शनिवार, 28 अप्रैल 2007

ज्ञान विज्ञान

१० ज्ञान विज्ञान

नॉन स्टिक फ्राइंग पैन में जहर !

आदमी कहाँ-कहाँ बचे और क्या-क्या न खाए इसकी सूची दिनों दिन लंबी होती जा रही हैं यहाँ तक कि नॉन स्टिक फ्राइंग पैन में भी जहर है। यह बाकायदा साबित हो चुका है और ऑस्ट्रेलिया में तो इस पर प्रतिबंध लग चुका है।

ऑस्ट्रेलिया के औद्योगिक रसायन नियामक एनआईसीएनएएस ने निर्माताआें से कहा है कि वे पीएफओए रसायन के प्रयोग पर रोक लगाए। अमेरिका की एन्वायरनमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (ईपीए) की सुश्री स्नेह सत्य का कहना है कि अध्ययन के मुताबिक रसायन जीवों और पर्यावरण में रहते हैं और ये धीरे-धीरे जहर का रुप ले लेते हैं। यह रसायन इतना घातक है कि इसके चूहों पर परीक्षण में पता चला कि चूहों की दूसरी पीढ़ी प्रभावित हो चुकी हैं इसी के बाद ऑस्ट्रेलिया में निर्माताआें को इस रसायन का उपयोग रोकने के निर्देश मिले हैं।

एनआईसीएनएएस का कहना है कि उद्योगों को चाहिए कि वे पीएफओए का विकल्प ढूँढे और ये ध्यान रखे कि वह इसी रसायन की भाँति जहरीला न हो। नेशनल टॉक्सिस्स नेटवर्क के डॉ. मैरियन लॉयड स्मिथ ने इस रसायन का प्रयोग नॉन स्टिक कुकवेयर में न करने का स्वागत किया है। जब ये शोध पेश किया गया, तब अनेक लोग चौंक गए। सुश्री स्नेह का कहना था कि कई गैर- सरकारी संगठन, अनुसंधानकर्ता और कुछ सरकारी अधिकारी इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि पीएफओए को एक कार्बनिक प्रदूषक के रुप में लिया जाना चाहिए। हालाँकि उन्होंने ये भी चिंता व्यक्त की कि भारत जैसे कई विकासशील देशें में इसका धड़ल्ले से उपयोग हो रहा हैऔर इसी के बने कुकवेयर निर्यात भी करते हैं।

इसमें परफ्लूरूलेनोइक एसिड (पीएफोए) उपयोग किया जाता है। इसके अलावा डाय, पेंट्स और फायर फाइटिंग फोम भी होता है इसी वजह से नॉन स्टिक कुकवेयर जहरीला हो जाता है।

हाल ही में अमेरिका के एन्वायरमेंटल सांइस एंड टेक्नॉलॉजी पत्रिका में कहा गया है कि खाना बनाने के दौरान जब नॉन स्टिक कुकवेयर गर्म होते हैं तो पीएफओए निकलकर खाने में मिलता हैं हालाँकि एनआईसीएनएएस का कहना है कि सामान्य तापमान पर नॉन स्टिक कुकवेयर का प्रयोग करने मे हानि नहीं है, लेकिन ज्यादा गर्म करने पर ये अपना दुष्प्रभाव छोड़ने लगता है। अब ऑस्ट्रेलिया में आयात होने वाले ऐसे उत्पादों पर निगाह रखी जा रही है, जिनमें पीएफओए प्रयोग किया जाता है।

मुंबई खतरनाक जोन में !

समुद्र किनारे बसे दुनिया के दो तिहाई शहरों पर डूबने का खतरा मंडरा रहा है। ग्लोबन वार्मिंग और बढ़ते समुद्रीय जल स्तर के कारण करोड़ों लोगों की जान मुश्किल में है। भारत का मंुबई शहर भी खतरनाक जोन की हद में आ चुका है। पर्यावरण विज्ञानियों द्वारा जारी एक रिपोर्ट में यह चौंकाने वाली जानकारी सामने आई है।

जर्नल इनवायारमेंट एंड अर्बनाइजेशन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार विश्व में वर्तमान स्थिति देखी जाए तो ये सभी शहर फिलहाल समुद्र की सहत से औसतन ३३ फुट ऊपर बसे हुए हैं। ग्लोबल वार्मिंग और समुद्र के बढ़ते जल स्तर के कारण समुद्र सतह और शहरों के बीच की दूरी कम हो रही है। कुछ शहर में यह दूरी तीन से पाँच फुट कम हो चुकी है। टोक्यो, न्यूयॉर्क, मुंबई, शंघाई, जकार्ता और ढाका सबसे खतरनाक जोन में हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनियाभर में समुद्र तटीय शहरों में बसे लोगों में से ७५ प्रतिशत केवल एशिया में हैं, खासकर कमजोर शहर ज्यादा मुश्किल में आ सकते हैं।

