सोमवार, 17 सितंबर 2018



सम्पादकीय
कुपोषण की चुनौती है बड़ी गंभीर 
किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी ताकत उसका मानव संसाधन होता है । जिस देश के पास जितना अधिक कार्यकारी मानव शक्ति होती है, उसकी अर्थव्यवस्था उतनी ही तेज गति से कुलाचे भरती है । भारत को उसकी इसी खूबी का लाभ मिलता रहा है । अब सोचिए, अगर देश से कुपोषण को खत्म कर दिया गया होता तो उसके मानव संसाधन से मिल रहा लाभ दोगुना हो जाता । हम आज जहां खड़े हैं, आज उससे कहीं आगे होते । क्योंकि कुपोषण हमारे तेज विकास की राह में बड़ी बाधा साबित हो रहा है । 
कुपोषण दूर करने मेंभारत ने सघी शुरूआत की, लेकिन बड़ी आबादी के लिए उसे और तेज चलने की जरूरत है । वर्ष २००६ में देश में पांच साल से कम आयु वाले औसत से कम लम्बाई वाले बच्चें की हिस्सेदारी ४८ फीसदी थी । एक दशक बाद यानी २०१६ में ऐसे बच्चें का फीसद घटकर ३८ आ गया । इसके बावजूद आज भी बच्चें में कुपोषण की दर भारत में सर्वाधिक है । यह कुपोषण जीवन भर बच्च्े के लिए दुर्भाग्य साबित होता है । 
देश में ४.७ करोड़ बच्च्े कुपोषित है जो बड़े होकर अपनी पूर्ण मानव क्षमता का प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं । यानी हर दस में से चार बच्च्े इस अभिशाप से जूझ रहे है । इस प्रकार १९.५० करोड़ भारत में कुपोषित लोगों की संख्या है । यानी विश्व की भूख  से जुड़ी एक चौथाई चुनौती भारत के हिस्से मेंहै । 
भारत के पास अब अनाज का पर्याप्त् भंडार है । इसके बावजूद अगर कोई बच्च कुपोषित रह जा रहा है तो सभी देशवासियों के लिए शर्मनाक है । १९५०-५१ मेंभारत का खाघान्न उत्पादन पांच करोड़ टन था, २०१४-१५ तक इसमें पांच गुना अप्रत्याशित वृद्धि हो चुकी है । अब हमारा खाघान्न उत्पादन २५ करोड़ टन के आंकड़े को छूने लगा । पहले दूसरे देश हमें खाघान्न की सहायता करते थे । अब हम हम खाघान्न निर्यात करने लगे हैं । 
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार इस चुनौती से निपटने के कदम उठा रही है । किसानों की आय २०२२ तक दोगुनी करने के लिए सरकार ने २०१६ में कई कदम उठाने की घोषणा की है, जिसमें सिंचित क्षेत्र का रकबा बढ़ाने को भी तेज प्रयास किए है । 
प्रसंगवश
केरल : बाढ़ में आपदा प्रबंधन बह गया 
केरल में जो हुआ, वह सिर्फ प्राकृतिक आपदा नहीं है, उसमें हम आपदा प्रबंधन की नाकामी को भी देख सकते हैं । साल २००५ में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) का गठन इसलिए किया गया था, ताकि मुश्किल हालात में राहत और बचाव कार्य ही नहीं, आपदा प्रबंधन के सभी लक्ष्यों को केन्द्रित करके अभियान चलाए जा सकें । मगर केरल में इस अनुशासन का अभाव दिखा है । आपदा प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण पहलू होता है, मुश्किल हालात आने से पहले खुद को तैयार रखना । इसमें आपदा को रोकने के प्रयास तो किए ही जाते हैं, संकट का दायरा सीमित रखने की कोशिश भी होती है । इस काम में सफलता तभी संभव है, जब विभिन्न एजेंसियों में समन्वय हो । 
केरल पश्चिम घाट का राज्य है । वहां ४४ नदियां बहती हैं, जिनका जन्म राज्य में होता है और अंत उसी राज्य के तटीय समुद्र में । चूंकि वहां ढलान काफी ज्यादा है, इसलिए पानी का बहाव स्वाभाविक तौर पर तेज रहता है । बारिश होने पर यह पानी कहीं ज्यादा तेजी से समुद्र में समाने के लिए भागता है । इस गति को थामने के लिए जगह-जगह पर बांध बनाए गए हैं । 
गलती यह भी हुई कि केरल में नदियों का पानी सीधे छोड़ दिया गया । इडुक्की बांध के बारे में कहा जा रहा है कि जब पहली बार तेज बारिश हुई, तभी आनन-फानन में उसके दरवाजे खोल दिए गए थे । तब इतना पानी छोड़ दिया गया कि बांध आधा खाली हो गया था । बाढ़ की बारिश ने रही-सही कसर पूरी कर दी । जबकि आपदा प्रबंधन का गणित कहता है कि किसी भी बांध से पानी इतना ही निकालना चाहिए जिससे ओवर फ्लो की स्थिति न आए । डॉक्यूमेंटेशन यानी दस्तावेजीकरण भी आपदा प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता   है । कोई आपदा आती है, तो उसका सामना हमने कैसे किया, जान-माल का कितना नुकसान हुआ, राहत कार्य किस तरह चलाए गए, सफलता व नाकामी कितनी मिली । इन सबको दस्तावेजका रूप देना चाहिए । इसका मकसद किसी एक पर नाकामी की जिम्मेदारी डाल देना नहीं होता । सही ओर गलत, सब कुछ इसमें दर्ज किया जाता है, ताकि अगली आपदा से बेहतर तरीके से निपटने में हम सफल हो सके । 
लोगों को जागरूक किए बिना हम किसी आपदा से नहीं निपट सकते । प्रचार-प्रसार के तमाम साधनों का इस्तेमाल करके हम जन-जागरूकता अभियान चला सकते है । सक्सेस स्टोरी का भी जमकर प्रचार प्रसार होना चाहिए । इससे लोगों की हौसला अफजाई होती है ।
सामयिक
दिल्ली में पेड़ो को काटने से बचाया जाये 
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
कहा जाता है कि सौ पेड़, हर साल ५३ टन कार्बन डाईऑक्साइड और २०० कि.ग्रा. अन्य प्रदूषकों का वातावरण से निपटान करते  हैं । हर साल ये ५,३०,००० लीटर वर्षा जल को थामते हैं ।
दिल्ली के अधिकारी इमारतें बनाने के लिए दिल्ली के कुछ इलाकों में १७,००० बड़े-बड़े पेड़ काटने की फिराक में हैं । इन पेड़ों को काटे जाने का विरोध कर रहे लोगों को यह दिलासा दिया जा रहा है कि हर एक काटे गए पेड़ पर १० नए पौधे लगाए जाएंगे। मंत्री से लेकर नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कार्पोरेशन तक और हम सब ये अच्छी तरह से जानते हैंकि यह वादा मूर्खतापूर्ण है:  आज जो खोएंगे, उसकी भरपाई कल कर दी जाएगी  (पर कब ? आज से २० साल बाद ? और यदि पौधे बच पाए तो ?)। और यह सिर्फ दिल्ली में नहीं चल रहा है। हर राज्य हर शहर के योजनाकार यही कर रहे हैं ।  यह रवैया पेड़ों और उनके महत्व के  प्रति ना सिर्फ अज्ञानता बल्कि अहंकार और उपेक्षा का द्योतक है। लेकिन वक्त आ गया है कि योजनाकार पेड़ों के आर्थिक, पारिस्थितिक, स्वास्थ सम्बंधी और सामाजिक महत्व के प्रति सचेत  हो जाएं । 
पेड़ों का महत्व  
१९७९ में कलक्तता  विश्व- विद्यालय के डॉ. टी. एम. दासगुप्त ने गणना करके बताया था कि ५० साल की अवधि में एक पेड़ का आर्थिक मूल्य २,००,००० डॉलर (उस समय की कीमत के आधार पर) होता है । यह मूल्य इस अवधि में पेड़ों से प्राप्त् ऑक्सीजन, फल या बायोमास और लकड़ी वगैरह की कीमत के आधार पर है। पेड़ के वजन में एक ग्राम की वृद्धि हो, तो उस प्रक्रिया में पेड़ २.६६ ग्राम ऑक्सीजन बनाता है। ऑस्ट्रेलिया की नैन्सी बेकहम अपने शोध पत्र `पेड़ों का वास्तविक मूल्य में कहती हैं : पेड़-पौधे साल-दर-साल अपना दैनिक काम करते रहते हैं । ये मिट्टी को रोके रखते हैं, पोषक तत्वों का नवीनीकरण करते हैं, हवा को ठंडा करते हैं, हवा के वेग की उग्रता में बदलाव करते हैं, बारिश कराते हैं, विषैले पदार्र्थों को अवशोषित करते हैं, इंर्धन की लागत कम करते हैं, सीवेज को बेअसर करते हैं, संपत्ति की कीमत बढ़ाते हैं, पर्यटन बढ़ाते हैं, मनोरंजन को बढ़ावा देते हैंं, तनाव कम करते हैं, स्वास्थ्य बेहतर करते हैं,  खाद्य सामग्री उपलब्ध कराते हैं, औषधि और अन्य जीवों के लिए आवास  देते हैं ।
इसी कड़ी में न्यूयॉर्क के  पर्यावरण संरक्षण विभाग ने कुछ  आंकड़े प्रस्तुत किए हैं । वे बताते है - (१) स्वस्थ पेड़ यानी स्वस्थ लोग : १०० पेड़ प्रति वर्ष ५३ टन कार्बनडाई ऑक्साइड और २०० कि.ग्रा. अन्य वायु  प्रदूषकों को हटाते हैं ।
(२) स्वस्थ पेड़ यानी स्वस्थ समुदाय : पेड़ों से भरा परिवेश घरेलू हिंसा कम करता है, ये ज्यादा सुरक्षित और मिलनसार समुदाय होते हैं ।
(३) स्वस्थ पेड़ यानी स्वस्थ वातावरण : १०० बड़े पेड़ प्रति वर्ष ५,३०,००० लीटर वर्षा जल थामते हैं ।
(४) स्वस्थ पेड़ यानी घर में बचत: सुनियोजित तरीके से लगाए गए पेड़ एयर कंडीशनिंग लागत में ५६ प्रतिशत तक बचत करते हैं । सर्दियों की ठंडी हवाओं को रोकते हैंजिससे कमरे में गर्माहट रखने के खर्च में ३ प्रतिशत तक बचत हो सकती है ।
(५) स्वस्थ पेड़ यानी बेहतर व्यवसाय : पेड़ों से ढंके व्यापारिक क्षेत्रों में, दुकानों में ज्याद खरीदार आते हैं और १२ प्रतिशत अधिक खरीदारी करते हैं ।
(६) स्वस्थ पेड़ यानी संपत्ति का उच्च्तर मूल्य । 
मंत्रीजन और एनबीसीसी अधिकारी समझदार लोग हैं । निश्चित रूप से वे ये सारे तथ्य जानते होंगे । फिर भी उनके लिए एक परिपक्व पेड़ शहर की जगह को खाता है। १७,००० पेड़ों का सफाया करना यानी साफ हवा को तरसते किसी शहर में मकान, कॉलोनी और शॉपिंग मॉल बनाने का व्यापार । (दिल्ली ग्रीन्स नामक एक एनजीओ ने २०१३ में बताया था कि एक स्वस्थ पेड़ की सालाना कीमत मात्र उससे प्राप्त् ऑक्सीजन की कीमत के लिहाज से २४ लाख रुपए होती है)। मगर अधिकारियों के मुताबिक काटे गए पेड़ों द्वारा घेरी गई जगह की तुलना में नए रोपे जाने वाले पौधे सौंवा हिस्सा या उससे भी कम जगह घेरेंगे । लेकिन पौधे लगाएंगे कहां - जहां पेड़ थे? निर्माण कार्य शुरू होने पर क्या ये पौधे जीवित रह पाएंगे ? अधिकारियों का रवैया है कि हम तो ट्रांसफर या रिटायर होकर यहां रहेंगे नहीं, तो इन सवालों का जवाब हमें तो नहीं देना होगा । किन्तु बात को समझने के लिए यह देखा जा सकता है कि पहले गुड़गांव क्या था और आज  क्या है। 
वृक्षों के प्रति क्रूर व्यवहार के विपरीत कई अनुकरणीय उदाहरण हैं। सुन्दरलाल बहुगुणा द्वारा प्रवर्तित चिपको आंदोलन, कर्नाटक की सला- मुरादा थिम्मक्का द्वारा लगाए गए ३९८ बरगद के पेड़ जिन्हें वे अपने बच्च्े  मानती हैंऔर मजीद खान और जीव विज्ञानियों व बागवानों का समूह, जो तेलंगाना के महबूब नगर में ७०० साल पुराने पिल्लामर्री नामक बरगद के पेड़ की बखूबी देखभाल कर रहे हैं । ४ एकड़ में फैले बरगद के इस पेड़ को दीमक खाने लगी थी । इस समूह ने हर शाखा के फ्लोएम में कीटनाशक का इंजेक्शन देकर, देखभाल करके इसे फिर से हरा-भरा कर दिया है क्या इस पेड़ को काटकर ४ एकड़ जमीन का उपयोग रियल एस्टेट में कर लेना चाहिए था?
