कृषि जगत
खेती का आत्मघाती संकट
जयन्त वर्मा
पंद्रह वर्षो में ढाई लाख से अधिक किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने के बावजूद कृषि संबंधित सरकारी नीति में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा है । बढ़ती लागत की वजह से कृषि अब तक अलाभकारी होती जा रही है ।
भारत में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या की घटनाआें में निरन्तर वृद्धि हो रही है । राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष १९९५ से २०१० के दौरान २,५६,९१३ किसानोंने आत्महत्या की है । किसानों द्वारा आत्महत्या करने के पीछे मुख्य कारणों की विवेचना आवश्यक है ।
यदि देश में सर्वाधिक रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र को विकास प्रक्रिया के केन्द्र मेंरखकर उद्योगों को उसका सहायक बनाया जायेगा तो ही राष्ट्र कृषि संकट से उबर सकता है । विडम्बना है कि खेती किसान में लागत निरन्तर बढ़ती जा रही है और श्रम मूल्य को घटाया जा रहा है । इस कारण किसान कर्ज लेकर खेती करने को मजबूर हो जाता है और इस जाल में फंस जाता है । भुखमरी और गरीबी के चलते किसान कर्ज को चुकाने मेंअसमर्थ रहता है । कर्ज लेने के बाद चक्रवृद्धि ब्याज के चक्कर मेंअदायगी राशि दो-चार और सौ गुनी हो जाती है, जिसे लाचार किसान अपना खेत खलिहान बेचकर भी नहीं चुका सकता । अंतत: अपना आत्मसम्मान बचाने के लिए वह आत्महत्या कर लेता है ।
किसानी के संकट के मूल में बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२१(क) है, जो १९१८ में अंग्रेज हुकूमतद्वारा साहूकारों पर अंकुश लगाने के लिए बनाये गये अति ब्याज उधार अधिनियम को बाधित करती है, जिसके अनुसार किसी भी हालत में ब्याज की राशि मूलधन से अधिक नहीं वसूली जा सकती । अत: किसानों को राहत देने बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२१(क) को भूतलक्षी प्रभाव से समाप्त् किया जाना चाहिए ।
फरवरी १९८४ में इंदिरागांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने बैंकों को साहूकारी संस्था से अलग कर उनके द्वारा ब्याज की सीमा पर लगी रोक हटा ली । इसके फलस्वरूप अब किसानोंको अत्यधिक धन चुकाना पड़ता है । वर्ष २००७ में कृषि मंत्री शरद पंवार ने इस धारा को वापस लेने से इंकार कर दिया । १४वीं लोकसभा में संदर्भित स्थायी समिति ने अनुशंसा की है कि किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याआें के लिए उपरोक्त धारा सर्वाधिक उत्तरदायी है अतएव इसे विलोपित किया जाए ।
सन् १९५०-५१ में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी ५३.१ प्रतिशत थी जो वर्ष २०११-१२ में घटकर मात्र १३.९ प्रतिशत रह गई । योजना आयोग के दृष्टिपत्र के अनुसार सन् २०२० में सकल घरेलू उत्पाद में खेती किसानी के योगदान को ६ प्रतिशत तक लाने का लक्ष्य रखा गया है । इस तरह प्रतिवर्ष सरकार स.घ.उ. से खेती किसानी की हिस्सेदारी लगभग ०.७ प्रतिशत की दर से कम कर रही है । किसान के श्रम मूल्य से इस वर्ष लगभग ५४ हजार करोड़ रूपये निकाला गया है । इस राशि में मात्र १५००० करोड़ रूपये जोड़कर सरकार ने किसानों सहित समस्त ग्रामीण भारत के लिये वर्ष २०१२-१३ के केन्द्रीय बजट मेंकुल राशि ६९,६९६ करोड़ रूपये का आवंटन कर दिया है । वर्ष २०१२-१३ के बजट में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना सहित अन्य योजनाआें को मिलाकर ग्रामीण विकास के लिए आवंटित बजट ५०,७२९ करोड़ रूपये है । कृषि और संबद्ध क्रियाकलाप के लिए १७,६९२ करोड़ तथा सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण के लिए १२७५ करोड़ रूपये केन्द्रीय आयोजना के तहत आवंटित किए गए है ।
