प्रदेश चर्चा
राजस्थान : राज्य की जल प्रबंधन नीति
अमृत अर्णव
देश के प्राकृतिक संसाधनों का चौतरफा अति दोहन हो रहा है । पर्यावरण तथा जीवन का प्रमुख अवयव जल हमें विभिन्न स्त्रोतों से प्राप्त् होता है । प्रत्येक रूप में इसकी प्रािप्त् हमारे लिए महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं । यह हमारे जीवन अस्तित्व के लिए जितना महत्वपूर्ण है उतना ही जीव-जन्तुआें तथा कृषि के लिए भी आवश्यक हैं । विकास का प्रत्येक स्तर, हर पहलू इन्हीं प्राकृतिक स्त्रोतों पर आधारित है । औद्योगिकरण का प्रमुख अवयव तथा ऊर्ज्रा स्त्रोत के रूप में जल हमारे लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं ।
राजस्थान : राज्य की जल प्रबंधन नीति
अमृत अर्णव
देश के प्राकृतिक संसाधनों का चौतरफा अति दोहन हो रहा है । पर्यावरण तथा जीवन का प्रमुख अवयव जल हमें विभिन्न स्त्रोतों से प्राप्त् होता है । प्रत्येक रूप में इसकी प्रािप्त् हमारे लिए महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं । यह हमारे जीवन अस्तित्व के लिए जितना महत्वपूर्ण है उतना ही जीव-जन्तुआें तथा कृषि के लिए भी आवश्यक हैं । विकास का प्रत्येक स्तर, हर पहलू इन्हीं प्राकृतिक स्त्रोतों पर आधारित है । औद्योगिकरण का प्रमुख अवयव तथा ऊर्ज्रा स्त्रोत के रूप में जल हमारे लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं ।
सोलहवीं तथा अठारहवीं शताब्दी जो कि औद्योगिक क्षेत्र में अत्यधिक क्रांति के शतक माने जाते हैं, तब से ही जल की प्रदूषणात्मक प्रवृत्ति जन्म लेती रही किन्तु उस समय इसका एक तरफा विनाश तथा कम उपयोग था इसलिए यह चर्चा और गौर करने के लिए समस्यात्मक पहलू के तौर पर नहीं लिया जाता था और उस मसय तक प्रकृत्ति भी इसके शुद्धीकरण के लिए काफी हद तक सक्षम थी इसमें उत्पन्न प्रदूषण तथा नाशक जीव प्राकृतिक प्रक्रियाआेंसे स्वयं ही नष्ट हो जाते थे, किन्तु धीरे-धीरे विकास की चरम सीमा तक पहँुचने और जनसंख्या बढोत्तरी के साथ-साथ अत्यधिक प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के लालच के कारण प्रकृति का यह नि:शुल्क ऊर्जा स्त्रोत विनाशक रूप लेता जा रहा है ।
पर्यावरण के विभिन्न घटकों में से जल प्रदूषण की बात व समस्या सबसे पहले हमारे सामने आयी । जल की शुद्धता को बनाये रखने वाले विभिन्न अवयवों के संतुलनात्मक स्थिति के गड़बड़ाने के कारण ही जल प्रदूषण हो रहा है । वहां जल तो प्रत्यक्ष रूप से प्रदूषित हो रहा है, विभिन्न अवयवों के रिसकर भूमिगत हो जाने से यह पृथ्वी के अंदर के जल को प्रदूषित करके उसकेे उत्पादों को भी प्रदूषित कर रहे हैं । पृथ्वी के विकास में पानी का अत्यधिक प्राचीन तथा महत्वपूर्ण इतिहास रहा है । जनसंख्या बढ़ोत्तरी के कारण पृथ्वी पर लगभग ७५ प्रतिशत भाग जल से घिरे होने के बाद भी विभिन्न उत्तरदायी कारणों से जलपूर्ति में काफी कमी हो रही है ।
कहा गया है कि जल ही जीवन है । जल के बिना मानों सब कुछ ही शून्य है । वर्तमान समय में जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती हैं । जल एक दुर्लभ संसाधन है इसलिए राज्य के द्वारा जल प्रबंधन नीति पर बल दिया गया है । जल संग्रह प्रबंधन के लिए ऐसी रणनीति बनाई गई जिससे जल कम खर्च हो सके । वर्षा जल के घटने और कुआें से अत्यधिक जल निकासी से भूमि जल स्तर निरन्तर घटता जा रहा है ।
