प्लास्टिक के तालाब से नया खतरा
सुश्री अपर्णा पल्लवी
केन्द्र सरकार महाराष्ट्र के सूखा - पीड़ित इलाकों के लिए एक नई विषैली योजना लेकर आई है जिसके अंतर्गत कपास उत्पादन वाले १६ जिलों के पंद्रह सौ तालाबों का निर्माण और उनमें प्लास्टिक की चादरें बिछाकर पानी का जमीन में रिसाव रोककर समस्या सुलझाने की कोशिश की जानी है । ऐसे तालाबों के निर्माण के लिए सौ प्रतिशत सब्सिडी की घोषणा भी की गई है। किंतु सरकार सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता बढ़ाने का उत्तर औद्योगिक उत्पाद में ढूंढ रही है । शुरूआती दौर में तो किसानों समुदाय योजना के प्रति उदासीन था किंतु जैसा कि ज्यादातर सरकारी नीतियों के साथ होता है , धीरे-धीरे इसे भी लोगोंने स्वीकार कर लिया । जैसे ही किसानों ने तालाब खोद लिए वैसे ही प्लास्टिक की चादरों की आपूर्ति करने वाली चुनिंदा कंपनियों ने इनकी कीमतों में १६ से १८ रूपये प्रति वर्ग मीटर की वृद्धी कर दी । इसके फलस्वरूप प्रति तालाब चादर की लागत में पचास से साठ हजार रूपयों की वृद्धि हो गई । जिन किसानों को सब्सिडी के तहत अभी तक धन नहीं मिला है उन्हें डर है कि यह अतिरिक्त लागत उन्हें स्वयं ही वहन करना होगी । नाराज किसानों ने तालाबों की खुदाई भी रोक दी है । वाशिम जिले के कृषकों ने जिलाधीश को एक ज्ञापन सौंपकर मांग की है कि या तो सब्सिडी की राशि में वृद्धि की जाए अथवा कंपनियों को पूर्व घोषित मूल्य पर ही प्लास्टिक चादरों की आपूर्ति के निर्देश दिए जाएं । अधिकारीयों के पास अब स्थिति से निपटने के लिए अधिकारियों की कमी का बहाना ही शेष बचा है । इस योजना को संचालित करने वाले राज्य उद्यानिकी मिशन ने बताया है कि उसने नाबार्ड को एक प्रस्ताव भेजा है, जिसमें सब्सिडी की राशि में बढ़ोत्तरी की अनुशंसा की गई है । खैर यह तो हुआ सरकारी योजना के रवैये और चाल का हिस्सा किंतु एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि आखिर तालाबों में इस तरह से प्लास्टिक चादर बिछाने का औचित्य क्या है ? सरकार तो विशाल आकार की संरचनाआें को ही प्रोत्साहित करती है जबकि यवतमाल के सावित्री ज्योति समाजकार्य महाविद्यालय के अविनाश शिर्के का कहना है कि पारम्परिक कृषि में खेतों में तालाब खुदवाने का एक मकसद भू-जलस्तर में वृद्धि करना भी है । पारम्परिक तकनीक में महज २०० वर्ग फीट क्षेत्रफल के दस फीट गहराई वाले छोटे तालाबों की श्रृंखला हुआ करती थी । कम लागत की वजह से कृषक इन्हें खुद ही खुदवा लेते थे । इसकी लागत मात्र ५ से १० हजार रूपये होती है । नागपुर के गैर सरकारी संगठन युवा से जुड़े कृषि विशेषज्ञ नितिन माटे भी इस योजना के खिलाफ हैं । उनका कहना है कि प्लास्टिक चादरें बिछाने से दीर्घावधि में कोई फायदा नहीं होगा । ज्यादा से ज्यादा यह एक फसल तक ही पानी का भंडारण कर पाएगी और चूँकि यह जलस्तर में बढौत्तरी में भी मदद नहीं करती हैं अत: इतनी ऊँची लागत भी तर्कसम्मत नहीं है । वाशिम जिले में पारम्परिक जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार के कार्य में लगे नीलेश हेड़ा भी इस विचार को अवैज्ञानिक करार देते हुए कहते हैं बड़े तालाबों में विशेषकर सूखे के दौरान वनस्पति की उपज में कमी की वजह से गाद भरने की प्रक्रिया तीव्र होती है । भले ही प्लास्टिक चादर की आयु पंद्रह वर्ष होने के दावे किए जाएं, किंतु वास्तविकता है कि यह गाद हटाने के कार्य मेंही फट जाएगी । वैसे भी रिसाव कम करने के लिए विदर्भ में किसान सिंचाई संरचनाआें में सदियों से काली मिट्टी का प्रयोग करते आ रहे हैं । विदर्भ में पहले सफल खेतिहर तालाब प्रयोग के परिकल्पक गैर सरकारी संगठन पर्यावरण वाहिनी के योगेश अनेजा कहते हैं सरकार सामूहिकता के विचार को ठीक से समझ नहीं पाई है । इसमें हम छोटे तालाबों और जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार और पौधारापेण पर ध्यान देते हैं । नागपुर के वालनि गांव में हमारे प्रयोग की वजह से पूरे क्षेत्र के जलस्तर में वृद्धि हुई है । यहां तक कि विदर्भ के ताजा सूखे में भी गांव में फसल उत्पादन में कमी नहीं हुई । प्लास्टिक चादर के प्रयोग से कृषकों की उद्योगों और तकनीक विशेषज्ञों पर निर्भरता हो जाएगी । क्योंकि इसके बिछाने से लेकर रखरखाव तक का कोई भी काम विशेषज्ञ के बगैर नहीं हो पाएगा । वाशिम के गजानंद आंबेडकर जैसे आम किसान भी तकनीकी निर्भरता से असहज महसूस करते हुए कहते है हम सब्सिडी की वजह से तैयार हुए थे । किंतु ऐसा लगने लगा है कि अब स्थितियां बजाए किसान के उद्योगों के हित में निर्दिष्ट कर दी गई हैं । ***केन्द्र सरकार महाराष्ट्र के सूखा - पीड़ित इलाकों के लिए एक नई विषैली योजना लेकर आई है जिसके अंतर्गत कपास उत्पादन वाले १६ जिलों के पंद्रह सौ तालाबों का निर्माण और उनमें प्लास्टिक की चादरें बिछाकर पानी का जमीन में रिसाव रोककर समस्या सुलझाने की कोशिश की जानी है । ऐसे तालाबों के निर्माण के लिए सौ प्रतिशत सब्सिडी की घोषणा भी की गई है। किंतु सरकार सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता बढ़ाने का उत्तर औद्योगिक उत्पाद में ढूंढ रही है । शुरूआती दौर में तो किसानों समुदाय योजना के प्रति उदासीन था किंतु जैसा कि ज्यादातर सरकारी नीतियों के साथ होता है , धीरे-धीरे इसे भी लोगोंने स्वीकार कर लिया । जैसे ही किसानों ने तालाब खोद लिए वैसे ही प्लास्टिक की चादरों की आपूर्ति करने वाली चुनिंदा कंपनियों ने इनकी कीमतों में १६ से १८ रूपये प्रति वर्ग मीटर की वृद्धी कर दी । इसके फलस्वरूप प्रति तालाब चादर की लागत में पचास से साठ हजार रूपयों की वृद्धि हो गई । जिन किसानों को सब्सिडी के तहत अभी तक धन नहीं मिला है उन्हें डर है कि यह अतिरिक्त लागत उन्हें स्वयं ही वहन करना होगी । नाराज किसानों ने तालाबों की खुदाई भी रोक दी है । वाशिम जिले के कृषकों ने जिलाधीश को एक ज्ञापन सौंपकर मांग की है कि या तो सब्सिडी की राशि में वृद्धि की जाए अथवा कंपनियों को पूर्व घोषित मूल्य पर ही प्लास्टिक चादरों की आपूर्ति के निर्देश दिए जाएं । अधिकारीयों के पास