क्या गंगा अक्षुण्ण रहेगी ?
डॉ. चन्द्रशीला गुप्त
गौमुख की राह उमंग और आसभरी होती है । चट्टानों पर आपका एक-एक कदम उस ग्लेशियर की तरफ ले जाता है जो गंगा का उद्भव है । घाटी में नीचे भागीरथी चीड़ व देवदार के बीच उछलती बहती है । जैसे-जैसे ग्लेशियर नज़दीक आता जाता है, पेड़ दुर्लभ होते जाते है, केवल चट्टानें व पत्थर ही नज़र आते हैं । यहां भी छोटे-छोटे मंदिर व ढाबे ज़रूर मिल जाएंगे । भरतीय हिमालय के ९,५७५ ग्लेशियरों में से ७३ कि.मी. लंबे सियाचिन ग्लेशियर को छोड़ दें तो गंगोत्री सबसे बड़ा है । पौराणिक मिथक के अनुसार देवी गंगा नदी के रूप में यही अवतरित हुई थी ताकि राजा भागीरथ के पूर्वजों (सागर पुत्रों) को मोक्ष प्राप्त् हो । उन्हें मिले श्राप के अनुसार मोक्ष प्रािप्त् के लिए गंगा स्नान जरूरी था । राजा भागीरथ ने कई सदियों तक जिस शिला पर बैठकर शिव की तपस्या की थी, वह शिला गंगोत्री में आज भी मौजूद है । यही वजह है कि गंगा को यहां भागीरथी कहा जाता है । कहा जाता है कि गंगा के तेज़ प्रवाह को कम करने के लिए शिव ने गंगा को पहले अपनी जटाआें में झेला था । गंगोत्री मंदिर एक गोरखा कमांडर, अमरसिंह थापा ने १८वीं सदी की शुरूआत में बनाया था । सर्दियों में यह कस्बा पूरी तरह से वीरान रहता है लेकिन गर्मियों में यह श्रद्धालुआें से भरा होता है । प्रति वर्ष ५०,००० से अधिक भक्त गौमुख तक पहुंचते है । गंगोत्री कस्बे से गौमुख १८ कि.मी. दूर है । गंगोत्री कस्बा एकदम अनियोजित होटलों, ढाबों व गुमटियों से भरा है जो उस छोटे से क्षेत्र में जहां - जहां उग आए हैं । गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान संरक्षित क्षेत्र है जहां वाहन प्रवेश की अनुमति नहीं होना चाहिए । मगर टूरिस्ट ट्राफिक ने जंगलो का सफाया कर दिया है, रास्ते भर प्लास्टिक की बोतलें व पोलीथीन की थैलियां नज़र आती है । श्रावण मास में गौमुख में सबसे ज़्यादा श्रद्धालु जमा होते हैं । रास्ते मेंं भोजवासा बेस कैम्प है जहां श्रद्धालु व पर्वतारोही रात्रि विश्राम करते हैं । यह नाम यहां भोजवृक्ष का जंंगल होने से पड़ा है । मान्यता है कि महाभारत इन्हीं भोजवृक्षों के भोजपत्रों पर लिखी गई थी । आज भोज वास उजाड़ है, एक भोजवृक्ष ढूंढ़ना भी मुश्किल है, ढाबों में चूल्हा जलाने में सारे वृक्ष खप गए हैं । गंगोत्री ग्लेशियर ३००४४ से ३००५६ उत्तरी अक्षांश व ७९००४ से ७९०१६ पूर्वी देशांतर के बीच फैला है । इसके सामने के मुख पर एक विशाल हिम गुफा है । भौगोलिक रूप से यह उच्च् हिमालय के क्रिस्टेलाइन क्षेत्र में है । यह छोटे-बड़े ग्लेशियरों का समूह है । मुख्य ग्लेशियर की लंबाई ३०.२० कि.मी. व चौड़ाई ०.५-२.५ कि.