शनिवार, 28 अप्रैल 2007

आवरण

इस अंक में

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पर्यावरण डाइजेस्ट के इस अंक में ग्लोबल वार्मिंग पर विशेष सामग्री दी गयी है।

पहले लेख बढ़ता तापमान डूबते द्वीप में लेखक पत्रकार प्रमोद भार्गव ने लिखा है जलवायु पर विनाशकारी असर डालने वाली यह ग्लोबल वार्मिंग आने वाले समय में भारत के लिए खाद्यान्न संकट भी उत्पन्न कर सकती है। दूसरे लेख जलवायु परिवर्तन का जिम्मेदार कौन हैं ? में कमलेश कुमार दीवान ने जलवायु परिवर्तन के जिम्मेदार कारणों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। तीसरे लेख ग्लोबल वार्मिंग : मिथ्या या सच्चाई में दीपक शिंदे का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग को इतना ब़़ढा-च़़ढा कर प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। इसी क्रम में प्रवीण कुमार ने अपने लेख जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां में कहा है कि ग्लोबल वार्मिंग अब केवल बौद्धिक विलास का विषय नहीं रहा गया है। सुश्री रेशमा भारती के लेख ग्लोबल वार्मिंग की गिरफ्त में समुद्र में कहा है कि उफनता हुआ समुद्र धरती पर बसे तमाम प्राणियों के अस्तित्व के लिए भी खतरा उपस्थित कर रहा है।

इसके साथ ही डॉ. खुशालसिंह पुरोहित के लेख वृक्ष : जीवंत परंपरा के संवाहक में कहा गया है कि वृक्षों की पूजा दरअसल एक मायने में अपने पूर्वजों को आदर प्रकट करने का माध्यम है। ऊबे होएरिंग के लेख भारत में पवन ऊर्जा एक दुधारी तलवार में कहा गया है कि भारत को पवन तथा ऊर्जा के अन्य अक्षय स्त्रोतों से अधिक बिजली बनाने का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। खासखबर में इस बार हमारे विशेष संवाददाता की रिपोर्ट मौत के मुहाने पर खड़ी है गंगा में गंगा में बढ़ते प्रदूषण की विस्तार से चर्चा की गई है।

पत्रिका के बारे में आपकी राय से अवगत करायें।

-कुमार सिद्धार्थ

भारत में विज्ञान के लिए शर्मनाक क्षण

भारतीय विज्ञान में कुछ ऐसा घटा है जो शर्मनाक और दुखदायी है। हाल ही में भारत सरकार द्वारा पेटेंट कानूनों पर विचार के लिए गठित मशेलकर समिति को अपनी रिपोर्ट इसलिए वापिस लेने की पेशकश करनी पड़ी कि उसके मुख्य निष्कर्ष वाले हिस्से में एक अन्य रिपोर्ट से नकल पाई गई थी। इस घटनाक्रम के कई आयाम हैं जो सोचने को मजबूर कर देते हैं।

मशेलकर समिति को विचार इस बात पर करना था कि हाल ही में भारतीय पेटेंट कानूनों में जो संशोधन किए गए हैं वे विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों का उल्लंघन तो नहीं करतेहै।

दरअसल भारत सरकार ने तय किया था कि विश्व व्यापार संगठन के पेटेंट संबंधी नियमों की सही व्याख्या यह होगी कि इनके तहत उन्हीं दवाइयों को पेटेंट दिया जाए जो सचमुच नवीन हों; किसी पुरानी दवाई का थोड़ा-सा परिवर्तित रूप पेटेंट के दायरे में नहीं आएगी। आम तौर पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां करती यह हैं कि जब किसी दवाई का पेटेंट खत्म होने वाला होता है, तोे उसमें कोई छोटा-मोटा परिवर्तन कर देती हैं जिससे पेटेंट अवधि एक बार फिर आगे खिसक जाए।

मशेलकर समिति को विचार करना था कि क्या भारत का उपरोक्त कानून विश्व व्यापार संगठन की शर्तो के खिलाफ जाता है। हाल ही में समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी मगर एक अखबार ने यह खोज निकाला कि इस रिपोर्ट के काफी सारे हिस्से एक अन्य पर्चे से जब से तस उठाए गए है। दूसरी और ़़ज्यादा महत्वपूर्ण, बात यह थी कि वह पर्चा इंटरपैट नामक जिस संस्था ने तैयार किया था उसे दवा कम्पनियों के एक संघ से पैसा मिलता है और नोवार्टिस भी उस संघ की एक सदस्य कम्पनी है। ज़ाहिर है समिति के निष्कर्ष उस पर्चे से मेल खाते हैं और उस पर्चे के निष्कर्ष कम्पनियों के हितों से।

दुख की बात यह है कि डॉ. मशेलकर भारत में शोध की अग्रणी संस्था सी.एस.आई.आर. के अध्यक्ष रह चुके हैं। उनका कहना है कि उन्हें पता नहीं था कि रिपोर्ट के कुछ हिस्से कहीं से चोरी से लिए गए हैं। अब उन्होंने रिपोर्ट वापिस लेकर सरकार से तीन माह का समय मांगा है ताकि वे अपनी रिपोर्ट में संशोधन करके फिर से सौंप सकें। सरकार ने अभी हां या ना कुछ नहीं कहा है। ताज़ा समाचार यह है कि डॉ. मलेशकर ने समिति की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है। मगर यह कितनी आश्चर्य कि बात है कि भारत के एक जाने-माने वैज्ञानिक पर इस तरह के आरोप लगेंयह स्थिति शर्मनाकहै।

पत्र, एक पाठक का

पत्र, एक पाठक का

प्लास्टिक थैलियों की तकलीफ

महोदय,

जबसे भारत में प्लास्टिक की थैलियाँ बनने लगी है, उसके कुछ साल बाद ही उनके उपयोग से होेने वाले खतरे समझ में आने लगे थे। तब से उन थैलियों के निर्माण, उपयोग पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई है। फलस्वरुप सब समस्याएँ यथावत मुँह बाएँ खड़ी हैं। सरकार को चाहिए कि कुछ ऐसे नियम या कानून बनाएँ जिससे इन प्लास्टिक की थैलियों के निर्माण, बिक्री और उपयोग को कम किया जा सके और धीरे-धीरे पूर्ण रुप से बंद किया जा सके। कुछ सुझाव इस प्रकार हैं -

१. प्लास्टिक की थैलियाँ निर्माण करने वाली कंपनियों का निर्माण कोटा निर्धारित किया जाए। उससे अधिक निर्माण का दोषी पाया जाने पर उस कंपनी पर निर्माण की पाबंदी लगाई जाए और भारी जुर्माना भी वसूला जाए।

२. प्लास्टिक का गेज (मोटाई) निर्धारित किया जाए,उससे पतली थैलियाँ बनाने पर भी भारी जुर्माना और निर्माण पर पाबंदी लगाई जाए।

३. उन थैलियों का उपयोग वजन में हल्की वस्तुआें को लाने-ले जाने के लिए ही किया जाने हेतु नियम बनाए जाएँ। जैसे सब्जी, फल या वस्त्र आदि अन्य भारी सामान लाने-ले जाने के लिए प्लास्टिक की थैलियों का उपयोग वर्जित किया जाए।

४. भारी सामान बेचने वाले व्यवसायियों के यहाँ प्लास्टिक की थैलियाँ पाई जाने पर उन पर भारी जुर्माना लगाते हुए उनके व्यवसाय को कुछ समय तक बंद रखने का दंड दिये जाने का प्रावधान किया जाये।

५. खरीददार उपभोक्ताआें को भी यह समझाईश दी जाए कि वे यथासंभव प्लास्टिक की थैलियों का प्रयोग न करें।

६. जिसके घर के सामने, दुकान के सामने या अन्य स्थान के सामने या आसपास उपयोग में लाई गई या फेंकी गई थैलियाँ पड़ी हुई दिखे उस पर भी जुर्माना लगाया जाए।

७. कचरा पेटियों में पाई गई प्लास्टिक की थैलियों को यथासंभव अलग किया जाकर नष्ट करने की व्यवस्था की जाए। यदि ऐसे उपाय किए जाएँ तो कुछ हद तक प्लास्टिक की थैलियों से हो रही त्रासदी को रोका जा सकता है।

मनोहर धरफले,

१७३, साकेत नगर, इंदौर (म.प्र.)

बढ़ता तापमान, डूबते द्वीप

ग्लोबल वार्मिंग पर विशेष

बढ़ता तापमान, डूबते द्वीप

प्रमोद भार्गव

बढ़ते तापमान ने अब तीव्रता से असर दिखाना शुरु कर दिया है। जिसके चलते समुद्र ने भारत के दो द्वीपों को लील लिया है।

हिमालय के प्रमुख हिमनद २१ प्रतिशत से भी ज्यादा सिकुड़ गए हैं। यहां तक कि अब पक्षियों ने भी भूमण्डल में बढ़ते तापमान के खतरों को भांप कर संकेत देना शुरु कर दिए हैं। इधर इस साल मौसम में आए बदलाव ने भी बढ़ते तापमान के आसन्न संकट के संकेत दिए हैं। यदि मनुष्य अभी भी पर्यावरण के प्रति जागरुक न हुआ तो प्रलयंकारी खतरों से समूची मानव जाति को जूझना ही पड़ेगा।

भारत में ही नहीं पूरे भूमण्डल में तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है। जिसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। भारत के सुंदरवन डेल्टा के करीब सौ द्वीपों में से दो द्वीपों को समुद्र ने हाल ही में निगल लिया हैऔर करीब एक दर्जन द्वीपों पर डूबने का खतरा मंडरा रहा है। इन द्वीपों पर करीब दस हजार आदिवासियों की आबादी है। यदि ये द्वीप डूबते हैं तो इस आबादी को भी बचाना असंभव हो जाएगा। जादवपुर विश्वविद्यायल में स्कूल ऑफ ओशिएनोग्राफिक स्टडीज़ के निदेशक सुगत हाजरा ने स्पष्ट किया है कि लौह छाड़ा समेत दो द्वीप समुद्र में डूब चुके हैं। ये द्वीप अब उपग्रह द्वारा लिए गए चित्रों में भी नज़र नहीं आ रहे हैं। हाजरा इसका कारण दुनिया में बढ़ते तापमान को बताते हैं।

दूसरी तरफ भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के स्पेस एप्लीकेशन सेन्टर (एस.ए.सी.) के हिमनद विशेषज्ञ अनिल कुलकर्णी की टीम ने हिमालय के हिमनदों का ताज़ा सर्वे करने के बाद खुलासा किया है कि ये २१ फीसदी से भी ़़ज्यादा सिकुड़ गए हैं। इस टीम ने ४६६ से भी ़़ज्यादा हिमनदों का सर्वेक्षण करने के बाद उक्त नतीजे निकाले हैं।

जलवायु पर विनाशकारी असर डालने वाली यह ग्लोबल वार्मिंग (धरती गर्माना) आने वाले समय में भारत के लिए खाद्यान्न संकट भी उत्पन्न कर सकती है। तापमान वृद्धि से समुद्र तल तो ऊंचा उठेगा ही, तूफान की प्रहार क्षमता और गति भी २० प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। इस तरह के तूफान दक्षिण भारतीय तटों के लिए विनाशकारी साबित होंगे।

