जन जीवन
सूखे से निपटती छोटी जल परियोजनाएं
भारत डोगरा
देश के सूखा प्रभावित ग्रामीण अंचलोंके निवासी अपनी पारम्परिक जलसमझ के माध्यम से अपने क्षेत्र की जल समस्याआें का निराकरण करने में काफी हद तक पारंगत है । आवश्यकता इस बात की है कि उन्हें इन परियोजनाआें की परिकल्पना में शामिल किया जाए ।
जहां एक ओर बहुत महंगी व विशालकाय जल-परियोजनाआें के अपेक्षित लाभ नहीं मिल रहे हैं, वहां दूसरी ओर स्थानीय लोगों की भागेदारी से कार्यान्वित अनेक छोटी परियोजनाआें से कम लागत में ही जल संरक्षण व संग्रहण का अधिक लाभ मिल रहा है । राजस्थान व बुंदेलखण्ड के जलसंकट ग्रस्त क्षेत्रों में ऐसे कुछ प्रेरणादायक प्रयासों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है ।
कोरसीना पंचायत व आसपास के कुछ गांव पेयजल के संकट से इतने त्रस्त हो गए थे कि कुछ वर्षोमें इन गांवों के अस्तित्व का संकट उत्पन्न होने वाला था । दरअसल राजस्थान के जयपुर जिले के दुधू ब्लॉक मेंस्थित यह गांव सांभर झील में नमक बनता है पर इसका प्रतिकूल असर आसपास के गांवोंमें खारे पानी की बढ़ती समस्या के रूप में सामने आता रहा है ।
गांववासियों व वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मी नारायण ने खोजबीन कर पता लगाया कि पंचायत के पास के पहाड़ों के ऊपरी क्षेत्र में एक जगह बहुत पहले किसी राजा-रजवाड़े के समय एक जल-संग्रहण प्रयास किया गया था । इस ऊंचे पहाड़ी स्थान पर जल-ग्रहण क्षेत्र काफी अच्छा है व कम स्थान में काफी पानी एकत्र हो जाता है । अधिक ऊंचाई के कारण यहां सांभर झील के नमक का असर भी वहां नहीं पहुंचता है । पर अब यह टूट-फूट गया था व बांध स्थल मेंगाद भर गई थी । काफी प्रयास किया गया कि यहां नए सिरे से पानी रोकने के लिए जरूरी निर्माण कार्य किया जाए । परन्तु सफलता नहीं मिली । इस बीच एक सड़क दुर्घटना में लक्ष्मीनारायणजी का देहान्त हो गया ।
इस स्थिति में पड़ौस के गांवों में कई सार्थक कार्योंा में लगी संस्था बेयरफुट कालेज ने यह निर्णय लिया कि लक्ष्मी नारायण के इस अधूरे कार्य को जैसे भी हो अवश्य पूरा करना है । इस बीच बेलू वाटर नामक संस्थान ने कोरसीना बांध परियोजना के लिए १८ लाख रूपये का अनुदान देना स्वीकार कर लिया ।
इस छोटे बांध की योजना में न तो कोई विस्थापन है न पर्यावरण की क्षति । अनुदान की राशि का अधिकांश उपयोग गांववासियों को मजदूरी देने के लिए किया गया । मजदूरी समय पर मिली व कानूनी रेट पर मिली । इस तरह गांववासियों की आर्थिक जरूरतें भी पूरी हुई तथा साथ ही ऊंचे पहाड़ी क्षेत्र में पानी रोकने का कार्य तेजी से आगे बढ़ने लगा । जल ग्रहण क्षेत्र का उपचार कर इसकी हरियाली बढ़ाई गई । खुदाई से जो मिट्टी व बालू मिली उसका उपयोग मुख्य बांध स्थल के नीचे और मेढ़बंदी के लिए भी किया गया ताकि आगे भी कुछ पानी रूक सके ।
कोरसीना बांध के पूरा होने के एक वर्ष बाद ही इसके लाभ ही इसके लाभ के बारे मेंस्थानीय गांववासियों ने बताया कि इससे लगभग ५० कुआें का जलस्तर ऊपर उठ गया । अनेक हैडपंपों व तालाबों को भी लाभ मिला । कोरसीना के एक मुख्य कुंए से पाईपलाईन अन्य गांवोंतक पहुंचती है जिससे पेयजल लाभ अनेक अन्य गांवों तक भी पहुंचता है ।
यदि यह परियोजना अपनी पूरी क्षमता प्राप्त् कर पाई तो इसका लाभ २० गांवों, १३८७४ गांववासियों व खेती-किसानी से जुड़े पशुआें को भी मिल सकता है । इसके अतिरिक्त वन्य जीव-जन्तुआें, पक्षियों की जो प्यास बुझेगी वह अलग है ।