मी. है । चार हज़ार फीट ऊं चाई पर स्थित भागीरथी नदी का स्त्रोत है जो देवप्रयाग में अलकनंदा से संगम के बाद गंगा कहलाती है । जब आप गंगा ग्लेशियर या गौमुख पर पहुंचते हैं तो आपकी कल्पनाएं चकनाचूर हो जाती हैं । यह कोई विशाल ग्लेशियर नहीं है वरन बर्फ से ढंकी चट्टानें भर हैं । यदि गंगोत्री ग्लेशियर इस तरह पिघलते रहे, तो गंगा का भविष्य कैसा होगा? क्या ग्लोबल वार्मिंग उस नदी को सुखा देगा जो ५० करोड़ लोगों की जीवन रेखा है ? पिघलते ग्लेशियर बर्फ का सबसे बड़ा भू-भाग बनाते हैं । यहां से ७ महानदियां (यमुना, सिंधु व ब्रह्मापुत्र आदि) निकलती हैं । राष्ट्र संघ की जलवायु परिवर्तन सम्बंधी सरकारी पेनल (आई.पी.सी.सी.) विश्व भर में जलवायु परिवर्तन पर किए गए वैज्ञानिक शोध को इकट्ठा करती है । पेनल ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में सख्त चेतावनी दी है सारी दुनिया में हिमालय के ग्लेशियर सबसे तेज़ी से पिघल रहे हैं और अगर यही दर जारी रही तो सन २०३५ या शायद और भी पहले ये विलुप्त् हो जाएंगे । वर्तमान का ५ लाख वर्ग कि.मी. बर्फीला क्षेत्र एक लाख वर्ग किमी रह जाएगा । ग्लेशियरों के पिछलने का वर्तमान रूझान गंगा, सिंधु, ब्रह्मापुत्र व उत्तर भरतीय मैदानों में बहने वाली अन्य नदियों को मौसमी बना देगा । लेकिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ग्लेशियर भूसंरचना विज्ञानी मिलाप राम का मानना है कि यद्यपि गलेशियर पिघल रहे हैं, फिर भी वे गुम होने नहीं जा रहे हैं क्योंकि पिछले ३०-३५ वर्षोंा से सिकृड़ने की दर में कमी आई है । करंट साइंस में छपे एक लेख में किरीट कुमार व उनके साथियों ने भी यही कहा है कि ग्लोबल पाे़जीशनिंग सिस्टम से पिछले ६९ वर्षोंा में १५.१९ मीटर सिकुड़न पता चली है । यद्यपि सन १९७१ के बाद सिकुड़न की दर कम हुई है और २००४-०५ के बीच तो बेहद कम रही है । यह अध्ययन एक अन्य तथ्य की ओर इशारा कर रहा है कि ग्लेशियर का दक्षिणी मुख उत्तरी भाग की तुलना में धीमे पिघल रहा है । दूसरी ओर अधिकतम सिकुड़ने ग्लेशियर की मध्य रेखा में पाई गई है । इनका समर्थन करते हैं लखनऊ के रिमोट सेसिंग एप्लीकेशन सेंटर के ए.के. टांगरी । उनके अनुसार ग्लेशियर पिघलने की इस में कमी से तापमान बढ़ने की दर में भी कमी का संकेत मिलता है । हिमालय पर तापमान परिवर्तन का कोई अध्ययन नहीं हुआ है । दरअसल ऊ परी हिमालय पर दशकों से तापमान के रिकार्ड लेना मुश्किल रहा है । तापमान में वृद्धि के सही रूझान को समझने के लिए पिघले ३०-४० वर्षोंा के आंकड़ों की ज़रूरत होगी जबकि मात्र ७ वर्ष पहले कुछ स्वचलित मौसम केन्द्र स्थापित किए गए हैं । वैसे हिमालय को छोड़कर शेष भारत में तापमान ०.४२ डिग्री से ०.