शनिवार, 28 अप्रैल 2007

जलवायु परिवर्तन का जिम्मेवार कौन हैं ?

ग्लोबल वार्मिंग पर विशेष

जलवायु परिवर्तन का जिम्मेवार कौन हैं ?

कमलेश कुमार दीवान

आज के विज्ञान और वैज्ञानिक चिंतन की दिशाएं मानव प्रवृत्तियों से हो रहे विनाश की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं।

पृथ्वी की जलवायु में हो रहे परिवर्तनों का अध्ययन करने हेतु वैज्ञानिक प्रयास चल रहे हैं। विश्वभर में हो रहे जलवायु सम्मेलनों में अपनी चिंताआें को प्रकट करते वैज्ञानिक मानवीय गतिविधियों को ही ग्लोबल वार्मिग के लिए जिम्मेवार मान रहे हैं। सवाल यह है कि एक समय हमारी पृथ्वी हिम के आवरण में ही थी। मानवीय जीवन की गैर मौजूदगी के बाद भी बर्फ पिघली, जलवायु परिवर्तन हुए, अन्य अनेक जीव-जंतुआें के साथ सृष्टि में मानव जीवन का सृजन हुआ और बहुआयामी जैव विविधताएं पनपी और विकसित हुइंर्। तो आज मात्र मानव को ही कठघरे में क्यों खड़ा किया जा रहा है ? जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित आई.पी.सी.सी. पेनल की रिपोर्ट, बर्फ पिघलने से लेकर समुद्री जलस्तर बढ़ने, तापमान बढ़ने एवं तूफानों तक सभी के लिए मानवीय गतिविधियों को ही प्रमुख प्रमुख रुप से जिम्मेवार बता रही है। तो क्या यह सब पर्यावरण से संबंधित राजनीति एवं व्यापार का हिस्सा है ? या फिर वास्तव में ये सामान्य सी प्राकृतिक प्रक्रियाएं हैं ?

पेरिस में आयोजित जलवायु से संबंधित सम्मेलन कोई नई बात सामने नहीं रख पाया। इससे भी कमोवेश वे ही निष्कर्ष निकाले गये जो कि पूर्व में संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट में थे।

लगता है कि विश्व के तापमान में बढ़ोत्तरी और कमी के एकमात्र कारण मानवीय गतिविधियां ही नहीं हो सकती ? यह एक प्राकृतिक चक्र है और वैज्ञानिकों द्वारा अनुमानित की जा रही तापमान बढ़ने की दर संभवत: सामान्य ही हो। हमें याद रखना चाहिए कि सूर्य की सतह और केन्द्रीय भाग में हो रहे विस्फोट भी, सूर्य प्रकाश की विकिरण की दर में प्रति वर्ग सेंटीमीटर प्रतिमिनिट की वृद्धि कर सकते हैं। सिंचाई की आधुनिक पद्धतियों से व्यापक पैमाने पर जमीन से सीधे हो रहे वाष्पीकरण की मात्रा वायुमंडल में विद्यमान होते रहने के कारण भी निचले स्तर में उष्मा का मान अधिक आ रहा है । वायुमंडल की निचली सतहों के तापमान में बढ़ोतरी का एक कारण सीमंेट कांक्रीट के आधुनिक निर्माण भी हो सकते हैं । अर्थात् केवल ग्रीन हाउस गैसों का अधिक उत्सर्जन पृथ्वी के तापमान में बढ़ोत्तरी नहीं कर सकता। इसमें वायुमंडलीय तत्वों को प्रभावित करने वाला समुच्च भी सम्मिलित है।

प्रश्न यह है कि क्या वैज्ञानिक अध्ययनों से जल्दी-जल्दी निकाले जा रहे निष्कर्षो से जिस तरह के भय सृजित किए जा रहे हैं वास्तव में वे कितने स्थाई और विश्व की विकास प्रक्रिया को लगाम लगाने वाले साबित हो सकते हैं, यह तो समय आने पर ही ज्ञात हो पाएगा। किंतु जो अनुमान लगाए जा रहे हैं या जो आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं वे सभी पूर्ण प्रमाणिक और संदेह से परे हों, ऐसा भी नहीं है। विज्ञान तर्क प्रमाणिक और संदेह से परे हों, ऐसा भी नहीं है। विज्ञान में तर्क और तथ्य, विचार और प्रति-विचार, विश्वास और संदेह सभी का अस्तित्व है। तब हमें सोचना चाहिए कि क्या वर्तमान में जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रसारित किए जा रहे सभी तथ्यों को हम सब उसके संपूर्ण आयामों से देख सकते हैं ?

