भारतीय कृषि : कल, आज और कल
अरूण डिके
एक कृषि प्रधान देश होने के बावजूद भारत में किसान और खेती दोनों ही हाशिए पर हैं । यह अजीब विरोधाभास है कि जिस देश में करीब ७० प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर हो उस देश के कृषि मंत्री को क्रिकेट के खेल के लिए पूरी दुनिया में घूमने का समय है जबकि कृषि मंत्रालय का भार संभालने के बाद शरद पंवार ने भारत के पूरे राज्यों का दौरा भी नहीं किया होगा । कृषि की अवहेलना भारत की बर्बादी के न्योते से कम नहीं है । अचरज होता है कि भारत की जलवायु, मौसम, लोगों के रहन-सहन और जलवायु के अनुरूप खेती करना हमारे किसानों को किसने सिखाया ? जिस अन्नसुरक्षा को लेकर आज पूरा संसार विचलित है वह तो हमारी कृषि नीति की मुख्य रीढ़ थी । प्रत्येक गांव में केवल मानव ही नहीं पशुआें के लिए चरणोई और तालाब किसके आदेश से बनाए गए थे ? इतने प्रकार के अनाजों, दाले, तिलहनी फसले, साग-सब्जियों और फलों का जाल किसने देशभर में फैलाया ? कम पानी में पकने वाली हमारी शानदार फसले जैसे ज्वार, बाजरा, मक्का, कोदो, कुटकी, तिदड़ा, तिल, अलसी, रामतिल, राजगिरा, कुलथी,कुट्टू किसने विकसित किए ? गांव-गांव में रोजगार देने वाला मोटे धागे का कपास, घानी, चक्की, चरखे, करघे, साबुन, तेल, दंतमंजन, सुतली, नारियल की रस्सी, चमड़े के जूते, आयुर्वेद की दवाईयां, हल, बक्खर, गेती, फावड़े, तगारी बनाने के उद्योग और फसलों से कच्च माल निकालकर ग्रामोद्योग चलाने की प्रेरणा किसने दी और वह सभी भी धेलाभर बिजली खर्च किए बिना मात्र मानव और पशुआें के श्रम से होता था । यदि हम भारत का इतिहास देखें तो पता चलता है कि अंग्रेजों ने अपने देश की मिलों का पेट भरने और व्यापार व्यवसाय बढ़ाने के लिए हमारी अन्न सुरक्षा के घेरे को तोड़ा । अनाज की जगह कपास, गन्ना, फूलों, मसालो और नील की खेती हमारे किसानों से करवाई । ये सबकुछ सालों साल चलता रहा और फिर जब देश में अकाल की स्थिति हुई तब भुखमरी के नाम पर मॅक्सिकन गेहँू के बौने बीज यहाँ लाकर बोए गए । उनकी पैदावार बढ़ाने, रासायनिक खाद, कीटनाशक और यंत्रों के उद्योग का जाल देश में फैला । इसका उलटा असर ग्रामीण भारत पर पड़ा । खेती महंगी होने लगी । गांवों में पानी, लकड़ी, चारा और मजदूर कम होने लगे । गांव खाली होने लगे, शहरों की आबादी बढ़ी । इसी को विकास माना जाने लगा । संभवत: इसका एकमात्र अपवाद कोल्हापूर के ख्यात गणितज्ञ और कृषि वैज्ञानिक प्रो. दाभोलकर हैं जिन्होंने महाराष्ट्र में बिना किसी आधुनिक संसाधन के अंगुर क्रांति को संभव बनाया । गाय, बैल और पशुधन जो कभी हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आधार थे, गांवों से खदेड़ दिए गए । उन्हें आवारा, अनुत्पदाकता करार देकर या तो शहरों में घूमने छोड़ा गया या कत्लखाने का रास्ता बताया गया । हमारी ग्रामीण महिलाएं खाद से बचे गोबर और कटी हुई फसल के सूखे अवशेषों से खाना पका लेती थी, जो कमोवेश आज भी हो रहा है । परंतु आज हर घर में गैस चूल्हे देने का सपना दिखाया जा रहा है । आजादी के बाद जगह-जगह स्थापित कृषि महाविद्यालयों और अंग्रेजी खेती की तर्ज पर स्थापित कृषि विश्वविद्यालयों में क्या हुआ ? खेतों में सूरज, लकड़ी, गोबर, गोमूत्र और वनस्पतियों की महत्ता का अध्ययन किए बिना उसे दकियानुसी बताया गया । दलहनी फसलों से सस्ता प्रोटीन मिलता है और इन फसलों की लकड़ी से घर की दीवारें बनती हैं इसे नजरअंदाज कर सोयाबीन जैसी ऊर्जाखाऊ फसलें और सात-सात पानी खाने वाले गेहूँ की खेती को प्राथमिकता दी गई । बहुफसलीय कृषि प्रणाली के स्थान पर एकल फसलों पर लक्ष्य केन्द्रित हुआ । नगदी फसलों का जोर बढ़ा । महाविद्यालयों का काम मात्र इन फसलों की सुधारी गई किस्मों का प्रजनन और चयन तक सीमित होकर रह गया । इस कारण जाने अनजाने भारतीय मौसम और जलवायु के खिलाफ खेती होनी लगी । विश्व की औसत वर्षा (५८ सेमी.) से ज्यादा वर्षा हमारे देश (१०३सेमी.) मेें होती है और अपवादस्वरूप कुछ देशों को छोड़कर तो सूरज भी यहां ज्यादा ही चमकता हैं । चरम सीमा में उपलब्ध इन दो प्राकृतिक संसाधनोंं को खेत में संवर्धित करने के लिए नमी चाहिए और उसके लिए हमारे खेतों में मेढ़े, वृक्ष और झाड़ियां लगाई जाती थी, इसका कृषि वैज्ञानिकों ने भान नहीं रखा । ट्रेक्टरों की सुगमता के लिए मेढ़ तोडी गई । नमी कम होने से खेतों में सिंचाई की मांग बढ़ी और वर्षा का पानी रोकने वाले तालाब समाप्त् होने से नहरों से सिंचाई और बड़ी-बड़ी बांध परियोजनाएं देश मे लागू की गई । दक्षिण भारत की कुछ संस्थाआेंने यह सिद्ध किया है कि छोटे खेत ज्यादा उत्पादक होते हैं। यदि इन सबका अध्ययन हमारी आज की कृषि शिक्षा में होता नहीं है तो वह कृषि शिक्षा किस काम की ? जो केवल रासायनिक खाद, कीटनाशक और संकरित या जीन रूपांतरित फसलों के बीजोंं को ही प्रोत्साहित करती है । मिट्टी को उपजाऊ बनाने का कभी सोचती ही नहीं । सन् १९०५ में अंग्रेजी हुकूमत ने अलबर्ट हॉवर्ड नामक कृषि वैज्ञानिक को भारत के किसानों को रासायनिक खेती सिखाने भेजा था । उस अंग्रेज ने भारत के किसानों की खेती देखी और वे अत्यंत प्रभावित हुए । पूरे २९ साल उन्होंने भारतीय खेती का अध्ययन किया और हमारी खेती को पूरे विश्व में फैलाया। इंदौर में उन्हीं के द्वारा स्थापित इंस्टीट्यूट ऑफ प्लान्ट इंडस्ट्री में उन्होने जैविक खेती के विभिन्न प्रयोग किए थे। उन्होंने गोबर, गोमूत्र और फसल के अवशेषों से जैविक खाद बनाने की विधि विकसित की जिसे इंदौर मेथड ऑफ कम्पोस्ट मेकिंग नाम दिया गया । आज यह पूरे विश्व में लोकप्रिय है । यह शर्मनाक है कि उसी भूमि पर आज कृषि महाविद्यालय के वैज्ञानिक किसानों को अंग्रेजी खेती सिखा रहे हैं । यदि हमें तमस से पुन: प्रकाश की खेती और लौटना हो तो हमें वर्तमान खेती व्यवस्था को सिरे से खारिज करना पड़ेगा । सितम्बर १९४८ में प्रसिद्ध गांधीवादी जे.