वर्षा के अभाव से उत्पादन एवं उत्पादकता में आने वाली कमी को दूर करने के लिए जल ग्रहण की पहचान एवं इसके समग्र विकास की प्रक्रिया प्रारंभ की गई है । इसके लिए राजस्थान सरकार द्वारा जनवरी, १९९१ में जल ग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग की पृथक से स्थापना की गयी ।
वर्षा के अभाव में उत्पादन एवं उत्पादकता में आने वाली कमी को दूर करने के लिए जल ग्रहण की पहचान एवं इसके समग्र विकास की प्रक्रिया प्रारंभ की गई है । इसके लिए राजस्थान सरकार द्वारा जनवरी, १९९१ में जल ग्रहण विकास एवं भू-सरंक्षण विभाग की पृथक से स्थापना की गयी ।
जल ग्रहण विकास कार्य में गतिविधियाँ कृषि योग्य कृषि भूमि का उपचार, वानस्पतिक अवरोध की स्थापना, ऐलै क्रॉपिंग एवं बाउण्ड्री पर वृक्षारोपण, मिश्रित उद्यान, चारागाह विकास कार्यक्रम, वृक्षारोपण कार्यक्रम, वाटर हार्वेस्टिंग ये सब जल प्रबंधन में सहायक रहे ।
राजस्थान सरकार द्वारा जल प्रबंधन की निम्न नीतियॉ बनाई गई -
(१) समन्वित जल ग्रहण विकास परियोजना - यह परियोजना राजस्थान के चार जिले में चले इसकी स्थापना १९९० ई. में हुई । इस जल प्रबंधन से कई लाभ हुये ।
(२) वानस्पतिक तकनीक का उपयोग करके वर्षा जल का उचित संरक्षण करना तथा भूमि कटाव रोकना ताकि कृषि पैदावार का स्तर बढ़ाया जा सके । सामुदायिक एवं सरकार भूमि पर सामाजिक वानिकी, चारागाह विकास एवं अन्य भूमि उपयोग करके भूमि की उत्पादकता बढ़ाना ।
(३) राष्ट्रीय जल ग्रहण विकास कार्यक्रम - यह कार्यक्रम जैविक पदार्थो की स्थायी उत्पादन व्यवस्था तथा विस्तृत बारानी क्षेत्रों में परिस्थितिकीय सन्तुलन को पुरस्थापित करने के दोहो उद्वेश्यों को पूर्ति करता है ।
(४) पुष्कर गैप परियोजना जल प्रबंधन की नीति है । इस परियोजना से वृक्षारोपण, फलदार पौधारोपण, वानस्पतिक अवरोध का काय, पास के उन्नत बीजों की बुआई तथा टील स्थिरीकरण के कार्य सम्पन्न किये जाते हैं ।
(५) पावड़ा परियोजना - जलमग्न क्षेत्रों के पुनवास एवं विकास हेतु राजस्थान सरकार और स्विस डवलप मैंट कारपोरेशन के सहयोग से यह परियोजना चल रहा है ।
इसी क्रम में विशेष चिंता का विषय है कि भूमिगत जल का अतिदोहन है जिसके कारण हमारी भविष्य की खाद्य सुरक्षा संकट में पड़ सकती है । धरती की गहराईयों में विशाल तालाब और नदियां होती है इनमें बरसात का पानी एकत्रित रहता है । ट्यूबवेल से इस जल को निकालना संभव हुआ है । पानी का यह भंडार बैंक में जमा राशि की तरह होता है । आप जितना पैसा डालते हैं उतना ही निकाल सकते हैं । अत: जल को बचाने के लिए देश की भावी पीढ़ियों को आगे आना चाहिए और संसाधनों के संबंध में रचनात्मक नीतियाँ बनाये और अपने वर्तमान उपभोग पर नियंत्रण भी करें ।
पर्यावरण के विभिन्न घटकों में से जल प्रदूषण की बात व समस्या सबसे पहले हमारे सामने आयी । जल की शुद्धता को बनाये रखने वाले विभिन्न अवयवों के संतुलनात्मक स्थिति के गड़बड़ाने के कारण ही जल प्रदूषण हो रहा है । वहां जल तो प्रत्यक्ष रूप से प्रदूषित हो रहा है, विभिन्न अवयवों के रिसकर भूमिगत हो जाने से यह पृथ्वी के अंदर के जल को प्रदूषित करके उसकेे उत्पादों को भी प्रदूषित कर रहे हैं । पृथ्वी के विकास में पानी का अत्यधिक प्राचीन तथा महत्वपूर्ण इतिहास रहा है । जनसंख्या बढ़ोत्तरी के कारण पृथ्वी पर लगभग ७५ प्रतिशत भाग जल से घिरे होने के बाद भी विभिन्न उत्तरदायी कारणों से जलपूर्ति में काफी कमी हो रही है ।