हालांकि रिपोर्ट में यह स्पष्ट रुप से नहीं बताया गया है कि ये शहर कितने वर्षो में डूब जाएँगे। लेकिन इस चेतावनी को कई देशों ने गंभीरता से लेते हुए जरूरी कदम उठाना शुरू भी कर दिए हैं। लंदन स्थित अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण एवं विकास संस्थान के गोर्डन मैकग्राहनन कहते हैं कि पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी और मौसम में बदलाव के कारण पृथ्वी पर कई वातावरणीय परिवर्ततन हो रहे हैं। यहाँ तक कि समुद्र का जल स्तर भी बढ़ने लगा है, क्योंकि धु्रवीय बर्फ पिघल रही है। यही हाल रहा तो एक न एक दिन समुद्र तटीय शहरों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इसके लिए अभी से कड़े कदम उठाने होंगे।

रिपोर्ट के आँकड़े बताते हैं कि १९९४ से २००४ के बीच एशिया महाद्वीप में बाढ़ के १५६२ मामले सामने आए, जो दुनियाभर का एक तिहाई है। इस कारण १ लाख २० हजार से ज्यादा लोगों की विभिन्न क्षेत्रों में मौत हुई। इसके अलावा वर्ष २००४ में हिंद महासागर में आई सुनामी के कारण दो लाख से ज्यादा लोग मौत के शिकार हुए।

रिपोर्ट में उत्तरी अमेरिका के दो सबसे बड़े शहरों लॉस एंजिल्स और न्यूयॉर्क को सर्वाधिक खतरे में बताया गया है। समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी और हिंसक तूफानों के कारण इन शहरों पर कहर बरपा सकता है। अमेरिका में पहले प्रत्येक १०० वर्षो बाद भयंकर बाढ़ आती रही है, जो वर्ष २०९० में आना थी, लेकिन बदलते पर्यावरण के कारण यह ३-४ साल के अंतर से आने लगी है।

इस प्रकार भविष्य में खतरा बढ़ने की संभावना है ।

क्या गिद्ध संकट से मुक्त हो गए हैं ?

पिछले कुछ वर्षो में गिद्दों की संख्या लगातार कम होते जाना चिंता का विषय रहा है। काफी अनुसंधान के बाद स्पष्ट हुआ था कि इसके लिए एक दर्द निवारक दवा डिक्लोफेनेक जवाबदेह है। डिक्लोफेनेक पशु चिकित्सा में उपयोग की जाती थी और गिद्ध इन पशुआें की लाशों पर ज़िन्दा थे। डिक्लोफेनेक उनके शरीर में पहुंचकर गुर्दोंा को हानि पहुंचाती है। डिक्लोफेनेक की भूमिका स्पष्ट होने के बाद भारत और नेपाल में इसके पशुआें में उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। मगर गिद्ध अभी पूरी तरह संकट मुक्त नहीं हुए हैं।

पता चला है कि इजिप्शीयन व रेड हेडेड गिद्ध भी उसी तरह के लक्षणों से ग्रस्त हैं और तेज़ी से मर रहे हैं। लगता है कि उनकी मौत के लिए भी डिक्लोफेनेक ही ज़िम्मेदार है। और यह भी पता चला है कि समस्या मात्र डिक्लोफेनेक की नही है।

आम तौर पर जब कोई नई दवा बनती है तो हम यह कभी पता नहीं करते कि मृतोपजीवी (मृतभक्षी) पक्षियों पर उसका क्या असर होगा। यही पता करने के लिए इंग्लैण्ड की रॉयल सोसायटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ बड्र्स ने दुनिया भर के चिड़ियाघरों और पशु चिकित्सकों से इस संदर्भ में अपने अनुभव बताने का आग्रह किया।

इस कवायद से एक बात तो यह साफ हुई कि भारत में डिक्लोफेनेक के स्थान पर मेलोक्सिकैम नामक जिस दवा का उपयोग किया जा रहा हैं, वह अधिकांश पक्षी प्रजातियों के लिए सुरक्षित है। बॉयोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन से पता चलता है कि युरोप में पशुआें के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दो औषधियां, फ्लुनिक्सिन और कार्प्रोफेन कई पक्षियों की मौत का कारण बनी हैं। इनमें गिद्ध, कन्डोर्स, हॉक्स, उल्लू तथा स्टोर्क शामिल है। अनुभव से लगता है कि शायद इबुप्रोफेन और फिनाइलब्यूटाज़ोन भी खतरनाक हो सकती हैं। इसके अलावा, आज भी दक्षिण अफ्रीका मे डिक्लोफेनेक का उपयोग जारी है और यह पक्षियों के लिए खतरनाक है। इस संबंध में विशेष अध्ययन होना अभी शेष है इसके बाद ही कुछ कहा जा सकेगा।

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