अब स्थिति से निपटने के लिए अधिकारियों की कमी का बहाना ही शेष बचा है । इस योजना को संचालित करने वाले राज्य उद्यानिकी मिशन ने बताया है कि उसने नाबार्ड को एक प्रस्ताव भेजा है, जिसमें सब्सिडी की राशि में बढ़ोत्तरी की अनुशंसा की गई है । खैर यह तो हुआ सरकारी योजना के रवैये और चाल का हिस्सा किंतु एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि आखिर तालाबों में इस तरह से प्लास्टिक चादर बिछाने का औचित्य क्या है ? सरकार तो विशाल आकार की संरचनाआें को ही प्रोत्साहित करती है जबकि यवतमाल के सावित्री ज्योति समाजकार्य महाविद्यालय के अविनाश शिर्के का कहना है कि पारम्परिक कृषि में खेतों में तालाब खुदवाने का एक मकसद भू-जलस्तर में वृद्धि करना भी है । पारम्परिक तकनीक में महज २०० वर्ग फीट क्षेत्रफल के दस फीट गहराई वाले छोटे तालाबों की श्रृंखला हुआ करती थी । कम लागत की वजह से कृषक इन्हें खुद ही खुदवा लेते थे । इसकी लागत मात्र ५ से १० हजार रूपये होती है । नागपुर के गैर सरकारी संगठन युवा से जुड़े कृषि विशेषज्ञ नितिन माटे भी इस योजना के खिलाफ हैं । उनका कहना है कि प्लास्टिक चादरें बिछाने से दीर्घावधि में कोई फायदा नहीं होगा । ज्यादा से ज्यादा यह एक फसल तक ही पानी का भंडारण कर पाएगी और चूँकि यह जलस्तर में बढौत्तरी में भी मदद नहीं करती हैं अत: इतनी ऊँची लागत भी तर्कसम्मत नहीं है । वाशिम जिले में पारम्परिक जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार के कार्य में लगे नीलेश हेड़ा भी इस विचार को अवैज्ञानिक करार देते हुए कहते हैं बड़े तालाबों में विशेषकर सूखे के दौरान वनस्पति की उपज में कमी की वजह से गाद भरने की प्रक्रिया तीव्र होती है । भले ही प्लास्टिक चादर की आयु पंद्रह वर्ष होने के दावे किए जाएं, किंतु वास्तविकता है कि यह गाद हटाने के कार्य मेंही फट जाएगी । वैसे भी रिसाव कम करने के लिए विदर्भ में किसान सिंचाई संरचनाआें में सदियों से काली मिट्टी का प्रयोग करते आ रहे हैं । विदर्भ में पहले सफल खेतिहर तालाब प्रयोग के परिकल्पक गैर सरकारी संगठन पर्यावरण वाहिनी के योगेश अनेजा कहते हैं सरकार सामूहिकता के विचार को ठीक से समझ नहीं पाई है । इसमें हम छोटे तालाबों और जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार और पौधारापेण पर ध्यान देते हैं । नागपुर के वालनि गांव में हमारे प्रयोग की वजह से पूरे क्षेत्र के जलस्तर में वृद्धि हुई है । यहां तक कि विदर्भ के ताजा सूखे में भी गांव में फसल उत्पादन में कमी नहीं हुई । प्लास्टिक चादर के प्रयोग से कृषकों की उद्योगों और तकनीक विशेषज्ञों पर निर्भरता हो जाएगी । क्योंकि इसके बिछाने से लेकर रखरखाव तक का कोई भी काम विशेषज्ञ के बगैर नहीं हो पाएगा । वाशिम के गजानंद आंबेडकर जैसे आम किसान भी तकनीकी निर्भरता से असहज महसूस करते हुए कहते है हम सब्सिडी की वजह से तैयार हुए थे । किंतु ऐसा लगने लगा है कि अब स्थितियां बजाए किसान के उद्योगों के हित में निर्दिष्ट कर दी गई हैं । ***केन्द्र सरकार महाराष्ट्र के सूखा - पीड़ित इलाकों के लिए एक नई विषैली योजना लेकर आई है जिसके अंतर्गत कपास उत्पादन वाले १६ जिलों के पंद्रह सौ तालाबों का निर्माण और उनमें प्लास्टिक की चादरें बिछाकर पानी का जमीन में रिसाव रोककर समस्या सुलझाने की कोशिश की जानी है । ऐसे तालाबों के निर्माण के लिए सौ प्रतिशत सब्सिडी की घोषणा भी की गई है। किंतु सरकार सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता बढ़ाने का उत्तर औद्योगिक उत्पाद में ढूंढ रही है । शुरूआती दौर में तो किसानों समुदाय योजना के प्रति उदासीन था किंतु जैसा कि ज्यादातर सरकारी नीतियों के साथ होता है , धीरे-धीरे इसे भी लोगोंने स्वीकार कर लिया । जैसे ही किसानों ने तालाब खोद लिए वैसे ही प्लास्टिक की चादरों की आपूर्ति करने वाली चुनिंदा कंपनियों ने इनकी कीमतों में १६ से १८ रूपये प्रति वर्ग मीटर की वृद्धी कर दी । इसके फलस्वरूप प्रति तालाब चादर की लागत में पचास से साठ हजार रूपयों की वृद्धि हो गई । जिन किसानों को सब्सिडी के तहत अभी तक धन नहीं मिला है उन्हें डर है कि यह अतिरिक्त लागत उन्हें स्वयं ही वहन करना होगी । नाराज किसानों ने तालाबों की खुदाई भी रोक दी है । वाशिम जिले के कृषकों ने जिलाधीश को एक ज्ञापन सौंपकर मांग की है कि या तो सब्सिडी की राशि में वृद्धि की जाए अथवा कंपनियों को पूर्व घोषित मूल्य पर ही प्लास्टिक चादरों की आपूर्ति के निर्देश दिए जाएं । अधिकारीयों के पास अब स्थिति से निपटने के लिए अधिकारियों की कमी का बहाना ही शेष बचा है । इस योजना को संचालित करने वाले राज्य उद्यानिकी मिशन ने बताया है कि उसने नाबार्ड को एक प्रस्ताव भेजा है, जिसमें सब्सिडी की राशि में बढ़ोत्तरी की अनुशंसा की गई है । खैर यह तो हुआ सरकारी योजना के रवैये और चाल का हिस्सा किंतु एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि आखिर तालाबों में इस तरह से प्लास्टिक चादर बिछाने का औचित्य क्या है ? सरकार तो विशाल आकार की संरचनाआें को ही प्रोत्साहित करती है जबकि यवतमाल के सावित्री ज्योति समाजकार्य महाविद्यालय के अविनाश शिर्के का कहना है कि पारम्परिक कृषि में खेतों में तालाब खुदवाने का एक मकसद भू-जलस्तर में वृद्धि करना भी है । पारम्परिक तकनीक में महज २०० वर्ग फीट क्षेत्रफल के दस फीट गहराई वाले छोटे तालाबों की श्रृंखला हुआ करती थी । कम लागत की वजह से कृषक इन्हें खुद ही खुदवा लेते थे । इसकी लागत मात्र ५ से १० हजार रूपये होती है । नागपुर के गैर सरकारी संगठन युवा से जुड़े कृषि विशेषज्ञ नितिन माटे भी इस योजना के खिलाफ हैं । उनका कहना है कि प्लास्टिक चादरें बिछाने से दीर्घावधि में कोई फायदा नहीं होगा । ज्यादा से ज्यादा यह एक फसल तक ही पानी का भंडारण कर पाएगी और चूँकि यह जलस्तर में बढौत्तरी में भी मदद नहीं करती हैं अत: इतनी ऊँची लागत भी तर्कसम्मत नहीं है । वाशिम जिले में पारम्परिक जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार के कार्य में लगे नीलेश हेड़ा भी इस