पेड़ भावनात्मक, आध्या- त्मिक शान्ति प्रदान करते हैं । भारतीय इतिहास इसके उदाहरणों से भरा पड़ा है - भगवान बुद्ध, सम्राट अशोक और तमिल राजा पारि वल्लल जिन्होंने अपने रथ को एक पौधे के पास छोड़ दिया था ताकि वह इससे सहारा पाकर फैल  सके ।
क्या दिल्ली के १७,००० पेड़ बचाने और उपनगरों में कहीं और कॉलोनियां बनाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए ? और यदि वहीं बनाना है तो ऐसे तरीके निकाले जाएं जिसमें पेड़ों की बलि ना चढ़े । और यदि पेड़ काटने भी पड़े तो बहुत ही कम संख्या  में।असंभव-सी लगने वाली इस योजना के बारे में सोचना वास्तुकारों के लिए चुनौती है । दरअसल कई स्थानों पर गगनचुंबी इमारतें बनाई गई हैंऔर पेड़ों को बचाया गया है। कई जगह तो पेड़ों को इमारतों का हिस्सा ही बना दिया गया है । ऐसे कुछ उदाहरण इटली, तुर्की और ब्राजील की इमारतों में देखे जा सकते हैं ।
भारत में भारतीय और विदेशी दोनों तरह के वास्तुकार हैंजिन्होने पर्यावरण से सामंजस्य बैठाते हुए घरों और परिसरों का निर्माण किया है। भारत में लगभग ८० संस्थान हैं जो वास्तुकला की शिक्षा प्रदान करते हैं। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ आर्किटेक्ट्स में लगभग २०,००० सदस्य हैं ।
हमारा भूमण्डल
मानव द्वारा अंतरिक्ष में प्रदूषण
निर्मल कुमार शर्मा  
मानव ने इस धरती के सभी जगहों यथा स्थल, जल, वायु ,आकाश, भूगर्भ, नदियों, पहाड़ो, समुद्रों, रेगिस्तानों आदि सभी जगह भयंकर प्रदूषण करके इस पृथ्वी के सम्पूर्ण वातावरण, पर्यावरण, प्रकृति के सभी तरह के जीवों जैसे,  जलचरों, नभचरों, थलचरों आदि सभी जीवधारियों, जिसमें मनुष्य स्वयं भी शामिल है,के अस्तित्व पर संकट  खड़ा कर लिया है ।
      अब तक यह सोचा जा रहा था कि पृथ्वी और इसके वातावरण को ही मनुष्य द्वारा प्रदूषित किया जा रहा है, इसे सुधारने के प्रयास हेतु नदियों को प्रदूषण मुक्त करने ,वायु प्रदूषण को मुक्त करने ,भूगर्भीय प्रदूषण को मुक्त करने हेतु जरूरी कदम जैसे अत्यधिक पौधारोपण ,वर्षा जल संचयन ,पेट्रोल  व डीजल चालित वाहनों की जगह गैर परंपरागत उर्जा स्त्रोतों मसलन, सौर ऊर्जा, बैट्रीचालित और प्राकृतिक गैस चालित वाहनों के अत्यधिक प्रयोग से भविष्य में प्रदूषण के स्तर को कम करने का प्रयास किया जायेगा ।
     परन्तु अब इस पृथ्वी और इसके वातावरण से इतर अंतरिक्ष में भेजे गये, मानव निर्मित अंतरिक्ष यानों की वजह से एक बहुत ही खतरनाक तरह का प्रदूषण का खतरा समस्त मानव जाति और इस पृथ्वी के समस्त जीव जगत पर मंडरा रहा है । सन् १९५७ में तत्कालीन सोवियत संघ द्वारा निर्मित किए गये कृत्रिम उपग्रह स्पुतनिक-१को छोड़े जाने के बाद अब तक एक अनुमान के अनुसार २३००० से भी ज्यादा उपग्रहों को अंतरिक्ष में दुनिया के विभिन्न देशों द्वारा छोड़ा जा चुका  हैं ।  
इन  छोड़े गये उपग्रहों में आज केवल उनके ५ प्रतिशत ही सक्रिय हैंशेष सभी ९५ प्रतिशत उपग्रह अंतरीक्षीय कचरे के रूप में पृथ्वी की कक्षा में बगैर किसी नियन्त्रण के, लगभग ३०००० किलोमीटर ( तीस हजार किलोमीटर ) प्रति घंटे की रफ्तार ( मतलब ध्वनि की गति से लगभग २४ गुना या बंदूक की निकली गोली से २२ गुना या किसी वायुयान से ४० गुना से भी ज्यादा गति से ) घूम रहे हैं, जो प्रतिदिन आपस में टकरा-टकराकर, टूटकर अपनी संख्या दिन दूनी रात चौगुनी की दर से बढ़ा रहे हैं । इनके सतत टकराने की दर इनकी संख्या वृद्धि के साथ और बढ़ रही है, इस टकराने की श्रृंखला  अभिक्रिया (चेन रिएक्शन)को कैस्लर सिंड्रोम के नाम से वैज्ञानिक विरादरी संबोधित करती है ।
       यूरोपीय स्पेस एजेंसी (इएसए )के अनुसार वर्तमान में ७०० टन अंतरीक्षीय कचरा पृथ्वी की कक्षा में बड़े और बेकार अंतरिक्षयानों के कलपुर्जों, मलवों के साथ-साथ अन्य छोटे टुकड़े भी जो कुछ मिलीमीटर से लेकर १० सेंटीमीटर तक हैं, जिनकी संख्या अब टूट-टूट कर अब ७५०,००० की अविश्वसनीय संख्या तक पहुँच चुकी है, तैर रहे हैं । 
अंतरीक्षीय कचरा बढ़ाने में चीन ने २००७ में बहुत बड़ा योगदान अपनी एक एंटी सेटेलाइट मिसाइल से अपने ही एक पुराने मौसम उपग्रह को अंतरिक्ष में नष्ट कर किया था ,उसके फलस्वरूप उसके हजारों टुकड़े  अंतरिक्ष में मलवे के रूप में बिखेर   दिया । इसी प्रकार फ्रांस का एक सेना का उपग्रह सन १९९६ में ,उसी के दस साल पूर्व छोड़े गये एक बेकार उपग्रह से टकराकर हजारों टुकड़ों में अंतरिक्ष में कूड़े के रूप में बिखरकर पृथ्वी की कक्षा में तभी से अत्यन्त खतरनाक गति से अंतरीक्षीय कूड़े में अपना योगदान कर रहे हैं ।
इन टुकडों की गति आकाश में उड़ रहे विमानों की गति से ४० गुना और ध्वनि की गति से २४ गुना होती है । इतनी तीव्र गति से घूम रहे इन धातु के टुकड़ों का अगर एक छोटा सा टुकड़ा भी आकाश में उड़ रहे विमानों या अंतरिक्ष यानों से टकरा जाये तो ये विमान या अंतरिक्ष यान को तुरन्त नष्ट करने की क्षमता रखते हैं ।
प्राकृतिक उल्कापिंडोंऔर इन उपग्रहों के टुकड़ों में मूलभूत अंतर यह है कि अधिकतर प्राकृतिक उल्कापिंड पृथ्वी पर गिरते समय अत्यधिक वेग और वायुमंडलीय घर्षण की वजह से गर्म होकर पृथ्वी की सतह पर आने से पूर्व ही आकाश में ही जलकर भस्म हो जाते हैं, परन्तु ये निष्क्रिय और टूटे-फूटे अंतरिक्ष यानों के टुकड़े , ऐसे मिश्र धातुओं से बनाए जाते हैं, जो पृथ्वी के वायुमंडल के घर्षण के बावजूद आकाश में जलकर भस्म नहीं होंगे । अगर ये अनियंत्रित अत्यधिक गर्म धातु के टुकड़े घनी मानव बस्तियों,कस्बों, शहरों पर गिरेंगे तो वे बहुमूल्य मानव जीवन के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध  होंगे ।
        अभी २०१७ में एक मिलीमीटर का एक छोटा सा टुकड़ा अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन की अत्यन्त मजबूत काँच की खिड़की से टकराया था,उसने इतनी जोरदार टक्कर मारी कि उसका शीशा टूट गया था । इन टुकड़ों की अत्यधिक स्पीड की वजह से ये टुकड़ें किसी भी उपग्रह, अंतरिक्ष शटल, अंतरिक्ष स्टेशन, अंतरिक्ष में चहल कदमी ( स्पेसवाक) करते हुए स्पेस शूट को भी चीरते हुए निकल सकते हैं ।
      अंतरिक्ष में इतने तीव्र गति से ये मिश्र धातु के  टुकड़े निश्चित रूप से अनन्त काल तक पृथ्वी की कक्षा में नहीं रहेंगे, उनकी गति विभिन्न कारणों से क्रमश: मंद होती जायेगी और एक दिन वे पृथ्वी के शक्तिशाली गुरूत्वा- कर्षण की वजह से बहुत ही तेज गति से पृथ्वी की सतह की तरफ गिरेंग, जो पृथ्वी के वायुमंडल के घर्षण से अत्यधिक उच्च् तापक्रम तक आग के गोले बन जायेंगे ,अत्यन्त दुखद बात ये है कि प्राकृतिक रूप से अंतरिक्ष से गिरने वाले ९९ प्रतिशत उल्कापिंड वायुमंडल के घर्षण से आकाश में ही जलकर समाप्त् हो जाते हैं, परन्तु ये मानव निर्मित धातु के टुकड़ों का निर्माण इस तरह की धातुओं से किया जाता है कि वे वायुमंडल के तीव्रतम घर्षण में भी नहीं जलेंगे । 
कल्पना करिये ये लाखों डिग्रीसेंटीग्रेड गर्म आग के दहकते गोले किसी घनी मानव बस्ती पर गिरें तो उस तबाही का मंजर बहुत ही हृदय विदारक, कारूणिक और विभत्स होगा इसलिए विश्व के वैज्ञानिक विरादरी को इन धातु के लाखों टुकड़ों को अंतरिक्ष में ही निस्तारण का कोई न कोई तरीका शीघ्रातिशीघ्र किसी अप्रिय घटना घटने से  पूर्व  ही  ढूंढ  लेना  चाहिए  ।                        
विशेष लेख
मिट्टी में आर्सेनिक विषाक्तता
सरोज कुमार सान्याल

हमारे देश में भूमिगत जल में व्यापक आर्सेनिक प्रदूषण भारत के पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के  बंगाल डेल्टा बेसिन के इलाकों तक सीमित है किंतु भारत के कई हिस्सों और राज्यों के भूमिगत जल में भी आर्सेनिक पाया गया है । 
विश्व  स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानकों के अनुसार पेयजल में आर्सेनिक की सुरक्षित मात्रा १० माइक्रोेग्राम प्रति लीटर है । किंतु वर्तमान में पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, मणिपुर, झारखंड, छत्तीसगढ़, पंजाब, त्रिपुरा और नागालैंड राज्यों के भूमिगत जल में ५० से ३७०० माइक्रोग्राम प्रति लीटर तक आर्सेनिक पाया गया है । भूमिगत जल में आर्सेनिक पाए जाने के कुछ भूगर्भीय कारण माने जाते हैं । अब तक आर्सेनिक प्रदूषित इलाकों में सबसे अधिक ध्यान पेयजल पर दिया जा रहा था जबकि इन इलाकों में भूमिगत जल का उपयोग पेयजल से ज्यादा सिंचाइंर् में किया जाता है । 
आर्सेनिक युक्त भूमिगत जल वाले इलाकों में सिंचाई के कारण मिट्टी-पौधे-मनुष्य श्रृंखला पर होने वाले असर पर अध्ययन बहुत कम हुए हैं । वास्तव में बंगाल डेल्टा बेसिन समेत आर्सेनिक प्रभावित अन्य क्षेत्रों में इस तरह के शोध की आवश्यकता है। आर्सेनिक प्रदूषण के मुख्य कारण को पहचानना महत्वपूर्ण है। जहां पेयजल में आर्सेनिक प्रदूषण का स्त्रोत एक बिंदु पर सिमटा होता है, वहीं खेती में आर्सेनिक प्रदूषित भूजल से सिंचाई के माध्यम से मानव-खाद्य  श्रृंखला में फैलता हैऔर खाद्य श्रृंंखला मेंआगे बढ़ते हुए इसकी गंभीरता बढ़ती है। इस लेख में आर्सेनिक प्रदूषण के महत्वपूर्ण और दीर्घकालिक पर्यावरणीय प्रभावों के साथ-साथ इसके समाधान की सूची बनाने का प्रयास किया है। इसमें लोगों की भागीदारी अहम होगी । साथ ही उचित नीतियों की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला गया है ।
आर्सेनिक फारसी शब्द जानिर्क से आया है जो यूनानी में आर्सेनिकॉन हुआ। हिंदी में इसे संखिया कहते हैं। पर्शिया और अन्य जगहों के  लोग आर्सेनिक का उपयोग प्राचीन काल से करते रहे हैं। आर्सेनिक शाही जहर और जहर का राजा नाम से भी मशहूर  है । 
कांस्य युग में आर्सेनिक कांसे में अशुद्धि के रूप में मौजूद होता था जिससे धातु कठोर हो जाती थी । माना जाता है कि अल्बर्टस मैग्नस ने १२५० ईस्वीं में इस तत्व को सबसे पहले पृथक किया था। आर्सेनिक का उपयोग कीटनाशक के रूप में भी किया जाता है । कीटनाशकों के छिड़काव से मानव खाद्य और पर्यावरण में आर्सेनिक प्रदूषण हुआ है जिसका लोगों और उनकी अगली पीढ़ी के स्वास्थ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। भूमिगत आर्सेनिक दुनिया की कई जगहों के पेयजल स्त्रोतों को प्रभावित करता है। लगातार सालों तक प्रदूषित पानी पीने की वजह से लाखों लोगों को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है ।
मिट्टी, पानी, वनस्पति, पशु और मानव में विषैले आर्सेनिक की मौजूदगी पर्यावरणीय चिंता का विषय है। जैव-मंडल में इसके अति विषैलेपन और बढ़ी हुई मात्रा ने सार्वजनिक और राजनीतिक चिंता को जन्म दिया है। अर्जेंटाइना, चिली, फिनलैंड, हंगरी, मेक्सिको, नेपाल, ताइवान, बांग्लादेश और भारत समेत दुनिया के २० देशों में भूमिगत जल में आर्सेनिक प्रदूषण और इसके कारण मानव स्वास्थ सम्बंधी समस्या दर्ज हुई है। 