ग्लोबल वार्मिंग का असर भारत के उत्तर पश्चिम क्षेत्र में देखने को मिलने लगा हैं। पिछले कुछ सालों से मानसून इस क्षेत्र में काफी नकारात्मक संकेत दिखा रहा है। केवल भारत ही नहीं इस तरह के संकेत नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका व बांग्लादेश में भी नज़र आ रहे हैं।

देश के पश्चिमी तट, जिनमें उत्तरी आंध्रप्रदेश का कुछ हिस्सा आता हैं, तथा उत्तर पश्चिम में मानसून की बारिश बढ़ रही है और पूर्वी मध्यप्रदेश, उड़ीसा व उत्तरपूर्वी भारत में यह कम होती जा रही है। पूरे देश में मानसून की वर्षा का संतुलन बिगड़ सकता है। ग्लोबल वार्मिंग के भारत पर असर की एक खास बात यह रहेगी कि तापमान सर्दियों के मौसम में ़़ज्यादा बढ़ेगा। लिहाज़ा सर्दियां उतनी सर्द नहीं रहेंगी जबकि गर्मियों में मानसून के मौसम में ़़ज्यादा बदलाव नहीं आएगा। मौसम छोटे होते जाएंगे जिसका सीधा असर वनस्पतियों पर पड़ेगा कम समय में होने वाली सब्जियों को तो पकने का भी पूरा समय नहीं मिल सकेगा।

विभिन्न अध्ययनों ने खुलासा किया है कि सन् २०५० तक भारत का धरातलीय तापमान ३ डिग्री सेल्यिसम से ज्यादा बढ़ चुका होगा। सर्दियों के दौरान यह उत्तरी व मध्य भारत में ३ डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा तो दक्षिण भारत मेें केवल २ डिग्री तक। इससे हिमालय के शिखरों से बर्फ पिघलने की रफ्तार बढ़ेगी और वहां से निकलने वाली नदियों में जल प्रवाह तेज़ हो जाएगा।

इस सब का मानसून पर यह असर पड़ेगा कि मध्य भारत में सर्दियों के दौरान वर्षा में १० से २० फीसदी की कमी आ जाएगी और उत्तर-पश्चिमी भारत में ३० फीसदी तक। अध्ययन बताते हैं कि २१वीं सदी के अंत तक भारत में वर्षा ७ से १० फीसदी बढ़ेगी लेकिन सर्दियों में कम हो जाएगी। होगा यह कि मानसून के दौरान तो जमकर वर्षा होगी लेकिन बाकी माह सूखे निकल जाएंगे। पानी कुछ ही दिनों में इतना बरसेगा कि बाढ़ का खतरा आम हो जाएगा और दिसम्बर, जनवरी व फरवरी में वर्षा बेहद कम होगी, जैसा कि हम बीते मानसून में देख चुके हैं। हिमालय की करीब ५० जीवनदायिनी हिमनद झीलें अगले पांच वर्षो में अपने किनारे तोड़कर मैदानी इलाकों को जलमग्न कर सकती हैं, जिससे करोड़ो लोगो का जीवन खतरे में पड़ सकता हैं।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण (यूएनडीपी) के वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि बढ़ते तापमान के कारण हिमनदों के पिघलने से नेपाल की २० और भूटान की २४ हिम झीलों का पानी उफान पर है। अगले पांच वर्षो के दौरान इन ४४ हिम झीलों से निकला पानी नेपाल और भूटान के साथ-साथ भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्रों अैर अन्य पड़ोसी देशों में संकट पैदा कर सकता है।

अनिल कुलकर्णी और उनकी टीम ने उपग्रह चित्रों और ज़मीनी पड़ताल के ज़रिए हिमाचल प्रदेश के ४६६ हिमनदों के बारे में चौंकाने वाले नतीजे प्रस्तुत किए हैं। १९६२ के बाद से एक वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में आने वाले १६२ हिमनदों का आकार ३८ फीसदी कम हो गया है। बड़े हिमनदतो तेज़ी से खंडित हो रहे हैं। वे लगभग १२ प्रतिशत छोटे हो गए हैं। सर्वेक्षणों से पता चला है कि हिमाचल प्रदेश में हिमनदों का कुल क्षेत्रफल २०७७ वर्ग कि.मी. से घटकर १६२८ वर्ग कि.मी. रह गया है। बीते चार दशकों में हिमनदों का आकार २१ फीसदी घट गया हैऔर अध्ययनों से पता चला है कि हिमालय के ़़ज्यादातर हिमनद अगले चार दशकों में किसी दुर्लभ प्राणी की तरह लुप्त हो जाएंगे। यदि ये हिमनद लुप्त होते हैं तो भारत की कई पनबिजली परियोजनाएं संकट से घिर जाएंगी, फसलों को पानी का जबर्दस्त संकट झेलना होगा और मौसम में स्थायी परिवर्तन आ जाएगा। ये परिवर्तन मानव एवं पृथ्वी पर जीवन के लिए अत्यंत खतरनाक हैं।

जलवायु में निंरतर हो रहे परिवर्तनों के चलते दुनिया भर में पक्षियों की ७२ फीसदी प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। विश्व प्रकृति निधि की रिपोर्ट के अनुसार इन्हें बचाने के लिए अभी समय है। कीन्या में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में जारी रिपोर्ट के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग जनित जलवायु परिवर्तनों से सबसे ़़ज्यादा खतरा कीटभक्षी प्रवासी पक्षियों हनीक्रीपर्स और ठंडे पानी में रहने वाले पेंग्विन के लिए है। पक्षियों ने संकेत देना शुरु कर दिए हैं कि ग्लोबल वार्मिंग ने दुनिया भर के जीवों के प्राकृत वासों में सेंध लगा ली हैं।

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जलवायु परिवर्तन का जिम्मेवार कौन हैं ?

ग्लोबल वार्मिंग पर विशेष

जलवायु परिवर्तन का जिम्मेवार कौन हैं ?

कमलेश कुमार दीवान

आज के विज्ञान और वैज्ञानिक चिंतन की दिशाएं मानव प्रवृत्तियों से हो रहे विनाश की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं।

पृथ्वी की जलवायु में हो रहे परिवर्तनों का अध्ययन करने हेतु वैज्ञानिक प्रयास चल रहे हैं। विश्वभर में हो रहे जलवायु सम्मेलनों में अपनी चिंताआें को प्रकट करते वैज्ञानिक मानवीय गतिविधियों को ही ग्लोबल वार्मिग के लिए जिम्मेवार मान रहे हैं। सवाल यह है कि एक समय हमारी पृथ्वी हिम के आवरण में ही थी। मानवीय जीवन की गैर मौजूदगी के बाद भी बर्फ पिघली, जलवायु परिवर्तन हुए, अन्य अनेक जीव-जंतुआें के साथ सृष्टि में मानव जीवन का सृजन हुआ और बहुआयामी जैव विविधताएं पनपी और विकसित हुइंर्। तो आज मात्र मानव को ही कठघरे में क्यों खड़ा किया जा रहा है ? जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित आई.पी.सी.सी. पेनल की रिपोर्ट, बर्फ पिघलने से लेकर समुद्री जलस्तर बढ़ने, तापमान बढ़ने एवं तूफानों तक सभी के लिए मानवीय गतिविधियों को ही प्रमुख प्रमुख रुप से जिम्मेवार बता रही है। तो क्या यह सब पर्यावरण से संबंधित राजनीति एवं व्यापार का हिस्सा है ? या फिर वास्तव में ये सामान्य सी प्राकृतिक प्रक्रियाएं हैं ?

पेरिस में आयोजित जलवायु से संबंधित सम्मेलन कोई नई बात सामने नहीं रख पाया। इससे भी कमोवेश वे ही निष्कर्ष निकाले गये जो कि पूर्व में संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट में थे।

लगता है कि विश्व के तापमान में बढ़ोत्तरी और कमी के एकमात्र कारण मानवीय गतिविधियां ही नहीं हो सकती ? यह एक प्राकृतिक चक्र है और वैज्ञानिकों द्वारा अनुमानित की जा रही तापमान बढ़ने की दर संभवत: सामान्य ही हो। हमें याद रखना चाहिए कि सूर्य की सतह और केन्द्रीय भाग में हो रहे विस्फोट भी, सूर्य प्रकाश की विकिरण की दर में प्रति वर्ग सेंटीमीटर प्रतिमिनिट की वृद्धि कर सकते हैं। सिंचाई की आधुनिक पद्धतियों से व्यापक पैमाने पर जमीन से सीधे हो रहे वाष्पीकरण की मात्रा वायुमंडल में विद्यमान होते रहने के कारण भी निचले स्तर में उष्मा का मान अधिक आ रहा है । वायुमंडल की निचली सतहों के तापमान में बढ़ोतरी का एक कारण सीमंेट कांक्रीट के आधुनिक निर्माण भी हो सकते हैं । अर्थात् केवल ग्रीन हाउस गैसों का अधिक उत्सर्जन पृथ्वी के तापमान में बढ़ोत्तरी नहीं कर सकता। इसमें वायुमंडलीय तत्वों को प्रभावित करने वाला समुच्च भी सम्मिलित है।

प्रश्न यह है कि क्या वैज्ञानिक अध्ययनों से जल्दी-जल्दी निकाले जा रहे निष्कर्षो से जिस तरह के भय सृजित किए जा रहे हैं वास्तव में वे कितने स्थाई और विश्व की विकास प्रक्रिया को लगाम लगाने वाले साबित हो सकते हैं, यह तो समय आने पर ही ज्ञात हो पाएगा। किंतु जो अनुमान लगाए जा रहे हैं या जो आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं वे सभी पूर्ण प्रमाणिक और संदेह से परे हों, ऐसा भी नहीं है। विज्ञान तर्क प्रमाणिक और संदेह से परे हों, ऐसा भी नहीं है। विज्ञान में तर्क और तथ्य, विचार और प्रति-विचार, विश्वास और संदेह सभी का अस्तित्व है। तब हमें सोचना चाहिए कि क्या वर्तमान में जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रसारित किए जा रहे सभी तथ्यों को हम सब उसके संपूर्ण आयामों से देख सकते हैं ?