सरकार खाद्यान्न के समर्थन मूल्य को जान बूझकर घटाकर किसानी को घाटे का सौदा बनाने पर आमाद है । अर्जुन सेनगुप्त रिपोर्ट के अनुसार वर्ष २००५-०६ में भारत में किसान की औसत आमदनी मात्र १४ रूपये प्रतिदिन थी । किसान को उड़ीसा में ६ रूपये और मध्यप्रदेश में ९ रूपये प्रतिदिन आमदनी होती है । डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की राष्ट्रीय किसान आयोग की रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि भारत के चालीस फीसदी किसान अब खेती छोड़ने को तत्पर हैं क्योंकि किसान को मिलने वाली खाद्यान्न की कीमत में ८० फीसदी लागत और मात्र २० फीसदी उसका श्रम मूल्य होता है ।
वर्ष १९६० में १० ग्राम सोने का मूल्य १११ रूपये और एक क्विंटल गेहूं का दाम ४१ रूपये था । आज १० ग्राम सोने का मूल्य लगभग ३०,००० रूपये और एक क्विंटल गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य १,२८५ रूपये है । इसी प्रकार वर्ष १९६० में प्रथम श्रेणी शासकीय सेवक का जो वेतन था उसमें ६ क्विंटल गेहूं मिलता था । आज प्रथम श्रेणी शासकीय सेवक के एक माह के वेतन में २५ क्विंटल गेहूं खरीदा जा सकता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार किसानों के श्रम मूल्य को जान बूझकर घटा रही है ।
केन्द्रीय कृषि मंत्रालय में एक भी अधिकारी ऐसा नहीं है, जिसने जीवन में कभी हल पकड़ा हो । भारत में कृषि की नीतियां बनाने वाले वर्ग किसानी की वास्तविकता से अनभिज्ञ है और वह एग्री बिजनेस को बढ़ावा देेने में लगा है । नतीजा यह है कि किसान दिन-ब-दिन कंगाल हो रहा है और किसान के साथ धंधा करने वाला व्यापारी और कम्पनियां मालामाल हो रही है । सरकार कार्पोरेट खेती को प्रोत्साहन देने का काम कर रही है और देश में सर्वाधिक रोजगार देने वाले इस व्यवसाय से लोगों को बेदखल करने पर उतारू है । किसानी घाटे का सौदा बन रही है और सरकार इस घाटे की पूर्ति के लिए किसान को कर्ज के जाल में फंसारही है । वित्तीय वर्ष २०१२-१३ का केन्द्रीय बजट १४,९०,९२५ करोड़ रूपये का है । इसकी तुलना में किसानों को ५,७५,००० करोड़ रूपये कर्ज के रूप में देना प्रस्तावित किया गया है जो कि बजट की राशि के ३८.५७ प्रतिशत के बराबर है । भारत का किसान अब बैंक का कर्ज चुकाने वाला बन्धुआ मजदूर बनकर रह गया है । यही किसानी की सबसे बड़ी त्रासदी है ।
नवउदारीकरण के पश्चात् किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याआें की बढ़ती संख्या भी हमारे देश को अधिक विचलित नहीं कर पा रही है । यदि वर्ष १९९५ से २०१० तक के किसान आत्महत्याआें के मामलों पर नजर डालें तो स्थितियों की भयावहता का सहज ही अंदाजा लग जाता है । इस दौरान राज्यों एवं केन्द्र शास्ति प्रदेशों में कुल २,५६,९१३ किसानों ने आत्महत्या की इनमें से २,१६,७८७ पुरूष एवं ४०,१२६ महिलाएं थीं । जिन पांच राज्यों में सर्वाधिक आत्महत्याएं दर्ज की गई वे हैं - महाराष्ट्र ५०,४८१ कर्नाटक ३५,०५३ आंध्रप्रदेश ३१,१२० मध्यप्रदेश २६,७२२ (छत्तीसगढ़ २००१ में पृथक राज्य बना और वहां तब से १४,३४० किसानों ने आत्महत्या की है) पश्चिम बंगाल १९,३३१ एवं केरल १८,९०७ ।
किसानी के संकट से देश को उबारने के लिए तत्काल यह कदम उठाये जाना चाहिये -
(१) खाद्यान्न का समर्थन मूल्य इतना तय किया जाये कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान बढ़कर ४५ फीसदी हो जाए । (२) यह सुनिश्चित किया जाए कि किसान की न्यूनतम आमदनी छठे वेतन आयोग में निर्धारित तृतीय श्रेणी सरकारी कर्मचारी के वेतन के बराबर हो जाए । (३) अधिक लागत और कम मूल्य की चक्की में पिसते किसान को राहत देने हेतु खेती किसानी की समस्त लागत शासन द्वारा लगाई जाए तथा किसान को संगठित वर्ग के समतुल्य श्रम मूल्य दिया जाए । (४) बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२१(क) को भूतलक्षी प्रभाव से समाप्त् किया जाये । (५) कृषि क्षेत्र को विकास प्रक्रिया के केन्द्र मेंरखकर उसमें सार्वजनिक विनिवेश बढ़ाया जाये और उद्योगों की भूमिका कृषि कार्यो में सहायक के रूप में रखी जाए । (६) खेती किसान में लागत को घटाने के लिए रसायन मुक्त जैविक/प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जाये तथा एग्री बिजनेस को बढ़ावा देने की नीति का परित्याग किया जाए ।
खेती का आत्मघाती संकट
