घटकों का विस्थापन इतना ऊर्जावान हो सकता है कि वह विद्युत बलों से अधिक हो जाता है और क और ज आयन अलग-अलग हो जाते हैं। यह भी पानी का एक रूप है जिसे  आयनिक पानी  कहा जाता है। 
यह अब तक एक सैद्धांतिक अटकल है जिसका अस्तित्व होना चाहिए । अनुमान लगाया है कि इससे भी उच्च्  दबाव पर,  अति-आयनिक पानी  बनाया जा सकता है, जहां ऑक्सीजन क्रिस्टलित हो जाएगा और हाइड्रोजन ऑक्सीजन परमाणुओं की जाली में तैरते रहेंगे ।
पानी के इस रूप को विद्युत का चालक होना चाहिए। अर्थात नेप्च्यून और यूरेनस जैसे विशाल बर्फीले ग्रहों के  भीतर की वास्तविकता वास्तव में असामान्य होना चाहिए । इसलिए सैद्धांतिक अनुसंधान के विभिन्न चरणों की जांच करके पानी की अति-आयनिक अवस्था के अनुमानों, या विशाल ग्रहों के भीतर हलचल को सत्यापित करने के तरीके विकसित करना महत्वपूर्ण है। यह अनुमान लगाया जाता है किअति-आयनिक पानी लोहे की  तरह सख्त और चमकदार पीले रंग का  होगा ।
नेचर फिजिक्स में प्रकाशित पेपर में हीरे से बनी तख्ती पर उच्च् दबाव में पानी को संपीड़ित करने के अब तक के काम को प्रस्तुत किया गया है। लेकिन यह भी बताया गया है कि अति-आयनिक अवस्था में अपेक्षित उच्च विद्युत चालकता का स्पष्ट सत्यापन संभव नहीं हो पाया   था  । अत्यधिक दबाव भी पानी को स्थिर अति-आयनिक अवस्था में लाने में सक्षम नहीं था  क्योंकि  दबाव में वृद्धि बहुत तेज गति से की गई थी। 
इसके विपरीत, वर्तमान अध्ययन में, लेजर द्वारा संपीड़न को विभिन्न चरणों में किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप बहुत अधिक विद्युत चालकता देखी गई। चालकता को मापने के लिए उपयोग की जाने वाली इकाई सीमेंस है और पानी के लिए व्यावहारिक इकाई माइक्रो-एस या मिली-एस है। वर्तमान परीक्षणों में चालकता लगभग ३० एस प्रति से.मी. तक देखी गई और गुंजायमान संक्षोभ परीक्षणों में यह १५० एस प्रति से.मी. तक आई ।
पेपर के अनुसार केवल उच्च चालकता उत्पन्न हो जाने से यह प्रमाणित नहीं होता कि अति-आयनिक अवस्था प्राप्त हो गई है क्योकि हो सकता है कि  उच्च्  चालकता धनावेशित हाइड्रोजन परमाणु या प्रोटॉन की वजह से नहीं बल्कि इलेक्ट्रॉन के प्रवाह के कारण पैदा हुई हो। इसलिए आगे और अध्ययन किया गया, जिसमें उन स्थितियों का निरीक्षण किया गया। इस प्रकार से कुल मिलाकर, नया डैटा ग्रहों की आंतरिक परिस्थितियों में जल-बर्फ में अति-आयनिक विद्युत संचालन का प्रायोगिक साक्ष्य प्रदान करता है।
पेपर के अनुसार,  सौर मंडल में क और ज  की बहुतायत, तथा  क२ज अणुओं की स्थिरता को देखते हुए, पानी ग्रह निर्माण की एक महत्वपूर्ण इकाई हो सकती है।  भविष्य में खगोलीय अवलोकन और चरम-अवस्था परीक्षणों में सुधार होगा, ग्रहों के अवयवों के  मूल गुणों के साथ ग्रहों की मॉडलिंग करके  बर्फीले ग्रहों के निर्माण, संरचना और विकास की विविधता की बेहतर समझ पैदा हो सकेगी ।             
ज्ञान विज्ञान
घोड़े आपके हावभाव को याद रखते हैं 
सदियों से घोड़ों का इस्तेमाल विभिन्न कार्यों के लिए किया जाता रहा है । एक समय में घोड़े लड़ाई के मैदानों और सवारी का मुख्य साधन हुआ करते थे । लेकिन घोड़ों में एक और विशेष बात है। घोड़े मानव चेहरों के हावभाव याद रख सकते हैं। वे पिछली मुलाकात में आपके व्यवहार, मुस्कराने या गुस्से, के अनुसार अपनी प्रतिक्रिया भी देते हैं।  
