जीवाश्म इंर्धन का संरक्षण और विकल्प
देवेन्द्र थापक
कई बार एक संसाधन की कमी ही विश्व की लोक व्यवस्था को प्रभावित कर देती हैं । हमें इस समस्या के समाधान के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रखना चाहिये, क्योंकि ऊर्जा की समस्या संपूर्ण मानवता के लिए एक चुनौती हैं । हम आधुनिक वैज्ञानिकों के अभिमत से सहमत हो सकते हैं कि इस चुनौती का एकमात्र प्रत्युत्तर केवल ऊर्जा के नये संसाधनों का अविष्कार करना ही नहीं बल्कि हमारी जीवन पद्धति और विचारों को व्यवस्थित करना भी है ताकि हम इतिहास की धारा का मार्ग परिवर्तित कर सके । मृत पेड़-पौधों व जीव जंतुआे के पृथ्वी में उपस्थित विभिन्न परतों में दब जाते हैं । इन परतों में उपस्थित सूक्ष्म जीव द्वारा इन मृत वस्तुआे पर क्रिया द्वारा इंर्धन का उत्पादन किया जाता है । जो कच्च्े तेल के रूप में होता है । इस प्राप्त् कच्च्े माल को विभिन्न शोधनप की प्रक्रिया द्वारा शुद्ध ईधन में परिवर्तित किया जाता है, इसे जीवाश्म इंर्धन कहते है । पृथ्वी में इन सभी वस्तुआे की मात्रा सीमित होती हैं । यदि इन वस्तुआे का बिना प्रबंधन के अंधाधुंध प्रयोग किया जाता है, तो भविष्य में इनके समाप्त् होने का डर रहता है, जो भविष्य में मानव प्रजाति की उन्नति में बाधक होगा । वास्तव, में किसी संसाधन का उपयोग मानव की प्रौद्योगिकी और प्रबंधकीय कुशलता पर निर्भर करता है । अत: अधिकतम जीवाश्म इंर्धन के उपयोग के लिये एक ऐसी दर स्थापित की जानी चाहिये, जिससे ये जीवाश्म ईधन संसाधन पुन: जीवित होते रहे । यदि मानवीय दृष्टि को विशालता प्रदान की जाए, तो जीवाश्म ईधन जहाँ समाप्त् किये जा सकते हैं, तो वहीं सुरक्षित भी रखे जा सकते हैं तथा इन्हें बढ़ाया भी जा सकता है । यह पृथ्वी की एक पूर्ण व्यवस्था है कि नष्ट होने के साथ ही साथ पुन: पोषित होने का चक्र सदैव यहाँ चलता रहता है, परन्तु यह देखना मानव को ही है कि सिर्फ संसाधनों को समाप्त् ही करते जाना, उचित होगा या उसकी तुलना में संसाधनों की पुन: पोषित करने का कार्य भी साथ ही साथ किया जाना श्रेयस्कर होगा । जीवाश्म ईधन को नष्ट करने से कहीं अन्य संसाधनों के उत्पादन में अव्यवस्था पैदा न हो जाए । इन कार्यो से पर्यावरण का संतुलन बिगड़ सकता है। घटते हुए जीवाश्म इंर्धन के विभिन्न खतरों को मानव ने ही पैदा किया है । अत: इसका निवारण भी मानव को ही समय रहते करना होगा । इस क्षेत्र में निम्न उपाय उपयोगी सिद्ध हो सकते है:-
१. प्रकृति के साथ मित्रवत् व्यवहार - जीवाश्म इंर्धन को संतुलित व संरक्षित करने के लिये प्रकृति के साथ मनुष्य द्वारा मित्रवत् व्यवहार उत्पन्न किया जाना चाहिये ।
२. उचित पर्यावरण प्रबंध - पर्यावरण का ऐसा प्रबंध किया जाना चाहिये, जिससे कि आने वाली पीढ़ियाँ भी इसका उपयोग कर सके । इसके लिये जंगल के उत्पादित क्षेत्र में वृद्धि करना, जिससे पृथ्वी के अधिक से अधिक क्षेत्र में कच्च्े इंर्धन की उत्पादित करने वाले क्षेत्र बने ।
३. उपलब्ध जीवाश्म इंर्धन क्षेत्रों का बेहतर प्रबंधन करना ताकि कम मूल्य पर व्यापक इंर्धन की प्रािप्त् हो सके ।
४. प्राकृतिक तेल, कुंओ में लगने वाली आग की रोकथाम करना व इसके कारण को हटाना जिससे आवश्यक इंर्धन की हानि को रोका जा सके ।
५. विश्व स्तर पर बढ़ती जनसंख्या को रोका जावे, जाकि ऊर्जा का बढ़ता उपयोग को रोका जा सके ।
६. प्राकृतिक केन्द्रो की स्थापना - पांच से पचास हजार क्षेत्रफल की भूमि पर प्राकृतिक केन्द्रों की स्थापना की जानी चाहिये, जिससे नगरों और बस्तियों के पास ही इंर्धन संरक्षण की शिक्षा प्राकृतिक स्थितियों में ही दी जा सके ।
