शनिवार, 28 अप्रैल 2007

ग्लोबल वार्मिंग : मिथ्या या सच्चाई ?

ग्लोबल वार्मिंग पर विशेष

ग्लोबल वार्मिंग : मिथ्या या सच्चाई ?

दीपक शिंदे

ग्रीन हाउस गैसों की चादर में तपती धरती के भविष्य की कल्पना ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। और क्यों नहीं ? इस कल्पना में एक हॉरर फिल्म की तरह रोमांच और उत्तेजना है। परन्तु क्या यह सही है ?

एन्थ्रोपोजेनिक ग्रीन हाऊस सिद्धांत के अनुसार अगली सदी के मध्य तक धरती के औसत तापमान में २ से ५ डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोत्तरी आंकी गई है। इस बढ़ोत्तरी, जो आज भी बदस्तूर जारी है, का कारण कार्बन डाईऑक्साइड का दुगना होना तथा अन्य ग्रीनहाउस गैसों (जैसे मीथेन, क्लोरो फ्लोरो कार्बन्स यानी सीएफसी तथा नाइट्रस ऑक्साइड) का वातावरण में शामिल होना है। विभिन्न मानव गतिविधियों, जैसे जीवाश्म इंर्धनों का जलना, जंगलों का विनाश तथा कृषि गतिविधियां आदि इन ऊष्मा को कैद करने वाली (ग्रीनहाऊस) गैसों के बनने के लिए उत्तरदायी हैं। इन ग्रीनहउस गैसों के उत्सर्जन को रोकना आवश्यक है।

ब्रिटेन के वित्त मंत्री गार्डन ब्राउन ने जुलाई २००५ में मौसम परिवर्तन के अर्थ शास्त्रीय पहलू पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने का दायित्व ब्रिटिश आर्थिक सेवा के प्रमुख सर निकोलस स्टर्न को सौंपा था। पिछले दिनों ७०० पृष्ठीय रिपोर्ट जारी हो गई है, जिसने दुनिया भर में खलबली मचा दी है। स्टर्न का भी यही कहना है कि आगामी वर्षो में ग्रीनहाउस गैसो के अत्यधिक उत्सर्जन के कारण धरती का तापमान २ से ५ डिग्री सेल्सियम तक बढ़ जाएगा। धरती की इस तपन से ३० प्रतिशत जमीन सूखाग्रस्त हो जाएगी। अनाज की पैदावार घटेगी जिसके चलते करोड़ों लोग भूखे रहने को मजबूर होंगे।

ग्लेशियर के तेज़ी से पिघलने से न्यूयार्क, लंदन, शंघाई, टोकियो, हांगकांग, मुम्बई व कोलकाता जैसे शहर समुद्रो का जल स्तर बढ़ने से डूबने की कगार पर होंगे। जीव जंतुआें की ४० प्रतिशत प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी। स्टर्न ने भविष्य की जो तस्वीर खींची है, वह रांेगटे खड़े कर देने वाली है। वैसे आलोचक कह रहे हैं कि ब्राउन ने पर्यावरण रक्षा के नाम पर नए कर लागू करने का आधार तैयार करने हेतु स्टर्न से अपनी मऱ्जी के मुताबिक रिपोर्ट तैयार करवाई है।

कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि धरती की यह तपन इतनी महत्वपूर्ण नहीं है। विज्ञान अभी भी निश्चितता से परे है और कम्प्यूटर साइंस की प्रगति के बावजूद जलवायु मॉडल्स अभी भी अविकसित हैं। जलवायु तथा तापमान के पुराने अभिलेख विसंगतियों से भरे हैं। लोग उस समस्या को हल करने में लगे हैं जिसका अस्तित्व ही नहीं है।

इसमें कोई विवाद नहीं है कि पृथ्वी से विकिरित ताप ग्रीनहाउस गैसों में कैद होकर वायुमण्डल के निचले भाग को गर्म करता है। किन्तु कुछ प्रश्न हैं जिन पर बहस जरुरी है। उदाहरणार्थ, ग्लोबल वार्मिंग कितनी तेज़ी से होगी और इसका भौगोलिक वितरण किस प्रकार हरेगा ? जलवायु की फीडबैक प्रणालियां क्या होंगी और वे धरती की इस तपन को कम करेंगी या बढ़ाएंगी? साथ ही कृषि, जलवायु एवं समुद्र के जलस्तर पर इस ग्लोबल वार्मिंग के क्या प्रभाव होंगे ? कुछ लोग वैकल्पिक ऊर्जा पर शोध व परिवर्तित ऊर्जा नीति में भारी निवेश का पक्ष लेते हैं। दूसरी ओर कुछ लोगों का यह भी कहना है कि उद्योगों से कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने या इसके पुन: चक्रण तथा जलवायु शोध जैसे संरक्षण के प्रयास तेज़ करना होंगे।