आज से हजारों- लाखों वर्ष पूर्व मनुष्य के अविर्भाव की संकल्पनाएं वैज्ञानिकों द्वारा दी गई हैं। पृथ्वी पर हिमयुग के निशान अब भी मौजूद हैं। अर्थात् हमारी धरती का एक बड़ा भाग बर्फ की मोटी चादरों में ढंका हुआ था। पर वह परत मानव जीवन कल कारखाने या मानवीय गतिविधियों के बगैर भी पिघल गई। जमीन निकली, नवीन जीव-जंतुआें की सृष्टि हुई। महाद्वीप और महासागरों ने आकार पाए। पृथ्वी पर आने वाले सौर्यिक विकिरण की दर में परिवर्तन होते रहे हैं और उसका कारण कभी सौर कलंको की घटती बढ़ती संख्या रही है या कहीं पर ज्वालामुखियों के बड़े विस्फोट या अन्य प्राकृतिक कारण हो सकते हैं, जिसमें धूमकेतु और उलका पिंडों के उत्पात भी आते हैं।

यदि हम प्रचारित किए जा रहे वैज्ञानिक तथ्यों से अलहदा जलवायु तत्वों का सूक्ष्म अवलोकन करें तब हमें यही लगता है कि पृथ्वी के वायुमंडल में गैसों के उत्सर्जन को समायोजित करने की क्षमताएं मौजूद हैं और समूची विश्व की आबादी मिलकर जितनी मात्रा में वायुमंडल को तथाकथित रुप से खराब कर रही है उससे कहीं अधिक मात्रा में एक ज्वालामुखी का विस्फोट गैसों को वायुमंडल में प्रसारित कर सकता है। आशय यह है कि यह प्रकार का भय फैलाने का उपक्रम भी हो सकता है जिसमें विकसित देशों द्वारा प्रायोजित रणनीतियां शामिल हों, जो व्यापारिक एकाधिकारवाद की प्रवृत्तियों से तीसरी दुनिया पर थोपी जा रही हैं।

विश्व के तापमान में बढ़ोत्तरी या कमी के लिए एक प्राकृतिक चक्र सदैव से अस्तित्व में है। तापमान बढ़ोत्तरी की यह अनुमानित दर तापमान बढ़ने की एक सामान्य दर भी हो सकती है। हां, स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव नकारें नहीं जा सकते हैं, पर यह देखना समीचीन होगा कि पूर्व वर्षो में विश्व में ज्ञात इतिहास का सर्वाधित ठण्डा मौसम यूरोप में रहा और राजस्थान के रेगिस्तानों या न्यूनतम वर्षा वाले क्षेत्रों में सर्वाधिक वर्षा हुई।

हमें यह भी देखना होगा कि मानसूनी हवाआें का विचलन क्या इराक में लाखों टन बारुद गिराए जाने से हुआ है या पोखरण में परमाणु विस्फोटों के परिणाम स्वरुप हुआ है अथवा इसकी पृष्ठभूमि में क्या कोई अन्य कारण भी मौजूद हैं। किंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि रेगिस्तानी भूमि पर वर्षा, बर्फ से ढंके क्षेत्रों पर भूमि का उभरना, उच्च अक्षांशों में अत्यधिक ठंड पड़ना, ध्रुवीय क्षेत्रों से हिम शिलाआें का टूटकर महासागरों में आना एक प्रकार का प्राकृतिक चक्र भी हो सकता है। जब हम इसे मात्र अभिशाप, विनाश या तबाही से जोड़कर देखते हैं तब हम प्रकृति की संरचनात्मक प्रक्रियाआें को सामान्यतया नजर अंदाज करते हैं।