सी. कुमारप्पा ने कांग्रेस एग्रेरियन इम्प्रूमेंट कमेटी की अध्यक्षता करते हुए खेती सुधार के लिए कुछ सुझाव दिए थे । उनमें प्रमुख थे, बटाई से खेती बंद हो । जो खेत नहीं जोतता हो उसे खेत से बेदखल किया जाए और किसानों का बगैर किसी भी मध्यस्थ के सीधे शासन से संवाद हो । आवश्यक है कि आज कुमारप्पा की रिपोर्ट का पुन: अध्ययन हो और उसे कार्यान्वित किया जाए साथ ही स्कूलों और महाविद्यालयों में कृषि शिक्षा अनिवार्य की जाए यहां तक कि आय.आय.टी. जैसी सर्वोच्च् संस्था में खेती विषय समाहित किया जाए क्योंकि खेती मात्र फसलें पैदा करने वाला विज्ञान नहीं है, बिजली, ऊर्जा और उद्योगों के लिए कच्च माल पैदा करने वाला माध्यम भी है । इसके लिए उच्च् दर्जे का शोध जरूरी है । हमारे कृषि महाविद्यालयों के पाठ्यक्रमों को पूरी तरह खारिज कर नया पाठ्यक्रम बनाया जाए । मृदा व्यवस्था, पोषित मिट्टी, उच्च् पोषण देने वाली हमारी परम्परागत फसलों का अध्ययन उसमें शामिल हो । पाठ्यक्रम में समाजशास्त्र को अनिवार्य किया जाए । इसके अलावा उसमें वृक्षायुर्वेद, कश्यपीय कृषिवृत्ति, कृषि पाराशर जैसे ग्रंथों का समावेश हो । डॉ. कार्वर मासानोबू फुकुओका, सर अलबर्ट हॉवर्ड और प्रो.दाभोलकर के अनुसंधानों का भी उसमें समावेश हो ताकि हमारी कृषि शिक्षा परिणाममूलक बने । भारत खेती प्रधान देश होने के नाते कृषि मंत्रालय को सर्वोच्च् स्थान दिया जाए । बागवानी, वन , सिंचाई, पशुपालन, पंचायत और ग्रामीण उद्योग जैसे विभाग कृषि मंत्रालय के अंतर्गत किए जाएं क्येांकि इन सबका आपसी समन्वय जरूरी है । कृषि मात्र गांवों का नहीं शहरांे का भी विषय है । किसानों की तरह ही शहरी उपभोक्ताआें की भी कृषि विकास कार्यक्रमों में भागीदारी होना आवश्यक है। लंदन स्थित स्कूल ऑफ डेवलपमेंटल स्टडीज के तीन शोधकर्ताआें ने विकसित और विकासशील देशों का , खासकर भारत और चीन का सघन अध्ययन किया थां उनका निष्कर्ष है कि भारत में किसान ही सच्च्े अनुसंधानकर्ता हैं । ***
१५० सालों में अस्तित्व खो देगा मानसून
इस बार मानसून की लेटलतीफी के कारण पूरे देश में हाहाकार मच गया था । बारिश नहीं होने के कारण अकाल की स्थिति पैदा हो गई थी । लेकिन वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि भविष्य में हालात और भी भयानक हो सकते हैं । भारत में बारिश के लिए जिम्मेदार दक्षिण पश्चिम मानूसन का १५० वर्षोंा में अस्तिव ही खत्म हो जाएगा । पुणे स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटिरयोलाजी (आईआईटीएम) के मुताबिक धरती के बढ़ते तापमान के कारण अरब सागर का तापमान बढ़ रहा है । इसके चलते धरती और समुद्र के बीच तापमान का अंतर लगातार घट रहा है यही तापांतर बारिश लाने वाली मानसूनी हवाआें के लिए जिम्मेदार होता है। इस तापांतर में कमी आना अहम मुद्दा है और अगले १५० सालों में यह मानूसन शून्य हो सकता है ।
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