तापमान अभिलेख

पिछली सदी का तापमान अभिलेख कई विसंगतियों से भरा हुआ है जिनकी व्याख्या जलवायु मॉडल्स या ग्रीनहाउस सिद्धांत द्वारा नहीं की जा सकती। जैसे पिछले १०० वर्षो में पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि मॉडल्स द्वारा प्रदर्शित वृद्धि से काफी धीमी रही है। पिछली सदी में हुई वृद्धि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि से मेल नहीं खाती । सामान्यत: यह माना जाता है कि पिछले १०० वर्षोंा में कार्बन डाई ऑक्साइड का स्तर २८० पी.पी.एम. था जो वर्तमान में बढ़कर ४३० पी.पी.एम. हो चुका है । मीथेन की मात्रा दुगुनी हो चुकी है । सीएफसी कार्बन डाई ऑक्साईड की अपेक्षा अधिक प्रभावी है । इनकी मात्रा १९२० के बाद से तेजी से बढ़ी है । कार्बन डाईऑक्साइड की दुगुनी मात्रा के प्रभाव से पिछले १०० वर्षोंा में ध्रुवीय क्षेत्रों के तापमान में २-५ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होनी चाहिए थे, पर ऐसा नहीं हुआ ।

एरिज़ोना स्टेट यूनिवर्सिटी की जलवायु विज्ञान प्रयोगशाला के डायरेक्टर रॉबर्ट बेलिंग द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के कारण अधिक उग्र और भयंकर तूफान उत्पन्न होने की आशंका व्यर्थ है । उन्होंने तापमान तथा तूफानों की आवृत्ति में विपरीत सम्बंध पाया है । साथ ही उन्होंने तापमान बढ़ने से समुद्री जल स्तर बढ़ने के भय को भी निराधार बताया है ।

तापमान अभिलेख भूमि आधारित हैं तथा अधिकांश मानिटरिंग स्टेशन्स उत्तरी अमेरिका तथा ब्रिटेन जैसे देशों के शहरों एवं हवाई अड्डों के निकट स्थित थे । तापमान के मापन हेतु परंपरागत मर्करी थर्मामीटर का उपयोग किया गया था । ये विसंगतियां यहीं समाप्त नहीं होती है । अधिकतर मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि औसत भू-तापमान का विचार ही औचित्यहीन है । महत्वपूर्ण बात तो यह है कि धरती की यह तपन किस प्रकार से क्षेत्रीय रुप से वितरित होती है ।

दिन के तापमान में गिरावट

यह जानना काफी दिलचस्प होगा कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से , क्षेत्र विशेष के अनुसार , दिन का तापमान या तो अपरिवर्तित हुआ है या कम हुआ है जबकि रात के तापमान में अपेक्षाकृत वृद्धि हुई है । सैद्धांतिक रुप से , तपते विश्व में मिट्टी से पानी का अत्यधिक वाष्पीकरण सूखे के कारण होता है । हालांकि यदि दिन के तापमान में गिरावट एक सतत प्रवृत्ति है तब वाष्पीकरण की प्रक्रिया भी न्यूनतम होगी । इसके साथ ही दिन की तपन के ठंडे वातावरण में बहुत कम होगा और समुद्री जलस्तर बढ़ने की संभावना भी न्यूनतम होगी। १९८० के दशक में यू.एस.ए. में पड़ी रिकॉर्ड गर्मी ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण नहीं अपितु एल नीनो- सर्दन ऑसीलेशन (ई.एन.एस.ओ.) का परिणाम था । ऐसा विश्वास किया जाता है कि सौर विकिरण तथा ज्वालामुखीय गतिविधियों का प्राकृतिक रुप से घटना-बढ़ना भी पिछली सदी के तापमान के उतार-चढ़ाव हेतु मुख्य रुप से उत्तरदायी रहा है। १९४० से १९७० के बीच तापमान में गिरावट के लिए ज्वालामुखी सक्रियता के फलस्वरुप उत्पन्न वायुमण्डलीय धूल में वृद्धि को उत्तरदायी माना गया है। तापमान परिवर्तनों की अन्य व्याखाएं सूर्य के धब्बों, ग्रहों की कक्षा तथा पृथ्वी के झुकाव में उतार-चढ़ाव इत्यादि द्वारा की गई है।