सबसे अधिक प्रदूषण और स्वास्थ्य सम्बंधी समस्या बांग्लादेश में है । इसके बाद पश्चिम बंगाल का नंबर आता है। बंगाल डेल्टा बेसिन के लाखों लोग खतरे में हैं । पश्चिम बंगाल में भागीरथी नदी के किनारे बसे ५ जिलों और इसकी सीमा से लगे बांग्लादेश के जिलोंमें मुख्य  रूप से भूमिगत जल में आर्सेनिक प्रदूषण है। बंगाल डेल्टा बेसिन के अलावा देश के विभिन्न हिस्सों में भूमिगत जल में आर्सेनिक की मात्रा ५० माइक्रोग्राम प्रति लीटर से भी अधिक निकली है। इसके अलावा चट्टानों, अन्य पदार्थों और पानी के विभिन्न  स्त्रोतों में आर्सेनिक की मात्रा पाई गई है।
डब्ल्यूएचओ  ने अस्थायी तौर पर पेयजल में आर्सेनिक की अधिकतम स्वीकार्य सीमा १० माइक्रोग्राम प्रति लीटर निर्धारित की है क्योंकि  इससे कम स्तर के प्रदूषण का मापन बड़े पैमाने पर संभव नहीं है। भारत और बांग्लादेश समेत कई देशों में डब्ल्यूएचओ की इससे पूर्व १९७१ में निर्धारित स्वीकार्य सीमा ५० माइक्रोग्राम प्रति लीटर थी । हाल ही में भारत ने भी पेयजल में आर्सेनिक की स्वीकार्य सीमा १० माइक्रोग्राम प्रति लीटर निर्धारित की है । 
मनुष्यों में अकार्बनिक आर्सेनिक यौगिकों के कारण कैंसर होने के पर्याप्त् प्रमाण और जानवरों में सीमित प्रमाण मिले हैं। इसी आधार पर अकार्बनिक आर्सेनिक यौगिकों के समूह को कैंसर-जनक समूह में रखा गया है। इसलिए पेयजल में आर्सेनिक की उपस्थिति की स्वीकार्य सीमा को घटाकर ५ माइक्रोग्राम प्रति लीटर करना विचाराधीन है। किन्तु कार्बनिक आर्सेनिक की कैंसर कारिता के पर्याप्त् प्रमाण नहीं है । 
सन् १९८३ में एफएओ/ डब्ल्यूएचओ की एक संयुक्त विशेषज्ञ समिति द्वारा मनुष्योंद्वारा अकार्बनिक आर्सेनिक के दैनिक सेवन की अधिकतम सीमा शरीर के प्रति किलोग्राम वजन पर २.१ माइक्रोग्राम तय की गई है। इसके बाद १९८८ में साप्तहिक स्वीकार्य सेवन की सीमा शरीर के प्रति किलोग्राम वजन पर १५ माइक्रोग्राम निर्धारित की गई । किन्तु इस तरह के मानक मिट्टी, पौधे और पशुओं के लिए निर्धारित नहीं  हैं।
पश्चिम बंगाल के प्रभावित क्षेत्रों के भूमिगत जल में आर्सेनिक सांद्रता (५०-३७०० माइक्रोग्राम प्रति लीटर) भारत और डब्ल्यूएचओ की निर्धारित सीमा से कई  गुना अधिक   है । इसके अलावा, पंजाब के भूमिगत जल में आर्सेनिक सांद्रता ४ से ६८८ माइक्रोग्राम प्रति लीटर तक है । १९७८ में पहली बार पश्चिम बंगाल में भूजल में आर्सेनिक की निर्धारित सीमा से अधिक उपस्थिति का पता चला था और मनुष्यों में आर्सेनिक के विषैले असर का पहला मामला १९८३ में कलकत्ता के स्कूल ऑफट्रॉपिकल मेडिसिन में सामने आया था । पेयजल में अकार्बनिक आर्सेनिक और वयस्कों में इसके स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभावों को चिकित्सक भलीभांति स्थापित कर चुके हैं ।  
अब तक भूमिगत जल में आर्सेनिक की उपस्थिति को पेयजल की समस्या के तौर पर ही देखा जा रहा था जबकि पश्चिम बंगाल के इन इलाकों में भूमिगत जल का उपयोग सिंचाई के लिए बड़े पैमाने पर किया जाता है। तो मिट्टी और कृषि उपज में आर्सेनिक अधिक मात्रा में होने की संभावना है । दरअसल आर्सेनिक  युक्त मिट्टी में खेती और आर्सेनिक युक्त  जल से सिंचाई के कारण कृषि उपज में आर्सेनिक पहुंचने की बात कई शोधकर्ता बता चुके हैं । इस पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है । 
जहां पेयजल में आर्सेनिक की समस्या किसी ट्यूबवेल जैसे स्पष्ट स्त्रोत से जोड़ी जा सकती है वहीं कृषि उपज में आर्सेनिक की उपस्थिति एक विस्तृत और अनिश्चित-सा स्त्रोत है । इस बात का महत्व तब और भी बढ़ जाता है जब यह देखा जाता है कि ऐसे लोगों के मूत्र के नमूनों में भी उच्च् मात्रा में आर्सेनिक निकला है जिन्होंने कभी आर्सेनिक युक्त पानी नहीं पीया । दिलचस्प बात यह है कि आर्सेनिक प्रभावित इलाकों में सतही जल स्त्रोत आर्सेनिक मुक्त है । इससे लगता है कि मिट्टी आर्सेनिक युक्त पानी लेती है और इसे अपने में ही रोक कर रखती है और आस पास के जल-स्त्रोतों में इसे फैलने नहीं देती ।
प्राकृतिक पारिस्थितिकी  तंत्र में आर्सेनिक विषैला तत्व है। आर्सेनिक ट्राईऑक्साइड की अत्यंत कम मात्रा (०.१ ग्राम) भी इंसानों के लिए जान लेवा साबित हो सकती है। आर्सेनिक विषाक्तता के शुरुआती लक्षण त्वचा सम्बंधी विकार, कमजोरी, थकान, एनोरेक्सिया (भूख न लगना), मितली, उल्टी और दस्त या कब्ज हैं। जैसे-जैसे विषाक्तता बढ़ती है, लक्षण और अधिक विशिष्ट होने लगते हैंं, जिनमें गंभीर दस्त, पानीदार सूजन (विशेष रूप से पलकों और एड़ियों पर), त्वचा का रंग बदलना, आर्सेनिकल काला कैंसर और चमड़ी का मोटा व सख्त होना, लीवर बढ़ना, श्वसन रोग और त्वचा कैंसर शामिल हैं। कुछ गंभीर मामलों में पैर में गेंग्रीन और ऊतकों में असामान्य वृद्धि भी देखी गई है। 
आर्सेनिक विषाक्तता के कारण अर्जेंटाइना में  बेल विले रोग , ताइवान में ब्लैक फुट रोग और थाईलैंड में काई डेम रोग व्याप्त् हैं। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के प्रभावित इलाकों में रहने वाले लोगों के बाल, नाखून, त्वचा और पेशाब के कई नमूनों में निर्धारित सीमा से अधिक आर्सेनिक था ।
भूमिगत जल और मिट्टी में आर्सेनिक कार्बनिक रूपों के अलावा आर्सेनाइट्स (तीन संयोजी आर्सेनिक) या आर्सेनेट (पांच-संयोजी आर्सेनिक) के रूप में मौजूद रहता है। मिट्टी और फसल में आर्सेनिक की घुलनशीलता, गतिशीलता, जैव उपलब्धता और विषाक्तता मुख्य रूप से आर्सेनिक की ऑक्सीकरण अवस्था (वैलेंसी) पर निर्भर करती है। साथ ही इस बात पर भी निर्भर करती है कि वह अकार्बनिक रूप में है या कार्बनिक रूप में । भूमिगत जल/मिट्टी में विभिन्न आर्सेनिक यौगिकों के विषैलेपन का क्रम : 
आर्सीन ऑर्गेनो-आर्सेनिक यौगिक  आर्सेनाईट्स और ऑक्साइड   आर्सेनेट्स  एक-संयोजी आर्सेनिक   मुक्त आर्सेनिक  धातु ।
जल और मिट्टी में आर्सेनेट की तुलना में आर्सेनाइट अधिक घुलनशील, गतिशील और जहरीला होता है। आर्सेनिक के कार्बनिक रूप मुख्य रुप से डाईमिथाइल आर्सेनिक एसिड या केकोडाइलिक एसिड भी मिट्टी में उपस्थित रहते हैं। ये मिट्टी में ऑक्सीजन की कमी जैसी स्थितियों में वाष्पशील डाईमिथाइल आर्सीन और ट्राईमिथाइल आर्सीन बनाते हैं। भूमिगत जल और मिट्टी में मोनो मिथाइल आर्सेनिक एसिड (एमएमए) भी मौजूद रहता है। आर्सेनिक के कार्बनिक रूप या तो जहरीले नहीं होते या बहुत कम जहरीले होते हैं। जब फसलों को हवादार मिट्टी में उगाया जाता है तो मिट्टी में मुख्य रूप से पांच-संयोजी आर्सेनिक पाया जाता है। यह कम  जहरीला होता है। जबकि चावल के पानी भरे खेतों में अधिक घुलनशील और जहरीले तीन-संयोजी रूप अधिक  रहते हैं।
यह पाया गया कि शरद ऋतु में उगाई जाने वाली धान से प्राप्त् चावल में आर्सेनिक के अधिक विषैले तीन-संयोजी रूप पाए जाते हैं। दूसरी ओर, चावल के भूसे में आर्सेनिक के पांच-संयोजी रूप मौजूद होते हैं। इसके अलावा धान की, पारंपरिक और उच्च् पैदावार, दोनों ही किस्मों के साथ पारबॉइलिंग और मिलिंग जैसी प्रक्रियाओं में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ती है। जैविक खाद के माध्यम से मृदा संशोधन करने पर आर्सेनिक की मात्रा में कमी आती है। आर्सेनिक प्रदूषित इलाकों में उगाए जाने वाले चावल में आर्सेनिक विषाक्तता और इसके सेवन से सम्बंधित खतरों का अध्ययन किया गया है । 
ग्रामीण बंगाल में चावल के माध्यम से अकार्बनिक आर्सेनिक का सेवन, दूषित पेयजल की तुलना में मानव स्वास्थ के लिए ज्यादा बड़े खतरे के रूप में देखा जा रहा है । जैविक संशोधन और संवर्धित फॉस्फेट तथा चुनिंदा सूक्ष्म पोषक तत्वों (जैसे जस्ता, लौह) से उर्वरीकरण चावल में आर्सेनिक को कम करता है। साथ ही इसके सेवन से होने वाला खतरा भी कम होता है ।
भूजल दूषित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में पानी और आहार दोनों के माध्यम से आर्सेनिक सेवन और पेशाब में आर्सेनिक के उत्सर्जन को लेकर किए गए कई अध्ययन बताते हैंकि आर्सेनिक प्रदूषित इलाकों में सिर्फपेयजल में आर्सेनिक की समस्या को दूर करने से आर्सेनिक सम्बंधी खतरे कम नहीं होंगे । चावल का नियमित सेवन शरीर में आर्सेनिक पहुंचने का एक प्रमुख जरिया है जिसका समाधान ढूंढने की जरूरत है। आर्सेनिक विषाक्तता के उपचार के  लिए समग्र व समेकित तरीके की आवश्यकता है जिसमें खाद्य श्रृंखला में आर्सेनिक की उपस्थिति और पेयजल में आर्सेनिक सुरक्षित मात्रा की सीमा में रखने के मिले-जुले प्रयास करने होंगे ।
चावल समेत कई उपज में आर्सेनिक की उपस्थिति को कम करने में कुछ  उपाय काफी प्रभावी पाए गए  हैं । 
१.  कम वर्षा वाली अवधि में आर्सेनिक युक्त पानी से सिंचाई कम करने के  लिए सतही जल स्त्रोतों और भूमिगत जल का मिला-जुला इस्तेमाल हो । साथ ही वर्षा के आर्सेनिक-मुक्त पानी को जमीन  में पहुंचाने की व्यवस्था   हो ।
२. आर्सेनिक युक्त इलाकों में कम पानी में ज्यादा फसल देने वाली और आर्सेनिक का कम संग्रह करने वाली किस्मों की पहचान/विकास हो । इन इलाकों में खास तौर से जनवरी से मई के कम वर्षा वाले दिनों में अनुकूल फसल चक्र अपनाया जाए । जैसे जूट-चावल-चावल या हरी खाद-चावल-चावल की जगह जमीकंद - सरसों-तिल, मूंग-धान-सरसों जैसे फसल चक्र ।
३. भूजल को तालाब में भरकर उस संग्रहित पानी से सिंचाई करना । इस तरह अवसादन और वर्षा का पानी मिलने से संग्रहित पानी में आर्सेनिक की मात्रा  कम की जा सकती है ।
४. धान की सिचांई के लिए भूमिगत जल की दक्षता को बढ़ाना, खास तौर पर गर्मियों की धान में । उदाहरण के लिए फसल की वृद्धि के दौरान कुछ-कुछ समय खेतों में पानी भरा जाए और पकने के दौरान लगातार पानी भरकर रखा जाए । ऐसा करने से फसल की पैदावार पर कोई असर नहीं पड़ेगा और भूजल का उपयोग कम होने से आर्सेनिक की मात्रा में कमी आएगी ।
५. कंपोस्ट और अन्य जैविक व हरी खाद का उपयोग बढ़ाएं । साथ ही अकार्बनिक लवणों का उपयुक्त उपयोग  किया जाए ।
६. ऐसी फसलों की पहचान और विकास हो जो फसल के खाद्य हिस्सों में कम से कम आर्सेनिक जमा करती हों और जिनमें आर्सेनिक के  अकार्बनिक रूपों का अनुपात कम हो।
७. सस्ते वनस्पति और जैविक उपचार विकल्प  विकसित करना चाहिए ।
८. बड़े पैमाने पर प्रचार-प्रसार ।
९. लोगों की भगीदारी से खतरे के  बारे में जागरूकता बढ़ाएं और स्थानीय स्तर पर समस्या के समाधान के  उपायों को अपनाया और लोकप्रिय बनाया जाए । 
देश के कुछ हिस्सों के भूमिगत जल में आर्सेनिक प्रदूषण का मुद्दा और मानव स्वास्थ्य पर इसके प्रतिकूल प्रभाव वैज्ञानिकों, चिकित्- सकों, सामुदायिक शोधकर्ताओं, कानून बनाने वालों और आम जनता के लिए बड़ी चिंता का विषय है। आर्सेनिक प्रदूषण के संदर्भ में मुख्य रूप से पेयजल आपूर्ति की समस्या को दूर करने पर जोर दिया गया है ।  पेयजल की समस्या अपने आप में एक बहुत बड़ी चुनौती है। इन इलाकों में पेयजल के अधिकतर विकल्प या तो सतही  जल स्त्रोत या १५०-२०० मीटर से अधिक गहराई के जल-स्त्रोत के  उपयोग पर आधारित हैं । इस गहराई में पानी में विषैले पदार्थ नहीं होते। इन पेयजल स्त्रोतों की गुणवत्ता की समय-समय पर जांच भी काफी अच्छे से होती है ।
