गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

४ निजीकरण

पानी के निजीकरण के खतरे
रेहमत
हाल ही में उत्तरप्रदेश विधानसभा द्वारा पारित जल संसाधन प्रबंधन और नियामक आयोग के गठन संबंधी कानून से स्पष्ट हो गया है कि अब देश में पानी का इस्तेमाल भी गरीबों और किसानों की पहुंच से बाहर किया जा रहा है । इस कानून के उल्लंघन को संज्ञेय अपराध माना गया है तथा उल्लंघन करने वाले व्यक्ति अथवा संस्था पर एक लाख तक जुर्माना और एक वर्ष तक की कैद अथवा दोनों सजाएं एक साथ दी जा सकती हैं । नियामक आयोग के अधिकारों में थोक हकदारी , (किसी क्षेत्र विशेष से गुजरने वाली नदी अथवा क्षेत्र में स्थित तालाबों और अन्य जल संसाधनों को एक मुश्त ठेके या एकाधिकार पर देना ) उपयोग की श्रेणी तथा जल दरें निर्धारित करना शामिल है । डेढ़ दशक पूर्व प्रारंभ ढांचागत समायोजन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन से पानी सहित जीवन के लिए जरूरी संसाधन आम जनता से दूर जा रहे हैं। ढांचागत समायोजन कार्यक्रम लागू करवाने हेतु अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों ने लूट समर्थक नीतियां बनाई हैं । विश्व बैंक की जल संसाधन रणनीति (२००२) कहती है कि जल क्षेत्र में बाजार के सिद्धांतों को लागू करने की कोशिश की जाए ताकि जल अधिकार अधिक कीमत चुकाने वालों को हस्तांतरित किया जा सके । वहीं एशियाई विकास बैंक की जल नीति पानी को प्रकृति की देन नहीं बल्कि एक ऐसा संसाधन मानती है जिसका सटीक प्रबंधन होना चाहिए । इसलिए विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक जैसी वित्तीय एजेंसियों ने विभिन्न राज्य सरकारों को जल क्षेत्र सुधार हेतु कर्ज दिए हैं । इन्हीं कर्जो की एक शर्त जल क्षेत्र को राजनैतिक हस्तेक्षप से मुक्त करवाने हेतु नियामक व्यवस्था कायम करवाना भी होती है । उत्तरप्रदेश का जल नियामक आयोग संबंधी कानून भी विश्व बैंक द्वारा आबंटित कर्ज की शर्त के तहत ही बनाया गया है । मध्यप्रदेश सरकार भी विश्व बैंक से ३९.६ करोड़ डॉलर का कर्ज लेकर चंबल, सिंध, बेतवा, केन और टोंस (तमस) नदी कछारों मेंे `मध्यप्रदेश जलक्षेत्र पुनर्रचना परियोजना संचालित कर रही है । चँूकि यह कर्ज भी सेक्टर रिफार्म (क्षेत्र सुधार) के तहत लिया गया है अत: विश्व बैंक ने प्रदेश के जल क्षेत्र में बदलाव हेतु १४ शर्ते रखी है । इन्हीं में से एक शर्त पानी का बाजार खड़ा करने वाले जल नियामक आयोग का गठन करना भी है । इसके द्वारा पानी को निजी हाथों में सौंप दिया जाएगा । विश्व बैंक ने कर्ज दस्तावेज में साफ लिख दिया है कि जलक्षेत्र पुनर्रचना परियोजना (मध्यप्रदेश) का रूपांकन निजी-सार्वजनिक भागीदारी अर्थात निजीकरण को ध्यान मेें रखकर किया गया है तथा जलक्षेत्र सुधार का मुख्य आधार निजीकरण और बाजारीकरण ही होगा । परियोजना के प्रारंभिक लक्ष्यों में १ मध्यम और २५ छोटी सिंचाई योजनाओ का निजीकरण का लक्ष्य तय कर दिया गया है । निजीकरण का प्रमुख उद्देश्य होता है मुनाफा कमाना। पानी की कीमतें अत्याधिक बढ़ने पर जिनके पास पानी खरीदने की क्षमता होगी उन्हें ही पानी मिलेगा । क्रयशक्ति विहीन लोगों को जरूरत का पानी उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी सेवा प्रदाताआें पर नहीं होगी । ऐसे में किसानों और गरीबों