गांधी : लघु पत्रों के महानतम संपादक
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
महात्मा गांधी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महानायक थे। भारतीय जन मानस में उन्होंने अपनी असाधारण देश भक्ति और सत्य एवं अहिंसा के उच्च आदर्शो के कारण महत्वपूर्ण स्थान बनाया, उसीसे वे राष्ट्रपिता कहलाते हैं। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने जिन सत्याग्रहों और आंदोलन का नेतृत्व किया उसकी जानकारी तो सामान्य जन को न्यूनाधिक परिणाम में है, किंतु उनके पत्रकार स्वरुप के बारे में बहुत कम लोग जानते है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत पत्रकारिता से ही की थी। उन्होंने संवाददाता के रुप में कार्य शुरु किया, अखबारों में लेख लिखे बाद में साप्ताहिक पत्रों का संपादन किया। गांधीजी ने कभी कोई बड़ा दैनिक पत्र नहीं निकाला एक अर्थ में वे लघु पत्रों के महानतम संपादक थे। लेखक के रुप में उनकी विश्व व्यापी ख्याति है, जीवन और साहित्य में उनकी लेखनी की धारा समान है। यह एक संयोग ही था कि गांधीजी ने अपना पत्रकार जीवन एक स्वतंत्र लेखक के रुप में प्रारंभ किया था। चढ़ती वय में जब वे लंदन में कानून का अध्ययन करने गये तो उन्होंने भारत की समस्या पर वहीं दैनिक टेलीग्राफ और डेलीन्यूज में समय समय पर लिखना आरंभ कर दिया था। दक्षिण अफ्रीका में भी उन्होंने भारतीयों पर होने वाले अत्याचारों के बारे में भारत से प्रकाशित टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दू तथा अमृत बाजार पत्रिका और स्टेट्समेन आदि पत्रों में अनेक लेख लिखे थे। इस प्रकार भारतीय पत्रकारिता जगत के वरिष्ठ लेखकों से उनका सीधा जुड़ाव हो गया था। एक बार गाँधीवादी विचारक आर.आर. दिवाकर ने कहा था कि गांधी कदाचित् उस अर्थ में पत्रकार नहीं थे जिस अर्थ में हम पत्रकार की परिकल्पना आज करते हैं, क्योंकि गांधीजी का मिशन मातृभूमि की मुक्ति का मिशन था ।इस मिशन में उन्होंने पत्रकारिता को एक आयुध की तरह प्रयुक्त किया था। पत्रकारिता उनके लिए व्यवसाय नहीं थी बल्कि जनमत को प्रभावित करने का एक लक्ष्योन्मुखी प्रभावी माध्यम था। गाँधीजी ने इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया, और हरिजन जैसे ऐतिहासिक पत्रों का संपादन किया था। दक्षिण अफ्रीका में जब वे इंडियन ओपिनियन साप्ताहिक का प्रकाशन कर रहे थे तो उन्होंने लिखा था पत्रकारिता को मैने पत्रकारिता की खातिर नहीं अपनाया है, बल्कि मेने इसे एक सहायक के रुप में स्वीकार किया है जिससे मेरे जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने से सहायता मिले। मैं अपने चिन्तन को आचरण में ढालकर जो कुछ देना चाहता हँू, उसमें पत्रकारिता के माध्यम से सहायता मिलेगी। पत्रकारिता के अपने उद्देश्य की उद्घोषणा उन्होंने इन शब्दों में स्पष्ट कर दी थी। गांधीजी ने विभिन्न, सत्याग्रहों और आंदोलनों के सिलसिले में जनमत को प्रभावित करने के लिए समाचार पत्रों का बड़ा प्रभावशाली उपयोग किया