विचार को अवैज्ञानिक करार देते हुए कहते हैं बड़े तालाबों में विशेषकर सूखे के दौरान वनस्पति की उपज में कमी की वजह से गाद भरने की प्रक्रिया तीव्र होती है । भले ही प्लास्टिक चादर की आयु पंद्रह वर्ष होने के दावे किए जाएं, किंतु वास्तविकता है कि यह गाद हटाने के कार्य मेंही फट जाएगी । वैसे भी रिसाव कम करने के लिए विदर्भ में किसान सिंचाई संरचनाआें में सदियों से काली मिट्टी का प्रयोग करते आ रहे हैं । विदर्भ में पहले सफल खेतिहर तालाब प्रयोग के परिकल्पक गैर सरकारी संगठन पर्यावरण वाहिनी के योगेश अनेजा कहते हैं सरकार सामूहिकता के विचार को ठीक से समझ नहीं पाई है । इसमें हम छोटे तालाबों और जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार और पौधारापेण पर ध्यान देते हैं । नागपुर के वालनि गांव में हमारे प्रयोग की वजह से पूरे क्षेत्र के जलस्तर में वृद्धि हुई है । यहां तक कि विदर्भ के ताजा सूखे में भी गांव में फसल उत्पादन में कमी नहीं हुई । प्लास्टिक चादर के प्रयोग से कृषकों की उद्योगों और तकनीक विशेषज्ञों पर निर्भरता हो जाएगी । क्योंकि इसके बिछाने से लेकर रखरखाव तक का कोई भी काम विशेषज्ञ के बगैर नहीं हो पाएगा । वाशिम के गजानंद आंबेडकर जैसे आम किसान भी तकनीकी निर्भरता से असहज महसूस करते हुए कहते है हम सब्सिडी की वजह से तैयार हुए थे । किंतु ऐसा लगने लगा है कि अब स्थितियां बजाए किसान के उद्योगों के हित में निर्दिष्ट कर दी गई हैं । ***केन्द्र सरकार महाराष्ट्र के सूखा - पीड़ित इलाकों के लिए एक नई विषैली योजना लेकर आई है जिसके अंतर्गत कपास उत्पादन वाले १६ जिलों के पंद्रह सौ तालाबों का निर्माण और उनमें प्लास्टिक की चादरें बिछाकर पानी का जमीन में रिसाव रोककर समस्या सुलझाने की कोशिश की जानी है । ऐसे तालाबों के निर्माण के लिए सौ प्रतिशत सब्सिडी की घोषणा भी की गई है। किंतु सरकार सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता बढ़ाने का उत्तर औद्योगिक उत्पाद में ढूंढ रही है । शुरूआती दौर में तो किसानों समुदाय योजना के प्रति उदासीन था किंतु जैसा कि ज्यादातर सरकारी नीतियों के साथ होता है , धीरे-धीरे इसे भी लोगोंने स्वीकार कर लिया । जैसे ही किसानों ने तालाब खोद लिए वैसे ही प्लास्टिक की चादरों की आपूर्ति करने वाली चुनिंदा कंपनियों ने इनकी कीमतों में १६ से १८ रूपये प्रति वर्ग मीटर की वृद्धी कर दी । इसके फलस्वरूप प्रति तालाब चादर की लागत में पचास से साठ हजार रूपयों की वृद्धि हो गई । जिन किसानों को सब्सिडी के तहत अभी तक धन नहीं मिला है उन्हें डर है कि यह अतिरिक्त लागत उन्हें स्वयं ही वहन करना होगी । नाराज किसानों ने तालाबों की खुदाई भी रोक दी है । वाशिम जिले के कृषकों ने जिलाधीश को एक ज्ञापन सौंपकर मांग की है कि या तो सब्सिडी की राशि में वृद्धि की जाए अथवा कंपनियों को पूर्व घोषित मूल्य पर ही प्लास्टिक चादरों की आपूर्ति के निर्देश दिए जाएं । अधिकारीयों के पास अब स्थिति से निपटने के लिए अधिकारियों की कमी का बहाना