जीवाश्म : हमारे काल प्रहरी
डॉ. भोलेश्वर दुबे
हमारा भू-मण्डल कल्पनातीत लम्बा सफर तय करते हुए वर्तमान स्वरूप में पहुंचा है । पृथ्वी पर कई भूगर्भीय और वातावरणीय परिवर्तन हुए । प्राणियों और वनस्पतियों के कई साम्राज्य विकसित और विलुप्त् हुए । पृथ्वी और जीवन की विकास कथा के अनेक पात्र आज भी धरती के गर्भ से पुरातन घटनाआे की कथा बयान कर रहे हैं । समय के ये साक्षी और कोई नहीं, जीवाश्म ही हैं । जीवाश्म के लिए अंग्रेज़ी में फॉसिल शब्द का उपयोग होता है जिसका उद्गम लेटिन शब्द फॉसिलियम से हुआ है। इसका अर्थ ज़मीन की सतह के नीचे से खोदना है । अट्ठारवीं शताब्दी तक जीवाश्म से तात्पर्य अतीत के बड़े जीवों की अस्थियों, कवच, पत्तियों, लकड़ी आदि के रूप में प्राप्त् अवशेष तक सीमित रहा। आगे चलकर सूक्ष्मजीवों के भी जीवाश्म खोज निकाले गए । समय के साथ पृथ्वी पर वनस्पतियों और प्राणियों के अनुक्रमण और विलुप्त् प्रजातियों की जानकारी हमें जीवाश्मों से ही प्राप्त् होती हैं । भौतिक शास्त्र के अनुसार किसी भी वस्तु का अध्ययन चार आयामों - लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई और समय के आधार पर किया जा सकता है । जीवाश्म चारों आयामों को व्यक्त करते हैं । जिस चट्टान में ये उपलब्ध हैं उसकी लम्बाई चौड़ाई, ऊंचाई और उसकी तत्कालीन काल गणना । अध्ययन क्षेत्र के आधार पर समय मापन की सीमाएं घटती बढ़ती रहती हैं । दैनिक जीवन में वर्ष, माह, दिन , मिनट और सेकण्ड के रूप में इसकी गणना करते हैं । यदि हमें पृथ्वी की आयु का आकलन या पृथ्वी पर जीवन के उद्भव काल की गणना करनी हो तो हमें करोड़ों वर्ष पीछे जाना होता है । यह समय न केवल हमारे जीवन काल से वरन कई पीढ़ियों के जीवन काल से भी कई गुना अधिक हैं । अत: इस प्रकार के समय निर्धारण की विधि को जियोलॉजिकल टाइम या भौमिकीय समय कहा जाता है । इतिहासकार जहाँ कुछ हजार वर्षो की घटनाआे का वर्णन करते हैं वहीं पुरावैज्ञानिक भौमिकीय समय सारणी के आधार पर करोड़ों वर्ष पूर्व की जानकारी देते हैं । खगोल वैज्ञानिक तो इनसे भी आगे हैं । वे ब्रह्मांड की उत्पत्ति का समय दस से बीस अरब वर्ष पूर्व बताते हैं ।
अत: समय का मान स्थिति के आधार पर सेकण्ड से लगाकर अरबों वर्ष तक फैला हुआ हैं । पृथ्वी की उम्र लगभग चार अरब वर्ष मानी जाती हैं । उस काल की कोई चट्टान उपलब्ध नहीं है । सबसे पुरातन चट्टान ३.८ अरब वर्ष पुरानी है और जीवाश्म २.५ अरब वर्ष पुराने प्राप्त् हुए है । अत:इस कालावधि में ही पृथ्वी पर जीवन का आरंभ माना जाता हैं । पृथ्वी की उम्र ज्ञात करने के लिए वैज्ञानिक अनेक विधियां अपनाते हैं । इनमें भूमि की विभिन्न गहराइयों के तापमान तथा चालकता में परिवर्तन, नदियों तथा समुद्री जल में घुलित लवणों के आयनों का मापन प्रमुख रही हैं किन्तु इन विधियों से सही उम्र ज्ञात न हो सकी । इस समस्या का सर्वमान्य हल १९९६ में रेडियोधर्मिता की खोज के बाद ही संभव हो सका । इस विधि में कार्बन, यूरेनियम तथा सीसे के आइसोटोप के द्वारा चट्टान व जीवाष्म की उम्र ज्ञात की जाती हैं । जीवाश्म प्राय: तलछटी एवं आग्नेय चट्टानों में पाए जाते हैं । तलछटी चट्टानों की परतों के बीच व ज्वालामुखी के लावा के बहाव में जैविक संरचनाआे के दबने से ये जीवाश्म बनें । चट्टानों के प्रकार व इनके प्रािप्त् स्थल के आधार पर भौमिकीय समय सारिणी में कई नाकरण किए गए हैं । जैसे इंग्लैण्ड व फ्रांस में खड़िया की बड़ी तलछटी चट्टानों को क्रिटेशियस कहा जाता है । कोयले वाली चट्टानें, जिनमें एक मोटाई पर बलुआ पत्थर और चूने की पर्त भी पाई जाती हैं, को कार्बोनिफेरस कहा जाता है । सन् १९६० में भौमिकीय समय सारणी को तीन बड़े काल खण्डों में विभाजित किया गया :-पैलियोजोइक ५७.० करोड़ वर्ष पूर्व प्रारंभमीसोजोइक २२.५ करोड़ वर्ष पूर्व प्रारंभसीनोजोइक ६.५ करोड़ वर्ष पूर्व प्रारंभ वैसे उक्त तीना महाकल्पों के अतिरिक्त एक और महाकल्प माना जाता है जिसे अर्कियोजोइक काल कहते हैं। यह ९०.० करोड़ वर्ष पूर्व माना जाता है जो जीवन विहीन रहा । इन कालखंडों को आगे कल्प और युगों में बांटा गया हैं । जैसे पैलियोजोइक महाकल्प के युग हैं कैम्ब्रियन, ऑरडोविसियन, सिलुरियन, डेवोनिन, कार्बोनिफेरस तथा पर्मियन । प्रत्येक युग में विशेष प्रकार के प्राणी और वनस्पतियों का बाहुल्य रहा जो उस काल की पहचान बनें । मीसोजोइक महाकल्प के जुरासिक युग में वृक्ष फर्न, साइकेड्स, गिन्कगो आदि वनस्पतियों बहुतायत में थी तथा पुष्पीय पौधों का आरंभ हुआ था । इसी काल में प्राणियों में भीमकाय डायनासौर का अस्तित्व रहा जो इस का की पहचान बनें। किसी भी जीवन का जीवाश्मीकरण होना अत्यंत दुर्लभ घटना है । जीवाश्मीकरण के लिए जीव के शरीर में आसानी से विघटित न होने वाले कठोर भाग सहायक होते हैं । रीढ़धारी प्राणियों की अस्थियां और दांत, रीढ़विहीन प्राणियों के बाह्य कवच, पौधों के काष्ठीय भाग व सैलुलोज युक्त पत्तियां आसानी से परिरक्षित हो जाते हैं । कुछ कोमल शरीर वाले रीढ़विहीन प्राणियों, शैवाल, ब्रायोफाइट और जीवाणुआें के भी जीवाश्म उपलब्ध हैं । जीवाश्मीकरण में जीव की शरीर रचना के साथ-साथ वे पर्यावरणीय परिस्थितियां भी महत्वपूर्ण होती हैं जो उस भाग को सड़ने से बचाए और संरक्षित करें । जीवाश्मीकरण के लिए जीव का जमीन में दबना आवश्यक है । इस पर तलछट की परतें क्रमश: जमने लगती हैं। दबने पर मृत शरीर से पानी भी निकल जाता हैं और ऑक्सीजन का भी अभाव हो जाता हैं । ऐसी स्थिति में विघटनकारी जीवाणु और फफूंद सक्रिय नहीं रह पाते। जीव का मृत शरीर जितना जल्दी जमीन में दबता है उतनी ही उसकी जीवाश्म बनने की संभावना अधिक होती हैं । जीवाश्म अक्सर समु्रंद तल, झीलों की गाद, नदियों के मुहानों पर अधिक बनते हैं क्योंकि वहां की परिस्थिति जीवाश्मीकरण के लिए उपयुक्त होती हैं । जीव के प्रकार और पारिस्थितियों के आधार पर कई प्रकार के जीवाश्म पाए जाते हैं । इनमें से प्रमुख हैं: संपीड़क जीवाश्म जो पौधों या अन्य जीवों के तलछट में दबने से बनते हैं । अत: ये चपटे होते हैं । अश्मीभूताश्म या पेट्रिफिकेशन में जीव के भाग की आन्तरिक व ब्राह्य संरचना परिरक्षित रहती हैं । मुद्राश्म में जीवों के अंगों की छाप पाई जाती हैं। जीवाश्म न केवल विगत काल के जीवों से हमारा परिचय कराते हैं अपितु उस समय की पर्यावरणीय स्थितियों का भी लेखा जोखा प्रस्तुत करते हैं । दीर्घकाल से घटित हो रही घटनाआें के विश्वसनीय प्रमाण हैं ये जीवाश्म जो आने वाली पीढ़ियों को आज की स्थिति से अवगत करवाएंगे ।
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