५७ डिग्री सेल्सियस प्रति १०० वर्ष की दर से बढ़ रहा है । आई.पी.सी.सी. के अनुसार पूरे विश्व का ताप ०.७४ डिग्री सेल्सियस प्रति शताब्दी बढ़ा है । सन १९८० से भागीरथी क्षेत्र में बर्फ का भाग कम हो रहा है । अर्थात नदी को पानी देने के लिए कम बर्फ उपलब्ध है । टांगरी का मत है कि भागीरथी के जलग्रहण क्षेत्र में कम बर्फ पिघलकर कम पानी पहुंच रहा है । राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान, रूड़की के हिमखंड विशेषज्ञ मनोहर अरोड़ा के अनुसार गंगा अपने पानी के लिए गौमुख ग्लेशियर पर पूरी तरह निर्भर नहीं है । पश्चिम बंगाल तक का ज़्यादातर जलग्रहण क्षेत्र वर्षा से ही जल प्राप्त् करता है । देवप्रयाग तक का भागीरथी बेसिन (२०,००० वर्ग मि.मी.) कुल गंगा जल ग्रहण क्षेत्र का ७ पतिशत है । गंगा के कुल वार्षिक बहाव का ४८ प्रतिशत जल गंगोत्री से भागीरथी में व २९ प्रतिशत देवप्रयाग में गंगा से मिलता है । शेष वर्षा के जल से प्राप्त् होता है । एक असामान्य बात भी दृष्टिगोचर हुई है : पिछले कई वर्षोंा से ग्लेशियर की सतह पर एक नदी रक्तवर्ण बह रही है । पहले पानी ग्लेशियर के नीचे से आता था । अत: स्पष्टत: ये ग्लेशियर के जल्दी पिघलने के जल्दी पिघलने के संकेत हैं । जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा, सारा कृषि पैटर्न बदलेगा और बांघ डिज़ाइन के मापदंड व बाढ़ नियंत्रण उपायों पर भी पुन: विचार करना पड़ेगा । ग्लेशियर गति का वर्षोंा से अध्ययन कर रहे मिलाप शर्मा मानते हैं कि भौगोलिक समय रेखा पर नज़र डालने से पता चलेगा कि ग्लेशियर का सिकुड़ना नया नहीं है । करीब ३,९०० वर्ष पूर्व यह गौमुख तक फैला हुआ था और आज सिकुड़कर ८ कि.मी. दूर हो गया है । इसके सिकुड़ने की गति एक जैसी नहीं रही है, बीच के समय में लघु हिमयुग (१६-१७ वी शताब्दी) में यह ज़्यादा तेज़ी से सिकुड़ रहा था । वैसे ग्लेशियर का अस्तित्व तो बना रहेगा क्योंकि इसमें निरंतर बर्फ आ रहा है और इसलिए भी क्योंकि यह बहुत ऊँ चाई पर है । अलबत्ता, सारे पर्यावरणविद व वैज्ञानिक इस मामले में एक मत हैं कि पर्यटन को या तो एकदम बंद कर दिया जाए या कम से कम नियंत्रित तो किया जाए । वर्तमान में कोई रोक-टोक नहीं है, लोग ग्लेशियर पर चलते हैं, पानी में नहाते हैं, वहीं कपड़े छोड़ आते हैं, खाना खाते हैं । गंगा शुद्धिकरण अभियान के एस.एन.टेरियाल खिन्न मन से कहते हैं, कचरा बिना किसी उपचार के सीधा नदी में नही डाल दिया जाता है । ग्लेशियर मार्ग पर इस वर्ष १२,००० चप्पलें छोड़ी गई । कहते हैं कि गंगाजल बरसों ,खराब नहीं होता लेकिन अब तो यह स्त्रोत से ही प्रदूषित हैं । आज गंगोत्री पवित्र व आध्यात्मिक स्थान नहीं रह गया है । गलेशियर के पिघलाव के मद्देनज़र उत्तराखंड सरकार ने गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान व गौमुचा क्षेत्र में टूरिस्ट की संख्या मात्र १५० प्रतिदिन कर दी है । जुलाई-अगस्त में हज़ारों कावड़ियों का प्रवेश रोकने के लिए प्रवेश पर भी रोक लगाई गई है । गंगोत्री से ९० कि.मी. नीचे पाला मालेरी व लोहरी नागपाला - दो बांध बनाए गए हैं । विस्फोटों व सुरंगों से इस भूकंप संवेदी क्षेत्र में घर क्षतिग्रस्त हो गए हैं । सन १९९१ में भूकंप से उत्तरकाशी क्षेत्र में ७६९ लोग मारे गए थे यहां आज भी झटके व भूस्खलन जारी हैं । बांधो से भूकंप के खतरे बढ़ते हैं और वर्तमान में गंगा पर दो बड़ी बांघ परियोजनाएं मानेरी वाली (चरण १ एवं २) एवं टिहरी चल रही हैं । ये नए बांध जंगल, खेत व चारागाह सबको लील जाएंगे । टिहरी बांध ने पूर्व में काफी तबाही मचाई है और सन १९७० से हुए बांध विस्थापितों को सरकार आज तक पुनर्स्थापित नहीं कर पाई है । इन सबके बावजूद उत्तराखंड सरकार बंाध निर्माण अभियान में पूरी तरह जुटी हुई है पूरे राज्य में तकरीबन १०० बांधों की योजना है । गंगा शुद्धिकरण अभियान के ही विष्ट कहते हैं, सरकार जल संरक्षण योजनाएं विकसित करने की बजाय बस बांध बनाए जा रही है जो नाज़ुक इकॉलॉजी को बिगाड़ रहे हैं । ़़ज्यादातर बांध सर्दियों में ही उपयोगी नहीं रह जाती जाते क्योंकि पानी कम हो जाता है। सुरेश्वर सिन्हा द्वारा उच्च्तम न्यायालय में प्रस्तुत एक जनहित याचिका में चार बांधों-पाला मानेरी, मानेरी बहली, लाहोरी नागपाला व भैंरोघाट को भगीरथी के सुखने का ज़िम्मेदार बताया गया है । पानी के छोटे स्रोत, झरने व हिमशिलाएं, सूख रहे हैं क्योंकि हिमपात न केवल गंगोत्री में बल्कि पूरे हिमालय पर कम हो रहा है । बड़े ग्लेशियरों की तुलना में छोटे ग्लेशियर तेज़ी से पिघले रहे हैं । हिमाचल प्रदेश में सन १९६२ से २००६ के दरम्यांन चिनाब, पार्वती व बस्पा बेसिन काफी सिकुड़ गए हैं । गूगल अर्थ पिक्चर्स ने हाल ही में भागीरथी का लगभग ८ कि.मी. सुखा क्षेत्र दिखाया है । साथ ही अन्य सहायक नदियां जैसे - भीलगंगा, असिगंगा व अलकनंदा में भी यही स्थिति नज़र आ रही है । इसरो के अनिल कुलकर्णी व उनके साथयों द्वारा किये गए ४६६ ग्लेशियरों के अध्ययन से यह तथ्य सामने आया है कि टूटते रहने से ग्लेशियरों की संख्या बढ़ गई है व हिमशिला व बर्फखंड तेजी से पिघलने के कारण मात्र ३८ प्रतिशत शेष बचे है । जहां आज बर्फ नज़र आ रही है वह कल चट्टाने शेष रहेगी, गौमुख के रास्ते की चट्टाने भी कभी गंगा ग्लेशियर का भाग थी जा कल और सिमटेगा । कोई नही कह सकता, कल गंगा पर क्या असर होगा ?***
दवा परीक्षण और गरीब एक ओर हमारे देश दुनिया में आर्थिक उदारीकरण का झंडा फहराते हुए दुनिया के धनीमानी देशों के क्लब में बैठने को आतुर है, वह विश्व की एक बड़ी आर्थिक शक्ति बनने जा रहा है । मगर हमारी करीब आधी आबादी की गरीबी भी एक भयानक सच है । यही वजह है कि भारत एक और तरह की खतरनाक आउटसोर्सिंग का बड़ा केंद्र बनने जा रहा है । बहुत जल्दी नई दवाआें तथा टीकों का प्रयोग भारत के लोगों पर किया जा सकता है जिनके प्रयोग का प्रथम चरण किसी और देश के लोगों पर संपन्न हो चुका है, लेकिन भारत के औषध महानियंत्रक ने प्रथम कानूनी प्रक्रिया को आगे बढ़ा दिया है । यानी अब कानूनी रूप से किसी दवा या टीके का प्रयोग पशुआें पर करने के बाद सीधे हमारे यहाँ के लोगों पर हो सकेगा । सूचना टेक्नोलॉजी (आईटी) के क्षेत्र की आउटसोर्सिंग में उतार आने के बाद यह नया उद्योग विकसित होगा । उम्मीद की जा रही है कि चिकित्सा परीक्षण का उद्योग २०१२ तक ४५ हजार करोड़ रूपए तक पहुँच जाएगा । जाहिर है कि आर्थिक दृष्टि से इस आकर्षक उद्योग की गति को अब वापस मोड़ना कठिन होगा । यह भी सही है कि कानूनी तौर पर कई नई व्यवस्थाएँ की जाएँगी, ताकि गरीबों का शोषण न किया जा सके । लेकिन इस उद्योग का निशान अंतत: ऐसे गरीब बनेंगे, जिनकी मौत या जिनकी चिकित्सकीय हालत बिगड़ने का जिम्मेदार कोई नहीं होगा ।
दवा परीक्षण और गरीब एक ओर हमारे देश दुनिया में आर्थिक उदारीकरण का झंडा फहराते हुए दुनिया के धनीमानी देशों के क्लब में बैठने को आतुर है, वह विश्व की एक बड़ी आर्थिक शक्ति बनने जा रहा है । मगर हमारी करीब आधी आबादी की गरीबी भी एक भयानक सच है । यही वजह है कि भारत एक और तरह की खतरनाक आउटसोर्सिंग का बड़ा केंद्र बनने जा रहा है । बहुत जल्दी नई दवाआें तथा टीकों का प्रयोग भारत के लोगों पर किया जा सकता है जिनके प्रयोग का प्रथम चरण किसी और देश के लोगों पर संपन्न हो चुका है, लेकिन भारत के औषध महानियंत्रक ने प्रथम कानूनी प्रक्रिया को आगे बढ़ा दिया है । यानी अब कानूनी रूप से किसी दवा या टीके का प्रयोग पशुआें पर करने के बाद सीधे हमारे यहाँ के लोगों पर हो सकेगा । सूचना टेक्नोलॉजी (आईटी) के क्षेत्र की आउटसोर्सिंग में उतार आने के बाद यह नया उद्योग विकसित होगा । उम्मीद की जा रही है कि चिकित्सा परीक्षण का उद्योग २०१२ तक ४५ हजार करोड़ रूपए तक पहुँच जाएगा । जाहिर है कि आर्थिक दृष्टि से इस आकर्षक उद्योग की गति को अब वापस मोड़ना कठिन होगा । यह भी सही है कि कानूनी तौर पर कई नई व्यवस्थाएँ की जाएँगी, ताकि गरीबों का शोषण न किया जा सके । लेकिन इस उद्योग का निशान अंतत: ऐसे गरीब बनेंगे, जिनकी मौत या जिनकी चिकित्सकीय हालत बिगड़ने का जिम्मेदार कोई नहीं होगा ।
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