जयन्त वर्मा
पंद्रह वर्षो में ढाई लाख से अधिक किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने के बावजूद कृषि संबंधित सरकारी नीति में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा है । बढ़ती लागत की वजह से कृषि अब तक अलाभकारी होती जा रही है ।
भारत में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या की घटनाआें में निरन्तर वृद्धि हो रही है । राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष १९९५ से २०१० के दौरान २,५६,९१३ किसानोंने आत्महत्या की है । किसानों द्वारा आत्महत्या करने के पीछे मुख्य कारणों की विवेचना आवश्यक है ।
यदि देश में सर्वाधिक रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र को विकास प्रक्रिया के केन्द्र मेंरखकर उद्योगों को उसका सहायक बनाया जायेगा तो ही राष्ट्र कृषि संकट से उबर सकता है । विडम्बना है कि खेती किसान में लागत निरन्तर बढ़ती जा रही है और श्रम मूल्य को घटाया जा रहा है । इस कारण किसान कर्ज लेकर खेती करने को मजबूर हो जाता है और इस जाल में फंस जाता है । भुखमरी और गरीबी के चलते किसान कर्ज को चुकाने मेंअसमर्थ रहता है । कर्ज लेने के बाद चक्रवृद्धि ब्याज के चक्कर मेंअदायगी राशि दो-चार और सौ गुनी हो जाती है, जिसे लाचार किसान अपना खेत खलिहान बेचकर भी नहीं चुका सकता । अंतत: अपना आत्मसम्मान बचाने के लिए वह आत्महत्या कर लेता है ।
किसानी के संकट के मूल में बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२१(क) है, जो १९१८ में अंग्रेज हुकूमतद्वारा साहूकारों पर अंकुश लगाने के लिए बनाये गये अति ब्याज उधार अधिनियम को बाधित करती है, जिसके अनुसार किसी भी हालत में ब्याज की राशि मूलधन से अधिक नहीं वसूली जा सकती । अत: किसानों को राहत देने बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२१(क) को भूतलक्षी प्रभाव से समाप्त् किया जाना चाहिए ।
फरवरी १९८४ में इंदिरागांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने बैंकों को साहूकारी संस्था से अलग कर उनके द्वारा ब्याज की सीमा पर लगी रोक हटा ली । इसके फलस्वरूप अब किसानोंको अत्यधिक धन चुकाना पड़ता है । वर्ष २००७ में कृषि मंत्री शरद पंवार ने इस धारा को वापस लेने से इंकार कर दिया । १४वीं लोकसभा में संदर्भित स्थायी समिति ने अनुशंसा की है कि किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याआें के लिए उपरोक्त धारा सर्वाधिक उत्तरदायी है अतएव इसे विलोपित किया जाए ।
सन् १९५०-५१ में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी ५३.१ प्रतिशत थी जो वर्ष २०११-१२ में घटकर मात्र १३.९ प्रतिशत रह गई । योजना आयोग के दृष्टिपत्र के अनुसार सन् २०२० में सकल घरेलू उत्पाद में खेती किसानी के योगदान को ६ प्रतिशत तक लाने का लक्ष्य रखा गया है । इस तरह प्रतिवर्ष सरकार स.घ.उ. से खेती किसानी की हिस्सेदारी लगभग ०.७ प्रतिशत की दर से कम कर रही है । किसान के श्रम मूल्य से इस वर्ष लगभग ५४ हजार करोड़ रूपये निकाला गया है । इस राशि में मात्र १५००० करोड़ रूपये जोड़कर सरकार ने किसानों सहित समस्त ग्रामीण भारत के लिये वर्ष २०१२-१३ के केन्द्रीय बजट मेंकुल राशि ६९,६९६ करोड़ रूपये का आवंटन कर दिया है । वर्ष २०१२-१३ के बजट में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना सहित अन्य योजनाआें को मिलाकर ग्रामीण विकास के लिए आवंटित बजट ५०,७२९ करोड़ रूपये है । कृषि और संबद्ध क्रियाकलाप के लिए १७,६९२ करोड़ तथा सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण के लिए १२७५ करोड़ रूपये केन्द्रीय आयोजना के तहत आवंटित किए गए है ।
सरकार खाद्यान्न के समर्थन मूल्य को जान बूझकर घटाकर किसानी को घाटे का सौदा बनाने पर आमाद है । अर्जुन सेनगुप्त रिपोर्ट के अनुसार वर्ष २००५-०६ में भारत में किसान की औसत आमदनी मात्र १४ रूपये प्रतिदिन थी । किसान को उड़ीसा में ६ रूपये और मध्यप्रदेश में ९ रूपये प्रतिदिन आमदनी होती है । डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की राष्ट्रीय किसान आयोग की रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि भारत के चालीस फीसदी किसान अब खेती छोड़ने को तत्पर हैं क्योंकि किसान को मिलने वाली खाद्यान्न की कीमत में ८० फीसदी लागत और मात्र २० फीसदी उसका श्रम मूल्य होता है ।
