सोमवार, 17 सितंबर 2018

विनोबा जयंती (११ सितंबर) पर विशेष 
विनोबा का जीवन दर्शन
सुश्री कालिन्दी

इस भारत भूमि में ऐसे कई महापुरूष हो गए, जिन्होंने दुनियादारी के  सतही सयानेपन का त्याग कर जीवन में उड़ान ली और फिर उस ऊंचाई पर जिस पागलपन का अनुभव उन्हें मिला, उसे सर्वसाधारण की सतह पर ला रखा । ऐसे ही एक महापुरूष थे आचार्य विनोबा भावे । 
विनोबाजी के जीवन-दर्शन की विशेषता है कि हर सिद्धांत पर अमल कर जांच लेने के  बाद ही उन्होंने उसे समाज के सामने पेश किया । वे कहते हैं``चिंतन में से प्रयोग और प्रयोग में से चिंतन, मेरे जीवन की रचना ऐसी है।`` अपने गीता-प्रवचन ग्रंथ के बारे में वे कहते हैं ``गीता-प्रवचन मेरे जीवन की गाथा है और वही मेरा संदेश है।`` 
विनोबा का जीवन और जीवन दर्शन, गीता के यज्ञ-दान-तप, इन तीन सिद्धांतों की तिपाई पर खड़ा है । उस ग्रंथ में इसके बारे में वे कहते हैं``हम तीन संस्थाएं साथ लेकर जन्म लेते हैं । मनुष्य इन तीन संस्थाओं का कार्य भलीभांति चलाकर संसार सुखमय बना सकता है। वे तीन संस्थाएं कौन-सी हैं ? पहली संस्था है-हमारे आसपास लिपटा हुआ यह शरीर। दूसरी संस्था है- हमारे आसपास फैला हुआ यह विशाल ब्रम्हाण्ड या सृष्टि, जिसमें हमारा जन्म हुआ । तीसरी संस्था है- वह समाज, हमारे जन्म की प्रतीक्षा करने वाले वे माता-पिता, भाई-बहन, अड़ोसी-पड़ोसी । हम रोज इन तीन संस्थाओं का उपयोग करते हैं,इन्हें छिजाते हैंहमारे द्वारा इन संस्थाओं में जो छीजन आती है, उसकी पूर्ति के लिए हम सतत प्रयत्न करें और अपना जीवन सफल बनाएं । इन संस्थाओं   के प्रति यह हमारा जन्मजात कर्तव्य  है । ...``
इन कर्तव्यों को पूरा करने की प्रक्रिया क्या होगी ? प्रथम सृष्टि संस्था लें । सृष्टि को हम रोज दूषित, अस्वच्छ बनाते हैं। इसलिए सृष्टि के प्रति मेरा पहला कर्तव्य हो जाता है उसे स्वच्छ करना, सफाई करना । वास्तव में यह मनुष्य जीवन की बुनियादी आवश्यकता मानी जाएगी । 
भोजन और मल-विसर्जन, दोनों शारीरिक क्रियाएं मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता है। इनका अधिकार तो मनुष्य ने अपना माना है, परंतु अनाज पैदा करना और गंदगी की सफाई करना अपना कर्तव्य नहीं माना । उनके लिए स्वतंत्र वर्गों की स्थापना की और उन वर्गों को हीन, अप्रतिष्ठित माना । वे जो सफाई का काम करते थे, वह आध्यात्मिक-मानवीय कर्तव्य के तौर पर किया जाता था। परंतु आज तो हाथ में झाडू लेना भी अप्रतिष्ठित माना गया है । 
सृष्टि सेवा का दूसरा तरीका है- उससे हम रोज अनाज, पानी, प्रकाश लेते रहते हैं । सृष्टि माता है ।  वह आपसे ज्यादा कुछ मांगती नहीं । आपको वेस्टेज-कचरा, मल-मूत्र की खाद मांगती है । भू-माता को हम कल-कारखानों में बनी खाद देते हैं। प्रदूषण, पर्यावरण की समस्या खड़ी करता है। भयानक से भयानक विभीषिकाएं होने देता है। फिर उसके लिए परिसंवाद व कार्यशाला करता रहता है । इस मूलभूत स्वभाव प्राप्त कर्तव्य के लिए असल में इन बातों की जरूरत क्यों नहीं पड़नी चाहिए ? 