वर्ष २०१६ में पोर्टसमाउथ विश्वविद्यालय की लीएन्रप्रूप्स और ससेक्स विश्वविद्यालय के उनके सहयोगियों ने बताया था कि घोड़े इंसानों के खुश या गुस्से वाले चेहरे की तस्वीरों पर अलग-अलग प्रतिक्रिया देते हैं। अब उन्होंने अध्ययन किया है कि क्या घोड़े चेहरे के हाव-भाव के आधार पर लोगों की स्थायी यादें भी बना सकते हैं।
इस अध्ययन के लिए उन्होंने घोड़ों को दो मानव मॉडल में से एक की तस्वीर दिखाई । दोनों मॉडल एक ही व्यक्ति के थे किंन्तु एक के चेहरे पर गुस्से का तथा दूसरे के चेहरे पर खुशी का भाव था । कुछ घंटों बाद मॉडल खुद तटस्थ मुद्रा में घोड़ों के सामने आया । तुलना के लिए एक और प्रयोग साथ में किया गया था। इसमें दूसरी बार व्यक्ति की बजाय एक अन्य मॉडल को ही घोड़े के सामने रखा गया  था ।   
घोड़े नकारात्मक और खतरनाक चीजों को बाइंर् आंख से एवं सका- रात्मक सामाजिक उद्दीपन वाली चीजों को दाइंर् आंख से देखना पसंद करते हैं। अध्ययन में, जब घोड़ों ने मॉडल को पहले गुस्से में देखा, तो उन्होंने वास्तविक व्यक्ति को देखते समय अपनी बाइंर् आंख का अधिक उपयोग किया । इसके साथ ही उन्होंने फर्श को कुरेदने और सूंघने जैसे व्यवहार भी प्रदर्शित किए जो तनाव को दर्शाते हैं । इसके विपरीत, जब उनको दिखाया गया मॉडल मुस्करा रहा था तो वास्तविक व्यक्ति के सामने आने पर उन्होंने दाइंर् आंख का अधिक इस्तेमाल किया । इससे पता चलता है कि घोड़ों को याद रहा कि पहली मुलाकात में उस व्यक्ति का व्यवहार कैसा था। 
वैसे पहले भी घोड़ों की अद्भूत समझदारी के बारे में काफी चर्चा हुई है । बीसवीं सदी की शुरुआत में कलेवर हैंस नाम का एक घोड़ा अपने पैरों की टाप से गणितीय समस्याओं का हल बताया करता था । बाद में पता चला था कि घोड़े को उसका प्रशिक्षक कुछ सुराग देता था कि उसे क्या करना है । वर्तमान प्रयोग में इस तरह की कोई चालबाजी नहीं थी ।
कई अन्य जानवरों, जैसे भेड़ और मछली में मानव चेहरों को याद रखने की क्षमता पाई गई है। जंगली कौवा वर्षों तक उन लोगों का चेहरा याद रखते हैं जिन्होंने उसके साथ बुरा व्यवहार व्यवहार किया हो, और यहां तक वह अन्य कौवोंको भी यह बात बता देता है।
इस प्रयोग से खास बात यह पता चली है कि घोड़े केवल तस्वीरों में लोगों की अभिव्यक्ति पर आधार पर राय बना सकते हैं । प्रूप्स के अनुसार यह कुछ ऐसा है जिसे पहले जानवरों में नहीं देखा गया है।
पृथ्वी के भूगर्भीय इतिहास में नया युग 
अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने हाल ही में घोषणा की है कि पृथ्वी के वर्तमान दौर को एक विशिष्ट काल के रूप में जाना जाएगा । यह होलोसीन युग का एक हिस्सा है जिसे नाम दिया गया है मेघालयन । भूगर्भ संघ के मुताबिक हम पिछले ४२०० वर्षों से जिस काल में जी रहे हैं वही मेघायलन है।
भूगर्भ वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के लगभग ४.६ अरब वर्ष के अस्तित्व को कई कल्पों, युगों, कालों, अवधियों वगैरह में बांटा है। इनमें होलोसीन एक युग है जो लगभग ११,७०० वर्ष पहले शुरू हुआ था । अब भूगर्भ वैज्ञानिक मान रहे हैं कि पिछले ४,२०० वर्षों को एक विशिष्ट नाम से पुकारा जाना चाहिए - भारत के मेघालय प्रांत से बना नाम मेघालयन ।