खाद्य श्रृंखला का मुद्दा  अनछुआ रह जाता है। आर्सेनिक-प्रदूषित भूजल से सिंचाई के  माध्यम से आर्सेनिक खाद्य पदार्थों में पहुंचता है। वैसे इस बारे में काफी समझ बनी है कि खाद्य श्रृंखला द्वारा ग्रामीण इलाकों में आर्सेनिक लोगों के शरीर में पहुंच रहा है । इसलिए बड़े स्तर पर आर्सेनिक विषाक्तता को दूर करने के लिए पेयजल में आर्सेनिक की मात्रा  को कम करने के साथ-साथ खाद्य श्रृंखला से आर्सेनिक को दूर करने के लिए समेकित तरीके अपनाने की जरूरत    है । जब तक यह प्रयास सफल नहीं होता तब तक सुरक्षित खाद्य की चिंता बनी रहेगी । वैज्ञानिकों के बीच इस मुद्दे की गंभीरता के एहसास के बावजूद अभी तक ठोस योजना बनाने की दरकार है। शुरू  में छोटे स्तर पर प्रायोगिक कार्यक्रम लागू करके फिर इसे प्रभावित क्षेत्रोंमें बड़े स्तर पर लागू किया जा सकता है । 
इस तरह के एकीकृत तरीकों की सफलता विभिन्न हितधारकों की प्रकृति, शोधकर्ताओं, तकनीशियनों और योजनाकारों को जोड़कर ही संभव है जिसमें वास्तविक लाभार्थियों पर ध्यान केन्द्रित किया जाए । लाभार्थी इस कार्यक्रम को समझ सकें और उसमें अपना योगदान दे सकें इसके लिए उन्हें जागरूक और प्रशिक्षित करने की जरूरत है। खालिस तकनीकी तरीकों की जगह समेकित तरीके अपनाने के लिए तकनीकी व्यावहा- रिकता, सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय रूप से मजबूत कार्य योजना की जरूरत है ।  
लोगो को पेयजल की गुणवत्ता जांचने के मामले में जागरूक करना और परीक्षण करने के लिए प्रेरित करना महत्वपूर्ण है। गंभीर त्वचा-घाव से प्रभावित लोगों के स्वास्थ्य खतरे और परेशानी को ध्यान में रखते हुए आर्सेनिक मुक्त पेयजल की आपूर्ति के साथ राज्य अस्पतालों में इन रोगियों के निशुल्क उपचार की व्यवस्था बीमारी को कम करने में मदद कर सकती है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि आर्सेनिक से प्रभावित लोग बहुत गरीब हैं व दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में रहते हैं । 
जैसा कि पहले बताया गया है, बंगाल और अन्यत्र सिंचाई और पीने के लिए आर्सेनिक प्रदूषित भूजल ही समस्या की जड़ है। आर्सेनिक प्रदूषित भूमिगत जल के अत्यधिक उपयोग के कारण मिट्टी और खाद्य श्रृंखला में काफी आर्सेनिक प्रदूषण हुआ है। आर्सेनिक प्रदूषित जल का उपयोग कम करने और इसके उपायों के बारे में किसानों को जागरूक बनाने में काफी समय लगेगा। इसके अलावा समेकित तरीके की सफलता के लिए सिर्फ  कृषि वैज्ञानिकों को नहीं बल्कि चिकित्सकों, सामाजिक वैज्ञानिकों और योजनाकारों को भी साथ लाना होगा ।
फौरी तौर पर बड़े पैमाने पर आर्सेनिक की मात्रा पता करने के लिए खेतों और प्रयोगशाला प्रोटोकॉल में सुधार की ज़रूरत है ताकि भूमिगत जल में विभिन्न आर्सेनिक रूपों का मापन किया जा सके । खाद्य शृंखला में कुल आर्सेनिक के कारण कितनी विषाक्तता है इसे पहचानने की जरूरत है । इसके अलावा विविध संस्थाओं और विविध विषयों को जोड़कर कार्यक्रमों को मज़बूत करना होगा, तभी आर्सेनिक-दूषित संसाधनों पर निर्भरता को कम करने के लिए दीर्घकालिक तकनीकी विकल्प  विकसित हो सकेंगे । 
जीवन शैली
बोतलबंद पानी का कारोबार
प्रमोद भार्गव
देश में लगातार फैल रहे बोतलबंद पानी के कारोबार पर संसद की स्थाई समिति ने कई सवाल खड़े किए हैं। 
समिति की रिपोर्ट  से खुलासा हुआ है कि पेयजल के कारोबार से अरबों रुपए कमाने वाली कंपनियों से सरकार भूजल के दोहन के बदले में न तो कोई शुल्क ले रही है और न ही कोई टैक्स वसूलने का प्रावधान है । समिति ने व्यावसायिक उद्देश्य के लिए भूजल का दोहन करने वाली इन कंपनियों से भारी-भरकम जल-कर वसूलने की सिफारिश की है। समिति का विचार है कि इससे जल की बरबादी पर भी अंकुश लगेगा । भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी की अध्यक्षता में जल संसाधन सम्बंधी इस समिति ने अपनी रिपोर्ट  लोकसभा में पेश की है । 
रिपोर्ट का शीर्षक है उद्योगों द्वारा जल के व्यावसायिक दोहन के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव । इसमें केन्द्रीय जल संसाधन, नदी विकास व गंगा संरक्षण मंत्रालय की खूब खिंचाई की गई है। समिति ने सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा है किजनता को शुद्ध पेयजल की आपूर्ति करना सरकार का नैतिक और प्राथमिक कर्तव्य है। किन्तु सरकार इस दायित्व के  पालन में कोताही बरत रही है । 
रिपोर्ट के मुताबिक केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण (सीजीडब्ल्यूए) ने भूजल के दोहन के लिए ३७५ बोतलबंद पेयजल को अनापत्ति प्रमाण-पत्र दिए हैं। इसके इतर ५,८७३ पेयजल इकाइयों को बीआईएस से बोतलबंद पानी उत्पादन के लायसेंस मिले हैं। ये कंपनियां हर साल १.३३ करोड़  घनमीटर भूजल जमीन से निकाल रही हैं। चिंताजनक पहलू यह है कि ये कंपनियां कई ऐसे क्षेत्रों में भी जल के दोहन में लगी हैंजहां पहले से ही जल का अधिकतम दोहन हो चुका है । 
समिति ने सवाल उठाया है कि न तो सरकार के पास ऐसा कोई प्रामाणिक रिकॉर्ड है कि वाकई ये इकाइयां कुल कितना पानी निकाल रही हैंऔर न ही इनसे किसी भी प्रकार के टैक्स की वसूली की जा रही है जबकि ये देशी-विदेशी कंपनियां करोड़ों-अरबों रुपए का मुनाफा कमा रही हैं और इनसे राजस्व प्राप्त करके जन-कल्याण में लगाने की जरूरत है। समिति ने यह भी सिफारिश की है कि जनता को शुद्ध और स्वच्छ जल की आपूर्ति को केवल निजी उद्योगों के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता है । 
संविधान का अनुच्छेद २१ प्रत्येक नागरिक को जीने का अधिकार देता है। लेकिन जीने की मूलभूत सुविधाओं को बिंदुवार परिभाषित नहीं किया गया है। इसीलिए आजादी के ७० साल बाद भी पानी की तरह भोजन, आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे जीने के बुनियादी मुद्दे पूरी तरह संवैधानिक अधिकार के दायरे में नहीं आए हैं। यही वजह रही वि २००२ में केन्द्र सरकार ने औद्योगिक हितों को लाभ पहुंचाने वाली जल-नीति पारित की और निजी कंपनियों को पेयजल का व्यापार करने की छूट दे दी गई । भारतीय रेल भी रेलनीर नामक उत्पाद लेकर बाजार में उतर आई । 
पेयजल के इस कारोबार की शुरुआत छत्तीसगढ़ से हुई । यहां शिवनाथ नदी पर देश का पहला बोतलबंद पानी संयंत्र स्थापित किया गया । इस तरह एकतरफा कानून बनाकर समुदायों को जल के सामुदायिक अधिकार से अलग करने का सिलसिला चल निकला । यह सुविधा युरोपीय संघ के दबाव में दी  गई थी । पानी को विश्व व्यापार के  दायरे में लाकर पिछले एक-डेढ़ दशक के भीतर एक-एक कर विकासशील देशों के जल स्त्रोत अंधाधुंध दोहन के लिए इन कंपनियों के हवाले कर दिए गए । इसी युरोपीय संघ ने दोहरा मानदंड अपनाकर ऐसे नियम-कानून बनाए हुए हैं कि विश्व के अन्य देश पश्चिमी देशों में आकर पानी का कारोबार नहीं कर  सकते हैं। 
युरोपीय संघ विकासशील देशों के जल का अधिकतम दोहन करना चाहता है, ताकि इन देशों की प्राकृतिक संपदा का जल्द से जल्द नकदीकरण कर लिया जाए । पानी अब केवल पीने और सिंचाई का पानी नहीं रह गया है, बल्कि विश्व बाजार में नीला सोना के रूप में तब्दील हो चुका है । पानी को लाभ का बाजार बनाकर एक बड़ी आबादी को जीवनदायी जल से वंचित करके आर्थिक रूप से सक्षम लोगों को जल उपभोक्ता बनाने के प्रयास हो रहे हैं । यही कारण है कि दुनिया में देखते-देखते पानी का कारोबार ४० हजार ५०० अरब डॉलर का हो गया है ।
भारत में पानी और पानी को शुद्ध करने के उपकरणों का बाजार लगातार फैल रहा है । देश में करीब ८५ लाख परिवार जल शोधन उपकरणों का उपयोग करने लगे हैं । भारत में बोतल और पाउच में बंद पानी का ११ हजार करोड़ का बाजार तैयार हो चुका है। इसमें हर साल ४० से ५० प्रतिशत की बढ़ोतरी हो रही है। देश में इस पानी के करीब एक सौ ब्रांड प्रचलन में हैं और १२०० से भी ज्यादा संयंत्र लगे हुए हैं । देश का हर बड़ा कारोबारी समूह इस व्यापार में उतरने की तैयारी में है। कम्प्यूटर कंपनी माइक्रोसाफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स  भारत में ओम्नी प्रोसेसर संयंत्र लगाना चाहते हैं। इस संयंत्र से दूषित मलमूत्र से पेयजल बनाया जाएगा । 
भारतीय रेल भी बोतलबंद पानी के कारोबार में शामिल है । इसकी सहायक संस्था इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज्म कार्पोरेशन (आईआर-सीटीसी) रेल नीर नाम से पानी पैकिंग करती है । इसके लिए दिल्ली, पटना, चैन्नई और अमेठी सहित कई जगह संयंत्र लगे हैं। उत्तम गुणवत्ता और कीमत में कमी के कारण रेल यात्रियों के बीच यह पानी लोकप्रिय है । अलबत्ता, निजी कंपनियों की कुटिल मंशा है कि रेल नीर को घाटे के सौदे में तब्दील कराकर सरकारी क्षेत्र के इस उपक्रम को बाजार से बेदखल कर दिया जाए । तब कंपनियों को रेल यात्रियों के रूप  में  नए  उपभोक्ता  मिल  जाएंगे ।
वर्तमान में भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है । यहां हर साल २५० घन किमी पानी धरती के गर्भ से खींचा जाता है, जो विश्व की कुल खपत के एक चौथाई से भी ज्यादा है । इस पानी की खपत ६० फीसदी खेतों की सिंचाई और ४० प्रतिशत पेयजल के रूप में होती है। इस कारण २९ फीसदी भूजल के स्त्रोत अधिकतम दोहन की श्रेणी में आकर सूखने की कगार पर हैं । औद्योगिक इकाइयों के लिए पानी का बढ़ता  दोहन इन स्त्रोतों के हालात और नाजुक बना रहा है । कई कारणों से पानी की बर्बादी भी खूब होती है । 
आधुनिक विकास और रहन-सहन की पश्चिमी शैली अपनाना भी पानी की बर्बादी का बड़ा कारण बन रहा है। २५ से ३० लीटर पानी सुबह  मंजन करते वक्त नल खुला छोड़ देने से व्यर्थ चला जाता है । ३०० से ५०० लीटर पानी टब में नहाने से खर्च होता है । जबकि परंपरागत तरीके से स्नान करने में महज २५-३० लीटर पानी खर्चता है । 
एक शौचालय में एक बार फ्लश करने पर कम से कम दस लीटर पानी खर्च होता है । ५० से ६० लाख लीटर पानी मुम्बई जैसे महानगरों में रोजाना वाहन धोने में खर्च हो जाता है जबकि मुम्बई भी पेयजल का संकट झेल रहा  है । १७ से ४४ प्रतिशत पानी दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलुरू और हैदराबाद जैसे महानगरों में वॉल्वों की  खराबी से बर्बाद हो जाता  है ।
पेयजल की ऐसी बर्बादी और पानी के निजीकरण पर अंकुश  लगाने की बजाय सरकारें पानी को बेचने की फिराक में ऐसे कानूनी उपाय लागू करने को तत्पर हैं । संयुक्त राष्ट्र भी कमोबेश इसी विचार को समर्थन देता दिख रहा है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र ने पानी और स्वच्छता को बुनियादी मानवाधिकार घोषित किया हुआ है लेकिन इस बाबत उसके अजेंडे में पानी एवं स्वच्छता के अधिकार का वास्ता मुफ्त में मिलने से कतई नहीं है । बल्कि इसका मतलब यह है कि ये सेवाएं सबको सस्ती दर पर हासिल हों। साफ है, पानी को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाजार के हवाले करने की साजिश रची जा रही है ।            
जन जीवन
घर का कचरा बगीचे में क्यों नहीं ?