इसी तरह जिला अजमेर के मंडावरिया व पालोना गांवों में भी कम बजट में बहुत से गांववासियों व पशुआें की प्यास बुझाने वाली परियोजनाएं हाल ही में कार्यान्वित हुई हैं जिनमें बेयरफुट कालेज ने भरपूर सहयोग दिया है । इन दोनों परियोजनाआें का क्रियान्वयन सहयोगी संस्था तिलोनिया शोध एवं विकास संस्थान ने किया है ।
बुंदेलखंड के चित्रकूट जिले के पाठा क्षेत्र का नाम तो बार-बार जल संकट के कारण वर्षो तक चर्चित होता रहा है । हाल के समय में मानिकपुर प्रखंड की तीन पंचायतों में वाटरशेड विकास की तीन परियाजनाआें ने एक नई उम्मीद जगाई है कि सूखी धरती व प्यासे लोगों को राहत देने के सस्ते उपाय भी असरदार व टिकाऊ समाधान दे सकते हैं । ये उपाय मूलत: वर्षो के जल के संग्रहण आर संरक्षण पर आधारित हैं । भूमि प्रबंधन ऐसा किया जाता है कि वर्षा का जल तेजी से न बह जाए अपितु जगह-जगह रूकता हुआ, रेंगता हुआ आगे बढ़े और जितना हो सके यहां की धरती में ही समा जाए । खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में बच सके, यहां के तालाबोंमें पानी आए, कुंआेंव हैडपंप का जल-स्तर ऊपर आ जाए व धरती में इतनी आद्रता बनी रहे कि तरह-तरह की हरियाली पनप सके ।
इटवा पंचायत में इस कार्य के लिए राष्ट्रीय कृषि भूमि विकास बैंक ने धन दिया तो टिकरिया पंचायत के लिए जिला ग्रामीण विकास एजेंसी ने । मनगवां पंचायत के लिए बजट उपलब्ध करवाया दोराबजी टाटा ट्रस्ट ने । इन तीनोंपरियोजनों का क्रियान्वयन अखिल भारतीय समाज सेवा संस्थान ने किया । इनमें से एक परियोजना पूर्ण हुई तो शेष दो पर अभी कार्य चल रहा है । अभी तक इनपर लगभग २ करोड़ रूपए व्यय हुए, जिनमें से ६० प्रतिशत राशि यानि एक करोड़ बीस लाख रूपये सबसे गरीब परिवारों को मजदूरी के रूप में ही मिल गया । साथ में बेहतर जल संरक्षण, कृषि व हरियाली में प्रगति का लाभ तो इन तीन वाटरशेड़ों के सभी दस हजार लोगों को कम या अधिक मिला । खेती-किसानी के पशुआें के साथ अन्य जीव जन्तुआें को भी वर्ष भर प्यास बुझाने के स्त्रोत मिले । दूसरे शब्दों में, तकनीकी कुशलता, सावधानी व ईमानदारी से खर्च हो तो जितने बजट में किसी महानगर के पॉश इलाकों में एक फ्लैट मिलता है, उतने धन में दस हजार गांववासियों व पांच हजार पशुआें की प्यास बुझाने के साथ कृषि उत्पादन बढ़ाने की महत्वपूर्ण उपलब्धि हो सकती है ।
वर्षा के जल को संजोने-समेटने के लिए इन परियोजनाआें में मेढ़बंदी की गई, बंधे व चेक डेम बनाए गए । नए तालाब बनाए गए व पुराने तालाबों का जीर्णोद्वार भी किया गया । वेग से बहते हुए पानी को रोकने के लिए उचित स्थानों पर खाईयां बनाई गई, वृक्षारोपण किया गया । हाल के समय में आर्गेनिक खेती का यथासंभव प्रसार किया गया जिससे मिट्टी की नमी ग्रहण क्षमता बढ़ती है । श्री या एस.आर.आई. खेती की नई तकनीक अपनाई गई जिसमें उचित दूरी पर पौध लगाने व खरपतवार से हरी खाद बनाने जैसे उपायों से उत्पादन बढ़ाने के साथ पानी की बचत भी संभव है ।
इस तरह की छोटी परियोजनाआें का बड़ा सबक यह है कि हमें जल संकट हल करने के लिए ऐसी परियोजनाआें पर निर्भर होना जरूरी नहीं है जिससे बहुत विस्थापन होता हो या अनेक पर्यावरणीय दुष्परिणाम होते हों । ऐसी परियोजनाआें पर भी निर्भर होना जरूरी नहीं है जो बहुत महंगी हों व जिनके अनिश्चित लाभ बहुत देर से मिलें ।
सूखे से निपटती छोटी जल परियोजनाएं
