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भारत में पवन ऊर्जा एक दुधारी तलवार
ऊवे होएरिंग
पवन ऊर्जा जहां एक ओर काफी हद तक पर्यावरण के अनुकूल है वहीं दूसरी ओर इसके कारण जमीनों का अभाव होता जा रहा है। इस वजह से दिहाड़ी और अकुशल श्रमिकों को कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने एक बार बड़े बांधो को आधुनिक भारत के तीर्थ कहा था। आज अगर वे जीवित होते तो भारत के पवन ऊर्जा के अनेक केन्द्रों को देखकर शायद उन्हें भावी भारत के पंख कहते।
भारत को आर्थिक और पर्यावरणीय दृष्टि से एक नई ऊर्जा नीति की जरूरत है। सार्वजनिक क्षेत्र में अरबों रुपये निवेश करने के बाद देश में जितनी बिजली का उत्पादन हो रहा है, वह वर्तमान आवश्यकता से १२ प्रतिशत कम है। साथ ही ८ प्रतिशत की विकास दर प्रतिवर्ष ऊर्जा की मांग बढ़ती जा रही है। तेजी से बढ़ता मध्यम वर्ग और फैलते उद्योग भी ऊर्जा की मांग बढ़ने के प्रमुख कारण हैं। केन्द्र सरकार ने सन् २००२ में इस संबंध में अपना महत्वाकांक्षी लक्ष्य घोषित करते हुए कहा था कि सन् २०१२ तक वह वर्तमान स्थापित क्षमता यानि एक लाख अठारह हजार मेगावॉट को दुगना कर देगी।
भारत में वर्तमान में आधी से अधिक बिजली कोयले जैसे प्रदूषणकारी स्त्रोत से बनाई जा रही है, जिसके कारण भारत विश्व के सबसे अधिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करने वाले देशों में चौथे स्थान पर आ गया है। सरकार द्वारा सन् १९९२ में गैर-पारंपरिक ऊर्जा मंत्रालय की स्थापना का स्वागत करते हुए बहुत से पर्यावरणविदों ने कहा था कि यह सुरक्षित, स्वच्छ और हरित ऊर्जा की दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम है। पवन ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए अनेक प्रकार की सब्सिडी और प्रोत्साहन विशेषत: निजी क्षेत्र के निवेशकों को देने की घोषणा भी हुई है।
महाराष्ट्र और तमिलनाडु पवन ऊर्जा का प्रसार करने वालों में अगुआ बनें और आज वहां पवन ऊर्जा के बड़े-बड़े केन्द्र स्थापित हैं। हवादार भौगोलिक स्थिति और बरसात के मौसम में तेज बहती हवा के विशाल क्षेत्र एवं सुविकसित आधारभूत ढाँचे का इन दोनों प्रदेशों ने भरपूर लाभ उठाया है। उदाहरण के लिए उपमहाद्वीप के दक्षिणी छोर पर तमिलनाडु के भुप्पाण्डल क्षेत्र में साठ हजार एकड़ भू-भाग पर लगाई गई हजारों टरबाईन कुल मिलाकर ५४० मेगावॉट बिजली उत्पन्न करती है। महाराष्ट्र के विद्युत नियामक आयोग द्वारा हरित ऊर्जा के लिये विशेष शुल्क की घोषणा करते हुए निवेशकों को पूंजी पर १६ प्रतिशत लाभ की गांरटी प्रदान की हैं ।
निजी निवेशकों के रूप में स्वतंत्र ऊर्जा उत्पादकों तथा उपकरण निर्माताआें ने पवन ऊर्जा केन्द्रो का संचालन आरंभ भी कर दिया है। फलस्वरूप स्थापित क्षमता में अत्यधिक वृद्धि हुई है। सन् २००५ में ही ५० प्रतिशत वृद्धि के साथ यह क्षमता ४४३४ मेगावॉट हो गई। इसमें आधे से अधिक हिस्सा तमिलनाडु का है। जर्मनी, स्पेन और अमेरिका के बाद इस क्षेत्र में भारत का स्थान विश्व में चौथा है।
भारत में पवन ऊर्जा को भी पीछे छोड़ दिया हैं । परमाणु ऊर्जा आयोग की वेबसाईट के अनुसार भारत में उसकी वर्तमान क्षमता २७१० मेगावॉट है। जबकि ताजा अनुमान के अनुसार भारत में पवन ऊर्जा की वर्तमान क्षमता पैतालिक हजार मेगावॉट हे। संशोधित तकनीक की मदद से इसमें और अधिक वृद्धि की संभावना है।
इस नीति ने देशज उद्योगों के विकास को भी प्रोत्साहित किया है। टॉवर, पं खकी पत्तियां, , जनरेटर और गियर बॉक्स बनाने वालों के पास बड़ी मात्रा में कार्य पहुंचा है। ग्राहकां को अपनी ओर खींचने के लिये उत्पादनकर्ता लुभावनी योजनाएं पेश कर रहे हैं, जैसे तत्काल उपयोग के लिए उपकरण उपलब्ध कराना और बिक्री पश्चात् सेवाएं और प्रबंध आदि। इनेरकॉन, वेस्टास, जी.ई.विण्ड जेसी इस क्षेत्र की सभी बड़ी कंपनियां भारत पहुंच चुकी हैं और उनमें से अधिकाशं अपनी उत्पादन क्षमता में विस्तार भी कर रही हैं। इस क्षेत्र की भारतीय कंपनी सुजलान अब दुनिया की १० बड़ी पवन ऊर्जा कंपनियों में शामिल हो गयी है और वह चीन तथा अन्य देशों में अपने कार्यालय खोल रही है।
