शनिवार, 31 मार्च 2007

अनाज भरे गोदामों के भूखे चौकीदार

3 हमारा भूमण्डल

अनाज भरे गोदामों के भूखे चौकीदार

हीरा झमतानी

विश्व के 180 राष्ट्रों की सरकारों ने सन् 1996 में आयोजित विश्व खाद्य सम्मेलन में संकल्प लिया था कि सन् 2015 तक वे अपर्याप्त पोषण पाने वाले लोगों की संख्या आधी करेंगे।

संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ओ.) की रपट विश्व में खाद्य असुरक्षा की स्थिति 2006 के अनुसार भूखे लोगों की तादाद घटाने के लिये कोई परिणामकारी कदम नहीं उठाया गया है। साथ ही इसके आंकड़े चौंकाने वाले हैं। रपट के अनुसार पूरी दुनिया में 85.40करोड़ व्यक्ति, अर्थात् प्रत्येक 7व्यक्तियों में से एक व्यक्ति को भरपेट भोजन नहीं मिलता है। विकासशील देशों में स्थिति और भी ज्यादा खराब है, वहां प्रति 6 में से 1 व्यक्ति भूखा या कुपोषित है। अफ्रीका के उप सहारा क्षेत्र में तो यह अनुपात 3 और 1 का है।

दरअसल पिछले वर्षो में दुनिया के अधिकांश इलाकों में भूखे लोगों की संख्या बढ़ी है, कुछ क्षेत्रों में तो यह 50 प्रतिशत तक बढ़ी है। विश्व में भूखे लोगों की कुल संख्या में वर्ष 2001-03 के दौरान 2.30 करोड़ की वृध्दि दर्ज की गई थी। सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य से तुलना करने पर ये आंकड़े भ्रमित करने वाले प्रतीत होते हैं। सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य में सन् 2015 तक भूखे लोगों के अनुपात में 50 प्रतिशत कमी की सम्भावना प्रकट की गई है। इसमें भूखे लोगों की कुल संख्या को आधा करने की बात नहीं है।

जनसंख्या के वर्तमान स्वरुप के अंतर्गत अनुमान के अनुसार यदि विकासशील देश सामूहिक रुप से भूखे लोगों की संख्या को आधा करने का सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य प्राप्त भी कर लें, तब भी 58.5 करोड़ लोग ऐसे बचेंगे जिन्हें भरपेट भोजन उपलब्ध नहीं होगा। विश्व खाद्य सम्मेलन द्वारा निर्धारित लक्ष्य 4.12 करोड़ की संख्या से यह 1.73 करोड़ अधिक है। यह स्थिति उस दुनिया की है, जहां खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार विश्व में सभी का पेट भरने के लिये पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध है। खाद्य एवं कृषि संगठन के प्रमुख जैकोस डायोफ ने खाद्य सुरक्षा पर उद्घाटन सत्र में कहा था, संसाधनों एवं उन्नत तकनीक से सम्पन्न विश्व में लोगों का भूखे रहना एक प्रकार का षड़यंत्र है।

खाद्य एवं कृषि संगठन की खाद्य सुरक्षा पर 32वां सत्र सम्पन्न हुआ। विश्व में भुखमरी की स्थिति भयानक होने के बावजूद दसवां विश्व खाद्य सम्मेलन सरकारों के इस वादे के साथ समाप्त हुआ कि गरीबों के लिए विशेष आहार सुरक्षा सुनिश्चित की जायेगी। विश्व खाद्य सम्मेलन प्लस 10 का स्तर घटाकर उसे केवल विशेष सत्र का रुप देकर वस्तुतः सरकारों ने कुपोषण एवं भूख की समस्या के प्रति गंभीर न होने का संकेत दे दिया है। विशेष सत्र में निम्न तीन पेनल गठित हुए - सहायता और निवेश, कृषि सुधार एवं ग्रामीण विकास तथा व्यापार एवं वैश्वीकरण।

इस विशेष सत्र के निष्कर्षो का संकलन सत्र के अध्यक्ष फ्रांस के प्रो. माइकल थीबीयर ने किया। निष्कर्षो पर सर्वसम्मति थी कि गरीबों के हित में नीतियां बनाई जाएं और खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया जाए। गरीबों के लिए व्यापारिक गतिविधि एवं निजी निवेश के अनुकूल परिवेश के निर्माण के मामले में भिन्नता नजर आई। निष्कर्षो में व्यापार उदारीकरण, जैव-ईंधन का विकास तथा गरीब किसानों के लिए आनुवांशिक रुप से संशोधित बीजों के विषय में चिंता व्यक्त की गई। व्यापार के लिए अधिक खुलापन एवं कृषि आधारित विकास के जरिये गरीबी में कमी तथा खाद्य सुरक्षा बढ़ाने जैसे मामलों से संबंधित विचारों में काफी अंतर और विरोधाभास प्रकट हुआ।