कहा गया है कि जल ही जीवन है । जल के बिना मानों सब कुछ ही शून्य है । वर्तमान समय में जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती हैं । जल एक दुर्लभ संसाधन है इसलिए राज्य के द्वारा जल प्रबंधन नीति पर बल दिया गया है । जल संग्रह प्रबंधन के लिए ऐसी रणनीति बनाई गई जिससे जल कम खर्च हो सके । वर्षा जल के घटने और कुआें से अत्यधिक जल निकासी से भूमि जल स्तर निरन्तर घटता जा रहा है ।
वर्षा के अभाव से उत्पादन एवं उत्पादकता में आने वाली कमी को दूर करने के लिए जल ग्रहण की पहचान एवं इसके समग्र विकास की प्रक्रिया प्रारंभ की गई है । इसके लिए राजस्थान सरकार द्वारा जनवरी, १९९१ में जल ग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग की पृथक से स्थापना की गयी ।
वर्षा के अभाव में उत्पादन एवं उत्पादकता में आने वाली कमी को दूर करने के लिए जल ग्रहण की पहचान एवं इसके समग्र विकास की प्रक्रिया प्रारंभ की गई है । इसके लिए राजस्थान सरकार द्वारा जनवरी, १९९१ में जल ग्रहण विकास एवं भू-सरंक्षण विभाग की पृथक से स्थापना की गयी ।
जल ग्रहण विकास कार्य में गतिविधियाँ कृषि योग्य कृषि भूमि का उपचार, वानस्पतिक अवरोध की स्थापना, ऐलै क्रॉपिंग एवं बाउण्ड्री पर वृक्षारोपण, मिश्रित उद्यान, चारागाह विकास कार्यक्रम, वृक्षारोपण कार्यक्रम, वाटर हार्वेस्टिंग ये सब जल प्रबंधन में सहायक रहे ।
राजस्थान सरकार द्वारा जल प्रबंधन की निम्न नीतियॉ बनाई गई -
(१) समन्वित जल ग्रहण विकास परियोजना - यह परियोजना राजस्थान के चार जिले में चले इसकी स्थापना १९९० ई. में हुई । इस जल प्रबंधन से कई लाभ हुये ।
(२) वानस्पतिक तकनीक का उपयोग करके वर्षा जल का उचित संरक्षण करना तथा भूमि कटाव रोकना ताकि कृषि पैदावार का स्तर बढ़ाया जा सके । सामुदायिक एवं सरकार भूमि पर सामाजिक वानिकी, चारागाह विकास एवं अन्य भूमि उपयोग करके भूमि की उत्पादकता बढ़ाना ।
(३) राष्ट्रीय जल ग्रहण विकास कार्यक्रम - यह कार्यक्रम जैविक पदार्थो की स्थायी उत्पादन व्यवस्था तथा विस्तृत बारानी क्षेत्रों में परिस्थितिकीय सन्तुलन को पुरस्थापित करने के दोहो उद्वेश्यों को पूर्ति करता है ।
(४) पुष्कर गैप परियोजना जल प्रबंधन की नीति है । इस परियोजना से वृक्षारोपण, फलदार पौधारोपण, वानस्पतिक अवरोध का काय, पास के उन्नत बीजों की बुआई तथा टील स्थिरीकरण के कार्य सम्पन्न किये जाते हैं ।
(५) पावड़ा परियोजना - जलमग्न क्षेत्रों के पुनवास एवं विकास हेतु राजस्थान सरकार और स्विस डवलप मैंट कारपोरेशन के सहयोग से यह परियोजना चल रहा है ।
इसी क्रम में विशेष चिंता का विषय है कि भूमिगत जल का अतिदोहन है जिसके कारण हमारी भविष्य की खाद्य सुरक्षा संकट में पड़ सकती है । धरती की गहराईयों में विशाल तालाब और नदियां होती है इनमें बरसात का पानी एकत्रित रहता है । ट्यूबवेल से इस जल को निकालना संभव हुआ है । पानी का यह भंडार बैंक में जमा राशि की तरह होता है । आप जितना पैसा डालते हैं उतना ही निकाल सकते हैं । अत: जल को बचाने के लिए देश की भावी पीढ़ियों को आगे आना चाहिए और संसाधनों के संबंध में रचनात्मक नीतियाँ बनाये और अपने वर्तमान उपभोग पर नियंत्रण भी करें ।
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