डॉ. किशोर पंवार
सुरसा की तरह विकराल होती शहरी कचरे की समस्या का कोई हल ढूंढने की आवश्यकता है । 
इस मानव जनित उपभो-क्तावादी संकट से पार पाने के लिये नागरिकों को समन्वित प्रयास करना होंगे । कई छोटे-छोटे उपाय अपनाना होगें । इनमें कचरे के संग्रीगेशन से लेकर अपने घरों में कम्पोस्ट खाद बनाने के तरीके अपनाने होगें । 
आजकल चारों ओर साफ- सफाई का बोलबाला है । देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है । शहर और गांव सभी साफ हो रहे हैं । स्वच्छता अभियान में नगरीय प्रशासन और नागरिकों की महती भूमिका है । स्वच्छता सर्वेक्षण में इन्दौर शहर पूरे देश में सर्वप्रथम आया  है । इसे साफ-सुथरा रखने में नगर निगम के प्रशासनिक अधिकारियों, सफाई-कर्मियों, कुछ  स्वयंसेवी संस्थाआें और नागरिकों ने महत्वपूर्ण कार्य किये है । सभी के मिले जुले प्रयासों का नतीजा है स्वच्छ इन्दौर । पर अभी इन्दौर स्वस्थ नहीं है । इसे आगे भी नम्बर वन रखना एक चुनौती है । 
इसका नंबर वन होना भी इस बात का उदाहरण है कि यदि ईमानदारी से जन प्रतिनिधि, जन सेवक और आमजन कुछ करने का  ठान ले तो कुछ भी मुश्किल नहीं है । स्वच्छ इन्दौर का मतलब है मन्युनसिपल सालिड वेस्ट को शहर से उठाकर उसका उचित निपटान करना । यह सच है कि अब शहर की सड़कें साफ हैं । उनके किनारे कचरों के ढेर नहीं है । सड़कों पर धूल का गुबार भी गायब है । पर इसका मतलब यह नहीं है कि शहर में कचरा पैदा होना बंद हो गया है । कचरा तो उतना ही पैदा हो रहा है, जितना पहले होता था । पर अब उठता भी उतना है जितना पैदा होता है - लगभग ११००० मिट्रिक टन । 
पर यह कचरा जाता कहां है आपने कभी सोचा है ? ये सारा कचरा शहर से दूर ट्रेचिंग ग्राउंड पर सैकड़ों ट्रकों से ले जाया जाता है । इन्दौर शहर का कचरा देवगुराड़िया नामक पवित्र स्थान पर बने ट्रेचिंग ग्राउंड पर डाला जा रहा है । शहर के कचरे को पास के गांवों में बने कचरा भरण/संग्रहण स्थल पर डाला जा रहा है । 
परन्तु  क्या यह व्यवस्था ठीक है ? इस केन्द्रीकृत कचरा संग्रहण व्यवस्था की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है । लैडफिल पर बदबू, धुंआ और ढेर सारी हानिकारक गैसें निकलती  है । इससे आस-पास रहने वालों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है । लैंडफिल के आसपास रहने वाले लोग अक्सर इसे यहां से हटाने के लिए आंदोलन करते रहते है । 
इन लैंडफिल से ४५ से ६० प्रतिशत मीथेन गैस निकलती है । यह एक हानिकारक ज्वलनशील गैस है । हालांकि इसका संग्रहण कर इसे ईधन के रूप में प्रयोग लाया जा सकता है । अपने देश में तो नहीं पर विदेशों में कई जगह ऐसा हो रहा है । इससे बिजली बनाने और घरों को गर्म रखने में भी इसका उपयोग होता है । 
दूसरी गैस कार्बन डाई आक्साइड भी ४०-६० प्रतिशत निकलती है । इसके अलावा २-५ प्रतिशत नाइट्रोजन भी निकलती है । यदा कदा इन लैंडफिलों में लगने वाली आग से इन गैसों की मात्रा और बढ़ जाती है । इनके अतिरिक्त इन लैंडफिल स्थानांें से बेन्जीन, डायक्लोरो-इथेन, कार्बनिक सल्फाईड, विनाइल, क्लोराइड और नाइलीन जैसे कई हानिकारक कार्बनिक पदार्थ निकलते रहते है । 
मुम्बई जैसे शहर के ठोस कचरे को ठिकाने लगाने वाले भरण स्थल ३०-४० कि.मी. दूर है, इनकी परिवहन कीमत १६ लाख रूपये प्रतिदिन है । कचरा भरण स्थलों के व्यवस्था, किराये व अन्य  खर्च जोड़कर यह कीमत १२६ करोड़ रूपये प्रति वर्ष आती है । 
इस म्यूनिसिपल वेस्ट को जलाना भी कोई उचित उपाय नहीं है । इस शहरी कचरे में ४०-६० प्रतिशत तक ज्वलनशील पदार्थ होते हैं । इन्हें जलाने के लिए लगाये गये बड़े-बड़े संयंत्र इन्सीनरेटर्स कहलाते है । ये महंगे भी है और  इनसे निकलने वाली हानिकारक गैसों के खिलाफ स्थानीय लोग भी आवाज उठाते है । नई दिल्ली स्थित इन्सीनरेटर्स के साथ ऐसा ही हो रहा है । पीसीबी के अनुसार इससे खतरनाक डायक्सीन गैस निकलती है । शहरी ठोस कचरे के निस्तारण की केन्द्रीकृत व्यवस्था के कारण हालात यह हो गये है कि देश के महानगरों के सभी लैंडफिल अपनी क्षमता खो चुके हैं । दिल्ली की लैंडफिल स्थल उबर रहा है । हाईकोर्ट ने नये लैंडफिल स्थल खोजन के लिये निर्देश दिये हैं । गाजीपुर कचरा भरण स्थल के कचरे के पहाड़ के भरभराकर गिरने से हाल ही में कुछ मौतें भी हो चुकी है । 
सुरसा की तरह विकारल होती इस समस्या का कोई हल भी है क्या ? हल तो है पर कोई एक नहीं । इस मानवजनित उपभोक्तवादी संकट से पारपाने के लिये समन्वित प्रयास करना होंगे । कई छोटे-छोटे उपाय अपनाना होगे । सबसे पहला उपाय है कचरे के स्त्रोत पर ही सेग्रीगेशन (पृथक्करण) करने की । इसकी शुरूआत हो चुकी है । इन्दौर शहर इसका गवाह है। नागरिक अब सूखा कचरा अलग और गीला कचरा अलग रखते हैं । कचरे की छंटाई एक बड़ा मुद्दा है । यह एक तरह का विकेन्द्रीकरण है । केन्द्रीय प्रदूषण निवाकरण मण्डल नईदिल्ली और नीरी नागपुर की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में मरूुसिनल वेस्ट कम जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्रों में ०.२ किलो प्रति व्यक्ति प्रतिदिन है और अधिक जनसंख्या घनत्व वाले शहरी क्षेत्रों में ०.६ किलो प्रति व्यक्ति प्रतिदिन है । नवीन एवं नवीनीकरण ऊर्जा मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि शहरी क्षेत्रों में म्यूनिसीपल वेस्ट लगभग २ लाख टन प्रतिदिन है । 
खुशी की बात यह है कि हम म्यूनिसीपल वेस्ट का लगभग ५०-६० प्रतिशत हिस्सा जैव अपघटनशील है । यानि इसका कम्पोस्ट बनाया जा सकता है । कचरा संग्रहण के विकेन्द्रीकरण की दिशा में इन्दौर नगर पालिका निगम ने एक और बड़ा और सराहनीय कदम उठाया है । इसने अपने आधिपत्य के लगभग ५०० से अधिक बगीचों में दो-दो कम्पोस्ट पिट बना दिये हैं । 
यानि अब इन बगीचों के कचरे को लैंडफिल स्थल तक परिवहन नहीं करना पड़ेगा । इससे एक तो वहां सैकड़ों टन कचरा कम पहुंचेगा । दूसरा इससे परिवहन का खर्च बचेगा । गड़ियों के फेरे कम लगने से शहर में वायु प्रदूषण कम होगा क्योंकि कचरा गाड़ियां डीजल चलित है । 
बगीचों की साफ-सफाई और कटाई-छंटाई एक रूटीन का कार्य है । अत: बगीचों से ढेर सारा बायोमास प्रति सप्तह निकलता ही है । बगीचे का यह बायोमास प्रति सप्तह निकलता ही है । बगीचे का यह बायोमास तो १०० प्रतिशत जैव अपघटनशील है । इस कचरे से जो कम्पोस्ट बनेगा वह वहीं काम आ जायेगा । यानि बगीचे का कचरा बगीचे में । कचरे के ढेर में नहीं । 
कचरे की इस समस्या से निपटने का दूसरा उपाय है कि नगर निगम जो कार्य बाग-बगीचे में कर रहा है, वह हम अपने-अपने घरों में करें । यदि शहर का हर नागरिक ऐसा करता है तो प्रतिदिन ११०० टन कचरा, जो कचरा भराव स्थल पर जाता है घर ही कम्पोस्ट बन सकता है । अगर शहर की आधी आबादी भी यह ठान ले तो समस्या का ५० प्रतिशत निदान तो हो ही जायेगा । इन्दौर के खजराना गणेश मन्दिर में किया जा रहा कार्य अनुकरणीय है । इस मंदिर में निकलने वाले हार-फूल- इत्यादि से वहीं मन्दिर में कम्पोस्ट बनाई जा रही है और गणेशजी के प्रसाद की रूप में बेची जा रही है । 
घर से निकलने वाली चाय-पत्ती सब्जियों के छिलके, फल- फूल, हार पूजन सामग्री रोज खिरने वाली हरी-पीली-सुखी पत्तियों से कार्बनिक पदार्थ निकलते है, जिनका आसानी से कम्पोस्टिग किया जा सकता है । कम्पोस्टिंग के तरीके जानने के लिये नेट पर जरा यू ट्यूब पर सर्च कर लें । ढेरों विडियो आपको मिल जायेगें - घर पर कम्पोस्ट बनाने के संदर्भ में । घरेलू कचरे को सही तरीके से जल्दी सड़ाने-गलाने हेतु बाजार में तरह-तरह के किट उपलब्ध है, इनकी कीमत मात्र ७००-८०० रूपये लेकर २००० रूपये तक है । इस किट में आपकी दो बढ़िया प्लास्टिक की सुन्दर बाल्टियां और कम्पोस्टिंग के लिये कम्पोस्टर के पैकेट मिलेंगे । घर का कचरा इन बाल्टियों में डालकर राज दो चम्मच कम्पोस्टिंग पावडर इस पर छिड़कना   है । महीने भर में बढ़िया कम्पोस्ट आपके घर में भी तैयार । 
बाजार से नहीं खरीदना चाहे तो खुद घर पर ही कम्पोस्ंटिग बाल्टी बना सकते है । एक पुरानी पेंट की खाली बाल्टी या पुराने अनुपयोग मटके में ड्रिल मशीन से ढेर सारे छिद्र कर लें । छिद्र इसलिए कि घरेलू कचरे को खाने वाले जीव फफूंद व बैक्टीरिया, वायु जीवी होते हैं । उन्हें भी जीने के लिये ताजी हवा चाहिये । इस बाल्टी या मटके में रोज अपना कचरा डाले । थोड़ा सा पुराना गोबर की सड़ी खाद या छाछ भी डाली जा सकती है । इनमें उपस्थित सूक्ष्म जीव कचरे को खाकर आपको बढ़िया पौष्टिक खाद में बदल देंगे । मैने तो अपने घर पर यह काम शुरू कर दिया    है ।                                             
पर्यावरण परिक्रमा
सालाना बजट से भी ज्यादा हो सकता है बाढ़ से नुकसान
पिछले दिनों केरल में आई बाढ़ ने पूरे प्रदेश में तबाही मचाई है । नुकसान का पूरी तरह आंकलन होने के बाद यह राज्य के कुल सालाना बजट के बराबर या उससे भी ज्यादा हो सकता है । यह आंकलन सरकार द्वारा लगाया जा रहा है । 
बाढ़ से हुए नुकसान का शुरूआती अनुमान २० हजार करोड़  रूपये लगाया गया था । राज्य सरकार की सालाना परियोजनाआें का प्रस्तावित बजट २९१५० करोड़ रूपये है । इसमें केन्द्र द्वारा शुरू किए गए प्रोजेक्ट भी शामिल है । इस साल का राज्य का सालाना बजट ३७२७३ करोड़ रूपये है । 
नुकसान का पूरा आंकलन होने के बाद यह करीब ३५ हजार करोड़ रूपये से ज्यादा भी हो सकता है । यह रकम इतनी बड़ी है कि राज्य सरकार खुद इसे लेकर परेशान है । सड़क नेटवर्क को हुआ शुरूआती नुकसान ही ४५०० करोड़  रूपये है । पावर सेक्टर को हुए नुकसान का शुरूआती अनुमान ७५० करोड़ रूपये है । जल विभाग को हुए नुकसान का अनुमान ९०० करोड़ रूपये है, वहीं कोिच्च् एयरपोर्ट बंद रहने से सीआईएएल को हुए नुकसान का अंदाजा अभी तक नहीं लगाया गया है । 
केरल के मुख्यमंत्री  विजयन ने बाढ़ से हुए नुकसान को लेकर केन्द्र से उदारवादी दृष्टिकोण की मांग करते हुए कहा, राज्य की जनसंख्या ज्यादा है, इसलिए नुकसान भी काफी हुआ है ।  किसी भी राज्य में हुए नुकसान से इसकी तुलना नहीं की जा सकती है । इस आधार पर केरल के मामले को खास तौर पर तवज्जों दिए जाने की जरूरत है । मीडिया को दिए एक लेख में मुख्यमंत्री ने कहा, ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बाद भी केरल के लोग सरकार के साथ है । 
मुख्यमंत्री ने कहा कि राज्य बल, स्थानीय अथॉरिटी, जन प्रतिनिधि, स्थानीय लोग और केन्द्रीय टीम के बीच बेहतर तालमेल से सफल रेस्क्यू ऑपरेशन हो सके   है । उन्होंने कहा, यह सावधानीपूर्वक बनाई गई योजना, जमीनी वास्तविकताआें का मूल्यांकन, टैक्नॉलाजी का इस्तेमाल, लोगों का संकल्प और राज्य द्वारा समन्वय की वजह से संभव हुआ है । केरल की बाढ़ को लेकर देश भर में सहायता का दौर भी चल रहा है । 
इंसानी गतिविधियों से बढ़ रहा है, भूस्खलन
भूस्खलन के कारण वर्ष २००४ से २०१६ के दौरान ५० हजार से ज्यादा लोगों को जान गंवानी पड़ी है । यह बात ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ शेफील्ड के शोधकर्ताआें के अध्ययन में सामने आई है । शोधकर्ताआें की टीम ने अध्ययन के लिए इन वर्षो केदौरान ४८०० से अधिक भयंकर भूस्खलन के डाटा को एकत्र किया । 
इस अध्ययन में पहली बार यह सामने आया कि इंसानी गतिविधियों के कारण भूस्खलन की घटनाएं लगातार बढ़ रही है । यूरोपियन जीओसाइंसेज यूनियन जर्नल नेचुरल हैजर्ड और अर्थ सिस्टम सांइसेज में प्रकाशित इस अध्ययन में शोधकर्ताआें ने पाया कि उपरोक्त वर्षो के दौरान हुए ७०० भंयकर भूस्खलन के पीछे इंसानी गतिविधियां जिम्मेदार थी । लगातार बढ़ता निर्माण कार्य, कानूनी और गैरकानूनी खनन, पहाड़ों की अनियमित कटाई आदि वे सबसे बड़े इंसानी कारण हैं, जिनके चलते ये घटनाएं बढ़ रही है । 