आज से हजारों- लाखों वर्ष पूर्व मनुष्य के अविर्भाव की संकल्पनाएं वैज्ञानिकों द्वारा दी गई हैं। पृथ्वी पर हिमयुग के निशान अब भी मौजूद हैं। अर्थात् हमारी धरती का एक बड़ा भाग बर्फ की मोटी चादरों में ढंका हुआ था। पर वह परत मानव जीवन कल कारखाने या मानवीय गतिविधियों के बगैर भी पिघल गई। जमीन निकली, नवीन जीव-जंतुआें की सृष्टि हुई। महाद्वीप और महासागरों ने आकार पाए। पृथ्वी पर आने वाले सौर्यिक विकिरण की दर में परिवर्तन होते रहे हैं और उसका कारण कभी सौर कलंको की घटती बढ़ती संख्या रही है या कहीं पर ज्वालामुखियों के बड़े विस्फोट या अन्य प्राकृतिक कारण हो सकते हैं, जिसमें धूमकेतु और उलका पिंडों के उत्पात भी आते हैं।

यदि हम प्रचारित किए जा रहे वैज्ञानिक तथ्यों से अलहदा जलवायु तत्वों का सूक्ष्म अवलोकन करें तब हमें यही लगता है कि पृथ्वी के वायुमंडल में गैसों के उत्सर्जन को समायोजित करने की क्षमताएं मौजूद हैं और समूची विश्व की आबादी मिलकर जितनी मात्रा में वायुमंडल को तथाकथित रुप से खराब कर रही है उससे कहीं अधिक मात्रा में एक ज्वालामुखी का विस्फोट गैसों को वायुमंडल में प्रसारित कर सकता है। आशय यह है कि यह प्रकार का भय फैलाने का उपक्रम भी हो सकता है जिसमें विकसित देशों द्वारा प्रायोजित रणनीतियां शामिल हों, जो व्यापारिक एकाधिकारवाद की प्रवृत्तियों से तीसरी दुनिया पर थोपी जा रही हैं।

विश्व के तापमान में बढ़ोत्तरी या कमी के लिए एक प्राकृतिक चक्र सदैव से अस्तित्व में है। तापमान बढ़ोत्तरी की यह अनुमानित दर तापमान बढ़ने की एक सामान्य दर भी हो सकती है। हां, स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव नकारें नहीं जा सकते हैं, पर यह देखना समीचीन होगा कि पूर्व वर्षो में विश्व में ज्ञात इतिहास का सर्वाधित ठण्डा मौसम यूरोप में रहा और राजस्थान के रेगिस्तानों या न्यूनतम वर्षा वाले क्षेत्रों में सर्वाधिक वर्षा हुई।

हमें यह भी देखना होगा कि मानसूनी हवाआें का विचलन क्या इराक में लाखों टन बारुद गिराए जाने से हुआ है या पोखरण में परमाणु विस्फोटों के परिणाम स्वरुप हुआ है अथवा इसकी पृष्ठभूमि में क्या कोई अन्य कारण भी मौजूद हैं। किंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि रेगिस्तानी भूमि पर वर्षा, बर्फ से ढंके क्षेत्रों पर भूमि का उभरना, उच्च अक्षांशों में अत्यधिक ठंड पड़ना, ध्रुवीय क्षेत्रों से हिम शिलाआें का टूटकर महासागरों में आना एक प्रकार का प्राकृतिक चक्र भी हो सकता है। जब हम इसे मात्र अभिशाप, विनाश या तबाही से जोड़कर देखते हैं तब हम प्रकृति की संरचनात्मक प्रक्रियाआें को सामान्यतया नजर अंदाज करते हैं।

हमें कुछ और पर्यवेक्षकों द्वारा किए जा रहे अन्वेषणों पर भी ध्यान देना चाहिए जैसे प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी मार्कोस रेस बताते हैं कि बहुत कड़ाके की ठंड ओजोन परत के लिए खतरा है। उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में २००४-०५ का मौसम स्टेटोस्फीयर में सबसे ठंडा रहा है। ओजोन संहारक रासायनिक क्रियाआें से उत्तरी ध्रुव की अपेक्षा दक्षिणी ध्रुव अंटार्कटिका के हालात अधिक खराब हैं। प्रश्न यही हे कि वहां मानव जीवन ओर उसके क्रिया कलापों की अधिकता नहींं हैंजहां ओजोन परत क्षीणता अधिक देखी जा रही है। अमेरिका के ओजोन परत विशेषज्ञ रास सालविच बताते हैं कि वातावरण में कार्बन डाईआक्साइड बढ़ने से वायुमंडल की ऊपरी परतें ठंडी होने लगती हैं, जिससे डरने की जरुरत नहीं हैं।

इसी प्रकार म.प्र. के ग्वालियर निवासियों ने नवम्बर माह में एक अद्भुत खगोलीय घटना का अवलोकन किया है। जिसमें उन्होंने सौर्यिक विकिरण के साथ सूर्य के धरातल पर विस्फोट होते हुए देखा। मतलब यही कि यह वायुमंडल मौसम के कई तत्वों का समुच्य है जिसकी दीर्घकालिक स्थितियां जलवायु का निर्धारण करती हैं। अतएव हमें जल,थल, वायु और आकाश के साथ पृथ्वी के आंतरिक भाग में हो रही गतिविधियों को भी समन्वित कर देखना चाहिए था। किंतु जलवायु परिवर्तन पर पेरिस में आयोजित अंतर सरकार पेनल (आईपीसीसी) ने विश्व की आबादी के सामने अनेक प्रकार के भय परोस दिए हैं। तापमान की बढ़ोत्तरी के लिए ९० प्रतिशत मानवीय गतिविधियों को जिम्मेवार बताकर विश्व के अनेक भू-भागों की सरकारों को कटघरे में खड़ाकर उन्हें चेतावनी दी गई है।

इस संबंध में निम्न बिंदु विचारणीय है -

१. तापमान बढ़ने से वायुमंडल के आयान कणों पर भी प्रभाव होता और वे फैलकर रेडियों तरंगों के प्रसारण में बाधा बनते, पर ऐसा क्यों नहीं हो रहा है ?

२. पृथ्वी पर बहुआयामी वायुमंडलीय विविधताएं हैं। भू-भाग के २० प्रतिशत हिस्से पर किए गए अध्ययनों के परिणामों से ८० प्रतिशत शेष क्षेत्रों के बारे में राय जाहिर करना उचित नहीं है।

३. प्रशांत तटीय ज्वालामुखी क्षेत्र अग्निवलय और अन्य क्षेत्रों में पृथ्वी के आंतरिक भाग से फूटते ज्वालामुखी मानवीय क्रियाकलापों से कई गुनी अधिक जहरीली गैसें वायुमंडल में उड़ेल रहे हैं और उन्हें रोका नहीं जा सकता है। ऐसे में हम मात्र कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ने और ग्रीन हाउस प्रभाव के भीषण दुष्परिणाम से जनमानस को क्यों डराने में लगे हुए हैं ?

४. सौर्यिक विकिरण को अवशोषित करने वाले उत्प्रेरक पदार्थो (जैसे सीमेंट-कांक्रीट) आदि से अधोसंरचित धरातलीय भू-भाग अप्राकृतिक रुप से बदल गए हैं। ये अधिक मात्रा में विकिरण अवशोषित कर निचले वायुमंडल में ऊँचा तापमान बनाएं रखते हैं। गौरतलब है कि ग्रामीण प्रेक्षण शालाएं सीमेंट कांक्रीट से घिरे हुए क्षेत्रों में ही स्थापित होती हैं।

५. नदियों द्वारा महासागरों को स्वच्छ जल की आपूर्ति में भी कमी हुई है और बढ़ते सिंचाई क्षेत्रों से सीधे वाष्पीकरण में अधिकता आई है। अतएव मात्र समुद्री जलस्तर बढ़ना कैसे संभव हैं ?

निष्कर्ष यही है कि हमें तथाकथित ग्लोबल वार्मिंग के भय को नहीं फैलाना चाहिए। जलवायु के तत्व में दीर्घकालिक परिवर्तन मानवीय अनुक्रियाआें के बगैर भी होते रहे हैं। इस प्रक्रिया को सामान्य और सहजता से स्वीकार करते हुए हमें कुछ रासायनिक तत्वों और रेडियो सक्रिय पदार्थो के प्रयोग से बचाना चाहिए।

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ग्लोबल वार्मिंग : मिथ्या या सच्चाई ?

ग्लोबल वार्मिंग पर विशेष

ग्लोबल वार्मिंग : मिथ्या या सच्चाई ?

दीपक शिंदे

ग्रीन हाउस गैसों की चादर में तपती धरती के भविष्य की कल्पना ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। और क्यों नहीं ? इस कल्पना में एक हॉरर फिल्म की तरह रोमांच और उत्तेजना है। परन्तु क्या यह सही है ?

एन्थ्रोपोजेनिक ग्रीन हाऊस सिद्धांत के अनुसार अगली सदी के मध्य तक धरती के औसत तापमान में २ से ५ डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोत्तरी आंकी गई है। इस बढ़ोत्तरी, जो आज भी बदस्तूर जारी है, का कारण कार्बन डाईऑक्साइड का दुगना होना तथा अन्य ग्रीनहाउस गैसों (जैसे मीथेन, क्लोरो फ्लोरो कार्बन्स यानी सीएफसी तथा नाइट्रस ऑक्साइड) का वातावरण में शामिल होना है। विभिन्न मानव गतिविधियों, जैसे जीवाश्म इंर्धनों का जलना, जंगलों का विनाश तथा कृषि गतिविधियां आदि इन ऊष्मा को कैद करने वाली (ग्रीनहाऊस) गैसों के बनने के लिए उत्तरदायी हैं। इन ग्रीनहउस गैसों के उत्सर्जन को रोकना आवश्यक है।

ब्रिटेन के वित्त मंत्री गार्डन ब्राउन ने जुलाई २००५ में मौसम परिवर्तन के अर्थ शास्त्रीय पहलू पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने का दायित्व ब्रिटिश आर्थिक सेवा के प्रमुख सर निकोलस स्टर्न को सौंपा था। पिछले दिनों ७०० पृष्ठीय रिपोर्ट जारी हो गई है, जिसने दुनिया भर में खलबली मचा दी है। स्टर्न का भी यही कहना है कि आगामी वर्षो में ग्रीनहाउस गैसो के अत्यधिक उत्सर्जन के कारण धरती का तापमान २ से ५ डिग्री सेल्सियम तक बढ़ जाएगा। धरती की इस तपन से ३० प्रतिशत जमीन सूखाग्रस्त हो जाएगी। अनाज की पैदावार घटेगी जिसके चलते करोड़ों लोग भूखे रहने को मजबूर होंगे।

ग्लेशियर के तेज़ी से पिघलने से न्यूयार्क, लंदन, शंघाई, टोकियो, हांगकांग, मुम्बई व कोलकाता जैसे शहर समुद्रो का जल स्तर बढ़ने से डूबने की कगार पर होंगे। जीव जंतुआें की ४० प्रतिशत प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी। स्टर्न ने भविष्य की जो तस्वीर खींची है, वह रांेगटे खड़े कर देने वाली है। वैसे आलोचक कह रहे हैं कि ब्राउन ने पर्यावरण रक्षा के नाम पर नए कर लागू करने का आधार तैयार करने हेतु स्टर्न से अपनी मऱ्जी के मुताबिक रिपोर्ट तैयार करवाई है।

कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि धरती की यह तपन इतनी महत्वपूर्ण नहीं है। विज्ञान अभी भी निश्चितता से परे है और कम्प्यूटर साइंस की प्रगति के बावजूद जलवायु मॉडल्स अभी भी अविकसित हैं। जलवायु तथा तापमान के पुराने अभिलेख विसंगतियों से भरे हैं। लोग उस समस्या को हल करने में लगे हैं जिसका अस्तित्व ही नहीं है।