७. नेचर क्लबों की स्थापना - नेचर क्लबों, नेचर केम्पों आदि की स्थापना एवं उनका संगठन किया जाना चाहिये, जो विभिन्न क्षेत्रों में जाकर आम नागरिकों की भागीदारी प्राप्त् कर सकें तथा जिनसे आवश्यक जानकारियाँ उन्हें प्रदान कर सकें । प्रकृति के संबंध में संजोये अनुभवों को बांटने में पर्यावरणीय समस्याआे को समझने-सुलझाने में ऐसे प्रभावशाली व्यक्तियों को सम्मिलित किया जना चाहिये, जो अपने क्षेत्र विशेष दक्षता रखते हैं ।
पारिस्थितिकी - संतुलन एवं वैकल्पिक इंर्धन :- भारत में स्थानीय आवश्यकताआें की पूर्ति एवं पारिस्थिति की संतुलन हेतु इंर्धन के वैकल्पिक साधनों के लिए गंभारत से सोचने की परम आवश्यकता है ।
इंर्धन के विभिन्न स्त्रोतों : जैसे पवन चक्कियों के प्रयोग से हम तेल-इंर्धन से उत्पन्न प्रदूषण से बच सकते हैं । ऊर्जा या इंर्धन के वैकल्पिक स्त्रोत प्रमुख रूप से सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा एवं बायोगैस, भूतापीय ऊर्जा आदि है । वैसे अणु ऊर्जा भी समाप्त् न होने वाले इंर्धन की श्रेणी में है, परन्तु इसके अपशिष्टों को ठिकाने लगाना और इससे होने वाले संभावित प्रदूषण को नियंत्रित रखना एक विकट समस्या है ।
सौर ऊर्जा :- सूर्य से प्राप्त् ऊर्जा का प्रयोग वैकल्पिक इंर्धन के रूप में होता है, ऐसा अनुमान है कि सूर्य अगले एक हजार करोड़ वर्षो तक अपनी वर्तमान दर से ऊर्जा का उत्सर्जन करता रहेगा । अत: इस वैकल्पिक ऊर्जा को सस्ती एवं प्रदूषण रहित है, का उपयोग भारतीय लोगों के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है ।
पवन ऊर्जा :- पानी के पम्प तथा शक्ति में वृद्धि करने हेतु इसका उपयोग किया जा सकता है । देश में पाँच पवन फार्म स्थापित है । इनकी स्थापना गुजरात, तमिलनाडू, महाराष्ट्र एवं उड़ीसा में की गई है, तथा ये बहुत ही कम समय में तैयार होकर काम में आ रहे हैं ।
समुद्री ताप की ऊर्जा :- हमारे देश में समुद्री ताप का ऊर्जा में परिवर्तन करके उसका उपयोग करने की पर्याप्त् क्षमता विद्यमान है । यह ऊर्जा पैदा करने हेतु भारत में कुछ ऐसे स्थल है, जो विश्व के अन्य देशों में नहीं हो सकते लक्षदीप और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के पास के स्थल उक्त कार्य के लिये उपर्युक्त है ।
जलधारा से उत्पन्न इंर्धन :- भारत के पश्चिम में समुद्री तट पर चंबल एवं कच्छ की बड़ी खाड़ियाँ है । पूर्वी भाग में गंगा का बहाव है । प्रारंभिक अध्ययन से यह तथ्य स्थापित हुआ है कि लघु जलधारा से भी ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है । देश के पूर्वीभाग, सुंदर वन क्षेत्र में इसका विकास हो रहा है । इस संबंध में उक्त ऊर्जा की क्षमता, उसकी लागत तथा उसके विकास की गति इन तीनों पहलुआें से यह जीवाश्म इंर्धन से बेहतर है । पंचवर्षीय योजना में छोटे हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट्स को अपेक्षाकृत अधिक प्रोत्साहित किया जाता है ।
जानवरों की शक्ति का इंर्धन के रूप में उपयोग :- ग्रामीण क्षेत्रों में परम्परागत यातायात एवं खेत जोतने में जानवरों का उपयोग चिरकाल से होता आया है । कुंआे से पानी, पशुआे की सहायता से निकालना, खेत जोतना, आदि कार्यो में उपयोग किया जा सकता है ।
अत: उपरोक्त वर्णित तथ्यों को देखें तो हमें घटते हुए जीवाश्म इंर्धन का नियोजित संरक्षण करना होगा एवं वैकल्पिक इंर्धन के नये स्त्रोतों का पता लगाने के साथ ही नये ऊर्जा संरक्षणों को अपनाना होगा । तभी हम भावी पीढ़ियों के लिये ऊर्जा संरक्षित कर सकेंगे ।
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