यूनिवर्सिटी ऑफ शेफील्ड के भूगोल विभाग मेंपोस्टडॉक्-टोरल शोधकर्ता और इस अध्ययन की प्रमुख लेखक डॉ. मेलानी फ्राउडे के मुताबिक, हम पहले से जानते थे कि इंसानों का स्थानीय वातावरण में अधिक हस्तक्षेप इन घटनाआें के बढ़ने के कारण है । अब आंकड़ों से इस बात की पुष्टि हो गई है । 
शोधकर्ताआें के मुताबिक, हालांकि यह प्रवृत्ति पूरी दुनिया में देखी जा रही है, लेकिन एशिया महाद्वीप इससे सबसे ज्यादा प्रभावित है । डॉ. मेलानी आगे कहते है भयंकर भूस्खलन की घटनाआें में शामिल सभी शीर्ष १० देश एशिया महाद्वीप के हैं । वहीं भारत की बात करें तो वह इन घटनाआें से सबसे अधिक प्रभावित  है । यहां इस तरह की २० फीसद घटनाआें में जिम्मेदारी इंसानों की   है । वहीं, इंसानों गतिविधियों के कारण भयंकर भूस्खलन बढ़ने की दर भी भारत में सबसे अधिक है । 
यूनिवर्सिटी ऑफ शेफील्ड में रिसर्च एंड इनोवेशन के उपाध्यक्ष प्रोफेसर डेव पेटली ने भयंकर भूस्खलन के आंकड़ों को इस कारण एकत्र करना शुरू किया था क्योंकि उन्हें महसूस हुआ था कि प्राकृतिक आपदा के आंकड़ों के आधार पर भूस्खलन के पीछे के कारणों को नहीं जाना जा सकता है । वह कहते हैं, हालांकि भूकंप और तूफान सबसे भंयकर है, लेकिन भूस्खलन से मरने वालों की संख्या भी बहुत अधिक है । २००४ से २०१६ के मध्य ४८०० भंयकर भूस्खलन के कारण करीब ५६००० लोगों को जान गंवानी पड़ी थी । इन सब घटनाआें में शोधकर्ता केदारनाथ के भूस्खलन को सबसे बड़ी त्रासदी बताते हैं । जून २०१३ में इस घटना के कारण पंाच हजार से अधिक लोगों की जान गई थी । इस घटना के कारण हजारों तीर्थयात्री प्रभावित हुए थे । 
गंगा सफाई के तहत १५० करोड़
गंगा सफाई की केन्द्र सरकार की महत्वाकांक्षी नमामि गंगा योजना के तहत उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल के लिए १५० करोड़ रूपए की परियोजनाआें की मंजूर दी गई है । 
राष्ट्रीय गंगा सफाई मिशन की पांचवी बैठक में पिछले दिनों इन परियोजनाआें को मंजूरी दी गई । इन परियोजनाआें के तहत नालों का निर्माण, छोटी नदियों तथा नालों को ट्रीटमेंट केन्द्र की तरफ मोड़ने के साथ ही गंदे नालों को गंगा की तरफ जाने से रोकना है ताकि इसमें साफ पानी प्रवाहित किया जा सके । इसके साथ ही इन परियोजनाआें के तहत गंगा तट पर घाटों का निर्माण कार्य किया जाएगा । परियोजना के तहत देहरादून मे ंरिस्पाना तथा बिंदल नदी मेंगिरने वाले नालों को रोकने के लिए ६० करोड़ रूपए की लागत से निर्माण कार्य किया जाएगा और मिर्जापुर में २८ करोड़ रूपए की लागत से घाटों का निर्माण किया जाएगा । बिहार के सोनपुर, पश्चिम बंगाल केकटवा, कलना, अग्राविप तथा डैनहाट में गंगा सफाई की परियोजना पर भी काम किया  जाएगा । 
चीनी वैज्ञानिक बना रहे हैं सुपरकंडक्टिंग कप्यूटर
चीन में एक सुपरकंडक्टिंग कम्प्यूटर  प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है । यह कम्प्यूटर नए हथियार डेवलप करने, कोडिंग तोड़ने और डेटा एनालिसिस जैसे काम तो करेगा ही, बिजली की बचत में भी काफी मदद करेगा । दरअसल, कम्प्यूटर चलाने में काफी बिजली खर्च होती है । 
सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री  एसोसिएशन की एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे काम का तरीका नहीं बदला तो २०४० में कम्प्यूटर चलाने के लिए जितनी  बिजली की जरूरत होगी, उतनी हम पैदा भी नहीं कर रहे होंगे । सुपरकंडक्टिंग  कम्प्यूटर को इसी का समाधान माना जा रहा है । सुपरकंडक्टिंग मटेरियल सेबने बेहद  ठंडे सर्किट के जरिए बिजली सप्लाई की जाएगी । इससे- रेजिस्टेंस (प्रतिरोध) ना के बराबर होगा । इसलिए पारंपरिक कम्प्यूटर की तुलना में चालीसवें से एक हजारवें हिस्से के बराबर बिजली की जरूरत होगी । वैज्ञानिक एक सदी से भी ज्यादा समय से सुपरकंडक्टिविटी पर काम कर रहे हैं । दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका, पूर्व सोवियत संघ और कुछ यूरोपीय देशों ने कोशिश की । इनमें सुपरकंडक्टिंग मटेरियल के तौर पर नियोबियम का इस्तेमाल हुआ था । कुछ प्रोटोटाइप भी बने, लेकिन इनके प्रोजेक्ट सफल नहीं हो सके । अमेरिका में २०१४ में फिर एक प्रोजेक्ट पर काम शुरू हुआ है । चीन के वैज्ञानिकों का दावा है कि वे सुपरकंडक्टिंग टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल  में काफी हद तक सफल रहे हैं । 
बृहस्पति पर पानी और ऑक्सीजन दोनों है
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के वैज्ञानिकों को बृहस्पति ग्रह पर पानी होने के संकेत मिले हैं । यह पानी इस ग्रह के लाल हिस्से में है । इस हिस्से को द ग्रेट रेड स्पॉट कहा जाता है । दरअसल, यह एक ऐसी जगह है जहां करीब ३५० सालों से तूफान आ रहे हैं । 
वैज्ञानिकों के मुताबिक इस पानी में ऑक्सीजन समेत कार्बन मोनोऑक्साइड गैस भी है । इससे पता चलता है कि बृहस्पति पर सूरज की तुलना में दो से नौ गुना ज्यादा ऑक्सीजन है । द ग्रेट रेड स्पॉट घने बादलों से भरा हुआ है, जिससे विद्युत चुंबकीय ऊर्जा का निकल पाना मुश्किल हो जाता है । ऐसे में इसकी रासायनिक प्रक्रियाआें की ज्यादा जानकारी नहीं मिल पाती । 
अध्ययन करने वाली टीम में शामिल नासा के वैज्ञानिक गॉर्डन आई जोराकर ने इस दावे पर कहा, बृहस्पति के चारों ओर चक्कर लगने वाले उसके चन्द्रमाआें में भरपूर बर्फ है । यानी बृहस्पति के चारों ओर काफी पानी है । बृहस्पति का वह हिस्सा जिसे गुरूत्वाकर्षण का कुंड (द ग्रेट रेड स्पॉट) कहा जाता है, जिसमें हर चीज खिंची चली आती है उसमें पानी क्यों नहीं हो सकता । 
चांद पर पानी  होने का प्रमाण भारत का चंद्रयान-१ काफी पहले ही दे चुका है । इसरो ने यह मिशन १० साल पहले भेजा था । इसके साथ साथ नासा ने भी अपना एक उपकरण भेजा था । इससे मिली जान-कारियों का अध्ययन करने पर वहां बर्फ होने के भी सबूत मिले हैं। 
प्रदेश चर्चा
दिल्ली : खेती में सोलर ऊर्जा का प्रयोग
कृष्णगोपाल व्यास
कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्र के लिए जिस पानी का उपयोग किया जा  रहा है उस पानी का उपयोग उस क्षेत्र में खेती के लिए किया जा सकता हैं । 
दिल्ली सरकार ने अक्षय ऊर्जा से संबंधित एक कार्यनीति को धरातल पर उतारने की कोशिश की है । इस देश और दुनिया को साफ ऊर्जा के प्रोत्साहन के लिए संदेश मिलेगा । जहां देश के किसान आत्महत्या कर रहे हैं वहीं किसान और किसानी का बुरा हाल है। लेकिन अब किसान अपनी खेतों में सोलर पैनल लगाकर आमदनी कर सकते हैं। इसके लिए दिल्ली सरकार ने नीतिगत फैसला ले लिया है ।
दिल्ली सरकार ने हाल ही में किसानों की आय में तीन से पाँच  गुना तक इजाफा करने के लिए मुख्यमंत्री किसान आय बढ़ोत्तरी योजना को मंजूरी दी है । अपने ढंग की अनूठी अभिनव योजना के अन्तर्गत किसान के एक एकड़ के खेत के अधिकतम एक तिहाई हिस्से पर सोलर पेनल लगाए जावेंगे और बिजली पैदा की जायेगी । कम्पनी द्वारा उस बिजली को चार रूपये      प्रति यूनिट की दर से दिल्ली सरकार  के विभागों को बेची जावेगी ।  सोलर पैनल का खर्च कम्पनी उठायेगी । किसान पर कोई बोझ नहीं पड़ेगा ।
दिल्ली राज्य सरकार का मानना है कि एक एकड़ जमीन से किसान को प्रति वर्ष बीस से तीस हजार रुपयों तक की आय होती है। एक तिहाई जमीन पर सोलर पेनल लगने से किसान को एक तिहाई उत्पादन का नुकसान होगा और आय प्रभावित होगी पर जमीन के किराए के तौर पर चूँकि उसे हर साल एक लाख रूपया प्राप्त होगा, इसलिए वह घाटे में नहीं रहेगा । वह पहले की ही तरह       दो तिहाई जमीन से उत्पादन ले  सकेगा । उसे तीस हजार की जगह बीस हजार प्राप्त होंगे । उसकी सालाना आय तीस हजार के स्थान पर एक लाख बीस हजार होगी । अर्थात उसकी आय में चार गुना बढ़ोत्तरी संभावित है । 
दिल्ली की राज्य सरकार का मानना है कि चूँकि सोलर पेनल जमीन से साढ़े तीन मीटर की ऊँचाई पर लगाए जावेंगे इसलिए उसकी जमीन बेकार नहीं जावेगी । सोलर पेनल लगाने से खेती के काम में कोई खास व्यवधान नहीं होगा । किसान उस हिस्से से भी उत्पादन ले सकेगा । यह किसान की अतिरिक्त आय होगी जो अन्तत: उसका फायदा ही  बढ़ायेगी । 
ज्ञातव्य है कि मौजूदा समय  में दिल्ली की राज्य सरकार नौ रूपये प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीदती है। इस दर का बोझ अन्तत: दिल्ली की जनता  को उठाना होता है। किसान के खेत में लगने वाले सोलर पेनल वाली नई व्यवस्था के कारण अब उसे चार रूपये प्रति यूनिट की दर से बिजली मिलेगी । अर्थात् उसे प्रति यूनिट पाँच रूपये की बचत होगी । उसके सारे विभाग यही बिजली खरीदेंगे इस कारण राज्य सरकार के हर वर्ष ४०० से ५०० करोड़  रूपये  बचेंगे । 
पिछले कई वर्षों से किसान की आय बढ़ाने के लिए अनेक प्रयास किए जाते रहे हैं। खेती की लागत का हिसाब किताब लगाया जाता रहा है । क्या जोडें और क्या घटायें पर खूब माथापच्ची होती रही है । न्यूनतम समर्थन मूल्य क्या हो -पर अर्थशस्त्री से लेकर मंत्रालय तथा नौकरशाही और जन प्रतिनिधि शिद्दत से बहस करते रहे हैंपर सर्वमान्य लागत फार्मूला या देय समर्थन मूल्य हमेशा विवादास्पद ही रहा है । 
अनेक लोग उसके पक्ष में तो अनेक लोग उसके विपक्ष में दलील देते रहे हैं। यह सही है कि किसान को लाभ पहुँचाने के लिए अनेक उपाय सुझाए तथा लागू किए जाते रहे हैं। उन सब अवदानों के बावजूद किसान कभी कर्ज के  चक्रव्यूह का भेदन नहीं कर पाया है । कर्ज माफी का फार्मला भी सालाना कार्यक्रम बनता नजर आता है। सारी कसरत के बावजूद कोई भी प्रस्ताव या निर्णय किसान की न्यूनतम आय सुनिश्चित नहीं कर पाया है । उसके पलायन को कम नहीं कर पाया है । उसके खेती से होते मोहभंग को कम नहीं कर पाया । उसकी माली हालत में अपेक्षित सुधार नहीं ला पाया । 
लगता है कि दिल्ली की राज्य सरकार ने एक साथ दो लक्ष्यों का सफलतापूर्वक भेदन किया है। महंगी बिजली का विकल्प खोजकर न केवल अपना खर्च कम किया है वरन दिल्ली की जनता से टैक्स के रूप में वसूले पैसों की भी चिन्ता की है । यह बहुत कम प्रकरणों में ही होता है । दूसरे, दिल्ली की राज्य सरकार ने अपने राज्य के किसानों की सालाना आय को सुनिश्चित किया है । यह आय हर साल कम से कम एक लाख रुपयेे अवश्य होगी । यह आय किसान को मानसून की बेरुखी के कारण होने वाले नुकसान से बचायेगी । पुख्ता रक्षा कवच उपलब्ध करायेगी । आत्महत्या के आँकड़े कोकम  करेगी । 
लगता है दिल्ली की राज्य सरकार की मुख्यमंत्री किसान आय बढ़ोत्तरी योजना की अवधारणा भारत की परम्परागत खेती की उस मूल अवधारणा से प्रेरित है जिसमें मानसून पर निर्भर अनिश्चित खेती को सुनिश्चित आय देने वाले काम से जोड़ा जाता था। पहले ये काम पशुपालन हुआ करता था । अब समय बदल गया है । गोचर खत्म हो गए हैं। खेती में काम आने वाले जानवर अप्रसांगिक हो गए हैं। इस कारण सोलर पेनल के माध्यम से आय  जुटाने का नया रास्ता इजाद किया गया  है । 
एक बात और, दिल्ली की राज्य सरकार की इस नवाचारी योजना ने खेती पर मानसून की बेरुखी से होने वाले खतरे पर चोट  नहीं की है । अच्छा होता, इस योजना के साथ-साथ मानसून की बेरुखी पर चोट करने वाली योजना का भी आगाज होता । अर्थात् ऐसी योजना, जिसके अन्तर्गत कम से कम खरीफ की फसल की शत प्रतिशत सुरक्षा की बात को, हर खेत को पानी की बात और निरापद खेती (आर्गेनिक खेती) से जोड़कर आगे बढ़ाई होती । लगता है, इस बिन्दु पर किसानों से सीधी बात होनी चाहिए । समाधान वहीं से निकलेगा । निरापद खेती का भी आगाज वहीं से होगा । असंभव कुछ भी नहीं है । आईडिया कभी भी किसी के मोहताज  नहीं  रहे ।  
