वन विनाश का मूल्य क्या है ?
सिद्धार्थ कृष्णन /सीमा पुरूषोथामन
केन्द्र सरकार ने क्षतिपूरक वनीकरण के उद्देश्य से एक कोष निर्मित करने की गरज से क्षतिपूर्ति वन्यीकरण अधिनियम २००८ का प्रारूप तैयार किया है । जंगलो (यहां तक के सुरक्षित वनों तक को भी ) गैर वन्य उद्देश्यों से उजाड़ने के एवज में लिए जाने वाले शुल्क को इस मद के अंतर्गत लाए जाने की योजना है । परविर्तित वनों के क्षतिपूरक मूल्य की गणना के लिए शुद्ध वर्तमान मूल्य (एनपीवी) को एक आर्थिक औजार के रूप में मान्य किया गया है । सरकार के इस कदम पर दोहरे सवालिया निशान लग रहे हैं । पहला तो इस तरह उजाड़ने के एवज में क्या उनका मात्र आर्थिक मूल्यांकन भर करना पर्याप्त् होगा जबकि उनके पर्यावरणीय एवं सांस्कृतिक महत्व से सभी अच्छी तरह वाकिफ हैं । दूसरा, वनों जैसी महत्वपूर्ण इकाई की क्षतिपूर्ति के मूल्यांकण के लिए क्या एनपीवी एक उचित तरीका है ? पहले वनों के आर्थिक मूल्यांकन की बात करें । इसके अंतर्गत वनों से प्राप्त् होने वाले उत्पादों एवं सेवाआें के आर्थिक मूल्यांकन की बात आती है । प्रारूप में वन उत्पादों में गैर काष्ठ वन उत्पाद और जल का उल्लेख है तो वहीं दूसरी ओर इससे प्राप्त् होने वाली सेवाआें जैसे चरनोई, वन्य जीव संरक्षण, कार्बन अवशेष एवं खाद्य नियंत्रण को भी इसमें शामिल किया गया है । प्रारूप में वनो की सांस्कृतिक एवं शैक्षिक सेवाआें का भी उल्लेख है । किंतु क्या मात्र आथिक क्षतिपूर्ति से इन सेवाआें की वास्तविक क्षतिपूर्ति हो पाएगी? उदाहरण के लिए नीलगिरि के ऊ परी छोर के शोला-घास मैदानों के पर्यावरणीय महत्व को देखें । यहां फैले विस्तृत घास के मैदानों के बीच जंगल सालभर हरा-भरा रहता है । मानसून उपरांत यहां की शोला घास धीरे-धीरे पानी को अपने से पृथक कर नीचे कोंगू के मैदानी इलाकों के लिए छोड़ती है । जरा विचार कीजिए कि विकास के नाम पर इन शोला और घास मैदानों के साथ छेड़छाड़ की जाए तो क्या आर्थिक क्षतिपूर्ति इस जटिल अंर्तसंबंध की भरपाई कर पाएगी ? नीलगिरि के मैदानों इलाकों में कागज उद्योग के लिए यूकिलिप्ट्स वृक्षारोपण हेतु घास के मैदानों को उजाड़ने के दुष्परिणाम हम पहले भी भुगत चुके है । इसने उसे क्षेत्र की प्राकृतिक जल प्रणाली को हमेशा के लिए प्रभावित कर दिया है । क्षेत्र में जंगलीघास और कीट प्रजाति की विविधता का भी बड़े पैमाने का ह्रास हुआ । चूँकि ये घास के इलाके सदियों से स्थानीय टोडा समुदाय के लिा भौतिक एवं परमपरा के स्त्रोत रहे है अतएव यूकिलिप्टस वृक्षारोपण ने इनकी जीविका और पारम्परिक विद्यानों पर सीधा प्रहार हुआ । देश में ऐसे कई वन प्रदेश है जो आज भी पर्यावरण और संस्कृति को अपने योगदान से जीवित रखे हुए है । कर्नाटक स्थित बिल्लिगिरि रंगास्वामी मंदिर अभयारण्य को ही लें । यह वन पर्याविदों के बीच अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है । दूसरी ओर सोलिगा जनजाति सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी यहां निवास कर रही है और इन्हीं वनों पर आश्रित