शनिवार, 28 अप्रैल 2007

तीखी होती चहचहाहट

हमारा आसपास

तीखी होती चहचहाहट

चिन्मय मिश्र

नेचर पत्रिका के एक आलेख के अनुसार गांवों की बनिस्बत शहरों में निवास करने वाली चिड़ियाआें की आवाज मंद, तीव्र और अधिक तीखी होती जा रही है। इसकी वजह शहरों में बड़ता शोर को ठहराया गया है। इस शोध में यह भी कहा गया है कि जिस चिड़िया की आवाज अभी भी धीमी है उसकी संप्रेक्षण की क्षमता समाप्त हो जाएगी। साथ ही जिस प्रजाति की चिड़ियाआें में ध्वनि की निंरतरता में कमी आ जाएगी वह धीमे-धीमे लुप्त भी हो जाएगी। कुछ चिड़ियाआें की यह विशेषता है कि वे अपने जन्म के पहले महीने में ही अपनी आवाज की मधुरता को पा सकती हैं और आज के शोर भरें वातावरण में यह संभव नहीं हो पा रहा है। रिपोर्ट में यह भी कहा है कि नर चिड़िया आवाज के माध्यम से ही अपने क्षेत्र की सुरक्षा करता है और अपनी सहधर्मिणी को आकर्षित कर पाता है, परंतु चौबीसों घण्टों लगातार होने वाले शोर से अब यह संभव नहीं रह पा रहा है।

चिड़िया हमारे पर्यावरण (आबो-हवा) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। साथ ही यह हमारे जीवन की सुकोमलता की अभिव्यक्ति भी है। कोयल जैसी आवाज या पपीहे के आलाप से हम अपनी भावना की अभिव्यक्ति करते हैं। परंतु बात चिड़िया पर आकर ही नहीं ठहर जाती। शोर से होने वाले प्रभावों का हम पर भी जो विपरीत प्रभाव पड़ता है, उस पर भी अनेक शोध हो चुके हैं। इसमें से अधिकांश शोध आधुनिक शहरों की सत्यता को हमारे सामने उद्घाटित भी करते हैं।

अपने आसपास के वातावरण के प्रति क्रूरता हमारा स्वभाव बनती जा रही हैं। इस संदर्भ में सबसे पहले हम हमारे आस-पास के धार्मिक स्थलों को ही लें। अनेक धार्मिक संस्थानों में अल-सुबह एकाएक लाऊड स्पीकर बजने लगता है। आप छटपटाकर उठ बैठते हैं। जहां पूर्व में धुंधलके में चिड़ियों के कोलाहल से आपको पता चलता था कि सुबह हो गई है, आप विशिष्ट चिड़िया की आवाज को पहचानते हुए उठते थे, साथ ही आपको यह भी पता चल जाता था कि आम में बौर आ गये हैं, क्योंकि कोयल कूक रही है। तोते सुबह की अपनी यात्रा पर निकल गये हैं। अब हमें भी उठ जाना चाहिये। सुकोमलता और माधुर्य से हमारा दिन प्रांरभ होता था, जो कि हमारे दिन भर के आचार व्यवहार में भी दिखाई देता था।

परंतु अब आप एकाएक चौंक कर किसी बेसुरी सी कर्कश व मर्मांतक शोर से एक झटके से उठ बैठते हैं। जो पहला भाव हमारे मन में आता है वह एक नये दिन के समुधुर आगाज का न होकर एक अजीब सी वितृष्णा का होता है, चिड़चिड़ाहट भरा होता है। एक ऐसा शोर जो पूर्णतया अनावश्यक है और जिसकी वजह से आप दिन भर दूसरों से भी माधुर्यपूर्ण नहीं रह पाते। यह सब उस धर्म के नाम पर होता है जो कि अपके जीवन को शांतिपूर्ण बनाने का दावा करता है। कुछ वर्ष पूर्व तक बेसुरी ही सही पर इन लाउड स्पीकरों पर कुछ सजीवता सुनाई पड़ जाती थी। परंतु आज तो अधिकांश स्थानों पर पूर्व रिकार्डेड कैसेस (सी.डी.) लगा दी जाती है जो भले ही कितनी ही सुर में हो पर सुबह के उस आत्मीय क्षण में तो बेहद बेसुरी ही प्रतीत होती है।

ऐसा नहीं हैं कि यह ध्वनि आपको सुबह जगाती भर हो। किसी धार्मिक स्थल से जुड़ा विवाह केन्द्र आपको रात को सोने नहीं देता। वहां पर रात भर जश्न मनता है। मानो वह जश्न दूसरों को सुनाने के लिये ही किया जा रहा हो। यानि रात में आप ठीक से सो नहीं सकते और सुबह एक कर्कश आवाज आपको उठा देगी। सर्वोच्च न्यायालय का इस संबंध में दिया गया फैसला कि रात्रि १० बजे से सुबह ६ बजे तक किसी प्रकार के ध्वनि-विस्तारक का प्रयोग नहीं होगा कूढ़े के ढेर में फेंक दिया गया है।

पिछले दिनांे इंदौर में दो व्यक्ति वाहनों में प्रयोग किये जा रहे प्रेशर हार्न से घबड़कार गिरने के बाद उन्हीं वाहनों से कुचल कर मर गये। जो हार्न व्यक्ति को सतर्क करने हेतु निर्मित किये गये हों उनसे ही अगर मृत्यु होने लग जाए तो यह गंभीर विमर्ष का मसला है। ये प्रेशर हार्न भी कानूनन तौर पर अवैध हैं। परंतु कमोवेश प्रत्येक व्यावसायिक वाहन में इनका प्रयोग किया जा रहा है। यह मात्र निजी वाहनों तक सीमित होता तो भी गनीमत थी। राज्य परिवहन की बसों और यहां तक कि पुलिस के कई वाहनों में इनका प्रयोग किया जा रहा है। नागरिकों की मृत्यु से भी अगर प्रशासन में इस विषय पर चैतन्यता नहीं आएगी तो इससे आगे का प्रयत्न तो भगवान (अगर इस शोर भरे संसार में आना चाहेंगे) ही कर सकते हैं।

अपने आसपास फैलते ध्वनि प्रदूषण के प्रति सजग न होने के परिणाम बहुत ही भयानक रुप में सामने आने प्रारंभ हो गये हैं। व्यक्तियों के चेहरों पर दिन-रात दिखाई देने वाले तनाव में कहीं न कहीं इस शोरगुल का भी महत्वपूर्ण योगदान है। चिड़िया तो एक प्रतीक भर है इस समस्या को समझाने का। दरअसल हम अपनी अगली पीढ़ी से इस शोर के माध्यम से उसकी निजता, उसकी सुबह, उसकी अंधखुली आंख, उसके सुरमय कान तो छीन ही रहे हैं उसी के साथ ही साथ हम अपना विवेक भी इस शोर को भंेट चढ़ा रहे हैं।

प्रसिद्ध शायर बशीर बद्र ने लिखा था,

ये एक पेड़ है आ इससे मिलके रो लें हम,

यहां से तेरे-मेरे रास्ते बदलते हैं।

अफसोस अब वह पेड़ भी नहीं बचा और हमारे और चिड़िया के रास्ते भी अब एक हैं। वह रास्ता एक जाने बूझे बहरेपन की ओर जाता है।

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