हमें कुछ और पर्यवेक्षकों द्वारा किए जा रहे अन्वेषणों पर भी ध्यान देना चाहिए जैसे प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी मार्कोस रेस बताते हैं कि बहुत कड़ाके की ठंड ओजोन परत के लिए खतरा है। उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में २००४-०५ का मौसम स्टेटोस्फीयर में सबसे ठंडा रहा है। ओजोन संहारक रासायनिक क्रियाआें से उत्तरी ध्रुव की अपेक्षा दक्षिणी ध्रुव अंटार्कटिका के हालात अधिक खराब हैं। प्रश्न यही हे कि वहां मानव जीवन ओर उसके क्रिया कलापों की अधिकता नहींं हैंजहां ओजोन परत क्षीणता अधिक देखी जा रही है। अमेरिका के ओजोन परत विशेषज्ञ रास सालविच बताते हैं कि वातावरण में कार्बन डाईआक्साइड बढ़ने से वायुमंडल की ऊपरी परतें ठंडी होने लगती हैं, जिससे डरने की जरुरत नहीं हैं।

इसी प्रकार म.प्र. के ग्वालियर निवासियों ने नवम्बर माह में एक अद्भुत खगोलीय घटना का अवलोकन किया है। जिसमें उन्होंने सौर्यिक विकिरण के साथ सूर्य के धरातल पर विस्फोट होते हुए देखा। मतलब यही कि यह वायुमंडल मौसम के कई तत्वों का समुच्य है जिसकी दीर्घकालिक स्थितियां जलवायु का निर्धारण करती हैं। अतएव हमें जल,थल, वायु और आकाश के साथ पृथ्वी के आंतरिक भाग में हो रही गतिविधियों को भी समन्वित कर देखना चाहिए था। किंतु जलवायु परिवर्तन पर पेरिस में आयोजित अंतर सरकार पेनल (आईपीसीसी) ने विश्व की आबादी के सामने अनेक प्रकार के भय परोस दिए हैं। तापमान की बढ़ोत्तरी के लिए ९० प्रतिशत मानवीय गतिविधियों को जिम्मेवार बताकर विश्व के अनेक भू-भागों की सरकारों को कटघरे में खड़ाकर उन्हें चेतावनी दी गई है।

इस संबंध में निम्न बिंदु विचारणीय है -

१. तापमान बढ़ने से वायुमंडल के आयान कणों पर भी प्रभाव होता और वे फैलकर रेडियों तरंगों के प्रसारण में बाधा बनते, पर ऐसा क्यों नहीं हो रहा है ?

२. पृथ्वी पर बहुआयामी वायुमंडलीय विविधताएं हैं। भू-भाग के २० प्रतिशत हिस्से पर किए गए अध्ययनों के परिणामों से ८० प्रतिशत शेष क्षेत्रों के बारे में राय जाहिर करना उचित नहीं है।

३. प्रशांत तटीय ज्वालामुखी क्षेत्र अग्निवलय और अन्य क्षेत्रों में पृथ्वी के आंतरिक भाग से फूटते ज्वालामुखी मानवीय क्रियाकलापों से कई गुनी अधिक जहरीली गैसें वायुमंडल में उड़ेल रहे हैं और उन्हें रोका नहीं जा सकता है। ऐसे में हम मात्र कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ने और ग्रीन हाउस प्रभाव के भीषण दुष्परिणाम से जनमानस को क्यों डराने में लगे हुए हैं ?

४. सौर्यिक विकिरण को अवशोषित करने वाले उत्प्रेरक पदार्थो (जैसे सीमेंट-कांक्रीट) आदि से अधोसंरचित धरातलीय भू-भाग अप्राकृतिक रुप से बदल गए हैं। ये अधिक मात्रा में विकिरण अवशोषित कर निचले वायुमंडल में ऊँचा तापमान बनाएं रखते हैं। गौरतलब है कि ग्रामीण प्रेक्षण शालाएं सीमेंट कांक्रीट से घिरे हुए क्षेत्रों में ही स्थापित होती हैं।

५. नदियों द्वारा महासागरों को स्वच्छ जल की आपूर्ति में भी कमी हुई है और बढ़ते सिंचाई क्षेत्रों से सीधे वाष्पीकरण में अधिकता आई है। अतएव मात्र समुद्री जलस्तर बढ़ना कैसे संभव हैं ?

निष्कर्ष यही है कि हमें तथाकथित ग्लोबल वार्मिंग के भय को नहीं फैलाना चाहिए। जलवायु के तत्व में दीर्घकालिक परिवर्तन मानवीय अनुक्रियाआें के बगैर भी होते रहे हैं। इस प्रक्रिया को सामान्य और सहजता से स्वीकार करते हुए हमें कुछ रासायनिक तत्वों और रेडियो सक्रिय पदार्थो के प्रयोग से बचाना चाहिए।

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