वैश्वीकरण के प्रति रुझान की सूचना और आकलन प्राप्त करने, वाणिज्यिक समझौते एवं कृषि विकास को लेकर बनाई जाने वाली वाणिज्यिक नीतियों के विकास की संभावनाओं के लिए खाद्य एवं कृषि संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से सरकारों को सहायता करने की भी अपील की गई। विशेष सत्र के अन्त में प्रो. माइकल थीबीयर ने निष्कर्षो को पढ़ कर सुनाया और कहा कि विश्व खाद्य सुरक्षा समिति की रपट में निष्कर्षो को प्रकाशित किया जायेगा और उन पर सवाल उठाने के बजाय विभिन्न मतों पर चर्चा करना अधिक तर्कसंगत होगा।

कनाडा समेत अनेक देशों के प्रतिनिधियों का कहना था कि वे निष्कर्षो को परिशिष्ट और अध्यक्षीय निष्कर्ष के रुप में सीमित रखे जाने तक ही सहमत हैं। उन्हें कानूनी रुप से बाध्यकारी न बनाया जाए। अध्यक्षीय निष्कर्षो पर चर्चा के दौरान डेन्मार्क और अमरीका समेत कुछ देशों ने कहा कि व्यापार उदारीकरण पर नकारात्मक दृष्टिकोण एवं खाद्य संप्रभुता जैसे कुछ मुद्दों से असहमत होने के कारण वे इस रपट से अलग रहना पसंद करेंगे। भद्रजन समाज (सिविल सोसायटी) समूह भी अध्यक्षीय निष्कर्ष से नाखुश दिखा। उनका कहना था कि रपट में वे तमाम बातें परिलक्षित नहीं हुई, जो चर्चा में उठी थीं, विशेष रुप से व्यापार उदारीकरण, कृषि सुधार और संसाधनों की कमी जैसे विषयों की उपेक्षा की गई है। अनेक स्वयंसेवी संगठनों ने मिलकर अपनी एक रपट प्रस्तुत की और आग्रह किया कि उसे अध्यक्षीय निष्कर्षो के साथ परिशिष्ट के रुप में प्रकाशित किया जाए। किंतु इसे भी अस्वीकार कर दिया गया। विश्व खाद्य सुरक्षा समिति की 32 वीं रपट में कहा गया है कि अध्यक्षीय निष्कर्षो पर विशेष सत्र के सहभागियों द्वारा ना तो चर्चा की गई और ना ही उन्हें स्वीकार किया गया।

विश्व खाद्य सुरक्षा समिति की रपट में सार्वजनिक सम्पत्ति एवं खाद्य सम्प्रभुता पर भी प्रकाश डाला गया है। कुछ राष्ट्रों (ब्राजील, क्यूबा और लातिन अमेरिकी तथा कैरिबियाई समूह) को वैश्विक सार्वजनिक सम्पत्ति के नाम पर ही आपत्ति थी। उनके अनुसार यह प्राकृतिक संसाधनों पर राष्ट्रीय सम्प्रभुता सुनिश्चित करने वाले रियो घोषणा-पत्र तथा अन्य पर्यावरणीय समझौतों के प्रतिकूल हैं।

खाद्य सम्प्रभुता के विषय में रपट में कहा गया है कि आहार एवं कृषि संगठन के अनुसार इसकी कोई मान्य परिभाषा नहीं है। किंतु इसका आशय है- अपना कृषि उत्पादन बढ़ाकर और स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय बाजारों में उसकी पहुंच सुनिश्चित करके खाद्यान्न आपूर्ति का प्रबंधन करने की राष्ट्रों की क्षमता। इस विशेष सत्र में कोई ठोस सुझाव नहीं दिये गये। समिति ने केवल खाद्य सुरक्षा के मूल कारणों से निपटने के लिए तत्काल कार्यवाही का आह्वान किया है। इसके अलावा भोजन का अधिकार के लिए स्वैच्छिक संगठनों ने सरकरों से स्वैच्छिक दिशा निर्देशों को अनिवार्य बना कर लागू करने की अपील की, ताकि यह खाद्य सुनिश्चित करने का माध्यम बन सके।

सरकारों के प्रमुखों एवं मंत्रियों की उपस्थिति के साथ-साथ खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में उठाए जाने वाले ठोस निर्णय के मामले में भी यह सम्मेलन बौना साबित हुआ। यह सम्मेलन विश्व में भूख और कुपोषण की समस्या हल करने में खाद्य एवं कृषि संगठन की भूमिका के प्रति सरकारों के अविश्वास का एक ज्वलंत उदाहरण है।

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