है । ये वन उनकी संस्कृति का आधार है । इससे नीचे बसे चामराजनगर के मैदानी इलाकों की जलआपूर्ति इन्हीं वनों की वजह से सुनिश्चित है । ये चीतों की शरणस्थली भी है । अब अगर इन्हें उजाड़ दिया जाएगा तो इतनी सारी वन्य प्रजातियों, जैव प्रजातियों और जनजातीय लोगों के अस्तित्व की क्षतिपूर्ति किस तरह होगी ? आरक्षित वनों के बारे में हमारी सोच का विस्तृत होना आवश्यक है क्योंकि ये हमारी अमूल्य धरोहरें हैं । ऐसी महत्वपूर्ण धरोहरों की एनपीवी तय करते समय हमें इनसे मिलने वाले समस्त लाभों को हासिल करने की लागत की न सिर्फ गणना करनी होगी बल्कि इन्हेंउजाड़ने के अतिरिक्त मौजुद अन्य बेहतर विकल्पों के बारे में भी सोचना होगा । मान लीजिए कि हम बहुत ही उन्नत वैज्ञानिक तरीके से इस एनपीवी को तय भी कर लें और उस हिसाब से अवनीकृत किए जाने उस समूचे क्षेत्रफल का कुल मूल्य ज्ञात कर कोष में जमा भी कर दें तो भी क्या हम उस कोष से उतनी उपयोगिता के सारे संसाधन जुटा पाएंगे ? एनपीवी कोष को एक अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण भूमि पर खर्च करना क्या अपने आप में ही नया सवाल नहीं खड़ा करता ? मौसम परिवर्तन के नजरिए से देखते हुए अगर एनपीवी निर्धारित करते समय पर्यावरण और सांस्कृतिक लाभों को अतिरिक्त महात्व दे दिया जाएगा तो भू-उपयोग के परिवर्तन की अनुमति मिलने की संभावना भी प्रबल हो जाएगी । इससे विभाग में इसके जरिए कोष जुटाने की प्रवृत्ति भी बढ़ जाएगी और कहीं एनपीवी कम आंकी गई तो परिवर्तन के लिए मांग भी अचानक बढ़ जाएगी । पर्यावरण से नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए एनपीवी जैसे आधार के चुनाव के साथ एक अन्य समस्या यह भी है कि एक प्रकार के वन के लिए औसत प्रति इकाई मूल्य उस समूचे क्षेत्र के वैविघ्यपूर्ण पर्यावरण संबंधी लाभ, सामाजिक-सांस्कृतिक लाभ व आर्थिक लागत और लाभ संबंधी प्रावधानों को समुचित रूप से परिलक्षित नहीं करता है । एनपीवी निर्धारण के लिए एक पृथकीकृत बहुआयामी सोच के द्वारा समस्या सुलझाई जा सकती है । पर्यावरण और सामाजिक लाभों की क्षतिपूर्ति के लिए आवश्यक एक प्रणाली के निर्माण के लिए सच्ची राजनैतिक इच्छाशक्ति की दरकार है । ***
बाघों का अवैज्ञानिक पुनर्वास चार वर्षोंा के लम्बे अंतराल के बाद सरिस्का पुन: अपने यहां बाघों की चहल- पहल देख रहा है । रणथम्भौर से बाघ का एक जोड़ा यहां लाकर छोड़ा गया है । तीन अन्य बाघों को भी शीघ्र ही यहा लाया जाएगा ।आजादी के बाद से पहला मौका है जब बाघ प्रजाति के किसी जानवर को इस तरह किसी अन्य वन्य में ले जाकर छोड़ा गया है । इस परियोजना में राजस्थान के वन विभाग, भारत सरकार और वन्य जीवन संस्था का सहयोग रहा है तो इससे बाघों की मौजूदा छोटी जनसंख्या के अनुवांशिक प्रबंधन को भी दिशा मिल जाएगी । पिछले कुछ दशकों में बाघ अभ्यारण्यों के आसपास रिहायशी और खेतीहर गतिविधियों में बहुत बढ़ोतरी हुई है जिसकी वजह से अभ्यारण्य एक दूसरे से पूरी तरह कट गए हैं अतएव सिंह प्रजाति के लिए स्थान परिवर्तन की संभावनाएं