सोमवार, 17 सितंबर 2018

ज्ञान विज्ञान
८ लाख वर्षो में सर्वोच्च् वायुमंडलीय कार्बन स्तर 
एक नई रिपोर्ट के अनुसार वर्ष २०१७ में पृथ्वी के वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की  सांद्रता ४०५ भाग प्रति मिलियन (पीपीएम) तक पहुंच गई । यह स्तर पिछले ८ लाख वर्षों में सर्वाधिक माना जा रहा है। यह उन वर्षों में से सबसे गर्म वर्ष रहा जिनमें एल नीनो नहीं हुआ हो। एल नीनो वास्तव में प्रशांत महासागर के पानी केगर्म होने केपरिणामस्वरूप होता है । यदि सारे वर्षों में देखें, तो १८०० के दशक के बाद २०१७ सबसे गर्म वर्षों में दूसरे या तीसरे नंबर पर रहेगा।
यूएस के राष्ट्रीय महासागर और वायुमंडलीय प्रशासन (एनओएए) द्वारा प्रकाशित २८वीं वार्षिक स्टेट ऑफदी क्लाइमेट इन २०१७ रिपोर्ट में ६५ देशों में काम कर रहे ५२४ वैज्ञानिकों द्वारा संकलित डैटा शामिल है। रिपोर्ट के कुछ बिंदु इस प्रकार हैं :  
वर्ष २०१७ में वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता वर्ष २०१६ के मुकाबले २.२ पीपीएम अधिक रही। इससे पहले यह स्तर लगभग ८ लाख वर्ष पूर्व भी पहुंचा था । ८ लाख वर्ष पूर्व का यह आंकड़ा प्राचीन बर्फ कोर में फंसे हवा के बुलबुलोंके विश्लेषण से प्राप्त हुआ है। कार्बन डाईऑक्साइड पृथ्वी को गर्म करने वाली मुख्य गैस है । 
पृथ्वी को गर्म करने वाली अन्य गैसों - मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड -का स्तर भी काफी अधिक था। मीथेन का स्तर २०१६ से २०१७ के बीच ६.९ भाग  प्रति अरब (पीपीबी) बढ़ा और १८४९.७ पीपीबी हो गया । इसी प्रकार नाइट्रस  ऑक्साइड का स्तर ०.९ पीपीबी बढ़कर ३२९.८ पीपीबी दर्ज किया गया ।
पिछले वर्ष विश्वव्यापी कोरल ब्लीचिंग घटना का भी अंत हुआ। कोरल ब्लीचिंग समुद्री जल के गर्म होने पर होता है जिसके कारण कोरल अपने ऊतकों में रहने वाले शैवाल को छोड़ देते हैं और सफेद पड़ जाते हैं । यह अब तक की सबसे लंबे समय तक रिकॉर्ड की गई कोरल-ब्लीचिंग घटना थी।
२०१७ में वैश्विक वर्षा/ हिमपात औसत से अधिक रहा । १९०० के बाद से इस वर्ष रूस में सबसे अधिक हिम / वर्षापात हुआ। वेनेजुएला,, नाइजीरिया और भारत के कुछ हिस्सों में भी असामान्य बारिश और बाढ़ का अनुभव हुआ ।
गर्म तापमान से विश्व के कई जंगली इलाकों में आग लगने की खबर सामने आई । संयुक्त राज्य अमेरिका में ४० लाख हैक्टर जंगली क्षेत्र जलने से १८ अरब डॉलर से अधिक का नुकसान हुआ। अमेजन के जंगलों में २ लाख ७२ हजार दावानल हुए ।
अलास्का में ६ में से ५ पर्माफ्रॉस्ट वेधशालाओं में उच्च्  तापमान दर्ज किया गया । पिघलता पर्माफ्रॉस्ट वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन छोड़ता है और ग्लोबल वार्मिंग में योगदान दे सकता है।
आर्कटिक सागर के बर्फ का क्षेत्रफल १९८१ से २०१० के औसत क्षेत्रफल से ८ प्रतिशत कम रहा। २०१७ आर्कटिकल के लिए दूसरा सबसे गर्म वर्ष दर्ज किया गया ।
अर्जेंटाइना, उरुग्वे, बुल्गा-रिया और मेकिसको आदि देशों ने उच्च्  तापमान का रिकॉर्ड स्थापित किया । 
पेड़ बड़े मगर कमजोर हो रहे हैं
धरती का औसत तापमान बढ़ने के साथ दुनिया भर में पेड़ों को वृद्धि के लिए ज्यादा लंबी अवधि मिलने लगी है। कहीं-कहीं तो प्रति वर्ष पेड़ों को तीन सप्ताह ज्यादा समय मिलता है वृद्धि के   लिए । यह अतिरिक्त समय पेड़ों को बढ़ने में मदद करता है। किन्तु मध्य यूरोप में किए गए जंगलों के एक अध्ययन में पता चला है कि इन पेड़ोंकी लकड़ी कमजोर हो रही है जिसके चलते पेड़ आसानी से टूट जाते हैं और उनसे मिली इमारती लकड़ी उतनी टिकाऊ नहीं होती ।
सन १८७० से उपलब्ध रिकॉर्ड बताते हैं कि तब से लेकर आज तक मध्य युरोप में बीचवृक्ष और स्प्रूस वृक्षों की वृद्धि में ७७ प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसका मतलब आम तौर पर यह लगाया जाता है कि हमें निर्माण कार्य के लिए ज्यादा लकड़ी मिलेगी और इतनी अतिरिक्त लकड़ी के निर्माण के लिए इन वृक्षों ने वायुमंडल से अधिक कार्बन डाईऑक्साइड सोखी होगी, जिसका पर्यावरण पर सकारात्मक असर होगा।
किन्तु जर्मनी के म्यूनिख विश्वविद्यालय के  टेक्निकल इंस्टि्यूट के वन वैज्ञानिक हैन्स प्रेटज और उनके साथियों को कुछ शंका थी । पूरे मामले को समझने के लिए उन्होंने वास्तविक आंकड़े जुटाकर विश्लेषण किया। इसके लिए उन्होंने दक्षिण जर्मनी के ४१ प्रायोगिक प्लॉट्स से शुरुआत की। इन प्लॉट्स के बारे में विविध आकड़े १८७० से उपलब्ध हैं। उन्होंने यहां से वृक्षों के तनों के नमूने लिए । इनमें चार प्रजातियों के वृक्ष शामिल थे । उन्होंने इन वृक्षों के वार्षिक वलयों का भी विश्लेषण किया ।
अध्ययन में पाया गया कि चारों प्रजातियों में लकड़ी का घनत्व ८ से १२ प्रतिशत तक घटा है। और घनत्व कम होने के साथ-साथ लकड़ी का कार्बन प्रतिशत भी घटा है। फॉरेस्ट इकॉलॉजी एंड मेनेजमेंट में प्रकाशित इस अध्ययन के बारे में टीम का कहना है कि उन्हें घनत्व में गिरावट की आशंका तो थी किन्तु उन्होंने सोचा नहीं था कि यह गिरावट इतनी अधिक हुई होगी। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि तापमान बढ़ने के साथ तेजी से हो रही वृद्धि इसमें से कुछ गिरावट की तो व्याख्या करती है किन्तु संभवत: इस गिरावट में मिट्टी में उपस्थित बढ़ी हुई नाइट्रोजन की भी भूमिका है। प्रेट्ज का मत है कि यह नाइट्रोजन खेतों में डाले जा रहे रासायनिक उर्वरकों और वाहनों के  कारण हो रहे प्रदूषण की वजह से बढ़ रही है। 
टेस्ट ट्यूब शिशु के चालीस साल
लुईस ब्राउन वह पहली बच्ची थी जिसका जन्म टेस्ट ट्यूब बेबी नाम से लोकप्रिय टेक्नॉ-लॉजी के जरिए  हुआ था। आज वह ४० वर्ष की है और उसके अपने बच्च्े हैं । एक मोटे-मोटे अनुमान के मुताबिक इन ४० वर्षों में दुनिया भर में ६० लाख से अधिक टेस्ट ट्यूब बच्च्े पैदा हो चुके हैं और कहा जा रहा है कि वर्ष २१०० तक दुनिया की ३.५ प्रतिशत आबादी टेस्ट ट्यूब तकनीक से पैदा हुए लोगों की होगी । इनकी कुल संख्या ४० करोड़ के आसपास होगी ।
वैसे इस तकनीक  का नाम टेस्ट ट्यूबबेबी प्रचलित हो गया है किन्तु  इसमें टेस्ट ट्यूब का उपयोग नहीं होता । किया यह जाता है कि स्त्री के अंडे को शरीर से बाहर एक तश्तरी में पुरूष के शुक्राणु से निषेचित किया जाता है और इस प्रकार निर्मित भ्रूण को कुछ दिनों तक शरीर से बाहर ही विकसित किया जाता है। इसके बाद इसे स्त्री के गर्भाशय में आरोपित कर दिया जाता है और बच्च्े का विकास मां की कोख में ही होता है।
   इस तकनीक को सफलता तक पहुंचाने में ब्रिटिश शोधक-र्ताओंको काफी मेहनत करनी पड़ी थी। भ्रूण वैज्ञानिक रॉबर्ट एडवड्र्स ने अंडे का निषेचन शरीर से बाहर करवाया, जीन पर्डी ने इस भ्रूण के विकास की देखरेख की और स्त्री रोग विशेषज्ञ पैट्रिक  स्टेपटो ने मां की कोख में बच्च्े की देखभाल की थी । लेकिन प्रथम शिशु के जन्म से पहले इस टीम ने २८२ स्त्रियों से ४५७ बार अंडे प्राप्त् किए, इनसे निर्मित ११२ भ्रूणों को गर्भाशय में डाला, जिनमें से ५ गर्भधारण के  चरण तक पहुंचे। आज यह एक ऐसी तकनीक बन चुकी है जो सामान्य अस्पतालों में संभव है।
बहरहाल, इस तरह प्रजनन में मदद की तकनीकों को लेकर नैतिकता के सवाल ४० साल पहले भी थे और आज भी हैं । इन ४० सालों में प्रजनन तकनीकों में बहुत तरक्की हुई है। हम मानव क्लोनिंग के काफी नजदीक पहुंचे हैं, भ्रूण की जेनेटिक इंजीनियरिंग की दिशा में कई कदम आगे बढ़े हैं, तीन पालकों वाली संतानें पैदा करना संभव हो गया है। सवाल यह है कि क्या इस तरह की तकनीकों  को स्वीकार किया जाना चाहिए जो ऐसे परिवर्तन करती है जो कई पीढ़ियों तक बरकार रहेंगे। कहीं ऐसी तकनीकें  लोगों को डिज़ायनर शिशु (यानी मनचाही बनावट वाले शिशु) पैदा करने को तो प्रेरित नहीं करेंगी ?
थोड़ा ही सही, सूरज भी सिकुड़ता है 
एक नए अध्ययन से पता चला है कि सूरज की त्रिज्या एक अवधि में चुटकी भर छोटी होती है। यह वह समय होता है जब सूरज सबसे अधिक सक्रिय होता है। सूरज के सक्रियता का चक्र लगभग ११ साल का होता है। इसे सौर चक्र भी कहते हैं। इन ११ सालों में उच्च् और निम्न चुंबकीय गतिविधि देखने को मिलती है । 
शोधकर्ताओं ने यह दावा किया है कि सूरज की इस सक्रिय अवस्था में उसकी त्रिज्या में १ से २ किलोमीटर की कमी होती है।  

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