वर्ष १९६० में १० ग्राम सोने का मूल्य १११ रूपये और एक क्विंटल गेहूं का दाम ४१ रूपये था । आज १० ग्राम सोने का मूल्य लगभग ३०,००० रूपये और एक क्विंटल गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य १,२८५ रूपये है । इसी प्रकार वर्ष १९६० में प्रथम श्रेणी शासकीय सेवक का जो वेतन था उसमें ६ क्विंटल गेहूं मिलता था । आज प्रथम श्रेणी शासकीय सेवक के एक माह के वेतन में २५ क्विंटल गेहूं खरीदा जा सकता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार किसानों के श्रम मूल्य को जान बूझकर घटा रही है ।
केन्द्रीय कृषि मंत्रालय में एक भी अधिकारी ऐसा नहीं है, जिसने जीवन में कभी हल पकड़ा हो । भारत में कृषि की नीतियां बनाने वाले वर्ग किसानी की वास्तविकता से अनभिज्ञ है और वह एग्री बिजनेस को बढ़ावा देेने में लगा है । नतीजा यह है कि किसान दिन-ब-दिन कंगाल हो रहा है और किसान के साथ धंधा करने वाला व्यापारी और कम्पनियां मालामाल हो रही है । सरकार कार्पोरेट खेती को प्रोत्साहन देने का काम कर रही है और देश में सर्वाधिक रोजगार देने वाले इस व्यवसाय से लोगों को बेदखल करने पर उतारू है । किसानी घाटे का सौदा बन रही है और सरकार इस घाटे की पूर्ति के लिए किसान को कर्ज के जाल में फंसारही है । वित्तीय वर्ष २०१२-१३ का केन्द्रीय बजट १४,९०,९२५ करोड़ रूपये का है । इसकी तुलना में किसानों को ५,७५,००० करोड़ रूपये कर्ज के रूप में देना प्रस्तावित किया गया है जो कि बजट की राशि के ३८.५७ प्रतिशत के बराबर है । भारत का किसान अब बैंक का कर्ज चुकाने वाला बन्धुआ मजदूर बनकर रह गया है । यही किसानी की सबसे बड़ी त्रासदी है ।
नवउदारीकरण के पश्चात् किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याआें की बढ़ती संख्या भी हमारे देश को अधिक विचलित नहीं कर पा रही है । यदि वर्ष १९९५ से २०१० तक के किसान आत्महत्याआें के मामलों पर नजर डालें तो स्थितियों की भयावहता का सहज ही अंदाजा लग जाता है । इस दौरान राज्यों एवं केन्द्र शास्ति प्रदेशों में कुल २,५६,९१३ किसानों ने आत्महत्या की इनमें से २,१६,७८७ पुरूष एवं ४०,१२६ महिलाएं थीं । जिन पांच राज्यों में सर्वाधिक आत्महत्याएं दर्ज की गई वे हैं - महाराष्ट्र ५०,४८१ कर्नाटक ३५,०५३ आंध्रप्रदेश ३१,१२० मध्यप्रदेश २६,७२२ (छत्तीसगढ़ २००१ में पृथक राज्य बना और वहां तब से १४,३४० किसानों ने आत्महत्या की है) पश्चिम बंगाल १९,३३१ एवं केरल १८,९०७ ।
किसानी के संकट से देश को उबारने के लिए तत्काल यह कदम उठाये जाना चाहिये -
(१) खाद्यान्न का समर्थन मूल्य इतना तय किया जाये कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान बढ़कर ४५ फीसदी हो जाए । (२) यह सुनिश्चित किया जाए कि किसान की न्यूनतम आमदनी छठे वेतन आयोग में निर्धारित तृतीय श्रेणी सरकारी कर्मचारी के वेतन के बराबर हो जाए । (३) अधिक लागत और कम मूल्य की चक्की में पिसते किसान को राहत देने हेतु खेती किसानी की समस्त लागत शासन द्वारा लगाई जाए तथा किसान को संगठित वर्ग के समतुल्य श्रम मूल्य दिया जाए । (४) बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-२१(क) को भूतलक्षी प्रभाव से समाप्त् किया जाये । (५) कृषि क्षेत्र को विकास प्रक्रिया के केन्द्र मेंरखकर उसमें सार्वजनिक विनिवेश बढ़ाया जाये और उद्योगों की भूमिका कृषि कार्यो में सहायक के रूप में रखी जाए । (६) खेती किसान में लागत को घटाने के लिए रसायन मुक्त जैविक/प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जाये तथा एग्री बिजनेस को बढ़ावा देने की नीति का परित्याग किया जाए ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें