८ पर्यावरण परिक्रमा
बाघों से विहीन हो गया है माधव राष्ट्रीय उद्यान
मध्यप्रदेश में शिवपुरी के माधव राष्ट्रीय उद्यान के टाइगर सफारी में अब बाघों की दहाड़ सुनाई नहीं देगी, क्योंकि यहाँ की एकमात्र बाघिन भोपाल भेजी गई हैं।
उद्यान के सूत्रों ने बताया कि शुरु से ही टाइगर सफारी में रहने वाली बाघिन शिवानी अब उम्रदराज हो गई है, इसलिए उसे भोपाल के वन विहार में भेजा गया है। अब इस क्षेत्र में कोई बाघ नहीं बचा है।
सेंट्रल जू अथारिटी के निर्देश हैं कि दुर्लभ और वृद्धावस्था में आने पर तीन चार साल से अकेले रहने वाले जानवरों को उस स्थान पर भेजा जाए जहाँ उनकी प्रजाति के जीव हों।
तीन दशक पूर्व राष्ट्रीय उद्यान में टाइगर सफारी बनाकर उसमें पेटू बाघ और तारा बाघिन के जोड़े को रखा गया था। इनके एक दर्ज बच्चों में शिवानी भी शामिल हैं।
तारा और पेटू समेत उनके बच्चों को समय-समय पर अन्य स्थानों पर भेजा जा चुका है, केवल शिवानी ही बचीथी। सूत्रों ने बताया कि उद्यान में बाघों के जोड़े लाने की तैयारी की गई है और इस पर शीघ्र ही सरकार स्वीकृति मिलने की संभावना है।
मुंबई में पेड़ों की गिनती होगी
करीब नौ वर्ष के अंतराल के बाद बंबई महानगर पालिका (बीएमसी) शहर के पड़ों की गणना करेगी। गत वर्ष पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के विरोध में दायर एक जनहित याचिका में बीएमसी के वृक्ष प्राधिकारी ने अब जून २००७ तक इस कार्य को पूर्ण कर लेने की घोषणा की है।
बीएमसी द्वारा १९९८ में पेड़ों की गणना की गई थी जबकि महाराष्ट्र (शहरी क्षेत्र) प्रोटेक्शन एंड प्रिजर्वेशन ऑफ ट्रीज एक्ट (१९७५) के अनुसार यह गणना हर पाँच साल में एक बार होना चाहिए थी। बीएमसी ने एक निजी संगठन को शहर के हरियाली से आच्छादित क्षेत्र का विस्तृत ब्योरा तैयार करने का कार्य सौंपा है। एन्वायरन्मेंट एंड बॉयोटेक्नालॉजी फाउंडेशन (एन्बीटेक) नामक यह संस्था नासिक, थाणे व मीरा भायंगर में वृक्ष गणना कर चुकी हैं।
वर्तमान में एन्बीटेक के ३० उद्यानिकी विशेषज्ञों की टीम बारी-बारी से प्रत्येक वार्ड में निजी परिसरों व शासकीय भवन पर खड़े वृक्षों का सर्वे कर रही है।
वर्तमान सर्वेक्षण में हरित क्षेत्र के बढ़ने के आसार हैं क्योंकि सर्वेक्षण का दायरा बढ़ चुका है। पिछले सर्वेक्षण (१९९८) के केवल उन्हीं पेड़ो को गणना में शामिल किया गया था जिनके तने का व्यास ६ इंच से ज्यादा था और जो ४ फुट से ज्यादा ऊँचे थे जबकि वर्तमान गणना में डेढ़ इंच व्यास वाले पेड़-पौधे भी शामिल कर लिए गए हैं।
सर्वे टीम प्रत्येक पेड़ की मोटाई, ऊँचाई, आयु, स्थिति व संख्या व प्रजातीय विशेषता (दुर्लभ होना) आदि का पता लगा रही है। नगर निगम ने निजी संपत्ति को स्वामियों से सर्वेक्षण में सहयोग देने की अपील की है। पेड़ों की गणना से रोपित पौधों व पुराने दुर्लभ पेड़ों, बूढ़े वृक्षों, बीमार वृक्षों आदि की जानकारी एकत्रित हो जाएगी।
१९९८ की गणना के अनुसार मुंबई शहर में पेड़ो की संख्या ५ लाख है। उत्तर मुंबई के दहीसर वार्ड में सर्वाधिक ६१,००७ वृक्ष हैं। दक्षिण मंुबई के भांडुप वार्ड में ५६,७५९ तथा नागपाड़ा वार्ड में सबसे कम ११,६५२ पेड़ हैं। विलेपार्ले हिन्दू कॉलोनी दादर, पेड़ों की विभिन्नता की दृष्टि से समृद्ध क्षेत्र हैं। यहाँ स्थानीय नागरिकों द्वारा पेड़ों को संरक्षण भी दिया गया है।
कुछ सार्वजनिक क्षेत्रों जैसे एमजी रोड़, उन्नत नगर, यशवंत नगर, गोरेगाँव वार्ड में पुराने वृक्षों की संख्या काफी संतोषजनक है। मुंबई में निजी परिसरों में हरियाली ज्यादा है। गुलमोहर, आसापाला, करंज, अमलतास ज्यादा हैं निजी परिसरों में बड़, पीपल व जामुन के पेड़ ज्यादा हैं।
हाइड्रो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन को रोकने का आह्वान
एक प्रमुख पर्यावरण संगठन ने पूरी दुनिया के देशों से ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने वाली गैसों की बढ़ती मात्रा को रोकने के लिए एक नई संधि का आह्वान किया है क्योंकि क्योटो संधि ग्लोबल वार्मिंग को रोकने में काफी नहीं है।
पर्यावरण अन्वेषण एजेंसी ने कहा है कि राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी द्वारा बताए गए मौसम संरक्षण के उद्देश्य को पाने में मांट्रियल संधि का लक्ष्य क्योंटो संधि से कहीं आगे हैं। अध्ययन में यह भी कहा गया कि ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने वाली गैसों में सबसे खतरनाक हाइड्रो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (एचसीएफसी) ओजोन परत को सबसे अधिक नुकसान पहुॅंचाता है।
एजेंसी के अभियान निदेशक अलेक्जेंडर वान बिस्मार्क ने कहा कि अध्ययन में हाइड्रो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन को उत्पन्न होने से रोकने का आह्वान किया गया है जो ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करने का अभूतपूर्व रास्ता हो सकता है। पर्यावरण अन्वेषण एजेंसी ने कहा कि अगर एचसीएफसी को रोक दिया जाए तो २.७५ करोड़ टन कार्बन डाईऑक्साइड के पैदा होने पर रोक लगाई जा सकती है जो जैविक इंर्धन को जलाने से पैदा होती है।
एजेंसी के सुझाव के अनुसार अगर हाइड्रो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन के स्थान पर क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का रेफ्रिजेटर और एयर कंडीशनर में इस्तेमाल किया जाए जो ओजाने परत को कम नुकसान पहुँचाती है। मांट्रियल संधि में विकसित देशों द्वारा २०१५ तक हाइड्रो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध का लक्ष्य है जबकि विकासशील देशों को लिए यह लक्ष्य २०४० तक हैं।
देश में बूँद-बूँद पानी का संकट होगा
अगले चालीस साल में देश में बँूद-बँूद पानी का संकट होगा। यदि इस पर तत्काल काम नहीं किया गया तो हो सकता है कि आने वाले समय में सामाजिक ताना-बाना केवल पानी के कारण गड़बड़ा जाए।
यदि देश की सभी नदियाँ लबालब भरी रहें तो भी २०४५ तक देश की आबादी इतनी ज्यादा होगी कि इतना पानी भी जरुरत पूरी नहीं कर सकेगा। यह चेतावनी ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी के प्रो. जे.वुड ने की, वे ख्यात अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ हैं। उन्होंने नर्मदा बाँध विवाद पर भी पुस्तक लिखी है।
वे जल समस्या के राजनीतिक हल की बात करते हैं। राजनीतिक औजार के रुप में वे देश के जल न्यायाधिकरण की ओर इंगित करते हैं। नर्मदा मामले में उनका कहना है कि १९७८ में न्यायाधिकरण का फैसला अहम था। हालाँकि बाद में गुजरात और मध्यप्रदेश में पानी को लेकर विवाद की स्थिति बनी। इसके बाद अदालत से भी इसी तरह का आदेश पारित हुआ। वुड संेटर फॉर इंडिया एंड साउथ एशिया रिसर्च के संस्थापक निदेशक रह चुके हैं। शास्त्री इंडो-कैनेडियन इंस्टीट्यूट के स्थानीय निदेशक भी रह चुके हैं।
वे महात्मा गाँधी से भी प्रभावित रहे और उन्होंने गुजरात के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाया भी। १९६२ में वे नर्मदा बाँध के मामले से जुड़ेऔर इसमें सक्रियता से भाग लिया।
जलकुंभी की सब्जी से, कैंसर भगाइए !
क्या अपने कभी जलकुंभी की सब्जी खाई है ? अगर नहीं, तो इसे जरूर आजमाइए, क्योंकि जलकुंभी में कैंसर निरोधक तत्व पाए जाते है। शोधकर्ताआें का तो मानना है कि जलकुंभी को पका कर खाने की तुलना में उसे कच्चा खाना कहीं अधिक फायदेमंद है।
उल्लेखनीय है कि जलकुंभी यूरोप से लेकर मध्य एशिया और दक्षिण एशिया सभी क्षेत्रों में पाई जाती है। इतिहास इसका गवाह है कि प्राचीन काल में लोग इसकी पत्तियों और फूली हुई टहनियों की सब्जी बनाकर खाते थे। कुछ ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि यह इंसान द्वारा उपभोग में लाई जाने वाली सबसे पुरानी सब्जियों में से एक है।
अलस्टर विश्वविद्यालय के प्रमुख शोधकर्ता इयान रॉलैड के नेतृत्व में शोधकर्ताआें ने उन लोगों के रक्त नमूनों की जांच की जो जलकुंभी खाते रहे हैं। निष्कर्ष से पता चला कि जो लोग जलकुंभी खाते रहे हैं, उनके श्वेत रक्त कणिकाआें में डीएनए के क्षतिग्रस्त होने की दर सामान्य लोगों की तुलना में २३ फीसदी कम पाई गयी। डेली मेल अखबार के मुताबिक जिन लोगों में श्वेत रक्त कणिकाआें में डीएनए के क्षरण की दर अधिक होती है, उनके कैंसर की गिरफ्त में आने का खतरा अधिक होता है।
जब शोधकर्ताआें ने श्वेत रक्त कणिकाआें की कोशिकाआें पर फ्री रेडिकल के असर का आकलन किया तो यह निष्कर्ष सामने आया कि जो लोग जलकुंभी की सब्जी खाते रहे हैं, उनके फ्री रेडिकल के दुष्प्रभावों की चपेट में आने का खतरा १० फीसदी कम था। ऐसे लोगों के शरीर में एंटी-ऑक्सीडेंट की मात्रा में करीब १०० फीसदी की बढ़क्वोत्तरी दर्ज हुई।
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