   दरअसल, भूगर्भीय समय विभाजन भूगर्भ में तलछटों की परतों, तलछट के प्रकार, उनमें पाए गए जीवाश्म तथा तत्वों केसमस्थानिकों की 
उपस्थिति के आधार पर किया जाता है। समस्थानिकों की विशेषता है कि वे समय का अच्छा रिकॉर्ड प्रस्तुत करते हैं । इनके अलावा उस अवधि में घटित भौतिक व रासायनिक घटनाओं को भी ध्यान में रखा जाता है ।
अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने बताया है कि दुनिया के कई क्षेत्रों में आखरी हिम युग के  बाद कृषि आधारित समाजों का विकास हुआ था। इसके बाद लगभग २०० वर्षों की एक जलवायु-सम्बंधी घटना ने इन खेतिहर समाजों को तहस-नहस कर दिया था। इन २०० वर्षों के दौरान मिस्त्र, यूनान, सीरिया, फिलीस्तीन, मेसोपोटेमिया, सिंधु घाटी और यांगत्से नदी घाटी में लोगों का आव्रजन हुआ और फिर से सभ्यताएं विकसित हुइंर्। यह घटना एक विनाशकारी सूखा था और संभवत: समुद्रों तथा वायुमंडलीय धाराओं में बदलाव की वजह से हुई थी ।
इस अवधि के भौतिक, भूगर्भीय प्रमाण सातों महाद्वीपों पर पाए गए हैं । इनमें मेघायल में स्थित मॉमलुह गुफा (चेरापूंजी) भी शामिल है । भूगर्भ वैज्ञानिकों ने दुनिया भर के कई स्थानों से तलछट एकत्रित करके विश्लेषण किया। मॉमलुह गुफा १२९० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और यह भारत की १० सबसे लंबी व गहरी गुफाओं में से है (गुफा की लंबाई करीब ४५०० मीटर है)। इस गुफा से प्राप्त् तलछटों में स्टेलेग्माइट चट्टानें मिली है ं। स्टेलेग्माइट किसी गुफा के फर्श पर बनी एक शंक्वक्कार चट्टान होती है जो टपकते पानी में उपस्थित कैल्शियम लवणों के अवक्षेपण के कारण बनती है। संघ के वैज्ञानिकों का मत है कि इस गुफा में जो परिस्थितियां हैं, वे दो युगों के बीच संक्रमण के रासायनिक चिंहा को संरक्षित रखने के के हिसाब से अनुकूल है ं। 
गहन अध्ययन के बाद विशेषज्ञों के एक आयोग ने यह प्रस्ताव दिया कि होलोसीन युग को तीन अवधियों में बांटा जाना चाहिए । पहली, ग्रीलैण्डियन अवधि जो ११,७०० वर्ष पहले आरंभ हुई थी। दूसरी, नॉर्थग्रिपियन अवधि जो ८,३०० वर्ष पूर्व शुरू  हुई थी और अंतिम मेघालयन अवधि जो पिछले ४,२०० वर्षों से जारी है। अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है ।
मेघालयन अवधि इस मायने में अनोखी है कि यहां भूगर्भीय काल और एक सांस्कृतिक संक्रमण के बीच सीधा सम्बंध नजर आता है। 
समुद्र तल में बिछे इंटरनेट केबल से भूकंप का अंदाजा
पृथ्वी की सतह का लगभग ७० प्रतिशत भाग पानी से ढंका हुआ है, फिर भी भूकंप पता करने वाले लगभग सभी यंत्र जमीन पर लगे हैं । सिर्फ कुछ बैटरी चालित डिटेक्टर समुद्र तल पर मौजूद हैं लेकिन भूकंपविदों के पास समुद्र तल से उठने वाले भूकंप की निगरानी करने का कोई तरीका नहीं है। और इस तरह के भूकंप के कारण कभी-कभी सुनामी आती है ं । 
हाल ही में साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक तकनीक के अनुसार समुद्र तल में दस लाख किलोमीटर में फैले फाइबर ऑप्टिक केबल की मदद से भूकंप की जानकारी प्राप्त् की जा सकती है। इन केबल्स में प्रकाश किरणों के माध्यम से संकेत भेजे जाते हैं । इन प्रकाशीय संकेतों में होने वाले थोड़े बदलावों को देखकर वैज्ञानिक भूकंप का पता लगा सकते हैं।