लघु कथा
प्रकृति प्रेम
सुश्री प्रज्ञा गौतम

विद्यालय स्थापना की स्वर्ण जयंती के अवसर पर विद्यालय में पौधारोपण का कार्यक्रम था । वन संपदा से समृद्ध आदिवासी क्षेत्र के इस विद्यालय के परिसर में पेड़ पौधों का नितांत अभाव था, यह बात हम सब शिक्षकों को अखरती थी ।
एक दिन पूर्व से ही तैयारियां चल रही थी । पौधों की सुरक्षा हेतु कंटीली बाड़ लगायी गयी । समारोह के दिन सुबह से ही गहमागहमी का वातावरण था । कुछ शिक्षक एवं छात्र मैदान की सफाई मेंजुट थे । कुछ छात्र ग े खोद रहे थे, और कुछ समीपस्थ पौध शाला से पौधे लाने का कार्य कर रहे थे । इस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप मेंक्षेत्र के विधायक आमंत्रित थे । 
निर्धारित समय पर वे पधारे । शिक्षकोंऔर छात्रों के साथ उन्होंने स्वयं अपने कर-कमलों से पौधारोपण किया और छात्रों को पौधों की सुरक्षा के लिए शपथ दिलाई । मैं उनकी सादगी और प्रकृति प्रेम से प्रभावित थी । इस अवसर पर कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रमों के उपरांत उनका भाषण था । वे अपनी ओजस्वी वाणी से संबोधित करने लगे -
शिक्षक बंधुआेंऔर प्रिय छात्रों, 
यह बड़े ही हर्ष का विषय है कि विद्यालय स्थापना दिवस की स्वर्ण जयंति पर पौधारोपण जैसा पवित्र कार्य किया गया और इस पुनीत कार्य में मेरी भी भागीदारी रही । वृक्ष इस धरती का श्रृंगार है । वृक्ष हैं तो जल है और जल है तो जीवन है । प्रकृतिकी गोद में स्थित यह क्षेत्र सघन वनों से घिरा हुआ है । अनेक दुर्लभ पादप प्रजातियों और जड़ी बूटियॉ इस क्षेत्र में है । साथियों, अपने इस कार्यकाल के दौरान मैं इस वन संपदा के संरक्षण के लिए कृत संकल्प हॅू ....... । मैं उनके उद्गार सुनकर अभिभूत थी । 
वन-भ्रमण की मेरी बहुत इच्छा थी इसलिए मैं वन विभाग के कार्यालय मेंजानकारी प्राप्त् करने गयी । वहां के अधिकारी ने जब मुझे उस क्षेत्र की जैव - विविधता के बारे में बताया तो मैं दंग रह गयी । 
अद्भूत । इस जैव-संपदा को संरक्षित रखने के आपके प्रयास सराहनीय है । मैने कहा । मेरी इस बात से उनके चेहरे पर अफसोस की लकीरेंखिंच  गयी । 
हम कहाँ कुछ कर पाते हैं मैडम, हमारे हाथ बंधे हुए हैं । आप तो अभी नयी आयीं हैं । आपको पता नहीं है कि पहले जैसे वन अब नहीं रहे । पेड़ के पेड़ लोग काट कर ले जाते है । उनकी कुल्हाड़ी छीनते ही विधायक और नेताआें के फोन आ जाते है कि हमारा वोटर है, ले जाने दो पेड़ । 
मैं सन्न रह गयी । मेरे हाथ से मेरी कलम छूट कर नीचे गिर गयी थी । अभी कल ही तो विधायक हमारे विद्यालय में वन सरंक्षण की बात करके गये हैं । बड़े प्रकृति प्रेमी मालूम होते   थे । मैने अविश्वास के साथ कहा तो अधिकारी के चेहरे पर एक अर्थपूर्ण मुस्कराहट फैल गयी । 
यही तो राजनीति है मैडम, आप अभी नहीं समझेंगी । जब तक राजनीति का दखल रहेगा हम अपना कार्य भली प्रकार नहीं कर सकते । सब ऐसे ही चलेगा । 
नहीं, एक दिन परिवर्तन अवश्य आएगा । शिक्षा से जन-जागरूकता आ रही है । विद्यालय में जो नयी पीढ़ी के बच्च्े हैं हम उनमें पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता विकसित कर रहे हैं । हम उन्हें वन भ्रमण पर ले जाकर इन वनों की उपयोगिता समझायेंगे और संरक्षण की शपथ दिलावांएगे । ये बच्च्े ही अपने अनपढ़ माता-पिता और पूरे समाज को शिक्षित   करेंगे । मेरे शब्दों में दृढ़ता थी । 
हमें आशा है मैडम, आपके प्रयास सफल होंगे । हमारा आपको पूर्ण सहयोग रहेगा । मैंने धन्यवाद देते हुए उनसे विदा ली कुछ नए संकल्पों के साथ ।
ज्ञान विज्ञान
८ लाख वर्षो में सर्वोच्च् वायुमंडलीय कार्बन स्तर 
एक नई रिपोर्ट के अनुसार वर्ष २०१७ में पृथ्वी के वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की  सांद्रता ४०५ भाग प्रति मिलियन (पीपीएम) तक पहुंच गई । यह स्तर पिछले ८ लाख वर्षों में सर्वाधिक माना जा रहा है। यह उन वर्षों में से सबसे गर्म वर्ष रहा जिनमें एल नीनो नहीं हुआ हो। एल नीनो वास्तव में प्रशांत महासागर के पानी केगर्म होने केपरिणामस्वरूप होता है । यदि सारे वर्षों में देखें, तो १८०० के दशक के बाद २०१७ सबसे गर्म वर्षों में दूसरे या तीसरे नंबर पर रहेगा।
यूएस के राष्ट्रीय महासागर और वायुमंडलीय प्रशासन (एनओएए) द्वारा प्रकाशित २८वीं वार्षिक स्टेट ऑफदी क्लाइमेट इन २०१७ रिपोर्ट में ६५ देशों में काम कर रहे ५२४ वैज्ञानिकों द्वारा संकलित डैटा शामिल है। रिपोर्ट के कुछ बिंदु इस प्रकार हैं :  
वर्ष २०१७ में वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता वर्ष २०१६ के मुकाबले २.२ पीपीएम अधिक रही। इससे पहले यह स्तर लगभग ८ लाख वर्ष पूर्व भी पहुंचा था । ८ लाख वर्ष पूर्व का यह आंकड़ा प्राचीन बर्फ कोर में फंसे हवा के बुलबुलोंके विश्लेषण से प्राप्त हुआ है। कार्बन डाईऑक्साइड पृथ्वी को गर्म करने वाली मुख्य गैस है । 
पृथ्वी को गर्म करने वाली अन्य गैसों - मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड -का स्तर भी काफी अधिक था। मीथेन का स्तर २०१६ से २०१७ के बीच ६.९ भाग  प्रति अरब (पीपीबी) बढ़ा और १८४९.७ पीपीबी हो गया । इसी प्रकार नाइट्रस  ऑक्साइड का स्तर ०.९ पीपीबी बढ़कर ३२९.८ पीपीबी दर्ज किया गया ।
पिछले वर्ष विश्वव्यापी कोरल ब्लीचिंग घटना का भी अंत हुआ। कोरल ब्लीचिंग समुद्री जल के गर्म होने पर होता है जिसके कारण कोरल अपने ऊतकों में रहने वाले शैवाल को छोड़ देते हैं और सफेद पड़ जाते हैं । यह अब तक की सबसे लंबे समय तक रिकॉर्ड की गई कोरल-ब्लीचिंग घटना थी।
२०१७ में वैश्विक वर्षा/ हिमपात औसत से अधिक रहा । १९०० के बाद से इस वर्ष रूस में सबसे अधिक हिम / वर्षापात हुआ। वेनेजुएला,, नाइजीरिया और भारत के कुछ हिस्सों में भी असामान्य बारिश और बाढ़ का अनुभव हुआ ।
गर्म तापमान से विश्व के कई जंगली इलाकों में आग लगने की खबर सामने आई । संयुक्त राज्य अमेरिका में ४० लाख हैक्टर जंगली क्षेत्र जलने से १८ अरब डॉलर से अधिक का नुकसान हुआ। अमेजन के जंगलों में २ लाख ७२ हजार दावानल हुए ।
अलास्का में ६ में से ५ पर्माफ्रॉस्ट वेधशालाओं में उच्च्  तापमान दर्ज किया गया । पिघलता पर्माफ्रॉस्ट वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन छोड़ता है और ग्लोबल वार्मिंग में योगदान दे सकता है।
आर्कटिक सागर के बर्फ का क्षेत्रफल १९८१ से २०१० के औसत क्षेत्रफल से ८ प्रतिशत कम रहा। २०१७ आर्कटिकल के लिए दूसरा सबसे गर्म वर्ष दर्ज किया गया ।
अर्जेंटाइना, उरुग्वे, बुल्गा-रिया और मेकिसको आदि देशों ने उच्च्  तापमान का रिकॉर्ड स्थापित किया । 
पेड़ बड़े मगर कमजोर हो रहे हैं
धरती का औसत तापमान बढ़ने के साथ दुनिया भर में पेड़ों को वृद्धि के लिए ज्यादा लंबी अवधि मिलने लगी है। कहीं-कहीं तो प्रति वर्ष पेड़ों को तीन सप्ताह ज्यादा समय मिलता है वृद्धि के   लिए । यह अतिरिक्त समय पेड़ों को बढ़ने में मदद करता है। किन्तु मध्य यूरोप में किए गए जंगलों के एक अध्ययन में पता चला है कि इन पेड़ोंकी लकड़ी कमजोर हो रही है जिसके चलते पेड़ आसानी से टूट जाते हैं और उनसे मिली इमारती लकड़ी उतनी टिकाऊ नहीं होती ।
सन १८७० से उपलब्ध रिकॉर्ड बताते हैं कि तब से लेकर आज तक मध्य युरोप में बीचवृक्ष और स्प्रूस वृक्षों की वृद्धि में ७७ प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसका मतलब आम तौर पर यह लगाया जाता है कि हमें निर्माण कार्य के लिए ज्यादा लकड़ी मिलेगी और इतनी अतिरिक्त लकड़ी के निर्माण के लिए इन वृक्षों ने वायुमंडल से अधिक कार्बन डाईऑक्साइड सोखी होगी, जिसका पर्यावरण पर सकारात्मक असर होगा।
किन्तु जर्मनी के म्यूनिख विश्वविद्यालय के  टेक्निकल इंस्टि्यूट के वन वैज्ञानिक हैन्स प्रेटज और उनके साथियों को कुछ शंका थी । पूरे मामले को समझने के लिए उन्होंने वास्तविक आंकड़े जुटाकर विश्लेषण किया। इसके लिए उन्होंने दक्षिण जर्मनी के ४१ प्रायोगिक प्लॉट्स से शुरुआत की। इन प्लॉट्स के बारे में विविध आकड़े १८७० से उपलब्ध हैं। उन्होंने यहां से वृक्षों के तनों के नमूने लिए । इनमें चार प्रजातियों के वृक्ष शामिल थे । उन्होंने इन वृक्षों के वार्षिक वलयों का भी विश्लेषण किया ।
अध्ययन में पाया गया कि चारों प्रजातियों में लकड़ी का घनत्व ८ से १२ प्रतिशत तक घटा है। और घनत्व कम होने के साथ-साथ लकड़ी का कार्बन प्रतिशत भी घटा है। फॉरेस्ट इकॉलॉजी एंड मेनेजमेंट में प्रकाशित इस अध्ययन के बारे में टीम का कहना है कि उन्हें घनत्व में गिरावट की आशंका तो थी किन्तु उन्होंने सोचा नहीं था कि यह गिरावट इतनी अधिक हुई होगी। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि तापमान बढ़ने के साथ तेजी से हो रही वृद्धि इसमें से कुछ गिरावट की तो व्याख्या करती है किन्तु संभवत: इस गिरावट में मिट्टी में उपस्थित बढ़ी हुई नाइट्रोजन की भी भूमिका है। प्रेट्ज का मत है कि यह नाइट्रोजन खेतों में डाले जा रहे रासायनिक उर्वरकों और वाहनों के  कारण हो रहे प्रदूषण की वजह से बढ़ रही है। 
टेस्ट ट्यूब शिशु के चालीस साल
लुईस ब्राउन वह पहली बच्ची थी जिसका जन्म टेस्ट ट्यूब बेबी नाम से लोकप्रिय टेक्नॉ-लॉजी के जरिए  हुआ था। आज वह ४० वर्ष की है और उसके अपने बच्च्े हैं । एक मोटे-मोटे अनुमान के मुताबिक इन ४० वर्षों में दुनिया भर में ६० लाख से अधिक टेस्ट ट्यूब बच्च्े पैदा हो चुके हैं और कहा जा रहा है कि वर्ष २१०० तक दुनिया की ३.५ प्रतिशत आबादी टेस्ट ट्यूब तकनीक से पैदा हुए लोगों की होगी । इनकी कुल संख्या ४० करोड़ के आसपास होगी ।
वैसे इस तकनीक  का नाम टेस्ट ट्यूबबेबी प्रचलित हो गया है किन्तु  इसमें टेस्ट ट्यूब का उपयोग नहीं होता । किया यह जाता है कि स्त्री के अंडे को शरीर से बाहर एक तश्तरी में पुरूष के शुक्राणु से निषेचित किया जाता है और इस प्रकार निर्मित भ्रूण को कुछ दिनों तक शरीर से बाहर ही विकसित किया जाता है। इसके बाद इसे स्त्री के गर्भाशय में आरोपित कर दिया जाता है और बच्च्े का विकास मां की कोख में ही होता है।
   इस तकनीक को सफलता तक पहुंचाने में ब्रिटिश शोधक-र्ताओंको काफी मेहनत करनी पड़ी थी। भ्रूण वैज्ञानिक रॉबर्ट एडवड्र्स ने अंडे का निषेचन शरीर से बाहर करवाया, जीन पर्डी ने इस भ्रूण के विकास की देखरेख की और स्त्री रोग विशेषज्ञ पैट्रिक  स्टेपटो ने मां की कोख में बच्च्े की देखभाल की थी । लेकिन प्रथम शिशु के जन्म से पहले इस टीम ने २८२ स्त्रियों से ४५७ बार अंडे प्राप्त् किए, इनसे निर्मित ११२ भ्रूणों को गर्भाशय में डाला, जिनमें से ५ गर्भधारण के  चरण तक पहुंचे। आज यह एक ऐसी तकनीक बन चुकी है जो सामान्य अस्पतालों में संभव है।
बहरहाल, इस तरह प्रजनन में मदद की तकनीकों को लेकर नैतिकता के सवाल ४० साल पहले भी थे और आज भी हैं । इन ४० सालों में प्रजनन तकनीकों में बहुत तरक्की हुई है। हम मानव क्लोनिंग के काफी नजदीक पहुंचे हैं, भ्रूण की जेनेटिक इंजीनियरिंग की दिशा में कई कदम आगे बढ़े हैं, तीन पालकों वाली संतानें पैदा करना संभव हो गया है। सवाल यह है कि क्या इस तरह की तकनीकों  को स्वीकार किया जाना चाहिए जो ऐसे परिवर्तन करती है जो कई पीढ़ियों तक बरकार रहेंगे। कहीं ऐसी तकनीकें  लोगों को डिज़ायनर शिशु (यानी मनचाही बनावट वाले शिशु) पैदा करने को तो प्रेरित नहीं करेंगी ?