ही शेष बचा है । इस योजना को संचालित करने वाले राज्य उद्यानिकी मिशन ने बताया है कि उसने नाबार्ड को एक प्रस्ताव भेजा है, जिसमें सब्सिडी की राशि में बढ़ोत्तरी की अनुशंसा की गई है । खैर यह तो हुआ सरकारी योजना के रवैये और चाल का हिस्सा किंतु एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि आखिर तालाबों में इस तरह से प्लास्टिक चादर बिछाने का औचित्य क्या है ? सरकार तो विशाल आकार की संरचनाआें को ही प्रोत्साहित करती है जबकि यवतमाल के सावित्री ज्योति समाजकार्य महाविद्यालय के अविनाश शिर्के का कहना है कि पारम्परिक कृषि में खेतों में तालाब खुदवाने का एक मकसद भू-जलस्तर में वृद्धि करना भी है । पारम्परिक तकनीक में महज २०० वर्ग फीट क्षेत्रफल के दस फीट गहराई वाले छोटे तालाबों की श्रृंखला हुआ करती थी । कम लागत की वजह से कृषक इन्हें खुद ही खुदवा लेते थे । इसकी लागत मात्र ५ से १० हजार रूपये होती है । नागपुर के गैर सरकारी संगठन युवा से जुड़े कृषि विशेषज्ञ नितिन माटे भी इस योजना के खिलाफ हैं । उनका कहना है कि प्लास्टिक चादरें बिछाने से दीर्घावधि में कोई फायदा नहीं होगा । ज्यादा से ज्यादा यह एक फसल तक ही पानी का भंडारण कर पाएगी और चूँकि यह जलस्तर में बढौत्तरी में भी मदद नहीं करती हैं अत: इतनी ऊँची लागत भी तर्कसम्मत नहीं है । वाशिम जिले में पारम्परिक जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार के कार्य में लगे नीलेश हेड़ा भी इस विचार को अवैज्ञानिक करार देते हुए कहते हैं बड़े तालाबों में विशेषकर सूखे के दौरान वनस्पति की उपज में कमी की वजह से गाद भरने की प्रक्रिया तीव्र होती है । भले ही प्लास्टिक चादर की आयु पंद्रह वर्ष होने के दावे किए जाएं, किंतु वास्तविकता है कि यह गाद हटाने के कार्य मेंही फट जाएगी । वैसे भी रिसाव कम करने के लिए विदर्भ में किसान सिंचाई संरचनाआें में सदियों से काली मिट्टी का प्रयोग करते आ रहे हैं । विदर्भ में पहले सफल खेतिहर तालाब प्रयोग के परिकल्पक गैर सरकारी संगठन पर्यावरण वाहिनी के योगेश अनेजा कहते हैं सरकार सामूहिकता के विचार को ठीक से समझ नहीं पाई है । इसमें हम छोटे तालाबों और जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार और पौधारापेण पर ध्यान देते हैं । नागपुर के वालनि गांव में हमारे प्रयोग की वजह से पूरे क्षेत्र के जलस्तर में वृद्धि हुई है । यहां तक कि विदर्भ के ताजा सूखे में भी गांव में फसल उत्पादन में कमी नहीं हुई । प्लास्टिक चादर के प्रयोग से कृषकों की उद्योगों और तकनीक विशेषज्ञों पर निर्भरता हो जाएगी । क्योंकि इसके बिछाने से लेकर रखरखाव तक का कोई भी काम विशेषज्ञ के बगैर नहीं हो पाएगा । वाशिम के गजानंद आंबेडकर जैसे आम किसान भी तकनीकी निर्भरता से असहज महसूस करते हुए कहते है हम सब्सिडी की वजह से तैयार हुए थे । किंतु ऐसा लगने लगा है कि अब स्थितियां बजाए किसान के उद्योगों के हित में निर्दिष्ट कर दी गई हैं । ***
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