इस तकनीक से भूकंप पता करने के लिए केबल के प्रत्येक छोर पर लेजर की जरूरत होगी और केबल की थोड़ी सी बैंडविड्थका उपयोग किया जाएगा । टेडिंगटन, यूके में राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला के  मौसम वैज्ञानिक गिउसेप मारा के अनुसार इस तकनीक की खोज एक आकस्मिक घटना का परिणाम है । टेडिंगटन से रीडिंग नामक स्थानों के बीच जमीन के नीचे दबे ७९ किलोमीटर लंबे केबल के एक जोड़ पर परीक्षण करते हुए उन्हें पता चला कि केबल के नजदीक का हल्का-सा कंपन्न , यहां तक कि ऊपर चल रहे ट्रेफिक का शोर, भी लेजर को थोड़ा विचलित करता है । इसके चलते प्रकाश को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने के लिए अलग-अलग फासला तय करना पड़ता है ।       

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

प्रदेश चर्चा 
हिमाचल : पर्यावरण मित्र फैसलों का स्वागत
कुलभूषण उपमन्यु

हिमाचल सरकार के थर्मो- कोल की पत्तलों-प्यालियों पर पाबंदी और चीड़ के वनों से चीड़ की पत्तियां कुछ उत्पाद बनाने के लिए उठाने की इजाजत देने के फैसलों का स्वागत किया जाना चाहिए । 
ये फैसले काफी पहले हो जाने चाहिए थे । लेकिन इस सरकार ने इस दिशा में पहल की है। थर्मोकोल की पत्तलोंपर पाबंदी से टौर के पतों से बनने वाली पर्यावरण मित्र पत्तलों को प्रोत्साहन मिलेगा और समाज के सबसे गरीब वर्ग को रोजगार मिलेगा । थोड़ा आँखें खोल कर देखें तो पता चल जाएगा कि सबसे गरीब परिवारों को इससे कितना आर्थिक सहारा  मिलता  है। 
अंग्रेजों के शासन काल में वन प्रबंध का जो व्यापारीकरण हुआ, उसके अंतर्गत स्थानीय समुदायों के लिए लाभदायक वनस्पति प्रजातियों को सुधार वानिकी के नाम पर योजनाबद्ध तरीके से नष्ट करके उनके स्थान पर व्यापारिक प्रजातियों को फैलाया गया । टौर, जो एक बहुउद्देशीय बेल (क्रीपर) प्रजाति है, इसी सुधार-वानिकी का शिकार हो गई, जिसे परजीवी बेकार बेल घोषित करके नष्ट किया गया और इसके स्थान पर चीड़ के वन लगाए गए । 
यह क्रम १९८० के दशक तक चलता रहा, जब हिमाचलप्रदेश में चिपको आंदोलन की मांग पर मार्च १९८४ में सुधार वानिकी की इस प्रक्रिया को रोकने के आदेश जारी हुए और बान एवं बुरांस को संरक्षित प्रजाति घोषित करने के साथ चीड़  और सफेदा जैसे पर्यावरण के लिए हानिकारक वृक्षों के रोपण पर प्रतिबन्ध लगाने के आदेश जारी       हुए। 
अब इस धारणा को जन- समर्थन मिल चुका है और वन विभाग भी इस बदली हुई सोच को आत्मसात कर चुका है। अत: अब पिछली गलती की भरपाई करने के लिए टौर      रोपण को प्रोत्साहित करना  चाहिए । एकल प्रजाति की व्यापारिक प्रजातियों  के वन रोपण के स्थान पर अब मिश्रित प्रजातियों के बहुउद्देशीय वन पैदा करने की समझ विकसित हो रही है। 
फल, चारा, ईंधन, खाद, रेशा, और दवाई देने वाली वृक्ष प्रजातियों के रोपण से ही पर्यावरण संतुलन बना रह सकता है। ऐसे वन पशु-पक्षियों को भोजन, कृषि के लिए खाद, जल एवं मिट्टी संरक्षण और घातक गैसों के प्रदूषण का कार्य बेहतर तरीके से कर सकते हैं ।  ऐसे वनों से, वृक्ष काटे बिना ही कुछ आय भी समुदायों को मिलती रहती है।
चीड़ की पत्तियां वनों से उठाकर कुछ उत्पाद बनाने की इजाजत देना भी एक बड़ी गलती में सुधार साबित होगा। अत्यधिक चीड़ रोपण से वनस्पति की विविधता और जैव विविधता का हास हुआ है। पशु चारे का अकाल बढ़ा है, जिससे पर्वतीय क्षेत्रों की पूरी कृषि व्यवस्था गडबड़ा गई है। 