भारत डोगरा
देश के सूखा प्रभावित ग्रामीण अंचलोंके निवासी अपनी पारम्परिक जलसमझ के माध्यम से अपने क्षेत्र की जल समस्याआें का निराकरण करने में काफी हद तक पारंगत है । आवश्यकता इस बात की है कि उन्हें इन परियोजनाआें की परिकल्पना में शामिल किया जाए ।
जहां एक ओर बहुत महंगी व विशालकाय जल-परियोजनाआें के अपेक्षित लाभ नहीं मिल रहे हैं, वहां दूसरी ओर स्थानीय लोगों की भागेदारी से कार्यान्वित अनेक छोटी परियोजनाआें से कम लागत में ही जल संरक्षण व संग्रहण का अधिक लाभ मिल रहा है । राजस्थान व बुंदेलखण्ड के जलसंकट ग्रस्त क्षेत्रों में ऐसे कुछ प्रेरणादायक प्रयासों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है ।
कोरसीना पंचायत व आसपास के कुछ गांव पेयजल के संकट से इतने त्रस्त हो गए थे कि कुछ वर्षोमें इन गांवों के अस्तित्व का संकट उत्पन्न होने वाला था । दरअसल राजस्थान के जयपुर जिले के दुधू ब्लॉक मेंस्थित यह गांव सांभर झील में नमक बनता है पर इसका प्रतिकूल असर आसपास के गांवोंमें खारे पानी की बढ़ती समस्या के रूप में सामने आता रहा है ।
गांववासियों व वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मी नारायण ने खोजबीन कर पता लगाया कि पंचायत के पास के पहाड़ों के ऊपरी क्षेत्र में एक जगह बहुत पहले किसी राजा-रजवाड़े के समय एक जल-संग्रहण प्रयास किया गया था । इस ऊंचे पहाड़ी स्थान पर जल-ग्रहण क्षेत्र काफी अच्छा है व कम स्थान में काफी पानी एकत्र हो जाता है । अधिक ऊंचाई के कारण यहां सांभर झील के नमक का असर भी वहां नहीं पहुंचता है । पर अब यह टूट-फूट गया था व बांध स्थल मेंगाद भर गई थी । काफी प्रयास किया गया कि यहां नए सिरे से पानी रोकने के लिए जरूरी निर्माण कार्य किया जाए । परन्तु सफलता नहीं मिली । इस बीच एक सड़क दुर्घटना में लक्ष्मीनारायणजी का देहान्त हो गया ।
इस स्थिति में पड़ौस के गांवों में कई सार्थक कार्योंा में लगी संस्था बेयरफुट कालेज ने यह निर्णय लिया कि लक्ष्मी नारायण के इस अधूरे कार्य को जैसे भी हो अवश्य पूरा करना है । इस बीच बेलू वाटर नामक संस्थान ने कोरसीना बांध परियोजना के लिए १८ लाख रूपये का अनुदान देना स्वीकार कर लिया ।
इस छोटे बांध की योजना में न तो कोई विस्थापन है न पर्यावरण की क्षति । अनुदान की राशि का अधिकांश उपयोग गांववासियों को मजदूरी देने के लिए किया गया । मजदूरी समय पर मिली व कानूनी रेट पर मिली । इस तरह गांववासियों की आर्थिक जरूरतें भी पूरी हुई तथा साथ ही ऊंचे पहाड़ी क्षेत्र में पानी रोकने का कार्य तेजी से आगे बढ़ने लगा । जल ग्रहण क्षेत्र का उपचार कर इसकी हरियाली बढ़ाई गई । खुदाई से जो मिट्टी व बालू मिली उसका उपयोग मुख्य बांध स्थल के नीचे और मेढ़बंदी के लिए भी किया गया ताकि आगे भी कुछ पानी रूक सके ।
कोरसीना बांध के पूरा होने के एक वर्ष बाद ही इसके लाभ ही इसके लाभ के बारे मेंस्थानीय गांववासियों ने बताया कि इससे लगभग ५० कुआें का जलस्तर ऊपर उठ गया । अनेक हैडपंपों व तालाबों को भी लाभ मिला । कोरसीना के एक मुख्य कुंए से पाईपलाईन अन्य गांवोंतक पहुंचती है जिससे पेयजल लाभ अनेक अन्य गांवों तक भी पहुंचता है ।
यदि यह परियोजना अपनी पूरी क्षमता प्राप्त् कर पाई तो इसका लाभ २० गांवों, १३८७४ गांववासियों व खेती-किसानी से जुड़े पशुआें को भी मिल सकता है । इसके अतिरिक्त वन्य जीव-जन्तुआें, पक्षियों की जो प्यास बुझेगी वह अलग है ।