था। सन् १९०४ में जब उन्होंने इंडियन ओपिनियन का प्रकाशन हिन्दी, गुजराती, उर्दू और अंग्रेजी भाषाआें में प्रारंभ किया तो पत्र के इन संस्करणों ने जनचेतना को प्रभावित करने का बड़ा काम किया। इंडियन ओपिनियन के माध्यम से उन्होंने टालस्टाय, लिंकन, ईश्वरचंद विद्यासागर जैसे महापुरुषों पर न केवल प्रेरक लेख लिखे बल्कि भारत में वीर-वीरांगनाआें और संत महात्माआें के विषय में भी पाठकों को काफी जानकारी दी। भारत लौटने पर गांधीजी ने बम्बई से सत्याग्रह का प्रकाशन शुरु किया। इसके पहले ही अंक में उन्होंने रॉलेट एक्ट का तीव्र विरोध किया। बम्बई में अंग्रेजी साप्ताहिक यंग इंडिया के प्रकाशन की योजना बनने पर गांधीजी से उसके सम्पादन का दायित्व संभालने का भी आग्रह किया गया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। उसी प्रकाशन के अंतर्गत ७ अक्टूम्बर १८९१ से गुजराती मासिक नवजीवन का प्रकाशन प्रारंभ किया गया। परन्तु इन सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध पत्र था हरिजन। ११ फरवरी १९३३ को घनश्याम दास बिड़ला की सहायता से हरिजन का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ और गांधीजी ने जो उस समय सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में पूना में जेल में थे, वहीं से पत्र का संचालन करते थे। इस पत्र के संपादक के रुप में आर.वी. शास्त्री का नाम छपना प्रारम्भ हुआ। हरिजन के माध्यम से गांधीजी ने हरिजनोद्धार और ग्रामीण उद्योगों के विकास का सन्देश दिया। जब सरकार की ओर से १८ अक्टूबर १९३९ को उन्हें यह चेतावनी दी गई कि हरिजन में प्रकाशित सत्याग्रह के समाचार बिना सक्षम अधिकारी को दिखाए प्रकाशित नहीं करेे, तो गांधीजी ने इसे प्रेस की स्वाधीनता पर आक्रमण माना और १० नवंबर १९३८ को उन्होंने पाठको से बिदा मांग ली। कुछ समय बाद हरिजन का प्रकाशन फिर प्रारंभ हो गया और वह अगस्त आंदोलन का संदेशवाहक बन गया। सन् १९४२ में जब गांधीजी जेल में थे, तो बम्बई सरकार ने हरिजन पर प्रतिबंध लगा दिया और नवजीवन प्रेस से प्रकाशित साहित्य को नष्ट करने का आदेश दिया तो गाँधीजी ने इसके विरुद्ध अलख जगाये रखा इसके पीछे उनकी यही भावना थी कि वे जनता के साथ अपना सीधा संवाद कर सके और जो कुछ वे व्यक्त कर रहे हैं, उनका सीधा उत्तरदायित्व ले सके। गांधीजी ने अपने किसी भी समाचार पत्र में कभी भी विज्ञापन स्वीकार नहीं किये। गाँधीजी ने १ फरवरी १९२२ को वायसराय को अपने पत्र में लिखा था कि देश के सामने सबसे बड़ा कार्य उसे पक्षपात से बचाकर उसकी अभिव्यक्ति की स्वाधीनता की रक्षा करना है। वे वाणी की स्वाधीनता के हमेशा पक्षधर रहे, किंतु उनकी अनुशासित और संयम से नियंत्रित वाणी थी। १ जुलाई १९४० को हरिजन में अपने एक लेख में उन्होंने लिखा था कि दक्षिण अफ्रीका में जब उन्होंने इंडियन ओपिनियन प्रकाशित किया था, इस पत्र में पाठकों को लोगों की कठिनाईयों से सूचित करते थे। वे कहते थे कि समाचार पत्र में शास्त्रीय विवेचनाआें के लिए उनके पास समय नहीं है। गांधीजी