चीड़ के वनों में आग बहुत लगती है जिससे अन्य प्रजाति के वृक्ष जल जाते हैंकिन्तु चीड़ की छाल खास तरह की दोहरी परत लिए होती है जिससे इसकी बाहरी छाल ही जलती है, अंदर की रसवाहिनी छाल सुरक्षित रहती है। 
इसी कारण चीड़ का जंगल आग लगने के बाद भी पनपता रहता है। वन विज्ञान के पुरोधा चौंपियन महोदय ने ठ ीक ही लिखा है कि चीड़ के स्वस्थ वन पनपाने की, आप उनमें लगातार नियंत्रित तरीके से आग लगाते रहने के बिना कल्पना भी नहीं कर सकते । इसलिए चीड़ के वनों में नियंत्रित आग लगाने का कार्य स्वयं वन विभाग भी करता रहा है। आज वनों से हमारी मुख्य मांग व्यापार के लिए इमारती लकड़ी नहीं रही है बल्कि पर्यावरण संतुलन और स्थानीय समुदायों की दिनोंदिन जरूरतों को पूरा करना हो गई है,जिसका स्पष्ट विवरण वर्तमान वन नीति में दिखाई देता है। 
जैसे-जैसे औद्योगीकरण बढ़ेगा हमें ज्यादा से ज्यादा वृक्षों की जरूरत अशुद्ध वायु के प्रदूषण के लिए और शुद्ध वायु के निर्माण के लिए होगी । इसलिए ऐसे वृक्षों के रोपण को महत्व देना पड़ेगा जो बिना काटे ही आजीविका में सहयोग कर सकें । जल संरक्षण में लाभकारी बान, बुरांस, सिस्यारू, जंगली गुलाब, अखरैन, (रूबस) आदि प्रजातियों को भी विशेष महत्व देना होगा। 
जल की मांग तो बढ़ने ही वाली है। सन्निकट जल संकट से निपटने की तैयारी का यह एक प्रमुख भाग होना चाहिए । यह बात योजना निर्माताओं को तो समझनी ही होगी बल्कि स्थानीय समुदायों को भी समझनी होगी क्योंकि इसके बिना उनकी ही सबसे ज्यादा हानि होने वाली है। सफल वृक्षारोपण के लिए उनका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सहयोग बहुत ही जरूरी है।
   अब तीसरा मसला जिस ओर हिमाचल सरकार को ध्यान देना चाहिए वह ठोस प्लास्टिक कचरे से मुक्ति दिलाना है। प्रदेश के बहुत से खड्डों की हालत कचरे से लबालब है। कुएं, रास्ते, प्लास्टिक कचरे से पटते जा रहे हैं ।  इस समस्या के समाधान के लिए सड़-गल कर समाप्त हो जाने वाला बायो डिग्रेडेबल प्लास्टिक बनाने की ओर कदम उठाने चाहिए । 
जिससे तमाम चीजें, जो आजकल प्लास्टिक पैकिंग में आ रही हैं,उन्हें वैकल्पिक पैकिंग सामग्री उपलब्ध करवाई जा सके । इस तरह के प्लास्टिक का निर्माण करने वाले उद्योगों को सुविधा दी जाए । प्लास्टिक रीसाइकलिंग करने की भी व्यवस्था  हो। 
जो प्लास्टिक बच जाए उसे सडक निर्माण और बिजली बनाने की आधुनिक तकनीक से बिजली संयंत्रों में इंर्धन के रूप में प्रयोग कर लिया जाए । स्वीडन इस मामले में तकनीक का धनी है । वह तो आधे यूरोप के कचरे को आयात करके उससे बिजली बना कर बेचता है और अपने देश के पर्यावरण को भी कोई हानि पहंुचने नहीं देता है। ऐसी तकनीक से बिजली बना कर हम प्लास्टिक कचरे से मुक्ति के साथ-साथ नया रोजगार भी खड़ा कर सकते है । 
हिमाचल इस दिशा में पहल करके नेतृत्व प्रदान करे तो यह देश के दूसरे हिस्सों के लिए भी एक मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकता है। चीड़ की पत्तियों केबिकेट बना कर वे भी इस कचरे में मिलाकर इंर्धन के रूप में प्रयोग किए जा सकते हैं ।  प्रदेश के सीमेंट प्लांट भी कुछ प्लास्टिक-कचरा कोयले में मिलाकर प्रयोग करें तो बिना उत्सर्जन बढ़ाए कचरे की समस्या पर नियंत्रण पाने में मदद मिल सकती है।