इसी तरह जिला अजमेर के मंडावरिया व पालोना गांवों में भी कम बजट में बहुत से गांववासियों व पशुआें की प्यास बुझाने वाली परियोजनाएं हाल ही में कार्यान्वित हुई हैं जिनमें बेयरफुट कालेज ने भरपूर सहयोग दिया है । इन दोनों परियोजनाआें का क्रियान्वयन सहयोगी संस्था तिलोनिया शोध एवं विकास संस्थान ने किया है ।
बुंदेलखंड के चित्रकूट जिले के पाठा क्षेत्र का नाम तो बार-बार जल संकट के कारण वर्षो तक चर्चित होता रहा है । हाल के समय में मानिकपुर प्रखंड की तीन पंचायतों में वाटरशेड विकास की तीन परियाजनाआें ने एक नई उम्मीद जगाई है कि सूखी धरती व प्यासे लोगों को राहत देने के सस्ते उपाय भी असरदार व टिकाऊ समाधान दे सकते हैं । ये उपाय मूलत: वर्षो के जल के संग्रहण आर संरक्षण पर आधारित हैं । भूमि प्रबंधन ऐसा किया जाता है कि वर्षा का जल तेजी से न बह जाए अपितु जगह-जगह रूकता हुआ, रेंगता हुआ आगे बढ़े और जितना हो सके यहां की धरती में ही समा जाए । खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में बच सके, यहां के तालाबोंमें पानी आए, कुंआेंव हैडपंप का जल-स्तर ऊपर आ जाए व धरती में इतनी आद्रता बनी रहे कि तरह-तरह की हरियाली पनप सके ।
इटवा पंचायत में इस कार्य के लिए राष्ट्रीय कृषि भूमि विकास बैंक ने धन दिया तो टिकरिया पंचायत के लिए जिला ग्रामीण विकास एजेंसी ने । मनगवां पंचायत के लिए बजट उपलब्ध करवाया दोराबजी टाटा ट्रस्ट ने । इन तीनोंपरियोजनों का क्रियान्वयन अखिल भारतीय समाज सेवा संस्थान ने किया । इनमें से एक परियोजना पूर्ण हुई तो शेष दो पर अभी कार्य चल रहा है । अभी तक इनपर लगभग २ करोड़ रूपए व्यय हुए, जिनमें से ६० प्रतिशत राशि यानि एक करोड़ बीस लाख रूपये सबसे गरीब परिवारों को मजदूरी के रूप में ही मिल गया । साथ में बेहतर जल संरक्षण, कृषि व हरियाली में प्रगति का लाभ तो इन तीन वाटरशेड़ों के सभी दस हजार लोगों को कम या अधिक मिला । खेती-किसानी के पशुआें के साथ अन्य जीव जन्तुआें को भी वर्ष भर प्यास बुझाने के स्त्रोत मिले । दूसरे शब्दों में, तकनीकी कुशलता, सावधानी व ईमानदारी से खर्च हो तो जितने बजट में किसी महानगर के पॉश इलाकों में एक फ्लैट मिलता है, उतने धन में दस हजार गांववासियों व पांच हजार पशुआें की प्यास बुझाने के साथ कृषि उत्पादन बढ़ाने की महत्वपूर्ण उपलब्धि हो सकती है ।
वर्षा के जल को संजोने-समेटने के लिए इन परियोजनाआें में मेढ़बंदी की गई, बंधे व चेक डेम बनाए गए । नए तालाब बनाए गए व पुराने तालाबों का जीर्णोद्वार भी किया गया । वेग से बहते हुए पानी को रोकने के लिए उचित स्थानों पर खाईयां बनाई गई, वृक्षारोपण किया गया । हाल के समय में आर्गेनिक खेती का यथासंभव प्रसार किया गया जिससे मिट्टी की नमी ग्रहण क्षमता बढ़ती है । श्री या एस.आर.आई. खेती की नई तकनीक अपनाई गई जिसमें उचित दूरी पर पौध लगाने व खरपतवार से हरी खाद बनाने जैसे उपायों से उत्पादन बढ़ाने के साथ पानी की बचत भी संभव है ।
इस तरह की छोटी परियोजनाआें का बड़ा सबक यह है कि हमें जल संकट हल करने के लिए ऐसी परियोजनाआें पर निर्भर होना जरूरी नहीं है जिससे बहुत विस्थापन होता हो या अनेक पर्यावरणीय दुष्परिणाम होते हों । ऐसी परियोजनाआें पर भी निर्भर होना जरूरी नहीं है जो बहुत महंगी हों व जिनके अनिश्चित लाभ बहुत देर से मिलें ।
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