शनिवार, 31 मार्च 2007

पाकिस्तान : विलुप्त होती सिन्धु घाटी की सभ्यता

4 विदेश

पाकिस्तान ः विलुप्त होती सिन्धु घाटी की सभ्यता

शाहिद हुसैन

पिछले वर्ष 22 सितम्बर 2006 को कराची (पाकिस्तान) से 150 किलोमीटर दूर स्थित दक्षिणपूर्वी नगर खारोचान में 50,000 व्यक्ति एक अभूतपूर्व उत्सव जश्ने-ए-सिंधु डेल्टा के निमित्त एकत्रित हुए। विशेषज्ञों और राजनीतिज्ञों ने सिंधु नदी को श्रध्दांजली दी, नदी में दीपदान किया गया और बड़ी संख्या में नौजवान युवक-युवतियों ने ऊर्जापूर्ण नृत्य भी किया। पाकिस्तान मछुआरा संघ द्वारा आयोजित इस समारोह का विशेष महत्व यह था कि इस साल हुई मूसलाधार वर्षा के फलस्वरुप सिंधु डेल्टा (नदी मुख) के निवासियों को आठ वर्ष पश्चात् ताजा जल प्राप्त हो पाया था। वर्षा के बाद आयी बाढ़ ने अरबसागर से मुख्यभूमि में प्रविष्ठ विषैले तत्वों को भी बाहर फेंक दिया था।

विशेषज्ञों का अभिमत है कि यह एक अल्पकालिक समाधान भर है। उनका मानना है कि नुकसान इतना अधिक हो चुका है कि सिंधु डेल्टा के पूर्ण पुनर्वास हेतु आवश्यक है कि ताजे जल की लगातार उपलब्धता सुनिश्चित की जाए। पर्यावरणविदों का यह भी मानना है कि समुद्र, सिंधु नदी डेल्टा की ऊपरी परिधि में 54 किमी. तक अतिक्रमण कर चुका है। इस परिस्थिति के निर्माण की वजह सिंधु नदी के पानी को दूसरी ओर मोड़ना है ओर कोरटी जलाशय जो कि सिंधु नदी पर बने अनेको बांधों, जलाशयों में से अंतिम है, से पानी की न्यूनतम निकासी है।

पहले इन इलाकों में मार्च के महीने में ही ताजा जल पहुंच जाता था और मई में धान की बुआई का कार्य भी प्रारंभ हो जाता था। पंरतु सन् 1930 के दशक में सक्कर बांध के बन जाने के पश्चात् यहां पर ताजा जल अप्रेल में पहुंचने लगा और सन् 1955 में कोटरी जलाशय के निर्माण के बाद तो यहां ताजे जल का बहाव एकदम ही रुक गया। अनेक लोग इस बात में विश्वास करते हैं कि पाकिस्तान के थट्टा प्रांत के इस नगर का नाम समुद्र के खारे पानी के नाम पर ही पड़ा है क्योंकि सिंधी भाषा में खारो का अर्थ है खारा या नमकीन एवं चान का अर्थ है नैसर्गिक या प्राकृतिक जल प्रवाह।

पिछले दशक के मध्य से न्यून वर्षा के कारण यहां के ईको सिस्टम के पुनर्वास का कार्य ठीक से नहीं हो पाया। साथ कोटरी बांध से पानी के वितरण में आई कमी ने समस्याओं को और भी बढ़ा दिया था। सीमांत जल क्षेत्रों में लगातार ताजे जल का प्रवाह न होने के कारण समुद्री लहरों के लगातार प्रवाह से उपजाऊ भूमि पर तेजी से समुद्र हावी होता गया और यहां की भूमि मानव उपयोग योग्य ही नहीं रह पाई। पीने के पानी की कमी, कृषि की हानि और चारागाहों के समाप्त होने से हजारों लोगों को अपना घर छोड़ कर पलायन हेतु विवश होना पड़ा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार करीब 5 लाख एकड़ भूमि रेगिस्तानी हो गई है। जबकि स्थानीय निवासियों के अनुसार यह आंकड़ा इससे दुगना है। स्थानीय निवासियों का कहना है कि जहां हमारी (सिंध प्रांत) 40 प्रतिशत जमीन बंजर हो गई है वहीं पंजाब प्रांत में भूमि में 40 प्रतिशत की वृध्दि हुई हैं । इससे पाकिस्तान के पंजाब व अन्य छोटे प्रांतों के बीच विवाद भी बढ़ रहे हैं।

समुद्री सीमा इको सिस्टम, (आईसीयूएन) पाकिस्तान के निदेशक ताहिर कुरैशी का कहना है कि सन् 1991 में पाकिस्तान के विभिन्न प्रांतो के मध्य हुए समझौते के अनुसार यह अनिवार्य कर दिया गया है कि कम से कम 1 करोड़ एकड़ फीट पानी कोटरी जलाशय से छोड़ा जाएगा जो कि सिंधु डेल्टा से होता हुआ अरब सागर में जा मिलेगा। परंतु पिछले 15 वर्षो में ऐसा केवल तीन मर्तबा ही संभव हो पाया है। हालांकि इस वर्ष की अतिवृष्टि से सिंधु नदी में असाधारण उफान आया है और निचले अनुप्रवाह वाली छोटी नदियों में प्रवाह भी आया। मेंग्रो वनों में नये जीवन का संचार हुआ साथ ही मछली व्यवसाय को भी नई जान मिली। साथ ही मछलियों को भी ढेर सारा नया प्राकृतिक खाद्य भी उपलब्ध हुआ।