के जीने के हक का क्या होगा ? पानी के निजीकरण से नागरिकों के जीने के हक को ही नकार दिया जाएगा। किसानों की आजीविका का आधार ही पानी है । फसल उत्पादन के लिए उन्हें बड़ी मात्रा में (बल्क) पानी की आवश्यकता होती है । यदि वे पूर्ण लागत वापसी के सिद्धांत के अनुसार ऊँची दरों पर भुगतान नहीं कर पाए तो प्रदेश की एक तिहाई आबादी के समक्ष न केवल आजीविका का संकट पैदा हो जाएगा बल्कि इसका नकारात्मक प्रभाव देश की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता पर भी पड़ेगा । मध्यप्रदेश में भी जल नियामक आयोग के गठन के बाद प्रदेश की सीमाआें में उपलब्ध समस्त जल संसाधन (जिनमें निजी कुएं, ट्यूबवेल तथा भूगर्भीय जल भी शामिल है । )जल नियामक आयोग के अधीन हो जाएगें, जिसकी दरें आयोग ही तय करेगा । देश में किसानों की आर्थिक स्थिति इतनी खस्ता है कि वे सिंचाई हेतु ली जा रही बिजली का बिल ही नहीं चुका पा रहे हैं । केन्द्रीय कृषि मंत्री पहले ही छोटी जोतों को अव्यवहारिक बता चुके हैं । ऐसे में यदि किसानों को उनकी खुद की पूंजी/श्रम से तैयार कुआेंऔर ट्यूबवेलों के साथ नदी-नालों के पानी का बिल भी चुकाना पड़ा तो क्या होगा ? सूचना का अधिकार देने वाली मध्यप्रदेश सरकार जल क्षेत्र के नियामक संबंधी मामले में अत्यधिक गोपनीयता बरत रही है । आयोग के गठन संबंधी कानून का प्रारूप मार्च २००७ के भी पहले से तैयार है लेकिन इसे प्रदेशवासियोंसे छिपाया जा रहा है । मंथन अध्ययन केंद्र द्वारा कई बार सूचना के अधिकार के तहत इसे मांगा गया लेकिन हर बार इसे उपलब्ध करवाने से इंकार कर दिया गया । इसके विपरीत महाराष्ट्र में जब इस प्रकार का प्रारूप कानून बना तब सरकार ने कार्यशलाआें के माध्यम से इसका प्रचार कर जनता के सुझाव मांगे थे । वैसे दुनिया में पानी का निजीकरण कोई नई बात नहीं है । सन् १९९९ में लेटिन अमेरिकी देश बोलिविया में पानी का निजीकरण किया गया था । ठेकदार कंपनी एगुअम डेल तुनारी ने अनुबंध के बाद न सिर्फ तीन गुना दाम बढ़ाए बल्कि उसने कुआें और ट्यूबवेलों पर भी कब्जा कर उन पर मीटर लगा दिए थे । पानी की दर वृद्धि से उत्पन्न जनाक्रोश ने वहां गृहयुद्ध की स्थिति निर्मित कर दी थी। बोलिविया की तरह पानी के निजीकरण के अन्य असफल प्रयासें के बाद दुनिया के कई देशेंमें पानी पर समुदाय के अधिकार को न्यायपूर्ण समाज की बुनियाद मानते हुए इसे संवैधानिक अधिकार घोषित किया गया । इन देशों में स्पेन , हॉलैण्ड (यूरोप), दक्षिण अफ्रीका, नाईजीरिया, केन्या , कांगो , इथियोपिया, जाम्बिया, युगाण्डा (अफ्रीका), ईरान, फिलिपिन्स (एशिया), कोलम्बिया, इक्वाडोर, ग्वाटेमाला ,ऊरूग्वे, वेनेजुएला, बोलिविया, क्यूबा और पनामा (अमेरिका महाद्वीप) शामिल है । संभव है भारत में भी निजीकरण का इतिहास दोहराते हुए बाद में इसे लोगों का अधिकार बनाया जाए । लेकिन तब तक देश के अधिकांश किसान या तो खेती से अथवा दुनिया से ही पलायन कर चुके होंगें । ***
पाठकों सेपिछले दिनों प्रदेश विधानसभा के चुनावोंके कारण पर्यावरण डाइजेस्ट की मुद्रक प्रेस की व्यस्तता के कारण पत्रिका का नवम्बर अंक समय पर नहीं निकल पाया , इसका हमें खेद है । यह नवम्बर-दिसम्बर का संयुक्तांक आपकी सेवा में प्रस्तुत है ।प्र. सम्पादक

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