अनिश्चित विज्ञान

मौसम वैज्ञानिक अक्सर फोर्सिंग्स और फीडबैक शब्दों का प्रयोग करते हैं। फोर्सिंग मौसम परिवर्तन का प्राथमिक कारण होता है तथा फीडबैक फोर्सिंग के विरुद्ध जलवायु तंत्र की प्रतिक्रिया है। ग्रीनहाउस सिद्धांत के अनुसार वायुमंडल में मानव जनित ग्रीनहाउस गैसों का बढ़ना प्राथमिक फोर्सिंग प्रक्रिया है जिसके परिणामस्वरुप ग्लोबल वार्मिंग होती हैं इस सिद्धांत पर बहस मूलत: भूमंडल, महासागरों, बादलों व जलवाष्प के फीडबैक पर केंद्रित है।

जलवायु की वर्तमान परिस्थितियों में बादलों का अपना शीतलन प्रभाव होता है। परंतु बादलों के फीडबैक की भविष्यवाणी एक ज़ोखिम भरा कार्य है। गहन शोध के बावजूद बादलों के निर्माण तथा ऊर्जा गतिकी के बारे में बहुत कम जानकारी है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार बादलों में केंद्रकों का निर्माण समुद्री प्लवकों द्वारा उत्पन्न सल्फर यौगिकों द्वारा होता है। विस्कोंसिन विश्वविद्यालय के रीड ब्रायसन के अनुसार ज्वालामुखीय धूल तथा कोयले के दहन से उत्पन्न वायुमंडलीय सल्फेट्स उच्च स्तरीय बादलों का कार्य करते हैं जो धरती को ठंडा रखने में मदद करते हैं। यदि यह सही है तो जीवाष्म इंर्धन के जलने का विपरीत प्रभाव होना चाहिए।

वास्तव में कार्बन डाईऑक्साइड के प्रभावों का आकलन पृथक रुप से न करते हुए सभी वायुमण्डलीय प्रदूषकों के साथ होना चाहिए। फीड बैक प्रक्रियाआें की जटिलता, महासागरों एवं वनस्पतियों से भी प्रदर्शित होती हैं । कार्बन डाईऑक्साइड प्रकाश संश्लेषण हेतु आवश्यक है। संभव है, इसकी बढ़ी हुई मात्रा से पौधों द्वारा कार्बन डाईऑक्साइड के अवशोषण की दर भी बढ़ जाए। वायुमण्डलीय तापमान पर महासागरों का शक्तिशाली प्रभाव होता है। जहां महासागरीय हवाएं पृथ्वी के बढ़ते तापमान को कम करने में सहायक है वहीं, महासागर कार्बन-सिंक की तरह कार्य करते हुए कार्बन डाईऑक्साइड की बढ़ी हुई मात्रा का अवशोषण करते हैं। साथ ही ये बादलों तथा जलवाष्प का निर्माण कर जलचक्र को भी प्रभावित करते हैं।

मॉडल्स की कमज़ोरियां

कम्प्यूटर मॉडल्स जिन पर मौसम की सभी भविष्यवाणियां आधारित हैं, वैज्ञानिकों के एक छोटे समूह द्वारा तैयार किए जाते हैं, जो यह मानते हैं कि वे उन सभी परिवर्तनों को पूरी तरह से नहीं समझते या पहचानते, जो मौसम को प्रभावित करते हैं। वर्तमान में जनरल सर्कुलेशन मॉडल अत्याधुनिक हैं । सुपर कम्प्यूटर्स एवं जलवायु की बेहतर समझ के बावजूद जलवायु मॉडलिंग अभी भी अपरिष्कृत और अविश्वसनीय है। दरअसल, अधिकतर मॉडल्स की शुरुआत एक सिद्धांत से होती है और इसको प्रबल करने के लिए आंकड़े विकसित किए जाते हैं और अपनी पसंद का कोई भी परिणाम इन मॉडल्स से प्राप्त किया जा सकता है।

अन्त में यही कहा जा सकता है कि ग्लोबल वार्मिंग कोई मनगढ़त किस्सा या कल्पना तो नहीं है, परन्तु इसे इतना बढ़ा-चढ़ा कर भी प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए।

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