हैदराबाद सिंध स्थित खारोचन के एक किसान अब्दुल मजीद काजी का कहना है कि किसानों और मछुआरों को अब आगे अच्छे दिन आने का आभास हो रहा है। नदी के किनारे स्थित हजारों एकड़ कृषि योग्य भूमि जो कि पूर्व में खारेपन का शिकार हो गई थी में इस बार कई वर्षो के पश्चात् रबी की फसल की बुआई संभव हो पाई है। पुराने दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं कि यहां खारोचान में हजारों-हजार मवेशी थे। ऊन, घी और मक्खन से लदी नौकाएं प्रतिदिन कराची जाती थीं। कृषि यहां एक मौसमी व्यवसाय था परंतु खूब पैदावार होती थी। नदियों का जल उतरने पर यहां पर चांवल की खेती भी होती थी।

यहां से अनाज का निर्यात भारत की समुद्री सीमा से लगे हिस्सों, इरान एवं खाड़ी के देशों को होता था। लकड़ी भी यहां से निर्यात का एक प्रमुख उत्पाद था। विभाजन के पूर्व स्वास्थ्य अधिकारी, पुलिस, राजस्व, वन, भूमि व कस्टम विभाग के बड़े अधिकारी यहां पर नियुक्त थे। आज यहां पर मात्र एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है जिसमें हमेशा ही दवाईयों का अभाव बना रहता है।

आज नदी के किनारे बसे इस नगर में पीने का पानी तक बाहर से मंगाना पड़ता है। सामान्य दिनों में जहां यह 600 रुपये प्रति टेंकर की दर से उपलब्ध होता है वहीं मानसून के दिनों में इसका मूल्य 2000 रुपये तक हो जाता है। कई बार 25 लीटर पेयजल हेतु 15 रुपये से अधिक भुगतान करना पड़ता है। यहां पर निवास करने वालों को अपनी आमदनी का बड़ा भाग पेयजल पर खर्चा करना पड़ता है। खारेपानी की वजह से मछलियों की उपलब्धता भी कम हो गई है। साथ ही वन आच्छादन कम होने से लकड़ी व्यवसाय व पर्यावरण पर भी वितरीत प्रभाव पड़ा है।

हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र इण्डस डेल्टा एन एनवायरमेंटल असेसमेंट के मुताबिक बारिश के मौसम में पीछे से बहकर आनेवाली उपजाऊ गाद में आश्चर्यजनक रुप से कमी आई है। सिंध के सिंचाई एवं विद्युत विभाग के अनुसार सन् 1880-82 में यहां पर 4000 करोड़ टन तक गाद प्रतिवर्ष जमा हो जाती थी। सन् 1940 से 54 के बीच सक्कर बांध के निर्माण के पश्चात् यह घटकर 225 करोड़ टन रह गई थी। सन् 1977-92 के मध्य तरबेला बांध के बन जाने पर यह घटकर 1000 करोड़ टन तक पहुंच गई। सबसे शोचनीय तथ्य यह है कि सन् 1992 से यह आवक कभी 300 करोड़ टन से अधिक नहीं रही। वर्तमान में यह अपने सुनहरे अतीत का 20 प्रतिशत भी नहीं है।

इन बांधों के निर्माण के पूर्व पूरे सिंध नदी क्षेत्र में ढेरों सहायक नदियां विद्यमान थीं। कुल 13 सहायक नदियों को साथ लेकर सिंधु नदी अरबसागर में मिलती थी। इसके परिणाम स्वरुप हजारों वर्ग मील तक समुद्री तट पर प्रवाह प्रभावित होता था। आज इसकी केवल एक सहायक नदी खोबर प्रवाहमय है और वह भी साल में मात्र दो या तीन महीने।

एक ओर दुनिया की सबसे पुरानी नदी घाटी सभ्यता और इसके निवासी कुपोषण का शिकार होकर विलुप्त होने के कगार पर हैं, वहीं पाकिस्तानी सरकार पर इसका कमोवेश कोई असर नहीं हो रहा है। वह इस नदी पर अभी भी और बड़े बांध बनाने पर उतारु है। इसकी वजह है इन कार्यो में लगने वाला धन। विश्व बैंक की भ्रष्टाचार विरोधी समिति का मानना है कि इसके लिये आबंटित 200 अरब डालर में से करीब आधा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। वैसे भी ट्रांसपरेंसी इन्टरनेशनल के मुताबिक निर्माण का यह क्षेत्र अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वाधिक भ्रष्ट है और विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक यह क्षेत्र इसी भ्रष्टाचार की बली हेतु अभिशप्त है। ***

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