थोड़ा ही सही, सूरज भी सिकुड़ता है 
एक नए अध्ययन से पता चला है कि सूरज की त्रिज्या एक अवधि में चुटकी भर छोटी होती है। यह वह समय होता है जब सूरज सबसे अधिक सक्रिय होता है। सूरज के सक्रियता का चक्र लगभग ११ साल का होता है। इसे सौर चक्र भी कहते हैं। इन ११ सालों में उच्च् और निम्न चुंबकीय गतिविधि देखने को मिलती है । 
शोधकर्ताओं ने यह दावा किया है कि सूरज की इस सक्रिय अवस्था में उसकी त्रिज्या में १ से २ किलोमीटर की कमी होती है।  
कविता
तब यह धरती स्वर्ग बनेगी
रूपनारायण काबरा

सृष्टि नियन्ता, मालिक सबके
स्वर्ग, धरा के 
सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र चमकते नभ में तारे
पर्वत, सागर, सरिता, जंगल
जीव, जन्तु, पक्षी, मानव के
सबसे सिरजन हार तुम्हीं हो
ज्ञान और विज्ञान दिया मानव को तुमने
और तुम्हारे उत्प्रेरणा से ही
विकसित यह विज्ञान हुआ है 
मालिक ! भर दो अन्तरतम में
प्यार तुम्हारे सर्जन के प्रति,
तेरे पर्वत, सागर, सरिता
वृक्ष और सब जीव जन्तु को
प्यार करें सब अन्तर्मन से
ताकि प्रकृति की विपुल सम्पदा
नहीं प्रदूषित, नहीं नष्ट हों,
भर दो ऐसे भाव मनुज में
परिवर्तन कर स्वार्थ भाव
शोषण, दोहन का
रक्षा करने का तत्पर हों,
समझें अपने जैसा ही प्रिय
जंगल को और जीव जगत को
जल, भूतल को, वायु, गगन को
जिससे सबही रक्षित होकर
सबसे सुख का आधार बनें
सह-अस्तित्व प्रकृतिसे होकर
प्यार जगे पर्यावरण से
सभी सुखी हो, सभी मित्र हों
मिल जुलकर सब रहना सीखें
तब यह धरती स्वर्ग बनेगी, तब यह धरती स्वर्ग बनेगी         
विनोबा जयंती (११ सितंबर) पर विशेष 
विनोबा का जीवन दर्शन
सुश्री कालिन्दी

इस भारत भूमि में ऐसे कई महापुरूष हो गए, जिन्होंने दुनियादारी के  सतही सयानेपन का त्याग कर जीवन में उड़ान ली और फिर उस ऊंचाई पर जिस पागलपन का अनुभव उन्हें मिला, उसे सर्वसाधारण की सतह पर ला रखा । ऐसे ही एक महापुरूष थे आचार्य विनोबा भावे । 
विनोबाजी के जीवन-दर्शन की विशेषता है कि हर सिद्धांत पर अमल कर जांच लेने के  बाद ही उन्होंने उसे समाज के सामने पेश किया । वे कहते हैं``चिंतन में से प्रयोग और प्रयोग में से चिंतन, मेरे जीवन की रचना ऐसी है।`` अपने गीता-प्रवचन ग्रंथ के बारे में वे कहते हैं ``गीता-प्रवचन मेरे जीवन की गाथा है और वही मेरा संदेश है।`` 
विनोबा का जीवन और जीवन दर्शन, गीता के यज्ञ-दान-तप, इन तीन सिद्धांतों की तिपाई पर खड़ा है । उस ग्रंथ में इसके बारे में वे कहते हैं``हम तीन संस्थाएं साथ लेकर जन्म लेते हैं । मनुष्य इन तीन संस्थाओं का कार्य भलीभांति चलाकर संसार सुखमय बना सकता है। वे तीन संस्थाएं कौन-सी हैं ? पहली संस्था है-हमारे आसपास लिपटा हुआ यह शरीर। दूसरी संस्था है- हमारे आसपास फैला हुआ यह विशाल ब्रम्हाण्ड या सृष्टि, जिसमें हमारा जन्म हुआ । तीसरी संस्था है- वह समाज, हमारे जन्म की प्रतीक्षा करने वाले वे माता-पिता, भाई-बहन, अड़ोसी-पड़ोसी । हम रोज इन तीन संस्थाओं का उपयोग करते हैं,इन्हें छिजाते हैंहमारे द्वारा इन संस्थाओं में जो छीजन आती है, उसकी पूर्ति के लिए हम सतत प्रयत्न करें और अपना जीवन सफल बनाएं । इन संस्थाओं   के प्रति यह हमारा जन्मजात कर्तव्य  है । ...``
इन कर्तव्यों को पूरा करने की प्रक्रिया क्या होगी ? प्रथम सृष्टि संस्था लें । सृष्टि को हम रोज दूषित, अस्वच्छ बनाते हैं। इसलिए सृष्टि के प्रति मेरा पहला कर्तव्य हो जाता है उसे स्वच्छ करना, सफाई करना । वास्तव में यह मनुष्य जीवन की बुनियादी आवश्यकता मानी जाएगी । 
भोजन और मल-विसर्जन, दोनों शारीरिक क्रियाएं मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता है। इनका अधिकार तो मनुष्य ने अपना माना है, परंतु अनाज पैदा करना और गंदगी की सफाई करना अपना कर्तव्य नहीं माना । उनके लिए स्वतंत्र वर्गों की स्थापना की और उन वर्गों को हीन, अप्रतिष्ठित माना । वे जो सफाई का काम करते थे, वह आध्यात्मिक-मानवीय कर्तव्य के तौर पर किया जाता था। परंतु आज तो हाथ में झाडू लेना भी अप्रतिष्ठित माना गया है । 
सृष्टि सेवा का दूसरा तरीका है- उससे हम रोज अनाज, पानी, प्रकाश लेते रहते हैं । सृष्टि माता है ।  वह आपसे ज्यादा कुछ मांगती नहीं । आपको वेस्टेज-कचरा, मल-मूत्र की खाद मांगती है । भू-माता को हम कल-कारखानों में बनी खाद देते हैं। प्रदूषण, पर्यावरण की समस्या खड़ी करता है। भयानक से भयानक विभीषिकाएं होने देता है। फिर उसके लिए परिसंवाद व कार्यशाला करता रहता है । इस मूलभूत स्वभाव प्राप्त कर्तव्य के लिए असल में इन बातों की जरूरत क्यों नहीं पड़नी चाहिए ? 
सृष्टि सेवा का तीसरा तरीका है- नव निर्मिति । हमने क्षति पहुंचाई है, उससे काम लिया है, इससे उसमें कमी आई है। उसकी कुछ पूर्ति वेस्टेज (कूड़ा) उसको देने से होगी, परंतु उस पर कृतज्ञता का फूल रखे बगैर हमारा फर्ज पूरा नहीं होगा । फूल देना हो, तो हमारे श्रम से कुछ नव-निर्मिति होनी चाहिए । कुछ नया उत्पादन होना चाहिए । परंतु यह संभव न हो तो अन्य कोई भी उत्पादन अपने हाथों से, अपने श्रम से किया जाए । कताई, बुनाई, लुहारी, चमारी, बढ़ाईगिरी । कई जीवनोपयोगी चीजें हाथ से बनाई जा सकती है। यह प्रतीक होगा सृष्टि के  प्रति कृतज्ञता का । 
परंतु आज तो शरीर श्रम करना ही अप्रतिष्ठित माना गया है। जिसके घर में झाडू लगाने को, कपड़ा धोने के लिए नौकर है, जो बिना वाहन के चल ही नहीं सकता, वह आज सम्माननीय माना जाता है ।
ऐेसे कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं, जहां बड़े तो शरीर श्रम से दूर रहते ही है, पर बच्चें को भी उस आनंद से वंचित रखते हैं। इसलिए मजदूर वर्ग के लिए हीनता की और अपने लिए ऊंची भावना पैदा हो जाती है । विनोबाजी कहते हैं, ``मैं खुद अपने को मजदूर मानता हूं । इसीलिए मैंने अपने जीवन के, जवानी के ३२ वर्ष जो `बेस्ट इयर्स` कहे जाते हैं, मजदूरी में बिताए । मैंने तरह-तरह के काम किए । जिन कामों को समाजहीन और दीन मानता हैं,जिनकी कोई प्रतिष्ठा नहीं है, यद्यपि उनकी आवश्यकता बहुत है, ऐसे काम मैंने किए है ं।  
इस सबको उन्होंने आत्मदर्शन का साधन माना था । समाज का अंतिम व्यक्ति उनकी उपासना का देवता था । यह अंत्योदय की साधना थी । शरीर श्रम के मूल्य की समाज में प्रतिष्ठापना करने के प्रयास थे । ताकि समाज मानवीय मूलभूत मूल्यों की तरफ बढ़े । 
दूसरी संस्था है समाज । जब मनुष्य पैदा होता है तब असहाय, आश्रित, पराश्रयी होता है । ``मां बाप, गुरू, मित्र, ये सब हमारे लिए मेहनत करते है । समाज का यह ऋण चुकाने के लिए दान की व्यवस्था की गई है। दान का अर्थ समाज का ऋण चुकाने के लिए किया गया प्रयोग । दान का अर्थ परोपकार नहीं । समाज से मैंने अपार सेवा ली है । इसीलिए मुझे समाज की सेवा करनी चाहिए । समाज के इस ऋण से मुक्त होने के लिए जो सेवा की जाएगी, वही दान है । तन, मन, धन तथा अन्य साधनों से सहायता की जाती है, वह दान है।`` 
विनोबाजी ने अपनी तेरह साल की भूदान पदयात्रा के द्वारा यही संदेश समाज को दिया। भूदान, संपत्तिदान, बुद्धिदान, श्रमदान, समयदान । अनेक प्रकार के दान का विचार उन्होंने बताया, ताकि समूचे राष्ट्र को त्याग-भावना का विकास हो, नि:स्वार्थ, निष्काम सेवावृत्ति का विकास हो और वैसा हुआ सैकड़ों कार्यकर्ताआें ने अपना जीवन समाज सेवा के लिए समर्पित कर दिया । समूचा राष्ट्र त्याग और सेवा की भावना से प्लावित हुआ था ।
ये सारी सत्कथाएं है, कल्पना गौरव नहीं है। यह इसलिए हुआ कि एक शख्स इस दान अर्थात् सेवा की भावना से ओतप्रोत होेकर अपने पांवों से ठंड धूप बारिश की परवाह  किए बिना इस भारत भूमि के गंाव-गांव में पहुंचा । कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से असम तक । एक प्रवचन में उन्होंने अपनी अंतिम अभिलाषा व्यक्त की थी । हमें एक नया समाज और नया राष्ट्र बनाना है, जिसमें सब लोग दोनों हाथों से काम करेंगे । कोई ऊंचा नहीं होगा और कोई नीचा नहीं होगा कोई किसी से डरेगा नहीं और न कोई किसी को डराएगा सब आत्मा की फिक्र करेंगे, इंद्रियों पर काबू रखेंगे और विषयों के गुलाम नहीं बनेंगे । इस तरह का देश हमें बनाना है । 
तीसरी और सबसे निकटस्थ संस्था है हमारा शरीर । ``शरीर दिन-ब-दिन क्षीण होता रहता हैं । हम मन, बुद्धि, इंद्रियों का उपयोग करते हैं, सबसे काम लेते हैं, इनको छिजाते हैं। इस शरीर रूपी संस्था में जो विकार, दोष उत्पन्न होते है, उनकी शुद्धि के लिए तप बताया गया है। इसके लिए मूलत: शरीर की तरफ देखने के दृष्टिकोण में ही परिवर्तन की जरूरत होती है । यह देह मेरी नहीं है। मैं उसका मालिक नहीं । मैं उसका चाहे जैसा उपयोग नहीं कर सकती हूं न उसे दुलार कर सकती हूं, न उसकी घृणा तिरस्कार ही कर सकती हूं । क्यांेकि वह मुझे मिली हुई बहुत बड़ी संपत्ति है, साधन है । 
इस साधन-संपत्ति की मैं ट्रस्टी हूं । हर ट्रस्ट का एक ट्रस्टडीड होता है, उद्देश्य होता है । क्या उद्देश्य है इस शरीर का ? मैं कीड़-मकोड़ नहीं बनी, पशु-पक्षी नहीं बना, मैं मनुष्य हूं। तो फिर किस लिए मिला यह मनुष्य    जन्म ? क्या हेतु है इसका ?
दुनिया के अनेक महापुरूषों ने सिद्ध कर दिखाया है कि इस शरीर के द्वारा मनुष्य सूक्ष्म से सूक्ष्म और व्यापक से व्यापक अनुभव की प्राप्ति कर सकता है। भारत के वृहदारण्यों में ऋषियों का अनुभव रहा - सत्यमेव जयते । सत्य ही ईश्वर है । जरूसलम में ईसा मसीह को ऐसा ही अनुभव आया । उन्हें उस परम शक्ति का प्रेम रूप में दर्शन हुआ । उन्होंने कहा, प्रेम ही ईश्वर है तो अरबस्तान के हीरा पहाड़ पर पैगबर मुहम्मद साहब को करूणा का दर्शन हुआ अल्लाह रहमान, रहीम है । ऐसी परमोच्च् व्यापक शुद्ध भावना की अनुभूति लेना मनुष्य जीवन का हेतु है। यह शरीर उसका साधन है । 
इस प्रकार य ा (सृष्टि सेवा), दान (समाज सेवा) और तप (शरीर सेवा), मनुष्य के स्वभाव प्राप्त कर्तव्य हैं ।  मनुष्य जन्म प्राप्त होने के साथ ही यह विविध कर्तव्य उसके साध जुड़ जाते है । सांसारिक और आध्यात्मिक हित के लिए इन तीनों कर्तव्यों के पालन की जरूरत है। इन तीनों के पालन से मनुष्य दोनों प्रकार का कल्याण एक साथ साध सकता है। यही विनोबा के जीवन-दर्शन की विशेषता है कि यहां भौतिकता और आध्यित्-कता का भेद मिट जाता है और समाज और व्यक्ति का भेद भी मिट जाता है। अर्थात् यज्ञ-दान-तप उनकी साधना है। अब हमारी पारी है कि हम उनका लाभ-आनंद लें।