चुनौतियां और चिंताएं :-
यद्यपि ताप, जल और परमाणु ऊर्जा के मुकाबले पवन ऊर्जा से कम कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं, तथापि भारत में इसकी कुछ खामियां मौजूद हैं। सबसे पहली खामी यह है कि यह उन्हीं दिनों काम करती है, जिन दिनों तेज हवा चलती है, जैसे कि महाराष्ट्र में वर्षा ऋतु में अर्थात् मई मध्य से सितम्बर मध्य तक। इसके अलावा देश की पवन ऊर्जा की कुल स्थापित क्षमता का २६ प्रतिशत हिस्सा तमिलनाडु में होने के बावजूद कुल उत्पादन में उसका हिस्सा केवल ५ प्रतिशत ही है।
गरीबों को बिजली मुहैया कराने के लिये भी पवन ऊर्जा के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ करना बाकी है। पवन ऊर्जा के बड़े केन्द्रों से बिजली ग्रिड से होते हुए शहरों और उद्योगों तक पहुंच जाती है। समय आ गया है कि अब बिजली की आधुनिक सुविधाआें से वंचित ग्रामीण गरीबों के लिये अक्षय ऊर्जा स्त्रोतों तथा जैविक छोटी पवन-चक्की, सौर और लघु-जल बिजली संयंत्रों जैसे स्थानीय रूप से उपलब्ध ऊर्जा स्त्रोतों की पृथक ग्रिड के माध्यम से बिजली पहुंचाई जानी चाहिये। हालांकि पवन ऊर्जा की सफलता में निजी क्षेत्र का बड़ा योगदान है परंतु उसके लिये इस योजना में मुनाफा कमाने की संभावना अधिक नहीं है।
दूसरी समस्या उपयुक्त स्थान की उपलब्धता है। ऐसे स्थान लगातार कम होते जा रहे हैं, जहां पर्याप्त तेज गति से हवा बहती हो और आवागमन आसान हो। दूसरी ओर पहुंच वाले क्षेत्रों में जमीनों की कीमतें आसमान छू रही हैं। तमिलनाडु में पिछले कुछ ही वर्षो में जमीनों की कीमतों में २० गुना तक का इजाफा हुआ है। छोटे किसान, कारीगर और दिहाड़ी के मजदूर जैसे गरीब तबके उपेक्षा का शिकार होकर हाशिये पर सिमटते जा रहे हैंओैर जमीन तथा उत्पादन के संसाधन उनकी पहुंच से बाहर होते जा रहे हैं। इस दबाव के चलते निवेश और निर्माण करने वाली निजी कंपनियां जब महंगे दामों पर जमीन खरीदने को तैयार होंगी तो जमीनों की कीमतें और बढ़ेगी। परिणामस्वरुप ज्यादा किसान पवन ऊर्जा का उत्पादन करने के लिये अपने उपजाऊ खेत बेचने को प्रेरित होंगे।
अन्तत: गैर-पांरपरिक ऊर्जा के लिये स्वतंत्र मंत्रालय की स्थापना और पवन ऊर्जा को एक आकर्षक व्यापारिक निवेश के अवसर के रूप में प्रस्तुत करने के लिये कुछ बेहतरीन नीतियों व आर्थिक प्रोत्साहन के बावजूद समुची ऊर्जा नीति में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है। सन् २०१२ तक पारंपरिक स्त्रोतों से बासठ हजार मेगावॉट अतिरिक्त बिजली उत्पादन प्रस्तावित है। बिजनेस स्टैण्डर्ड पत्रिका के फरवरी २००६ के अंक के अनुसार इसमें से अड़तीस हजार मेगावॉट कोयला आधारित परियोजनाआें से, सोलह हजार मेगावॉट जल-विद्युत, छ: हजार मेगावॉट गैस/तरल प्राकृतिक गैस से और तीन हजार मेगावॉट परमाणु बिजलीघरों से बनाई जायेगी। इसकी तुलना में सन् २०१२ तक अक्षय ऊर्जा स्त्रोतों से बारह हजार मेगावॉट अतिरिक्त विद्युत उत्पादन का लक्ष्य युक्तिसंगत नजर नहीं आता है।
देश की सार्वजनिक संपत्ति पर भार डाले बगैर पवन ऊर्जा को मिली सफलता की तुलना यदि ताप, जल और परमाणु बिजली को मिलने वाली सब्सिडी एवं सार्वजनिक निवेश से की जाए तो स्पष्ट होगा कि यह सस्ती एवं किफायती हैं। इस पर दी जाने वाली प्रत्यक्ष सब्सिडी और वित्तीय प्रोत्साहन भी क्रमश: घटता जाएगा। महाराष्ट्र ऊर्जा विकास एजेंसी के निदेशक जी.एम.पिल्लई ने दो वर्ष पूर्व कहा था, अगले तीन-चार वर्षो में पवन ऊर्जा पूरी तरह से व्यवहार्य हो जाएगी। असल में यह अन्य स्त्रोतों की तुलना में सस्ती हैं। दरअसल इसके सस्ते होने के कारण हैं - लागत पूंजी में कमी और तकनीकी विकास के साथ-साथ क्षमता में सुधार होना।
यदि भारत को विश्व में स्वच्छ ऊर्जा उत्पादकों में अग्रणी बनना है, तो उसे कोयला एवं बड़ी पन-बिजली परियोजनाआें में उपयुक्त कटौती करके पवन तथा ऊर्जा के अन्य अक्षय स्त्रोतों से अधिक बिजली बनाने का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। ***
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