खत्म सी हो गई हैं । अभ्यारण्य के बाघों की कम जनसंख्या की वजह से आनुवांशिक अलगाव की परिणति अंत: प्रजनन में होगी । रणथम्भौर में भी ज्यादा बाघ नहीं है । यहां १९७३में प्रोजेक्ट टाइगर प्रारंभ करते समय वन- विभाग ने इनका आंकड़ा १३ बताया था । इन ३५ सालों में यह संख्या घटती - बढ़ती रही है । रणथम्भौर में बाघ की मौजूदा आबादी इन्हीं १३ मूल निवासियों की संतति है अत: इनके अंत: प्रजनन की प्रबल संभावना है । अतएव इसमें विस्तृत अध्ययन की दरकार है । सरिस्का में स्थानीय प्रजाति का वंश विषयक अध्ययन हो पाता इसके पूर्व ही वहां से बाघ विलुप्त् हो चुके थे । सरिस्का की इस बाघ बसाहट को अब वंश विषयक विविधता की आवश्यकता है । जानवरों के हित में इस दिशा में कार्य होना चाहिए परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि इस दिशा में महत्वपूर्ण आयामों की उपेक्षा की गई है । बाघों की पुर्नबसाहट के लिए अग्रिम योजना के साथ ही वर्षोंा का मैदानी अध्ययन और इसके पश्चात् लम्बे समय तक लगातार निरिक्षण की आवश्यकता होगी ।
बाघों का अवैज्ञानिक पुनर्वास चार वर्षोंा के लम्बे अंतराल के बाद सरिस्का पुन: अपने यहां बाघों की चहल- पहल देख रहा है । रणथम्भौर से बाघ का एक जोड़ा यहां लाकर छोड़ा गया है । तीन अन्य बाघों को भी शीघ्र ही यहा लाया जाएगा ।आजादी के बाद से पहला मौका है जब बाघ प्रजाति के किसी जानवर को इस तरह किसी अन्य वन्य में ले जाकर छोड़ा गया है । इस परियोजना में राजस्थान के वन विभाग, भारत सरकार और वन्य जीवन संस्था का सहयोग रहा है तो इससे बाघों की मौजूदा छोटी जनसंख्या के अनुवांशिक प्रबंधन को भी दिशा मिल जाएगी । पिछले कुछ दशकों में बाघ अभ्यारण्यों के आसपास रिहायशी और खेतीहर गतिविधियों में बहुत बढ़ोतरी हुई है जिसकी वजह से अभ्यारण्य एक दूसरे से पूरी तरह कट गए हैं अतएव सिंह प्रजाति के लिए स्थान परिवर्तन की संभावनाएं खत्म सी हो गई हैं । अभ्यारण्य के बाघों की कम जनसंख्या की वजह से आनुवांशिक अलगाव की परिणति अंत: प्रजनन में होगी । रणथम्भौर में भी ज्यादा बाघ नहीं है । यहां १९७३में प्रोजेक्ट टाइगर प्रारंभ करते समय वन- विभाग ने इनका आंकड़ा १३ बताया था । इन ३५ सालों में यह संख्या घटती - बढ़ती रही है । रणथम्भौर में बाघ की मौजूदा आबादी इन्हीं १३ मूल निवासियों की संतति है अत: इनके अंत: प्रजनन की प्रबल संभावना है । अतएव इसमें विस्तृत अध्ययन की दरकार है । सरिस्का में स्थानीय प्रजाति का वंश विषयक अध्ययन हो पाता इसके पूर्व ही वहां से बाघ विलुप्त् हो चुके थे । सरिस्का की इस बाघ बसाहट को अब वंश विषयक विविधता की आवश्यकता है । जानवरों के हित में इस दिशा में कार्य होना चाहिए परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि इस दिशा में महत्वपूर्ण आयामों की उपेक्षा की गई है । बाघों की पुर्नबसाहट के लिए अग्रिम योजना के साथ ही वर्षोंा का मैदानी अध्ययन और इसके पश्चात् लम्बे समय तक लगातार निरिक्षण की आवश्यकता होगी ।
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