सृष्टि सेवा का तीसरा तरीका है- नव निर्मिति । हमने क्षति पहुंचाई है, उससे काम लिया है, इससे उसमें कमी आई है। उसकी कुछ पूर्ति वेस्टेज (कूड़ा) उसको देने से होगी, परंतु उस पर कृतज्ञता का फूल रखे बगैर हमारा फर्ज पूरा नहीं होगा । फूल देना हो, तो हमारे श्रम से कुछ नव-निर्मिति होनी चाहिए । कुछ नया उत्पादन होना चाहिए । परंतु यह संभव न हो तो अन्य कोई भी उत्पादन अपने हाथों से, अपने श्रम से किया जाए । कताई, बुनाई, लुहारी, चमारी, बढ़ाईगिरी । कई जीवनोपयोगी चीजें हाथ से बनाई जा सकती है। यह प्रतीक होगा सृष्टि के  प्रति कृतज्ञता का । 
परंतु आज तो शरीर श्रम करना ही अप्रतिष्ठित माना गया है। जिसके घर में झाडू लगाने को, कपड़ा धोने के लिए नौकर है, जो बिना वाहन के चल ही नहीं सकता, वह आज सम्माननीय माना जाता है ।
ऐेसे कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं, जहां बड़े तो शरीर श्रम से दूर रहते ही है, पर बच्चें को भी उस आनंद से वंचित रखते हैं। इसलिए मजदूर वर्ग के लिए हीनता की और अपने लिए ऊंची भावना पैदा हो जाती है । विनोबाजी कहते हैं, ``मैं खुद अपने को मजदूर मानता हूं । इसीलिए मैंने अपने जीवन के, जवानी के ३२ वर्ष जो `बेस्ट इयर्स` कहे जाते हैं, मजदूरी में बिताए । मैंने तरह-तरह के काम किए । जिन कामों को समाजहीन और दीन मानता हैं,जिनकी कोई प्रतिष्ठा नहीं है, यद्यपि उनकी आवश्यकता बहुत है, ऐसे काम मैंने किए है ं।  
इस सबको उन्होंने आत्मदर्शन का साधन माना था । समाज का अंतिम व्यक्ति उनकी उपासना का देवता था । यह अंत्योदय की साधना थी । शरीर श्रम के मूल्य की समाज में प्रतिष्ठापना करने के प्रयास थे । ताकि समाज मानवीय मूलभूत मूल्यों की तरफ बढ़े । 
दूसरी संस्था है समाज । जब मनुष्य पैदा होता है तब असहाय, आश्रित, पराश्रयी होता है । ``मां बाप, गुरू, मित्र, ये सब हमारे लिए मेहनत करते है । समाज का यह ऋण चुकाने के लिए दान की व्यवस्था की गई है। दान का अर्थ समाज का ऋण चुकाने के लिए किया गया प्रयोग । दान का अर्थ परोपकार नहीं । समाज से मैंने अपार सेवा ली है । इसीलिए मुझे समाज की सेवा करनी चाहिए । समाज के इस ऋण से मुक्त होने के लिए जो सेवा की जाएगी, वही दान है । तन, मन, धन तथा अन्य साधनों से सहायता की जाती है, वह दान है।`` 
विनोबाजी ने अपनी तेरह साल की भूदान पदयात्रा के द्वारा यही संदेश समाज को दिया। भूदान, संपत्तिदान, बुद्धिदान, श्रमदान, समयदान । अनेक प्रकार के दान का विचार उन्होंने बताया, ताकि समूचे राष्ट्र को त्याग-भावना का विकास हो, नि:स्वार्थ, निष्काम सेवावृत्ति का विकास हो और वैसा हुआ सैकड़ों कार्यकर्ताआें ने अपना जीवन समाज सेवा के लिए समर्पित कर दिया । समूचा राष्ट्र त्याग और सेवा की भावना से प्लावित हुआ था ।
ये सारी सत्कथाएं है, कल्पना गौरव नहीं है। यह इसलिए हुआ कि एक शख्स इस दान अर्थात् सेवा की भावना से ओतप्रोत होेकर अपने पांवों से ठंड धूप बारिश की परवाह  किए बिना इस भारत भूमि के गंाव-गांव में पहुंचा । कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से असम तक । एक प्रवचन में उन्होंने अपनी अंतिम अभिलाषा व्यक्त की थी । हमें एक नया समाज और नया राष्ट्र बनाना है, जिसमें सब लोग दोनों हाथों से काम करेंगे । कोई ऊंचा नहीं होगा और कोई नीचा नहीं होगा कोई किसी से डरेगा नहीं और न कोई किसी को डराएगा सब आत्मा की फिक्र करेंगे, इंद्रियों पर काबू रखेंगे और विषयों के गुलाम नहीं बनेंगे । इस तरह का देश हमें बनाना है । 
तीसरी और सबसे निकटस्थ संस्था है हमारा शरीर । ``शरीर दिन-ब-दिन क्षीण होता रहता हैं । हम मन, बुद्धि, इंद्रियों का उपयोग करते हैं, सबसे काम लेते हैं, इनको छिजाते हैं। इस शरीर रूपी संस्था में जो विकार, दोष उत्पन्न होते है, उनकी शुद्धि के लिए तप बताया गया है। इसके लिए मूलत: शरीर की तरफ देखने के दृष्टिकोण में ही परिवर्तन की जरूरत होती है । यह देह मेरी नहीं है। मैं उसका मालिक नहीं । मैं उसका चाहे जैसा उपयोग नहीं कर सकती हूं न उसे दुलार कर सकती हूं, न उसकी घृणा तिरस्कार ही कर सकती हूं । क्यांेकि वह मुझे मिली हुई बहुत बड़ी संपत्ति है, साधन है । 
इस साधन-संपत्ति की मैं ट्रस्टी हूं । हर ट्रस्ट का एक ट्रस्टडीड होता है, उद्देश्य होता है । क्या उद्देश्य है इस शरीर का ? मैं कीड़-मकोड़ नहीं बनी, पशु-पक्षी नहीं बना, मैं मनुष्य हूं। तो फिर किस लिए मिला यह मनुष्य    जन्म ? क्या हेतु है इसका ?
दुनिया के अनेक महापुरूषों ने सिद्ध कर दिखाया है कि इस शरीर के द्वारा मनुष्य सूक्ष्म से सूक्ष्म और व्यापक से व्यापक अनुभव की प्राप्ति कर सकता है। भारत के वृहदारण्यों में ऋषियों का अनुभव रहा - सत्यमेव जयते । सत्य ही ईश्वर है । जरूसलम में ईसा मसीह को ऐसा ही अनुभव आया । उन्हें उस परम शक्ति का प्रेम रूप में दर्शन हुआ । उन्होंने कहा, प्रेम ही ईश्वर है तो अरबस्तान के हीरा पहाड़ पर पैगबर मुहम्मद साहब को करूणा का दर्शन हुआ अल्लाह रहमान, रहीम है । ऐसी परमोच्च् व्यापक शुद्ध भावना की अनुभूति लेना मनुष्य जीवन का हेतु है। यह शरीर उसका साधन है । 
इस प्रकार य ा (सृष्टि सेवा), दान (समाज सेवा) और तप (शरीर सेवा), मनुष्य के स्वभाव प्राप्त कर्तव्य हैं ।  मनुष्य जन्म प्राप्त होने के साथ ही यह विविध कर्तव्य उसके साध जुड़ जाते है । सांसारिक और आध्यात्मिक हित के लिए इन तीनों कर्तव्यों के पालन की जरूरत है। इन तीनों के पालन से मनुष्य दोनों प्रकार का कल्याण एक साथ साध सकता है। यही विनोबा के जीवन-दर्शन की विशेषता है कि यहां भौतिकता और आध्यित्-कता का भेद मिट जाता है और समाज और व्यक्ति का भेद भी मिट जाता है। अर्थात् यज्ञ-दान-तप उनकी साधना है। अब हमारी पारी है कि हम उनका लाभ-आनंद लें।                    

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