ने इसे स्वीकार किया था कि सत्याग्रही लोगों को संगठित करने और उनका मार्ग प्रशस्त करने में इंडियन ओपिनियन ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। गांधीजी ने जितने भी पत्र संपादित किये उनकी एक विलक्षणता यह थी कि उनकी भाषा बहुत सरल होती थी। गाँधी का मार्ग सत्यान्वेषण का कंटकाकीर्ण पथ था, उन्होंने बड़े से बड़ा संकट मोल लेकर भी सत्य का उद्घाटन किया। किंतु इसके साथ ही वे दूसरों के विचारों के प्रति भी बहुत सहिष्णु थे। यह उल्लेखनीय है कि गांधीजी ने जननायक होने के नाते एक सम्पादक के रुप में बड़े संयम और उत्तरदायित्व के साथ काम किया। २ जुलाई १९२५ को उन्होंने यंग इंडिया में लिखा था कि मैं कभी क्षुब्ध होकर नहीं लिखता। किसी के प्रति मनोमालिन्य का भाव लेकर नहीं लिखता, मैं लोगों की भावनाआें को उत्तेजित करने के लिए भी नहीं लिखता । पाठकों के लिए यह कल्पना कठिन है कि प्रति सप्ताह मैं कितने संयम से काम ले पाता हूंू। विषयों का चुनाव करने और उन्हें उपयुक्त शब्दों में व्यक्त करने में कितना अनुशासित रहना होता हैं एक प्रकार से इसके जरिये मेरा प्रशिक्षण होता है। अक्सर मेरा अहंकार कुछ ऐसा अभिव्यक्ति करना चाहता है, जिससे आक्रोश को व्यंजना हो और उसके लिए किसी कठोर विशेषण का उपयोग आवश्यक हो जाता है। इसीलिये उसे धैर्यपूर्णक कॉंट-छाँटकर और भाषा को तराशकर इन सब दुर्गुणों से बचना पड़ा कठिन मानसिक व्यायाम होता है। यंग इंडिया का हर शब्द सुचिन्तित होता था । गांधीजी ने स्वयं कहा था कि यंग-इंडिया को पढ़कर लोग सोचते होंगे कि वह वृद्ध कितना सदाशयता पूर्ण हैं पर उन्हें यह पता नहीं कि मैं कितनी प्रार्थनाएं करके और कितने संयम के साथ भाषा को वह स्वरुप प्रदान करता हँू। गांधीजी भले ही व्यवसाय से पत्रकार न रहे हों, किंतु उन्होंने अपनी लेखनी का जिस उत्तरदायित्व के साथ उपयोग किया था और जैसे संयम और अनुशासन का उन्होंने अपने संपादन में उपयोग किया था, वह आज दुर्लभ है। गांधी की जैसी सरल भाषा और सहज सम्प्रेषणीयता पत्र कारिता में आज भी आदर्श हैै। आज तो इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ गयी है । प्रेस की स्वतंत्रता के लिए गांधीजी को काफी संघर्ष करना पड़ा। वे मानते थे कि पत्र और पत्रकारिता का उद्देश्य है कि वह जनता की भावनाआें को समझे और तद्नुसार उनको अभिव्यक्त करे तथा समाज और सरकार में जो दोष दिखाई दे, उनका निर्भिकता से भण्डाफोड करें इन्हीं उद्देश्यों के लिए उन्होंने पत्र निकाले। सन् १९३९ में उनके पत्रों पर लगाये गये प्रतिबंध के उत्तर में उन्होंने लिखा था मेरे साप्ताहिक सत्य को उजागर करने के लिए निकाले जाते हैं यदि प्रेस की स्वतंत्रता पर इस तरह प्रहार किया जावेगा तो मैं उसे नहीं मानँूगा उसका विरोध करुंगा। इस प्रकार एक जिम्मेदार पत्रकार/संपादक की भूमिका गाँधी ने सफलता पूर्वक निभाई है । इसलिए एक महानतम पत्रकार/समपादक के रूप में गाँधी हमेशा याद किये जायेंगें । ***
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