इसमें कोई विवाद नहीं है कि पृथ्वी से विकिरित ताप ग्रीनहाउस गैसों में कैद होकर वायुमण्डल के निचले भाग को गर्म करता है। किन्तु कुछ प्रश्न हैं जिन पर बहस जरुरी है। उदाहरणार्थ, ग्लोबल वार्मिंग कितनी तेज़ी से होगी और इसका भौगोलिक वितरण किस प्रकार हरेगा ? जलवायु की फीडबैक प्रणालियां क्या होंगी और वे धरती की इस तपन को कम करेंगी या बढ़ाएंगी? साथ ही कृषि, जलवायु एवं समुद्र के जलस्तर पर इस ग्लोबल वार्मिंग के क्या प्रभाव होंगे ? कुछ लोग वैकल्पिक ऊर्जा पर शोध व परिवर्तित ऊर्जा नीति में भारी निवेश का पक्ष लेते हैं। दूसरी ओर कुछ लोगों का यह भी कहना है कि उद्योगों से कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने या इसके पुन: चक्रण तथा जलवायु शोध जैसे संरक्षण के प्रयास तेज़ करना होंगे।

तापमान अभिलेख

पिछली सदी का तापमान अभिलेख कई विसंगतियों से भरा हुआ है जिनकी व्याख्या जलवायु मॉडल्स या ग्रीनहाउस सिद्धांत द्वारा नहीं की जा सकती। जैसे पिछले १०० वर्षो में पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि मॉडल्स द्वारा प्रदर्शित वृद्धि से काफी धीमी रही है। पिछली सदी में हुई वृद्धि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि से मेल नहीं खाती । सामान्यत: यह माना जाता है कि पिछले १०० वर्षोंा में कार्बन डाई ऑक्साइड का स्तर २८० पी.पी.एम. था जो वर्तमान में बढ़कर ४३० पी.पी.एम. हो चुका है । मीथेन की मात्रा दुगुनी हो चुकी है । सीएफसी कार्बन डाई ऑक्साईड की अपेक्षा अधिक प्रभावी है । इनकी मात्रा १९२० के बाद से तेजी से बढ़ी है । कार्बन डाईऑक्साइड की दुगुनी मात्रा के प्रभाव से पिछले १०० वर्षोंा में ध्रुवीय क्षेत्रों के तापमान में २-५ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होनी चाहिए थे, पर ऐसा नहीं हुआ ।

एरिज़ोना स्टेट यूनिवर्सिटी की जलवायु विज्ञान प्रयोगशाला के डायरेक्टर रॉबर्ट बेलिंग द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के कारण अधिक उग्र और भयंकर तूफान उत्पन्न होने की आशंका व्यर्थ है । उन्होंने तापमान तथा तूफानों की आवृत्ति में विपरीत सम्बंध पाया है । साथ ही उन्होंने तापमान बढ़ने से समुद्री जल स्तर बढ़ने के भय को भी निराधार बताया है ।

तापमान अभिलेख भूमि आधारित हैं तथा अधिकांश मानिटरिंग स्टेशन्स उत्तरी अमेरिका तथा ब्रिटेन जैसे देशों के शहरों एवं हवाई अड्डों के निकट स्थित थे । तापमान के मापन हेतु परंपरागत मर्करी थर्मामीटर का उपयोग किया गया था । ये विसंगतियां यहीं समाप्त नहीं होती है । अधिकतर मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि औसत भू-तापमान का विचार ही औचित्यहीन है । महत्वपूर्ण बात तो यह है कि धरती की यह तपन किस प्रकार से क्षेत्रीय रुप से वितरित होती है ।

दिन के तापमान में गिरावट

यह जानना काफी दिलचस्प होगा कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से , क्षेत्र विशेष के अनुसार , दिन का तापमान या तो अपरिवर्तित हुआ है या कम हुआ है जबकि रात के तापमान में अपेक्षाकृत वृद्धि हुई है । सैद्धांतिक रुप से , तपते विश्व में मिट्टी से पानी का अत्यधिक वाष्पीकरण सूखे के कारण होता है । हालांकि यदि दिन के तापमान में गिरावट एक सतत प्रवृत्ति है तब वाष्पीकरण की प्रक्रिया भी न्यूनतम होगी । इसके साथ ही दिन की तपन के ठंडे वातावरण में बहुत कम होगा और समुद्री जलस्तर बढ़ने की संभावना भी न्यूनतम होगी। १९८० के दशक में यू.एस.ए. में पड़ी रिकॉर्ड गर्मी ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण नहीं अपितु एल नीनो- सर्दन ऑसीलेशन (ई.एन.एस.ओ.) का परिणाम था । ऐसा विश्वास किया जाता है कि सौर विकिरण तथा ज्वालामुखीय गतिविधियों का प्राकृतिक रुप से घटना-बढ़ना भी पिछली सदी के तापमान के उतार-चढ़ाव हेतु मुख्य रुप से उत्तरदायी रहा है। १९४० से १९७० के बीच तापमान में गिरावट के लिए ज्वालामुखी सक्रियता के फलस्वरुप उत्पन्न वायुमण्डलीय धूल में वृद्धि को उत्तरदायी माना गया है। तापमान परिवर्तनों की अन्य व्याखाएं सूर्य के धब्बों, ग्रहों की कक्षा तथा पृथ्वी के झुकाव में उतार-चढ़ाव इत्यादि द्वारा की गई है।

अनिश्चित विज्ञान

मौसम वैज्ञानिक अक्सर फोर्सिंग्स और फीडबैक शब्दों का प्रयोग करते हैं। फोर्सिंग मौसम परिवर्तन का प्राथमिक कारण होता है तथा फीडबैक फोर्सिंग के विरुद्ध जलवायु तंत्र की प्रतिक्रिया है। ग्रीनहाउस सिद्धांत के अनुसार वायुमंडल में मानव जनित ग्रीनहाउस गैसों का बढ़ना प्राथमिक फोर्सिंग प्रक्रिया है जिसके परिणामस्वरुप ग्लोबल वार्मिंग होती हैं इस सिद्धांत पर बहस मूलत: भूमंडल, महासागरों, बादलों व जलवाष्प के फीडबैक पर केंद्रित है।

जलवायु की वर्तमान परिस्थितियों में बादलों का अपना शीतलन प्रभाव होता है। परंतु बादलों के फीडबैक की भविष्यवाणी एक ज़ोखिम भरा कार्य है। गहन शोध के बावजूद बादलों के निर्माण तथा ऊर्जा गतिकी के बारे में बहुत कम जानकारी है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार बादलों में केंद्रकों का निर्माण समुद्री प्लवकों द्वारा उत्पन्न सल्फर यौगिकों द्वारा होता है। विस्कोंसिन विश्वविद्यालय के रीड ब्रायसन के अनुसार ज्वालामुखीय धूल तथा कोयले के दहन से उत्पन्न वायुमंडलीय सल्फेट्स उच्च स्तरीय बादलों का कार्य करते हैं जो धरती को ठंडा रखने में मदद करते हैं। यदि यह सही है तो जीवाष्म इंर्धन के जलने का विपरीत प्रभाव होना चाहिए।

वास्तव में कार्बन डाईऑक्साइड के प्रभावों का आकलन पृथक रुप से न करते हुए सभी वायुमण्डलीय प्रदूषकों के साथ होना चाहिए। फीड बैक प्रक्रियाआें की जटिलता, महासागरों एवं वनस्पतियों से भी प्रदर्शित होती हैं । कार्बन डाईऑक्साइड प्रकाश संश्लेषण हेतु आवश्यक है। संभव है, इसकी बढ़ी हुई मात्रा से पौधों द्वारा कार्बन डाईऑक्साइड के अवशोषण की दर भी बढ़ जाए। वायुमण्डलीय तापमान पर महासागरों का शक्तिशाली प्रभाव होता है। जहां महासागरीय हवाएं पृथ्वी के बढ़ते तापमान को कम करने में सहायक है वहीं, महासागर कार्बन-सिंक की तरह कार्य करते हुए कार्बन डाईऑक्साइड की बढ़ी हुई मात्रा का अवशोषण करते हैं। साथ ही ये बादलों तथा जलवाष्प का निर्माण कर जलचक्र को भी प्रभावित करते हैं।

मॉडल्स की कमज़ोरियां

कम्प्यूटर मॉडल्स जिन पर मौसम की सभी भविष्यवाणियां आधारित हैं, वैज्ञानिकों के एक छोटे समूह द्वारा तैयार किए जाते हैं, जो यह मानते हैं कि वे उन सभी परिवर्तनों को पूरी तरह से नहीं समझते या पहचानते, जो मौसम को प्रभावित करते हैं। वर्तमान में जनरल सर्कुलेशन मॉडल अत्याधुनिक हैं । सुपर कम्प्यूटर्स एवं जलवायु की बेहतर समझ के बावजूद जलवायु मॉडलिंग अभी भी अपरिष्कृत और अविश्वसनीय है। दरअसल, अधिकतर मॉडल्स की शुरुआत एक सिद्धांत से होती है और इसको प्रबल करने के लिए आंकड़े विकसित किए जाते हैं और अपनी पसंद का कोई भी परिणाम इन मॉडल्स से प्राप्त किया जा सकता है।

अन्त में यही कहा जा सकता है कि ग्लोबल वार्मिंग कोई मनगढ़त किस्सा या कल्पना तो नहीं है, परन्तु इसे इतना बढ़ा-चढ़ा कर भी प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए।

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जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां

ग्लोबल वार्मिंग पर विशेष

जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां

प्रवीण कुमार

ग्लोबल वार्मिंग एक समस्या बनती जा रही हैं इसकी जड़ में है जीवाष्म ईंधन का अंधाधुंध इस्तेमाल, जिससे हमारा वातावरण लगातार गर्म होता जा रहा है। इसके असर से अमीर-गरीब कोई भी देश नहीं बच पाया है। इसलिए ज़रुरत अभी से संभलने की है, क्योंकि कहीं देर न हो जाए।

मालदीव व बांग्लादेश जैसे देशों में बाढ़, चीन व ऑस्ट्रेलिया में जलसंकट, ध्रुवीय भालू प्राणियों के अस्तित्व पर सवालिया निशान, मच्छरों से होने वाली बीमारियों का बढ़ता प्रकोप आदि कुछ ऐसी काल्पनिक तस्वीरें हैं जो भविष्य में कड़वी सच्चाई भी बन सकती है। अगर हम नही चेते और जीवाश्म इंर्धन का मौजूदा गति से इस्तेमाल करना जारी रहा, तो हमें इस स्थिति का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।

यह सर्वविदित तथ्य है कि तेल व कोयला जैसे जीवाश्म इंर्धनों से वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड में बढ़ोतरी होती है। अगर धरती पर गर्मी बढ़ी, तो बर्फ पिघलेगी और जाहिर है कि समुद्र के जल स्तर में इजाफा होगा। नतीजा निचले क्षेत्रों में जलप्लावन।

जाधवपुर विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार वर्ष २०२० तक पश्चिम बंगाल के संुदरवन इलाके का १५ फीसदी क्षेत्र समुद्री पानी की भंेट चढ़ चुका होगा। स्थिति तब और बदतर हो जाएगी जब ग्रीनलैण्ड व अंटार्क्टिका में बर्फ पिघलना शुरु होगी। वहीं दूसरी ओर, ऑस्ट्रेलिया व चीन जैसे कई देशों के करोड़ों लोग पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस जाएंगे।

संयुक्त राष्ट्र संघ प्रयोजित जलवायु परिवर्तन पर अंतर-शासकीय समिति (आईपीसीसी) द्वारा गत २ फरवरी को पेरिस में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष २१०० तक वातावरण के तापमान में १.८ से ४ डिग्री सेल्सियस तक बढ़ोतरी हो जाएगी। रिपोर्ट का दावा है कि इसके ९० फीसदी निष्कर्ष सत्यता की कसौटी पर खरे उतरेंगे। इस रिपोर्ट को ११३ देशों के ३.७५० पर्यावरण विशेषज्ञों ने तैयार किया है। इस रिपोर्ट को तैयार करने से पहले उन्होंने २००१ में जारी पिछली रिपोर्ट के सभी उपलब्ध नतीजों का भी गहराई से अध्ययन किया। आईपीसीसी रिपोर्ट हर पांच साल में जारी की जाती है।

इस बार की रिपोर्ट चरणों में जारी की जा रही है। हाल ही में रिपोर्ट का जो मजमून जारी किया गया है, उसमें जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक आधारों के बारे में चर्चा की गई है। इसका दूसरा भाग इसी साल अप्रैल में जारी किया जाएगा। उसमें इस बात पर ज़ोर दिया जाएगा कि जलवायु परिवर्तन का मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा। मई २००७ में जारी होने वाले तीसरे भाग में बताया जाएगा कि हम इन प्रभावों को कम करने के लिए क्या कर सकते हैं।

कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ और प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल करके हम रोज़ाना अपने वातावरण में दो करोड़ टन कार्बन डाईऑक्साइड गैस उड़ेलते हैं। अगर प्रति व्यक्ति की बात करें, तो हर व्यक्ति औसतन साल भर में एक टन कार्बन या चार टन कार्बन डाईऑक्साइड वातावरण में छोड़ना है। इस प्रकार हम साल भर में सात गीगाटन ग्रीनहाउस गैसें अपने वातावरण में डाल देते हैं(एक गीगाटन = सौ करोड़ टन)। वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा में जितनी बढ़ोतरी होगी, ग्रीनहाउस प्रभाव भी बढ़ता जाएगा। नतीजा यही होगा कि वातावरण भी दिन-प्रतिदिन गर्म होता जाएगा।

कार्बन डाईऑक्साइड, जो वातावरण के दस लाख हिस्सों में ३५० भाग होती है, उसे मानव जनित ग्रीनहाउस प्रभाव के लिए आधा ज़िम्मेदार माना जाता है। ग्रीनहाउस प्रभाव के लिए ज़िम्मेदार एक अन्य गैस है मीथेन । मीथेन सामान्य तौर पर धान के खेतों और मवेशियों के गोबर से उत्सर्जित होती है। इसी सूची में दो अन्य गैसें हैं सीएफसी-११ व सीएफसी-१ जो रेफ्रिजरेटर्स में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल की जाती है। हालांकि मांट्रियल संधि की बदौलत अब सीएफसी गैस के उत्सर्जन पर थोड़ा विराम लगा है। ये सभी ग्रीनहाउस गैसें उस ओजोन परत को नष्ट करने में भी खलनायक की भूमिका निभा रही हैं, जो हमें सूर्य से निकलने वाली हानिकाकर पराबैंगनी किरणों से बचाती है।

ऐसा भी नहीं है कि ग्रीनहाउस गैसें बुरी ही हैं। अगर ये न होतीं तो धरती इतनी ठंडी रहती कि यहां रहना ही नामुमकिन हो जाता। जंगल और महासागर कार्बन डाईऑक्साइड को सोखने वाले प्राकृतिक उपादान माने जाते हैं। हाल ही में ग्रीनलैण्ड से प्राप्त बर्फ के टुकड़ों और वृक्षों के वलय इस बात की ओर इशारा करते हैं कि कार्बन डाईऑक्साइड को सोखने वाले इन प्राकृतिक उपादनों ने वातावरण में इस गैस के स्तर को २५० पीपीएम (पाट्र्स पर मिलियन) तक बनाए रखा। यह सिलसिला औद्योगिक क्रांति से पहले लगातार एक हजार साल तक जारी रहा। फिर धीरे-धीरे बदलाव आता गया। सन् १९५५ तक कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर ३२० पीपीएम तक पहुंच गया था। ताज़ा शोध तो और भी भयावह स्थिति पेश करता है। यह शोध कहता है कि अब जंगलों और महासागरों ने भी कार्बन डाईऑक्साइड उगलना शुरु कर दिया है; यानी खतरे की घंटी बज चुकी हैं।

जैसे-जैसे धरती का वातावरण गरम हो रहा हैं, समुद्रों के पानी के वाष्प बनने की प्रक्रिया भी तेज़ होती जा रही है। यह नीम पर करेला साबित हो रहा है, क्योंकि जलवाष्प भी ग्रीनहाउस प्रभाव पैदा करती है।

शोध बताते हैं कि वातावरण में गर्मी का प्रकोप भूमध्य रेखा की बजाय ११ अक्षांश पर ़़ज्यादा रहेगा। उत्तरी गोलार्द्ध, जहां जमीन का हिस्सा सर्वाधिक है, अधिक तेज़ी से तपेगा। दक्षिणी गोलार्द्ध, जिसका अधिकांश भाग समुद्र से बना है, अपेक्षाकृत कम गरम होगा। लेकिन यहां यह समझना होगा कि सामान्य तापमान में केवल कुछ डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी का मतलब होगा व्यापक पैमाने पर पर्यावरणीय बदलाव। जाहिर सी बात हैं, ये बदलाव अनुकूल तो कतई नहीं रहेंगे। इन बदलावों के तहत दस हजार साल से हिम युग के अवशेषों का प्रतिनिधित्व करने वाली बर्फ तेज़ी से पिघलने लगेगी। इससे समुद्र सतह का स्तर छह मीटर तक बढ़ सकता है। इक्कीसवीं सदी के अंत तक समुद्र सतह के स्तर में एक मीटर तक की वृद्धि होने की आशंका जताई जा रही है। आंकड़े बताते हैं कि पिछली एक सदी में समुद्र जल की सतह १० से १५ सेंटीमीटर तक ऊपर उठ चुकी हैं।

तटीय बंगाल के संुदरवन इलाके में, जहां समुद्र सतह के स्तर में हर साल ३.१४ मिलीमीटर की बढ़ोतरी हो रही हैं, ग्लोबल वार्मिंग एक हकीकत बन चुकी है। जाधवपुर विश्वविद्यालय के स्कूल आफ ओशिएनोग्राफिक स्टडीज़ की निदेशक सुजाता हाजरा बताती हैं कि इस क्षेत्र में समुद्री जल स्तर में बढ़ोतरी नई बात नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि समुद्र सतह में बढ़ोतरी का सिलसिला ७० सालों से चलता रहा है। इस अवधि में यह दर औसतन २.८८ मिलीमीटर सालाना रही है।

पिछले साल ब्रिटेन ने स्टर्न रिव्यू जारी की थी। इसमें आगाह किया गया था कि अगर हम जल्द ही नहीं चेते तो सदी के मध्य तक भारी बाढ़ और सूखे से २० करोड़ लोग अपने-अपने स्थानों से बेदखल हो जाएंगे। गौरतलब है कि दुनिया की आधी आबादी तटीय इलाकों से २५ किलोमीटर की दूरी के भीतर रहती है। कई शहर भी समुद्र किनारे ही आबाद हुए हैं। इंडोनेशिया के पर्यावरण मंत्री ने आशंका जताई है कि वातावरण में परिवर्तन से अगले तीन दशक के दौरान देश के १८ हजार द्वीपों में से करीब दो हजार द्वीप समुद्र में समा जाएंगे। ब्रिटेन और नीदरलैण्ड जैसे देशों ने तो निचले इलाकों में ऐसे मकान बनाने की योजना बनाई है जो पानी में भी बचे रहेंगे।

बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में गर्मियों में गंगोत्री में गंगोत्री ग्लैशियर हर साल १८ मीटर छोटा होता गया है। यह वही ग्लैशियर है जिससे पवित्र गंगा नदी निकलती है। विश्व का ७५ फीसदी मीठा जल पर्वतीय ग्लैशियरों में जमा है। इन ग्लैशियरों के पिघलने से नदियों में पानी की आपूर्ति भी धीरे-धीरे कम होती जाएगी। ऐसी स्थिति भी आ सकती है जब टैंकर तेल की जगह पानी की ढुलाई करेंगे।

वैसे धरती के गरम और ठंडा होने का सिलसिला लगातार चलता रहा है। क्रिटेशियस काल काफी गरम था। यह वही समय था जब पृथ्वी पर डायनासौर विचरण करते थे। दस हजार साल पहले हिमयुग भी था। वैज्ञानिकों का कहना है कि ७६ करोड़ से ५५ करोड़ साल की अवधि के दौरान पृथ्वी पर ठंडे और गरम का सिलसिला काफी तेज़ी से चला। तो इसका अर्थ क्या लगाया जाए ? जेम्स लवलाक द्वारा परिकल्पित गेइया सिद्धांत के अनुसार जलवायु प्रणाली अपना संतुलन खुद ही बनाती रहती है।

यूनान में पृथ्वी के जिस रुप को देवी माना गया है, उसी का नाम गेइया है। तमाम परिवर्तनों पर इस देवी का नियंत्रण होने के बावजूद वह इस मामले में काफी उदार भी है। लेकिन अगर उसकी उदारता का फायदा उठाते हुए हम परिवर्तन की गति को अंधाधुंध बढ़ाते रहे, तो यह हमारी आधुनिक सभ्यता के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है।

दुर्भाग्य से ग्लोबल वार्मिंग का मुद्दा उत्तर बनाम दक्षिण के विवाद में भी फंस गया है। ग्रीनहाउस गैसों पर नियंत्रण के लिए वर्ष १९९७ में १४१ देशों ने क्योटो में एक संधि पर दस्तखत किए थे। क्योटो संधि से अमेरिका वर्ष २००१ में यह कहकर अलग हो गया कि यह संधि अविश्वसनीय वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है और इसका पालन उसकी अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रहा है। गौरतलब है कि एक चौथाई ग्रीनहाउस गैसों के लिए अमेरिका ही ज़िम्मेदार है। उसका तर्क था कि इसमें चीन, भारत व ब्राज़ील जैसे बड़े विकासशील देशों को भी भागीदार बनाया जाए, क्येां कि दुनिया की एक तिहाई आबादी इन देशों में रहती हैं।

अमेरिका का कहना था कि विकासशील देशों में आबादी में बढ़ोतरी का मतलब है ऊर्जा की खपत में भी वृद्धि। भारत आगामी कुछ सालों में चीन को पछाड़कर आबादी के मामले में दुनिया में नंबर वन राष्ट्र बन जाएगा। लेकिन इसके बावजूद तथ्य यह है कि यहां ज़हरीली गैसों का उत्सर्जन इतना नहीं होता, जितना अमेरिका में हो रहा है। अमेरिका में प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत भारत या चीन के मुकाबले १० से १५ गुना अधिक है । जितनी अधिक ऊर्जा की खपत, ज़हरीली गैसों का उत्सर्जन भी उतना अधिक। अब यह अमेरिका पर निर्भर करता है कि वह ग्लोबल वार्मिंग पर नियंत्रण के लिए दुनिया के सामने कोई मिसाल रखना चाहता है अथवा नहीं।

ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रण में करने के लिए इन दिनों एक नया तरीका भी ईजाद किया गया है : कार्बन क्रेडिट। कंपनियों व कारखानों को प्रदूषण फैलाने से रोकने के लिए आजकल इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। क्योटो संधि विकसित देशों की उन कंपनियों को विकासशील देशों की परियोजनाआें में निवेश की अनुमति देता है जो उत्पादन के दौरान न्यूनतम प्रदूषण फैलाती हैं। विकासशील देशों में वैसे भी प्रदूषण रहित उत्पादन प्रक्रिया अपेक्षाकृत सस्ती है। चीन वर्ष २००९ तक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के मामले में अमेरिका से आगे निकल जाएगा। प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए चीन ने अपनी छोटी विद्युत परियोजनाआें को बंद करने की योजना बनाई है। साथ ही, वह बिजली परियोजनाआें से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड को भूमिगत कंटेनरों में जमा करने की योजना पर भी काम कर रहा है। विश्व की सबसे बड़ी इस्पात कंपनी आर्सेलर मित्तल भी चीन में देश का पहना कार्बन क्रेडिट एक्सचेंज स्थापित करने में मदद कर रही है।

वर्जिन ग्रुप के प्रमुख रिचर्ड ब्रैनसम ने हाल ही में उस व्यक्ति को ढाई करोड़ डॉलर का पुरस्कार देने की घोषणा की है जो ग्रीनहाउस गैसों के एक बड़े उपाय सुझा सके। कहना न होगा कि ग्लोबल वार्मिंग अब केवल बौद्धिक विलास का विषय नहीं रह गया है। यह एक हकीकत है, कड़वी हकीकत। सवाल यह है कि हम इस हकीकत से दूर भागते हैं या इसका सामना करते हैं।

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ग्लोबल वॉर्मिंग की गिरफ्त में समुद्र

ग्लोबल वार्मिंग पर विशेष

ग्लोबल वॉर्मिंग की गिरफ्त में समुद्र

सुश्री रेशमा भारती

पृथ्वी के अधिकतर भाग पर फैला समुद्र वायुमण्डल में गैसों के प्राकृतिक संतुलन, मौसम के संचालन और पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व में अहम भूमिका निभात आता है। ग्लोबल वॉर्मिंग के संदर्भ में समुद्र चर्चा में रहा है। समुद्री जल स्तर बढ़ने से तटीय क्षेत्रों के लिए उपस्थित खतरा, बढ़ते तापमान से उग्र होते समुद्री तूफान और बढ़ती गर्मी से समुद्री जीवन पर मंडराता संकट दुनियाभर के वैज्ञानिकों में चिंता का चर्चित विषय रहा है।

चूंकि समुद्र के बारे में मनुष्य की जानकारी व समझ काफी अपर्याप्त है; इसलिए निश्चित रुप से तो नहीं बताया जा सकता कि ग्लोबल वॉर्मिंग का समुद्र पर क्या व कितना असर पड़ेगा। पर अनेक वैज्ञानिकों द्वारा प्रकट विभिन्न आशंकाएं, वैज्ञानिक अनुसंधान, समुद्र की प्रकट अस्वाभाविक हलचलें और समुद्र किनारे रहने वालों के अनुभव यह संकेत दे रहे हैं कि बढ़ते तापमान से समुद्र और अंतत: पृथ्वी का प्राकृतिक संतुलन खतरे में है।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित इंटरगर्वमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आई.पी.सी.सी.) की हाल की रिपोर्ट और उससे छिड़ी ग्लोबल वॉर्मिंग की चर्चा ने एक बार फिर मानव गतिविधियों से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में होती बढ़ोतरी और उससे पृथ्वी के बढ़ते तापमान की गंभीर चिंताजनक स्थिति को उजागर किया है। तापमान में होती बढ़ोतरी समुद्र पर कई किस्म के प्रतिकूल असर डाल सकती है।

विश्वभर के वैज्ञानिकों ने बढ़ते तापमान के फलस्वरुप आर्कटिक और अंटार्कटिका की ध्रुवीय समुद्री बर्फ और पहाड़ी हिम ग्लेशियरों के पिघलने की चिंताजनक स्थिति पर प्रकाश डाला है। अमरीका के नेशनल सेंटर फॉर एटमॉसफेरिक रिसर्च के एक अध्ययन के अनुसार ग्लोबल वॉर्मिंग यदि ऐसे ही जारी रही तो सन् २०४० की गर्मियों में उत्तर ध्रुवीय समुद्र में बर्फ के दर्शन दुर्लभ हो सकते हैं और यह खुला समुद्र होगा।

पिघलती बर्फ के चलते और गर्म होकर फैलने से समुद्री जल स्तर में चिंताजनक रुप से वृद्धि हो रही है। यद्यपि समुद्री जल स्तर के बढ़ने की दर या मात्रा के संदर्भ में वैज्ञानिकों में कुछ मतभेद रहे हैं; फिर भी प्राय: सभी यह स्वीकार करते हैं कि यह प्रक्रिया समुद्र तटीय क्षेत्रों, प्रायद्वपपीय देशों के अस्तित्व पर मंडराते गंभीर खतरे की सूचक है। चूंकि बर्फ की अपेक्षा खुला जल सूर्य की गर्मी अधिक सोखता है; अत: इससे पृथ्वी और अधिक गर्म हो सकती है।

आई.पी.सी.सी. की हाल की रिपोर्ट यह चेतावनी देती है कि इस सदी के दौरान समुद्री जल स्तर में वृद्धि से तटीय या निचले क्षेत्रों विशेषकर गर्म जलवायु वाले क्षेत्रों में बड़ी संख्या में लोग अपने नष्ट हुए आवास क्षेत्रों को छोड़कर पलायन करने पर मजबूर होंगे। इससे प्रवासियों की कई लहरें जन्म लेंगी जिससे विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाआें में तनाव बढ़ सकते हैं।

बढ़ते समुद्री जल स्तर से दुनिया भर के अनेक द्वीपों का अस्तित्व संकट में पड़ गया हैं। भारत में विशेषकर बंगाल की खाड़ी से सटे सुदंरबन क्षेत्र के द्वीपों के समुद्र के आगोश में समाते जाने के खतरे के रुप में यह विकट स्थिति उपस्थित है। यहां हजारों की संख्या में लोगों के बेघर या विस्थापित होने की स्थिति पैदा हो रही है।

जल स्तर बढ़ने से जमीन के डूबते जाने का खतरा तो है ही, साथ ही इससे और बढ़ते हुए तूफानों से तटीय क्षेत्रों में खारापन बढ़ने की समस्या भी विकट हो रही है। बढ़ता खारापन तटीय भूमि, खेती, तटीय जैव सम्पदा और तटों के पारिस्थितिकी तंत्र को बिगाड़ रहा है।

तटीय खेतिहर भूमि को पहुँचता नुकसान, बड़े आर्थिक केन्द्र के रुप में स्थापित दुनिया के कई तटीय शहरों के अस्तित्व पर मंडराते खतरे व मजबूरन पलायन की स्थितियों के रुप में हम दुनिया की अर्थव्यवस्था पर मंडराते इस संकट को समझ सकते हैं।

तटीय मैनग्रोव जंगल अैर मंूगे की चट्टानें, जो समुद्री तूफानो से तटों की रक्षा, वायुमण्डल में गैसों के संतुलन और जल जीवों के लिए महत्तवपूर्ण आवास व प्रजनन क्षेत्र उपलब्ध करते आए हैं; बढ़ते समुद्री जल स्तर, बढ़ते तापमान और बढ़ते खारेपन के चलते नष्ट हो रहे हैं। प्रदूषण और अंधाधुंध दोहन तो इन्हें बर्बाद करता ही आया है।

ध्रुवीय समुद्री क्षेत्रों में बर्फ पिघलने से यहां के पारिस्थितिकी तंत्र में कई बदलाव आ रहे हैं और सील, पेंग्विन, ध्रुवीय भालू जैसे जीव खतरे में हैं।

समुद्री जल के तापमान में आते परिवर्तनों से सामंजस्य न बैठा पाने वाले कई जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ा है; जबकि कई जीव तापमान में हुए बदलाव से सामजस्य बैठाने के लिए समुद्र में अपने स्वाभाविक आवास क्षेत्रों छोड़कर नए क्षेत्रों की ओर पलायन कर रहे हैं। बढ़ते प्रदूषण और कार्बन डायॉक्साइड जैसी गैसों के बढ़ते स्तर से समुद्री सतह पर अम्लीयता बढ़ रही है, जो समुद्री जीवों को नुकसान पहुँचा रही है। समुद्र की रासायनिक संरचना परिवर्तित होते जाने से समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में कई नए, अनापेक्षित परिवर्तन आ रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग से समुद्र की प्राकृतिक संरचना में आते परिवर्तन समुद्र में जीवन शून्य क्षेत्र या डेड जोन की स्थिति पैदा करने में भी भूमिका निभा रहे हैं।

समुद्री धाराआें की स्वाभाविक गति समुद्री तल से पोषक तत्व ऊपरी सतह पर लाती रहती है। ये पोषक तत्व समुद्र के ऊपरी स्तरों व समुद्री सतह पर पाए जाने वाले जीवों जैसे सूक्ष्म समुद्री पौधों (फाइटोप्लेंक्टोन) के अस्तित्व के लिए जरुरी हैं। समुद्री धाराएं तल तक ऑक्सीजन व कार्बनडायॉक्साइड जैसी गैसें व अन्य तत्व भी ले जाती हैं, जो समुद्री तल के जीवन के लिए भी जरुरी हैं। समुद्री जल, ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते, जब अस्वाभाविक रुप से गर्म होता है; तो यह प्राकृतिक धारा प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है और समुद्री जीवन के लिए संकट उपस्थित होता है।

फाइटोप्लेंक्टोन (झूींिश्रिरज्ञिींिि) इस दृष्टि से बहुत अहम हैं कि एक तो यह समुद्री खाद्य श्रृंखला का आधार हैं (अर्थात् सारा समुद्री जीवन इन पर निर्भर है) और दूसरा ये समुद्री पौधे बड़ी मात्रा में कार्बन डायॉक्साइड ग्रहण करके व ऑक्सीजन छोड़कर वायुमण्डल का प्राकृतिक गैस संतुलन बनाए रखते हैं। यदि ये पौधे अपनी भूमिका सुचारु रूप से नहीं निभा पाएंगे तो न केवल सूचना समुद्री जीवन लड़खड़ा जएगा बल्कि प्राकृतिक गैस संतुलन बिगड़ने से धरती पर मानव का अस्तित्व भी संकट में पड़ जाएगा। समुद्रों के बढ़ते प्रदूषण, ओजोन परत के छिजने से अल्ट्रावॉयलेट बी रेडियेशन के होते सीधे संपर्क और समुद्री जल के बढ़ते तापमान का इन सूक्ष्म समुद्री पौधों के अस्तित्व पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।

मानसून समेत समूचा मौसम तंत्र समुद्र की हलचलों से अभिन्न रूप से जुड़ा है। समुद्र में होती अस्वाभाविक हलचलें विभिन्न देशों की जलवायु व मानसून के तौर-तरीकों में भी अस्वाभाविक परिवर्तन ला सकती हैं। गर्म होते समुद्र में एल नीनो प्रभाव (प्रशांत महासागर के गर्म होकर फैलने वाली समुद्री धाराआें से विभिन्न क्षेत्रों के मौसम का संचालित होना) के अस्वाभाविक रूप से बढ़ जाने या पलट जाने के विभिन्न देशों के मौसम पर अस्वाभाविक व अतिवादी प्रतिकूल असर पड़ने की संभावना का जिक्र भी कुछ वैज्ञानिकों ने किया है, हालांकि यह विवादग्रस्त रहा है।

ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते समुद्री जल के तापमान में हुई बढ़ोतरी से समुद्र के अधिक ऊर्जा ग्रहण करने, समुद्री जलधाराआें के प्रवाह में आते परिवर्तनों और समुद्री जल स्तर के बढ़ने का संबंध दुनिया भर के कई वैज्ञानिक समुद्री तूफानों के बार-बार आने और अधिक उग्र, ताकतवर, तीव्र और अधिक विनाशक क्षमता वाले तूफान होने से जोड़ते हैं। बढ़ते प्रदूषण और अंधाधुंध दोहन से बिगड़ चुकी तटीय पारिस्थितिकी इन तूफानों को झेलने में और भी अक्षम साबित होती है। आई.पी.सी.सी. की हाल की चर्चित रिपोर्ट भी ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते विनाशकारी तूफानों, विशेषकर उष्णकटिबंधीय तूफानों के नाटकीय रुप से बढ़ने की संभावना प्रकट करती है।

इस दौर के तूफानों में अभी से ऊँची-उफनती लहरें और हवा व लहरों की असमान्य तीव्र गति अनुभव की जा रही है। भारत में बंगाल की खाड़ी के जल स्तर में वृद्धि और तटीय सुंदरबन क्षेत्र में समुद्री लहरों की ऊंचाई व तीव्रता में अस्वाभाविक बढ़ोतरी अनुभव की गई है।

हाल के कुछ समय में अंटलांटिक् महासागर और अमरीका के तटीय क्षेत्रों, बांग्लादेश, चीन, फिलीपीन्स व इंडोनेशिया जैसे कई देशों में आए अस्वाभाविक विकराल तूफानों और समुद्र की असहज हलचलों के संदर्भ में कई विशेषज्ञों ने ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन की भूमिका का संकेत दिया है।

मनुष्य द्वारा समुद्र तटों के बढ़ते प्रदूषण और अंधाधंुध दोहन ने समुद्र को ग्लोबल वॉर्मिंग को झेलने में और भी असमर्थ बना दिया है। मनुष्य की अनेक गतिविधियों ने समुद्र में प्रदूषक तत्व छोड़े हैं और समुद्री जीवों का मनुष्य ने अत्याधिक दोहन किया है। धरती पर मानव बस्तियों में चलते असंख्य वाहन व असीमित फैक्ट्रियां, अंधाधुंध बढ़ती मशीनें ग्लोबल वॉर्मिंग की स्थिति पैदा कर समुद्र से खिलवाड़ कर रही हैं। प्रतिक्रियास्वरुप समुद्री जीवन में मची अस्वाभाविक हलचलें और उफनता हुआ समुद्र स्वयं धरती पर बसे तमाम प्राणियों के अस्तित्व के लिए भी खतरा उपस्थित कर रहा है।

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वृक्ष : जीवंत परंपरा के संवाहक

वानिकी जगत

वृक्ष : जीवंत परंपरा के संवाहक

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

वृक्षों का मनुष्य से अलग अपना कोई इतिहास नहीं है। वृक्षों की पूजा दरअसल एक मायने में अपने पूर्वजों को आदर प्रकट करने का माध्यम है, जिसकी वजह से आज तक प्रकृति का संतुलन बना रहा है। आज समाज सिर्फ भविष्य की ओर देख रहा है, परन्तु वह यह भूल रहा है कि अंतत: यह प्रकृति ही है जो उसे जिंदा रखेगी।

मानव जीवन के तीन बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी और उपजाऊ मिट्टी मुख्य रुप से वनों पर ही आधारित है। इसके साथ ही वनों से कई अप्रत्यक्ष लाभ भी है जिनमें खाद्य पदार्थ, औषधियां, फल-फूल, इंर्धन, पशु आहार, इमारती लकड़ी, वर्षा संतुलन, भूजल संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता आदि प्रमुख है।

जिस पर्यावरण चेतना की बात विकसित देश अब कर रहे है, वह आदिकाल से भारतीय मनीषा का मूल आधार रही है। भारतीय संस्कृति वृक्ष पूजक संस्कृति है। हमारे देश में वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उसकी पूजा की परम्परा प्राचीनकाल से रही है। जहां तक वनस्पतियों के महत्व का प्रश्न है, भारतीय प्राचीन ग्रंथ इनकी महिमा से भरे पड़े है। वृक्षों के प्रति ऐसा प्रेम शायद ही किसी देश की संस्कृति में हो, जहां वृक्ष को मनुष्य से भी ऊंचा स्थान दिया जाता है एवं उनकी पूजा कर सुख और समृद्धि की कामना की जाती है। हमारी वैदिक संस्कृति में पौधारोपण व वृक्ष पूजन की सुदीर्घ परम्परा रही है। प्रयाग का अक्षयवट, अवंतिका का सिद्धवट, नासिक का पंचवट (पंचवटी) गया का बोधिवृक्ष, वृंदावन का वंशीवट जैसे वृक्ष केन्द्रित श्रद्धा के केन्द्रो की परम्परा अनेक शताब्दियों पुरानी है।

वैदिक काल में प्रकृति के आराधक भारतीय मनीषी अपने अनुष्ठानों में वनस्पतियों को विशेष महत्व देते थे। वेदों और आरण्यक ग्रंथों में प्रकृति की महिमा का सर्वाधिक गुणगान है, उस काल में वृक्षों को लोकदेवता की मान्यता दी गयी। वृक्षों में देवत्व की अवधारणा का उल्लेख वेदों के अतिरिक्त प्रमुख रुप से मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, भविष्यपुराण, पद्मपुराण, नारदपुराण, रामायण, भगवद्गीता और शतपथब्राह्मण आदि ग्रंथो में मिलता है। मोटे रुप में देखे तो वेद, पुराण, संस्कृत और सूफी साहित्य, आगम, पंचतंत्र, जातक कथाएं, कुरान, बाईबिल, गुरुग्रंथ साहब हो या अन्य कोई ग्रंथ होसभी में प्रकृति के लोकमंगलकारी स्वरुप का वर्णन है। पर्यावरण के प्रति सामाजिक सजगता और पौधारोपण के प्रति सतर्कता हमारे ऋषियों ने निर्मित की थी, पौधारोपण कब, कहां और कैसे किया जाये उसका लाभ और वृक्ष काटे जाने से होने वाली हानि का विस्तारपूर्वक वर्णन हमारे सभी धर्मो के ग्रंथो में है।

दुनिया में सभी प्राचीन सभ्यताआें का आधार मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और आदर का रिश्ता है। इसी में पेड़, पहाड़ और नदी का अवतार के रुप में मनुष्यों, प्राणियों की पूजा की परम्परा का प्रचलन हुआ। मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्ति पूजा के साथ ही पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुआें की पूजा की परम्परा भी विद्यमान थी। भारतीय साहित्य, चित्रकला और वास्तुकला में वृक्ष पूजा के अनेक प्रसंग मिलते है। अजंता के गुफाचित्रों और सांची के तोरण स्तंभों की आकृतियों में वृक्ष पूजा के दृश्य है। जैन और बौद्ध साहित्य में वृक्ष पूजा का विशेष स्थान रहा है। पालि साहित्य में विवरण है कि बोधिसत्व ने रुक्ख देवता बनकर जन्म लिया था।

हमारे सबसे प्राचीन ग्रंथ वेदों में प्रकृति की परमात्मा स्वरुप में स्तुति है। इसके साथ ही वाल्मिकी रामायण, महाभारत और मनुस्मृति में वृक्ष पूजा की विविध विधियों का विस्तार से वर्णन है। नारद संहिता में २७ नक्षत्रों की नक्षत्र वनस्पति की जानकारी दी गयी है। हर व्यक्ति के जन्म नक्षत्र का वृक्ष उसका कुल वृक्ष है, यही उसके लिये कल्पवृक्ष है, जिसकी आराधना कर मनोवांछित फल प्राप्त किया जा सकता है। सभी धार्मिक आयोजनों एवं पूजापाठ में पीपल, गुलर, पलाश, आम और वट वृक्ष के पत्ते (पंच पल्लव) की उपस्थिति अनिवार्य होती है। नवग्रह पूजा अर्चना के लिये नवग्रह वनस्पतियों की सूची है जिसके अनुसार उन वृक्षों की पूजा-प्रार्थना से ग्रह शांति का लाभ मिल सकता है।

हमारे प्राचीन साहित्य में जिन पवित्र और अलौकिक वृक्षों का उल्लेख है उनमें कल्पवृक्ष प्रमुख है। कल्पवृक्ष को देवताआें का वृक्ष कहा गया है, इसे मनोवांछित फल देने वाला नंदन वृक्ष भी माना जाता है। भारत में बंबोकेसी कल के अड़नसोनिया डिजिटेटा को कल्पवृक्ष कहा जाता है। इसको फ्रंासीसी वैज्ञानिक माइकल अडनसन ने १७५४ में अफ्रीका में सेनेगल में सर्वप्रथम देखा था, इसी आधार पर इसका नाम अड़नसोनिया डिजिटेटा रखा गया। नश्वर जगत का कोई भी वृक्ष इसकी विशालता, दीर्घजीविता और आराध्यता में बराबरी नहीं कर सकता है। यह धीरे-धीरे बढ़ता है और सैकड़ो वर्षो तक जिंदा रहता है। भारत में समुद्रतटीय प्रदेशों गुजरात, महाराष्ट्र और केरल में कल्पवृक्ष बहुतायत से मिलते है। देश के कुछ चर्चित कल्पवृक्षों में हिमालय में जोशीमठ, राजस्थान में मांगलियावास, बालुन्दा और बांसवाड़ा के कल्पवृक्ष प्रमुख है।

पौराणिक ग्रंथ स्कंदपुराण के हेमाद्रि खंड के अनुसार पांच पवित्र छायादार वृक्षों के समूह को पंचवटी कहा गया है, जिसमें पीपल, बेल, बरगद, आवंला व अशोक शामिल है। पुराणों में दो प्रकार की पंचवटी का वर्णन किया गया हैं। प्रत्येक में इन पांच प्रजातियों की स्थापना विधि, एक नियत दिशा, क्रम व अंतर के स्पष्ट निर्देश है।

भगवान बुद्ध के जीवन की सभी घटनाये वृक्षों की छाया में घटी। आपका जन्म सालवन में एक वृक्ष की छाया में हुआ। इसके बाद प्रथम समाधि जामुन वृक्ष की छाया में, बोधि प्राप्ति पीपल वृक्ष की छाया में ओर महानिर्वाण साल वृक्ष की छाया में हुआ। भगवान बुद्ध ने भ्रमणकाल में अनेको वनों एवं बागो में प्रवास किया था। इनमें वैशाली की आम्रपाली का आम्रवन, पिपिला का सखादेव आम्रवन, नांलदा का पुरवारीक आम्रवन व अनुप्रिय का आम्रवन के नाम उल्लेखनीय है। उसके अतिरिक्त राजाग्रह निम्बिला और कंजगलके वेणु वनों का संबंध भी भगवान बुद्ध से आया है। जैन धर्म में जैन शब्द जिन से बना है, इसका अर्थ है समस्त मानवीय वासनाआें पर विजय करने वाला। तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है नदी पार कराने का स्थान अर्थात घाट। धर्मरुपी तीर्थ का जो प्रवर्तन करते है वे तीर्थंकर कहलाते है। तपस्या के रुप में सभी तीर्थकरों को विशुद्ध ज्ञान (कैवल्य ज्ञान) की प्राप्ति किसी न किसी वृक्ष की छाया में हुई थी, इन वृक्षों को कैवली वृक्ष कहा जाता है।

सिख धर्म में वृक्षों का अत्यधिक महत्व है। वृक्ष को देवता रुप में देखा गया हैं गुरुकार्य में उपयोग आने वाले धर्मस्थल के पास स्थित वृक्ष समूह को गुरु के बाग कहा जाता है। इनमें गुरु से जुड़े कुछ वृक्ष निम्न है - नानकमता का पीपल वृक्ष, रीठा साहब का रीठा वृक्ष, टाली साहब का शीशम, और बेर साहब प्रमुख है। इसके साथ ही कुछ बेर वृक्ष भी पूजनीय और प्रसिद्ध है। इनमें दुखभंजनी बेरी, बाबा की बेरी और मेहताबसिंह की बेरी के वृक्ष शामिल है।

पृथ्वी पर पाये जाने वाले जिन पेड़-पौधों का नाम कुरान-मजीद में आया है, उन पेड़ों को पूजनीय माना गया है। इन पवित्र पेड़ों में खजूर, बेरी, पीलू, मेहंदी, जैतून, अनार, अंजीर, बबूल, अंगुर और तुलसी मुख्य है। इनमें कुछ पेड़-पौधों का वर्णन मोहम्मद साहब (रहमतुल्लाह अलैहे) ने कुरान मजीद में किया हैं इस कारण इन पेड़ पौधों का महत्व और भी बढ़ जाता है। हम सभी धर्मग्रंथ पेड़-पौधों के प्रति प्रेम और आदर का पाठ पढ़ाते है। इसी प्रेम और आदरभाव से वृक्षों की सुरक्षा कर हम अपने जीवन में सुख, समृद्धि प्राप्त कर सकते है।

आज की सबसे बड़ी समस्या वनों के अस्तित्व की है। भोगवादी सभ्यता के पक्षधर सारी दुनिया में पेड़ को पैसे के पर्याय के रुप में देखते है, यही कारण है कि दुनिया का कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचा है जहां वृक्ष हत्या का दौर नहीं चल रहा हो। हमारे यहां सुखद बात यह है कि भारतीय संस्कृति की परंपरा वृक्षों के साथ सहजीवन की रही है। पेड़ संस्कृति के वाहक है। यहां प्रकृति की सुरक्षा से ही संस्कृति की सुरक्षा हो सकती है। इस कारण यहां जंभोजी महाराज की सीख है जिसमें कहा गया है कि सिर साटे रुख रहे तो सस्तो जाण, इसी क्रम में धराड़ी और ओरण जैसी परम्पराआें ने जातीय चेतना को प्रकृति चेतना से आत्मसात कर वृक्ष पूजा और वृक्ष रक्षा से जीवन में सुख-समृद्धि की कामना की है। आज इसी भावना को विस्तारित कर हम अपने भविष्य को सुरक्षित रख सकते है।

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तीखी होती चहचहाहट

हमारा आसपास

तीखी होती चहचहाहट

चिन्मय मिश्र

नेचर पत्रिका के एक आलेख के अनुसार गांवों की बनिस्बत शहरों में निवास करने वाली चिड़ियाआें की आवाज मंद, तीव्र और अधिक तीखी होती जा रही है। इसकी वजह शहरों में बड़ता शोर को ठहराया गया है। इस शोध में यह भी कहा गया है कि जिस चिड़िया की आवाज अभी भी धीमी है उसकी संप्रेक्षण की क्षमता समाप्त हो जाएगी। साथ ही जिस प्रजाति की चिड़ियाआें में ध्वनि की निंरतरता में कमी आ जाएगी वह धीमे-धीमे लुप्त भी हो जाएगी। कुछ चिड़ियाआें की यह विशेषता है कि वे अपने जन्म के पहले महीने में ही अपनी आवाज की मधुरता को पा सकती हैं और आज के शोर भरें वातावरण में यह संभव नहीं हो पा रहा है। रिपोर्ट में यह भी कहा है कि नर चिड़िया आवाज के माध्यम से ही अपने क्षेत्र की सुरक्षा करता है और अपनी सहधर्मिणी को आकर्षित कर पाता है, परंतु चौबीसों घण्टों लगातार होने वाले शोर से अब यह संभव नहीं रह पा रहा है।

चिड़िया हमारे पर्यावरण (आबो-हवा) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। साथ ही यह हमारे जीवन की सुकोमलता की अभिव्यक्ति भी है। कोयल जैसी आवाज या पपीहे के आलाप से हम अपनी भावना की अभिव्यक्ति करते हैं। परंतु बात चिड़िया पर आकर ही नहीं ठहर जाती। शोर से होने वाले प्रभावों का हम पर भी जो विपरीत प्रभाव पड़ता है, उस पर भी अनेक शोध हो चुके हैं। इसमें से अधिकांश शोध आधुनिक शहरों की सत्यता को हमारे सामने उद्घाटित भी करते हैं।

अपने आसपास के वातावरण के प्रति क्रूरता हमारा स्वभाव बनती जा रही हैं। इस संदर्भ में सबसे पहले हम हमारे आस-पास के धार्मिक स्थलों को ही लें। अनेक धार्मिक संस्थानों में अल-सुबह एकाएक लाऊड स्पीकर बजने लगता है। आप छटपटाकर उठ बैठते हैं। जहां पूर्व में धुंधलके में चिड़ियों के कोलाहल से आपको पता चलता था कि सुबह हो गई है, आप विशिष्ट चिड़िया की आवाज को पहचानते हुए उठते थे, साथ ही आपको यह भी पता चल जाता था कि आम में बौर आ गये हैं, क्योंकि कोयल कूक रही है। तोते सुबह की अपनी यात्रा पर निकल गये हैं। अब हमें भी उठ जाना चाहिये। सुकोमलता और माधुर्य से हमारा दिन प्रांरभ होता था, जो कि हमारे दिन भर के आचार व्यवहार में भी दिखाई देता था।

परंतु अब आप एकाएक चौंक कर किसी बेसुरी सी कर्कश व मर्मांतक शोर से एक झटके से उठ बैठते हैं। जो पहला भाव हमारे मन में आता है वह एक नये दिन के समुधुर आगाज का न होकर एक अजीब सी वितृष्णा का होता है, चिड़चिड़ाहट भरा होता है। एक ऐसा शोर जो पूर्णतया अनावश्यक है और जिसकी वजह से आप दिन भर दूसरों से भी माधुर्यपूर्ण नहीं रह पाते। यह सब उस धर्म के नाम पर होता है जो कि अपके जीवन को शांतिपूर्ण बनाने का दावा करता है। कुछ वर्ष पूर्व तक बेसुरी ही सही पर इन लाउड स्पीकरों पर कुछ सजीवता सुनाई पड़ जाती थी। परंतु आज तो अधिकांश स्थानों पर पूर्व रिकार्डेड कैसेस (सी.डी.) लगा दी जाती है जो भले ही कितनी ही सुर में हो पर सुबह के उस आत्मीय क्षण में तो बेहद बेसुरी ही प्रतीत होती है।

ऐसा नहीं हैं कि यह ध्वनि आपको सुबह जगाती भर हो। किसी धार्मिक स्थल से जुड़ा विवाह केन्द्र आपको रात को सोने नहीं देता। वहां पर रात भर जश्न मनता है। मानो वह जश्न दूसरों को सुनाने के लिये ही किया जा रहा हो। यानि रात में आप ठीक से सो नहीं सकते और सुबह एक कर्कश आवाज आपको उठा देगी। सर्वोच्च न्यायालय का इस संबंध में दिया गया फैसला कि रात्रि १० बजे से सुबह ६ बजे तक किसी प्रकार के ध्वनि-विस्तारक का प्रयोग नहीं होगा कूढ़े के ढेर में फेंक दिया गया है।

पिछले दिनांे इंदौर में दो व्यक्ति वाहनों में प्रयोग किये जा रहे प्रेशर हार्न से घबड़कार गिरने के बाद उन्हीं वाहनों से कुचल कर मर गये। जो हार्न व्यक्ति को सतर्क करने हेतु निर्मित किये गये हों उनसे ही अगर मृत्यु होने लग जाए तो यह गंभीर विमर्ष का मसला है। ये प्रेशर हार्न भी कानूनन तौर पर अवैध हैं। परंतु कमोवेश प्रत्येक व्यावसायिक वाहन में इनका प्रयोग किया जा रहा है। यह मात्र निजी वाहनों तक सीमित होता तो भी गनीमत थी। राज्य परिवहन की बसों और यहां तक कि पुलिस के कई वाहनों में इनका प्रयोग किया जा रहा है। नागरिकों की मृत्यु से भी अगर प्रशासन में इस विषय पर चैतन्यता नहीं आएगी तो इससे आगे का प्रयत्न तो भगवान (अगर इस शोर भरे संसार में आना चाहेंगे) ही कर सकते हैं।

अपने आसपास फैलते ध्वनि प्रदूषण के प्रति सजग न होने के परिणाम बहुत ही भयानक रुप में सामने आने प्रारंभ हो गये हैं। व्यक्तियों के चेहरों पर दिन-रात दिखाई देने वाले तनाव में कहीं न कहीं इस शोरगुल का भी महत्वपूर्ण योगदान है। चिड़िया तो एक प्रतीक भर है इस समस्या को समझाने का। दरअसल हम अपनी अगली पीढ़ी से इस शोर के माध्यम से उसकी निजता, उसकी सुबह, उसकी अंधखुली आंख, उसके सुरमय कान तो छीन ही रहे हैं उसी के साथ ही साथ हम अपना विवेक भी इस शोर को भंेट चढ़ा रहे हैं।

प्रसिद्ध शायर बशीर बद्र ने लिखा था,

ये एक पेड़ है आ इससे मिलके रो लें हम,

यहां से तेरे-मेरे रास्ते बदलते हैं।

अफसोस अब वह पेड़ भी नहीं बचा और हमारे और चिड़िया के रास्ते भी अब एक हैं। वह रास्ता एक जाने बूझे बहरेपन की ओर जाता है।

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